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आजकल आर्यसमाज के नए-नए विद्वान् नई-नई खोज कर रहे हैं। एक नई खोज सामने आयी है कि आत्मा साकार है और सत्यार्थप्रकाश का हवाला देते हुए बताते हैं कि स्वामी जी ने निराकार नहीं निराकारवत् लिखा। अब सही और गलत आप ही बताएँ।

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआजकल आर्यसमाज के नए-नए विद्वान् नई-नई खोज कर रहे हैं। एक नई खोज सामने आयी है कि आत्मा साकार है और सत्यार्थप्रकाश का हवाला देते हुए बताते हैं कि स्वामी जी ने निराकार नहीं निराकारवत् लिखा। अब सही और गलत आप ही बताएँ।

– यतीन्द्र आर्य, मन्त्री आर्यसमाज बालसमन्द, हिसार, हरि.

समाधानवैदिक सिद्धान्त त्रैतवाद को मानता है अर्थात् ईश्वर, जीव व प्रकृति इन तीनों की सत्ता है और वह सत्ता इन तीनों की अपनी पृथक्-पृथक् है। वेद व ऋषिकृत ग्रन्थों में इनका स्पष्ट वर्णन मिलता है। महर्षि दयानन्द ने अपने सिद्धान्त में इसी को रखा है। महर्षि ने इन तीनों स्वरूपों का वर्णन अपने ग्रन्थों, प्रवचनों व पत्र-व्यवहारों में अनेकत्र किया है। आर्य समाज के विद्वानों में महर्षि की मान्यता सर्वोपरि रहती है। वेद के आधार पर जिस बात को महर्षि मानते हैं उसी को आर्य विद्वान् स्वीकार करते हैं।

महर्षि दयानन्द ने जीवात्मा के स्वरूप विषय में जीवात्मा को स्पष्ट शब्दों में निराकार कहा है। महर्षि की इस स्पष्ट मान्यता की अवहेलना कर आर्य समाज में एक वर्ग विशेष चलाने वालें ने जीवात्मा को साकार कहना-बताना आरम्भ कर दिया है। यह ज्ञान  जिनके अन्दर उतरा है उनकी मान्यता है कि आज तक इनके अतिरिक्त यह बात किसी ने नहीं की, इसकी खोज तो मैंने ही की है। इनकी इस बात से हम सहमत हैं कि ये इलहाम इन्हीं को हुआ, अन्य किसी को नहीं। ये लोग तर्क देते हैं कि निराकार-निराकार में नहीं रह सकता अर्थात् निराकार ईश्वर में निराकार आत्मा वा अन्य कोई वस्तु नहीं रह सकती। इस तर्क को ये कथन मात्र में दोहराते हैं, सिद्ध नहीं करते। इसके लिए जहाँ तक हमारा अनुमान है कि इनके पास कोई शब्द प्रमाण नहीं है कि जीवात्मा साकार है।

हमने परोपकारी में जिज्ञासा-समाधान स्तम्भ के अन्तर्गत महर्षि दयानन्द के अनेक प्रमाण दिये। अब फिर उन प्रमाणों को देते हुए महर्षि का नया प्रमाण प्रस्तुत करते हैंः-

१. ‘‘बदला दिये जावेंगे कर्मानुसार, और प्याले भरे हुए, जिस दिन खड़े होंगे रूह और फरिश्ते सफ़ बांधकर’’ मं. ७/सि./३०/सू. ७८/आ. २६/३४/३८

समीक्षा-यदि कर्मानुसार फल दिया जाता है तो……….और रुह निराकार होने से वहाँ खड़ी क्योंकर हो सकेगी।’’ सत्यार्थप्रकाश समु. १४ (द. ग्रं. मा. भाग एक सं. १२९ वाँ बलिदान समारोह २०१२)

२. ‘‘इसी प्रकार भक्तों की उपासना के लिए ईश्वर का कुछ आकार होना चाहिए, ऐसा भी कुछ लोग कहते हैं, परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर स्थित जो जीव है वह भी आकार रहित है, यह सब कोई मानते हैं अर्थात् वैसा आकार न होते हुए भी हम परस्पर एक-दूसरे को पहचानते हैं और प्रत्यक्ष कभी न देखते हुए भी केवल गुणानुवादों ही से सद्भावना और पूज्य बुद्धि मनुष्य के विषय में रखते हैं।’’ (पूना प्रवचन व्या. १)े

प्रश्न- ‘‘मूर्त पदार्थों के बिना ध्यान कैसे बनेगा?

उत्तर- शब्द का आकार नहीं, तो भी शब्द ध्यान में आता है वा नहीं? आकाश का आकार नहीं तो भी आकाश का ज्ञान करने में आता है वा नहीं? जीव का आकार नहीं तो भी जीव का ध्यान होता है वा नहीं……।’’ (पूना. प्र. व्या. ४)

महर्षि दयानन्द का एक और प्रमाण सटीक व स्पष्ट रूप से देखिये-

यच्चेतनवत्वं तज्जीवत्वम्। जीवस्तु खलु चेतनस्वभावः।

अस्येच्छादयो धर्म्मास्तु निराकारोऽविनाश्यनादिश्च वर्त्तन्ते।

‘‘जो चेतन है, वह जीव है और जीव का चेतन ही स्वभाव है। उसके इच्छा आदि धर्म हैं तथा वह भी निराकार और नाश से रहित रहता है।’’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का पत्र व्यवहार भाग-१)

ये सभी शब्द प्रमाण हमने महर्षि दयानन्द के दिये हैं, इन आर्ष प्रमाणों को स्वीकार न कर अपनी काल्पनिक मिथ्या बात को सर्वोपरि रख उसको प्रचारित करना हठ-दूराग्रह ही हो सकता है।

अब इन आत्मा को साकार मानने वालों का जो कथन है कि निराकार परमात्मा में निराकार आत्मा कैसे रह सकता है? इनके इस कथन का उत्तर है कि जैसे साकार वस्तुएँ एकदेशीय होती हुईं निराकार परमात्मा में रहती हैं, वैसे ही एकदेशीय निराकार आत्मा भी निराकार परमात्मा में रहती है। यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि आत्मा और परमात्मा निराकार होते हुए भी दोनों सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म रूप से भेद रखते हैं। इस विषय में महर्षि दयानन्द प्रश्नोत्तर पूर्वक सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं-

प्रश्न जिस जगह में एक वस्तु होती है उस जगह में दूसरी नहीं रह सकती, इसलिए जीव और ईश्वर का संयोग सम्बन्ध हो सकता है, व्याप्य-व्यापक का नहीं?

उत्तरयह नियम समान आकार वाले पदार्थों में घट सकता है, असमान आकृति में नहीं।…….वैसे जीव परमेश्वर से स्थूल और परमेश्वर जीव से सूक्ष्म होने से परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य है।’’ महर्षि के इन वचनों से यह बात स्पष्ट हुई कि ईश्वर और जीव इयत्ता की दृष्टि से दोनों परिमाण वाले हैं, एक सूक्ष्म है दूसरा सूक्ष्मतर है, इस आधार पर एक व्याप्य है और दूसरा व्यापक है, एक एकदेशीय है तो दूसरा सर्वदेशीय है। आत्मा परमेश्वर से कुछ स्थूल है। कुछ स्थूल होने से निराकार आत्मा निराकार परमात्मा में रहता है। आत्मा के इस प्रकार रहने में कोई विरोध नहीं आ रहा।

अब साकार-निराकार पर विचार कर लेते हैं कि साकार व निराकार कहते किसे हैं।

१. जो पदार्थ आँख से दिखाई दे, वह साकार और इसके अतिरिक्त निराकार।

२. जो पदार्थ इन्द्रियों से प्रतीत होवे वह साकार और जो इन्द्रियों से प्रतीत न होवे वह निराकार।

३. जो पदार्थ प्रकृति से बना हुआ है, वह साकार और जो प्रकृति से नहीं बना वह निराकार।

पाठक विचार करके देखें कि वैदिक सिद्धान्त के अनुसार जीवात्मा में कौन सी परिभाषा घट रही है? इन तीनों परिभाषाओं में से एक भी परिभाषा जीवात्मा में नहीं घटेगी। क्योंकि जीवात्मा आँखों से दिखाई नहीं देता, इन्द्रियों से प्रतीत नहीं होता और न ही प्रकृति के अवयवों से बना हुआ। जब इन सब साकार की परिभाषाओं में जीवात्मा का स्वरूप घट ही नहीं रहा, तब जीवात्मा निराकार न होकर साकार कैसे हुआ, हाँ हो सकता है इन साकार मानने वाले अवतारों का आत्मा साकार हो।

आत्मा को निराकार न मानने वालों का तर्क है कि महर्षि ने आत्मा को निराकार न कहकर परिच्छिन्न लिखा है, इसलिए आत्मा निराकार नहीं है। इनके इस तर्क में कितना दम-खम है वह देख लेते हैं। जहाँ महर्षि ने आत्मा को परिच्छिन्न कहा है, वह किस सन्दर्भ में कहा है, वह सन्दर्भ पाठकों के लिए ज्यों का त्यों यहाँ लिख रहे हैं कि पाठक स्वयं जान लें कि सन्दर्भ आत्मा को निराकार-साकार दर्शाने के लिए है या कुछ और जानने के लिए। लीजिए सन्दर्भ प्रस्तुत है-

‘‘प्रश्न- जीव शरीर में भिन्न विभु है, वा परिच्छिन्न?

उत्तर- परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जाग्रत, स्वप्न, मरण, जन्म,संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प, अर्थात् सूक्ष्म है और परमेश्वर का अतीव सूक्ष्मात्सूक्ष्मतर, अनन्त, सर्वज्ञ और सर्वव्यापक स्वरूप है। इसलिए जीव और परमेश्वर का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है।’’ स.प्र.स.७

महर्षि के इन वचनों में आत्मा को निराकार कहने का कोई अवसर ही नहीं है। यहाँ तो महर्षि आत्मा के विभु अर्थात् सर्वव्यापक अथवा परिच्छिन्न अर्थात् एकदेशीय होने को लेकर चर्चा कर रहे हैं और इस चर्चा में महर्षि आत्मा को परिच्छिन्न=एकदेशीय युक्ति तर्क से सिद्ध कर रहे हैं। इस प्रकरण को न समझ समझाकर इससे अपनी काल्पनिक बात को प्रस्तुत कर जन सामान्य में मतिभ्रम फैलाना विद्वानों का कार्य नहीं हो सकता।

आओ साथ-साथ इस परिच्छिन्न और विभु शब्दों के अर्थों को और देख लेते हैं कि जिससे और स्पष्ट हो जाये कि यह सन्दर्भ आत्मा को निराकार न कहने के लिए है वा एकदेशीय।

‘‘प्रश्न- जीव शरीर में विभु है वा परिच्छिन्न?

उत्तर – परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है और परमेश्वर का अतीव सूक्ष्मात्सूक्ष्मतर, अनन्त, सर्वज्ञ और सर्वव्यापकस्वरूप है। इसलिए जीव और परमेश्वर का ‘व्याप्य-व्यापक’ सम्बन्ध है।’’ स.प्र.७

महर्षि ने यहाँ साकार-निराकार निरुपण किया ही नहीं, यहाँ तो विभु अथवा परिच्छिन्न की चर्चा की है, ऐसा होते हुए भी कुछ अतिविद्वान् इस प्रसंग से आत्मा को साकार अथवा निराकार न होना सिद्ध करते हैं। पाठक स्वयं विचार कर देखें कि ऋषि की आढ़ में अपने मन्तव्य परोसना चाह रहे हैं या……।

आत्मा के निराकार होने के अनेक प्रमाण हमने यहाँ महर्षि दयानन्द के दे दिये हैं। इतना होने पर भी महर्षि के मन्तव्य को कोई स्वीकार न करे तो इसको अपना दम्भ वा महत्वाकांक्षा ही कह सकते हैं।