श्री दुलीचन्द जी जैलदार- शुद्धि सेना के अवैतनिक सिपाही

श्री दुलीचन्द जी जैलदार

शुद्धि सेना के अवैतनिक सिपाही

-धर्मेन्द्र जिज्ञासु

समग्र क्रान्ति के सूत्रधार आर्यसमाज के आन्दोलन ने समाज के हर वर्ग के व्यक्ति को अपनी तरफ आकृष्ट किया। श्री दुलीचन्द जी जैलदार भी उन लाखों व्यक्तियों में से एक थे, जिन्होंने अपना जीवन आर्यसमाज के आन्दोलन को भेंट कर दिया था। उनका जन्म सन् १८८९ ई. में ग्राम सुनपेड़ तहसील बल्लभगढ, हरियाणा में हुआ। पिता जी का नाम ठाकुर देवीराम था। उनकी माता गाँव-महेपा जिला बुलन्दशहर, उत्तरप्रदेश की थीं।

युवावस्था में आर्यसमाज के समाज सुधार कार्यक्रमों से आकृष्ट होकर वे निष्ठावान् आर्यसमाजी बने। उनका विवाह गाँव-रैनीजा, जिला बुलन्दशहर (उ.प्र.) की भगवानी देवी से हुआ। दो पुत्र हुए-सतपाल सिंह व राजपाल सिंह। गाँव में प्रति वर्ष आर्यसमाज के तीन-चार प्रचार कार्यक्रम करवाते थे। जैलदार जी ने हिन्दी रक्षा आन्दोलन तथा गौरक्षा आन्दोलन में सक्रिय योगदान दिया था। अपने बड़े बेटे सतपाल सिंह को अन्दोलनों में जेल भेजा जिसके कारण सब लोग उन्हें महाशय सतपाल कहने लगे थे। पलवल के निकट गुरुकुल गदपुरी की स्थापना में उनका विशेष योगदान था। वे हर वर्ष गुरुकुल के लिए अन्न संग्रह करके भिजवाते थे। यह परम्परा उनके परिवार में आज तक बनी हुई है।

स्वामी श्रद्धानन्द जी के सानिध्य मेंःजैलदार जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के सान्निध्य में शुद्धि आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया। बल्लभगढ़, पलवल, मेवात व आगरा में लाखों राजपूत, जाट, मेव आदि की शुद्धि में बढ़-चढ़कर भाग लिया। उनके छोटे सुपुत्र राजपाल सिंह जी ने ७ फरवरी २००६ को ‘आर्यसमाज के भीष्म पितामह’ श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी को यह जानकारी दी।

‘‘मेरे पिता श्री दुलीचन्द जैलदार जी ने ही इलाके में आर्यसमाज का बीज बोया था। मेरा जन्म सन् १९२३ में हुआ था। मेरा नामकरण संस्कार पूज्य स्वामी श्रद्धानन्द जी ने ही करवाया था। मेरी जीभ पर सोने की अंगूठी से ‘ओ३म्’ लिखवाया था। उस समय हमारी हवेली के आंगन के बीच में पत्थर का हवनकुण्ड स्थापित किया गया था, जो आज तक मौजूद है।

पिता जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ शुद्धि का बहुत काम किया था। जल्हाका, बुड़ैना, हरसोला तथा जाटों के अनेक गाँवों की शुद्धि करवाई थी।’’

स्वामी स्वतन्त्रानन्द पुस्तकालय, हीरा मार्केट, गुरु बाजार अमृतसरः- जुलाई २०१० ई. में पदोन्नति के कारण मेरी पोस्टिंग अमृतसर में हुई। वहाँ मैं दिसम्बर २०१२ तक रहा। स्वामी स्वतन्त्रानन्द पुस्तकालय में पुरानी पुस्तकों व समाचार-पत्रों की फाइल उलटते-पुलटते मुझे जैलदार जी के बारे में दो समाचार मिले, जो इस प्रकार हैंः-

१. शुद्धि समाचार का सभा-विवरणांक-१५ मई सन् १९३० ई., वर्ष ६ संख्या ५, पृष्ठ २१७

अवैतनिक प्रचारक

वैतनिक प्रचारकों के अतिरिक्त बहुत से उपदेशक महानुभावों तथा सहायकों ने इस वर्ष सभा के प्रचार कार्य में समय-समय पर अच्छी सहायता दी है और उन्होंने सभा से किसी प्रकार का भी खर्चा यहाँ तक कि मार्ग व्यय भी प्राप्त नहीं किया है।

अवैतनिक प्रचारक महानुभावों के कुछ नाम इस प्रकार हैंः-

क्रम सं. १२ श्री चौ. दुलीचन्द जी सुनपेड़।

क्रम सं. ११ पर श्री चौ. चन्दन सिंह जी पलवल (क्रम सं. ४ पर) इस सूची में श्री पं. धुरेन्द्र शास्त्री न्यायभूषण, पटना व कुँ वर चाँदकरण जी शारदा, अजमेर (क्रम सं. ३० पर) दिए गए हैं।

२. शुद्धि समाचार-१५जून १९३० ई. (वर्ष ६ सं. ६) पृष्ठ २६६ विविध समाचार-

‘‘ता. १५ मार्च सन् १९३० ई. शनिवार को ग्राम दीघोट जिला गुडगाँवा निवासी चौ. तारासिंह नम्बरदार की २ पुत्रियों का विवाह संस्कार ग्राम अटारी तह. बल्लभगढ़ के चौ. समयसिंह के २ पुत्रों से हुआ। विवाह में श्री चौधरी दुलीचन्द सुनपेड़ निवासी, श्री चौ. कर्णसिंह जी कौरारी निवासी शामिल हुए। चौ. तारासिंह नम्बरदार की शुद्धि सन् १९२४ ई. में ‘भारतीय हिन्दू शुद्धि सभा’ द्वारा की गई थी।’’

जैलदारः पंजाब राज्य जिलावार गजेटियर वॉल्यूम २ ए के पृष्ठ २०७-०८ के अनुसारः-‘‘प्रत्येक तहसील अनेक सर्कल या जैलों में विभाजित होती है, जिनका प्रभारी जैलदार होता है। जैलदार कोई सरकारी अधिकारी नहीं होता, बल्कि वह प्रायः किसी जैल में सम्मिलित किसी गांव का मुखिया या लम्बरदार होता है। उसकी नियुक्ति लम्बरदारों के समूह में से चयन द्वारा होती है। चयन इन आधारों पर किया जाता है’’:-

१. जैल में उस व्यक्ति का प्रभाव/रुतबा

२. उसका चरित्र

३. उसके स्वामित्व वाली जायदाद/जमीन का रकबा/क्षेत्र

४. राज्य/सरकार के प्रति उसके द्वारा की गई सेवायें।

एक जैल में कई गाँव भी सम्मिलित हो सकते हैं। पारितोषिक/प्रतिफल के तौर पर जैलदार को किसी गाँव के राजस्व का एक निश्चित अंश दिया जाता है।

ठाकुर श्री दुलीचन्द की सामाजिक सक्रियता के कारण ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें सन् १९३२ ई. में जैलदार नियुक्त किया। सरकार उन्हें आर्यसमाज के कार्यों से उदासीन करना चाहती थी, परन्तु वे सन् १९६५ ई. तक अत्यन्त उत्साहपूर्वक आर्यसमाज का काम करते रहे। उन्होंने अपनी सन्तान को भूत-प्रेत से न डरने, मूर्तिपूजा न करने आदि के संस्कार दिए। गाँव में शाहपुर मोड़ पर आर्यसमाज का मन्दिर बनवाया।

शुद्धि चक्र और देश का बँटवाराः सन् १९४६ ई. में शुद्धि सभा द्वारा मेवात के अनेक गाँवों की शुद्धि की गई। इधर गुडगाँवा जिला में जटौला, फतेहपुर बिल्लौच, नौगाँव, तेरहा, गिर्राज जी की परिक्रमा वाले गाँव-जतीपुरा, कनोट, बरसाना के पास देवदिया आदि में शुद्धि चक्र चला जिसमें जैलदार जी ने सक्रिय भूमिका निभाई। सन् १९४७ ई. में बँटवारे के समय जो मुसलमान यहाँ से पाकिस्तान जाना चाहते थे, जैलदार जी ने उनको सुरक्षित निकलने में मदद की। उन लोगों ने पाकिस्तान से एहसानमन्दी के पत्र भेजे थे।

श्री प्रकाशवीर शास्त्री जी व नेहरु जी के संगःजैलदार जी का सामाजिक रुतबा बहुत बढ़ गया था। श्री प्रकाशवीर शास्त्री जी ने बल्लभगढ़ से चुनाव लड़ा व जीता। इस चुनाव में जैलदार जी ने विशेष भूमिका निभाई थी। शास्त्री जी का चुनाव चिन्ह ‘शेर’ था। वे जैलदार जी को पिता जी कहते थे। आर्यसमाज के  उस समय के प्रमुख विद्वानों व संन्यासियों से उनका परिचय था। श्री रामगोपाल शाल वाले उनका बहुत आदर करते थे। भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. नेहरु जी के साथ उनका एक फोटो था, जो अब उपलब्ध नहीं है। वे सन् १९५८-६० ई. में गुरुकुल काँगड़ी के उत्सव पर गए थे। आर्य समाज के बोम्बे अधिवेशन में भी भाग लिया था।

आर्यसमाज बनाम ईसाई मिशनरी केस में गवाही

पलवल निवासी तथा भुसावर राजस्थान में कन्या गुरुकुल के संस्थापक ‘संगठन पुरुष’ श्री हरीशचन्द्र शास्त्री जी के अनुसार पलवल क्षेत्र में ईसाई मिशनरी प्रचार व धर्म परिवर्तन करते थे। आर्यसमाजियों द्वारा विरोध करने पर उन्होंने केस दायर कर दिया। तब लाहौर कोर्ट में आर्यसमाजियों के पक्ष में गवाही देने श्री दुलीचन्द जैलदार जी भी गए थे। अजमेर में ऋषि मेला के अवसर पर डॉ. वेदपाल जी ने बताया था कि जैलदार जी का इलाके में बहुत प्रभाव था। एक बार ‘प्रकाश मिल’ वालों के किसी ने पैसे उधार लेकर वापस करने से मना कर दिया। जब जैलदार जी ने ही उनकी मदद की थी।

वानप्रस्थ व संन्यास

जैलदार जी ने गुरुकुल गदपुरी में वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया। पहले दाढ़ी रखते थे, वानप्रस्थी बनने पर दाढ़ी कटवा दी। फिर सन् १९६२ ई. में संन्यास ले लिया तथा गुरुकुल गदपुरी में ही रहने लगे। संन्यास आश्रम में प्रवेश करते समय उनका नाम ‘सत्यानन्द सरस्वती’ रखा गया था।

मृत्यु का पूर्वाभास

उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था। अपने पौत्र नरजीत से उनका विशेष स्नेह था। आर्य समाज के संस्कार उसे घुट्टी में पिलाए थे। सन् १९६९ ई. में मृत्यु से एक सप्ताह पहले गुरुकुल गदपुरी से गाँव आ गए थे। उन्होंने अपने पौत्र नरजीत को बता दिया था कि ७ मार्च को सांयकाल मैं शरीर त्यागूंगा। उन्होंने बाजार से २१ किलो हवन सामग्री, ११ किलो देशी घी, १ किलो चन्दन लकड़ी मंगवाई। रु. २१००/- गुरुकुल गदपुरी को दान भिजवाया। ६ मार्च को शाम को अपने पौत्र नरजीत को गुरुकु ल गदपुरी भेजकर वहाँ से शास्त्री जी को बुलवाया। ७ मार्च सन् १९६९ ई. को सांयकाल में वे चल बसे।

इलाके में आर्यसमाज का पतन व पुनरुद्धार

उनके मरने के पश्चात् इलाके में आर्यसमाज का काम निष्क्रिय होता चला गया। आर्यसमाज मन्दिर पर पौराणिकों के भजन कीर्तन होने लगे। उनके बड़े पुत्र सतपाल की मद्य व्यसन के कारण मृत्यु हुई। राजपाल सिंह आजीवन प्रातःकाल यज्ञ करते थे। चुनावों के चक्कर में राजनैतिक दाँव-पेंच चलते थे। फलतः आर्यसमाज समाप्त प्रायः हो गया।

सन् १९८० के दशक में आर्यवीर दल की शाखाओं के माध्यम से श्री होतीलाल आर्य व हरवीर आर्य जी ने आर्यसमाज में फिर से जीवन फूँ का। सन् १९९७ ई. में गाँव में आर्यवीर महासम्मेलन कराया गया। जिसमें जैलदार जी के परिवार ने भरपूर सहयोग दिया। नवम्बर २००० ई. में गाँव में आर्य समाज की स्थापना कराई। श्री राजपाल जी ने स्टेज पर आकर मेरी पीठ थपथपाई तथा बोले आज तुमने गाँव का नाम फिर से रोशन कर दिया। श्री राजपाल जी का निधन सितम्बर २०१० ई. में हो गया। ७ मार्च २०१३ ई. वीरवार को जैलदार जी के परिवार वालों ने श्रद्धा-दिवस मनाकर एक नयी शुरुआत करने का प्रयास किया है और अब-‘‘लहलहाती है खेती दयानन्द की’’

शैल्डन पोलॉक का शोध- संस्कृति का शीर्षासन

शैल्डन पोलॉक का शोध

संस्कृति का शीर्षासन

चार सितम्बर के दिन कर्नाटक यात्रा के प्रसंग में हम्पी भ्रमण करते हुये विजय नगर साम्राज्य के खण्डहर देख रहे थे। विरुपाक्ष मन्दिर, मन्दिर समूह, कृष्ण मन्दिर, विट्ठल मन्दिर, अच्युतराय मन्दिर देखते हुए एक मुस्लिम शासक निर्मित भवन दिखाई दिया। उसके परिचय में लिखा हुआ था- ‘एक सैक्यूलर इमारत’ पढ़कर हृदय गदगद हो गया। इस देश की नई शब्दावली से परिचित हुये बिना यहाँ की और इस देश को लेकर सोचने वालों की मानसिकता को नहीं समझा जा सकता। इस देश में पीड़ित को साम्प्रदायिक और आक्रान्ता को सैक्युलर, धर्म-निरपेक्ष, समाजवादी और उदार कहा जाता है।

आजकल हमारे तथाकथित प्रगतिशील लोगों की यह शब्दावली है जहाँ शब्द भी उनका भी दिया अर्थ बताते हैं। वास्तविक अर्थ कुछ रहा होगा तो रहे, परन्तु आज तो यही अर्थ ठीक है। वेद, शास्त्र, हिन्दू, ब्राह्मण आदि ऐसे शब्द हैं जिनका अर्थ होता है- शोषक, उत्पीड़क, रुढ़िवादी, स्त्री-विरोधी, दलित-विरोधी, अल्पसंख्यक-विरोधी, असभ्य, असंस्कृत आदि। यदि कोई मुसलमान की बात हो, चाहे औरंगजेब हो, अकबर हो, गजनी हो, ख्ुादा हो, कुरान हो या पैगम्बर हो, उनका अर्थ होता है- सैक्युलर, उदार, समन्वयवादी आदि। कहीं अंग्रेज, अंग्रेजी, विदेशी शोधकर्त्ता का नाम आ जाये तो अर्थ होगा प्रगतिशील, वैज्ञानिक दृष्टिवाला, दयालु, परोपकारी आदि। ऐसे शब्द आजकल के सुपठित लोगों की भाषा में इन्हीं अर्थों में आते हैं।

इन शब्दों का उदारता से व्याख्यानपूर्वक प्रयोग देखना हो तो आजकल के महान् शोधकर्त्ता कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रोफे सर सर शैल्डन पोलॉक हैं। जिनका बहुत सारा शोध कार्य है, परन्तु रामायण को उन्होंने जिस दृष्टि से देखा है वह इस शब्दावली से समझा जा सकता है। शैल्डन पोलॉक के शोध के अनुसार वेद निरर्थक हैं (मीनिंग लेस) बाकि जितने भी शास्त्र हैं इनमें अपना कुछ नहीं है, ये सब वेद से दबे हुए हैं। बाद के काव्य, व्याकरण आदि राजाओं के प्रभाव को स्थापित करने, जनता को दबाने, उनका शोषण करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा लिखे गये। इसका एक उदाहरण रामायण है। रामायण कोई इतिहास नहीं है। राम नाम का कोई व्यक्ति नहीं हुआ। राम के नाम पर राजाओं के प्रभाव को बढ़ाने और जनता को दबाकर रखने के लिये वाल्मिकी ने इस की रचना की है।

शैल्डन पोलॉक का शोध दूर की कौड़ी है। श्लोकों का अर्थ मनमाना और अप्रासंगिक है। तटस्थ अध्ययनकर्त्ता यदि ग्रन्थकर्ता की एक  बात को प्रस्तुत करता है तो उसके विपरीत बातों को भी उद्धृत करना उसका कर्त्तव्य बनता है। पोलॉक महाभारत का श्लोक उद्धृत कर कहता है कि संस्कृत ग्रन्थों में राजा के  माहात्म्य को बढाने के लिये उसे भगवान् का रूप दिया गया है। ऐसा करने के पीछे उद्देश्य यह है कि कोई राजा का विरोध न कर सके और राजा अपने को भगवान् मानकर प्रजा पर मन मरजी चला सके। प्रजा का शोषण कर सके। पोलॉक के विचार से सारा संस्कृत साहित्य राजाओं के द्वारा अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए ब्राह्मणों के माध्यम से कराया गया प्रयास है। पोलॉक का विचार है कि पूरे संस्कृत साहित्य में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसमें मनुष्य की स्वतन्त्रता, बौद्धिकता, समानता की बात दिखाई पड़ती हो। उसके विचार से हिन्दुओं में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव इन संस्कृत ग्रन्थों द्वारा बौद्धिक स्वतन्त्रता को बन्धक बनाये जाने के कारण है। वेद या शास्त्रों में आध्यात्मिकता की बात करना निरी मूर्खता है। वेद, शास्त्र, संस्कृत साहित्य दलित-विरोधी, स्त्री-विरोधी और अल्पसंख्यक विरोधी है। पोलॉक का मानना है कि रामायण के माध्यम से शासकों ने प्रजा के मन में मुस्लिम विरोधी भावनाओं को भड़काने का कार्य किया है। वह यहाँ तक कहता है कि भाजपा या विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा रथ-यात्रा निकालना हिन्दुओं के मन में रामायण के माध्यम से मुस्लमानों के प्रति शत्रुता का भाव उत्पन्न करने का प्रयास है।

पोलॉक रामायण को मुस्लिम विरोध के लिये लिखवाया ग्रन्थ कहकर दो बात सिद्ध करना चाहता है, एक– राम नाम का कोई इतिहास में व्यक्ति ही नहीं हुआ, उसके आदर्श राजा होने की बात तो बहुत दूर है। दूसरी रामायण की रचना का समय वह इस्लाम के भारत आक्रमण के बाद का सिद्ध करना चाहता है। यह ग्रन्थ के साथ और इतिहास की परम्परा के साथ भी मनमानी है। इस्लाम के उत्पन्न होने से पहले ही रामायण का विश्व में प्रचार प्रसार हो चुका था। जहाँ इस्लाम का जन्म चौदह सौ वर्ष पुराना है तो रामायण के चित्रों का प्रदर्शन ब्राह्यीलिपि के साथ तीन हजार वर्ष से भी पुराना मिलता है। चीन, तिब्बत, लंका, मलेशिया, इन्डोनेशिया आदि देशों में रामायण का प्रचार-प्रसार वहाँ इस्लाम के पहुंचने से पहले ही पहुँच चुका था। साहित्य में हजारों ग्रन्थ ऐसे हैं जिनकी रचना रामायण के आधार पर की गई है। रामायण इन ग्रन्थों का उपजीव्य है।

शैल्डन पोलॉक का शोध है कि रामायण में राक्षस शब्द मुसलमानों के लिये प्रयुक्त हुआ है। संस्कृत साहित्य में मुसलमानों के लिये यवन शब्द तो देखने में आता है पर किसी भी शब्दकोश में राक्षस का अर्थ मुसलमान देखने को नहीं मिलता। वैदिक साहित्य में दो ही वर्ग देखने में आते हैं। इनमें एक को आर्य कहते हैं दूसरे को दस्यु कहा जाता था। दस्यु के लिये भी अनार्य शब्द का प्रयोग मिलता है। ये दोनों शब्द एक वर्ग के लोगों के लिये प्रयुक्त होते थे, क्योंकि ये शब्द गुणवाचक हैं न कि जाति के वाचक। संस्कृत साहित्य में दस्यु शब्द का अर्थ करते हुये कहा गया है ‘अकर्मा दस्युः’ जो पुरुषार्थ न करके निर्वाह करना चाहता है वह दस्यु है। वह कोई भी हो सकता है। जिन का आचरण आर्योचित या मर्यादा रहित होता था, उनके लिये म्लेच्छ शब्द का प्रयोग देखा जा सकता है। जहाँ तक राक्षस शब्द की बात है। राक्षस शब्द बहुत पुराना है, वेद में भी प्रयुक्त हुआ, प्रारम्भ में इसका अर्थ बुरा नहीं था, बाद में बुरे अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है। राक्षस का अर्थ किसी भी रूप में मुसलमान अर्थ में रामायण में प्रयुक्त नहीं हुआ है।

रामायण में राक्षस वंशों का वर्णन मिलता है। राक्षसों के नाम, स्थान, वंश, क्षेत्र आदि का उल्लेख रामायण में विस्तार से पाया जाता है। ऐसी स्थिति में रामायण के राक्षस शब्द से मुसलमान अर्थ लेना- यह मनमानापन शोध तो नहीं कहा जा सकता है। शैल्डन पोलॉक का मानना है कि बुद्ध से पहले हिन्दुओं को लिखना-पढ़ना नहीं आता था। पोलॉक का शोध कहता है कि रामायण की रचना बौद्ध जातक कथाओं की नकल पर की गई है। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है रामायण बुद्ध से पूर्व भी इस देश में प्रचलित थी। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। सोचने की बात है कि सब कुछ इस देश में बुद्ध के बाद आया तो बुद्ध से पहले यहाँ क्या था। इतना ही नहीं, बुद्ध ने जो कुछ जाना-सीखा वह सब कहाँ से सीखा। बौद्ध-दर्शन यदि वैदिक दर्शन का खण्डन करता है तो वैदिक दर्शन की उपस्थिति बुद्ध से पहले हुए बिना खण्डन कैसे हो सकता है। जैन, बौद्ध साहित्य में ब्राह्मणवाद का खण्डन बताया जाता है तो ब्राह्मण धर्म बुद्ध से पहले था तभी तो खण्डन किया जा सका। जब कोई विचार किसी विचार की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न होता है तो जिसके लिये विरोध या प्रतिक्रिया हुई है, उसका पहले स्थापित होना तो स्वतः सिद्ध होता है। फिर यह कहना कि वेद से लेकर पुराण तक की रचना बुद्ध काल के बाद हुई है- युक्ति संगत नहीं कहा जा सकता। संस्कृत साहित्य में काल निर्णय की समस्या चार कारणों से उत्पन्न होती है। प्रथम है नाम साम्य-एक ही नाम के अनेक व्यक्ति विभिन्न समय और स्थानों पर होते रहे इसलिये उनका काल निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है। दूसरा कारण है- वेद को छोड़कर समस्त शास्त्रीय साहित्य में समय-समय पर मिलावट होती रही है, जिस कारण ग्रन्थ के मूलपाठ को प्रक्षेप से पृथक् करना एक कठिन और चुनौती वाला कार्य है। तीसरा कारण- भारत में क्रमबद्ध इतिहास लिखने की परम्परा बहुत कम मिलती है। हमारे देश में रामायण व महाभारत को छोड़कर बचे इतिहास ग्रन्थ कम ही मिलते हैं। इतिहास के लिये पुराणों का अध्ययन आवश्यक है, परन्तु इनमें मिलावट होने के कारण तथ्यों को छांटना कठिन कार्य है। फिर चौथा कारण है- इस देश की दासता की लम्बी अवधि और मुसलमानों द्वारा साहित्य को जलाना और अंग्रेज, डच, फ्रेंच आदि द्वारा साहित्य, संस्कृति कला की वस्तुओं को इस देश से उठा ले जाना। ऐसी परिस्थिति में इतिहास न होने का दोष किसे दिया जा सकता है। रामायण में भी प्रक्षेप हैं जिसका लाभ पोलॉक उठाना चाहता है। रामायण में एक श्लोक आता है-यथा हि बुद्धस्तथा हि चौर– जैसा बुद्ध वैसा चोर, जैसी पंक्तियों के आधार पर आप रामायण को बुद्ध के बाद बताना चाहते हैं, पर पहले रामायण की प्राचीनता को प्रतिपादित करने वाले प्रमाणों का खण्डन करना होगा। जिसे शैल्डन पोलॉक का शोध स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है।

एक और महत्त्वपूर्ण शोध कार्य शैल्डन पोलॉक ने किया है, उस पर भी दृष्टिपात् करना उचित होगा। शैल्डन पोलॉक अपने शोध कार्य से इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि रामायण हिन्दुओं की मरी हुई, दबी-कुचली इच्छाओं, अपूर्ण-दामित कामवासनाओं को काव्य के माध्यम से प्रकाशित कर सन्तुष्टि पाने वाला ग्रन्थ है। इसमें दबी इच्छाओं और उनको पूर्ण करने में आने वाले भय का निरुपण किया गया है। शैल्डन पोलॉक की दृष्टि में हिन्दू समग्ररूप से विकृत काम-वासना से ग्रसित समुदाय है। यह पोलॉक ही नहीं, बहुत सारे योरोपियन अमेरिकन वर्ग के लेखक भी कहते हैं, पिछले दिनों वेन्डीडोनिगर की एक पुस्तक निकली ‘हिन्दू-एन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री’। इस पुस्तक में क्या होगा इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पुस्तक के मुख पृष्ठ पर एक नग्न महिला पर चढ़कर कृष्ण को बांसुरी बजाते हुये दिखाया गया है। यह मनोविकृति कृष्ण की है या हिन्दुओं की अथवा वेन्डिडोनिगर और उनके साथी यूरोप, अमेरीकी शोधकर्त्ता की- यह समझना कठिन नहीं है।

पोलॉक के शोध में सारा प्रयास यह दिखाई देता है कि वह समाज को टुकड़ों में बँटा हुआ और एक-दूसरे के विरोध में खड़ा हुआ देखना चाहता है। वह संस्कृत को क्षेत्रीय भाषाओं के विरोध में, बौद्धों को हिन्दुओं के विरोध में, हिन्दुओं को मुसलमानों के विरोध में, पुरुषों को स्त्रियों के विरोध में, ब्राह्मणों को दलितों के विरोध में, सवर्णों को शूद्रों के विरोध में खड़ा करना चाहता है। सारे प्रयत्न उसके शोध के निष्कर्ष के रूप में दिखाई देते हैं। इस समाज में पोलॉक को सब कुछ खराब और घटिया दिखाई देता है। उसकी सद्भावना इतनी ही है कि वह हिन्दू समाज को इस कलंक से दूर करना चाहता है, इसलिये वह इस समाज को संस्कृत से बचने और दूर रहने की सलाह देता है, जिससे यह समाज बौद्धिक स्वतन्त्रता का अनुभव कर सके और योरोप-अमेरीका के शोध कर्त्ताओं का धन्यवाद कर सके, उनके आदर्शों पर चलकर अपना जीवन धन्य मान सके।

इस सारी शोध मानसिकता की भूमि में जो बात है वो ये कि जब संस्कृत के विचारों की शोपनहावर ने प्रशंसा की तो वह भारत पर राज्य करने वाले अंग्रेजों को अच्छी नहीं लगी। एक ओर उन्हें भारत में पैर जमाने के लिये ईसाइयत के प्रचार-प्रसार में आने वाली मुख्य बाधा संस्कृत और वेद के रूप में आ रही थी। दूसरी ओर ऊपर से योरोप में संस्कृत के, वेद-ज्ञान के प्रशंसक हों यह उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगा। इसके बाद सर विलियम जोन्स ने संस्कृत का अध्ययन किया, उसमें वो अपनी नस्लीय श्रेष्ठता और बाइबिल की उच्चता को अपने मस्तिष्क से नहीं निकाल सके और इसी मानसिकता को लेकर उन्होंने जो शोध किये, पोलॉक उसी परम्परा का निर्वाहक है।

यह संस्कृ त भाषा और साहित्य का अध्ययन पहले संस्कृति स्टडी फिर तुलनात्मक व्याकरण (कम्पेरेटिव ग्रामर) कहा गया। बाद में इसका नाम भाषा विज्ञान (लिंलिंग्विस्टिक) हुआ। फिर भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्ययन के रूप में इन्डोलॉजी कहा गया। आजकल इस अध्ययन को दक्षिण एशिया के अध्ययन के रूप में साउथ एशियन स्टडी कहा जाता है। इस अध्ययन की एक ही विशेषता है, यह सारा अध्ययन शोध के लिये न होकर अपने प्रयोजन को सिद्ध करने के लिये किया जा रहा है। पहले योरोप और इंग्लैण्ड के विद्वानों ने इस अध्ययन से संस्कृत, भारतीय संस्कृति और इतिहास को अपनी तरह से व्याष्यायित करके भारतीयों को पढ़ाने का काम किया। अब अमेरिकी विद्वान् शैल्डन पोलॉक जैसे लोग भारत के संस्कृत इतिहास, संस्कृति, भाषा के विषय में हमें बताने का  प्रयास कर रहे हैं।

इस सारे शोध और अध्ययन की विशेषता है- भाषा भारत की, संस्कृ ति यहाँ की इतिहास भारतीयों का, परम्परा भारतीयों की और निर्णायक हैं मैक्समूलर और शैल्डन पोलॉक। किसी देश की इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि उसके साहित्य, इतिहास, संस्कृति की व्याख्या करने का अधिकार विदेशी और शत्रु के हाथ में हो।

यह अधिकार उन्होंने अपने हाथ में बलपूर्वक ले लिया है, क्योंकि उन्होंने इस अपने से जोड़ने वाली वस्तु भाषा को हम से छीन लिया । आज हम हमारे विषय उनकी भाषा में पढ़ते हैं तो फिर वो जैसा चाहते है। उसे वैसा ही पढ़ना और समझना भी पड़ता है, इसे कहते हैं- मियाँ जी की जूती, मियाँ जी का सर। आज हम संस्कृत को भी उन्हीं की पद्धति से पढ़ते हैं। मनुष्य अपनी भाषा बोलना और समझना पहले सीखता है। लिखना और पढ़ना बाद में आता है पर अंग्रेज हमको संस्कृत लिखना-पढ़ना पहले सिखाता है। बोलना समझना हमें आता नहीं। इसी आधार पर वह कहता है कि जिसमें बोला न जाय और बोला हुआ समझा न जाय- वह भाषा मृत भाषा है।

अन्त में शैल्डन पोलॉक का शोध समझाता है कि रामायण में कुछ भी अच्छा नहीं, सम्भवतः यह विचार भी नहीं-

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

– धर्मवीर

हम उत्तम बुद्धि व ज्ञान की वाणियों का सेवन करें

ओ३म
हम उत्तम बुद्धि व ज्ञान की वाणियों का सेवन करें
डा. अशोक आर्य
मानव जीवन में प्राणायाम का विशेष मह्त्व है । इसलिए इसे पुरुदंसस कहा गया है । यह प्राणायाम ही हमें उत्तम बुद्धि देने वाला है , हमें उत्तम बुद्धि रुपि धन का भण्डारी बनाता है , इस धन से हमें सम्पन्न करता है। उत्तम बुद्धि का भण्डारी बनाकर प्राणायाम के ही कारण ग्यान की वणियों अर्थात वेद के आदेश का सेवन करने वाला यह हमें बनाता है । प्राणायाम के ही कारण हम ग्यान की वाणियों का सेवन कर पाते हैं । इस बात का परिचय इस मन्त्र के स्वाध्याय से हमें इस प्रकार मिलता है : –
अश्विना पुरुदंससा नरा श्वीरया धिया ।
धिष्ण्या वनतं गिर: ॥ ऋग्वेद १.३.२ ॥
इस मन्त्र मे चार बातों पर प्रकाश डाला गया है :-
१. प्राण अपाण गतिशील रहें
मन्त्र कह रहा है कि हे प्राण तथा अपाणों ! आप हमारे पालक बनो । आप ही हमारे पूरक कर्मों को करने वाले बनो । इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि हमारे प्राण तथा अपान अर्थात हम जिस श्वास के लेने व छोड्ने की क्रिया करते हैं , वह क्रिया ही हमारी पालक है, हमारा पालन करने वालई है, हमें जीवित रखने वाली है । हमारे जीवन को सुख पूर्वक चलाने वाली है । हम इस के आधार पर ही जीवित हैं । जब शवास की यह क्रिया रुक जाती है तो हम जीवन से रहित होकर केवल मिट्टी के टेले के समान बन जाते हैं । गत मन्त्र में भी लगभग इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुए कहा गया था कि हमारे प्राण व आपान क्रियाशील हैं । यह क्रिया ही मानव का ही नही अपितु प्रत्येक जीव का , प्रत्येक प्राणी का पालन करने वाली हों । भाव यह कि हमारे प्राण ( श्वास लेने की क्रिया ) तथा अपान ( श्वास छोडने की क्रिया) निरन्तर चलती रहे , कार्यशील बनी रहे । हम जानते ही हैं कि यह प्राण अपान ही हमारे अन्दर जीवनीय शक्ति भरते हैं । इसके बिना हम एक पल भी जीवित नहीं रह सकते । इसके बिना हम क्रियाहीन होकर मृतक कहलाते हैं ।
२. गतिमान व क्रियाशील बनें
इस प्रकार हमारे शरीर में प्राण व अपान क्रियाशील रहते हैं तो हम भी जीवित कहलाते हैं , क्रियाशील रहते हुए अपने जीवन को निरन्तर आगे लेजाने का यत्न करते हैं । अनेक प्रकार की उपलब्धियां पाने का यत्न करते हैं । सदा उन्नति के पथ पर ही अग्रसर रहने का प्रयास करते रहते हैं । यदि प्राण – अपान हमारे शरीर में गतीमान नहीं होते तो हम क्रिया विहीन हो जाते हैं , जिसे मृतक की संज्ञा दी जाती है । इस लिए मन्त्र जो दूसरी बात हमें समझाने का यत्न कर रहा है , वह है कि हमारे प्राण व अपान इस प्रकार सदा कर्म शील रहते हुए हमें आगे तथा ओर आगे ले जाने वाले बनें तथा हमारी उन्नति का कारण बनें । स्पष्ट है कि हम जीवन में जो कुछ भी पाते हैं , यहां तक कि उस प्रभु क जो हम स्मरण भी हम करते हैं तो वह भी प्राण ओर अपान के ही कारण ही लेते हैं । इसलिए हम पिता को प्रार्थना करते हैं कि हे पिता ! हमारे प्राण व आपान को सदा गतिमान, सदा क्रियाशील बनाए रखे ।
२. स्वाध्याय द्वारा सोम कण सुरक्षित करें
मन्त्र के तृतीय भाग में कहा गया है कि जब शरीर में प्राण व अपान गतिमान होते हैं तो हम भी गतिमान होते हैं , क्रियाशील होते हैं । क्रियाशील होने के कारण ही हम मे स्वाध्याय की शक्ति आती है । स्वाध्याय कर ही हम वह शक्ति पा सकते है , जिसमें जीवन है । जिसमें जीवन ही नहीं है , मात्र एक मृतक शरीरवत , लाश मात्र है वह क्या कुछ करेगा , वह तो क्रियाविहीन होता है । इस कारण किसी भी क्रिया को करने की उससे कल्पना भी नहीं की जाती । इस लिए शरीर में प्राण व अपान का निरन्तर चलते रहना आवश्यक है । जब प्राण व अपान क्रियाशील रहते हैं तो शरीर क्रिया शील रहता है तथा क्रियाशील शरीर ही कुछ करने की क्षमता रखता है । एसे शरीर में ही स्वाध्याय की शक्ति होती है तथा हम स्वाध्याय के माध्यम से अनेक प्रकार के ज्ञान का भण्डार ग्रहण करने के लिए सशक्त होते हैं । इस तथ्य पर ही मन्त्र के इस भाग मे उपदेश किया गया है कि यह हमारे प्राण तथा अपान हमें उत्तम बुद्धि देने वाले हों । जब हम प्राण तथा अपान को संचालित करते हैं तो इस की साधना से हमारे शरीर में सोम कण सुरक्षित होते हैं तथा हमारी बुद्धि को यह कण तीव्र करने का कारण बनते हैं ।
४. हमारी बुद्धि तीव्र हो
मन्त्र कहता है कि प्राण व अपान के सुसंचालन से हमारे शरीर मे बुद्धि को तीव्र करने वाले जो सोम कण पैदा होते हैं , उनसे हमारी बुद्धि तीव्र होती है । यह तीव्र बुद्धि ही होती है जो मानव को कभी कुण्ठित नही होने देती। जिस प्रकार कुण्ठित तलवार से किसी को काटा नहीं जा सकता, कुण्ठित चाकू से सब्जी को भी टीक से काटा नहीं जा सकता , टीक इस प्रकार ही कुण्ठित बुद्धि से उत्तम ज्ञान भी प्राप्त नहीं किया जा सकता । इस प्रकार ही जिन की बुद्धि कुण्ठित नहीं होती , जिन की बुद्धि तीव्र होती है , वह बुद्धि किसी भी विषय को ग्रहण करने में कुण्ठित नहीं होती , किसी भी विषय को बडी सरलता से ग्रहण कर लेती है । इस प्रकार मन्त्र कहता है कि अपनी इस तीव्र बुद्धि से हम ज्ञान की वाणियों का अर्थात वेद के मन्त्रों का सेवन करें , इन का स्वाध्याय करें , इन का चिन्तन करें , इनका मनन करें , इनको अपने जीवन में धारण करें ।
मन्त्र का भाव है कि हम अपने जीवन में प्राणायाम के द्वारा प्राणसाधना करें । इस प्राण साधना से ही हम तीव्र बुद्धि वाले बनें । तीव्र बुद्धि वाले बन कर हम अपनी इस बुद्धि से ज्ञान की वाणियों के समीप बैठ कर इन का उपासन करे , भाव यह कि हम वेद का स्वाध्याय करें । हम बुद्धि को व्यर्थ के विचारों में प्रयोग न कर इसे निर्माणात्मक कार्यों में लगावें ।

डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : खुदा का अज्ञानी होना

खुदा का अज्ञानी होना

कुरान की यह आयत क्या यह नहीं प्रगट करती है कि खुदा सब कुछ नहीं जान पाता है, जब तक कि वह खुद जांच न कर ले?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

फ-जरब्ना अला आजानिहिम्………….।।

(कुरान मजीद पारा १५ सूरा कहफ रूकू १ आयत ११)

फिर कई वर्ष के लिए हमने गुफा में उनके कान थपक दिये।

नह्नु नकस्सु अलै-क न-ब अहुम्………..।।

(कुरान मजीद पारा १५ सुरा कहफ रूकू १ आयत १२)

फिर हमने उनको उठाया जाकि हम देख लें कि दो गिरोहों में से किसको ठकरने की अवधि याद है।

समीक्षा

कुरानी खुदा बिना परीक्षा किये लोगों के याद होने की भी बात न जान सका उससे उसकी सर्वज्ञ बनने की शेखी की पोल खुल जाती है।

एक ऐतिहासिक ईश्वर-प्रार्थना

एक ऐतिहासिक ईश्वर-प्रार्थना

(यह भजन एक लबे समय तक समाजों में भक्तिभाव से गाया जाता था। इसके रचयिता धर्मवीर महाशय रौनकराम जी ‘शाद’ भदौड़ (बरनाला) निवासी थे जिन्होंने बड़े तप, त्याग व कष्ट सहन करके आर्य समाज में एक नया इतिहास रचा था। काल कोठरी में भी वह नित्य प्रति अपना यह गीत मस्ती से गाया करते थे। उनकी मस्ती, चित्त की शान्ति से जेल रूप नर्क-स्वर्ग बन गया। राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’)

हे जगत् पिता, हे जगत् प्रभु

मुझे अपना प्रेम और प्यार दे।

तेरी भक्ति में लगे मन मेरा,

विषय वासना को विसार दे।।

मुझे ज्ञान और विवेक दे,

मुझे वेदवाणी में दे श्रद्धा।

मुझे मेधा दे, मुझे विद्या दे,

मुझे बल दे और आरोग्यता।

मुझे आयु दे, मुझे पुष्टि दे,

मुझे शोभा लोक के मध्य दे।।

मुझे धर्म कर्म से प्रेम दे,

तजूँ सत्य को न कभी मैं।

कोई चाहे सुख मुझे दे घना,

कोई चाहे कष्ट हजार दे।।

कभी दीन होऊँ न जगत् में मैं,

मुझे दीजे सच्ची स्वतन्त्रता।

मेरे फंद पाप के काट दे,

मुझे दुःख से पार उतार दे।।

रहूँ मैं अभय न हो मुझको भय,

किसी मित्र और अमित्र से।

तेरी रक्षा पर मुझे निश्चय हो,

मेरे वह रूपन को तू टार दे।।

मुझे दुश्चरित से परे हटा,

सतचरित का भागी बना मुझे।

मेरे मन को वाणी को शुद्ध कर,

मेरे सकल कर्म सुधार दे।।

मेरा हृदय कष्ट भय रहित हो,

नित्य मिले मुझे शान्ति हर जगह।

मेरे शत्रुगण सुमति गहें,

कुमति को उनकी निवार दे।।

तेरी आज्ञा में मैं चलूँ सदा,

तेरी इच्छा में मैं झुका रहूँ।

कभी डूबे ‘शाद’ अधीरता में,

तो तू उसको भी उबार दे।।

प्रभु दान देने वाले का कल्याण करते हैं

प्रभु दान देने वाले का कल्याण करते हैं
डा.अशोक आर्य
परम पिता परमात्मा सदा ही दानदाता का कल्याण करते हैं , जो देता है, जो देव है , उसका वह प्रभु कल्याण करते हैं । यह ही प्रभु क सत्य है , यह ही प्रभु का व्रत है , यह ही प्रतिज्ञा है । इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुये मन्त्र उपदेश कर रहा है : _
यदन्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत सत्यमन्गिर: ॥ रिग्वेद १.१.६ ॥
हे सब व्स्तुओं के दाता, सब वस्तुओं को प्राप्त कराने वाले पिता,सब के अग्रणी, सब से आगे रहने वाले प्रभु ! धन देव तथा आप की प्रार्थना एक साथ नहीं की जा सकती । यह नियम तो आप ही ने बनाया है कि दाता की सदा प्रार्थना करो । प्रार्थना से ही दाता देता है । जब हम दाता से कुछ मांगते हीनहीं तो दाता को क्या पता की आप को किस वस्तु की इच्छा है , वह आप की इच्छा कैसे पूरा करेगा ? अत: आप के बनाये गये नियम के अनुरूप हम दाता से , दाश्वान से मांगते है, कुछ पाने के लिये प्रार्थना करते हैं । दात, देव अथवा दान देने वाला भी हमारे लिये दाता है तथा आप सब से बडे दाता है । हम किस को अपना अर्पण करें ? जो धन देने वाला दाता है, उसे अथवा आप के प्रति अपना अर्पण करें । दोनों के समीप एक साथ तो बैठा नहीं जा सकता । एसा सम्भव ही नहीं है ।
हे पिता ! आप कल्याण करने वाले हैं । आप ही हमारे लिये वित की व्यवस्था करने वाले हैं , आप ही हमारे लिये घर की , निवास की व्यवस्था करते हैं , आप ही हमारे लिये पशु आदि, धनादि रुप में सब प्रकार के भद्र पदार्थ देने वाले हैं । इस प्रकार आप का यह नियम निश्चय ही सत्य है , आप के इस नियम के द्वारा हमारे उन दाश्वान् के अंगों में मधुर रसों का संचार करने वाले आप ही तो हैं । सब अंग – प्रत्यंगों में जीवनीय शक्ति, जीवनीय रसों का संचार करते हुये आप ही वास्तव में इन अंगों में सब रसों का संचार करने वाले , प्रवाह करने वाले हैं । अत: आप ही जीवन दाता हैं, जीवन देने वाले हैं ।
जब एक नन्हा सा बालक अपने आपको पूरी तरह से अपने ही माता पिता के अर्पण कर देता है , अपनी इच्छाओं को अपने माता पिता की इच्छाओं से मिला लेता है । अब माता पिता की इच्छा ही उस बालक की इच्छा बन जाती है । एसी अवस्था में एसे बालक का माता पिता अपने से भी अधिक अपने इस बालक का ध्यान रखते हैं । इस प्रकार की उत्तम भावना से वह अपने इस बालक का उत्तम निर्माण करते हैं । ठीक इस प्रकार ही जब एक दश्वान व्यक्ति उस पिता के प्रति स्वयं को समर्पित कर देता है ,अर्पण कर देता है तो बालक के माता पिता के ही समान प्रभु भी उसे अत्यधिक प्रिय मानते हैं । अत:वह पिता भी हमें सब प्रकार की अभ्युदय कारक , आगे बढाने वाली वस्तुएं, उन्नत कराने वाली वस्तुएं स्वयमेव ही उपलब्ध कराते हैं ।
जीव अल्पबुद्धि होता है । जीव की इस अल्पज्ञता के कारण जीव अपने द्वारा धारण किया कोइ व्रत भूल भी जावे ,उससे कोई व्रत टूट भी जावे तो भी परम पिता का व्रत उसके पूर्ण ग्यान के कारण टूट नहीं पाता । यह तो हम जानते हैं कि जीव अल्पज्ञ है । इस अल्पज्ञता के कारण अनेक बार कोई गल्त वस्तु भी दे देता है किन्तु हमारा वह प्रभु तो पूर्ण है । अपनी पूर्णता के कारण उससे कभी कोई भूल सम्भव ही नहीं है । अत: वह सदैव ठीक ही करता है तथा ठीक वस्तु ही देता है ।

डा.अशोक आर्य

गतः सुहृत् सः प्रियधर्मवीरः

गतः सुहृत् सः प्रियधर्मवीरः

– सुभाष वेदालंकार

वाचा वरीयान् मनसा महीयान् विचक्षणो वेदविदां वरेण्यः,

यः कर्मवीरो धृतिमान् तपस्वी, गतः सुहृत् सः प्रियधर्मवीरः।।

यो भारतीति प्रस्थितो बुधेन्द्रैः, वेदप्रचारे सततं रतोऽभूत,

देशे तदर्थं विचचार नित्यं, गतः सुहृत् सः प्रियधर्मवीरः।।

परोपकारी सः परोपकारी-संपादको लेखकवर्य आसीत्,

कृते सभायाः कृतवान् प्रयत्नान्, गतः सुहृत् सः प्रियधर्मवीरः।।

सभां समुन्नेतुमहो प्रयत्नान् चकार यान् तान्नहि को नु वेद,

स्वजीवनं येन समर्पितं च, गतः सुहृत् सः प्रियधर्मवीरः।।

जाता क्षतिर्देशसमाजयोर्या पूर्तिं न सा यास्यति तूर्णमेव,

जगाम दूरं परिवारतो नो, गतः सुहृत् सः प्रियधर्मवीरः।।

– अजमेर

हम प्राण – अपान की साधना से सुरूप बनें

हम प्राण – अपान की साधना से सुरूप बनें
डा. अशोक आर्य
रिग्वेद के प्रथम मण्डल का दूसरा सूक्त मित्रा वरुणा की आराधना के साथ समाप्त होता है । मित्रा से भाव प्राण अथवा प्राणशक्ति तथा वरुणा से भाव अपानशक्ति होने से यह सूक्त प्राण अपान अर्थात प्राणायाम अर्थात सांस की क्रिया से सम्बन्ध रखता है तथ्गा नित्य प्राणायाम करने की प्रेरणा देते हुए समाप्त होता है।
जिस मनुष्य में प्राण शक्ति है , वह ही जीवित माना जाता है किन्तु मन्त्र की भावना है कि प्राणशक्ति होन पर मनुश्य मित्र व स्नेह की व्रिति वाला होता है । यह सत्य भी है , जिसमं जीवन है , वह किसी स स्न्ह भी कर्गा तथा मित्रता भी कर्गा किन्तु यै जीवनीय शक्ति ही नहीं है क्वल शरीर
मात्र है , लाश्मात्र है तो वह्न तो किसी स स्न्हिल व्यवहार ही कर सकता ह तथा न ही किसी स मैत्री की ही क्शमता उस मं होती है ।
जब मानव की अपान शक्ति टीक से कार्य करती है तो मानव के अन्दर से दूसरों क प्रति जो द्वेष की भावना होती है , वह उससे निकल कर दूर हो जाती है । कोष्ट्बधता की व्रितिवाले लोग ईर्ष्यालु , द्वेषी तथा चिडचिडे स्वभाव वाले हो जाते हैं । साधारण भाषा में कोष्ट्बद्धता को हम कब्ज के रूप में जानते हैं । जिस व्यक्ति को कब्ज होती है , उसका व्यवहार इन सब दोषों को अपने अन्दर स्मेट लेता है । न तो उसे भूख ही लगती है न ही बातचीत अथवा लोक व्यवहार की कोई क्रिति वह कर पाता है । बस प्रत्येक क्शण उसके अन्दर दूसरों से द्वेष , बात बात पर चिटना तथा इर्ष्या की सी भावना उसमें दिखाई देती रहती है । जब उसकी यह कब्ज दूर हो जाती है तो हंस मुख चेहरे के साथ दूसरों का शुभचिन्तक हो कर खुश रहता है ।
अत: जब मानव निरन्तर अपने प्राण तथा अपान की साधना करता है तो उसमें शुभ व्रितियों का उदय होता है । अब वह सब का भला चाहने वाला बन जाता है । स्वयं भी खुश रहता है तथा अन्यों के लिए भी खुशी का कारण बनता है । इस लिए प्राणापान की निरन्तर साधना से मानव में शुभ व्रितियों का उदय होता है ।
प्राणापान साधना के जो फ़ल हमें दिखाई देते हैं , विभिन्न मन्त्रों के माध्यम से वह इस प्रकार हैं :-
१.
प्राणापान की साधना से हमारे अन्दर की सब अशुभ वासनाएं , अशुभ व्रित्तियां दूर हो जाती हैं तथा हम स्वच्छ , पवित्र हो जाते हैं ।
३.
पवित्र मानव ही प्रभु से साक्शात्कार करने के योग्य बनता है । अत: अशुभ व्रितियों के दूर होने से उसे प्रभु से साक्शात करने की शक्ति आ जाती है ।
४.
पवित्र व्यक्ति अपनी पवित्रता को बनाए रखने के लिए व्यर्थ के कार्यों में अपना समय नष्ट नहीं करना चाहता ,एसा करने से तो उसकी पवित्रता के ही समाप्त होने का खतरा बना रहता है । जब वह अपने समय को व्यर्थ के कार्यों में नष्ट नहीं करता तो इस समय का कहीं तो सदुपयोग करना
ही होता है । अत: वह दिव्यगुणों को पाने व बटाने में इस समय का सदुपयोग करता है , जिससे उसमें दिव्यगुण का ओर भी आधिक्य हो जाता है ।
७.
अब उसको इन दिव्यगुणों की प्राप्ती की एक ललक सी ही लग जाती है , वह इन्हें पाने का ओर अधिक यत्न करना चाहता है ताकि वह निरन्तर अपने इन गुणॊं को बटाता रह सके । इस निमित वह ग्यान पाना चाहता है , सरस्वती का आराधक बन जाता है । अब वह ग्यान का सच्चा पुजारी बन जाता है तथा अपने जो भी कार्य वह करता है , वह उसके ग्यान पाने के साधक ही होते हैं ।
१०.
जब वह सरस्वती की निरन्तर आराधना करने लगता है तथा वह उस ग्यान स्वरुप परम एश्वर्य से युक्त प्रभु की उपासना करता है , उससे समीपता बनाता है , उसके पास बैटने लगता है तो वह सुरूप हो जाता है , सुरुपता के सब गुण उस में आ जाते हैं ।
सूक्त संख्या तीन में बताए कार्यों को कर सके । अत: आओ हम रिग्वेद के प्रथम मण्ड्ल के इस सूक्त तीन पर चिन्तन करें, विचार करे इसका स्वाध्याय करें |

डा. अशोक आर्य

ऐसी कृपा करो कि हम सब धर्मवीर हों

ऐसी कृपा करो कि हम सब धर्मवीर हों

– राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

हम में से किसी ने कभी सोचा ही नहीं कि माननीय डॉ. धर्मवीर जी हम से इतनी शीघ्र बिछड़ जायेंगे। मौत ने एक झपटा मार कर उन्हें हमसे छीन लिया। 6 अक्टूबर 2016 को प्रातः वह चल बसे। यह कहना तो ठीक नहीं कि वह मर गये। अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए आपने कर्त्तव्य-पथ पर प्राण त्याग दिये। हम कहेंगे कि श्री धर्मवीर जी मरे नहीं, प्रत्युत् आपने इस लोक में जीना बन्द कर दिया। मृत्यु के समय किसी से कोई संवाद नहीं किया।

डॉक्टरों को हाथ से संकेत करते हुए धैर्य रखने की प्रेरणा देते रहे। जो कुछ उन्होंने कण्ठाग्र कर रखा था, उसका चलते-फिरते यात्रा में भी पारायण करते रहते थे। देह-त्याग के समय भी कुछ बड़बड़ाते रहे। हॉस्पिटल जाते समय भी कह रहे थे ‘‘चले हम दयानन्द के स्थान पर’’ स्टेशन से लाते समय भी सेवकों को यही का ‘‘मुझे ऋषि उद्यान नहीं, श्मशान ले चलो।’’ उनका दाह कर्म वहीं किया गया, जहाँ महर्षि दयानन्द जी का अन्तिम संस्कार किया गया।

कर्मण्यता की मूर्त्ति, पुरुषार्थ-परमार्थ के पुतले डॉ. धर्मवीर जी का जीवन अत्यन्त घटनापूर्ण रहा है। वह इस विनीत को 60 वर्ष से जानते थे और मेरा उनसे गत 50 वर्ष से घनिष्ठ सामाजिक नाता था। मेरे नयनों के सामने उनके क्रियाशील, संघर्षमय जीवन की फिल्म घूम रही है। मुझे लिखने को कहा जाये तो मैं एक दम बिना किसी तैयारी के उनके जीवन के 250-300 प्रेरक प्रसंग लिख सकता हूँ। परोपकारी के विशेषाङ्क के लिए क्या लिखूँ और क्या छोडूँ?

वह ईश्वर से कोई ऐसा वरदान लेकर आये कि वह निरन्तर नया-नया इतिहास रचते रहे। जहाँ भी हाथ लगाया, एक सृष्टि रच दी। धर्मवीर जी किसी व्यक्ति की चाकरी नहीं करना चाहते थे, ध्येयनिष्ठ थे। इतिहास में ऐसे दृढ़ निश्चय वाले व्यक्ति ही स्थान पाते हैं।

गृहस्थी बने तो अपनी तीन मेधावी पुत्रियों की भाषा संस्कृत बनाई। इसे मातृभाषा तो कह नहीं सकते। उनकी पितृभाषा में उनके संवाद, वार्त्तालाप और व्याखयान सुनकर श्रोता झूम उठते थे। क्या धर्मवीर जी की निष्ठा, संस्कृत व संस्कृति प्रेम का यह कोई साधारण चमत्कार है?

धर्मवीर जी परोपकारिणी सभा के जब न्यासी बने, तब सभा का अस्तित्व रिकॉर्ड में तो था, परन्तु इतिहास में सभा को कौन जानता था? स्वामी सर्वानन्द जी महाराज, श्रीमान् गजानन्द जी आर्य तथा धर्मवीर जी ने इतिहास में इस सभा की पहचान बना दी। मैं लगभग आधी शताबदी से ऋषि मेले पर आ रहा हूँ। वर्षों पर्यन्त बिना बुलाए आया करता था। यहाँ चाय का कप पिलाने वाला, अल्पाहार पूछने-करवाने वाला कोई नहीं होता था। अब धर्मवीर युग में पूरा वर्ष अतिथियों को दूध, भोजन, सब कुछ मिलता है। इसका श्रेय हमारी इसी त्रिमूर्ति को जाता है।

स्नानागार यहाँ नहीं था। स्वामी सर्वानन्द जी की कोटि का संन्यासी गैलरी में ठहरते हमने देखा। बिस्तर, खाट, ततपोश की व्यवस्था नहीं थी। परोपकारिणी सभा को एक धर्मवीर मिला, तो करोड़ों-अरबों रुपये के भवन बनते गये। पुराने जीर्ण भवनों की नियमित मरमत होती रहती है। यह भिक्षा का भोजन करने वाले सर्वानन्द संन्यासी के आशीर्वाद, सेठ गजानन्द आर्य की सरलता, निर्मलता, संगठन, बुद्धि तथा धर्मवीर लेखराम के धर्मानुरागी योद्धा डॉ. धर्मवीर की आग, पुरुषार्थ, कर्मण्यता व ऊहा का चमत्कार है।

सर्वानन्द महाराज के चरण कमल यहाँ पड़े तो इन दोनों धर्मवीरों (गजानन्द आर्य व धर्मवीर आर्य) के पुण्य प्रताप से यहाँ गुरुकुल की वाटिका लहलहाने लगी। यहाँ महाशय चून्नीलाल चन्ननदेवी गोशाला की स्थापना से अतिथियों की, यात्रियों की, यतियों की, ब्रह्मचारियों की, सबकी दुग्धामृत, लस्सी, दही से सेवा होने लगी।

‘परोपकारी’ पत्रिका की प्रसार संखया जानते हो क्या थी? मात्र 400-500, बस। धर्मवीर समपादक बनते गये, तो वही परोपकारी देश-विदेश में फैलता जा रहा है। आज विरोधी, विधर्मी, अपने-बेगाने सब इसे चाव से पढ़ते हैं। परोपकारी मासिक से पाक्षिक हो गया। देश-विदेश में कोई भी वेद पर, ऋषि दयानन्द व आर्यसमाज पर, आर्य संस्कृति पर वार-प्रहार हो, परोपकारी बहुत सजगता से उत्तर देने को सजग रहता है। एक भी अंक ऐसा नहीं, जिसमें विरोधियों के आक्षेपों व आक्रमणों का युक्ति, तर्क व प्रमाण से हमारे विद्वान् अपनी ज्ञान प्रसूता धारदार लेखनी से उत्तर न देते हों।

यह सब डॉ. धर्मवीर आर्य की श्रद्धा, मेधा बुद्धि व ऋषि मिशन के लिए अखण्ड निष्ठा का चमत्कार है। धर्मवीर जी की इस नीति-रीति ने प्राणवीर पं. लेखराम, पं. गणपति शर्मा, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के स्वर्णिम अतीत को वर्तमान कर दिखाया है। उनकी इस सेवा को हमारे विरोधी तो जानते हैं, मानते हैं, आर्यसमाज भी जानता ही होगा।

परोपकारी ने ऋषि मिशन को ऐसे-ऐसे रत्न दिये हैं, जिनके सुदृढ़ कंधों पर आर्यसमाज के उज्जवल भविष्य का भार छोड़कर हमारे धर्मवीर जी ने हमसे विदाई ली है। मैं ऐसे किस-किस रत्न का नाम यहाँ गिनाऊँ। परोपकारिणी सभा के भक्त उदार दानी श्री पीताबर कमल जी-रामगढ़, श्री पंकज शाह-विदर्भ वाले, श्री अनिल आर्य-चामधेड़ा, हरियाण की सेना, राजस्थान से एक अनुभवी साहित्यकार श्री वेदप्रकाश आर्य और दूर दक्षिण से श्री रणवीर आर्य-तेलंगाना वाले समर्पित सेवक परोपकारी की ही देन हैं।

धर्मवीर जी की नीतिमत्ता का लोहा कौन नहीं मानेगा? परोपकारी धर्मरक्षा में सब विरोधी शक्तियों से टक्कर लेता ही रहता है। विरोधी हमारे किसी भी लेख पर केस करके हमें कोर्ट में नहीं घसीट सके। भले ही कुछ अपने घने सयानों ने अपना बुद्धि कौशल दिखाकर धर्मवीर जी व उनके सहयोगी आर्य पुरुषों पर अभियोग चलाकर यह कमी भी पूरी कर दी है।

हमारे धर्मवीर जी की लेखनी व वाणी पर आर्यसमाज के बाहर के बड़े-बड़े धर्माचार्य, शंकराचार्य भी मुग्ध होते देखे गये। इस धर्मवीर ने स्वामी श्रद्धानन्द, पूज्य महात्मा नारायण स्वामी, लौह-पुरुष स्वामी स्वतन्त्रानन्द का इतिहास दोहराते हुए, वेद-प्रचार करते हुए रणभूमि में ही प्राण त्यागे हैं। यह हमारे लिए अत्यन्त गौरव की बात है। अन्तिम श्वास लेने से पूर्व सेवा करने वाले ब्रह्मचारी योगेन्द्र आर्य जी से आग्रहपूर्वक रात्रि समय में कहा, ‘‘आप मेरी चिन्ता न करें। आप सो जायें। आप विश्राम करें।’’

धर्मवीर जी ने घर नहीं बनाया। अपने लिए कभी कुछ नहीं माँगा। न दक्षिणा माँगते हुए उन्हें देखा गया और न ही मार्ग व्यय की कहीं माँग की। घर घाट बनाने, धन कमाने की कतई चिन्ता नहीं की। जो कुछ कहीं से मिला, चुपचाप सभा को भेंट करते रहे। क्या-क्या घटना यहाँ दें?

श्रोता एक हों अथवा दो-तीन या सहस्रों, उन्हें इसकी कतई चिन्ता नहीं थी। गुरुवर स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का यह नाम लेवा प्रतिवर्ष कुछ समय के लिए बिन बुलाये दूरस्थ प्रदेशों में, ग्रामों में, नगरों में, जहाँ आर्यसमाजें नहीं हैं या शिथिल हो चुकी हैं, मर चुकी हैं, जहाँ कोई विद्वान् नहीं जाता, वहाँ प्रचारार्थ पहुँच जाते। अपनी पत्नी को भी प्रचार यात्राओं पर लेकर निकलते रहे। कभी इस यात्री को और ओम् मुनि जी जैसे साथी को लेकर दूर-दूर निकले जाते थे। अब भी वर्ष 2017 में दो यात्राओं को निकालने की मुझे स्वीकृति चलभाष पर देकर कहा, ‘‘अजमेर आकर हम सब साथी बैठकर इनकी रूपरेखा बनायेंगे। आप यात्राओं की घोषणा कर दें।’’ मैंने कहा, ‘‘घोषणा तो आप या मुनि जी को ही करनी है। कौन-कौन साथ होगा, यह मिलकर निर्णय कर लेंगे।’’ इन यात्राओं के निकालने से पहले ही वह अन्तिम यात्रा पर निकल गये।

वैदिक पुस्तकालय के श्री गुप्ता जी ने कहा कि ‘मैंने तो ऐसा प्रधान कभी नहीं देखा, यदि वैदिक पुस्तकालय से साहित्य मँगवाने के लिये कोई पत्र उनको मिलता तो वह सेवक के हाथ मेरे पास नहीं पहुँचाते थे। मुझे भी अपने कार्यालय बुलवाकर ऐसे पत्र नहीं सौंपते थे। स्वयं मेरे टेबल पर आकर पत्र मुझे दिया करते थे।’ यह प्रसंग सुनाते हुए उनके नयन सजल हो गये।

आर्यसमाज की नाड़ी पर सदा इस वैद्य, विद्वान् व नेता का हाथ रहता था। उनको देशभर के समर्पित समाज सेवियों का अता-पता रहता था। वह सबकी चिन्ता करते थे। संन्यासी का, वानप्रस्थी का, ब्रह्मचारी का, विद्वान् का, सबका उन्हें ध्यान रहता था। आर्यसमाज में कौन जानता है कि डॉ. हरिश्चन्द्र जी की कोटि का वैज्ञानिक व विद्वान् मिशनरी अब तक 85 देशों में धर्म प्रचार कर चुका है। भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी के पश्चात् यह भी एक कीर्तिमान है। अपनी अमेरिका यात्रा से लौटकर धर्मवीर जी ने भाव-विभोर होकर मुझे यह जानकारी सविस्तार दी।

आन्ध्र से लौटकर मुझे बताया कि श्रीयुत् शत्रुञ्जय जी व डॉ. बाबूराव जी ने आई.आई.टी. में आर्यसमाज का अच्छा संगठन करके सुयोग्य युवक-युवतियों का निर्माण करके उन्हें सक्रिय किया है। इसी प्रकार देश-विदेश के कार्यकर्त्ताओं का वह पूरा पता रखते थे।

उनके व्यक्तित्व का एक अनुकरणीय पहलु यह था कि उन्होंने तीनों पुत्रियों का जाति बन्धन तोड़कर विवाह किया। कहना सरल है, परन्तु करना कठिन है। वह जातिवाद, प्रान्तवाद की सोच से बहुत ऊपर थे। निडरता, ऋषि भक्ति के गुण उनको बपौती से प्राप्त हुए। उनके पिता श्री पं. भीमसेन जी की सत्यवादिता व धर्मनिष्ठा को मराठवाड़ा के सब आर्य जानते-मानते थे। यही गुण हमने श्री धर्मवीर जी में देखे।

धर्म-प्रचार उनकी दुर्बलता बन चुका था। ट्रेन में यात्रा करते हुए वह सह यात्रियों में वेद की विचारधारा का सन्देश देने का अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे। उठते-बैठते, सोते-जागते वह ऋषि मिशन के लिए ही सोचते थे।

उनके निधन से जो क्षति हुई है, वह अपूरणीय है। आओ! ईश्वर से यह प्रार्थना करेंः-

हे प्रेममय प्रभु! तुहीं सबके आधार हो।

तुम को परमपिता प्रणाम बार-बार हो।।

ऐसी कृपा करो कि हम सब धर्मवीर हो।

वैदिक पवित्र धर्म का जग में प्रचार हो।।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

 

हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें

हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें
परम पिता परमात्मा होता, कविकृतु , सत्य तथा चित्रश्रवस्तम व देव हैं । उन्हें प्राप्त करने के लिये हमें दिव्यगुणों को ग्रहण करना होता है । जैसे जैसे तथा जितना जितना हम प्रभु को , उस पिता को धारण करने का यत्न करते हैं , उतना उतना ही हम दिव्यगुणों वाले होते चले जाते हैं । इस मन्त्र में इस बात पर ही प्रकाश डालते हुये इस प्रकार व्याख्यान किया है : –
अग्निर्होता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: ।
देवो देवेभिरा गमत । ऋग्वेद १.१.५ ॥
१. गत मन्त्र की भावना अनुरूप ही यह मन्त्र भी कहता है कि संसार में जितने प्रकार के भी यग्य आदि कार्य होते हैं , उनको करने वाले वह देव ही होते हैं , जो सब को गति देने वाले हैं, जिन्हें हम प्रभु के नाम से जानते हैं । हम तो मात्र इन यग्यों को करने के माध्यम मात्र ही होते हैं , वह भी तब जब हम पर उस प्रभु की क्रिपा हो जाती है, उस प्रभु का जब हमें आशीर्वाद मिल जाता है , तब ही तो हम इन सब यग्यों को पूर्ण होता हुआ देख पाते है । यह स्रिष्टि भी एक प्रकार का यग्य ही तो है । इस यग्य के होता, इस यज्ञ को करने वाले तो स्वयं वह पिता ही हैं , इस तथ्य को तो हम सब लोग भली प्रकार से जानते हैं , इस सब से तो हम स्पष्ट रूप से तथा भली भान्ति से परीचित हैं ।
२. यह मन्त्र जो दूसरा उपदेश हमें दे रहा है , वह है – वह पिता कविकृतु हैं अर्थात वह पिता क्रान्तदर्शी हैं । क्रान्तदर्शी होने के कारण वह प्रभु सब कामों को करने वाले हैं । चाहे हम कविकृतु कहें, चाहे हम क्रान्तदर्शी कहें , भाव यह ही है कि वह पिता सब प्रकार के कामों को करने वाले हैं , कारण हैं क्योंकि वह पिता ही सब कामों को करने वाले होते है , इस कारण ही सृष्टी आदि कार्य जिन्हें उस पिता ने किया है , उनमें कहीं कोइ न्यूनता नहीं दिखाई देती , यह सब कार्य कहीं अपूर्ण नहीं होते , पूर्णतया पूर्ण ही होते है । जब हमारे वह पिता पूर्ण हैं तो उनके द्वारा ही किया गया यह कार्य , जिसे हम स्रिष्टी कहते हैं, वह अपूर्ण कैसे हो सकती है ? अत: यह सृष्टी रुपी यह यज्ञ भी पूर्ण है ।
अनेक बार हमें अपनी ही अज्ञानता के कारण इस सृष्टी में कुछ न्यूनतायें दिखाई देती हैं , एसा हम अनुभव करते हैं । जैसे अनेक बार जब हम भूकम्पों का प्रकोप देखते हैं , तो उस पिता को कोसने लगते हैं । हमारे शरीर में अनेक प्रकार की अनेक ग्रन्थियां हैं । उस पिता ने इन का निर्माण किसी विशेष प्रयोजन से किया होगा किन्तु हम अपने ज्ञान की कमी से इन में से कुछ ग्रन्थियों को निष्प्रयोजन मान लेते हैं । इस संसार में अनेक प्राणी एसे हैं , जिनके विषय में हमें कुछ भी जानकारी नहीं है , अनेक वनस्पतियां एसी हैं , जिनके उप्योग के सम्बन्ध में हम कुछ भी ग्यान नहीं रखते । हम अपने बचपन में जो थोडा सा जानते थे, वह बटते बटते , आज हम काफ़ी आगे निकल गये हैं । आज हमे अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर हमारे अपने ही बाल्यकाल से कहीं अधिक ज्ञान है । अत: हम यह नहीं कह सकते कि जिसे हम नहीं जानते, वह ह ही नहीं । जैसे जैसे हम इन सब को जानते जावेंगे, इनके उपयोग को समझते जावेंगे, त्यों त्यों ही हमारा ज्ञान भी बढता ही चला जावेगा । जितना हम जान लेंगे, उतना संसार हमें पूर्ण दिखायी देगा, शेष को हम जानने का यत्न करते रहेंगे ।
हमारे परमपिता परमात्मा सत्य हैं । उन्हें हम सत्य स्वरूप के रुप में जानते हैं । हम यह भी मानते हैं कि जितने भी सज्जन लोग हैं , उनमें उस पिता का ही निवास है । सर्व व्यापक होने के नाते वह पिता सब जगह रह्ते हैं किन्तु फ़िर भी मन्त्र बता रहा है कि वह पिता सज्जनों के ह्रिदय में निवास करते हैं । भाव यह है कि वह पिता सर्व व्यापक होते हुये भी सज्जन लोगों के ह्रिदय को प्रकाशित करते हैं , सज्जन लोगों के अन्दर ही ज्ञान का प्रकाश वह प्रभु करते हैं ।
उस पिता द्वारा जब सृष्टी की उत्पति की जाती है तो आरम्भ मे प्राणी को ग्यान की आवशकता होती है क्योंकि इस समय उसे ज्ञान देने वाला अन्य कोइ नहीं होता । अत: उस परमपिता परमात्मा ने स्रिष्टी के आरम्भ मे प्राणी को वेद का ग्यान दिया । जिस प्रकार हम आज स्कूल , कालेज अथवा गुरूकुल ,में जा कर ज्ञान प्राप्त करते हैं , प्रभु उस प्रकार से ग्यान नहीं देता । उसका ग्यान देने का ढग भी अद्भुत ही है । हम जानते हैं कि वह सर्वव्यापक प्रभु सर्वव्यापक होने के कारण ही हमारे अन्दर ही नहीं हमारे हृदय में भी निवास करता है । इस प्रकार हृदयस्त होने से , बिना किसी अन्य यत्न के हमारे पवित्र हृदयों को प्रकाशित कर देते हैं । अपने ज्ञान के कारण वह प्रभू अत्यन्त कीर्तिमान से युक्त हैं । दूसरे श्ब्दों में वह प्रभु सर्वाधिक ज्ञान वाले हैं , ग्यान के भण्डारी हैं । इस लिये ही तो उन्हें निरतिशय ज्ञान के अधिष्ठाता माना गया है ।
(क) पभु गुणों के साथ आते हैं :-
वह प्रभु सब देवताओं के,जो सब गुणों के पुन्ज रुप होते हैं , के साथ हमारे पास आते हैं । इसका भाव यह है कि उस प्रभु का निवास हमारे ह्रिदयों में होता है । उस प्रभु का निवास होने के कारण हृदय में ही बैठे हुये वह प्रभु हमे सब प्रकार के दिव्यगुणों से स्वयमेव ही भरता चला जाता है । इस प्रकार यह दिव्य गुण हममें स्वय्मेव ही प्रादुर्भूत हो जाते हैं ।
(ख) प्रभु दिव्य गुणों वालों का साथी :-
अथवा हम यूं भी कह सकते हैं कि इन दिव्यगुणों के कारण ही वह पिता हम मे आते हैं । इस सब का भाव यह ही है कि उस पिता को पाने के लिये हम अपने आचरण को देवों के समान उत्तम बनावे , हमारे व्यवहार भी देवों के समान ही हों, आसुरी प्रव्रिति हमारे व्यवहार में किन्चित भी न हो । प्रभु दिव्य गुणों वालों के पास ही रहता है, निवास करता है । अत: हम जितना जितना दिव्यता को दिव्य गुणॊं को अपनायेंगे, उतना उतना ही उस पिता के समीप होते चले जावेंगे । दाश्वान का कल्याण ही प्रभु का सत्य व्रत है |

डा.अशोक आर्य