हा! बीत गया वो स्वर्णिम युग

हा! बीत गया वो स्वर्णिम युग

‘‘परोपकारिणी सभा के प्रधान डॉ. धर्मवीर जी नहीं रहे।’’ जिसने भी ये शबद सुने, उसने पलटकर ये जरूर कहा ‘‘मुझे विश्वास नहीं हो रहा है, किसी और से बात करवाइये।’’ कुछ लोगों की यह भी प्रतिक्रिया थी ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ दिन पहले ही तो ऋषि मेले की सूचना देने आये थे, तब तो पूर्ण स्वस्थ थे।’’ पहली बार में तो किसी को भी विश्वास नहीं हुआ, जो बता रहे थे उनको भी नहीं, जिन्होंने उस अन्त समय को अपनी आँखों से देखा- उनको भी  नहीं। सभी एक दूसरे को आशा भरी नजरों से देख रहे थे कि कोई उनसे कहे- ‘‘धर्मवीर जी को कुछ नहीं हुआ है, वे बिलकुल ठीक हैं।’’ पर यह समभव नहीं था, क्योंकि ऋषि दयानन्द, आर्य समाज, राष्ट्र और संस्कृति का एक सजग प्रहरी सदा के लिये जा चुका था। समय ठहर सा गया। लगा कि मानो कोई बुरा सपना देख रहे हों, आँख खुलते ही सब ठीक हो जायेगा। पर यह सपना है कि रुकने का नाम ही नहीं लेता, चलता ही जा रहा है। इस घटना की कल्पना तक किसी ने नहीं की थी। डॉक्टर के ये बताने पर भी कि स्थिति गमभीर है- किसी को लगा ही नहीं कि ये सच है।

पर यही सच था। ऋषि दयानन्द की सेना का सबसे योग्य सैनिक शहीद हो गया था। वो अकेला ही सब पर भारी था, उसकी उपस्थिति मात्र ही ऊर्जा देने वाली थी। वे अकेले ही पूरी सेना के बराबर थे। उनकी पुत्री के शबदों में कहा जाये तो ‘‘तुरूप का इक्का’’- जीतेगा ही जीतेगा, हार का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। परिस्थिति कोई भी हो, मुश्किलों में बस एक ही समाधान था- ‘धर्मवीर’। ये केवल नाम नहीं था, सबके अन्दर विद्यमान एक अप्रत्यक्ष ऊर्जा थी, जिसके रहते कुछ भी असमभव नहीं लगता था। सभा के लिये धन संग्रह से लेकर वेद की ऋचाओं के विवेचन तक सब कुछ उनके लिये सहज था। जब वे लिखते थे तो पढ़ने वालों की आँखों खुली रह जातीं, बोलते थे तो बाकि कुछ सुनने का मन नहीं करता था। सरलता व सादगी के धनी डॉ. धर्मवीर जी में सबको जोड़कर और पिरोकर रखने की अद्भुत क्षमता थी। ऐसे व्यक्तित्व के विषय में किसी ने भी नहीं सोचा था कि वे सबको इस तरह बीच में ही छोड़कर चले जायेंगे।

वह समपूर्ण घटनाक्रम आँखों के सामने ही है। सबनेारपूर कोशिशें कीं, पर ईश्वर की व्यवस्था के सामने सभी प्रयास निष्फल होते चले गये। अपनी अन्तिम प्रचार-यात्रा पर जब वे निकले तो स्वस्थ थे। 20 सितबर को जबलपुर के वार्षिकोत्सव के लिये उनकी धर्मपत्नी ‘ज्योत्स्ना जी’ भी साथ में जाने वाली थीं। पर कुछ आवश्यक कारणों से ज्योत्स्ना जी को अपनी यात्रा स्थगित करनी पड़ी। वे अकेले ही अपनी यात्रा पर चल दिये। जबलपुर पहुँचकर सभा के कार्यकर्त्ता सत्यप्रिय जी को बुलाकर सबसे उनका परिचय करवा दिया, अपने कार्यकर्त्ता को अपने कार्य हस्तान्तरित करते गये। जब जबलपुर का कार्यक्रम समपन्न हुआ तो भेंट में मिली सभी वस्तुयें उनके हाथ में थमाते हुये बड़े सरल, सहज भाव से बोले ‘ले, ये तू रख!’ उनकी विद्या विनय के रूप में उनके व्यवहार में भी थी। अपने लिये उन्होंने कोई व्यावहारिक दायरा नहीं बनाया हुआ था। जिससे भी मिलते थे तो लगता था कोई उनका वर्षों पुराना परिचित हो।

25 सितबर को जबलपुर का कार्यक्रम सपन्न करके गाजियाबाद के पिलखुआ आर्यसमाज में आये। यहाँ पर उन्हें सात दिन तक आर्यसमाज के उत्सव में रहना था, पर कुछ दिनों बाद वे स्वयं को अस्वस्थ अनुभव करने लगे। उन्हें लगा कि सामान्य रोग है, ठीक हो जायेगा, इसलिये उसे गमभीरता से भी नहीं लिया। अस्वस्थ होते हुये तथा कष्ट झेलते हुये भी निरन्तर व्याखयान देते रहे। अन्तिम दिन तो व्याखया भी न दे सके, पर अपनी सेवा के लिये किसी को कष्ट नहीं दिया।

कार्यक्रम की समाप्ति पर ज्योत्स्ना जी ने कहा कि ‘आप बीमार हैं तो ट्रेन से मत आना, गाड़ी भेज रहे हैं, उसमें आना।’ पर उन्होंने मना कर दिया और ट्रेन से ही अजमेर तक आये। स्टेशन पर उन्हें लेने गये तो ‘धर्मवीर जी’ गाड़ी से बाहर नहीं उतरे। कार चालक श्यामसिंह जी ने जब रेल कर्मचारी से पूछा तो उसने बताया कि एक सज्जन अन्दर ही बैठे हैं। जाकर देखा तो पता चला कि वे चलने तक में असमर्थ हैं, बस बैठे हुये हैं। वह यात्रा उन्होंने कैसे पूरी की होगी, कितनी पीड़ा हुयी होगी, लघुशंका आदि के लिये कैसे गये होंगे- ये सब सोचकर ही हृदय सहम जाता है। इतने पर भी किसी को अपनी व्यथा नहीं बतायी। ‘किसी को मेरे कारण कष्ट न हो’ बस यही सोचकर सारा दर्द अन्दर ही दबाये रखा। उनकी ऐसी अवस्था देखते ही चालक के होश उड़ गये। उनकी ऐसी स्थिति अकल्पनीय थी। उनका सामान बाहर रखकर उन्हें सहारे से बाहर लाकर बैठाया। व्हील चेयर की सहायता से कार के पास तक लाया गया। दुर्भाग्य था या कुछ और? पता नहीं। लेकिन कार स्टार्ट नहीं हो रही थी। शायद उसकी बैटरी खराब हो गई थी। ऋषि उद्यान में फोन करके दूसरा वाहन और सहायता के लिये गुरुकुल के कुछ विद्यार्थियों को आने के लिये कहा। स्थिति की गमभीरता को देखते हुये आचार्य सत्यजित् जी विद्यार्थियों के साथ स्वयं ही आये।

ऋषि उद्यान पहुँचने पर उन्हें तुरन्त हॉस्पिटल ले जाकर आपातकालीन व्यवस्था में चिकित्सक को दिखाया। दवाइयाँ दी गयीं, परीक्षण किये गये। शाम को वापस ऋषि उद्यान आ गये। भोजन में उन्होंने कुछ दूध लिया और बोले ‘‘वैसे तो मैं ठीक हूँ, पर शरीर ही साथ नहीं दे रहा।’’ दवाईयाँ लेकर बिस्तर पर लेट गये। जो विद्यार्थी उनकी सेवा में थे, उन्हें जाने के लिये कहा और बोले कि ‘मेरे कारण आप लोग क्यों परेशान होते हो।’ पर विद्यार्थी सेवा में ही रहे, रातभर पास में जागते रहे। स्वास्थ्य ठीक नहीं था, इसलिये उन्हें नींद भी नहीं आ रही थी। रात को कई बार शौच के लिये गये। लघुशंका ठीक से नहीं कर पा रहे थे। रात दो बजे के करीब विद्यार्थियों से बोले कि मुझे टहलता है, बाहर ले चलो। सहारा देकर दोनों विद्यार्थी उन्हें दरवाजे तक लाये तो पैर लड़खड़ाने लगे, शरीर काँपने लगा, इसलिये फिर टहलने नहीं गये और वापस बिस्तर पर लेट गये। प्रातःकाल थोड़ा फलों का रस लिया। पहले तो अपने हाथों से गिलास तक भी नहीं पकड़ पा रहे थे, पर अब अपने हाथों से गिलास को पकड़ा। ये देखकर सामने खड़े लोगों को कुछ सान्त्वना मिली। लेकिन कुछ देर बाद स्वास्थ्य फिर से बिगड़ने लगा। डॉक्टर को फोन करके हॉस्पिटल पहुँचे तो डॉक्टर ने देखते ही आई.सी.यू. में भर्ती कर लिया। चिकित्सा शुरू हो गयी। संक्रमण के कारण किडनी का कार्य प्रभावित हो गया था। उसके उपचार के लिये डायलेसिस की प्रक्रिया की गयी। रात को एक बार रक्तचाप आदि में कुछ सुधार दिखाई भी दिया, पर 6 अक्टूबर सुबह लगभग पाँच बजे स्थिति फिर से गमभीर होनी प्रारमभ हो गई। हृदय का स्पन्दन धीमा होने लगा, धड़कने रुक सी रहीं थीं। जीवनभर देश व समाज के लिये पहरा देने वाला प्रहरी स्वयं सोने के लिये जा रहा था। भोर हो चुकी थी, अब उसे भी विश्राम करना था, और हमें जागना था। अपने दायित्व का निर्वाह पूर्ण निष्ठा से करके आने वाली पीढ़ी को जिमेदारी सौंप दी।

डॉक्टरों ने अन्तिम प्रयास के रूप में जो हो सकता था, सब किया, पर सब व्यर्थ। हृदय की गति रुक गई, मशीन की स्क्रीन पर धड़कने शून्य थीं। पंछी निकल चुका था। जो सामने था, वह एक भौतिक शरीर मात्र था। घर यहीं था, पर घर में रहने वाला कहीं और जा चुका था। यह सारी घटना वहाँ पर उपस्थित लोगों के सामने ही घट रही थी, सब कुछ खुद को ठगा सा महसूस कर रहे थे। ईश्वर से बस यही शिकायत थी कि कम-से-कम एक अवसर तो देना चाहिये था ना! एक ही झटके में सब कुछ छिन गया। सब कुछ रेत की तरह हाथ से फिसलता गया और हाथ खाली रह गये। पार्थिव शरीर को ऋषि उद्यान लाकर सरस्वती-भवन में रखा गया। कुछ ही देर बार अन्तिम दर्शनों के लिये लोगों का तांता लग गया।

7 अक्टूबर की सुबह अजमेर के पृथ्वीराज मार्ग पर लोगों और वाहनों की एक लमबी कतार थी। हजारों लोग सड़क पर पंक्ति में ईश्वर स्तुति-प्रार्थना-उपासना के मन्त्रों का पाठ करते हुये चल रहे थे। सबकी आँखें नम थीं, विशेष गुणों से युक्त विशेष आत्मा के प्रति विशेष समान था। अजमेर निवासियों ने कई शोभा यात्राएँ देखी थीं, पर किसी शवयात्रा के पीछे इतना बड़ा जनसैलाब उन्होंने पहली बार देखा था। जो समान किसी नेता के लिये भी दुर्लभ होता है, यह आत्मा उस समान की सहज अधिकारी थी। पार्थिव शरीर को पहले उनकी कर्मस्थली परोपकारिणी सभा में ले जाया गया, फिर उनके पुराने घर से होते हुये ‘‘दयानन्द मुक्तिधाम’’ मलूसर में यात्रा का समापन किया गया। अन्तिम संस्कार के लिये शरीर को वेदी पर रखकर पार्थिव शरीर का होम किया गया। अब केवल और केवल स्मृतियाँ ही शेष बची थीं और बच गई थी वो ऊर्जा जिसे अब तक वे सबमें भरते आये थे।

अन्त्येष्टि संस्कार के पश्चात् सभी विद्वानों ने अपनी भावपूर्ण श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। जिस स्थान पर ऋषि दयानन्द के शरीर की यात्रा समाप्त हुई थी, उसी श्मशान मलूसर, अजमेर में दयानन्द के सैनिक की भी यात्रा का समापन हुआ। पं. लेखराम, गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानन्द की बलिदान शृंखला में एक और कड़ी जुड़ गई और इसी के साथ निःस्वार्थ समाज सेवा का एक और अध्याय समाप्त हो गया।

अगले दिन 9 अक्टूबर को श्रद्धाञ्जलि सभा में देश के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने प्रेरणामय जीवन को याद करते हुये उन्हें अपनी-अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित की-

श्रद्धा के पुष्प

* आचार्य देवव्रत (राज्यपाल-हि.प्र.)- यदि हजार व्यक्ति एक तरफ हों तो भी दूसरी तरफ वो अकेला शेर काफी था। लिखते थे तो उनका कोई सानी नहीं था। मन्त्रों पर बोलने वाला उन जैसा कोई वक्ता नहीं था। व्यंग करने लगें तो लोटपोट कर दें। आर्यसमाज में लबे अन्तराल के बाद ऐसा व्यक्तित्व पैदा हुआ, जिसमें पं. लेखराम व गुरुदत्त के दर्शन होते थे। वो जिस सोच को जनमानस तक पहुँचाना चाहते थे, उसे पूरा करने का हमें संकल्प लेना चाहिये।

* डॉ. सत्यपाल सिंह (सांसद बागपत, उ.प्र.)- ये आर्य जगत् का महादुर्भाग्य है कि धर्मवीर जी अब हमारे बीच नहीं है। मैं उन्हें वैदिक साहित्य का चलता-फिरता कोश मानता हूँ। उन्होंने शैल्डन पोलाक जैसे संस्कृति विनाशकों के बारे में जो लेख लिखा, उससे प्रेरणा लेकर हम संस्कृति की रक्षा का संकल्प लें।

* श्री तपेन्द्र कुमार (पूर्व मुय सचिव-राजस्थान सरकार)-  जिन कार्यक्रमों में कभी 20-30 लोग होते थे, उनमें आज हजारों की संखया में लोग होते हैं। जो पत्रिका कभी 4-5 सौ की संखया में छपती थी, आज वो पत्रिका 14-15 हजार की संखया में छपती है। जिस परोपकारिणी सभा को कुछ शहरों में जाना जाता था, वो आज विदेशों में भी प्रतिष्ठित है- ये सब धर्मवीर जी की ही देन है।

* श्रीमती सुयशा आर्या (सुपुत्री- डॉ. धर्मवीर जी)- तत्ता (पिता जी) को देखकर हमें लगता था कि हम विशिष्ट बच्चे हैं। अमेरिका में मैं जब किसी बात पर निरुत्तर हो जाती थी, तो कहती थी कि अपने पिता जी से तुमहारी बात कराती हूँ, वे तुमहारी हर बात का जवाब देंगे। उनके सामने शैल्डन पोलाक जैसा व्यक्ति भी नहीं टिक पाता।

पर आज हम फिर विशिष्ट से सामान्य हो गये।

* प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु- धर्मवीर जी किसी सामान्य परिवार में नहीं जन्में थे। उनके पिता पं. भीमसेन जी एक क्रान्तिकारी, स्वतन्त्रता सेनानी थे। धर्मपत्नी ज्योत्स्ना जी भी एक क्रान्तिकारी परिवार से ही हैं। सभा को वे जिस ऊँचाइयों तक ले आये हैं, ये अपने आप में एक असाधारण बात है। आज आर्यसमाज ने एक हीरा खो दिया।

* श्री सत्येन्द्र सिंह (न्यासी- परोपकारिणी सभा)- ये एक भयंकर दुर्घटना है कि डॉ. धर्मवीर जी हमारे बीच नहीं रहे। उन जैसा वक्ता, विद्वान्, पत्रकार आज दिखाई नहीं देता। ईश्वर इस असह्य दुःख की घड़ी में परिवार को शक्ति प्रदान करे।

* श्री गोपाल बाहेती (भूतपूर्व विधायक- अजमेर)- डॉ. धर्मवीर जी एक निर्भीक वक्ता, लेखक, विद्वान् थे। आज ऋषि उद्यान में बाग हैं, बगीचे हैं, पर खुशबु नहीं है। वे प्रत्येक राष्ट्रीय समस्या पर बड़े बेबाक सपादकीय लिखते थे। यह क्षति अपूरणीय है।

* आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक- डॉ. धर्मवीर जी का व्यवहार मेरे प्रति बड़े भाई के जैसा था। वे मान-अपमान में सदैव सहज रहे। ‘‘परोपकारी पत्रिका’’ का सपादकीय मैं सदैव पढ़ता था। उनके जाने से केवल परोपकारिणी सभा की ही नहीं अपितु पूरे देश की क्षति हुई है।

* श्री त्रिभुवन राजभंडारी (समधी- डॉ. धर्मवीर जी)- डॉ. धर्मवीर जी के रूप में समधी को पाकर हमारा परिवार समृद्ध हो गया है। वो विद्वान् थे, पर विद्वत्ता उन पर हावी नहीं थी।

* डॉ. जगदेव- उनके जीवन में विलक्षणता थी, आनन्द था। महर्षि दयानन्द ने जिस सत्य के लिये अपना जीवन दिया, डॉ. धर्मवीर जी उस सत्य के लिये जीवनभर लगे रहे। गृहस्थ होते हुये भी उनका जीवन विरक्त था। उनके जीवन में उनकी धर्मपत्नी का विशेष योगदान रहा। परिवार की पूरी जिमेदारी स्वयं लेकर धर्मवीर जी को समाज-सेवा के लिये मुक्त रखा। हम इस श्रद्धाञ्जलि सभा को प्रेरणा-दिवस के रूप में मनायें।

* स्वामी धर्मानन्द- आज परोपकारिणी सभा देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी प्रतिष्ठित है। ये केवल धर्मवीर जी के कारण ही हुआ। उनके दृढ़ निश्चय का ही परिणाम है कि ऋषि उद्यान अपने इस वर्तमान स्वरूप में है। हम धैर्य रखें और उनके कार्यों को आगे बढ़ायें।

* डॉ. ज्वलन्त कुमार- जनज्ञान पत्रिका के सपादक भारतेन्द्र जी ने अपनी पत्रिका में डॉ. धर्मवीर का एक फोटो छापा था, जिस पर लिखा था ‘‘आशा की नई किरण’’ ये वाक्य शत-प्रतिशत सही सिद्ध हुआ। हमने पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम जी को नहीं देखा है, पर धर्मवीर जी में हम उनके दर्शन कर सकते हैं।

* श्री विनय आर्य (मन्त्री, आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली)- आचार्य धर्मवीर जी के कार्यों के बारे में हम सब जानते हैं, उन्हें बिल्कुल भी नहीं भुलाया जा सकता। आज तक वो अपनी वाणी, विचार तथा कार्यों से जीवित थे। पर अब उनको जीवित रखना हमारा कार्य है।

* श्री दीनदयाल गुप्त (उप प्रधान, परोपकारिणी सभा)- डॉ. धर्मवीर जी आर्यसमाज के प्रचार में सदैव तत्पर रहते थे। अपने अन्तिम समय में भी वो प्रचार में रत थे। हम सब उनके कार्यों को आगे बढ़ायें।

* श्री रामनारायण शास्त्री- जो निर्भीकता एक ब्राह्मण में होनी चाहिये, जैसा ब्राह्मण को लिखना चाहिये, बोलना चाहिये, करना चाहिये- इन सब गुणों का उदाहरण थे- डॉ. धर्मवीर। हम उनके कार्यों को आगे बढ़ायें तो हम सच्ची श्रद्धाञ्जलि दे पायेंगे।

* श्री धर्मेन्द्र गहलोत (मेयर-अजमेर )- धर्मवीर जी ने जिस पथ को अपनाया, उस पर निडर होकर चलते हुये जीवन ही बलिदान कर दिया। जिस पथ को उन्होंने स्वीकार किया, उस पथ पर हम भी चलें।

* स्वामी विदेहयोगी- धर्मवीर जी आर्यसमाज की वाटिका के एक माली थे, इस वाटिका को उन्होंने अपना जीवन देकर सींचा है। परोपकारिणी सभा हमारे लिये वैसी ही है, जैसा सिक्खों के लिये स्वर्ण मन्दिर। डॉ. धर्मवीर जी के बाद भी ये सभा इसी प्रखरता के साथ कार्य करती रहे।

* श्री रासासिंह रावत (भूतपूर्व सांसद-अजमेर)- प्रो. धर्मवीर जी वे व्यक्ति थे, जो जिस कार्य में लगे, उसे पूरी ऊँचाई पर ले गये। वे एक शक्कर की रोटी के जैसे थे, जहाँ से चखो, मीठा ही मीठा। आर्यसमाज और दयानन्द के प्रति उनकी सच्ची श्रद्धा थी।

* श्री शिवशंकर हेड़ा (चेयरमैन-अजमेर विकास प्राधिकरण)- डॉ. धर्मवीर जी सादगी की मूर्ति थे। उनके मन में छोटे-बड़े का कोई भेदभाव नहीं था। जब कभी वो चर्चा करते थे तो उठकर जाने का मन नहीं होता था। आज उनके चले जाने से उनके परिवार को ही नहीं बल्कि अजमेर और पूरे राष्ट्र को भी बड़ी हानि हुई है। ईश्वर उन्हें अपने चरणों में स्थान दे और परिवार को दुःख सहन करने की शक्ति प्रदान करे।

* स्वामी ध्रुवदेव (दर्शनयोग महाविद्यालय, रोजड़, गुज.)- डॉ. धर्मवीर जी की वेद और वैदिक सिद्धान्तों में गहरी निष्ठा थी। अपने तप, त्याग, अर्थ-शुचिता आदि गुणों के कारण ही वे पूज्य थे। दर्शनयोग महाविद्यालय इस दुःखद घटना पर हार्दिक शोक प्रकट करता है।

* श्री प्रकाश (भाई-डॉ. धर्मवीर जी)- आप सब बड़े सौभाग्यशाली हैं कि आप लोगों को उनका सान्निध्य मिला, पर मैं ये सौभाग्य प्राप्त नहीं कर सका- इस बात का सदैव दुःख रहेगा। मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि हम सबके ऊपर जो वज्रपात हुआ है, प्रभु उसे सहन करने की क्षमता प्रदान करे।

* ब्र. रविशंकर (गुरुकुल-ऋषि उद्यान)- हम सभी के अन्दर ये विचार उठ रहे हैं कि डॉ. धर्मवीर जी की भरपाई कैसे होगी, पर ये कहना उनकी प्रशंसा नहीं, अपमान होगा, क्योंकि इससे हम उनके कार्यों को आगे बढ़ाने में असमर्थता जता रहे हैं। हम उनके कार्यों को और गति प्रदान करें, यही उनके लिये सच्ची श्रद्धाञ्जलि होगी।

 

प्रभु का दर्शन कैसे करें

ओ३म
प्रभु का दर्शन कैसे करें
डा. अशोक आर्य
संसार का पत्येक प्राणी अपना जीवन सुखी बनाने के लिये प[रभु को पाना चाहता है । वह जानता है कि सुखुस को ही मिलता है , जो प्रभु का आशिर्वाद प्राप्त कर ले, प्रभु का साक्शात्कार कर ले । प्रभु को पाने का सही साधन यह है कि ग्यानि लोग चिन्तन करके स्वयं को प्रक्रिति कि उलझनों से ऊपर उथा कर , उस पर्मपिता पर्मात्मा क न केवल स्वयं डाशःआण कर पाने मेइन सफ़लता पाते हैं अपितु दूसरों को भी प्रभु के दर्शन करवाते हैं , दुसरों क जीवन भी सुखी बनाते हैं । इस तथ्य को सामवेद के मन्त्र संख्या ३१ मेइन इस्प्रकार स्पश्ट किया गया है : –
उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव: ।
दृशे विश्वाय सुर्यम ॥सामवेद ३१ ॥
मानव जीवन में अनेक कर्म करता है । इन में कुछ कर्म उत्तम होन्गे तो अधिकांश प्तित होंगे । यह पतित कर्म ही होते हैं , जिनके कारण मानव को जीवन मेइन अनेक रकार के कश्टों क सामना कराना पड्ता है । यह्कश्ट ही( उसे इस्वर की शर्ण मेइण ले जाते हैं । खा भी है कि : –
दु:ख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे , दु:ख काहे को होय।॥
जीव प्रभु के पास स्वयं को अर्पण करना चाहता है किन्तु कैओसे करे अर्पण तो उसी को ही किया जा सकता है, जो दिखायी दे, जो दिखायी ही न दे , उसे कैसे अर्पण करें ? जब प्रभु दिखेगा, तब ही तो उसे अपने कश्ट अर्पण करेगा । अत: प्रभु क दर्शन , उसे कुछ भी अर्पित करने केलिये आवशय्क है ।
मानव तुं उपर उठ : –
प्रकृतिक भोगों में उलझी अवस्था में जीव प्रभु के दर्शन कभी नहीं कर सकता । हम जानते हैं कि जीव सुख चाह्ता है किन्तु उसने प्रक्रितिक भोगों को ही सुख का साधन समझ रखा है , इस कारण वह सद इन भोगों में ही सदा उलझा रहता है , इस कारण प्रभु दर्शन से निरन्तर दूर होता चला जा रहा है । जब तक हमें दुनियां के रंगओं में हमारी आंखें उलझ रही हैं तब तक हमें प्रभु दर्शन क प्रभु कथा का कोई भी प्रसंग हमारे कानों में नहीं पड सकता । हम भोगों में लिप्त हैं । हमारे पास प्रभु स्मरण का समय ही नहीं तो फ़िर प्रभु दर्शन की अभिलाशा ही क्यों रखते हैं ? सांसारिक रंगों में उलझने से तो हम सांसारिक वस्तुएं ही पा सकते हैं । यदि प्रभु के दर्शन करने हैं तो उपाय भी तो प्रभु स्तुति के ही करने होंगे । अन्यथा उसके दर्शन कैसे मिलेंगे । इस लिये हम अपने जीवन में एक बार यह निर्णय कर लें कि प्रभु के दर्शन राग – द्वेश से होंगे या फ़िर किसी अन्य उपाय से । एक बार पूर्ण ग्यान पुर्वक विचार कर कुछ निर्णय लेने के पशचात फ़िर बेकार के राग द्वेश से परिपुर्ण विषयों पर समय नष्ट करना अथवा अपनी शक्ति लगाने क कुछ भी प्रयोजन नहीं रह जाता । जिस दिन हम इस भ्रान्ति से उपर उथ जावेंगे , जिस दिन हम गल्तियां छोड्कर ऊपर उठ जावेंगे, जिस दिन प्रभु दर्शन के लिये हम गम्भीर विचार कर लेंगे तथा जिस दिन हम प्रकृति कि उलझनों से निकल जावेंगे , उस दिन से ही हम उस दूर दिखाई देने वाले , सब स्थानों पर विद्यमान , प्रत्येक वस्तु के प्रत्येक कण में विद्यमान , ज्ञान की अग्नि से प्रकाशित तथा सब को प्रकाशित करने वाले को ज्ञानी लोग विचारशील हो कर धारण करते हैं ।
परमपिता परमात्मा संसार के कण कण में होने के कारण हमारे हृदयों में भी निवास करता है । , परन्तु ज्ञान के अभाव में उस की सत्ता को हम समझ नहीं पाते , उसके दर्शन नहीं कर पाते । हाँ जब हम अपने अन्दर ज्ञान की ज्योति जगा लेते हैं , ज्ञानशील बन जाते हैं तथा ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं तो हमुस प्रभु को अपने अन्दर धारण करते हैं स्थापित करते हैं ।
प्रभु ज्ञान को अन्यों में भी बांटते हैं : –
ज्ञानी विद्वान लोग अपनी ज्ञान की ज्योति के माध्यम से प्रभु के दर्शन कर लेते हैं , उसे पा लेते हैं तो वह इतने स्वार्थी नहीं होते कि इस रस क पान वह अकेले ह्जी कर लें अपितु अन्यों में भीइओसे बांट्ने क सुप्रयास आर्म्भ कर देते हैं । संसार के जीव इस प्रकार भटक रहे होते हैं जिस प्रकार जंगल में हिंसक पशु । इन्हें सुपथ पर लाने के लिये , इन्हें भी प्रभु के दर्शन कराने का यत्न ज्ञानी लोग करते हैं । इस प्रकार परमानन्द की प्राप्ति के पश्चात भी वह स्वार्थ भावना से ऊपर उठ कर अन्यों का मार्ग द्र्शन भी करते हैं । इस से यह प्र\मानित होता है कि यह सब लोग स्वार्थ भावना से बहुत दूर होते हैं । इस कारण ही यह लोग मूर्खता से अथवा मूर्खतापूर्ण कार्यो से भी दूर होते हैं ।

ड. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : कुरान में कोई ऐब नहीं है

कुरान में कोई ऐब नहीं है

कुरान की यह शेखी इसलिये अमान्य है कि इस प्रश्नावली के सभी कुरान में ऐब (कमजोरी) साबित करने को काफी हैं?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

अल्हम्दु लिल्लाहिल्लजी अन्ज…………।।

(कुरान मजीद पारा १५ सूरा कहफ रूकू १ आयत १)

हर तरह की तारीफ खुदा ही को है जिसने अपने बन्दे (मौहम्मद) पर कुरान उतारा और उसमें कोई ऐब नहीं रखा।

समीक्षा

कुरान में पुरानी तौरेत, जबूर और इन्जील की तफसील अर्थात् व्याख्या है, परस्पर विरूद्ध बातों का उल्लेख है जिन्होंने खुदा की पाक जात को कलंकित किया है।

खगोल विद्या एंव विज्ञान के विरूद्ध अनेक स्थल हैं। खुदा को अल्पज्ञ व पक्षपाती बताया है, इत्यादि अनेक प्रकार के दोषों वाली आयतों की भरमार होने पर भी खुदा उसे ‘‘बे ऐब’’ बताता है। वास्तव में यह उसका कुछ जरूरत से ज्यादा ही हिम्मत का काम है।

मिर्जाई मत की असलियत इस्लामी विद्वानों की दृष्टि में-

मिर्जाई मत की असलियत इस्लामी विद्वानों की दृष्टि में

– सत्येन्द्र सिंह आर्य

इण्टनेट पर कुछ कादियानी मतावलमबियों ने पुरानी घिसी-पिटी बातों को दोहराना आरमभ किया है। उनका उद्देश्य हिन्दुओं को भ्रमित करना एवं अपमानित करना होता है। आर्य विद्वान् इनकी सब आपत्तियों का उत्तर पहले ही दे चुके हैं।

भारत का विभाजन कराने में मिर्जाई समप्रदाय बहुत सक्रिय रहा। मिर्जा गुलाम अहमद अंग्रेज सरकार का चापलूस और प्रशंसक था। इन लोगों ने पाकिस्तान बनवाने के लिए कई पुस्तकें लिखीं। ‘‘खालसा होशियार बाश’’ ऐसी ही पुस्तक है। पाकिस्तान बनने पर ये मिर्जाई वहाँ गाजर मूली की तरह काटे गए। वर्तमान में इनको वहाँ की इस्लामिक सरकार एवं व्यवस्था ने काफिर घोषित किया हुआ है। देखो कैसी विचित्र बात है कि पाकिस्तान जितने बड़े इस्लामिक देश ने इन्हें गैर-इस्लामी (काफिर) घोषित किया हुआ है और ये ऐसे निर्लज्ज हैं कि अभी भी इस्लाम का ही दमभ भर रहे हैं। है न बात कि ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’।

इनके विषय में हम अपनी ओर से कुछ न कहकर मुस्लिम विद्वानों के  मिर्जाई मत के विषय में क्या विचार हैं, वही प्रस्तुत कर रहे हैं।

विश्व प्रसिद्ध लेखक व इस्लाम के मर्मज्ञ विद्वान् जनाब अनवर शेख की एक लोकप्रिय एवं पठनीय पुस्तक के अंश इस प्रकार हैं-

‘‘हिन्दुओं को मूर्ख बनाने के लिए कृष्ण महाराज होने का (मिर्जा ने) दावा किया। जबकि यह कतई कुफ्र है क्योंकि यह बुत परस्ती का अटूट अंग है।’’

– कादियानियत न केवल इस्लामी जगत् के लिए प्रत्युत सारे संसार के लिए एक फित्ना (शरारत) बनकर खड़ी हो जायेगी।

– इन मिर्जाईयों ने जो कुछ भी किया उसका अजाब (दारुण दुःख) मुसलमानों पर नाजिल हुआ।

– मिर्जा स्वयं को मसीह मौऊद (promised christ) घोषित करता रहा। अनवर शेख जी का कथन है, ‘‘कादियानियत इसी शर का एक फित्ना अंगेज शोला है’’ अर्थात् यह विश्वास शरारतपूर्ण है और विनाश की लपटों का दूसरा नाम है। ‘नजरीया मसीह मौऊद’।

– कादियानियों की प्रचार की विधि तावीलबाजी (व्याखयायें घड़ते जाना)है, जिससे अभिप्राय भेड़ को भेड़िया व भेड़िये को भेड़ कहना है। अंधकार को उजाला व उजाले को अंधेरे के रंग में प्रस्तुत करना है।

– यह रुहानी अफीम (आध्यात्मिक अफीम) मिर्जाइयत के रूप में प्रकट हुई जिसके व्यापारी मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी थे।

– मिर्जा की मसीहियत इस्लाम के पुर्नोत्थान के लिए नहीं, अंग्रेज भक्ति के द्वारा अंह पूजा थी।

एक और प्रतिष्ठित इस्लामी लेखक ने मिर्जा गुलाम अहमद के विषय में अंग्रेजी में एक पुस्तक लिखी थी जो इस्लामिक लिटरेचर पबलिशिंग हाऊस, कश्मीरी बाजार लाहौर से वर्ष 1935 में प्रकाशित हुई थी। उसकी प्रति इस समय परोपकारिणी सभी की समपत्ति है। उस पुस्तक का प्राक्कथन (foreword) भी एक अन्य प्रतिष्ठित इस्लामी विद्वान् ने लिखा है। मिर्जाई मत एवं उसके प्रवर्तक मिर्जा गुलाम अहमद के विषय में उनका अभिमत इस प्रकार है-

इस्लाम का इतिहास ऐसे नकली पैगमबरों से भरा पड़ा है जिनका अनिवार्यतः ही दुःखद अन्त हुआ। हमारे अपने समय में भी कादियाँ का मिर्जा गुलाम अहमद नाम का ऐसा महा पाखण्डी हुआ है।

उसके समबन्ध में सही बात कहनी हो तो कहना होगा कि कादियाँ का यह नकली पैगमबर बहाई (bahaism) तथा बाब (babism) जैसे नास्तिक मतों के तुलनात्मक अध्ययन का उत्साही विद्यार्थी था। अपने इच्छित लक्ष्य जो इस्लाम के धार्मिक प्रमुख का पद हासिल करने से तनिक भी कम नहीं था, को प्राप्त करने के लिए उसने चालाकी से काम किया और उसने वह प्रारमभिक गलती नहीं दोहरायी जो बहाउल्ला और बाब ने इस्लाम से अलग होकर एक नयी स्वतन्त्र आसमानी व्यवस्था (मत) स्थापित करने के रूप में की थी।

भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फंसाने और श्रद्धालु लोगों को ठगने के लिए वह बलपूर्वक कहता था कि वह अरबी पैगमबर का ही निष्ठावान् अनुयायी है, जिसका ताज (पद) अब उसके ऊपर एक जीवित अवतार के रूप में आ पड़ा है और उसकी नियति इस्लाम को उसका पुराना गौरव प्राप्त कराना है। उसने घोषणा की कि आज का इस्लाम अपने उच्च आदर्शों से गिर गया है। ऐसे में उसका उद्देश्य उसकी मौलिक पवित्रता को पुनः प्राप्त कराना है और सभी काफिरों को इस्लाम के बाड़े में लाना है। किसी भी मुस्लिम देश में उस (मिर्जा) की इन दुष्ट गतिविधियों को दबा दिया जाता। पर वे भारत में चलती रही।

मिर्जा गुलाम अहमद के दावों से कट्टर इस्लाम-अनुयायी घबरा गए। उसने जो घोषणाएँ कीं, वे इस प्रकार हैं-

  1. मैंने स्वप्न में देखा कि मैं सर्वशक्तिमान् ईश्वर बन गया हूँ और मैंने ऐसा होने का विश्वास कर लिया। इस सर्वातिरिक्त (विशेष) स्थिति में मैंने स्वर्ग और धरती को बनाया। मैंने मिट्टी से आदम बनाया और उसे सुन्दर आकार दिया। इस प्रकार मैं विश्व का सृष्टा बन गया।
  2. मैंने ईश्वर को यह कहते हुए सुना ‘‘ओ मिर्जा! तू मुझमें से है और मैं तुझमें से हूँ। तू मेरे लिए पुत्र के समान है।’’
  3. सर्व शक्तिमान् ईश्वर ने मुझे अंग्रेजी में समबोधित किया और आसमान से यह घोषणा की-

‘‘मैं तेरी सहायता करुंगा। मैं जो चाहूँगा, वह करुँगा। यद्यपि सब लोग नाराज होंगे, परन्तु अल्लाह तुमहारे साथ है। वह तुमहारी सहायता करेगा। अल्लाह के शबद बदल नहीं सकते।’’

  1. मैं अल्लाह का पैगमबर हूँ। जो मुझपर विश्वास नहीं करता, वह काफिर हैं।
  2. जो मेरी घोषणाओं को नहीं मानते, वे दुष्ट हैं।
  3. मैं जीजस क्राइस्ट से अच्छा हु, वह तो शराबी था, मलिन था, झूँठ बोलने वाला था और दुष्ट कामी लोगों का पक्षपाती था।
  4. मैं आदम, नूह, हुसैन, अबू-बकर और अन्य सभी सन्तों से ऊँचे नैतिक और आध्यात्मिक धरातल पर हूँ।
  5. जो अपने को मुसलमान कहते हें, मेरे लोग उनके साथ कोई समबन्ध न रखें। जो इमाम मुझमें (मिर्जा गुलाम अहमद में) विश्वास नहीं रखता उसके द्वारा कराये जा रहे किसी धार्मिक क्रिया कलाप (नमाज) आदि में भाग न लें। जो मेरे अनुयायी नहीं है, मेरे अनुयायी अपनी बेटी का विवाह उनके साथ न करें।

ये ऐसी कुछ विचित्र-सी शिक्षाएँ मिर्जा गुलाम अहमद की हैं। अतः यह कोई विस्मय की बात नहीं है कि इस्लाम के अग्रणी विद्वानों ने उसे सर्वसमति से इस्लाम से निष्कासित कर दिया है।

पिछले लगभग 50 वर्षों में कादियानी मत के सबन्ध में ऐसे बहुत से साहित्य का सृजन हुआ है जिसने मुहमद हजरत  के बताये गये इस्लाम के लिए मिर्जा गुलाम अहमद के मत को भयंकर पाखण्ड और खतरा बताया है।

उपरिलिखित आठ बिन्दुओं का मूल अंग्रेजी पाठ इस प्रकार है।

Mirza Ghulam Ahmad’s claim which horrified orthodox islam may, in his language, be thus summarized

  1. I saw in a vision that I had become god almighty and I believed that I was so infact . while in this transcendental state I created heaven and earth . I then created adam out of dust and moulded him in the best of forms. Thus I became the creater of the world.
  2. I heard the voice of god saying : o Mirza! I am from thee and thou art from me; thou art unto me like as a son.
  3. god almighty addressed me in the English language and declared from on high :

“ I shall help you. I can what I will do . though all men should be angry but god is with you . he shall help you : words of god cannot be change.”

  1. I am a prophet of god and he who does not believe in me is kafir.
  2. those who refused to attest the truth of my mission and bastards.
  3. I am better then jesus Christ who was a wine-biber, a foul-mouthed liar and had a predilection for the society of harlots.
  4. I am on a higher moral and spiritual plane then adam, noah, Husain, abu bakar, and all the saints put together.
  5. my people should have no part and lot with those who call themselves musalmans. They must not join any congregational prayers led by an imam who does not belive in me: they must not wed their daughters to the so called musalmans  who are not my disciples.

These are some peculiar teachings of mirza ghulam  ahmad and it is not surprising that the leading ulema of the Islamic world unanimiously pronounced his excommunication from the fold of islam. A mass of literature has sprung up during the last fifty years of dealing with qadiani-ism as the most dangerous heresy which has threatened islam as it was taught by the prophet.

प्रतिष्ठित मुस्लिम विद्वानों ने जिस मिर्जा गुलाम अहमद के विषय में ऐसी तल्ख टिपणियाँ की हों, उसके अनुयायी किसी मुँह से अपनी शेखी बघारते हैं?

 

हे प्रभु ! हमारी बुद्धि सन्मार्ग पर चला

ओउम
हे प्रभु ! हमारी बुद्धि सन्मार्ग पर चला
डा. अशोक आर्य
संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है | प्रत्येक प्राणी अपने में ज्ञान का भंडार भरना चाहता है | अच्छा व्यवहार चाहता है | अपना कल्याण चाहता है | यह सब परम पिता परमात्मा के आशीर्वाद से ही संभव है | पिता के इस आशीर्वाद को ही प्राप्त , करना मानव जीवन में सब का प्रयास रहता है | इस के लिए सन्मार्ग पर चलना आवश्यक है जो सन्मार्ग पर चलता है , उसे प्रभु का आशीर्वाद अवश्य ही मिलता है | चारों वेद के विभिन्न गायत्री मन्त्र में इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार कहा गया है : –
॥ओउम॥ भूर्भुव:स्व: | तत सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि |
धियो यो न प्रचोदयात || : ऋग.३.६२.१० , यजु .३६.३,३.३५, ३०.२,२२.९ साम . १४६२ तथा तैति आर. १.११.२ तैति .१.५.६.४ , ४.१.११.१ ||
जो सच्चिदानंद स्वरूप , संसार के उत्पादक ,देव, परमात्मा का सर्वोत्कृष्ट तेज है उसे हम धारण करते हैं | वही परमात्मा हमारी बुद्धि को उतम कर्मों में प्रेरित करे |
आस्तिकता तथा बुधि की शुद्धता इन दो बातों की आस्तिक होने के लिए आवश्यकता होती है | दोनों की ही सिद्धि गायत्री मन्त्र करता है | गायत्री का अर्थ गय और गाय दिया गया है जिसका भाव है – प्राण | शत पथ ब्राह्मण में इस प्रकार दिया है : -प्राणा वै गया: ( श.ब्रा.१४.८.१५.७ ) गया: प्राणा: ,गया: एव गाया: तान त्रायते इति गायत्री | इसमें गाय या प्राणों की रक्षा करने वाले को गायत्री बताया है | यही कारण है कि गायत्री मन्त्र के जप से प्राणशक्ति बढती है | इस के साथ ही गायत्री के जप से शारीरिक व बौद्धिक दुर्बलता भी दूर होती है | इतना ही नहीं गायत्री को सावित्री भी कहा है | सावित्री का सविता arthat सूर्य या ब्रह्मा से संबध होने से ही यह सावित्री कहलाया है क्योंकि इस मन्त्र के जप से सौर शक्ति उत्पन्न होती है |
इतने से ही सपष्ट होता है कि जो व्यक्ति अपने अन्दर बौधिक विकास की अभिलाषा रखता है , जोव्यक्ति अपने शरीर को सशक्त रखना चाहता है , जो अपने में सूर्यवत तेजस्विता चाहता है , उसके लिए गायत्री का जप अत्यंत उपयोगी है | बिना गायत्री जप के इस सब में से कुछ भी प्राप्त कर पाना संभव नहीं है |
तैतिरीय ब्राम्हण में तो गायत्री को ब्रह्म वर्चस भी बताया है | इस का भाव है कि गायत्री ही ब्रह्मतेज है | अत: जो व्यक्ति गायत्री का नियमित जप करता है वह ब्रह्मतेज को भी पा लेता है | यह ब्रह्म वर्चस ही है , जिससे व्यक्ति संयमी ,मनोंइग्रही तथा जितेन्द्रिय बनता है | अत: जिसने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की इच्छा सिंजो रक्खी है , जो अपने जीवन में संयम को धारण करना चाहता है अथवा जो मनोनिग्रह की कामना रखता है , उसके लिए गायत्री का जाप आवश्यक व उपयोगी है | तभी तो तान्द्य ब्राह्मण में ” वीर्यं वै गायत्री ” कहा गया है |
यदि हम गायत्री मन्त्र की पंक्तियों को देखते हैं तो हमें स्पष्ट दिखाई देता है कि गायत्री के तीन भाग हैं :-
(१) महाव्याह्रति :-
गायत्री में ओउम भूर्भुव: स्व: | , यह प्रथम पंक्ति है | इसे ही इस मन्त्र का प्रार\थम भाग कहा गया है | इस भाग मैं परमात्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में बताया गया है | मन्त्र का यह भाग बताता है कि हमारा उत्पादक परमात्मा सत, चित और आनंद स्वरूप है | यह आनन्द ही तो है जिस को प्राप्त करने का प्रयास मानव जीवन भर करता रहता है यह ही उस का ध्येय है , अन्तिम लक्ष्य है |
(२) तत से लेकर धीमहि तक के गायत्री खंड को मन्त्र के दूसरे भाग स्वरूप लिया जाता है | इस का भाव है कि जो आनन्द का वर्णन प्रथम भाग में किया है , उस आनन्द को पाने के लिए परमात्मा के तेज को , परमात्मा की ज्योति को ह्रदय में धारण करना होगा | इस ज्योति को जब तक हम अपने ह्रदय में धारण नहीं करते तब तक ज्ञान की शक्ति ही उद्बुद्ध नहीं होगी , ज्ञान की शक्ति का हमारे अंदर यदि है ही नहीं तो आनन्द ,सुख कैसे होगा | बुद्धि तब ही शुद्ध होती है जब हमें पिता पर पूर्ण विशवास हो ,जिसे आस्तिकता कहा गया है , हम आस्तिक हों, ईश विश्वासी हों और ईश की सर्वव्यापकता पर विशवास रखते हों | इस प्रकार मन्त्र का यह दूसरा भाग आत्मिकता और आत्मिक शक्ति को उत्पन्न करने का साधन है | जब तक हम यह शक्ति उदित नहीं कर लेते तब तक प्रभु का स्नेह नहीं पा सकते |
(३) मन्त्र का शेष भाग – धियो ……….. दयात ,इस| के तृतीय भाग स्वरूप है | इस भाग में मन्त्र जप का फ़ल बताया गया है | यह भाग हमें बताता है कि पिता को ह्रदय में धारण करने से उस प्रभु का प्रकाश बुद्धि को शुद्ध करता है | शुद्ध बुद्धि स्वयं ही उतम मार्ग की अनुगामी होने से सन्मार्ग पर चलती है | बुद्धि कुमार्ग को , अकर्तव्य पथ को त्याग कर सन्मार्ग या सुपथ या कर्तव्य पथ पर चलने लगती है | जब बुद्धि सन्मार्ग पर चलती है तो मानव जीवन सुखों से भर जाता है | अत: सुखों के अभिलाषी प्राणी के लिए आवश्यक है कि वह सन्मार्ग पर चले ,जिसे पाने के लिए गायत्री का निरन्तर जाप करे |
डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : कयामत को लोग देखते सुनते व बोलते हुए उठेंगे

कयामत को लोग देखते सुनते व बोलते हुए उठेंगे

कुरान में कयामत के रोज सुर फूंकने वाली बात का खुलासा करें।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व नुफि-ख फिस्सूरि फ-सअि-क………….।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा जुमर रूकू ७ आयत ६८)

(कयामत के दिन) फिर दुबारा सुर फूंका जायेगा। फिर वे खड़े हो जायेंगे और देखने लगेंगे।

व हुम् यस्तरिखू-न फीहा रब्ब्ना………..।।

(कुरान मजीद पासरा २२ सूरा फातिर रूकू ४ आयत ३७)

और यह लोग दोजख में चिल्लाते होंगे कि हमारे परवर्दिगार! हमको (यहां से) निकाल फिर हम जैसे कर्म करते थे वैसे नहीं करेंगे अर्थात् सुकर्म करेंगे।

समीक्षा

ऊपर की कौन सी बात कुरान की झूठी है और कौन सी सच है? कुरानी खुदा ही इसे बेहतर जान सकता है ।

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-39

आप इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः।

आपः सर्वस्य भेषजीस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।।

– ऋग्. 10/137/6

यह चिकित्सा का सूक्त है। मनुष्य कैसे स्वस्थ रह सकता है, इसका प्रत्येक मन्त्र में सन्देश है। मनुष्य का शरीर प्राकृतिक पदार्थों से बना है। शरीर में जिन पदार्थों की अनुपात से कमी या अधिकता होती है, उन्हीं के कारण रोग होता है। इसकी चिकित्सा भी प्राकृतिक पदार्थ ही हैं। जिन पदार्थों की शरीर में न्यूनता होती है, उसी प्रकार का पदार्थ शरीर में पहुँचाया जाता है। अधिकता होने पर उसकी न्यूनता के उपाय किये जाते हैं। इसी आधार पर वेद में कहा गया है- जल इस शरीर के लिये महत्त्वपूर्ण औषध है। शरीर पाँच भूतों से बना है। अतः इसे भौतिक शरीर कहा जाता है। पाँच भूतों में शरीर में सबसे अधिक मात्रा जल की होती है। शरीर के पदार्थों में जल की मात्रा सत्तर प्रतिशत होती है। इस कारण शरीर में जल के सन्तुलन को बनाये रखने का यत्न सदा करना चाहिये।

जल सबसे अधिक सुलभ है, सरलता से उसे प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु मनुष्य आलस्य, प्रमाद और अज्ञान के कारण रोग ग्रस्त हो जाता है। इसका महत्त्व तब ज्ञात होता है, जब हम उसकी न्यूनता से होने वाले कष्ट से पीड़ित हो जाते हैं। गत दिनों एक परिवार में जाने पर पता लगा कि उनका पुत्र रोग से पीड़ित हो गया है और रोग का कारण चिकित्सों ने बतलाया है कि यह व्यक्ति पानी नहीं पीता या बहुत कम मात्रा में पानी पीता है। इस कारण रोगी की आंते संकुचित होकर चिपक गई है। इतना बड़ा रोग केवल पानी का प्रयोग न करने से हो गया। परमेश्वर ने ऐसी व्यवस्था की है कि यदि शरीर में किसी पदार्थ की न्यूनता होती है तो शरीर में उसकी आवश्यकता अनुभव होने लगती है। हम भोजन से, पानी से, औषध और वायु से उनकी पूर्ति करते हैं। पानी की उपयोगिता और आवश्यकता देखते हुए हमारी परमपराओं में पानी को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। प्रातःकाल उठते ही मुख प्रक्षालन के साथ उषःपान का विधान किया गया है। प्रातःकाल नित्य/नियमित रूप से जल पीते रहने से शरीर में होने वाली पानी की कमी पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। पानी का पर्याप्त मात्रा में प्रयोग करने से शरीर की कोशिकाओं में पूर्णता आती है। स्वच्छ जल जहाँ शरीर से दोषों को बाहर निकालता है, वहीं ऊर्जा का स्रोत भी बनता है। रक्त की मात्रा को भी कम नहीं होने देता, जिससे शरीर में कान्ति, स्फूर्ति, उत्साह का संचार होता है। भोजन को सुपाच्य बनाने के लिये भोजन में जल की उचित मात्रा अपेक्षित है। भोजन में जल का अभाव भोजन को दुष्पाच्य बनाता है, वहीं भोजन के साथ जल की अधिकता भोजन को पचाने वाले द्रवों का प्रभाव कम कर देती है। इसलिये भोजन के एक घण्टा बाद पर्याप्त जल लेने का निर्देश किया गया है।

आधुनिक अध्ययन के अनुसार हर तीन घण्टे के पश्चात् शरीर की क्रियायें शिथिल होने लगती हैं, यदि थोड़ा सा जल पी लिया जाये तो शरीर में पुनः सक्रियता का संचार हो जाता है। अतः थोड़े-थोड़े समय पर स्वल्प मात्रा में जल पीते रहने से शरीर में ऊर्जा का स्तर बना रहता है। वेद में बहुत सारे मन्त्र हैं जिनमें जल को भेषज कहा गया है। जल का सौमय गुण है, सभी प्रकार के सन्ताप- चाहे वे शारीरिक हों या मानसिक, जल उनको शान्त करने में समर्थ है। जल को शान्ति प्रदान करने वाला कहा गया है और इसे सबसे अधिक शान्ति प्रदान करने वाला बताते हुए शान्ततम कहा है। जल कल्याण करने वाला है तथा अत्यन्त कल्याण करने वाला होने से इसे शिवतम कहा गया है।

मन्त्र में आपः (जल) को भेषज बताते हुए रोग-कृमियों का नाश करने वाला कहा है। जहाँ जल स्वतन्त्र रूप से स्वास्थ्यवर्धक है, वहीं औषध द्रव्य के संयोग से घोल बनाकर, क्वाथ बनाकर, शर्बत बनाकर स्वास्थ्य वृद्धि और रोग का नाश करने के लिये काम में लिया जाता है। अमीव-रोग कारक वृति को कहते हैं, चातनः- नाश करने वाला अर्थात् जल में रोग कृमियों के नाश की क्षमता है। सभी ओषधियों का उपयोग जल के माध्यम से किया जा सकता है। वेद कहता है- हमें उचित है कि हम जल के महत्त्व और गुण को समझें और उसका प्रयोग कर स्वयं को स्वस्थ व निरोग बनायें।

 

प्रभु स्मरण के सात लाभ होते हैं

ओउम
प्रभु स्मरण के सात लाभ होते हैं
डा अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा हम सब का ,जन्मदाता है वही हम सब का पालन करता है , वही हम सब का पौषण करता है तथा वह प्रभु ही हम सब का संहार अर्थात मोक्षदाता है । भाव यह है कि हमारे जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत हमारा सब कुछ करने वाला वह प्रभु ही है । हम उसके आदेश के एक कदम भी अलग से नहीं चल सकते । जब हम उस प्रभु के आदेशके बिना
चार साधन है मोक्ष पाने के लिए
संसार का प्रत्येक प्राणी मोक्ष पाने की इचछ रखता है । यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है कि प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है । परंम सुख है जन्म मरण के बंधन से मुक्ति । इस बंधन से छुटने पर ही परम सुख मिलता है । इसलिए सब प्राणी जन्म मरण के बंधन से छुट कर मुक्ति पाने की कामना करते है । कामना तो सब करते हैं किन्तु इस मुक्ति के मार्ग को पाने के लिए जो उपाय बताये गए हैं , उनको करने का यत्न नहीं करते , उन पर चलने की प्रेरणा भी उनमें नहीं होती । परमपिता परमात्मा ने जीव को कर्म करने की स्वतंत्रता दी है । अत: कुछ कर्म हैं जिन के किये बिना मुक्ति का मार्ग नहीं मिल सकता । यह कर्म कौन से हैं , इन का वर्णन सामवेद के मन्त्र संख्या 51 में विस्तार से किया गया है । जो इस प्रकार है : –
प्र दैवोदासो अग्निर्देव इन्द्रो न मज्मना ।
अनु मातरं पृथिवी वि वाव्रते तस्थो नाकस्य शर्मणि ।।सामवेद 51 ।।
मानव अथवा जीव इस धरती पर जन्म लेकर अनेक प्रकार के कर्म करता है । अपने कर्म करने के पश्चात वह मृत्यु को प्राप्त होकर यहाँ से लौट जाता है । यहं से लौटने के पश्चात वह मोक्ष में जा कर वहां के सुखमय जीवन को प्राप्त करता है ।
मन्त्र का अंतिम भाग अथवा उतरार्ध भाग ऊपर वर्णित के अनुरूप स्पष्ट करते हुए कहता है कि इस पृथ्वी पर जीव का निवास कभी भी स्थायी न हो कर सदा अस्थायी ही होता है । अत: यहाँ से उसे निश्चित रूप से लौटना ही होता है । जैसे कोई मनुष्य प्रात:काल उठकर स्कुल पढ़ने को जाता है , तो कोई पढाने को, कोई कार्यालय में काम करने को जाता है तो कोई कार्यालय से अपना काम निकलवाने को । इस प्रकार संसार के सब प्राणी अपने निश्चित कार्य के लिए घर से बाहर जाते है । यदि किसी को कोई अन्य कार्य नहीं है तो वह भ्रमण के लिए ही चला जाता है किन्तु अपने निर्धारित कार्य की पूर्ति के पश्चात वह अपने घर अथवा अपने निवास पर लौट आते हैं , बाहर ही नहीं रह जाते । ठीक इस प्रकार ही परमपिता परमात्मा ने हमें इस पृथ्वी पर भेजा है । यह हमारा अस्थायी निवास है । परमात्मा ने हमें यहाँ कुछ समय के लिए अस्थायी रूप से भेजा है । इस लिए यहाँ से हमारा लौटना निश्चित है । हमारा स्थायी निवास तो उस पिता के चरणों में है, जिसे ब्रह्मलोक कहते हैं । हम ने जो यात्रा की है , जो कर्म किये हैं , उनके परिणाम स्वरूप हम यात्रा के, कर्म के कष्टों को सहने के परिणाम स्वरूप मोक्ष पाते हैं तथा फिर पूर्ण सुख व आनंद से रहते हैं ।
यह जीवन एक यात्रा है तथा यात्रा के भी अपने कुछ नियम होते हैं, कुछ सिद्धांत होते हैं , यात्री को इन नियमों का , इन सिद्धांतों का यात्रा के समय ध्यान रखना होता है । यह नियम दो प्रकार के होते हैं : –
!) यात्रा पर निकलने वाले व्यक्ति को यह ध्यान रखना होता है कि किस प्रकार से वह निकले कि उसकी यात्रा सरल , सुगम व सफल हो । इस के लिए उसे देखना होता है कि वह किस प्रकार के साधन अपना कर यात्रा करे कि उसे मार्ग में कम से कम कष्ट हों तथा मार्ग सफलता से कट जावे । उसे पता होना चाहिए कि अत्यधिक बोझ उसे थका देगा , वह सरलता से नहीं चल पावेगा । यह भी हो सकता है कि अति बोझ के कारण उसे मार्ग से ही लौटना पड जावे अथवा मार्ग में रुक रुक कर यात्रा करनी पड़े , जिस से यथा समय वह अपने गंतव्य पर न पहुँच सकेगा । इसलिए वह अपनी यात्रा में कम से कम बोझ अथवा सामान रखने का यत्न करता है । हमारा जीवन भी एक यात्रा है । अत: यह यात्रा भी कर्म के ताने बाने में बंधी है । इस यात्रा के मार्ग में हमारी आसुरी प्रवृतिया , काम , क्रोध आदि दुरित वासनाएं आदि बोझ हैं जो हमें इस जीवन यात्रा पर सुगमता से आगे नहीं बढ़ने देते । इन सब प्रकार के बोझों को अपने कर्मों के द्वारा कम करते हुए हम तेजी से अपने गंतव्य अर्थात मोक्ष मार्ग पर बढें । यह मोक्ष ही हमारा स्थायी निवास है , जहाँ हमें लौटना है ।
2) यात्रा में सदा आराम नहीं होता, अनेक प्रकार के कष्ट भी इस यात्रा में सहन करने होते हैं । कहीं स्नान की व्यवस्था नहीं तो कहीं नाश्ता नहीं मिलता, कहीं भोजन नहीं तो कहीं जलपान के बिना ही रहना होता है । इस प्रकार यात्रा में कई प्रकार की कठिनाईयों का सामना यात्री को करना होता है । तो भी यात्री किसी प्रकार अपना गुजारा करते हुए अपनी यात्रा की पूर्ति करता है । इस प्रकार ही हमारी जीवन यात्रा में हमारा ध्येय आराम न हो कर कर्म होना चाहिए । वास्तव में ध्येय तो हमारा मोक्ष है , ध्येय के साधन हैं कर्म । अत: अपने जीवन में हम सदा निर्माणात्मक कर्म करते हुए निरंतर मोक्ष मार्ग पर चलते चलें , तब तक चलते चलें , जब तक कि हमें हमारे ध्येय अर्थात मोक्ष को न पा लें । हमारा मोक्ष स्थान तो ब्रह्मलोक ही है । यही हमारा अंतिम निवास है । इस स्थान पर पहुँचने के निर्धारित साधन निम्न हैं , जिन साधनों को अपना कर ही हम इस उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं : –
क ) प्रभु का सेवक बनकर : –
ख ) आगे ले जाने वाला बने : –
ग ) खेल भावना से कर्म करें : –

कुछ भी नहीं कर सकते तो हमारे भी उस प्रभु के प्रति कुछ कर्त्तव्य बनते हैं । उन कर्तव्यों का पालन करना हमारा पुनीत कर्तव्य होता है । यदि हम अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते तो हम प्रभु के पुत्र कहलाने का अधिकार भी नहीं रखते । इन कर्तव्यों में प्रभु की स्तुति करना, प्रभु की प्रार्थना करना तथा प्रभु की उपासना करना मुख्य हैं । प्रभु स्तुति के अनेक प्रकार हैं, जिन में से सात प्रकार की स्तुति अथवा स्तुर्ती से होने वाले सात प्रकार के लाभ का वर्णन सामवेद के मन्त्र संख्या 45 में इस प्रकार किया गया है । : –
एना वो अग्निं नमसोर्जो नपातमा हुवे ।
प्रियं सतिष्ठमरतिन स्वध्वरं विश्वस्य दुतममृतम ।। सामवेद 45 ।।
मन्त्र में कहा गया है कि हे प्रभो ! आप अग्नि के सामान सब को आगे ले जाने वाले
हैं ।मैं आप को नम्रता से पुकारता हूँ क्योंकि प्रभु की आराधना नम्रता से ही संभव है । ज्ञान , धन व बल का गर्व करने वाला व्यक्ति कभी भी उस परम्पिर्ता परमात्मा का सच्चा आराधक नहीं बन सकता । प्रभु का आराधक बनाने के लिए गरव् को छोड़कर
नम्रता को ग्रहण करना होगा । अन्याथा हम केवल भटकते रहेंगे , प्रभु से नहीं मिला
सकेंगे ।

जब हम परमपितापरमात्मा की इस प्रकार की आराधना करते हैं तो हमें प्रभु के कुछ विशेषणों के रूप में कुछ लाभ प्राप्त होते हैं । मन्त्र में इस प्रकार के लाभों की संख्या सात बतायी गयी है । जो इस प्रकार है : –
1) आराधक में शक्ति का प्रवाह निरंतर चलता है : –
जिस प्रभु ने हमें इस संसार में भेजा है , वह प्रभु शक्ति को कभी गिरने नहीं देता, नष्ट नहीं होने देता । जब मनुष्य उस प्रभु से संपर्क करता है , उसकी आराधना करता है , उसकी स्तुति , उपासना करता है तो मनुष्य का संपर्क शक्ति के स्रोत उस प्रभु से जुड़ जाता है , जुड़ता ही नहीं उससे यह संपर्क निरंतर बना रहता है । जिस से किसी का संपर्क होता है , उसमें जैसी शक्तियां होती हैं , वैसी ही शक्तियां ( जो बुरी भी हो सकती हैं तथा लाभकारी भी ) ,उपासक को मिलती हैं । इस प्रकार जब मानव प्रभु की आराधना करता है , उसके संपर्क में आता है तो जिस प्रकार की शक्तियां उस प्रभु में होती हैं , वैसी ही ईश्वरीय शक्तियों का प्रवाह मानव में हो जाता है ।
2) आराधक का मन सदा प्रसन्न रहता है :-
ऊपर बताया गया है की प्रभु आराधना से ईश्वरीय शक्तियां मिलाती है । ईश्वरीय शक्तियों को पा कर मानव अपने आप को धन्य समझता है तथा प्रसन्नता से भाव विभोर हो उठाता है । इससे स्पष्ट होता है की प्रभु आराधक सदा प्रसन्न रहता है । यह तो सब जानते ही हैं की प्रसन्न व्यक्ति सदा स्वस्थ रहता है तथा धन धान्य से उसके कोष सदा भरे रहते हैं । इससे उसकी प्रसन्नता और भी बढाती है ।
3) आराधक को उत्कृष्ट ज्ञान मिलता है : –
परमपिता परमात्मा सब प्रकार के ज्ञान का आदि स्रोत होता है । जब हम परमपिता की प्रार्थना, उपासना पूर्वक स्तुति करते हैं तो वह प्रभु हमें अपनी गोदी में स्थान देकर हमें उत्तम ज्ञान देता है । इस प्रकार प्रभु आराधक को उत्तम से उत्तम ज्ञान देता है ।
4) आराधक को ब्रह्मानंद मिलता है : –
प्रभु भक्ति से आराधक को ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है । जब प्रभु भक्त अपनी आराधना के बल से प्रभु के साथ साक्षात्कार कर लेता है , प्रभु का साथ उसे मिल जाता है तो उसे असीम आनंद की अनुभूति होती है । अब उसके लिए प्रभु भक्ति के आनंद के सामने अन्य सब प्रकार के आनंद फीके दिखाई देते हैं । यह ही कारण है कि अब वह विषयों की और आकर्षित नहीं होता । ब्रह्मानंद के सामने उसे अन्य सब आनंद तूचछ दिखाई देते हैं । अत: वह विषयों से मिलने वाले रस से प्रीति को समाप्त कर ब्रह्मानंद में लीन होने का यत्न करता है क्योंकि अब उसे विषयों से मिलने वाला आनंद ब्रह्मानंद की प्रतिस्पर्धा में कुछ भी दिखाई नहीं देता ।
5) आराधक सदा उत्तम कर्मों में लग जाता है : –
जब आराधक को ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है तो उसे किसी पर हिंसा करने की आवश्यकता नहीं रहती , सब कुछ उसे उस प्रभु की शरण मात्र से ही मिल जाता है । अत: वह हिसा रहित हो कर उत्तमोत्तम कर्मों में लीन हो जाता है । इससे संसार का उपकार होता है तथा उसे और भी अधिक प्रसन्नता तथा आनंद मिलता है ।
6) आराधक के पास असुर प्रवृतियां नहीं आतीं : –
मानव की शरीर रूपी देवनगरी में जब आराधक की तपशचर्या से देवगण इस नगरी के अन्दर घुस कर इसे सप्त -ऋषियों का आश्रम बना देते हैं तो असुर प्रवृतियाँ बलात रूप से इस में घुस नहीं सकतीं क्योंकि असुर प्रवृतियों का उत्पातक प्रभु उन्हें सदा इस देवग्रह से दूर भगाता है , उन्हें पास नहीं आने देता ,अन्दर घुसने देने का तो प्रशन ही नहीं उठता । तभी तो सातवें लाभ के रूप में प्रभु आराधक को सब से बड़ा विजेता कहा गया है।
7 आराधक सब से बड़ा विजेता होता है : –
परमपिता परमात्मा मोक्ष का साधक होता है । वह अपने भक्तों को जन्म मरण के बंधनों से मुक्त कर मोक्ष में ले जाता है । इस प्रकार यह आराधक मृत्यु के भय से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । यह जो मुक्ति का मार्ग है , यह प्रभु आराधना से ही प्राप्त होता है । हम ऊपर बता चुके हैं कि प्रभु की आराधना नम्रता से होती है , अभिमान से नहीं । नम्रता से अभिमानादि दुष्ट वृतियों को पूर्णतया अपने वश में कर लेने से प्राप्त होती है । हम मन्त्र की भावना को तब ही आत्मसात कर यह सात लाभ पा सकते हैं जब हम नम्रता को ग्रहण कर स्वयं पर विजेता बनकर प्रभु आराधना में नम्रता के साथ निराभिमान हो कर जुटे रहेंगे । शत्रुओं पर तो अनेक लोग विजय कर लेते हैं किन्तु अपने आप पर विजय कोई ही पा सकता है , जो अपने आप पर विजय पा लेता है , वह सब से बड़ा विजेता होता है । यह विजय प्रभु आराधना से ही संभव होती है ।
अत: आओ हम प्रभु भक्ति के इन सात लाभों से साक्षात्कार करने के लिए सप्तारिशियों को पाने के लिए तथा प्रभु शरण के अधिकारी बनने के लिए नम्रता पूर्वक प्रभु की आराधना करें ।
डा अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : कयामत को लोग अन्धे, बहरे, और गूंगे होकर उठेंगे

कयामत को लोग अन्धे, बहरे, और गूंगे होकर उठेंगे
कुरान में दोनों परस्पर विरूद्ध बातें क्यों लिखी गई हैं। इनमें कौनसी बात झूठ है और क्यों ?
देखिये कुरान में कहा गया है कि-
व मय्यह्दिल्लाहु फहु वल्मुह्तदि…………।।
(कुरान मजीद पारा १५ सूरा बनी इस्राईल रूकू ११ आयत १७)
कयामत के दिन हम उन लोगों का औंधे मुह अर्थात् मुँह के बल अन्धे, गूंगे और बहरे करके उठावेंगे।

अंग्रेजी का महिमा-मण्डन अनुचित है

अंग्रेजी का महिमा-मण्डन अनुचित है

– संयम वत्स ‘मनु’

हिन्दी के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘अमर उजाला’ के रविवार 19 जुलाई 2015 के अंक में ‘हमारे नेता अंग्रेजी के इतने विरोधी क्यों है?’ शीर्षक से अंग्रेजी की जय-जयकार गुंजाता एक लेख पढ़ने को मिला। संयोग यह कि यह लेख मूल रूप से इस समाचार-पत्र को नहीं भेजा गया था। हिन्दी भाषियों के बल पर रोटी खाने वाले इस समाचार पत्र ने ‘आनन्द बाजार पत्रिका’ में प्रकाशित लेख को अनूदित करके अपने पाठकों के  सामने परोसकर अति बुद्धिमानी का परिचय दिया है क्योंकि इस लेख से प्रभावित पाठक गण हिन्दी का ‘अमर उजाला’ क्यों पढ़ेगे, कोई ‘हिन्दू’ या ‘इन्डियन एक्सप्रेस’ नहीं पढेंगे?

पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी के समाचार-पत्रों, टी.वी.चैनलों ने हिन्दी भाषी पाठकों, दर्शकों के सहारे से ही ‘हिन्दी’ भाषा का ही सर्वाधिक दोहन किया है। समाचार पत्रों में अब ‘समाचार’ शबद दिखाई ही नहीं देता उसका स्थान ‘खबर’ ले चुकी है। ‘राजनीति’ ‘सियासत’ में लुप्त हो गई है। ‘पगडन्डी’ का स्थाई स्थान ‘फुटपाथ’ ने ग्रहण कर लिया है। आपसी बोलचाल में हिन्दी के शबदों के स्थान पर ‘अंग्रेजी’ व ‘उर्दू’ के शबदों का प्रयोग हो रहा है। एक टी. वी. चैनल पर प्रतिष्ठित पत्रकार रजत शर्मा ‘वैलकम बैक’ और नवाज शरीफ को  पाकिस्तान का ‘वजीर-ए-आजम’ और नरेन्द्र मोदी को ‘पी.एम.’ कहते हैं तो आत्मग्लानि होती है कि जब नवाज वजीर-ए-आजम हो सकते हैं तो मोदी प्रधानमंत्री क्यों नहीं? यह सब आधुनिकता के नाम पर हो रहा है और कोई गैर हिन्दी भाषी नहीं वरन् हिन्दी भाषी ही इस घिनौने अपराध को कर रहे हैं। इस नई परमपरा से देश में हिन्दी का ही नहीं वरन् अन्य प्रादेशिक भाषाओं के स्तर का भी हनन हो रहा है, जो गमभीर चिन्ता का विषय है। हमारा भविष्य भाषाई स्तर पर ‘अंग्रेजी’ का दास होता जा रहा है। यह स्थिति ‘भारत’ के नहीं अपितु ‘ब्रिटेन’ के लिए अधिक लाभप्रद प्रतीत होती है।

संदर्भित आयातित लेख में लेखक ने नेताओं को अग्रेंजी का विरोधी करार दिया है। उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया, मुलायम सिंह, राजनाथ सिंह जी का उल्लेख इस निमित्त किया है। लेखक ने अत्यन्त बचकानी टिप्पणी की है। उनके अनुसार अगर अग्रेंजी न होती तो इस देश को दक्ष इंजीनियर, असाधारण डॉक्टर या दिग्गज आई.टी. विशेषज्ञ नहीं मिलते। हम ‘ब्रिटिश अग्रेंजी’ की दासता स्वीकारते हैं। अगर इस भाषा में इतनी ही गुणवत्ता है तो आज इंग्लैण्ड प्रगति के झण्डे गाढ़ रहा होता लेकिन क्या ऐसा है? तथ्य यह सिद्ध नहीं कर रहे। उसके अपने ‘स्कॉटलैण्ड’ में ही ‘स्काटिश’ भाषा का राज है। अंग्रेजी भाषा में यहाँ संवाद अशोभनीय है। सामरिक दृष्टि से इंग्लैण्ड अमेरिका का सबसे बड़ा पिछलग्गू है। अमेरिका लगभग सवा दौ सौ वर्ष पुराना स्थापित देश है और इंग्लैण्ड लगभग सवा आठ सौ वर्ष पुराना। चीन ने अपने वर्तमान अस्तित्व को वर्षों के गृहयुद्ध के बाद 1949-50 में प्राप्त किया। पुराने सोवियत संघ में 1917 के विप्लव के बाद सत्ता सूत्र ग्रहण किए गए थे और वह हाल के वर्षों तक विश्व शक्ति के रूप में अमेरिका के अस्त्तित्व को चुनौती देता रहा तथा बिखरने के बाद भी रूप से अमेरिका से दबने को तैयार नहीं और इंग्लैण्ड तो किसी गिनती में है ही नहीं। सोवियत संघ या रूस अंग्रेजी भाषी नहीं है।

1919 के विश्व युद्ध में पराजित जर्मनी और 1932 तक मित्र राष्ट्रों के क्रूर संधि प्रावधानों से जर्जरता के कगार पर पहुँचा जर्मनी 1938 तक पुनः विश्व शक्ति बनकर मित्र राष्ट्रों के दाँत खट्टे करने लगा था। दूसरे विश्व युद्ध में आर्थिक व सामरिक रूप से धूलि धूसरित जापान, जर्मनी तथा 1948 में जन्मा और अपने शत्रुओं से निरन्तर लोहा लेने वाला इस्राइल वैज्ञानिक तकनीक, औद्योगिककरण अर्थव्यवस्था में हमसे कितना आगे हैं यह एक निर्विवाद सत्य है। दूसरे विश्व युद्ध में एक बार तो फ्रांस को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा था। आज वह फिर से महाशक्ति है। हमारे सत्ताधीश इन देशों के सामने सदैव हाथ पसारे तो दिखाई दिए और देश के अंग्रेजी परस्त मित्रों, क्षमा करें, इनमें से किसी की भी भाषा ‘अंग्रेजी’ नहीं है जबकि भारत की भाषा तो निरन्तर अग्रेंजी है। लेखक महोदय गर्व से उदाहरण दे रहे हैं कि अग्रेंजी न होती तो भारत को न इंजीनियर मिलते न डॉक्टर और न आई.टी. विशेषज्ञ। स्पष्ट है कि रुस, चीन, जर्मनी, जापान, इस्राइल व फ्रांस जैसे देशों की उन्नति के संवाहक इंजीनियर व आई.टी. विशेषज्ञ उन अंग्रेजी वाले विशेषज्ञों के समकक्ष ही होंगे। उनके यहाँ चिकित्सक भी होते ही होंगे, क्योंकि कभी सुनने में नहीं आया कि जर्मनी, जापान, इस्राइल आदि देशों के मुखिया इंग्लैण्ड अथवा अमेरीका अपनी चिकित्सा कराने गए हों लेकिन हमारे देश के ‘अंग्रेजी दाँ,’ ‘असाधारण डॉक्टरों’ के रहते हुए भी हमारे नागरिकों को अमेरिका, इंग्लैण्ड और यहाँ तक कि सिगांपुर जैसे छोटे देश में चिकित्सा हेतु जाना पड़ता है। जो नहीं जा पाते उनके घुटने बदलने अमेरिका से डॉक्टर आते हैं। तात्पर्य यह कि संदर्भित देशों ने अपनी सफलता, गतिशीलता अग्रेंजी भाषा से नहीं ‘स्वभाषा’ से प्राप्त की है। इस्राइल, जापान, चीन, जर्मनी ने अपनी विकास यात्रा भारतीय स्वाधीनता के बाद प्रारमभ की थी, कौन-सा कारण है कि ये देश हमसे मीलों आगे हैं? अग्रेंजी भाषा को विकास की कुन्जी बताने वाले लेखक महोदय इस प्रश्न का उत्तर देने की कृपा करेंगे?

आज अग्रेंजी के नाम पर एक भीषण कुचक्र चल रहा है और इससे व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध किए जा रहे हैं। लेखक महोदय अग्रेंजी के विरोध हेतु नेताओं को दोषी ठहरा रहे हैं। लोहिया जी जैसे नामों को उन्होंनें आलोचना के घेरे में लिया है लेकिन क्या वे विस्मृत करते हैं कि भारत की संसद ‘अंग्रेजी’ के अतिरिक्त और किसी भाषा में काम नहीं करती। वित्त मंत्री चाहे किसी दल का हो ‘बजट’ अग्रेंजी में ही पढ़ा जाता है। ‘अंग्रेजी’ जैसी प्रगतिशील भाषा का ही प्रभाव है कि 65 वर्ष में भारत का संविधान लगभग सवा सौ संशोधनों को झेल चुका है। विश्व में कोई दूसरा उदाहरण स्मरण नहीं होता। अंग्रेजी का एक शबद ‘सेकुलर’ गढ़ा गया जो आज तक ठीक से परिभाषित नहीं हो सका और इस शबद के चारों ओर भारत का राजनैतिक पक्ष नृत्य कर रहा है। उन्हें इस बात से कोई समबन्ध नहीं कि भारत का अन्नदाता भूखा मर रहा है न इससे कोई सरोकार कि सीमा पर शत्रु आँखें तरेर रहा है। ये सभी दल ‘सेकुलर’ ‘सेकुलर’ खेलकर अपना लक्ष्य साध रहे हैं। लेखक से निवेदन है कि वास्तविकता से मुँह छिपाने का प्रयास मत करो। इस देश के नेताओं ने ‘अंग्रेजी’ के हित में भारतीय भाषाओं का दोहन किया है। इस सेवक को अच्छे से स्मरण है कि सोवियत रुस के नेतागण भारत आकर अपनी भाषा में भाषण देते थे जिसका अनुवाद हिन्दी में सुनाया जाता था और भारत के नेता अपना उत्तर अंग्रेजी में दिया करते थे। हिन्दी की महत्ता की जानकारी अपनो से अधिक इन विदेशियों को थी। पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी संयुक्त राष्ट्र संघ में अरबो रुपये व्यय करके हिन्दी में बोले थे लेकिन मद्रास की चुनाव सभा में भाषण अंग्रेजी में ही देते थे।

अंग्रेजी को समृद्धि का संवाहक मानने वालों से मेरा प्रश्न है कि क्या हमारे विद्वानों ने हिन्दी अथवा भारतीय भाषाओं में विज्ञान व तकनीकी साहित्य को रचने का प्रयास किया जैसा कि रुस, चीन, जापान, इस्राइल इत्यादि के विद्वानों ने स्वभाषा में रचकर किया? अगर साहित्य होता तथा परिणाम नगण्य आ रहे होते तब तो ऐसे उपहास भरे शबद अभीष्ट थे लेकिन बिना परीक्षण के असफलता का दोष लगाना अन्याय से कम नहीं है। पिछले दिनों समाचार-पत्रों में पढ़कर सुखद लगा कि तमिलनाडु में तमिल भाषा में ही भावी इंजीनियर व डॉक्टर अपना अध्ययन कर रहे हैं अर्थात् अंग्रेजी में सफलता का मिथक तो दरक ही रहा है। आवश्यकता तमिलनाडु की भावना को देश के अन्य भागों में दोहराने मात्र की है।

अंग्रेजी भाषा के विस्तार के माध्यम से षडयंत्रकारी ढंग से भारत के भविष्य की मानसिकता में एक धीमा विष रोपित किया जा रहा है। प्रगतिशीलता व आधुनिकता के नाम पर ‘अंग्रेजी’ भाषा की उपयोगिता का मिथ्या प्रचार करके स्वार्थी तत्त्व अपनी स्वार्थ पूर्ति में व्यस्त हैं। वे ये सोचना नहीं चाहते कि जब ये भविष्य की पीढ़ी अपनी भाषाओं से कट जाएगी तो मानसिक रूप से स्वयं को किस के निकट पाएगी। भारत के अथवा इंग्लैण्ड के? और यह तथ्य प्रत्येक समय स्मरण रहना चाहिए।

– चौरासी घन्टा, मुरादाबाद