‘आर्यसमाज के नियम’1

‘आर्यसमाज के नियम’1

1904 ई0 में आर्यसमाज टोहाना की स्थापना हुई। शीघ्र ही यह नगर वैदिक धर्मप्रचार का भारत-विज़्यात केन्द्र बन गया। नगर तथा समीपवर्ती ग्रामों में भी शास्त्रार्थ होते रहे। 1908 ई0 में टोहाना में एक भारी शास्त्रार्थ हुआ। पौराणिकों की ओर से पण्डित श्री लक्ष्मीनारायणजी बोले। आर्यसमाज की ओर से पण्डित श्री राजाराम डी0ए0वी0 कालेज, लाहौर के प्राध्यापक ने वैदिक पक्ष रखा।

शास्त्रार्थ के प्रधान थे श्री उदमीराम पटवारी। पण्डित राजारामजी ने पूछा ‘‘शास्त्रार्थ किस विषय पर होगा?’’ पं0 लक्ष्मीनारायण जी ने कहा-‘‘आर्यसमाज के नियमों पर।’’

पण्डित राजारामजी ने कहा, हमारे नियम तो आप भी मानते हैं। शास्त्रार्थ तो ऐसे विषय पर ही हो सकता है जिसपर आपका हमसे मतभेद हो। ऐसे चार विषय हैं-(1) मूर्ज़िपूजा (2) मृतक-

श्राद्ध, (3) वर्णव्यवस्था और (4) विधवा-विवाह।’’

पौराणिक पण्डित ने कहा ‘‘हम आपका एक भी नियम नहीं मानते।’’ सूझबूझ के धनी पण्डित राजारामजी ने अत्यन्त शान्ति से शास्त्रार्थ के प्रधान श्री उदमीरामजी पटवारी से कहा-‘‘ज़्यों जी!

आप हमारा कोई भी नियम नहीं मानते?’’ पटवारीजी ने भी आर्यसमाज के प्रति द्वेष के आवेश में आकर कहा-‘‘हम आर्यसमाज का एक भी सिद्धान्त नहीं मानते।’’

पण्डित राजारामजी ने कहा-‘‘लिखकर दो।’’

पटवारीजी ने अविलज़्ब लिखकर दे दिया। पण्डित राजारामजी ने उनका लिखा हुआ सभा में पढ़कर सुना दिया कि हम आर्यसमाज का एक भी सिद्धान्त नहीं मानते। तब पण्डित राजारामजी ने श्रोताओं को सज़्बोधित करते हुए कहा, आर्यसमाज का सिद्धान्त है ‘वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।’

पौराणिकों का मत यह हुआ कि न वेद को न पढ़ना न पढ़ाना, न सुनना न सुनाना। आर्यसमाज का नियम है ‘सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।’ पौराणिक मत का सिद्धान्त बना ‘असत्य को स्वीकार करने व सत्य के परित्याग में सदैव तत्पर रहना चाहिए।’

श्रोताओं को पण्डित राजारामजी की युक्ति ने जीत लिया। इस शास्त्रार्थ ने कई मनुष्यों के जीवन की काया पलट दी।

आर्यसमाज के अद्वितीय शास्त्रार्थ महारथी श्री मनसारामजी पर कुछ-कुछ तो पहले ही वैदिक धर्म का प्रभाव था, इस शास्त्रार्थ को सुनकर तरुण मनसाराम के जीवन में एकदम नया मोड़ आया और उसने अपना जीवन ऋषि दयानन्द के उद्देश्य की पूर्ति के लिए समर्पित कर दिया। पटवारी उदमीरामजी की सन्तान ने आगे चलकर वैदिक धर्म के प्रचार में अपने-आपको लगा दिया। आर्यसमाज नयाबाँस दिल्ली के श्री दिलीपचन्दजी उन्हीं पटवारीजी के सुपुत्र थे।

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