शव का दाह-कर्म ही होगा

शव का दाह-कर्म ही होगा

मारीशस में सरकारी नियमानुसार किसी शव का दाह-कर्म नहीं किया जा सकता था। बीसवीं शताज़्दी के आरज़्भ की घटना है कि मारीशस में एक सैनिक टुकड़ी आई। इनमें से किसी की मृत्यु हो गई। नियमानुसार उसे दबाने के लिए कहा गया। आर्यवीर सैनिकों ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने पुलिस की सहायता से शव को भूमि में गाड़ना चाहा, परन्तु ये सैनिक विद्रोह पर तुल गये। सरकार को ललकारा-देखते हैं कि हमारा शव कौन छूता है? सरकार झुक गई। आर्यों की मारीशस में यह पहली बड़ी जीत थी। मारीशस में यह प्रथम दाह-कर्म था।

यही लोग जाते-जाते सत्यार्थप्रकाश की एक प्रति दो-एक मित्रों को दे गये। आर्यसमाज का बीज बोनेवाले यही थे। आज तो- लहलहाती है खेती दयानन्द की।

निश्चय ही ये सब लोग नींव के पत्थर थे। कृतज्ञता इस बात की माँग करती है कि मैं पाठकों को यह स्मरण कराऊँ कि स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज केवल सेनानी के रूप में ही इतिहास

बनानेवाले न थे, अपितु इतिहास के गज़्भीर विद्वान् तथा इतिहास को सुरक्षित करनेवाले भी थे। मारीशस को भारत से जोड़नेवाले, इस द्वीप के महज़्व को समझने व समझानेवाले तथा इसका इतिहास व भूगोल लिखनेवाले वे प्रथम भारतीय विद्वान् व नेता थे। उस दूरदर्शी साधु की दृष्टि ने तब मारीशस का महज़्व जाना जब भारत के सब राजनैतिक नेता गहरी नींद में सोये हुए थे। यह उपर्युक्त सब सामग्री उन्हीं की पुस्तक से ली गई है।

HADEES : A MUSLIM AND THE DEATH PENALTY

A MUSLIM AND THE DEATH PENALTY

A Muslim who �bears testimony to the fact that there is no God but Allah, and I [Muhammad] am the Messenger of Allah,� can be punished with the death penalty only if he is a married adulterer, or if he has killed someone (i.e., someone who is a Muslim, according to many jurists), or if he is a deserter from Islam (4152-4155).  The translator tells us that there is almost a consensus of opinion among the jurists that apostasy from Islam must be punished with death.  Those who think such a punishment is barbarous should read the translator�s justification and rationale for it (note 2132).

author : ram swarup

हदीस : मुहम्मद की आखि़री वसीयत

मुहम्मद की आखि़री वसीयत

एक जुमेरात को जब उनकी बीमारी भयानक हो उठी, तो मुहम्मद ने कहा-“मैं तीन बातों के बारे में वसीयत करता हूं। बहुदेववादियों को अरब के इलाक़े से निकाल बाहर करो, विदेशी प्रतिनिधियों की वैसी ही मेज़बानी करो जैसी मैं करता रहा हूं।“ तीसरी बात हदीस सुनाने वाला भूल गया (4014)।

 

मुहम्मद अपने आखि़री क्षणों में एक वसीयत भी लिखना चाहते थे। उन्होंने लिखने के उपकरण मांगते हुए कहा-“आओ, मैं तुम्हारे लिए एक दस्तावेज लिख जाता हूं। उसके बाद तुम गुमराह नहीं होंगे।“ लेकिन उमर ने, जो वहां मौजूद थे, कहा कि लोगों के पास कुरान पहले से ही है। उमर ने इस बात पर ज़ोर दिया कि ”अल्लाह की किताब हमारे लिए काफ़ी है“, और मुहम्मद को उस नाजुक हालत में परेशान नहीं करना चाहिए। जब उनके बिस्तर के इर्द-गिर्द एकत्र लोग आपस में वाद-विवाद करने लगे तो मुहम्मद ने उनसे कहा-”उठो और बाहर चले जाओ“ (4016)।

 

मुमकिन है कि उमर मृतप्राय व्यक्ति के प्रति सच्ची संवेदना से भर उठे हों। लेकिन बाद में अली के समर्थकों ने दावा किया कि मुहम्मद अपनी आखिरी वसीयत में अली को अपना वारिस बनाना चाहते थे और उमर ने अबू बकर से सांठ-गांठ करके एक गंदी चाल द्वारा उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।

author : ram swarup

 

1मारीशस में आर्यसमाज

1मारीशस में आर्यसमाज

जब सैनिक विद्रोह पर तुल गये पूज्यपाद स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने लिखा है, ‘‘मारीशस

में आर्यसमाज की स्थापना उसी भाँति हुई जैसे हवा कहीं से किसी बीज को उड़ाकर ले-जाए और किसी दूर की भूमि पर जा पटके और वह बीज वहाँ ही उग आये।’’ मारीशस में आर्यसमाज का बीज बोने और उसे अंकुरित करनेवाले महारथी थे-श्री रामशरणजी मोती, वीर खेमलालजी वकील, श्री केहरसिंह (गाँव चिदा, जिला फिरोज़पुर, पञ्जाब), श्रीरामजीलाल तथा श्री चुन्नीलाल आदि (चीमनी ज़िला हिसार, हरियाणा के) श्री लेखरामजी (आदमपुर गाँव, ज़िला हिसार, हरियाणा), श्री हरनाम सिंह (झज्झर, हरियाणा के), श्री मंसासिंहजी जालन्धर, ज़िला पञ्जाब के तथा श्री गुरप्रसाद गोपालजी आदि मारीशस-निवासी थे।

श्री रामशरणजी मोती ने पञ्जाब से कुछ पुस्तकें मँगवाई थीं। उनमें रद्दी में आर्यपत्रिका लाहौर के कुछ पन्ने थे। इन्हें पढ़कर वे प्रभावित हुए। उस दुकानदार से उन्होंने ‘आर्यपत्रिका’ का पता

लगाया। इस पत्रिका को पढ़ते-पढ़ते वे आर्यसमाजी बन गये। साहस के अङ्गारे वीर खेमलालजी के आर्य बनने की कहानी विचित्र है। एक सैनिक टोली मीराशस आई। उनमें कुछ आर्यपुरुष

भी थे। उनकी बदली हो गई। जाते-जाते वे कुछ पुस्तकें वहीं दे गये। श्री भोलानाथ हवलदार एक सत्यार्थप्रकाश की प्रति श्री खेमलाल को दे गये।

श्री जेमलाल सत्यार्थप्रकाश पढ़कर दृढ़ आर्य बन गये। श्री रामशरण मोती ने रिवरदी जाँगील में आर्यसमाज का आरज़्भ किया तो ज़ेमलालजी ने मारीशस की राजधानी पोर्ट लुइस व ज़्यूर

पाइप में वेद-ध्वजा फहरा दी। पोर्ट लुइस के आर्यपुरुष एक होटल में एकत्र होते थे। ये लोग पाखण्ड-ज़ण्डन खूब करते थे। पोप शज़्द तो सत्यार्थप्रकाश में है ही। वीतराग स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने लिखा है कि इन धर्मवीरों ने पोप के अनुयायियों के लिए ‘पोपियाँ’

शज़्द और गढ़ लिया।

मेरी पाठकों से, आर्य कवियों से व लेखकों से सानुरोध प्रार्थना है कि मारीशस के उन दिलजले दीवानों की स्मृति को स्थिर बनाने के लिए पोप के चेलों के लिए ‘पोपियाँ’ शज़्द का ही प्रयोग किया करें। इस शज़्द को साहित्य में स्थायी स्थान देना चाहिए। अभी से गद्य के साथ पद्य में भी इस अद्भुत शज़्द के प्रयोग का आन्दोलन मैं ही आरज़्भ करता हूँ-

विश्व ने देखा कि पोपों के सभी गढ़ ढह गये।

पोप दल और पोपियाँ सारे बिलखते रह गये॥

वेद के सद्ज्ञान से फिर लोक आलोकित हुआ।

मस्तिष्क मन मानव का जब फिर धर्म से शोभित हुआ॥

HADEES: QISAS

QISAS

QisAs literally means �tracking the footsteps of an enemy�; but technically, in Muslim law, it is retaliatory punishment, an eye for an eye.  It is the lex talionis of the Mosaic law.

A Jew smashed the head of an ansAr girl and she died.  Muhammad commanded that his head be crushed between two stones (4138).  But in another case, which involved the sister of one of the Companions, bloodwite was allowed.  She had broken someone�s teeth.  When the case was brought to Muhammad, he told her that �QisAs [retaliation] was a command prescribed in the Book of Allah.� She made urgent pleas and was allowed to go free after paying a money compensation to the victim�s next of kin (4151).

author : ram swarup

हदीस : क़र्जे

क़र्जे

मुहम्मद मृतक के कर्जों के मामले में बहुत सतर्क थे। मृत व्यक्ति की संपत्ति में से उसके अंतिम संस्कारों के खर्च निकालने के बाद उसके कर्जों की अदायगी सबसे पहले की जाती थी। अगर उसकी संपत्ति कर्जों की अदायगी के लिए काफ़ी न हो तो चंदे से पैसा जुटाया जाता था। किन्तु लड़ाइयां जीतने के बाद मुहम्मद जब धनी हो गये तो कर्ज़ वे अपने पास से चुकता कर देते थे। उन्होंने कहा-”जब अल्लाह ने जीत के दरवाजे मेरे लिए खोल दिये तो उसने कहा कि मैं मोमिनों के अधिक नज़दीक हूं, इसलिए अगर कोई क़र्ज़ छोड़कर मर जाता है तो उसकी अदायगी मेरी ज़िम्मेदारी है और अगर कोई जायदाद छोड़ कर मरे तो वह उसके वारिसों को मिलेगी“ (3944)।

author : ram swarup

‘आर्यसमाज के नियम’1

‘आर्यसमाज के नियम’1

1904 ई0 में आर्यसमाज टोहाना की स्थापना हुई। शीघ्र ही यह नगर वैदिक धर्मप्रचार का भारत-विज़्यात केन्द्र बन गया। नगर तथा समीपवर्ती ग्रामों में भी शास्त्रार्थ होते रहे। 1908 ई0 में टोहाना में एक भारी शास्त्रार्थ हुआ। पौराणिकों की ओर से पण्डित श्री लक्ष्मीनारायणजी बोले। आर्यसमाज की ओर से पण्डित श्री राजाराम डी0ए0वी0 कालेज, लाहौर के प्राध्यापक ने वैदिक पक्ष रखा।

शास्त्रार्थ के प्रधान थे श्री उदमीराम पटवारी। पण्डित राजारामजी ने पूछा ‘‘शास्त्रार्थ किस विषय पर होगा?’’ पं0 लक्ष्मीनारायण जी ने कहा-‘‘आर्यसमाज के नियमों पर।’’

पण्डित राजारामजी ने कहा, हमारे नियम तो आप भी मानते हैं। शास्त्रार्थ तो ऐसे विषय पर ही हो सकता है जिसपर आपका हमसे मतभेद हो। ऐसे चार विषय हैं-(1) मूर्ज़िपूजा (2) मृतक-

श्राद्ध, (3) वर्णव्यवस्था और (4) विधवा-विवाह।’’

पौराणिक पण्डित ने कहा ‘‘हम आपका एक भी नियम नहीं मानते।’’ सूझबूझ के धनी पण्डित राजारामजी ने अत्यन्त शान्ति से शास्त्रार्थ के प्रधान श्री उदमीरामजी पटवारी से कहा-‘‘ज़्यों जी!

आप हमारा कोई भी नियम नहीं मानते?’’ पटवारीजी ने भी आर्यसमाज के प्रति द्वेष के आवेश में आकर कहा-‘‘हम आर्यसमाज का एक भी सिद्धान्त नहीं मानते।’’

पण्डित राजारामजी ने कहा-‘‘लिखकर दो।’’

पटवारीजी ने अविलज़्ब लिखकर दे दिया। पण्डित राजारामजी ने उनका लिखा हुआ सभा में पढ़कर सुना दिया कि हम आर्यसमाज का एक भी सिद्धान्त नहीं मानते। तब पण्डित राजारामजी ने श्रोताओं को सज़्बोधित करते हुए कहा, आर्यसमाज का सिद्धान्त है ‘वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।’

पौराणिकों का मत यह हुआ कि न वेद को न पढ़ना न पढ़ाना, न सुनना न सुनाना। आर्यसमाज का नियम है ‘सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।’ पौराणिक मत का सिद्धान्त बना ‘असत्य को स्वीकार करने व सत्य के परित्याग में सदैव तत्पर रहना चाहिए।’

श्रोताओं को पण्डित राजारामजी की युक्ति ने जीत लिया। इस शास्त्रार्थ ने कई मनुष्यों के जीवन की काया पलट दी।

आर्यसमाज के अद्वितीय शास्त्रार्थ महारथी श्री मनसारामजी पर कुछ-कुछ तो पहले ही वैदिक धर्म का प्रभाव था, इस शास्त्रार्थ को सुनकर तरुण मनसाराम के जीवन में एकदम नया मोड़ आया और उसने अपना जीवन ऋषि दयानन्द के उद्देश्य की पूर्ति के लिए समर्पित कर दिया। पटवारी उदमीरामजी की सन्तान ने आगे चलकर वैदिक धर्म के प्रचार में अपने-आपको लगा दिया। आर्यसमाज नयाबाँस दिल्ली के श्री दिलीपचन्दजी उन्हीं पटवारीजी के सुपुत्र थे।

HADEES : DEATH PENALTY FOR APOSTASY REBELLION

DEATH PENALTY FOR APOSTASY REBELLION

One can accept Islam freely, but one cannot give it up with the same freedom.  The punishment for apostasy-for giving up Islam-is death, though not by burning.  �Once a group of men apostatized from Islam.  �Ali burnt them to death.  When Ibn �AbbAs heard about it, he said: If I had been in his place, I would have put them to sword for I have heard the apostle say, Kill an apostate but do not burn him for Fire is Allah�s agency for punishing the sinners� (TirmizI, vol. I, 1357).  Eight men of the tribe of �Ukl became Muslims and emigrated to Medina.  The climate of Medina did not suit them.  Muhammad allowed them �to go to the camels of sadaqa and drink their milk and urine� (urine was considered curative).  Away from the control of the Prophet, they killed the shepherds, took the camels and turned away from Islam.  The Prophet sent twenty ansArs after them with an expert tracker who could follow their footprints.  The apostates were brought back.  �He [the Holy Prophet] got their hands cut off, and their feet, and put out their eyes, and threw them on the stony ground until they died� (4130).  Another hadIs adds that while on the stony ground �they were asking for water, but they were not given water� (4132).

The translator gives us the verse from the QurAn according to which these men were punished: �The just recompense for those who wage war against Allah and His Messenger and strive to make mischief in the land is that they should be murdered, or crucified or their hands and their feet should be cut off on opposite sides, or they should be exiled� (QurAn 5:36).

author : ram swarup

हदीस : कानूनी वारिसों के लिए दो-तिहाई

कानूनी वारिसों के लिए दो-तिहाई

एक मृत व्यक्ति की जायदाद को मृतक की कई-एक अदायगियां पूरी करने के बाद बांटा जा सकता है, जैसे कि दफ़नाने का खर्च और मृतक के कर्जों की अदायगी। इस्लाम के सिवाय किसी और मज़हब को मानने वाले व्यक्ति को यह हक़ नहीं है कि वह किसी मुसलमान से कोई उत्तराधिकार पाए। इसी प्रकार कोई मुसलमान (किसी) गैर-मुस्लिम का दाय-भाग ग्रहण नहीं कर सकता“ (3928)। विरासत के एक अन्य सिद्धांत के अनुसार “एक मर्द दो औरतों द्वारा पाए जाने वाले भाग के बराबर हैं“ (3933)।

 

मुहम्मद कहते हैं कि कोई व्यक्ति अपनी जायदाद के सिर्फ़ एक-तिहाई भाग की ही वसीयत कर सकता है। बाकी दो-तिहाई कानूनी वारिसों को मिलना चाहिए। साद बिन अबी वक्कास से मुहम्मद उनकी मृत्यु-शैय्या पर मिले। साद के सिर्फ एक बेटी थी। उन्होंने जानना चाहा कि क्या वे अपनी जायदाद का दो-तिहाई अथवा आधा सदके (दान) में दे सकते हैं। पैग़म्बर ने जवाब दिया-”एक तिहाई दो और वह बहुत काफी है। अपने वारिसों को धनवान छोड़ना बेहतर है, बजाय इसके कि वे ग़रीब रहें और दूसरों से मांगते फिरें“ (3991)।

author : ram swarup

 

ऐसे दिलजले उपदेशक!

ऐसे दिलजले उपदेशक!

बहुत पुरानी बात है। देश का विभाजन अभी हुआ ही था। करनाल ज़िला के तंगौड़ ग्राम में आर्यसमाज का उत्सव था। पं0 शान्तिप्रकाशजी शास्त्रार्थ महारथी, पण्डित श्री मुनीश्वरदेवजी आदि

कई मूर्धन्य विद्वान् तथा पण्डित श्री तेजभानुजी भजनोपदेशक वहाँ पहुँचे। कुछ ऐसे वातावरण बन गया कि उत्सव सफल होता न दीखा। पण्डित श्री शान्तिप्रकाशजी ने अपनी दूरदर्शिता तथा अनुभव से यह भाँप लिया कि पण्डित श्री ओज़्प्रकाशजी वर्मा के आने से ही उत्सव जम सकता है अन्यथा इतने विद्वानों का आना सब व्यर्थ रहेगा।

पण्डित श्री तेजभानुजी को रातों-रात वहाँ से साईकिल पर भेजा गया। पण्डित ओज़्प्रकाशजी वर्मा शाहबाद के आस-पास ही कहीं प्रचार कर रहे थे। पण्डित तेजभानु रात को वहाँ पहुँचे।

वर्माजी को साईकल पर बिठाकर तंगौड़ पहुँचे। वर्माजी के भजनोपदेश को सुनकर वहाँ की जनता बदल गई। वातावरण अनुकूल बन गया। लोगों ने और विद्वानों को भी श्रद्धा से सुना।

प्रत्येक आर्य को अपने हृदय से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि ज़्या ऋषि के वेदोक्त विचारों के प्रसार के लिए हममें पण्डित तेजभानुजी जैसी तड़प है? ज़्या आर्यसमाज की शोभा के लिए हम

दिन-रात एक करने को तैयार हैं। श्री ओज़्प्रकाशजी वर्मा की यह लगन हम सबके लिए अनुकरणीय है। स्मरण रहे कि पण्डित तेजभानुजी 18-19 वर्ष के थे, जब शीश तली पर धरकर हैदराबाद सत्याग्रह के लिए घर से चल पड़े थे। अपने घर से सहस्रों मील की दूरी पर धर्म तथा जाति की रक्षा के लिए जाने का साहस हर कोई नहीं बटोर सकता। देश-धर्म के लिए तड़प रखनेवाला हृदय ईश्वर हमें भी दे। तंगौड़ में कोई धूर्त उत्सव में विघ्न डालता था।