सोमयाग ऋषि दयानन्द प्रतिपादित यज्ञ

शान्तिधाम आर्यजगत् के लिये अब अपरिचित नाम नहीं है। यह इसके संस्थापक अनन्त आर्य के पुरुषार्थ और निष्ठा का परिणाम है। उन्होंने राष्ट्रीय संरक्षित वन प्रदेश के मध्य एक गाँव की निजी भूमि को खोजकर उसे क्रय किया। गाँव के लोग जंगली जानवरों के उत्पात के कारण गाँव छोड़कर बहुत पहले जा चुके थे, बाद के लोगों को पता भी नहीं था कि उनका कोई गाँव और उनकी जमीन भी है। ऐसी भूमि को खोजकर खरीदा और साठ एकड़ भूमि से आधी भूमि पर गुरुकुल की स्थापना की। आज अपने सहयोगियों के साथ श्री सत्यव्रत, श्री राधाकृष्ण आदि के पुरुषार्थ से स्वामी धर्मदेव के मार्गदर्शन में गुरुकुल चल रहा है। गुरुकुल का क्षेत्र कावेरी नदी के तट पर चारों ओर फैली पर्वतमाला के मध्य प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है। यहाँ पर सोमयाग का आयोजन गत अनेक वर्षों से निरन्तर हो रहा है। सोमयाग की परम्परा तो बहुत पुरानी है। इस यज्ञ को सम्पन्न करने वाले परिवार आहिताग्नि होते हैं, जो अपने जीवन में दोनों समय यज्ञ करने का संकल्प ले चुके होते हैं। ऐसे लोग केवल पौराणिक परम्परा में ही शेष हैं। सस्वर वेदपाठ और यज्ञीय कर्मकाण्ड परम्परा को इन लोगों ने सुरक्षित रखा है। ये लोग कर्नाटक, महाराष्ट्र में तो अधिक हैं ही, अन्य दक्षिण भारत में भी कहीं-कहीं हैं।

आर्यसमाज में ऋषि दयानन्द ने इनकी चर्चा की है। अग्निहोत्र से अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ करने का विधान भी किया है। ऋषि ने शाहपुराधीश के यहाँ इस प्रकार का यज्ञ कराया है। आज भी शाहपुरा के महल में इस प्रकार की वेदी बनी हुई है। शाहपुरा में एक अन्य भवन में भी इस यज्ञ के तीनों कुण्ड बने हुए हैं, परन्तु आर्यसमाज में इस प्रकार के यज्ञों की कोई परम्परा नहीं चली और आर्यसमाज के लोग इसे पाखण्ड मात्र समझकर इसमें कोई उत्सुकता भी नहीं रखते थे। पं. ब्रह्मदत्त  जिज्ञासु जी अपने यहाँ शतपथ, मीमांसा, तैत्तरीय  संहिता आदि को पढ़ाते हुए अपने शिष्यों को इन यज्ञों को देखने के लिए प्रेरित करते थे। इस परम्परा को पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने आगे बढ़ाया, ऐसे यज्ञ करने वालों से सम्पर्क स्थापित किया और उनके आयोजनों में सम्मिलित होते रहे, जिसके परिणामस्वरूप इनसे पण्डित जी का आत्मीयभाव बढ़ा। सेलूकर जी, श्रौती जी आदि पण्डित जी के मित्रों में सम्मिलित रहे। सेलूकर एक बार अजमेर पधारे, तब सात दिन तक ऋषि उद्यान में रहकर यज्ञशाला में प्रवचन देते रहे। इस प्रकार इस कर्मकाण्ड से आर्यसमाज के विद्वानों का सम्पर्क हुआ और वह सम्पर्क बढ़ता रहा। जहाँ-जहाँ भी इस प्रकार के यज्ञों का आयोजन होता रहता है, वहाँ-वहाँ आर्यसमाज के विद्वान् और छात्रगण उसे देखने जाते रहते हैं। इससे कर्मकाण्ड के ग्रन्थों का पठन-पाठन भी आर्यसमाज के विद्वान् करने लगे हैं। पं. मीमांसक जी ने लिखा है- सबसे पहले पं. सत्यव्रत जी ने श्रौतयज्ञों के परिचय पर पुस्तक लिखी थी। उसके पश्चात् तो मीमांसक जी ने तथा आचार्य विजयपाल जी ने श्रौत यज्ञों को देखकर उनका परिचय विस्तार से लिखा, जो वेदवाणी और पुस्तक रूप में पाठकों को सुलभ है।

शान्तिधाम के यज्ञ करने वालों का परिचय स्वतन्त्र रूप से है। शान्तिधाम के परिचय में बैंगलूर के कृष्ण भट्ट जी आये और उन्होंने सस्वर वेदपाठ के मह व से संस्था संचालकों को अवगत कराया। आयोजकों को लगा कि वेद पढ़ना है तो सस्वर ही क्यों न पढ़ा जाय? संचालकों ने इन परम्परागत वेदपाठियों से अपने छात्रों को वेदपाठ सिखाना प्रारम्भ किया। निकट आने पर इन विद्वानों में से आर्यसमाज के प्रति जो दुर्भाव बना हुआ था, वह कम हुआ।

सस्वर वेदपाठ के शिक्षण के साथ श्रौत यज्ञों की परम्परा भी जाननी चाहिए, इस भावना से शान्तिधाम के संचालकों ने आयोजकों से केरल में बड़े सोमयाग का आयोजन कराया। फिर अनेक स्थानों पर छोटे-बड़े आयोजन संस्था के सहयोग से होते रहे। वर्तमान में पाँच वर्षों से सोमयाग का आयोजन शान्तिधाम में हो रहा है। सारा व्यय यज्ञ करने-कराने वाले उठाते हैं। स्थान, आवास आदि की सुविधा गुरुकुल की ओर से दी जाती है। जो लोग यज्ञ को देखने जाते हैं, उनके भोजन, आवास आदि की व्यवस्था संस्था उदारता से करती है। स्थानीय परम्परा के अनुसार भोजन की विविधता और प्रचुरता अतिथियों को प्रसन्न और सन्तुष्ट करने वाली होती है। इन श्रौत यागों के आयोजन में एक और बात ध्यान देने योग्य है। ये यज्ञ कुछ लोग हिंसा करके करते हैं, कुछ लोग बिना हिंसा के करते हैं। शान्तिधाम के आयोजन में हिंसा नहीं थी, वे हिंसा की क्रियायें प्रतीकों से सम्पन्न करते हैं। वायवीय पशुयाग में आज्य पशु, अर्थात् एक पात्र में घी भर के उसे ही पशु मान लेते हैं, उसी की आहुति देते हैं। इसी प्रकार श्येनयाग के आयोजन में चिति निर्माण करते हुए, कछुआ तो जीवित रखा था। कहते हैं- वह अपने-आप नीचे निकल जाता है। एक मेढ़क को एक कुशा के थैले में डाल कर उसे वेदी पर घुमाया गया, परन्तु बाद में उसे छोड़ दिया गया। वेदी निर्माण करते हुए मनुष्य का, गाय का, बकरी का, घोड़े का, भेड़ का सिर-ये सब खिलौने के बने हुए थे, जिन्हें वेदी के अन्दर दबाया गया। दूध के लिए गाय और बकरी भी प्रतीक के रूप में बाँधी गईं। दूध तो बोतल में लाकर ही वेदी की अग्नि में डाला जाता था।

इस यज्ञ में जो विशेष आयोजन संस्था की ओर से किया गया था, वह था सोमयाग विषय पर गोष्ठी। इसमें अनेक स्थानीय विद्वानों के साथ आर्यसमाज के विद्वान् और सान्दीपनी वेद विद्या प्रतिष्ठान के सचिव डॉ. रूपकिशोर शास्त्री भी उपस्थित थे, जो गोष्ठी के अध्यक्ष थे। डॉ. रूपकिशोर जी के पुरुषार्थ से सस्वर वेद पाठशालाओं की एक लम्बी शृंखला स्थापित हो चुकी है, विशेष रूप से पौराणिक पाठशालाओं में कन्याओं को वेद सिखाने की परम्परा आपकी ऐतिहासिक उपल        िध है। आपने अपनी प्रेरणा और दूसरों के सहयोग से आर्य संस्थाओं में भी बालकों के साथ बलिकाओं के सस्वर वेद सीखने की व्यवस्था कराई, यह वेद की सेवा का अच्छा उदाहरण है। इस गोष्ठी में आचार्य सनत्कुमार जी अपनी शिष्य मण्डली के साथ उपस्थित थे। आपने दृश्य उपकरणों से सोमयाग का परिचय और उसके वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डाला। इसके अतिरिक्त दो विश्वविद्यालयों के कुलपति तथा अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक भी इस गोष्ठी में उपस्थित थे, जिन्होंने अपने शोधपूर्ण विचार गोष्ठी में प्रस्तुत किये, जिन्हें श्रोताओं ने बड़ी रुचि से सुना। इनमें मीमांसा मर्मज्ञ वासुदेव पराञ्जपे भी थे। इस यज्ञ और गोष्ठी के अवसर पर एक विचार सामने आया, जिससे ऐसा लगने लगा कि कुछ लोग समझते हैं, वेद को सस्वर पढ़ना ही शुद्धता की कसौटी है, बिना स्वर के वेद पढ़ना अशुद्ध है। इसी तर्क के आधार पर यह भी कहा गया कि जैसे वेद बिना स्वर के पढ़ना गलती है, वैसे ही कर्मकाण्ड की रीति को छोड़कर यज्ञ करना भी अशुद्ध है। यह विचार घातक है और ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के कार्यों को व्यर्थ करने वाला है। हमें प्रथम यह समझना चाहिए कि वेद है किसके लिए? वेद परमेश्वर का ज्ञान है, वेद मनुष्य मात्र के लिये है। यदि आप मनुष्य को वेद से दूर करते हैं तो आपका विधि-विधान वेद के प्रयोजन को सिद्ध नहीं करता, अतः ग्राह्य नहीं है। हमें समझना चाहिए कि वेद और यज्ञ में एक सतत सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों  में वेद सिद्धान्त है, ज्ञान है तो यज्ञ कर्म है। यज्ञ वेद का ज्ञानपूर्वक किया गया कर्म होने से यज्ञ वेद का व्यावहारिक या प्रायोगिक रूप है। वेद में ज्ञान या विज्ञान है तो विज्ञानपूर्वक यज्ञ किया जा सकता है, परन्तु सामान्य व्यक्ति के लिए भी तो वेद है, सामान्य व्यक्ति के लिये भी यज्ञ है, फिर उसको कैसे वञ्चित कर सकते हैं? पराम्परागत कर्मकाण्ड जहाँ लाखों रुपये व्यय करके बड़े-बड़े वेदज्ञों, वेदपाठियों द्वारा सम्पन्न किया जाता है तो सामान्य जनता के लिये क्या होगा? यज्ञ तो जनता के लिये कहा गया है। यह ठीक है कि कोई पढ़कर विशेषज्ञ, विद्वान् बनता है, परन्तु कोई कम पढ़कर सामान्य भी रहता है। जैसे पढ़ने का विशेषज्ञता से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है, उसी प्रकार वेद और यज्ञ के भी सामान्य-विशेष दोनों से सम्बन्ध हैं।

पौराणिक परम्परा को ही ठीक और अन्तिम नहीं माना जा सकता। इन यज्ञों में हिंसा का विधान करके इनको भी तो विकृत किया गया है। ऋषि दयानन्द ने इस एकाधिकार को ही तो तोड़ा है। सब वेद सस्वर नहीं पढ़ सकते, परन्तु जो सस्वर पढ़ते हैं, वे भी तो अर्थज्ञान से रहित होने के कारण अधूरे हैं। केवल सस्वर वेद पढ़कर कर्मकाण्ड करने से तो वेद का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। स्वर और कर्मकाण्ड अर्थज्ञान में सहायक हैं, इसलिए स्वीकार्य हैं। अर्थज्ञान के बिना स्वर और कर्मकाण्ड का कितना मह                    व रह जायेगा, ऋषि दयानन्द ने इसी अर्थ के पक्ष को ही हमारे सामने रखा है। उन्होंने मनुष्य मात्र को वेद पढ़ने और यज्ञ करने का अधिकार दिया है तो वह वेद वैसा ही तो पढ़ेगा, जैसा उसे आता है, यज्ञ भी उतना ही कर पायेगा, जितनी उसे जानकारी है। उसकी जानकारी कम है, केवल इसिलिये उसे उसके अधिकार से वञ्चित नहीं किया जा सकता। अधिक जानेगा तो अधिक लाभ उठा सकेगा, कम जानेगा तो कम लाभ ले पायेगा। स्वामी दयानन्द संस्कार विधि के सामान्य प्रकरण में यज्ञ की विधि बताते हुए निर्देश करते हैं कि ‘‘सब संस्कारों में मधुर स्वर से मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे। न शीघ्र, न विलम्ब से उच्चारण करें, किन्तु मध्य भाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करें। यदि यजमान पढ़ा हो तो इतने मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यक    र्ाा जड़, मन्दमति, काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो, तो वह शूद्र है, अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो, तो पुरोहित और ऋत्विज मन्त्रोच्चारण करें और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावें।’’ क्या इस ऋषि वाक्य को सस्वर वेद पाठ और कर्मकाण्ड के सामने मिथ्या कर देंगे? ऋषि दयानन्द कन्याओं को वेद पढ़ाने का आग्रह करते हैं, इतना ही नहीं, ऋषि दयानन्द ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेदाध्ययन के अधिकार की चर्चा करते हुए सबको, मनुष्य मात्र स्त्री-पुरुषों को वेद पढ़ने का अधिकार प्रतिपादित करते हैं और यथेमां मन्त्र की व्याख्या में मनुष्य को अपने परिवार के लोगों के साथ अपने घर के सेवक और मजदूर को भी वेद पढ़ाने का निर्देश देते हैं। क्या ऐसी परिस्थिति में नौकर सस्वर वेद पढ़ेंगे या विधिपूर्वक यज्ञ करेंगे? वे जैसा जानते हैं, वैसा ही तो कर पायेंगे।

स्वामी दयानन्द का निर्देश वेद से है, अतः बाकी शास्त्र या परम्परा उसके सामने गौण है। वेद का आदेश स्वतः प्रमाण है। क्या ऋषि दयानन्द व्यवस्था देने के अधिकारी नहीं हैं? ऋषि दयानन्द से किसी आचार्य का मन्तव्य मेल नहीं खाता या विरोधी लगता है तो उसे विरोध न समझकर मत भिन्नता भी तो समझा जा सकता है। फिर इन यज्ञों के देखने या सस्वर वेद पढ़ने से आर्य समाज में चल रही परम्परा को अशुद्ध क्यों मानना चाहिए? जहाँ सस्वर वेदपाठ हमारा उत्कर्ष है, वहाँ तक पहुँचाने का मार्ग ऋषि दयानन्द को दिये अधिकार के द्वारा प्रशस्त किया गया है, अतः इस भ्रम की कोई सम्भावना नहीं है कि आर्यसमाज की यज्ञ परम्परा या वेदपाठ अशुद्ध या अग्राह्य है। कर्मकाण्ड भी वेद को समझने के लिये ही हैं। पूरे शतपथ ब्राह्मण में मन्त्रों के माध्यम से यज्ञ की क्रियाओं को मन्त्रों के साथ जोड़कर अभिप्राय को समझाया जा रहा है। मन्त्र, उसका अर्थ, यज्ञ की क्रिया में मन्त्रार्थ की संगति, मन्त्र के अर्थ और यज्ञ की क्रिया का जगत् में चल रहे निरन्तर यज्ञ से उसकी समानता बताना यज्ञ का उद्देश्य है। इस बात को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द ने यज्ञ में मन्त्रों का विनियोग किया है। महर्षि दयानन्द ने यज्ञ में कर्मकाण्ड के साथ वेद मन्त्रों का विनियोग करते हुए यज्ञ से परमेश्वर की उपासना का होना कहा है। इस प्रकार महर्षि दयानन्द का यज्ञ विधान अधिक वैदिक व उत्कृष्ट है।

मनु महाराज ने वेद को समस्त धर्म का मूल कहा है। जिसका भी धर्म से सम्बन्ध है, उसका वेद से सीधा सम्बन्ध है। वेद के प्रकाश में मनुष्य कार्य कर सकता है। जैसे सूर्य के प्रकाश के बिना मनुष्य कार्य करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार वेदरूपी ज्ञान चक्षुओं के बिना मनुष्य उचित-अनुचित का विवेक करने में असमर्थ रहा है। मध्य काल में समाज के एक वर्ग ने लोगों के ज्ञान चक्षुओं को छीन कर समाज को गहरे अन्धकार में धकेल दिया था, ऋषि दयानन्द ने उस अन्धे समाज को वेद रूपी ज्ञान चक्षु पुनः प्रदान किये। किसी भी प्रकार से इस अधिकार को क्षति पहुँचाना वेद विरोधी कार्य होगा, चाहे वह वेद के नाम पर ही क्यों न किया गया हो। हमें मनु के इन शब्दों  को सदा स्मरण रखना चाहिए-

पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्।

अशक्यञ्चाप्रमेयञ्च वेदशास्त्रमिति स्थितिः।।

– धर्मवीर

4 thoughts on “सोमयाग ऋषि दयानन्द प्रतिपादित यज्ञ”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *