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मेरे पिता जी

मेरे पिता जी

– तपेन्द्र कुमार आई.ए.एस. (से. नि.)

मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैं अपने पिताजी के समान कट्टर आर्यसमाजी नहीं हूँ और न ही उनके समकक्ष सिद्धान्तों का परिपालन ही अपने जीवन में कर पाया हूँ। उन्होंने साधारण परिवार से होते हुए भी मेरी आजीविका एवं अपने परिवार का ध्यान न रखते हुए-मुझे गुरुकुल में पढ़ने के लिए भेजा, जिससे मैं आर्य बन सकूं, एक अच्छा ‘इन्सान’ बन सकूँ । उन्होंने वित्तीय आवश्यकताओं की बजाय मुझे सद्गुणी बनाने के लिए गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय में भेजा। जबकि मेरे साथ पढ़ने वाले छात्र अच्छे कॉलेजों में गये। उपहास में कहा गया कि गुरुकुल में पढ़कर विवाह संस्कार कराना सीख जायेगा, तो पिताजी ने मुझे भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने की प्रेरणा दी और उन्हीं के आशीर्वाद से संस्कृत पढ़ा हुआ एक वेदालंकार आई.ए.एस. बन गया।

सिद्धान्तों के धनी मेरे पिता स्व. रघुवरसिंह सुधारक उस समय विधुर हो गये थे, जब मेरी उम्र मुश्किल से चार साल रही होगी। मेरे ननिहाल से अत्यधिक आग्रह होते हुए भी उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया। मेरे पिताजी ने आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं होने की स्थितियों में भी दैनिक-यज्ञ किया। वे कहा करते थे कि जब से यज्ञ करना प्रारमभ किया, तब से घर में घी समाप्त नहीं हुआ। उन्होंने कभी बिना सन्ध्या किये भोजन नहीं किया तथा कभी खादी की धोती व कुर्ते के सिवाय कोई वस्त्र धारण नहीं किया। गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय से एक बार मुझे भाषण-प्रतियोगिता के लिए एक बड़े विश्वविद्यालय में जाना था, मेरे पास कोट नहीं था। पिताजी को कोट के लिए कहा, उन्होंने मना नहीं किया, परन्तु बोले-कपड़े भाषण नहीं करते। फिर भी कोट बनाना हो तो बना लो, लेकिन ध्यान रहे, अपने पैरों पर खड़े होने के बाद इससे कई गुना अच्छा कोट पहनना होगा-जो आज की सादगी से ही समभव होगा।

ईश्वर विश्वासी व निडर इतने कि सारी जिन्दगी रास्ते के पास बैठक के बरामदे में सोते रहे (हमारी बैठक गाँव के एक किनारे पर थी।)सत्य के आग्रही ऐसे कि युवावस्था में एक जातीय पंचायत में बड़े-बड़ों के विरोध की परवाह किये बिना एक महिला के अधिकारों के लिए भिड़ गये तथा उसके अधिकार दिलाकर ही माने। युवावस्था में हुक्का पीते थे, एक दिन छोड़ा तो सारी जिन्दगी बीड़ी, सिगरेट, हुक्का आदि नहीं पीया और सैकड़ों लोगों की हुक्के-बीड़ी की लत छुड़ायी। जीवनयापन के लिए जो भी व्यापार किया उसमें पवित्रता इतनी कि चाहे हानि हो जाये, पर झूठ बोल कर पैसा नहीं कमाना। उनका दृढ़ विश्वास था कि परिश्रम और ईमानदारी के रास्ते पर चलने से कोई हानि नहीं होती। शायद यह सत्य भी था, क्योंकि 1954 में हमारी दो मंजिली बैठक पक्की ईंटों से बनी थी तथा उस पर प्लास्टर था।

आर्य समाज के प्रचार की ऐसी इच्छा कि कुछ समय के लिए भजनोपदेशक कार्य भी किया, बाद में स्वास्थ्य व अन्य कारणों से छोड़ना पड़ा। एक बार बीमार हुए तो सहारनपुर के बड़े अस्पताल में भर्ती हो गये। डॉक्टरों ने कहा-बहुत कमजोरी है, अण्डे खाया करो, जल्दी ठीक हो जाओगे। डॉक्टर को झिड़क दिया और बोले-मृत्यु प्रिय है, सिद्धान्त तोड़ना नहीं। तुम यहाँ के मरीजों में जिसे बलवान् समझते हो उससे मेरा मुकाबला करा लो। कई माह अस्पताल में रहते हुए भी नित्य-कर्म व यज्ञ नहीं छोड़ा।

मैंने उत्तर प्रदेश प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी तथा लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। प्रबुद्ध लोगों को पता चला तो पिता जी से कहा-इण्टरव्यू के लिए सिफारिश करा दो, यह अवसर बार-बार नहीं आता। उनके एक मित्र पिता जी को लेकर उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष महोदय के एक नजदीकी रिश्तेदार के घर गये। पता चला कि चालीस हजार रुपये का इन्तजाम करना पड़ेगा। मित्रों ने आग्रह किया-उधार आदि ले लो, परन्तु मौका हाथ से न जाने दो। पिताजी ने दृढ़ शबदों में इंकार कर दिया और बोले-जिसकी नींव ही बेइमानी पर खड़ी हो, ऐसी बड़ी नौकरी हमें नहीं चाहिये। मैं साक्षात्कार में फेल हो गया। ईश्वर-विश्वासी ऐसे बोलेअब पी.सी.एस. नहीं, आई. ए. एस. की परीक्षा दो, वहाँ भ्रष्टाचार नहीं है- पास हो जाओगे। परीक्षा दी, मैं पास भी हो गया।

मेरे जयेष्ठ भ्राता डॉ. जगदेव सिंह विद्यालंकार की कृपा से मुझे हरियाणा के एक डिग्री कॉलेज में संस्कृत प्रवक्ता की नौकरी मिल गयी। प्रवक्ता का वेतनमान आई.ए.एस. के वेतनमान के बराबर सात सौ रुपये था। मैंने पी.जी.कॉलेज बड़ौत में संस्कृत प्रवक्ता हेतु प्रार्थना-पत्र दिया, साक्षात्कार-पत्र आ गया। प्राचार्य महोदय से स्वीकृति माँगी तो मना कर दिया। मैं उनके पीछे-पीछे बस स्टैण्ड तक आया तथा बहुत निवेदन किया। प्राचार्य महोदय बोले हम ने तो 20 साल में पी.जी. कॉलेज के लिए सोचा, तुम अभी से जाना चाहते हो। मैंने उनके सामने ही आवेश में वह कागज फाड़कर फेंक दिया तथा साक्षात्कार के लिए चला गया। जाने पर पता चला कि साक्षात्कार स्थगित हो गया। वापस आया तो कारण बताओ नोटिस मिला। मैंने पिताजी को सारी स्थिति बतायी। उन्होंने कहा- यदि कोई राष्ट्रपति बना दे ओर कहे कि आगे नहीं बढ़ो तो मंजूर नहीं, अपने घर आ जाओ, इतने पैसे यहीं कमा लेंगे। यह वह समय था जब घर की आर्थिक हालत भी ठीक नहीं थी।

भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन होने के लगभग तीन साल बाद मेरा विवाह हुआ। मंसूरी अकादमी से ही बड़े-बड़े रिश्ते आने शुरु हो गये थे। लेकिन गुण-कर्म-स्वभाव को प्राथमिकता देने वाले मेरे पिताजी न तो किसी दबाव में आये और न हीं लालच में। बिना दहेज के विवाह हुआ। मैं अकेली सन्तान हूँ, फिर भी वे मेरी बारात में नहीं गये। स्पष्टतः बारात छोटी थी। दिन में बारात गयी, विवाह संस्कार के उपरान्त शाम तक वापस घर आ गये। कई रिश्तेदारों ने समझाया-दहेज माँग करना गलत है, लेकिन लड़की वाला यदि अपनी इच्छा से देता है तो यह दहेज नहीं। पिताजी का स्पष्ट उत्तर था-कन्या का पिता अपनी औकात से ज्यादा ही देता है, मांगोगे तो भी उतना ही दे पायेगा, नहीं मांगोगे तो भी उतना ही देगा। इसलिये स्पष्ट मना करना चाहिये कि धन या सामान-किसी भी रूप में दहेज नहीं लेंगे। बारात में चलने के लिए सब ने समझाया, आपकी इकलौती सन्तान का विवाह है- तो बोले-मेरा सार्वजनिक जीवन रहा है, मैं अनेकों बारातों में गया हूँ, यदि उन्हें आमन्त्रित नहीं करुँ, तो उचित नहीं, यदि आमन्त्रित करुँ  तो बारात बड़ी होगी, जो कि मुझे स्वीकार्य नहीं, क्योंकि ये मेरे सिद्धान्तों के विरुद्ध है। उनका यह नियम था कि जिस विवाह में शराब पी जावेगी तथा बाजा व नाच होगा, उस विवाह में नहीं जायेंगे। यदि जाने पर शराब या नृत्य का पता चलता तो उसी समय अपना थैला उठाकर चले आते थे।

स्व. महाशय फूल सिंह जी हमारे गाँव के सबसे पुराने आर्यसमाजी थे जो दैनिक यज्ञ करते थे। कई गाँवों के सरपंच थे, जमींदार थे। कोई अफसर आता था, तो उन्हीं की कोठी पर आता था। महाशय जी एवं पिताजी की घनिष्ट मित्रता थी। दोनों ने गाँव में आर्यसमाज की स्थापना की। आस-पास के ग्रामों में स्थापना हेतु प्रेरित किया। महाशय जी प्रधान थे, पिता जी मन्त्री थे, गाँव के समभ्रान्त लोग साथ थे। भजनोपदेशक एवं उपदेशक, संन्यासीगण आते रहते थे, हमारा घर भी उनकी चरण-रज से पवित्र हो जाता था व हमें उनके दर्शन का लाभ मिलता था। एक बार तो आर्यसमाज का उत्सव होली के अवसर पर रख लिया। तीन दिन धूमधाम से उत्सव हुआ। रंगो के बजाय लोग ज्ञान-गंगा में नहाये, शराब की बजाय सत्संग का अमृत चखा।

गुरुकुल महाविद्यालय शुक्रताल ‘पहले वैदिक योग आश्रम शुक्रताल’ था। इसकी स्थापना में पिता जी का पूर्ण योगदान रहा। शुक्रताल सनातनधर्मियों का गढ़ था। वहां मुश्किल से जमीन ली गयी तो भवन-निर्माण में अड़चनें खड़ी कर दी गयीं। आस-पास के गाँव के आर्यों ने आश्रम का पूरा सहयोग किया। आश्रम में खड़े रहकर पिता जी ने भी तन-मन-धन से सहयोग किया। यही नहीं, जब गुरुकुल का आरमभ हुआ तो उन्होंने प्रथम बैच में ही मुझे गुरुकुल पढ़ने भेज दिया। आर्यसमाज के प्रति उनकी निष्ठा अचल थी।

स्व. चौधरी जगतसिंह जी बसेड़ा ग्राम के वियात जमींदार थे, उनके पास कई सौ बीघा जमीन थी। पक्के आर्यसमाजी थे। सादगी व तप की प्रतिमूर्ति थे। ऊंचा कटिवस्त्र व ऊँचा आधी बाँह का सादा कुर्ता पहनते थे। वैदिक योग आश्रम शुक्रताल की स्थापना से पूर्व ही वे जाट धर्मशाला शुक्रताल में बड़े-बड़े यज्ञ कराया करते थे। चौधरी साहब अपनी टीम के साथ कई बार हमारे गाँव से होकर जाते। हमारी बैठक रास्ते पर थी, थोड़ा विश्राम कर लेते थे। यज्ञ के प्रति श्रद्धा एवं आर्यों की एकता के हिमायती पिताजी ने एक बार उनसे निवेदन किया कि गांव की पावर हाउस पर एक निश्चित तिथि को यज्ञ का आयोजन हो जावे तो आस-पास के सभी आर्यजन एकत्रित हो जावें और समाज का काम और आगे बढ़े। दोनों के निश्चय से यज्ञ प्रारमभ हो गया। तब से आज तक पावर आउस पर प्रतिवर्ष शरद् पूर्णिमा पर यज्ञ का भव्य आयोजन हो रहा है।

पिताजी चार दर्जे तक उर्दू पढ़े थे। उर्दू में लिखते थे। ओ3म् तो काफी बाद तक भी उर्दृू में लिखा करते थे। धुन के धनी ने हिन्दी पढ़ना-लिखना सीखा तथा 1962 में तो उनकी भजनों की किताब भी हिन्दी में छप गयी थी। संस्कृत पढ़ना सीखा तथा महर्षि के ग्रन्थ एवं पुराने विद्वानों के ग्रन्थों का अन्त समय तक स्वाध्याय करते रहे। अन्त समय में यज्ञ पर पुस्तक लिखी। जिसे हम प्रकाशित नहीं करा पाये। गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर, गुरुकुल काँगड़ी, वानप्रस्थ आश्रम व मोहन आश्रम के वार्षिक उत्सव लगातार एक के बाद एक हुआ करते थे। पिताजी व अन्य आर्यसमाजी प्रतिवर्ष साइकिलों से हरिद्वार जाते तथा सारे उत्सव देखकर ही वापस लौटते थे। यह क्रम लबे समय तक चलता रहा । वे बहुश्रुत थे व सिद्धान्तों के प्रति दृढ़-प्रतिज्ञ भी, संभवतः यही कारण था कि मंच से यदि सिद्धान्त विरुद्ध बात बोली जाती तो वे कई बार तो उठकर विरोध कर देते थे।

गोभक्त इतने कि स्वयं गाय का दूध प्रयोग करते, दूसरों को प्रेरित करते। इसी प्रभाव से हमारे घर अभी तक भी गाय के दूध का ही उपयोग किया जाता है। वे गोरक्षा आन्दोलन में जेल भी गये थे। उन्होंने वैदिक सिद्धान्तों को अपने जीवन में जिया तथा विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी आस्था में लेश मात्र भी परिवर्तन नहीं हुआ। परमपिता परमात्मा उनके सद्गुणों, सद्विचारों का अनुसरण करने की शक्ति हमें प्रदान करें-यही प्रार्थना है।