एक महान् कर्मयोगी का महाप्रयाण

एक महान् कर्मयोगी का महाप्रयाण

– डॉ. रामप्रकाश वर्णी

युगपुरुष महर्षि स्वा. दयानन्द की उस दिव्यैषणा जो कि उन्होंने तदानीन्तन महाराणा जी के अनुरोध पर फाल्गुन कृष्णा 7/1939 वि.सं. को चित्तौड़गढ़ पहुँचकर, वहाँ की रानी पद्मिनी के जौहर और महाराणाओं के त्याग और शौर्य से सभृत स्वमातृभूमि के प्रति विहित आत्मोत्सर्ग के इतिवृत्त को सुनकर, भावविह्वल होकर सजल नयनों से अपने प्रिय शिष्य स्वा. आत्मानन्द सरस्वती के समक्ष प्रकट की थी, ‘‘चित्तौड़गढ़ वह पुण्यभूमि है जिसको देखकर प्रत्येक मनुष्य अपने कर्त्तव्यपालन के लिए प्रोत्साहित होता है, अतः निस्सन्देह यह अत्यन्त कल्याणात्मक बात होगी, यदि चित्तौड़गढ़ में गुरुकुल स्थापित हो जावेगा। हमारे देश के नवयुवक अपने जीवन की उन्नति के लिए सर्वोत्तम शिक्षा इसी स्थान पर प्राप्त कर सकेंगे।’’ महर्षि का हार्द-अभिलाष उनके असामयिक निधन के कारण तब तो पूर्ण नहीं हो सका, किन्तु उसको प्रो. ताराचन्द्र गाजरा द्वारा लिखित ञ्जद्धद्ग रुद्बद्घद्ग शद्घ स्ख्ड्डद्वद्ब ष्ठड्डब्ड्डठ्ठड्डठ्ठस्र में पढ़कर तच्छिष्यानुशिष्य ‘‘गुरुकुल काँगड़ी-हरिद्वार’’ विद्यातपोयां नितान्त निर्मल स्वान्त आदित्य ब्रह्मचारी युधिष्ठिर विद्यालङ्कार ने संन्यस्त होकर ‘वर्णिन् व्रतमेव धनन्ते’ सदृश श्रुतिसुखद-मुखर-मधुर आराव को हृदयङ्गम कर ‘व्रतानन्द’ बनकर ‘उदयपुरनगर’ में आश्विन शुक्ला नवमी वि.सं. 1984 में 08 ब्रह्मचारियों को लेकर एक गुरुकुल का समारभ करके पूर्ण किया। नाना अन्तराय सपात के भीमावर्तों में आघूर्णित होते हुए यही गुरुकुल माघ पूर्णिमा वि.सं. 1986 में ‘चित्तौड़नगर’ में स्थानान्तरित होकर कुछ काल तक चित्तौड़-दुर्ग की अधित्यका में अधिष्ठित भाड़े के भवनों में सञ्चालित होते हुए वि.सं. 1987 सन् 1931 ई. में ‘चित्तौड़गढ़-रेलवे स्थान’ के सन्निकट अपने वर्तमान सुरय प्राङ्गण में आ गया। यहाँ पर पू. स्वा. व्रतानन्द जी महाराज ने सतत् सावहित साधनारत रहकर देश के तात्कालिक विद्वत्तल्लजों को आचार्योपाचार्य के रूप में प्रतिष्ठित करके आर्ष पद्धति से ब्रह्मचारियों को वैदिक-लौकिक उभयविध वाङ्मय और उत्तम चारित्र्य की शिक्षा प्रदान करना आरभ किया। शुक्ल पक्षीय द्वितीया की चन्द्रचन्द्रिका की भाँति निरन्तर उपचीयमान यह भव्य और दिव्यधाम रूप गुरुकुल अपनी यशःसुरभि को दिग्दिगन्त में विकीर्ण करते हुए जग-गण-मन को प्रसह्य अपनी ओर समाकृष्ट करने में समर्थ होता चला गया। इसी यशः सौरभ का आघ्राण करके अजमेर जनपद के ‘यावर’ नगर के प्रसिद्ध नागर श्री मूलचन्द जी के पुत्र श्री महादेव जी ने ई. सन् 1942 में आत्म-प्रेरित होकर अपने पुत्र ‘यज्ञदेव’ को इस गुरुकुल में प्रवेश दिलाया।

शुचि-रुचि रोचिष्णु श्रद्धा-सुमेधा सपन्न इस दृढ़व्रती वर्णी ने श्रवण-मनन-निदिध्यासन पूर्वक अधीति-बोध-आचरण और प्रचारण से अपने अर्च्य आचार्यों और समानधर्मा सतीर्थ्यों को प्रसह्य अपनी ओर आकृष्ट किया तथा पुष्टि-तुष्टि, रति-धृति के द्वारा शक्ति-स्वस्ति का निष्कलुष लाभ लेकर स्व और स्वकुल को धन्य-धन्य कर दिया।

चारु-चारित्र्यचित्रित सारस्वत सत्र रूप अनन्ताध्वन के अथक अध्वा इस विचित्र यज्वा ने स्वल्पकाल में अपनी अशेष शेमुषी का समुचित सदुपयोग करते हुए वेद-वेदाङ्गों का तलस्पृक्-वैदुष्य अर्जित कर अपना कीर्तिकेतु दिग्दिगन्त में फहरा दिया। तत्कालीन ‘वाराणसेय सं. विश्ववि. वाराणसी, (उ.प्र.) से ‘वेद एवं नैरुक्तप्रक्रिया’ विषय में ‘आचार्य’ परीक्षा सर्वोच्च अङ्कों से उत्तीर्ण कर आगरा वि.वि. आगरा, (उ.प्र.) से संस्कृत विषय में ‘एम.ए.’ परीक्षा ‘स्वर्ण पदक’ प्राप्त करके उत्तीर्ण की। इसके अनन्तर ‘गुरुकुल-चित्तौड़गढ़ (रा.प्र.)’ की ‘वेदवागीश’ परीक्षा जो कि इस गुरुकुल की सर्वोच्च और अन्त्य परीक्षा थी, भी ‘शुक्लयजुर्वेद माध्यन्दिनवाजसनेयिसंहिता’ को विषय बनाकर 93 प्रतिशत अङ्कों से उत्तीर्ण कर अपने परीक्षकों को चमत्कृत कर दिया। अब वे ब्र. यज्ञदेव से आचार्य यज्ञदेव वेदवागीश ‘वेदायन’ जी बन गये थे।

इसके बाद वे समभवतः एक वर्ष तक उत्तरप्रदेशस्थ ‘मेरठ कॉ.मेरठ’ में संस्कृत-विभाग में यशस्वी प्राध्यापक के रूप में रहे, किन्तु उनके परमशिवैषी आचार्य स्वा. व्रतानन्द जी को तो उनसे कुछ और ही कराना अभिप्रेत था, अतः उन्होंने बलपूर्वक अपने कठोर और स्नेहिल आदेश से उन्हें उक्त कॉलिज से त्यागपत्र देकर पुनः गुरुकुल में आने को विवश कर दिया। इस प्रकार यहाँ आकर इनके जीवन की द्वितीय पाली प्रारमभ हुई। अब वे गुरुकुल के ‘मुयाधिष्ठाता’ पद पर अधिष्ठित कर दिये गये। उस समय गुरुकुल के चारों ओर भयङ्कर वन और उसमें हिंसक वन्यप्राणियों की विभीषिका भरी आवाजें तथा विषमविषज्वालभरति सरीसृपों की सणत्कारके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। भवनों, भूमि और संसाधनों का अत्यन्ताभाव पदे-पदे मार्ग में अवरोध बनकर खड़ा था। साथ ही सांसारिक छलछद्म से कोशों दूर रहने वाले दुग्ध-धवल-अमल-कुल्येव भास्वर भाल मुग्धमना स्वामी व्रतानन्द जी ने गुरुकुल के सञ्चालन हेतु इतस्ततः प्रभूत धन राशि ऋण के रूप में धनिकों से ले रखी थी। परिणामतः यह गुरुकुल कर्ज के दल-दल में आकण्ठ विमग्न हो चुका था। इस प्रकार मुयअधिष्ठाता श्री ‘वेदायन’ जी के सामने एक ओर समस्त संसाधनों को जुटाकर गुरुकुल के सफल सञ्चालन की अतिविकट संकटाकीर्ण समस्या थी तो दूसरी ओर गुरुकुल को ऋणमुक्त और आत्मनिर्भर बनाने की दुर्घर्ष चुनौती भी थी। इसके लिए उन्होंने ‘मत्तेभकुभदलने भुवि सन्तिशूराः…..कन्दर्पदर्पदलनेविरला मनुष्याः’ को जानते हुए भी यावज्जीवंब्रह्मचारी रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की और यह निहत्था ही महारथी संसार समर में दिग्विजय हेतु कूद पड़ा, जबकि कुछ साथी ‘ऊढ’ होते हुए भी ‘अनूढ’ रहने के लिए रक्ताक्त हस्ताक्षर करके प्रतिज्ञात होने के बाद भी पुनः ‘ऊढ’ हो चुके थे। इन्होंने अहर्निश कठोर परिश्रम करके ‘रायपुरिया’ में स्थित विशाल कृषिक्षेत्र को ‘मानसिंह ग्रुप’ से दान के रूप में प्राप्त करके मरणान्तक कष्ट झेलते हुए उस पर गुरुकुल का कबजा कराया तथा कृषि कार्य हेतु एक ‘मैसी-ट्रैक्टर’ जो कि आज भी है, दान में प्राप्त करके असमभव को भी समभव बनाकर दिखा दिया। गुरुकुल में नव्य-भव्य-भवन भी बने, जिनमें ‘गोविन्द भवन’ प्रमुख है। तब सन् 1980 ई. में स्वा. व्रतानन्द जी यशः शेष हुए तो उन्हीं के कुछ स्नातकों ने दुराभिसन्धिपूर्वक स्वामी जी के मिथ्या हस्ताक्षरों से एक ‘झूंठी वसीयत’ तैयार कराकर गुरुकुल पर अपना दावा ठोक दिया। महाभारत के अभिमन्यु की भाँति एक ओर सात-सात सशस्त्र महारथी दूसरी ओर निहत्था अभिमन्यु रूप यह एकाकी अरथी। उभयपक्ष में तुमुल संग्राम हुआ। महाभारत का अभिमन्यु तो छलपूर्वक मार डाला गया, किन्तु यह अभिमन्यु उन सभी को पराजित कर अतिविषम तद्रचित चक्रव्यूह को तोड़कर विजय पताका फहराते हुए बाहर निकल आया। अब ये इतने अनुभवी और नीतिनिपुण हो चुके थे कि थोड़े से ही समय में लगकर कार्य करके भारतवर्षीय यज्ञशालाओं में अद्वितीय ‘आर्षगुरुकुल’ एटा उ.प्र. की ‘यज्ञशाला’ को भी मात देने वाली सर्वथा सर्वात्मना अनुपम यज्ञशाला के निर्माणता बने। इसके साथ ही सपूर्ण गुरुकुल परिसर और रायपुरियास्थ ‘कृषिक्षेत्र की 7-10 फु ट ऊँची चारदीवारी बनाकर सभी प्रकार की क्षतियों से उसे विक्षत बना दिया। गोशाला, विद्यालय और छात्रावास एवं कई अतिथिशालाओं को सुसज्जित बनाकर एक सुतुच्छ बीज को ‘विशाल-वटवृक्ष’ का रूप देकर वे अपने कीर्तिशेष गुरुवर्य स्वा. व्रतानन्द जी की आशा-प्रत्याशाओं के साधु संवाहक बने।

अभी मैं जब 22 से 24 जुलाई 2016 तक उनके सान्निध्य में अध्युषित रहा तो उन्होंने ‘गुरुकुल परिसर’ से लेकर ‘रायपुरिया-कृषिक्षेत्र’ तक का सूक्ष्मवीक्षण कराया और अन्त में ‘गोविन्दभवन’ में बनाये गये उस विशाल ‘अन्न भण्डार’ को भी दिखाया जो गोधूम आदि अन्नों से परिपूर्ण था। उन्होंने बताया कि वर्ष में दो बार हमको पाँच-पाँच सौ बोरियों से भी अधिक अन्न कृषिक्षेत्र से प्राप्त हो जाता है तथा हमने ‘गभीरी नदी’ के तट पर स्थित खेत को बेचकर समभवतः चार करोड़ रु. की एक ‘स्थिरनिधि’ बना दी है, जिससे हमें लाखों रु. प्रतिमास सूद के रूप में प्राप्त हो जाता है। अब हम गुरुकुल के लिए किसी से दान नहीं लेते हैं। यदि कोई भूल से दान देता भी है तो हम विनम्रता पूर्वक वापिस कर देते हैं। इस प्रकार अब हमारा यह गुरुकुल सब भाँति आत्मनिर्भर हो गया है। फिर भी मुझे विगत कु छ वर्षों के घटनाक्रम और अब भी कुछ-कुछ गुरुकुल विरोधी तत्त्वों की दुश्चिकीर्षाओं को याद करके और सोच-सोचकर बहुत दुःख होता है और मेरा ‘रक्तचाप’ बढ़ जाता है। इस पर मैंने उन्हें सर्वविध तनावमुक्त रहने का व चिकित्सक की तरह ही परामर्श दिया तो वे गम्भीर होकर थोड़ी देर बाद मुस्कराये और बोले ‘तनाव किया नहीं जाता है, हो जाता है।’ उन्होंने चलते समय 24/8/2016 ई. को अपनी एक लेखमाला मुझे दी और कहा ‘इसको ग्रन्थ का रूप देना है।’ मेरे लिए उनका अन्तिम सन्देश था-‘‘तूफानों से कश्ती को लाये हैं निकाल के,

मेरे बच्चो, तुम रखना इसको सम्भाल के’’

मैं खुशी-खुशी गुरुकुल चि. से एटा लौट आया मुझे तनिक भी कहीं सेाी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि आचार्य जी इतनी जल्दी चले जायेंगे। लगता है उन्हें इससे भी कहीं ज्यादा कोई और कार्य करना था, इसलिए वे देश के स्वतन्त्रता दिवस पर गुरुकुल से भी स्वतन्त्र हो गये। इस धरती पर उनका कीर्तिकलाधर यावच्चप्रद्रिवाकारीं चमके गा भले वे यहाँ सशरीर न रहें।

मैं उनके समग्र कर्त्तृव्य को सश्रद्ध प्रणाम करता हूँ।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *