हे पितृ तुल्य प्रभु ! आप हमें पिता सम उपलब्ध हों

औ३म
हे पितृ तुल्य प्रभु ! आप हमें पिता सम उपलब्ध हों
(सम्पूर्ण सूक्त )
डा.अशोक आर्य

ऋग्वेद का आरम्भ इस सूक्त से होता है ! यह इस वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त के रुप में जाना जाता है । इस सूक्त के मुख्य विषय है कि जीव सदा परमपिता की उपासना चाहता है, समीपता चाहता है, निकटता चाहता है,अपना आसन प्रभु के समीप ही रखना चाहता है । जीव यह भी इच्छा रखता है कि वह पिता उस के लिये प्रतिक्षण उलब्ध रहे तथा वह ठीक उस प्रकार प्रभु से सम्पर्क कर सके , उसके समीप जा सके, जिस प्रकार वह अपने पिता के पास जा सकता है । वह प्रभु से पिता- पुत्र जैसा सम्बन्ध रखना चाहता है । इस सूक्त के ऋषि मधुछन्दा: , देवता अग्नि: ,छन्द गायत्री तथा स्वर:षड्ज्क्रि हैं । आओ इस आलोक में हम इस सूक्त का वाचन करें तथा इसे समझने का यत्न करें ।
सबसे बडे दाता प्रभु का हम सदा स्मरण करें
परमपिता परमात्मा ने इस संसार की रचना की है। उस के ही आदेश से यह संसार चल रहा है । उसकी ही प्रेरणा से यह सूर्य , चन्द्र, तारे आदि गतिशील होकर सब प्राणियों की रक्षा करने व उन्हें पुष्ट करने का कार्य कर रहे हैं । इस परमपिता परमात्मा के दानों का वर्णन ऋग्वेद के प्रथम मण्ड्ल के प्रथम सुक्त के दस मन्त्रों में बडे ही उतम ढंग से किया गया है । प्रभु को हम प्रभु क्यों कहते हैं ?, उस पिता को हम दाता क्यों कहते हैं? तथा उस पिता का स्मरण करने के लिये , उस की उपसना करने के लिये हमें उपदेश क्यों किया जाता है ? इस सब तथ्य को इस ऋचा में बडे विस्तार से प्रकाशित किया गया है । ऋचा का प्रथम मन्त्र हमें इस प्रकार उपदेश दे रहा है : –
अग्निमीळेपुरोहितंयज्ञस्यदेवमृत्विजम्।
होतारंरत्नधातमम्॥ ऋ01.1.1||
मन्त्र में बताया गया है कि अग्नि रुप यज्ञ के देव , जो होता है तथा विभिन्न प्रकार के रत्नों को देने वाला है ,एसे प्रभु की हम सदा स्तुति किया करें ।
प्रभु के निकट अपना आसन लगावें
मन्त्र प्राणी मात्र को उपदेश कर रहा है कि वह परमपिता परमात्मा इस जगत को , इस ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने वाला है , इसे गति देकर इसे जगत की श्रेणी में लाने वाला है । वह प्रभु ही सब प्राणियों को उपर उठाने का कार्य भी करता है सब प्राणियों को उन्नत भी करता है , सब प्राणियों को आगे भी बढाता है । एसे साधक , जो हम सब का अग्रणी भी है , की हम सदा उपासना किया करें , उस प्रभु के चरणों में बैठा करें, उस के समीप सदा अपना आसन लागावें तथा उस प्रभु का स्तवन करें , स्तुति रुप प्रार्थना करें ।
२. वेदादेशानुसार दिनचर्या बनावें
हम जिस प्रभु की प्रार्थना करने के लिये इस मन्त्र द्वारा प्रेरित किये गये हैं , उस प्रभु के सम्बन्ध में भी इस मन्त्र में प्रकाश डालते हुये बताया है कि जो पदार्थ कभी बने नहीं अपितु पहले से ही प्रभु ने अपने गर्भ में रखे हुये हैं । इस का भाव यह है कि इस जगत की रचना से पूर्व भी यह सब विद्यमान थे तथा जो स्वयं ही होने वाले थे । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उस प्रभु का कभी निर्माण नहीं हुआ । वह प्रभु इस जगत की रचना से पूर्व भी विद्यमान था । स्वयं होने के कारण उसे खुदा भी कहा गया है । इतना ही नहीं वह प्रभु हम प्राणियों के सामने एक आदर्श के रुप में विद्यमान है । उस प्रभु में जो गुण हैं , उन्हें ग्रहण कर हमने स्वयं को भी वैसा ही बनाने का यत्न करना है । उस परम पिता परमात्मा ने हमारे सब कार्यों का , हमारे सब कर्तव्यों का , हमारे सब वांछित क्रिया कलापों का वेद में वर्णन कर दिया है, वेद में आदेशित कर दिया गया है । हमें उन के अनुसार ही अपना जीवन व दिनचर्या बनानी चाहिये ।
३. वद का स्वाध्याय नित्य करें
उस प्रभु ने ही हमारे कल्याण के लिये हमें वेद वाणी दी है , वेदों के रुप में ज्ञान का अपार भण्डार दिया है । वह प्रभु ही वेद में सब प्रकार के यज्ञों का प्रकाश करने वाले हैं । अर्थात उन्होंने वेद में विभिन्न प्रकार के यज्ञों का प्रकाश कर दिया है , विभिन्न प्रकार से दान करने की प्रेरणा दे दी है । मानव के जितने भी कर्तव्य हैं , उन सब का प्रतिपादन , उन सब का वर्णन उस पिता ने वेद मे कर दिया है ।
४. प्रभु स्मरण से शक्ति मिलाती है
हमारा यह परमपिता परमात्मा स्मरण करने के योग्य है , सदा स्मरणीय है । परमात्मा के स्मरण के लिये कहा गया है कि कोई समय एसा नहीं , जब उसे स्मरण न किया जा सके , कोई काल एसा नहीं जब उसे स्मरण न किया जा सके । इतना ही नहीं प्रत्येक ऋतु में ही उसे स्मरण किया जा सकता है तथा किया जाना चहिये । अत: मन्त्र कहता है कि उस दाता को हमें सदा स्मरण करना चाहिये , उस प्रभु को हमें सदा स्मरण करना चाहिये ,जो हमें सदा शक्ति देता है, जिसके स्मरण मात्र से , जिसके समीप बैठने से तथा जिसकी स्तुति करने से हमें अपार शक्ति मिलती है। शक्ति का प्रवाह हमारे शरीर में ओत – प्रोत होता है ।
५. सोते जागते सदा प्रभु स्मरण करें
मानव सदा विभिन्न कार्यो में उलझा रहता है । कभी उसे अपने व्यवसाय के लिये कार्य करना होता है तो कभी उसे अपने परिजनों का ध्यान करना होता है , उनकी देख रेख करनी होती है । परिवार की इन चिन्ताओं के कारण उस के पास समय का अभाव हो जाता है । समय के इस अभाव को वह साधन बना कर प्रभु चिन्तन से दूर होने का यत्न करता है किन्तु मन्त्र ने इस का भी बडा ही सुन्दर समाधान दे दिया है । मन्त्र कह रहा है कि हे मानव ! यह ठीक है कि तेरा जीवन अत्यन्त व्यस्त है । इस मध्य तूं ने अनेक समस्याओं के समाधान में अपना समय लगाना है इस कारण सम्भव है कि दैनिक कार्यों को पूरा करने के कारण तेरे पास प्रभु स्मरण का समय ही न रहे , जब कि प्रतिपल प्रभु को स्मरण करने के लिये कहा गया है, एसी अवस्था मे भी एक समय तेरे पास एसा होता है , जब तुझे किसी प्रकार का कोई काम नहीं होता । इस काल में तूंने केवल आराम , केवल विश्राम ही करना होता है । इस काल का , इस समय का नाम है रात्रि । यह रात्रि का समय ही तो होता है जब हमें कुछ सोचने , विचारने व स्मरण करने का अवसर देता है । रात्रि काल में जब हम अपने शयन स्थान पर जावें तो कुछ समय स्वाध्याय स्वरुप वेद का अध्ययन करें तथा फ़िर इस स्थान पर ही कुछ काल प्रभु का स्मरण करें । रात्री को सोते समय प्रभु स्मरण से प्रभु हमारा सहयोगी हो जाता है , पथ प्रदर्शक हो जाता है , मित्र हो जाता है । जब प्रभु हमारा सहायक हो जाता है तो रात्रि को जब हम निद्रा अवस्था में होते हैं तो वह प्रभु ही हमारा रक्षक होता है , चौकीदार का काम करता है तथा हमें किसी प्रकार का बुरा, भ्यावह स्वप्न तक भी हमारे पास नहीं आने देता । स्वप्न में भी हमें प्रभु ही दिखाई देता है । प्रभु की गोद में रहते हुये इस प्रकार शान्त निद्रा मिलती है , जैसी माता की गोदी में ही मिला करती है । अत; एसी अवस्था में प्रभु के ही स्वप्न आते हैं । स्वपन अवस्था में प्रभु ने जो पाठ हमें दिया होता है , उस उतम पाठ को हम जागृत अवस्था में भी कभी न भुलें । यह यत्न ही हमें करना है ।
६. सब से बड़ा दानी
इस जगत में सबसे बडा दानी प्रभु को ही कहा गया है । हम अपने जीवन में जिन जिन वस्तुओं का उपभोग करते , जिन जिन पदार्थों का सेवन करते हैं ,वह सब उस प्रभु की ही देन है । परमपिता परमात्मा ने हमारे जीवन को उत्तमता से भरकर प्रसन्नता से भर पूर बनाने के लिये यह फ़ल, यह फ़ूल ,यह वन्सपतियां, यह सूर्य, यह चन्द्र , यह वायु, यह जल दिया है । यदि पिता यह सब कुछ न देता तो हमारे जीवन का एक पल भी चल पाना सम्भव नहीं था । यह सब कुछ उस पिता ने दिया है । तब ही तो हम उसे सब से बडा दाता, सबसे बडा दानी कहते हैं । उस प्रभु ने इस संसार के प्राणियों को तो अपने अन्दर समेट ही रखा है किन्तु जब संसार समाप्त हो जाता है, जब प्रलय आ जाती है , तब भी प्रभु ही इस जगत को सम्भालता है । प्रलय के समय इस पूरे बर्ह्माण्ड को हमारा वह परम पिता अपने अन्दर समेट कर इस की रक्षा करता है ।
७. दाता बाँट कर देता हैं
परमपिता प्रभु ने मानव मात्र के , प्राणि मात्र के हित के लिये जितने भी पदार्थ आवश्यक थे, उन सब की रचना की है । जितनी भी आनन्द देने वाली ,सुख देने वाली, रम्नीक वस्तुएं हैं , उन सब को धारण करने वाले वह सर्वोतम प्रभु हैं तथा यह सब हमें बांटने क कार्य भी करते हैं ।
८. सप्त धातुओं कि रचना
प्रभु अनुभवी संचालक भी है , जो इस शरीर रुपि कारखाने के अन्दर बडी ही उतम व्यवस्था है । इस शरीर में अन्न देता है । अन्न से हमारा यह रक्त बनता है । रक्त से शरीर में मांस बनता है , मोदस बनता है , अस्थि व मज्जा बनते हैं तथा फ़िर इससे ही वीर्य बनता है , जो शरीर को शक्ति देकर बलिष्ठ बनाता है । इन सात धातुओं का निर्माण क्रमानुसार इस शरीर में ही करता है । इस सात धातुओं को ही सात रत्न कहा जाता है । जब हम शरीर शास्त्र का अध्ययन करते हैं तो इन सात धातुओं के समबन्ध में तथा इन के महत्व के समबन्ध में हमें ज्ञान होता है । इन सप्त धातुओं ने ही इस शरीर को रमणीक बना दिया है । । बस इस कारण ही इन धातुओं को रत्न का नाम दिया गया है । इस शरीर को उस पिता ने एक निवास का , एक घर क रुप देते हुये इस में ही इन सात रत्नों की स्थापना कर दी है, इनका निवास बना दिया है । एसे दयालु प्रभु का, एसे दाता प्रभु का, एसे सब याचकों की याचना को पूरा करने वाले प्रभु का हमें सदा ध्यान करना चाहिये, उसके पास बैठ कर उसकी स्तुति करनी चाहिये, उसकी प्रार्थना करनी चाहिये ।

डा. अशोक आर्य

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