বেদাঙ্গ (কল্প) ১ম পর্ব।

আজ আলোচনা করব বেদাঙ্গ (কল্পসুত্র) নিয়ে।
৬ ষ্ঠ বেদাঙ্গ হলো কল্প।কল্প গুলি সুত্রাকারে গ্রথিত। তাতে যেমন যজ্ঞের বিধি উল্লেখ্য আছে তেমনি গার্হস্থ্য জীবনের সংস্কার প্রভৃতির আলোচনাও আছে। এদের ৪ টি শ্রেণী আছে।
১ 🙂 – শ্রৌতসুত্র।
২ 🙂 – গৃহ্যসূত্র।
৩ 🙂 – ধর্মসুত্র।
৪ 🙂 – শুল্কসুত্র।
ব্রাহ্মণে যে সমস্থ যজ্ঞের উল্লেখ আছে তাদের বলা হয় শ্রৌত যজ্ঞ, কারণ ব্রাহ্মণ(গ্রন্থ) শ্রুতির অংশ।
এই যজ্ঞ গুলির সং্খ্যা ১৪ টি।
৭ টি হবি যজ্ঞ ( অর্থাৎ ঘৃতাহুতি দিয়ে নিস্পন্ন করতে হয়) এবং ৭টি সোম যজ্ঞ ( সোমরস আহুতি দিতে হয়)।
শ্রৌত সুত্রে এই ১৪টি যজ্ঞের বিস্তারিত বিবরণ আছে। এর জন্য ৩ টি অগ্নির আধান করতে হয়। ঃ-
১ 🙂 গার্হপত্য।
২ :)- আহবনীয়।
৩ :)- দক্ষিণ।
এই ১৪ টি ছাড়া আরো অতিরিক্ত যজ্ঞ আছে। তাদের ‘স্মার্ত’ যাগ বলা হয়।
তাতে ঔপাসন, হোম,বৈশ্বদেব প্রভৃতি ৭ টি যজ্ঞের বিধান আছে। এদের আলোচনা পাই গৃহ্যসুত্রে।
স্মার্ত কর্মগুলি স্মার্ত অগ্নিতে করা হয়। স্মার্ত অগ্নির অন্য নাম বৈবাহিক, গৃহ্য, অবিসথ্য, দশপূর্ণমাস, পশুযাগ, পিতৃযাগ।
হিন্দুর জীবনে জন্ম হতে অন্ত্যেষ্টিক্রিয়া পযন্ত যে ১৬ টি সংস্কার পালন করতে হয় সে বিষয়ে আমরা অবহিত। কারণ বৈদিক যুগ হতে এইগুলি পালিত হয়ে আসতেছে।
এইগুলি কিভাবে সম্পাদন করতে হয় তার বিধি গৃহ্যসুত্রে আছে। ভাবতে অবাক লাগে এই সংস্কার গুলি হাজার হাজার বছর ধরে অপরিবর্তত রুপে বর্তমান আছে।
ধর্মসুত্র পরিবার কে ছড়িয়ে সমাজে পরিব্যাপ্ত। তাতে কর্তব্য অকর্তব্য, দেশাচার – লোকাচার প্রভৃতিরর বিষয়ে উপদেশ দেওয়া হয়েছে। এর আর এক নাম “সাময়াচারিক সুত্র”। এখানে সময় অর্থে বুঝতে হবে সর্বসম্মত অনুশাসন। সুতরাং তাতে আছে সর্বসম্মত অনুশাসন এবং আচরণ সমন্ধে উপদেশ।
তারপর শুল্কসুত্র। তার সাথে কল্পসুত্রের ঘনিষ্ঠ সংযোগ আছে। তাতে আছে নানা ধরনের যজ্ঞবেদির পরিমাণ ঠিক করবার নিয়ম। সুতরাং শুল্কসুত্রের সঙ্গে তা অঙ্গাঙ্গীভাবে জড়িত। ঠিক বলতে কি এখানে ভারতীয় জ্যামিতিকে বীজ আকারে পাই।
প্রতি বেদের সঙ্গে সংযুক্ত নানা শ্রেণীর কল্পসুত্র পাওয়া যায়। তাদের একটি তালিকা পরবর্তী পোষ্টে দেয়ার চেষ্টা করব।
তথ্য সংগ্রহে — বিকাশ মজুমদার।

HADEES : WHICH SLAVES DESERVE EMANCIPATION?

WHICH SLAVES DESERVE EMANCIPATION?

Only a believing slave deserves freedom.  Someone once slapped his maid-slave in anger and then, in contrition, wanted to free her.  When Muhammad was consulted, he said: �Bring her to me.� She was brought.  Muhammad asked her: �Where is Allah?� She replied: �He is in the heaven.� Muhammad asked: �Who am I?� �Thou art the Messenger of Allah,� she answered.  Muhammad gave his verdict: �Grant her freedom, she is a believing woman� (1094).

Thus there is merit in freeing a slave.  �A Muslim who emancipates a Muslim [slave], Allah will save from Fire every limb of his for every limb of the slave, even his private parts for his� (3604).

One could also emancipate a jointly owned slave to the extent of one�s share in him.  For the rest a fair price for the slave was to be fixed, and the slave �will be required to work to pay for his freedom, but must not be overburdened� (3582).

author : ram swarup

हदीस : तीन घोषणाएं

तीन घोषणाएं

तलाक लागू हो, उसके पहले ”तलाक“ शब्द को तीन बार कहना होता है (3491-3493)। लेकिन इसके बारे में अलग-अलग मत है कि घोषणा तीन माहवारियों के बाद लगातार तीन अलग-अलग अवसरों पर होनी चाहिए या एक ही वक्त तीन बार कर देना पर्याप्त है। अनुवादक के मत में ऐसी अहादीस की कमी नहीं है, जिनके अनुसार पैगम्बर के जीवनकाल में भी एक वक्त में तीन घोषणाएं कर देने पर तलाक को अटल माना गया“ (टि0 1933)।

 

तलाक की ऐसी आसान शर्तों के रहते एक वक्त में चार बीवियां रखने की मर्यादा में ज्यादा स्वार्थ-त्याग की जरूरत नहीं थी। बीवियां लगातार बदली जा सकती थी। मुहम्मद के एक वरिष्ठ साथी, सलाहकार और मित्र, अब्दर्रहमान और अबू बकर और उमर के बच्चे सोलह-सोलह बीवियों से पैदा किए गए थे। रखैलों से पैदा बच्चे इसके अलावा थे। कुछ समय बाद, मुहम्मद के नाती और अली के बेटे हसन ने सत्तर, और कुछ ब्यौरों के अनुसार, नब्बे शादियां की उसके समकालीन लोग उसे तलाक़बाज कह कर पुकारते थे।

 

यह आश्चर्य का विषय नहीं कि (इस्लाम में) औरतों की अपनी कोई प्रतिष्ठा नहीं है। उपहार में देकर या तलाक के द्वारा औरतों से आसानी के साथ छुट्टी पायी जा सकती है। उदाहरण के लिए, मदीना-प्रवास के समय अब्दर्रहमान को रबी के बेटे साद ने मजहबी भाई बनाया। यह मुहम्मद की उस व्यवस्था के अनुरूप था कि हर प्रवासी (मुजाहिद) एक मदीना-निवासी (अंसार) से भाईचारा बनाये। वे दोनों जब ब्यालू के लिए बैठे, तो मेजबान ने कहा-”मेरी दोनों बीवियों को देख लो, और जिसे ज्यादा पसंद करो उसे ले लो।“ उसी वक्त एक बीवी को तलाक दे कर उपहार में दे दिया गया।1

author : ram swarup

बाबू कालीप्रसन्न चैटर्जी

बाबू कालीप्रसन्न चैटर्जी

आप लौहार से निकलनेवाले प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक के सहायक सज़्पादक थे। बैठकर प्रवचन करते थे। खड़े होकर भी आप व्याज़्यान दिया करते थे। घण्टों बोल सकते थे। प्रवचन के लिए तैयारी की आवश्यकता न थी, बस माँग होनी चाहिए उनका व्याज़्यान तैयार समझो।

वे कहानियाँ तथा चुटुकुले गढ़ने में सुदक्ष थे। उनके मित्र उनसे नये-नये चुटुकुले सुनने के लिए उन्हें घेरे रहते थे।

वेद, शास्त्र, उपनिषद् का अच्छा स्वाध्याय था। हिन्दी, अंग्रेजी, पंजाबी सबमें धाराप्रवाह बोल सकते थे। बंगला पर तो अधिकार था ही। उनके व्याज़्यान सुनने के लिए लोग बहुत उत्सुक रहते थे।

एक व्याज़्यान में उन्होंने एक रोचक बात कही। उन दिनों पञ्जाब के स्कूलों में कलकज़ा के पी0 घोष का गणित, बीजगणित तथा रेखागणित पढ़ाया जाता था। जब पी0 घोष मरा तो आपने

अपने एक भाषण में कहा कि यदि पी0 घोष कुछ वर्ष पूर्व मर जाता तो वह (कालीप्रसन्न चटर्जी) भी मैट्रिक पास हो जाते। उनके इसी व्याज़्यान से लोगों को पता चला कि कालीप्रसन्नजी दसवीं पास नहीं। गणित न जानने के कारण वे मैट्रिक में रह गये।

स्कूली शिक्षा इतनी स्वल्प होने पर भी एक पत्रकार के रूप में आपके लेखों की धूम थी। आपकी पढ़े-लिखों लोगों में धाक थी।

एक समाजसेवी के रूप में आपकी कीर्ति थी। आर्यसमाज में आप बहुत प्रतिष्ठित समझे जाते थे।

HADEES : EMANCIPATION OF SLAVES

EMANCIPATION OF SLAVES

The emancipation of slaves was not unknown in pre-Islamic Arabia.  Slaves could gain their freedom in several ways.  One way, and a very common one, of course, was that they were ransomed by their relatives.  Another was when a master granted his slave a free and unconditional emancipation (�itq).  There were two other forms of emancipation: tadbir and kitabah.  In the first, the master declared that on his death his slaves would be free.  In the second, slaves who were not ransomed by their relatives obtained their master�s permission to earn their ransom by work.

We have already seen how HakIm b. HizAm �freed one hundred slaves� (225) even before he became a Muslim.  We have also observed that it was an old custom among the Arabs of more pious disposition to will that their slaves would be freed at their death, a practice which was opposed in some cases by Muhammad because he did not want such emancipations to take place at the expense of the heirs and relatives of the masters.  On the whole, however, Muhammad�s response to the practice was positive, but this did not make him into a Messiah of the slaves.  On the other hand, he saw the time when the meek and the lowly would inherit the earth as a portent of the approaching end of the world.  �When the slave-girl will give birth to her master, when the naked, barefooted would become the chiefs of the people-these are some of the signs of Doom,� according to him (4).

To Muhammad, the freeing of a slave was an act of charity on the part of the master, not a matter of justice.  In any case, a slave should not seek his emancipation by running away.  �The slave who fled from his master committed an act of infidelity so long as he would not return to him,� says Muhammad (129).

author : ram swarup

हदीस : तलाक

तलाक

तलाक का अक्षरशः अर्थ है “गांठ खोलना।“ लेकिन इस्लामी कानून में अब इनका मतलब है, कुछ शब्दों के उच्चारण द्वारा विवाह का विच्छेद।

 

शादी और तलाक के इस्लामी कानून खुद पैगम्बर की अपनी करनी और कथनी से उपजे हैं। शियाओं के अनुसार, पैगम्बर की बाईस बीवियां थीं, जिन में से दो बंधक औरतें थी। लेकिन वह संख्या सिर्फ उनके लिए ही विशेष दैवी विधान थी। दूसरे मोनियों की एक वक्त में चार से ज्यादा बीवियां नहीं होनी चाहिए। लेकिन किसी भी बीवी को तलाक द्वारा दूर करके उसकी जगह दूसरी को लाया जा सकता है। यह काम मुश्किल नहीं है। मर्द यदि तीन बार ”तलाक“ शब्द लगातार कह दे तो तलाक लागू हो जाता है।

 

इस पर भी कुछ प्रतिबन्ध हैं। मसलन किसी औरत को माहवारी के दौरान तलाक देना मना है (3473-3490)। भावी खलीफा उमर के बेटे अब्दुल्ला ने अपनी बीवी को उस वक्त तलाक दे दिया, जब वह माहवारी में थी। जब उमर ने मुहम्मद से इसका जिक्र किया तो उन्होंने हुक्म दिया-”इसको (अब्दुल्ला को) उसे वापस ले लेना चाहिए और जब वह शुद्ध हो जाये, तब वह उसे तलाक दे सकता है“ (3485)।

 

एक आग्नेय पुरुष : स्वामी योगेन्द्रपाल

एक आग्नेय पुरुष : स्वामी योगेन्द्रपाल

आप आर्यसमाज की दूसरी पीढ़ी के शीर्षस्थ विद्वानों तथा निर्माताओं में से एक थे। जिन संन्यासियों ने आर्यसमाज को अपने लहू से सींचा है, स्वामी श्री योगेन्द्रपालजी उनमें से एक थे। आपको आर्यसमाज की प्रथम पीढ़ी के महापुरुषों के सत्संग का और उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जिन प्राणवीरों ने पण्डित लेखरामजी आर्यपथिक के वीरगति पाने पर उनके मिशन के लिए अपनी जवानियाँ भेंट कर दीं, स्वामी योगेन्द्रपालजी उनमें से एक थे।

आज आर्यसमाज में उनके नाम और काम की कोई चर्चा ही नहीं करता। अभी-अभी आर्यसमाज का जो इतिहास छपा है, उसमें भी उनका नाम न पाकर मुझे बहुत मानसिक कष्ट हुआ।

गत तीस वर्षों से मैं तो यदा-कदा अपने लेखों व पुस्तकों में उनकी चर्चा करता आया हूँ। मैंने अपनी पुस्तकों में उनका उल्लेख भी किया है। एक बार सज़्भवतः ‘आर्य जगत्’ में दिवंगत प्रिंसिपल कृष्णचन्द्रजी सिद्धान्तभूषण ने भी उनके एक ऐतिहासिक लेख पर कुछ लिखा था।

जिन पुराने आर्यों को उनके सज़्बन्ध में जो कुछ ज्ञात है, वे मुझे लिखें तो उनका एक छोटा-सा जीवन-चरित्र ही प्रकाशित कर दिया जाए, परन्तु अब ऐसा कोई व्यज़्ति नहीं मिल सकता। मैं समझता हूँ कि यह मेरा ज़ी अपराध है कि मैंने उनके जीवन की सामग्री की खोज पचास वर्ष पूर्व नहीं की। तब तक दीनानगर, लेखराम नगर (कादियाँ) व अमृतसर के अनेक आर्य बुजुर्ग जीवित थे। जिन्हें स्वामीजी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त रहा। श्री पण्डित गङ्गाप्रसादजी

उपाध्याय भी ऐसे महानुभावों में से एक थे, जिन्हें स्वामी श्री योगेन्द्रपाल जी के अदज़्य उत्साह से प्रेरणाएँ प्राप्त हुईं। स्वामी योगेन्द्रपालजी का जन्म आर्यसमाज के ऐतिहासिक नगर, दीनानगर, जिला गुरदासपुर (पंजाब) में हुआ था। प्रतीत होता है कि उनका पूर्वनाम भी योगेन्द्रपाल ही था। वे एक खत्री कुल में जन्मे थे। जब महर्षि दयानन्द गुरदासपुर पधारे तब पौराणिक लोग दीनानगर से ही एक पण्डित को उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए लाये थे। ऋषिजी के उपदेशामृत से गुरदासपुर व आसपास के लोगों पर वैदिक धर्म की गहरी छाप लगी। स्वामी योगेन्द्रपाल-जैसे उत्साही मेधावी युवक पर ऋषि के क्रान्तिकारी विचारों व तेजोमय जीवन

का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने गृह त्याग दिया।

युवक योगेन्द्रपाल उ0प्र0 की ओर चले गये। कहाँ-कहाँ गये, कहाँ-कहाँ विद्या प्राप्त की, इसका कुछ पता नहीं चला। संन्यास लेकर वे दीनानगर लौटे। किससे संन्यास लिया, यह भी ज्ञात नहीं

हो सका। उन्होंने दीनानगर आकर नगर से बाहर अपना केन्द्र बनाया। पूज्य पण्डित देवप्रकाशजी ने लिखा है कि उनके निवास का नाम ‘योगेन्द्र भवन’ था। यह तथ्य नहीं। इस स्थान का नाम ‘देव भवन’ था। इसी स्थान पर लौह पुरुष स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने सन् 1937 में दयानन्द मठ की स्थापना की।

अब भी दयानन्द मठ के मुख द्वार पर ‘देव भवन’ लिखा हुआ है। स्वामी योगेन्द्रपालजी बड़े निर्भीक थे। पण्डित लेखरामजी की भाँति वे किसी से भी दबते, डरते न थे। संसार की कोई भी शक्ति और बड़ी-से-बड़ी विपज़ि भी उन्हें वैदिक धर्म के प्रचार से रोक न सकती थी। पण्डित देवप्रकाशजी ने आप पर जो एक पृष्ठ लिखा है, उसमें यह घटना दी है कि गुरदासपुर के जिला मैजिस्ट्रेट ने उनके भाषणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। स्वामीजी ने इस प्रतिबन्ध की धज्जियाँ उड़ाकर दीनानगर के बाज़ार में भाषण दिया। वे अपने हाथ में ओ3म् ध्वज लेकर निकला करते थे। अपने व्याज़्यानों की सूचना भी आप ही दे दिया करते थे। इस युग में तपस्वी संन्यासी बेधड़क स्वामीजी में यह विशेषता देखी जाती थी।

स्वामी श्री योगेन्द्रपालजी कई भाषाओं के विद्वान् थे। प्रायः यह समझा जाता है कि चूँकि वे मुसलमानों के विभिन्न सज़्प्रदायों से शास्त्रार्थ किया करते थे, इसलिए वे अरबी और उर्दू, फ़ारसी के ही विद्वान् थे। स्वामीजी संस्कृत, हिन्दी, इबरानी (hebrew) और पहलवी भाषा का भी गहरा ज्ञान रखते थे। इसके साक्षी उनके वे लेख हैं जो ‘आर्य मुसाफ़िर’ में छपते रहे। पण्डित विष्णुदज़जी के एक लेख से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। अरबी-फ़ारसी वे प्रवाह से बोलते थे। एक बार आर्यसमाज जालंधर के उत्सव पर कुरान हाथ में लेकर आपने कहा था ‘जानते हो संसार में रक्तपात, घृणा, द्वेष, जंग, झगड़े किस पुस्तक के कारण फैले?’

वे जहाँ-कहीं जाते थे। व्याज़्यानों की एक माला आरज़्भ कर देते थे। एक व्याज़्यान पर बस नहीं करते थे। आज तो आर्यसमाज में बहुत कम ऐसे वक्ता हैं जो 5-7 से ऊपर व्याज़्यान दे पाएँ। इस आर्यसमाज में कभी पण्डित गणपति शर्मा, पण्डित मनसाराम तथा स्वामी सत्यप्रकाश जी सरीखे विद्वान् थे। जो वेदी पर बैठते हुए पूछा करते थे। ‘‘कहिए किस विषय पर व्याज़्यान दिया जाए?’’

उन्होंने कई छोटी-छोटी पुस्तकें लिखीं। कुछ पुस्तकें पत्रों में क्रमशः छपीं पर पुस्तक रूप में न निकल पाईं। रक्तसाक्षी महाशय राजपालजी ने ‘कुल्लियात’ योगेन्द्रपाल के नाम से उनका सज़्पूर्ण

साहित्य छापने की घोषणा की थी, परन्तु मैंने इसे कहीं देखा नहीं।

लगता है कि छपी ही नहीं। उनका साहित्य अब कहीं मिलता ही नहीं। दीनानगर के स्वर्गीय लाला ईश्वरचन्द्रजी पहलवान के पास उनकी कई पुस्तकें थीं। मेरे ज्येष्ठ भ्राता श्री यशपालजी ने कई वर्ष पूर्व उनसे लेकर पढ़ी थीं। लालाजी के निधन पर मैंने ये पुस्तक प्राप्त करने का प्रयास किया, परन्तु न मिलीं। न जाने कहाँ गईं। मेरे पास केवल दो-तीन हैं।

आप पर अनेक अज़ियोग चलाये गये। एक बार जालन्धर में आपका भाषण था। मुसलमानों ने अभियोग चला दिया। आपके वारंट निकल गये। वकीलों ने निःशुल्क केस लड़ा। आप मुक्त हो गये।

ग्रामों में ग्रामीणों जैसा रहते। खाने-पीने की चिन्ता ही न करते थे। न ओढ़ने की चिन्ता और न बिछौने का विचार। एक बार आर्यसमाज मलसियाँ ज़िला जालन्धर के उत्सव पर गये। शीत ऋतु

थी। लोग बहुत आये थे। इतनी चारपाइयों का प्रबन्ध न हो सका।

आप भूमि पर ही अन्य लोगों की भाँति सो गये। ऐसे कर्मवीर तपस्वियों ने आर्यसमाज का डंका बजाया है।

वे ज्ञान का समुद्र थे। धर्मविषय पर ही बातचीत किया करते थे। धर्मचर्चा करते-करते थकते न थे। जब मलसियाँ गये तो लोगों को उनसे इतना प्रेम हो गया कि उन्होंने उनको उत्सव के पश्चात् आने ही न दिया और वे कई दिन तक वहाँ ज्ञान-गङ्गा बहाते रहे। स्वामी योगेन्द्रपालजी ने कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) के क्षेत्र में बड़ा प्रचार किया। मुसलमान कहते थे कि शास्त्रार्थ के लिए उनकी खुली चुनौती है, परन्तु जब स्वामी योगेन्द्रपालजी से निरुज़र होते थे तो उनपर अभियोग चलाते थे। आपने उज़रप्रदेश में भी कई शास्त्रार्थ किये। बिजनौर में जब उपाध्यायजी मन्त्री थे (तब आप गङ्गाप्रसाद वर्मा लिखा करते थे) तब स्वामी योगेन्द्रपालजी का मुसलमानों से एक शास्त्रार्थ हुआ था। एक बार मिर्ज़ाइयों ने नियोग विषय पर एक अश्लील नावल लिखकर इसे अपने पत्रों में क्रमशः छापा। इस पर स्वामी योगेन्द्रपाल जी ने एक पुस्तिका ‘मुता व नियोग’ नाम से लिखकर सबकी बोलती ऐसी बन्द कर दी कि ‘इस्लाम की तौहीन’ का शोर मच गया।

अभियोग चला। स्वामीजी विजयी हुए। यह नावल नहीं था, प्रमाणों से परिपूर्ण पुस्तक थी। हिन्दी में छपे तो 70-75 पृष्ठ की होगी।वे पण्डित लेखरामजी के वीरगति पाने पर डटकर लेखरामनगर

(कादियाँ) में पहुँचकर मिर्ज़ा गुलाम अहमद को ललकारने लगे कि निकलो अपने इल्हामी कोठे से, आओ चमत्कार दिखाओ-

शास्त्रार्थ कर लो-मेरे प्रश्नों का उज़र दो। सिंह की दहाड़ ने अन्धविश्वासियों के हृदयों में कज़्पन पैदा कर दी। मिर्ज़ा साहब को ऐसा लगा कि फिर से प्राणों का निर्मोही लेखराम कहीं से आ गया। जब मिर्ज़ा ने नबी होने का दावा किया था और चमत्कार दिखाने की थोथी घोषणाएँ कीं तो धर्मवीर पण्डित लेखरामजी ने तीन सीधे से चमत्कार दिखाने को कहा था। मिर्ज़ा साहब एक भी न दिखा सके।

स्वामी योगेन्द्रपालजी ने पुनः तीन चमत्कार दिखाने की चुनौती देते हुए मिर्ज़ा साहब को नया चैलेंज दिया। स्वामीजी ने कहा- (1) मिर्ज़ाजी अपने मुरीद (चेले) करीम बज़़्श की लङ्गड़ी टाङ्ग ही ठीक कर दें। उसके सिर में गञ्ज है और एक आँख भी नहीं हैं। उसके बाल उगा दें और आँख ठीक कर दें। (2) सार्वजनिक सभा में मिर्ज़ाजी या हकीम नूरुद्दीन की एक अंगुली काट दी जाए, मिर्ज़ा अपनी चमत्कारी शक्ति से इसे एक घण्टे के भीतर ठीक कर दिखावें।

(3) मिर्ज़ाजी लाहौर आर्यसमाज में हमारे विद्वानों के सामने दो सप्ताह के भीतर चारों वेद व ऋषि के किये हुए वेदभाष्य को कण्ठाग्र करके सुना दें। ऐसा करके दिखाने पर हम उनको नबी

मानकर उनके अनुयायी बन जाएँगे। जो खुदा मिर्ज़ा के आदेशानुसार कार्य करता था उस खुदा की कृपा इतनी न हुई कि इनमें से मिर्ज़ा एक भी चमत्कार दिखा सके।

स्वामी जी हकीम भी थे। रोगियों की सेवा भी करते थे। उनका अच्छा पुस्तकालय था। उनका निधन यौवन में ही हो गया।

उन्होंने पठानकोट में शरीर त्यागा। आपने मौलवी सनाउल्ला की पुस्तक ‘हकप्रकाश’ का बहुत युक्तियुक्त उज़र लिखा था। अज़्तूबर 2013 के अन्त में दीनानगर मठ के जलसे में किसी ने उनका नाम तक न लिया। कृतघ्नता ही सबसे बड़ा पाप है।

HADEES : EMANCIPATING A SLAVE

EMANCIPATING A SLAVE

For some unexplained reason, a few chapters at the end of the book dealing with marriage and divorce are on slaves.  This may be due to a faulty method of classification, or it may be that emancipating a slave was considered a form of talAq, which literally means �freeing� or �undoing the knot�; or it may be that the subject really belongs to the next book, which is on business transactions-a slave, after all, was no more than a chattel.

Modern Muslim writers trying to boost Islam as a humane ideology make much of the sayings of Muhammad on the emancipation (�itq) of slaves.  But the fact remains that Muhammad, by introducing the concept of religious war and by denying human rights to non-Muslims, sanctioned slavery on an unprecedented scale.  Pre-Islamic Arabs, even in their wildest dreams, never imagined that the institution of slavery could take on such massive proportions.  Zubair, a close companion of the Prophet, owned one thousand slaves when he died.  The Prophet himself possessed at least fifty-nine slaves at one stage or another, besides thirty-eight servants, both male and female.  Mirkhond, the Prophet�s fifteenth-century biographer, names them all in his Rauzat-us-Safa.  The fact is that slavery, tribute, and booty became the main props of the new Arab aristocracy.  Slaves continued to suffer under the same old disabilities.  They were the property of their master (saiyid), who could dispose of them as he liked, selling them, gifting them away, hiring them out, lending them, mortgaging them.  Slaves had no property rights.  Whatever they acquired became the property of their masters.  The master had the right to live in concubinage with his female slaves if they confessed Islam or belonged to the �People of the Book.� The QurAn (SUra 4:3, 4:24, 4:25, 23:6) permitted this.  Slavery was interwoven with the Islamic laws of sale, inheritance, and marriage.  And though the slaves fought for their Muslim masters, they were not entitled to the spoils of war according to Muslim religious law.

author : ram swarup

हदीस : मुहम्मद की शादियां

मुहम्मद की शादियां

सफ़िय्या (3325-3329) और जैनब विनत जहश के साथ (3330-3331) पैगम्बर की शादियों में घटी कुछ घटनाओं का उल्लेख मिलता है।

 

रेहाना और जुवैरीया

सफीय्या अपवाद नहीं थी। दूसरी औरतें भी युद्ध में लूटे गए माल के रूप में इसी तरह लाई गयी थी और उनसे भी ऐसा ही व्यवहार किया गया था। उन औरतों में रेहाना और जुवैरीया भी शामिल थी। रेहाना, वनू कुरैजा की एक यहूदी लड़की थी। मदीना में किए गए नरमेध में उसके पति का सिर उसके कबीले के आठ-सौ अन्य मर्दों के सिरों के साथ बहुत ही बेदर्दी से काट दिया गया तो मुहम्मद ने रेहाना को अपनी रखैल बना लिया। इस नरमेध पर हम जिहाद की चर्चा करते समय आगे चलकर प्रकाश डालेंगे।

 

ऐसी अभागी लड़कियों में से ही एक अन्य थी जुबैरीया। यह बनू मुस्तलिक के मुखिया की बेटी थी। वह हिजरी सन के पांचवे या छठे साल में दो-सौ अन्य औरतों के साथ बंदी बना ली गयी थी। ”रसूल-अल्लाह ने वनू मुस्तलिक पर उस वक्त हमला किया, जब वे लोग बेखबर थे और जब उनके पशु पानी पी रहे थे। उनमें से जो लोग लड़े पैगम्बर ने मार डाला और दूसरों को कैद कर लिया। उसी दिन उन्होंने जुवैरीया बिन्त अल-हारिस को कब्जे में ले लिया“ (4292)।

 

लूट के बंटवारे में वह साबित इब्न कैश के हिस्से में आई। उसने उसकी छुड़ाई का मूल्य नौ औंस सोना रखा, जोकि उस लड़की के रिश्तेदार दे नहीं सकते थे। आयशा ने जब देखा कि वह खूबसूरत लड़की मुहम्मद के पास ले जायी जा रही है, तो उसकी प्रतिक्रिया इस प्रकार बयान की जाती है-”जैसे ही मैंने उसे अपने कमरे के दरवाजे पर देखा, मुझे उससे नफरत हो गयी, क्योंकि मैं जानती थी कि वे (मुहम्मद) उसे उसी तरह देखेंगे, जैसे मैने देखा।“ और दरअसल मुहम्मद ने जब जुवैरिया को देखा तो उन्होंने उसकी छुड़ाई का मूल्य चुकता कर दिया तथा उसे अपनी बीवी बना लिया। उन दिनों जुबैरिया लगभग बीस बरस की थी और वह पैगम्बर की सातवी बीवी बनीं। पूरी कहानी पैगम्बर के जीवनीकार इब्न इसहाक ने बयान की है।1

 

एक और यहूदी लड़की थी जैनब। उसने अपने पिता, पति और चाचा का कत्ल होते देखा था। उसे मुहम्मद के लिए खाना पकाने को कहा गया, तो उसने भुने हुए मेमने में जहर मिला दिया। मुहम्मद को शक हुआ कि कुछ गड़बड़ है और उन्होंने पहला ही निवाला उगल दिया। वे बच गये। और कई एक बयानों के मुताबिक जैनब को तुरन्त ही मार डाला गया (तवकात, जिल्द 2 किताब 2, पृ0 252-255)।

author : ram swarup

 

मुझे चारपाई पर ले-चलिए

मुझे चारपाई पर ले-चलिए

ऋषिवर के पुराने सुशिष्यों ने वैदिक धर्म के प्रचार व देश धर्म की रक्षा के लिए जो तप-त्याग किया है-वह ईसा व बुद्ध महात्मा के शिष्यों की साधना से कम नहीं है। पण्डित विष्णुदज़जी एडवोकेट पंजाब के एक प्रमुख नेता व कुशल लेखक थे। उन्होंने लिखा है कि कहीं एक बहुत बड़ा ताल्लुकेदार अपनी बरादरी सहित विधर्मी बनने लगा। आर्यों को इसकी सूचना दी गई। पौराणिक हिन्दू आर्यों के पास यह संकट लेकर आये। आर्यभाई भागे-भागे अपने एक पूज्य विद्वान्

शास्त्रार्थी के पास पहुँचे और सब वृज़ान्त सुनाया। वृज़ान्त तो सुना दिया, परन्तु उस विद्वान् के पास जाना निष्फल दीख रहा था। कारण? वह बहुत रुग्णावस्था में चारपाई पर पड़े थे। उस आर्यविद्वान् ने कहा-‘‘मुझे चारपाई पर ही किसी प्रकार से वहाँ पहुँचा दो। अपनी तड़प से सबको तड़पा देनेवाले आर्यवीर अपने महान् सेनानी की चारपाई उस स्थान पर उठाकर ले-गये।

विधर्मियों को निमन्त्रण दिया गया कि आकर सत्य-असत्य का निर्णय कर लें। वे आ गये। चारपाई पर लेटे-लेटे उस आर्य महारथी ने शास्त्रार्थ किया। इसका परिणाम वही हुआ जिसकी आशा थी।

एक भी व्यक्ति धर्मच्युत न हुआ। आर्यपुरुषो! ज़्या आप जानते हैं कि यह चारपाई पर लेटे-लेटे

शास्त्रार्थ करनेवाला सेनानी कौन था? यह था धर्म-धुन का हिमालय वीतराग-स्वामी दर्शनानन्द।

यह घटना उज़रप्रदेश की ही लगती है। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल में तो ताल्लुकेदार शज़्द प्रचलित ही नहीं है। न जाने स्वामीजी के जीवन में ऐसी कितनी घटनाएँ घटीं। उन्होंने पग-पग

पर अपनी श्रद्धा के अद्भुत चमत्कार दिखलाये।