Tag Archives: rishi dayanand

‘स्वामी दयानन्द अपूर्व सिद्ध योगी व पूर्ण वैदिक ज्ञान से संपन्न महापुरुष थे’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द जी के समग्र जीवन पर दृष्टि डालने पर यह तथ्य सामने आता है कि वह एक सिद्ध योगी तथा आध्यात्मिक ज्ञान से सम्पन्न वेदज्ञ महात्मा और महापुरुष थे। अन्य अनेक गुण और विशेषातायें भी उनके जीवन में थी जो महाभारतकाल के बाद उत्पन्न हुए संसार के अन्य मनुष्यों में नहीं पायी जाती। वस्तुतः यह दोनों उपलब्धियां ही उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य बनी थीं। आरम्भ में तो उन्हें पता नहीं था कि जिस उद्देश्य के लिए वह अपना घर व माता-पिता का त्याग कर रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा? उन्होंने सच्चे शिव संबंधी ज्ञान की प्राप्ति और मृत्यु पर विजय पाने को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। उन्हें इस बात का आभास था कि सच्चे योगियों से उनके मनोरथ पूर्ण हो सकते हैं। इसलिए हम पाते हैं कि घर से चलकर वह विद्या प्राप्ति में निपुणता प्राप्त होने तक ज्ञानियों व योगियों की ही संगति में देश भर में सभी सम्भावित स्थानों पर खोज करते रहे। उनका यह गुण था कि अपने लक्ष्यों की प्राप्ति से सम्बन्धित उन्हें जहां जिससे जितना भी ज्ञान मिलता था, उसे वह प्राप्त कर लेते थे और उससे आगे के लिए वह अन्य सम्भावित स्थानों की ओर चल पड़ते थे।

 

स्वामी दयानन्द जी ने अपने जीवन के लक्ष्य की पूर्ति में सहायता के लिए शीघ्र की ब्रह्मचर्य की दीक्षा व उसके बाद संन्यास ले लिया था। उन्होंने अपने जीवन का पर्याप्त समय गुजरात के प्रसिद्ध धार्मिक तीर्थों, मध्यप्रदेश के नर्मदा तट व नर्मदा के स्रोत अमरकण्टक, राजस्थान के आबू पर्वत सहित उत्तराखण्ड के वन व पर्वतों पर जाकर सिद्ध योगियों व ज्ञानियों की खोज में लगाया था। गुजरात की चाणोदकन्याली में उन्हें योगी ज्वालापुरी और शिवानन्द गिरी मिले जिनसे उन्हें योग के अनेक सू़क्ष्म रहस्यों का ज्ञान हुआ। उन्होंने इन योग प्रवीण गुरुओं के निर्देशन में योग का सफल अभ्यास भी किया था। इसके बाद अहमदाबाद व आबूपर्वत जाकर भी उन्होंने योगाभ्यास किया और यहां भी उन्हें योग शिक्षा के अनेक गुप्त स सूक्ष्म महत्वपूर्ण रहस्यों का ज्ञान हुआ। स्वामी दयानन्द जी ने अपने गृह पर रहकर 21 वर्ष की अवस्था तक अनेक संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन किया था। अतः यात्रा में जहां कहीं उन्हें कोई ग्रन्थ मिलता था तो वह उसको प्राप्त कर उसका अध्ययन करते थे। ज्ञान के अनुसंधान के लिए योगियों व महात्माओं से मिलना और साहित्यिक शोध के प्रति उनकी बुद्धि बड़ी प्रबल थी। पुस्तकों में जो लिखा है वह सत्य और प्रमाणित है या नहीं, इसकी वह परीक्षा किया करते थे। उनके पास कुछ तन्त्र ग्रन्थ थे। उनमें शरीर के भीतर जिन चक्रों का वर्णन था, एक बार अवसर मिलने पर नदी में बह रहे शव को बाहर निकाल कर तथा अपने चाकू से उसे चीरकर, उसका पुस्तक के वर्णन से उन्होंने मिलान किया था। जब वह वर्णन सही नहीं पाया तो उन ग्रन्थों को भी उन्होंने उस शव के साथ बांध कर नदी में बहा दिया था। इससे सत्य की खोज के प्रति उनके दृण संकल्प के दर्शन होते हैं। इस पूरे वर्णन से स्वामी दयानन्द जी का योग में प्रवीण हो जाने और उसके प्रायः सभी रहस्यों को जीवन में प्राप्त कर लेने का तो अनुभव होता है परन्तु ज्ञान प्राप्ती की उनकी आगे की यात्रा करनी अभी बाकी थी। यहां हमें इस तथ्य के भी दर्शन हो रहे हैं कि कोई भी सफल योगी सांसारिक ज्ञान, विज्ञान व वेदों के ज्ञान से सम्पन्न नहीं हो जाता जैसा कि कई लोग दावा करते है कि योग में निष्णात हो जाने पर सभी ज्ञान योगी को स्वतः सुलभ हो जाते हैं और उसे ज्ञान प्राप्ति करना शेष नहीं रहता।

 

स्वामी दयानन्द जी में ज्ञान प्राप्ति की भी तीव्र अभिलाषा व इच्छा थी। इसकी प्राप्ति का स्थान भी वह बड़े ज्ञानी योगियों को ही मानते हैं। अतः योग में पूर्णता प्राप्त कर लेने पर भी उनकी ज्ञान की पिपासा को शान्त करने के प्रयत्न जारी रहे। इसके लिए वह गुजरात के धार्मिक वा तीर्थस्थलों, नर्मदा तट व उसके उद्गम तथा राजस्थान के आबू पर्वत की तो पूर्णता से छानबीन कर चुके थे, अब उन्हें अभीष्ट की प्राप्ति के लिए उत्तराखण्ड के हरिद्वार, ऋषिकेश और वन पर्वतों के शिखरों सहित कन्दराओं व तीर्थ स्थानों में ज्ञानी योगियों के मिलने की सम्भावना थी। वह इस ओर बढ़े और अभीष्ट का अनुसंधान करने लगे। अनुसंधान करने पर यहां उन्हें भीषण कष्ट हुए परन्तु कोई विशेष उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। इसके कुछ काल बाद सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से सारा देश किसी न किसी रूप में संघर्षरत रहा। इसके बात स्थिति कुछ सामान्य होने पर सन् 1860 में स्वामी दयानन्द जी मथुरा में प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की पाठशाला में ज्ञान की प्राप्ति हेतु पहुंचते हैं। यहां स्वामी जी को अपने निवास, पुस्तकों के क्रयण एवं भोजन आदि की समस्याओं के निवारण में कुछ समय लगता है। इसके बाद उनका अध्ययन आरम्भ होकर 3 वर्ष तक चलता है। स्वामीजी गुरु विरजानन्द जी की शिक्षा से उस ज्ञान को प्राप्त करते हैं जिसकी उन्हें तीव्र अभिलाषा थी और जिसके लिए उन्होंने अपने माता-पिता व घर का त्याग किया था। गुरु दक्षिणा का अवसर आता है। स्वामी जी गुरु जी को प्रिय कुछ लौंग लेकर पहुंचते हैं। दोनों के बीच बातचीत होती है। गुरुजी स्वामी जी को मिथ्या अज्ञान व अन्धविश्वास दूर कर वैदिक ज्ञान का प्रकाश करने का आग्रह करते हैं। स्वामी दयानन्द जी भी अपने लिए इस कार्य को सर्वोत्तम व उचित पाते हैं। अतः गुरु विरजानन्द जी की प्रेरणा, परामर्श वा आज्ञा को स्वीकार कर उन्हें इस कार्य को करने का वचन देते हैं। हमें लगता है कि स्वामी जी यदि यह कार्य न करते तो उनकी योग्यता के अनुरुप उनके पास करने के लिए दूसरा कोई कार्य भी नहीं था। अभी तक स्वामी दयानन्द जी ने योग तथा आर्ष विद्या के क्षेत्र में जो ज्ञान की उपलब्धि की व अनुभव प्राप्त किये, उससे सारा संसार अपरिचित था। सन् 1863 में वह कार्य क्षेत्र में आते हैं और धीरे धीरे वह अन्धविश्वासों का निवारण और वेदों के प्रचार प्रसार करने में सफलताओं को प्राप्त करना आरम्भ कर देते हैं। इन कार्यों में पूर्णता तब दृष्टिगोचर होती है जब वह नवम्बर, 1869 में काशी में पूरी पौराणिक विद्वतमण्डली को मूर्तिपूजा को वेद शास्त्रानुकूल सिद्ध करने के लिए शास्त्रार्थ करते हैं और अपने सिद्धान्त कि मूर्तिपूजा वेद व शास्त्र सम्मत नहीं है, सफल व विजयी होते हैं।

 

स्वामी दयानन्द जी और उनके गुरु स्वामी विरजानन्द जी दोनों ही देश की धार्मिक व सामाजिक पतनावस्था से चिन्तित थे। दोनों ने ही इसके कारणों व समाधान पर विचार किया था। इसका कारण यह था कि अवैदिक, पौराणिक व मिथ्या ज्ञान तथा आपस की फूट के कारण देश की यह दुर्दशा हुई है। इस समस्या पर विजय पाने का एक ही उपाय था कि सत्य और असत्य के यथार्थ स्वरूप का प्रचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कराया जाये। स्वामी जी ने गुरु विरजानन्द जी से ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, धर्म व जीवन शैली के सम्बन्ध में वेदों में निहित सत्य ज्ञान को ही प्राप्त किया था। उन्होंने मथुरा में गुरूजी से विदा लेने के बाद अपने आपको इस महत्कार्य के लिए तैयार किया था। उनके पास सभी विषयों के सभी प्रकार के प्रश्नों के सत्य उत्तर थे। उनका अपना जीवन भी सत्य के ग्रहण साक्षात उदाहरण था। उन्होंने मनुस्मृति जैसे प्रमुख ग्रन्थ में विद्यमान लाभकारी सत्यासत्य की कसौटी पर कस कर वेदानुकूल भाग को भी प्राप्त किया था जिसका इससे पूर्व किसी ने इस प्रकार से अध्ययन नहीं किया था। उनके समय तक के विद्वान पूरी मनुस्मृति को या तो स्वीकार करने वाले थे या अस्वीकार करने वाले। परन्तु इसके सत्य व लोकहितकारी ज्ञान को स्वीकार व उसमें प्रक्षिप्त वेद विरुद्ध, असत्य व मिथ्या ज्ञान वाले अंश को त्यागने की दृष्टि रखने वाले विद्वान नहीं थे। इस दृष्टि को रखने वाले स्वामी दयानन्द पहले विद्वान थे। स्वामी दयानन्द जी ने अपने समग्र ज्ञान के आधार पर देश का भ्रमण आरम्भ कर दिया। पूना पहुंच कर उन्होंने प्रवचनों से वहां के प्रबुद्ध समाज को अपनी बातों का लोहा मनवाया। मुम्बई में उनके प्रवचनों से लोग प्रभावित हुए। उन्हें सन् 1874 में वैदिक विचारों का वर्तमान व भविष्य काल में तथा उनके सम्पर्क में न आने लोगों तक उनकी सभी बातें पहुंच जायें वा पहुंचती रहे, इसका एक ग्रन्थ तैयार करने का प्रस्ताव मिला जिसे उन्होंने विश्व का अनूठा ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश लिख कर पूरा किया। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मुम्बई के प्रबुद्ध लोगों ने उन्हें एक संगठन बनाने का सुझाव दिया। उसी का परिणाम 10 अप्रैल, 1875 को आर्यसमाज की स्थापना था। इसके बाद व कुछ पूर्व उन्होंने पंचमहायज्ञ विधि, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, वेद भाष्य सहित अनेक ग्रन्थों का प्रणयन भी किया जिसका उद्देश्य सत्य का प्रचार करना व मिथ्या ज्ञान वा अन्धविश्वासों को समाप्त करना था। स्वामी जी को अपने इस कार्य में निरन्तर सफलतायें प्राप्त होती आ रही थी। अब उनका प्रभाव व सम्पर्क वर्तमान के महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि अनेक स्थानों में हो चुका था। इन सभी स्थानों पर आर्यसमाज स्थापित हो रहे थे। मुख्यतः पौराणिक लोग आर्यमत को स्वीकार कर रहे थे और अन्य मतों के प्रमुख लोग भी वैदिक धर्म से प्रभावित हुए थे। स्वामी जी ने आर्य वैदिक मत के सिद्धान्तों के प्रचार व प्रसार के लिए उपदेश व प्रवचनों सहित वार्तालाप व शास्त्रार्थों का भी सहारा लिया था। वह शास्त्रार्थों के अपराजेय व विजित योद्धा थे। महर्षि दयानन्द ने अपने कार्यों व प्रयासों से वैदिक धर्म को संसार का प्रथम व उत्कृष्ट सत्य, तर्क व विज्ञान की कसौटी पर खरा एकमात्र धर्म बना दिया था जिससे सभी मतों के आचार्यों में अपने निजी स्वार्थों के कारण असुखद स्थिति अनुभव की जाने लगी थी और वह उनके शत्रु बन रहे थे।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों के मन्त्रों में छिपे रहस्यों को खोला जिस कारण उन्हें महर्षि के नाम वा पदवी से सम्बोधित किया जाता है। उन्होंने अवतारवाद, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, जन्मना जातिवाद, बाल विवाह, सामाजिक असमानता, स्त्री व शूद्रों का वैदिक शिक्षा के अनाधिकार सहित सभी धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों का खण्डन किया और सच्चिदानन्द निराकार सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी ईश्वर की वैदिक रीति से सन्ध्योपासना, गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था, खगोल ज्योतिष, गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार पूर्ण युवावस्था में विवाह, अनिवार्य व निःशुल्क गुरुकुलीय शिक्षा व्यवस्था व वैदिक सुरीतियों का समर्थन किया। देश की आजादी में उनका व उनके आर्यसमाज का सर्वोपरि योगदान है। वह अपूर्व देशभक्त व मानवता के सच्चे पुजारी थे। संसार के सभी मनुष्यों की सांसारिक व आध्यात्मिक उन्नति ही उनको अभीष्ट थी। उन्होंने अपना कोई नया मत व सम्प्रदाय नहीं चलाया अपितु ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को दिये गये वेद ज्ञान का ही प्रचार कर संसार से अज्ञानता, असमानता व भेदभावों को दूर करने का प्रयास किया। वह वेदाज्ञा कृण्वन्तो विश्वमार्यम् में विश्वास रखते थे और वैदिक धर्म से बिछुड़े हुए भाई-बहिनों को निष्पक्ष भाव से वैदिक धर्म के वट वृक्ष के नीचे लाने के समर्थक थे। वस्तुतः उन्होंने एक ऐसे विश्व का स्वप्न संजोया था जिसमें किसी के प्रति किसी प्रकार का अन्याय, भेदभाव और शोषण न हो और सब वैदिक ज्ञान से युक्त शिक्षित, विद्वान, विदुषी, निरोगी, स्वस्थ व बलवान हों। वह संसार से अशान्ति व दुःखों को समूल मिटाना चाहते थे। उनके शिष्यों पर उनके स्वप्नों को पूरा करने का भार है परन्तु उन सभी को कर्तव्यबोध भी है?, कहा नहीं जा सकता। आत्म चिन्तन और आर्यसमाज के नियम कि मनुष्य को सार्वजनिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में सब स्वतन्त्र रहें, यह और सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग ही आर्यसमाज का उन्नति का मार्ग है। हम सबको अपना आत्मनिरीक्षण करते हुए इसी मार्ग पर चलना चाहिये।

 

महर्षि दयानन्द जी की दो विशेषताओं, उनके सिद्ध योगी और वेद ज्ञान सम्पन्न होने तथा इन विशेषताओं का उपयोग कर संसार के कल्याण की भावना से वेद प्रचार करने का हमने लेख में वर्णन किया है। उनरके बाद उनके समान योगी और वेदों का विद्वान उत्पन्न नहीं हुआ। यदि होता तो विश्व को आशातीत लाभ होता। आशा है कि पाठक इस लेख को पसन्द करेंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘क्या महर्षि दयानन्द को वेद की पुस्तकें धौलपुर से प्राप्त हुईं थीं?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द जी अपने विद्यागुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से अध्ययन पूरा कर और गुरु दक्षिणा की परम्परा का निर्वाह कर गुरुजी को दिए वचन के अनुसार भावी योजना को कार्यरूप देने वा निश्चित करने के लिए मथुरा से आगरा आकर रहे थे और यहां लगभग डेढ़ वर्ष रहकर उपदेश व प्रवचन आदि के द्वारा प्रचार किया। आगरा में निवासकाल में महर्षि दयानन्द ने एक दिन पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। इसका अर्थ यह निकलता है कि स्वामीजी के पास वेद की पुस्तकें नहीं थी। पं. लेखराम जी ने इस विषय को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है

 

वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थानएक दिन स्वामी जी ने पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। सुन्दर लाल जी ने बड़ीखोज करने के पश्चात् पंडित चेतोलाल जी और कालिदास जी से कुछ पत्रे वेद के लाये। स्वामी जी ने उन पत्रों को देखकर कहा कि यह थोड़े हैं, इनसे कुछ काम निकलेगा। हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। आगरा में ठहरने की अवस्था में स्वामी जी समय समय पर पत्र द्वारा अथवा स्वयं मिलकर विरजानन्द जी से अपने सन्देह निवृत कर लिया करते थे। इसके बाद इस विषय में आगे लिखा है कि धौलपुर में 15 दिन रहकर लश्कर की ओरस्वामी जी कार्तिक बदि संवत् 1921 तदनुसार 1864 ईस्वी को आगरा से वेद की पुस्तक की खोज में धौलपुर पधारे और वहां 15 दिन तक निवास किया फिर ग्वालियर चले गये।  धौलपुर का वर्णन इस विषय में मौन है कि स्वामी जी को यहां धौलपुर में वेद की पुस्तक मिली या नहीं। इसके बाद के वर्णनों में भी वेद की पुस्तकों की खोज, उनके प्राप्त होने या न होने का वर्णन नहीं मिलता।

 

धौलपुर से 20 अक्तूबर 1864 को चलकर स्वामीजी ग्वालियर होते हुए किसी मार्ग से आबू पर्वत आते हैं और यहां से चलकर 85 दिन बाद लश्कर / ग्वालियर पहुंचते हैं। अनुमान किया जाता है कि स्वामीजी आबू पर्वत अपने योग विद्या सिखाने वाले गुरुओं से भेंट करने गये होंगे। आबूपर्वत से ग्वालियर आकर, यहां कुछ समय ठहर कर इसके बाद स्वामी जी 7 मई, 1865 को ग्वालियर से चलकर करौली आते हैं। करौली में निवास का वर्णन करते हुए पं. लेखराम जी अपने जीवन चरित्र में लिखते हैं कि ग्वालियर से स्वामी जी करौली पधारे और राजा साहब से धर्म विषय पर वार्तालाप होता रहा और पण्डितों से भी कुछ शास्त्रार्थ हुए और यहां पर कई मास ठहर कर वेदों का उन्होंने पुनः अभ्यास कियाफिर वहां से जयपुर चले गये। यहां करौली में स्वामी जी ने कई मास ठहर कर वेदों का पुनः अभ्यास किया, इससे संकेत मिलता है कि स्वामी जी को धौलपुर में वेद की पुस्तक प्राप्त हो गईं थी। यदि न होती तो फिर वह अभ्यास न कर पाते। धौलपुर में उनका 15 दिनों का निवास वेदों की उपलब्धि वा प्राप्ति के लिए ही व्यतीत हुआ प्रतीत होता है। करौली में स्वामी जी ने वेदों का पुनः अभ्यास किया, इन शब्दों से यह भी प्रतीत होता है कि इससे पूर्व उन्होंने सम्भवतः आबू पर्वत पर भी लगभग ढाई मास रूककर वेदों का प्रथमवार अभ्यास किया था।

 

स्वामी दयानन्द जी ने कुम्भ मेले के अवसर पर 12 मार्च सन् 1867 से हरिद्वार में प्रवास किया। पं. लेखराम जी के जीवन चरित में उन्हें केवल वेद ही मान्य थेस्वामी महानन्द सरस्वती शीर्षक से वर्णन मिलता है जिसमें कहा गया है कि स्वामी महानन्द सरस्वती, जो उस समय दादूपंथ में थे, इस कुम्भ पर स्वामी जी से मिले। उनकी संस्कृत की अच्छी योग्यता है। वह कहते हैं कि स्वामी जी ने उस समय रुद्राक्ष की माला, जिसमें एकएक बिल्लौर या स्फटिक का दाना पड़ा हुआ था, पहनी हुई थी, परन्तु धार्मिक रूप में नहीं। हमने वेदों के दर्शन वहां स्वामी जी के पास किये, उससे पहले वेद नहीं देखे थे। हम बहुत प्रसन्न हुए कि आप वेद का अर्थ जानते हैं। उस समय स्वामी जी वेदों के अतिरिक्त किसी को (स्वतः प्रमाण) मानते थे। यहां स्वामी जी के पास वेद होने का अर्थ है कि उन्हें वेद धौलपुर में ही प्राप्त हुए थे। यदि वहां प्राप्त न होते तो वहां वेदों के प्राप्त न होने और अन्यत्र से प्राप्त होने का कहीं वर्णन होता। अन्यत्र वेदों की प्राप्ति का उल्लेख न होना संकेत करता है कि स्वामी जी को वेद धौलपुर में ही प्राप्त हुए थे। यहां इतना और बता दें कि दादूपन्थी स्वामी महानन्द जी देहरादून में निवास करते थे और यहां नगर में उनका ‘‘महानन्द आश्रम के नाम से अपना आश्रम था। स्वामी जी से मिलने और प्रभावित होने के कारण वह आर्यमतानुयायी बन गये थे और उन्होंने अपने आश्रम का परवर्ती नाम भी महानन्द आश्रम् अर्थात् आर्यसमाज कर दिया था। हमारा सौभाग्य है कि हम इसी आर्यसमाज के सदस्य रहे हैं।

 

स्वामी जी को वेदों की प्राप्ति धौलपुर में ही हुई, इस सम्बन्ध में हम आर्य समाज के विद्वान महानुभावों की सम्मति जानना चाहेंगे। यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि स्वामी जी को धौलपुर में यह वेद किससे प्राप्त हुए थे? इस विषय में हम यह अनुमान करते हैं कि किसी वेदपाठी परिवार के किसी पण्डित जी वा ब्राह्मण परिवार से ही स्वामी जी को यह वेद प्राप्त हुए होंगे। किसी पुस्तकालय वा किसी पुस्तक विक्रेता के पास से मिलना तो सम्भव नहीं लगता। हमारा अनुमान है कि सन् 1865 वा 1867 से पूर्व वेद भारत में मुद्रित नहीं हुए थे। सम्भवतः पहली बार वेद मन्त्र संहिताओं का मुद्रण व प्रकाशन लाहौर से महर्षि दयानन्द भक्त पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने किया था।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘वैदिक धर्म की वेदी पर प्रथम बलिदान: महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म् 

आज महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का बलिदान दिवस है। आज ही के दिन 30 अक्तूबर, सन् 1883 को अजमेर में सूर्यास्त के समय महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन की अन्तिम सांस ली थी। उनके बलिदान का कारण उनका वैदिक धर्म का प्रचार करना था। स्वार्थी, पाखण्डी व अज्ञानी लोगों को उनका प्रचार रास नही आ रहा था। उनके विरोधियों के पास वैदिक धर्म के सच्चे सिद्धान्तों का कोई उत्तर नहीं था। कोई ऐसा मत नहीं था जिसकी न्यूनताओं का उन्होंने प्रकाश न किया हो। इतना ही नहीं, उन्होंने सभी मतों के अनुयायियों की वैदिक धर्म संबंधी सभी बातों, प्रश्नों, शंकाओं व शिकायतों का युक्ति, तर्क व प्रमाणों से समाधान किया था और सबको निरुत्तर किया था। उनकी सत्यता, ज्ञान की पराकाष्ठा, वेदों के प्रति प्रेम  व स्पष्टवादित ही उनके बलिदान का कारण बनी थी। देश ही नहीं, संसार को अज्ञान व अन्धविश्वास से मुक्त कराने के लिए उन्होंने अपना जीवन दांव पर लगाया था और अपने प्राणों का किंचित मोह नहीं किया था। उनके वेद प्रचार के कारण संसार से अन्धविश्वासों व पाखण्डों में बहुत कमी आई है। यदि वह कुछ वर्ष और जीवित रहते तो न केवल हमारा देश धर्म, शिक्षा, विज्ञान, अध्यात्म, सामाजिक समरसता में अधिक उन्नति करता अपितु देश से अज्ञान व अन्धविश्वास भी कहीं अधिक मात्रा में दूर व समाप्त होते।

 

महर्षि दयानन्द ने किसी एक क्षेत्र में ही कार्य नहीं किया अपितु उन्होंने समग्र क्रान्ति की थी। धार्मिक अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, पाखण्ड आदि तो उन्होंने दूर किये ही, इसके साथ उन्होंने ज्ञान का अजस्र स्रोत ईश्वरीय ज्ञान वेद का भी पुनरुद्धार किया। यह वेद ज्ञान मनुष्य का सर्वस्व व सर्वाधिक मूल्यवान एवं उपयोगी वस्तु है जिससे इस जीवन की उन्नति के साथ मृत्यु के पश्चात मोक्ष की उपलब्धि भी हो सकती वा होती है। संसार उनके समय में ईश्वर के सत्य स्वरूप से अनभिज्ञ था। जीवात्मा और प्रकृति का स्वरूप भी प्रायः लोगों को ज्ञात नहीं था। हमारे अपने पण्डे-पुजारी वेद ज्ञान से शून्य थे और धर्म सम्बन्धी मनमानी करते थे। दलितों पर घोर अन्याय किया जाता था। मातृ शक्ति व दलित भाई बहिनों सहित क्षत्रिय व वैश्यों को भी वेदाध्ययन से वंचित कर दिया गया था। कर्मणा ब्राह्मणों का देश व समाज में सर्वत्र अभाव था और जन्मना ब्राह्मण वेदाध्ययन करते नहीं थे। किसी को न वेद कण्ठस्थ थे और न ही वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थो का ही ज्ञान था। चेतन ईश्वर को भुलाकर उसका स्थान पाषाण की मनुष्य निर्मित मूर्तियों ने ले लिया था। इसका जो परिणाम होना था वह सत्य इतिहास पढ़ने पर विदित होता है। उनके समय में शारीरिक, बौद्धिक, चारित्रिक, मानसिक, अध्यात्मिक व सामाजिक पतन की पराकाष्ठा थी। यहां तक हुआ कि एक माता का पुत्र मर गया। उस माता के पास कफन तक के लिए भी धन व वस्त्र नहीं था, विधि विधान के अनुसार अन्त्येष्टि तो बहुत दूर की बात थी। अपनी आधी धोती फाड़कर उसमें उस माता ने अपने पुत्र के शव को लपेट कर गंगा नदी में बहा दिया और ऐसा करके अपनी धोती का वह भाग वापित हटा लिया जिससे उसे सीकर वह अपने शरीर को ढक सके। देश में आये इस दुर्दिन का कारण वेदों के ईश्वरीय ज्ञान का हमारे ब्राह्मणों द्वारा अनादर करना था। यदि वह वेदाध्ययन से जुड़े रहते, जैसे महाभारत काल तक जुड़े रहे थे तो यह दुर्दिन कदापि न आता। केवल मूर्तिपूजा का अज्ञान व अन्धविश्वास ही नहीं था अपितु जन्मना जातिवाद ने भी मनुष्यों को निर्बल व असंगठित किया जिसका लाभ विदेशियों और विधर्मियों ने हमारा शोषण, अपमान व धर्मान्तरण कर किया। इसके साथ ही मृतक श्राद्ध व फलित ज्योतिष जैसी कुरीतियों से भी देश को भारी हानि हुई है। अज्ञान व अन्धविश्वास से सदा सर्वदा हानि ही होती है, लाभ किसी को कभी नहीं होता। महर्षि दयानन्द ने इन सभी अन्धविश्वासों के विरुद्ध आवाज उठाई और इनसे देश को मुक्त कराने का प्रयास किया जिसका परिणाम 30 अक्तूबर, 1883 ई. को एक षडयन्तत्र के अन्र्तगत विष देकर उनकी मृत्यु का होना था।

 

महर्षि दयानन्द ने हमें अन्धविश्वास व अज्ञान के निवारण तथा समाज व देश को सशक्त करने के लिए हमें हथियार के रूप में सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, वेदों का भाष्य, संस्कार विधि, गोकरूणाविधि, व्यवहारभानु, पाणिनी-महाभाष्य-निरुक्त की वेदार्थ पद्धति, मनुस्मृति के सच्चे स्वरूप का परिचय और इतिहास विषयक बहुमूल्य जानकारियों से मालामाल किया। उन्होंने गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली को भी पुनर्जीवित किया जिसके अनुसार आर्यसमाज ने सैकड़ों गुरुकुल व दयानन्द ऐंग्लोवैदिक स्कूल खोले जो आज भी देश को वेदों व वैदिक साहित्य सहित आधुनिक शिक्षा देकर नाना विषयों के विद्वान प्रदान कर रहे हैं। स्वामी रामदेव जी ने योग और स्वदेशी वस्तुओं के निर्माण व प्रचार के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान दिया है। आगे भी उनसे ऐसी ही उम्मीदें हैं। इससे पूर्व भी महर्षि दयानन्द के अनेक शिष्यों ने शिक्षा, पत्रकारिता, इतिहास, वैदिक साहित्य के अनुसंधान व उनके हिन्दी में भाष्य आदि के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान किया। शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, क्रान्ति के अग्रदूत पं. श्यामजी कृष्ण वम्र्मा, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज जी व शहीद भगत सिंह जी का पूरा परिवार उन्हीं की देन थे। उनका देश की उन्नति में सर्वाधिक व अविस्मरणीय योगदान है। उनका सबसे बड़ा योगदान ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप से परिचय कराकर ईश्वर की सरलतम स्तुति-प्रार्थना-उपासना की सत्य पद्धति को प्रदान करना था जिसमें संसार के मुनष्यों की उन्नति अर्थात् अभ्युदय व मोक्ष की प्राप्ति निहित है। इसके समान अन्य कोई उपासना पद्धति ऐसी नहीं है जिससे ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सके। एक साधारण व अपढ़ व्यक्ति भी यदि इस पद्धति के अनुसार तप व पुरुषार्थ करे तो ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के साथ ईश्वर का साक्षात्कार कर जीवन को शिखर पर ले जा सकता है। उनके सभी योगदानों के लिए हम उनको अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। हम आशा करते हैं कि आने वाले समय में संसार पक्षपात रहित होकर उनके सत्य सिद्धान्तों का अध्ययन कर उसे अपनायेगा जिस प्रकार कि उसने विज्ञान को अपनाया है।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की कुछ प्रमुख मान्यतायें’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

वेदों पर आधारित महर्षि दयानन्द जी की कुछ प्रमुख मान्यताओं को पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं:

ईश्वर विषयक

ईश्वर कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षण युक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।

वेद विषयक

विद्या धर्मयुक्त ईश्वरप्रणीत संहिता मन्त्रभाग को निर्भ्रांत स्वतः प्रमाण मानता हूं। वे स्वयं प्रमाणरूप हैं कि जिनका प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। जैसे सूर्य वा प्रदीप अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे चारों वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं, और चारों वेदों के ब्राह्मण, 6 अंग, 6 उपांग, 4 उपवेद और 1127 वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मा आदि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, उन को परतः प्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन है, उनका अप्रमाण मानता हूं।

धर्म अधर्म

जो पक्षपात रहित, न्यायाचरण, सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको धर्म और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभंग वेदविरुद्ध है, उसको अधर्म मानता हूं।

जीव, जीवात्मा अर्थात् मनुष्य का आत्मा

जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ, नित्य है, उसी को जीव मानता हूं।

देव

विद्वानों को देव और अविद्वानों को असुर, पापियों को राक्षस, अनाचारियों को पिशाच मानता हूं।

देवपूजा

उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री और स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना देवपूजा कहाती है। इस से विपरीत अदेवपूजा होती है। इन मूर्तियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़़ मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूं।

यज्ञ

उसको कहते हैं कि जिस में विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिन से वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना है, उसको उत्तम समझता हूं।

आर्य और दस्यु

आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं। मैं भी वैसे ही मानता हूं।

स्तुति

गुणकीर्तन श्रवण और ज्ञान होना, इस का फल प्रीति आदि होते हैं।

प्रार्थना

अपने सामथ्र्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करना और इसका फल निरभिमान आदि होता है।

उपासना

जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, वैसे अपने करना, ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, योगाभ्यास से ऐसा निश्चय व साक्षात् करना उपासना कहाती है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।

सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना

जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उन से युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं, उन से पृथक मानकर प्रशंसा करना सगुण-निर्गुण स्तुति, शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना सगुण-निर्गुण प्रार्थना और सब गुणों से सहित सब दोषों से रहित परमेश्वर को मान कर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना सगुणनिर्गुणोपासना कहाती है।

हम आशा करते हैं कि पाठक उपर्युक्त वैदिक सत्य सिद्वान्तों को अपने ज्ञान व आचरण हेतु उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

 

महर्षि दयानन्द ने मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व संसार का यथार्थ परिचय कराने सहित कर्तव्य और अकर्तव्य रूपी मनुष्य धर्म का बोध कराया’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

आज दीपावली का पर्व महर्षि दयानन्द जी का बलिदान पर्व भी है। कार्तिक मास की अमावस्या 30 अक्तूबर, 1883 को दीपावली के दिन ही सायंकाल  अजमेर में उनका बलिदान हुआ था। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व महर्षि दयानन्द के जोधपुर में धर्म प्रचार से रूष्ट उनके विरोधियों ने उनको विष देकर व बाद में उनकी चिकित्सा में लापरवाही कर उनको स्वास्थ्य की ऐसी विषम स्थिति में पहुंचा दिया था जो उनके बलिदान का कारण बनी। आज दीपावली पर उनको याद करने के पीछे भी हमारा व मानव जाति का हित छिपा हुआ है। महर्षि दयानन्द के जीवन का मुख्य कार्य वेदों के ज्ञान को अर्जित करना और उसका देश व विदेश में प्रचार करना था। वेद ज्ञान का महत्व इस कारण है कि यह सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को प्रेरित व उनकी आत्माओं में स्थापित किया गया ज्ञान है जिसमें ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व सृष्टि का यथार्थ परिचय देकर कर्तव्य व अकर्तव्य अर्थात् मनुष्य धर्म का बोध कराया गया है। इस ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में जब हम मनुष्य जीवन के उद्देश्य पर विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी संसार के सभी पदार्थों को जानकर उनसे यथायोग्य उपयोग लेना, ईश्वर हमारा व सब प्राणियों का जन्मदाता है, सुखों का दाता व कर्मों का फल प्रदाता है, अतः उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर उससे जीवन के लक्ष्यों की सफलता के लिए उससे सहायता की विनती करना और वैदिक शिक्षाओं के अनुसार जीवन को बनाना व चलाना ही है। वैदिक पथ पर चलकर ही मनुष्य जीवन की उन्नति होकर जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति होती है। मनुष्य के लिए जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों को प्राप्त करने का वैदिक जीवन पद्धति व वेद विहित कर्तव्यों का पालन करने के अलावा कोई मार्ग नहीं है। यदि संसार का कोई मनुष्य वेद मार्ग पर चलकर साधना व कर्तव्यों को पालन नहीं करेगा तो उसका यह जीवन उसे भविष्य में घोर दुःखों की ओर ले जायेगा जिसका सुधार अनेक जन्मों में भी कठिनता से हो सकेगा। इसका प्रमुख कारण जीवात्मा का अविनाशी, अमर, नित्य, जन्म मरण को प्राप्त होना, कर्मों का फल भोगना आदि हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में सत्य की खोज व अनुसंधान कर कठोर साधना की थी जिसके परिणाम स्वरुप उनको वेदों का ज्ञान व योग विद्या की प्राप्ति हुई थी। अपने गुरू की आज्ञा व अपनी प्रकृति व प्रवृत्ति के अनुसार भी उन्होंने वेद अर्थात् सत्य ज्ञान के प्रचार को ही अपने जीवन का उद्देश्य निर्धारित किया था। इसकी आवश्यकता इस लिए थी कि उनके समय में संसार से सत्य ज्ञान प्रायः लुप्त हो चुका था और सभी मनुष्य जो जीवन व्यतीत कर रहे थे वह जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति से कोसों दूर था। यदि महर्षि दयानन्द वेद व सद्ज्ञान के प्रचार का कार्य न करते तो मनुष्य इस सृष्टि की शेष अवधि भर भटकता रहता तथा उसे सत्य मार्ग प्राप्त नहीं हो सकता था। मत-मतान्तरों के अज्ञानी व स्वार्थी लोग उसका पूर्ववत् शोषण करते रहते जिससे दोनों की ही अवनति होकर संसार में दुःख व अशान्ति भरी हुई होती। महर्षि दयानन्द के द्वारा वेद प्रचार करने पर भी संसार अभी भी अज्ञान व स्वार्थों में फंसा हुआ है। ऐसा देखा जाता है कि लोगों में सत्य को जानने व उसका आचरण करने के प्रति जो दृणता होनी चाहिये, उसका उनमें नितान्त अभाव है। संसार के सभी मनुष्य जीवन की समस्याओं के सरल उपाय करना चाहते हैं। इसी कारण स्वार्थी लोग उनका शोषण करते हैं और दोनों ही अधर्म को प्राप्त होकर अपना भविष्य उन्नत करने के स्थान पर अवनत होकर सुदीर्घ काल तक उनका फल भोगते हैं।

 

महर्षि दयानन्द जी का योगदान यह है कि उन्होंने ईश्वर व जीवात्मा सहित सभी विषयों का सत्य ज्ञान प्राप्त कर, उसकी परीक्षा द्वारा उसे तर्क की कसौटी पर कस कर उसका प्रचार किया। उन्होंने बताया कि ईश्वर को ब्रह्म व परमात्मा आदि भी कहते हैं। यह ईश्वर सच्चिदानन्द आदि लक्षण युक्त है। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता व सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणों से युक्त है। इसी ईश्वरीय सत्ता को सभी को परमात्मा जानना व मानना चाहिये।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों का परिचय कराते हुए बताया है कि विद्या व सत्य ज्ञान से युक्त ईश्वर प्रणीत जो मन्त्र संहितायें हैं, वह निभ्र्रान्त ज्ञान होने से स्वतः प्रमाण हैं। यह चारों वेद स्वयं प्रमाणस्वरूप हैं, कि जिनका प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं है। जैसे सूर्य वा प्रदीप अर्थात् दीपक अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे ही चारों वेद हैं। चारों वेद और वैदिक साहित्य के अन्तर्गत सभी ब्राह्मण ग्रन्थ, 6 वेदांग और 6 वेदों के उपांग अर्थात दर्शन ग्रन्थ, चार उपवेद और 1127 वेदों की शाखायें यह सभी वेदों के व्याख्यानरूप ग्रन्थ हैं और इन्हें ब्रह्मा आदि अनेक ऋषियों ने बनाया है। यह सब परतः प्रमाण की कोटि में आते हैं। परतः प्रमाण का अर्थ है कि यदि यह वेदानुकूल हों तो प्रमाण और इनकी जो बात वेदानुकूल न हो वह अप्रमाण होती है। महर्षि दयानन्द जी ने अपने जीवन में सबसे बड़ा कार्य सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि व व्यवहार भानु सहित वेदों के भाष्य का लेखन, सम्पादन व प्रकाशन है। इसके अतिरिक्त वैदिक मान्यताओं के प्रचार हेतु उपदेश, प्रवचन, व्याख्यान, वार्तालाप, शास्त्र चर्चा तथा शास्त्रार्थ आदि हैं। उनके अनुयायी अन्य वैदिक विद्वानों के वेद भाष्य भी मानव जाति की सबसे बड़ी सम्पत्ति व सम्पदायें हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने बताया कि पक्षपात रहित न्याय का आचरण तथा सत्य भाषण आदि से युक्त ईश्वर की आज्ञा जो वेदों के अनुकूल हो, उसी को धर्म कहते हैं। और जो इसके विपरीत हो वह अधर्म होता है। हमारा जीवात्मा क्या है? इस पर महर्षि दयानन्द जी बताते हैं कि जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञान आदि गुणों से युक्त, अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान वाला, नित्य पदार्थ व तत्व है, वही जीव कहलाता है। ईश्वर, वेद, धर्म, अधर्म और जीवात्मा का जो ज्ञान महर्षि दयानन्द जी ने दिया है, वह यथार्थ व पूर्ण सत्य है। अन्य मतों में समग्र रूप में इस प्रकार का ज्ञान उनके समय में उपलब्ध नहीं था। आज भी मत-मतान्तरों की पुस्तकें पढ़कर यह सत्य ज्ञान प्राप्त नहीं होता। इनमें अनेकानेक भ्रान्तियां भरी हुई हैं। इसलिए वैदिक धर्म और वेद आज भी सबसे अधिक पूर्ण प्रमाणिक एवं पठनीय ग्रन्थ हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने मनुष्यों को सच्ची ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना सिखाया। इसके लिए उन्होंने ब्रह्म यज्ञ अर्थात् वैदिक ईश्वरोपासना की विधि भी लिखी है जो एक प्रकार से योगदर्शन का निचोड़ है। इसका अभ्यास करने से जीवात्मा के सभी अवगुण दूर होकर उसमें सदगुणों का आविर्भाव होता है और आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि मृत्यु के समान दुःख प्राप्त होने पर भी वह घबराता नहीं है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने से मनुष्य जीवन की उन्नति होती है और मृत्यु के पश्चात उसको अच्छा देव कोटि का जन्म वा मुक्ति की प्राप्ति होती है। महर्षि दयानन्द ने अपने ज्ञान व पुरूषार्थ से सृष्टि के प्रति मनुष्य के कर्तव्य के निर्वाह हेतु ‘‘अग्निहोत्र, यज्ञ वा हवन का भी विधान किया है इसको करने से भी जीवनोन्नति सहित परजन्म सुधरता व उन्नत होता है व अभीष्ट इच्छाओं व आकांक्षाओं की पूर्ति होती है। इसके साथ ही मनुष्य स्वस्थ रहते हुए ईश्वर की सहायता से अनेक विपदाओं से सुरक्षित रहता है। अतः ईश्वरोपासना और दैनिक यज्ञ को सभी मनुष्यों को करके अपने जीवन को उन्नत व लाभान्वित करना चाहिये।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्य ज्ञान व वेदों का प्रचार ही नहीं किया अपितु समाज सुधार हेतु समाज में व्याप्त अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों का खण्डन भी किया। मिथ्या मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद, सामाजिक विषमता, बाल विवाह, परतन्त्रता, गोहत्या आदि का खण्डन कर इसके विपरीत सच्ची ईश्वर उपासना, यज्ञ, जन्म से सभी मनुष्यों की समानता, सबको विद्याध्ययन के समान अवसरों को प्रदान किये जाने का समर्थन भी किया। उनपकी विचारधारा से लिगं भेद व रंग भेद आदि का भी निषेध होता है। उन्होंने स्त्रियों के प्रति किये जाने वाले सभी भेदभावों को दूर कर उन्हें शिक्षित करने सहित देशोन्नति के कार्य करने के लिए प्रोत्साहित व प्रेरित किया। उन्होंने मनुस्मृति के वचन उद्धृत कर बताया कि जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं। साथ हि जहां नारियों का सम्मान नहीं होता, वहां की जाने वाली सभी अच्छी क्रियायें भी व्यर्थ होती हैं।

 

वैदिक धर्म का अध्ययन कर सभी अध्येता इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वेद ही सारी मानव जाति के सुख व समृद्धि सहित धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की सिद्धि में सहायक है। इससे परजन्म भी सुधरता है और वर्तमान जीवन भी उन्नत व सुखी होता है। इन सब ज्ञानयुक्त बातों से परिचित कराने का श्रेय महर्षि दयानन्द जी को है। उन्होंने इन सभी सिद्धान्तों को अपने जीवन में चरितार्थ कर हमारा मार्गदर्शन किया। आज उनके बलिदान दिवस पर उनको सच्ची श्रद्धाजंलि यही हो सकती है कि हम उनके सभी विचारों का अध्ययन कर उनका मनन करते हुए उन्हें अपने जीवन में अपनायें और उन पर आचरण कर जीवन को अभ्युदय व निःश्रेयस के मार्ग पर आरूढ़ करें। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में अपने वेद प्रचार कार्यों के अन्तर्गत मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व संसार का यथार्थ परिचय कराने सहित कर्तव्य और अकर्तव्य रूपी मनुष्य धर्म का बोध कराया था। आज महर्षि दयानन्द जी के बलिदान दिवस पर हम उनको अपनी विनम्र श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं और सभी पाठको को दीपावली की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनायें भेंट करते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी की महर्षि दयानन्द को श्रद्धांजलि’ -मनमोहन कुमार आर्य,

Picture1

महर्षि दयानन्द समस्त विश्व के गुरू वा आचार्य थे। उन्होंने पक्षपात रहित होकर संसार के सभी मनुष्यों के प्रति भ्रातृभाव रखते हुए उनके कल्याण की भावना से वेदों के ज्ञान से उनका शुभ करने के लिए वेद प्रचार का प्रशंसनीय व अपूर्व कार्य किया था। बहुत से मताग्रही लोगों ने उनके यथार्थ अभिप्राय को जानने का प्रयास नहीं किया और उनके विरोधी बन गये। हम विदेशी मतों व सम्प्रदायों की बात तो क्या करें, स्वयं हमारे देश के वेद को मानने वाले पौराणिक लोगों ने उनका विरोध ही नहीं किया अपितु अनेक लोगों ने उनके प्राणहरण की अनेक बार कुचेष्टायें की। महर्षि ने जब वेद प्रचार कार्य आरम्भ किया था, तभी से वह जानते थे कि देश व विदेशी मतों के अज्ञानी व स्वार्थी लोग उनका विरोध करेंगे और उनके प्राण संकटग्रस्त रहेंगे। इस पर भी उन्होंने वेद प्रचार के मार्ग को चुना था क्योंकि सत्य को जाने, अपनायें व धारण किये बिना मनुष्य जाति की उन्नति सम्भव नहीं थी। यह सब कुछ होने पर भी अनेक मत-मतान्तरों के अनेक सुधी व निष्पक्ष लोगों ने स्वामी जी व उनके कार्यों के महत्व को समझा था और उन्होंने निःसंकोच भाव से उसे सार्वजनिक रूप से प्रकट भी किया था। ऐसे ही एक युगपुरूष हिन्दी के साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी थे। आज हम उनकी महर्षि दयानन्द को दी गई श्रद्धाजलि के शब्दों को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस श्रद्धाजंलि में प्रस्तुत शब्दों को बार-बार पढ़ने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यदि संसार के सभी मतावलम्बी निष्पक्ष होकर महर्षि दयानन्द व उनके कार्यों का अवलोकन करते तो भले ही वह उनके अनुयायी बनते या न बनते, परन्तु उनका निष्कर्ष अवश्य ही महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के विचारों के अनुरूप होता। यहां यह भी उल्लेख कर दें कि हम कुछ समय पूर्व उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी के महर्षि दयानन्द के चित्र को अपने घरों में लगाने के समर्थन व यह चित्र लगाना मूर्तिपूजा न होकर उन्हें किस प्रकार से उनके कर्तव्यों की प्रेरणा करता है, सम्बंधी विचारों को प्रस्तुत कर चुके हैं।  उसकी पुष्टि महावीर प्रसाद द्विवेद्वी जी के लेख से भी हो रही है। अब द्विवेदी जी द्वारा प्रस्तुत विचार प्रस्तुत हैं:

 

‘‘सनातन धर्मावलम्बियों की सन्तति होने और देवीदेवताओं के सम्मुख सिर झुकाने पर भी मेरे हृदय में श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती पर अगाध श्रद्धा है। वे बहुत बड़े समाजसंस्कर्ता, वेदों के बहुत बड़े ज्ञाता तथा समयानुकूल भाष्यकर्त्ता और आर्य संस्कृति के बहुत बड़े पुरस्कर्ता थे। उन्होंने जिस समाज की संस्थापना की है, उससे भी अपने देश, अपने धर्म और अपनी भाषा को बहुत लाभ पहुंच रहा है। मैं स्वामी जी की विद्वता और उनके कार्यकलाप को अभागे भारत के सौभाग्य का सूचक चिन्ह समझता हूं। उनका चित्र चिरकाल तक मेरे नेत्रों के सामने रहकर मेरी आत्मा को बल का तथा मेरे बैठने के कमरे को शोभा का, दान देता रहा है। स्वामी जी के विषय में इससे अधिक लिखने की शक्ति इस समय मेरे जराजीर्ण शरीर में नहीं। अतएव

 

धन्यंच प्राज्ञमूर्धन्यं दयानन्दं दयाधनम्।

                        स्वामिनं तमहं वन्दे वारं वारंच सादरम्।।

 

हम अपने पौराणिक विद्वानों से पूछना चाहिते हैं कि क्या वह श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के इस कथन से असहमति रखते हैं? जो व्यक्ति महर्षि दयानन्द सरस्वती के किसी व किन्हीं विचारों से असहमति रखते हैं वह स्वयं से प्रश्न करें कि क्या उन्होंने निष्पक्ष भाव से महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन किया है? हमारे पास ऐसे अनेकों प्रमाण हैं कि जब किसी निष्पक्ष पौराणिक विद्वान ने महर्षि दयानन्द के विचारों व सिद्धान्तों का निष्पक्ष भाव से अध्ययन किया तो वह सदा सदा के लिए उनका अनुयायी बन गया। अनेक मतों में भी उनके ऐसे अनुयायी हुए या बने हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए हम स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती का नाम प्रस्तुत करते हैं जो कट्टर पौराणिक साधू थे परन्तु रोगग्रस्त होने पर एक आर्यसमाजी द्वारा उनकी सेवा सुश्रुषा करने और विदाई के समय उस बन्धु द्वारा उन्हें कपड़ें में लपेट कर सत्यार्थप्रकाश भेंट करने और उनसे विनती करने कि जब समय मिले इस पुस्तक को अवश्य पढ़े। सेवाभावी आर्यसमाजी भक्त के इन शब्दों व विपदकाल में उनकी सेवा ने स्वामीजी को पुस्तक पढ़ने के लिए विवश किया और पुस्तक पढ़ने के बाद स्वामी जी पूरी तरह बदल गए और महर्षि दयानन्द के अनुयायी बन गये। उन्होंने मृत्यु पर्यन्त आर्य सन्यासी बनकर देश व वैदिक धर्म की अनेकविध प्रशंसनीय सेवा की। उनका उत्तम कोटि का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘सन्मार्ग दर्शन सभी वेद प्रेमियों के लिए पठनयी एवं संग्रहणीय है। एक नही ऐसे अनेकों उदाहरण हैं। इसी के साथ हम इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘महर्षि दयानन्द, सत्यार्थ प्रकाश और आर्यसमाज मुझे क्यों प्रिय हैं?’ -मनमोहन कुमार आर्य

सृष्टि के आरम्भ से लेकर अद्यावधि संसार में अनेक महापुरूष हुए हैं। उनमें से अनेकों ने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं या फिर उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षाओं का संग्रह कर उसे ग्रन्थ के रूप में संकलित किया है। हम उत्तम महान पुरूष को प्राप्त करने के लिए निकले तो हमें आदर्श महापुरूष के रूप में महर्षि दयानन्द सरस्वती प्रतीत हुए। हमने उन्हें अपने जीवन में सर्वोत्तम आदर्श महापुरूष के रूप में स्वीकार किया है। ऐसा नहीं कि उनसे पूर्व उनके समान व उनसे उत्कृष्ट पुरूष या महापुरूष, महर्षि, ऋषि, योगी आदि उत्पन्न ही नहीं हुए। हमारा कहना मात्र यह है कि हमारे सम्मुख जिन महापुरूषों के विस्तृत जीवन चरित्र उपलब्ध हैं, उनमें से हमने महर्षि दयानन्द को अपने जीवन का सत्य, यथार्थ व आदर्श पथ प्रदर्शक पाया है। न केवल हमारे अपितु वह विश्व के सभी मनुष्यों के सच्चे हितैषी, विश्वगुरू व पथप्रदर्शक रहे हैं व अपने ग्रन्थों व कार्येां के कारण अब भी हैं। विश्व के लोगों ने अपनी अज्ञानता व कुछ निजी कारणों से उनका उचित मूल्याकंन नहीं किया। महर्षि दयानन्द के अतिरिक्त हम अन्य महापुरूषों यथा श्री रामचन्द्र जी, योगेश्वर श्री कृष्ण चन्द्र जी, आचार्य चाणक्य, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरू गोविन्द सिंह जी, बंदा बैरागी और सभी आर्य विद्वानों व प्रचारकों को भी अपना आदर्श मानते हैं।

 

संसार में सृष्टि के आरम्भ से अद्यावधि अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है। गणनातीत ग्रन्थों में एक ग्रन्थ वेद भी है जिसके बारे में हमें महर्षि दयानन्द जी से पता चला कि वह मनुष्यों व ऋषियों की रचना नहीं अपितु ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में चार सर्वाधिक पवित्र ऋषि आत्माओं अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को संसार के तत्कालीन व भावी मनुष्यों के कल्याण व उद्धार के लिए ईश्वर ने अपने अन्तर्यामी स्वरूप से दिया था। उस ज्ञान को ही स्मरण कर व अन्यों में प्रचार कर इन चार ऋषियों व इनसे पढ़कर ब्रह्माजी ने प्रथम वेदों का प्रचार व प्रसार किया था और तब जो परम्परा आरम्भ हुई थी, उसका ही निर्वहन महर्षि दयानन्द ने ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में किया। महर्षि दयानन्द के आविर्भाव से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत का प्रसिद्ध महायुद्ध हो चुका था। इसके परिणामस्वरूप विश्व की अपने समय की एकमात्र सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति की कालान्तर में अप्रत्याशित अवनति हुई थी। वेद विलुप्ति के कागार पर थे। वेदों के सत्य अर्थ तो प्रायः विलुप्त ही हो चुके थे तथा उनके स्थान पर कपोल कल्पित भ्रान्त अर्थ प्रचलित थे। वैदिक धर्म व संस्कृति में भी अनेक विकार आकर यह अन्धविश्वासों, कुरीतियों, पाखण्डों व सामाजिक असमानताओं सहित शिक्षा व ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में बहुत अधिक अवनत अवस्था में आ गई थी। यही कारण था देश व देश से बाहर अनेक अवैदिक मतों का प्रादुर्भाव हो चुका था। सभी मत सत्य व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों से युक्त थे। इन मतों के कारण लोग परस्पर मित्र भाव न रखकर एक दूसरे के प्रति शत्रु भाव ही प्रायः रखते थे। दिन प्रतिदिन इसमें वृद्धि हो रही थी। ऐसा कोई महापुरूष उत्पन्न नहीं हुआ था जो इनमें एकता के सूत्र की तलाश करता और उसका प्रस्ताव कर अपने मिथ्या विश्वासों और मान्यताओं को छोड़कर सत्य का ग्रहण करने व असत्य का त्याग करने का आह्वावन करता। यह काम महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने अपने समय में अपनी पूरी शक्ति व प्राणों की बाजी लगाकर किया जिसका परिणाम आज का पूर्व की तुलना में अधिक उन्नत विश्व कहा जा सकता है जिसमें अनेक अन्धविश्वास कम व दूर हुए हैं, सामाजिक कुरीतियां व विषमतायें कम व दूर हुई हैं और ज्ञान-विज्ञान देश-विदेश में नित्य नई ऊंचाईयों को छू रहा है।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व संकल्प, इच्छा शक्ति, वेद ज्ञान, साहस, वीरता, देश प्रेम, प्राणीमात्र के हित को सम्मुख रख कर विश्व कल्याण के लिए वेदों की ओर लौटने का सन्देश दिया। उन्होंने बताया कि वेद ईश्वर प्रदत्त सत्य व प्रमाणिक ज्ञान है। उनकी मान्यता थी कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है तथा वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ, बुद्धिमान, ईश्वर को मानने वाले सच्चे व निष्पक्ष लोगों का परम कर्तव्य व धर्म है। वेदों की सत्यता और प्रमाणिकता के साथ ही वेदों की प्रासंगिकता और सर्वांगपूर्ण धर्म की पुस्तक होने का प्रबल समर्थन उन्होंने युक्ति व तर्कों सहित अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में किया है। ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय आदि उनके अनेक ग्रन्थ हैं जो सत्यार्थ प्रकाश की मान्यताओं व सिद्धान्तों के पूरक हैं। उनके साहित्य से सिद्ध होता है कि वेद पूर्णरूपेण सर्वांगपूर्ण धर्म ग्रन्थ हैं। धर्म की जिज्ञासा के लिए अन्य किसी ग्रन्थ की मनुष्यों को अपेक्षा नहीं है क्योंकि वेद ईश्वरीय सत्य वाक् होन से स्वतः प्रमाण और संसार के अन्य सभी ग्रन्थ परतः प्रमाण हैं अर्थात् सत्य व प्रमाणिकता में वेदों के समान संसार का अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। हां, भाषा आदि के ज्ञान की दृष्टि से वेदों के संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य-अन्य भाषाओं में भाष्य व टीकाओं की सहायता ली जा सकती है। सत्यार्थ प्रकाश को भी हम संसार के सभी मनुष्यों का एक आदर्श धर्म ग्रन्थ कह सकते हैं जिसमें वेदों की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए मनुष्यों के मुख्य-मुख्य कर्तव्यों पर प्रकाश डालने के साथ अकर्तव्य, अन्धविश्वासों व मिथ्या मान्यताओं का परिचय देकर उनका त्याग करने की प्रेरणा भी दी गई है। सत्यार्थ प्रकाश में ऐसा क्या है जो हमें सर्वाधिक प्रिय है? इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत करते हैं।

 

सत्यार्थ प्रकाश का आरम्भ महर्षि दयानन्द ने विस्तृत भूमिका लिख कर दिया है। इससे महर्षि दयानन्द का सत्यार्थ प्रकाश की रचना करने का उद्देश्य तथा पुस्तक में सम्मिलित किये गये विषयों का ज्ञान होता है। वह लिखते हैं कि उनका इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान, आप्तों (धर्म विशेषज्ञों) का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरुप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। महर्षि दयानन्द ने भूमिका में इन वाक्यों में जो कुछ कहा है, उसका उन्होंने पूरे सत्यार्थ प्रकाश में पूरी निष्ठा से पालन किया है। हम समझते हैं कि इस प्रयोजन व उद्देश्य से शायद ही कोई धर्म ग्रन्थ लिखा गया हो और यदि लिखा भी गया है तो सम्प्रति उनमें अनेक अशुद्धियां व असत्य मान्यतायें, अन्य मतों के प्रति विरोध व शत्रुता का भाव, छल, कपट, लोभ व बल पूर्वक उनका धर्मान्तरण करने का विचार व अनुमति जैसे अमानवीय विचार विद्यमान है जिससे संसार में अशान्ति उत्पन्न हुई है।

 

सत्यार्थ प्रकाश के पहले समुल्लास व अध्याय में हम ईश्वर के मुख्य निज नाम सहित उसके सत्य स्वरूप व 100 से कुछ अधिक नामों व उन नामों के तात्पर्य के बारे में सविस्तार जानकारी प्राप्त करते हैं। इससे वेदों में अनेक ईश्वर व देवता होने की बात निरर्थक व असत्य सिद्ध होती है तथा यह विदित होता है कि एक ही ईश्वर के असंख्य गुण-कर्म-स्वभाव व सम्बन्धों के कारण उसके अनेक नाम हैं। इस अध्याय को समझ लेने पर जहां ईश्वर का सत्य स्वरूप जानकर आत्मा की तृप्ति होती है वहीं ईश्वर के स्वरुप, नाम व कार्यों के विषय में भिन्न भिन्न ग्रन्थों में जो मिथ्या व अन्धविश्वासयुक्त कथन है, उसका भी निराकरण हो जाता है। दूसरे अध्याय में माता-पिता व आचार्यों द्वारा कैसी शिक्षा दी जाये इसका ज्ञान कराया गया है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण व मनुष्य व समाज के धारण व व्यवहार करने योग्य है। तीसरा समुल्लास पढ़कर ब्रह्मचर्य का महत्व व उससे लाभ, पठन पाठन वा अध्ययन-अध्यापन सहित सत्य व असत्य ग्रन्थों का भी परिचय मिलता है और पढ़ने वा पढ़ाने की रीति का भी ज्ञान होता है। सत्यार्थ प्रकाश के चैथे समुल्लास में युवावस्था में विवाह और गृहस्थ आश्रम के सद् सद् व्यवहारों की शिक्षा दी गई है। पांचवा अध्याय गृहस्थाश्रम का निर्वाह कर इसके कर्तव्यों व दायित्वों से मुक्त होकर वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम में प्रवेश व उसके महत्व व विधान को विस्तार से समझाया गया है। इस विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ का छठा अध्याय प्रजा व राजधर्म विषय पर है जिसमें वेद व मुख्यतः मनुस्मृति के आधार पर शासन व्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है जिसे पढ़कर अनेक बातों में यह वर्तमान की व्यवस्था से भी श्रेष्ठ प्रतीत होती है। सातवां समुल्लास ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद और ईश्वर के स्वरूप के बारे में वेद, युक्ति, तर्क तथा ज्ञान-विज्ञान से पुष्ट ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डाल कर श्रोता की इस विषय में पूर्ण सन्तुष्टि कराता है जिससे संसार के अन्य एतदसम्बन्धी ग्रन्थ निरर्थक से प्रतीत होते हैं। आठवां समुल्लास वैदिक सृष्टि विज्ञान से सम्बन्धित है जिसमें जगत की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय पर ज्ञान व विज्ञान से परिपूर्ण प्रकाश डाला गया है। यह ज्ञान संसार के अन्य सभी धर्म ग्रन्थों में प्रायः नदारद है जिससे उनकी न्यूनता व अपूर्णता प्रकट होती है।

 

सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के नवम समुल्लास में विद्या, अविद्या, बन्धन तथा मोक्ष, जन्म, मृत्यु, लोक व परलोक की ज्ञान से पूर्ण व्याख्या प्रश्नोत्तर शैली में कर वैदिक ज्ञान का संसार से लोहा मनवाया गया है। दसवें समुल्लास में आचार, अनाचार, भक्ष्य और अभक्ष्य आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। ग्याहरवां समुल्लास भारतवर्षीय नाना मत-मतान्तरों की अज्ञानपूर्ण मान्यताओं का परिचय कराता है और साथ हि उनका युक्ति व प्रमाणों से खण्डन किया गया है जिसका उद्देश्य सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग कराना मात्र है। बारहवें, तेरहवें व चैदहवें समुल्लासों में क्रमशः चारवाक-बौद्ध-जैन, ईसाई व मुस्लिम मत का विषय प्रस्तुत कर सत्य के ग्रहणार्थ उनकी कुछ मान्यताओं का परिचय दिया गया है। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करने पर मनुष्य को अपने कर्तव्य व धर्म का पूर्ण बोध होने के साथ अन्य मतों का परिचय भी मिलता है। सत्यार्थ प्रकाश के अनुरूप अन्य कोई ग्रन्थ संसार में नहीं है। इससे सत्य धर्म का निर्णय करने व उसका पालन करने का ज्ञान होता है जिससे मानव जीवन सफल होता है। सत्यार्थ प्रकाश वेदों पर आधारित ग्रन्थ है, इसमें दी गई मान्यतायें सार्वभौमिक है और विश्वस्तर पर इनका पालन होने से अशान्ति दूर होकर विश्व में शान्ति की स्थापना की पूर्ण सम्भावना परिलक्षित होती है। सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर मनुष्य सत्य विधि से ईश्वरोपासना करने वाला भक्त, वायु-जल-पर्यावरण का शुद्धि कर्ता, माता-पिता-आचार्य-विद्वानों-सच्चे-संन्यासियों की सेवा करने वाला, देश भक्त, समाज सेवी, ज्ञान-विज्ञान का पोषक व धारणकर्ता, स्त्रियों केा आदर व सम्मान देने वाला तथा वैदिक गुणों से धारित स्त्रियों को माता के समान मानकर उनका सम्मान करने वाला आदि अनेकानेक गुणों वाला मनुष्य निर्मित होता है। यह कार्य सत्यार्थ प्रकाश व वेद करते हैं जो अन्य किसी प्रकार से नहीं होता। सत्यार्थ प्रकाश का उद्देश्य किसी मत-मतान्तर का विरोध न कर केवल सत्य को प्रस्तुत करना व उसका पालन करने के लिये लोगों को प्रेरित करना है, यही इस ग्रन्थ की संसार के अन्य सभी ग्रन्थों से विशिष्टता है। हम सत्यार्थ प्रकाश को देवता कोटि के मनुष्यों द्वारा रचित ग्रन्थों में सर्वोत्तम ग्रन्थ पाते हैं, इसलिये हमें यह ग्रन्थ सर्वाधिक प्रिय है। इसके लेखक महर्षि दयानन्द में आदर्श महापुरूष के सभी दिव्य गुण क्रियायें विद्यमान होने उन्होंने समाज, देश विश्व की उन्नति के लिए जो अवदान वा योगदान दिया है, इस कारण उन्हें सर्वोत्तम आदर्श महापुरूष मानते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने वैदिक विचारधारा, मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार के लिए 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। आर्यसमाज ने वेदों के प्रचार प्रसार, कुरीति उन्मूलन, सामाजिक विषमता दूर कर समरसता स्थापित करने सहित देश को स्वतन्त्र कराने में प्रमुख भूमिका अदा की है। सम्प्रति समय के साथ कुछ शिथिलतायें भी संगठन में आयीं हैं जिसको दूर करना नितान्त आवश्यक है जिससे कि प्रभावशाली तरीके से वेदों का प्रचार प्रसार हो और संगठन सुदृढ़ एवं आदर्श बने। महर्षि दयानन्द, सत्यार्थप्रकाश और आर्यसमाज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पूर्ण अंहिसात्मक संगठन है और पे्रम व सदभावपूर्वक ज्ञान का प्रचार करता है। इसके मूल में अपनी संख्या बढ़ाने हेतु हिंसा, लोभ, लालच, छल व प्रपंच वर्जित हैं। यह प्राणी मात्र के प्रति दया रखता है। कोई भी सच्चा आर्यसमाजी मांसाहार व मदिरापान, अण्डे व अभक्ष्य पदार्थों का सेवन नहीं करता। आर्यसमाज व वैदिक धर्म के दरवाजे सभी मतों के अनुयायियों के लिये खुले हैं। कोई भी यहां आकर सदाचरण कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधना कर सफलता प्राप्त कर सकता है। आर्यसमाज ने दलितों सहित सभी वणों के बन्धुओं वैदिक विद्वान बनाने के साथ पुरोहित बनाया है और सभी स्त्रियों को वेद विदुषी भी बनाया है। अनेक कार्यों में यह भी उसका अभूतपूर्व कार्य है। हम यहां यह भी कहना चाहते हैं कि विश्व भर में चर्चित योग वेदों की ही देन हैं। महर्षि पतंजलि के योग दर्शन का आधार वेद ही हैं। संसार का कोई मनुष्य यह नहीं कह सकता कि वह योग को स्वीकार नहीं करता। सबके जीवन में कहीं अधिक कहीं कुछ कम योग समाया हुआ है। किसी किसी रूप में आसान, व्यायाम प्राणायाम सभी करते हैं। योग के दो अंग यम नियम तथा इनके उपांग अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान को भी प्रायः संसार के सभी लोग मानते इन पर आचरण करते हैं। अतः हमारा मानना है कि संसार के सभी मतों के लोग आंशिक रूप से योग करते हैं। जो योग से परहेज करते हैं उन्हें योग को पूर्णतया अपने जीवन का अंग बनाना चाहिये। इसमें उन्हीं का लाभ कल्याण है। हम यह भी कहना चाहते हैं कि हम आज जो कुछ हैं, उसमें महर्षि दयानन्द, सत्यार्थप्रकाश और आर्यसमाज की महत्वपूर्ण भूमिका है। लेख विस्तृत हो गया है अतः इन्हीं शब्दों के साथ हम लेखनी को विराम देते हैं और सभी पाठकों से आग्रह करते हैं कि सत्यार्थप्रकाश का जीवन में बार-बार पाठ करें। इससे आपको वह मिलेगा जो संसार के अन्य ग्रन्थों का अध्ययन करने से नहीं मिल सकता।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘गुजरात के सोमनाथ मन्दिर की लूट पर महर्षि दयानन्द का शिक्षाप्रद व्याख्यान’-मनमोहन कुमार आर्य

महर्षि दयानंद सरस्वती मूर्तिपूजा का वेदविरुद्ध व अकरणीय मानते थे। उनका यह भी निष्कर्ष था कि देश के पतन में मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, बाल विवाह, विधवाओं की दुर्दशा, पुरूषों के चारित्रिक ह्रास, सामाजिक कुव्यवस्था, असमानता व विषमता तथा स्त्री व शूद्रों की अशिक्षा आदि कारण प्रमुख थे। विचार करने पर महर्षि दयानन्द की बातें सत्य सिद्ध होती हैं। सत्यार्थ प्रकाश महर्षि दयानन्द जी का प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के ग्याहरवें समुल्लास में आर्यावर्तीय मतमतान्तरों का खण्डन-मण्डन विषय प्रस्तुत किया गया है। ग्याहरवें समुल्लास की भूमिका में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि इस समुल्लास में उनके द्वारा प्रस्तुत खण्डन मण्डन कर्म से यदि लोग उपकार न मानें तो विरोध भी न करें। क्योंकि उनका तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने के लिये है न कि वादविवाद व विरोध करने कराने के लिये। इसी मत-मतान्तर के विवाद से जगत् में जो-जो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और आगे भी होंगे, उन को पक्षपातररहित विद्वज्जन जान सकते हैं। जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरूद्ध वाद न छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईष्र्या द्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सब को विरोध-जाल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन (स्वार्थ) में फंस कर सब के प्रयोजन (हित कल्याण) को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें। इस के होने की युक्ति इस (ग्रन्थ) की पूर्ति में लिखेंगे (यह युक्ति महर्षि दयानन्द ने पुस्तक के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश के अन्र्तगत लिखी है)। सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों की आत्माओं में प्रकाशित करे। आगामी सोमनाथ मन्दिर की घटना को पढ़ते हुए पाठकों को महर्षि दयानन्द के इन शब्दों में व्यक्त की गई भावना को अपने ध्यान में अवश्य रखना चाहिये।

 

सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने प्रश्नोत्तर शैली में सोमनाथ मन्दिर के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। प्रश्न करते हुए वह लिखते हैं कि देखो ! सोमनाथ जी (भगवान) पृथिवी के ऊपर रहता था और उनका बड़ा चमत्कार था, क्या यह भी मिथ्या बात है? इसका उत्तर देते हुए वह बताते हैं कि हां यह बात मिथ्या है। सुनो ! मूर्ति के ऊपर नीचे चुम्बक पाषाण लगा रक्खे थे। इसके आकर्षण से वह मूर्ति अधर में खड़ी थी। जब महमूद गजनवी आकर लड़ा तब यह चमत्कार हुआ कि उस का मन्दिर तोड़ा गया और पुजारी भक्तों की दुर्दशा हो गई और लाखों फौज दश सहस्र फौज से भाग गई। जो पोप पुजारी पूजा, पुरश्चरण, स्तुति, प्रार्थना करते थे कि ‘हे महादेव ! इस म्लेच्छ को तू मार डाल, हमारी रक्षा कर, और वे अपने चेले राजाओं को समझाते थे कि आप निश्चिन्त रहिये। महादेव जी, भैरव अथवा वीरभद्र को भेज देंगे। ये सब म्लेच्छों को मार डालेंगे या अन्धा कर देंगे। अभी हमारा देवता प्रसिद्ध होता है। हनुमान, दुर्गा और भैरव ने स्वप्न दिया है कि हम सब काम कर देंगे। वे विचारे भोले राजा और क्षत्रिय पोपों के बहकाने से विश्वास में रहे। कितने ही ज्योतिषी पोपों ने कहा कि अभी तुम्हारी चढ़ाई का मुहूर्त नहीं है। एक ने आठवां चन्द्रमा बतलाया, दूसरे ने योगिनी सामने दिखलाई। इत्यादि बहकावट में रहे।

 

जब म्लेच्छों की फौज ने आकर मन्दिर को घेर लिया तब दुर्दशा से भागे, कितने ही पोप पुजारी और उन के चेले पकड़े गये। पुजारियों ने यह भी हाथ जोड़ कर कहा कि तीन क्रोड़ रूपया ले लो मन्दिर और मूर्ति मत तोड़ो। मुसलमानों ने कहा कि हम बुत्परस्त नहीं किन्तु बुतशिकन् अर्थात् मूर्तिपूजक नहीं किन्तु मूर्तिभंजक हैं और उन्होंने जा के झट मन्दिर तोड़ दिया। जब ऊपर की छत टूटी तब चुम्बक पाषाण पृथक् होने से मूर्ति गिर पड़ी। जब मूर्ति तोड़ी तब सुनते हैं कि अठारह करोड़ के रत्न निकले। जब पुजारी और पोपों पर कोड़ा अर्थात कोड़े पड़े तो रोने लगे। मुस्लिम सैनिकों ने पुजारियों को कहा कि कोष बतलाओ। मार के मारे झट बतला दिया। तब सब कोष लूट मार कूट कर पोप और उन के चेलों को गुलाम बिगारी बना, पिसना पिसवाया, घास खुदवाया, मल मूत्रादि उठवाया और चना खाने को दिये। हाय ! क्यों पत्थर की पूजा कर (हिन्दू) सत्यानाश को प्राप्त हुए? क्यों परमेश्वर की (सत्य वेद रीति से) भक्ति की? जो म्लेच्छों के दांत तोड़ डालते और अपना विजय करते। देखो ! जितनी मूर्तियां हैं उतनी शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती? पुजारियों ने इन पाषाणों की इतनी भक्ति की किन्तु मूर्ति एक भी उन (अत्याचारियों) के शिर पर उड़ के न लगी। जो किसी एक शूरवीर पुरुष की मूर्ति के सदृश सेवा करते तो वह अपने सेवकों को यथाशक्ति बचाता और उन शत्रुओं को मारता।

 

उपर्युक्त पंक्तियों में महर्षि दयानन्द जी ने जो कहा है वह एक सत्य ऐतिहासिक दस्तावेज है। इससे सिद्ध है कि पुजारियों सहित सैनिको व देशवासियों के अपमान व पराजय का कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अन्धविश्वास, पाखण्ड, ढ़ोग, वेदों को विस्मृत कर वेदाचरण से दूर जाना आदि थे। यह कहावत प्रसिद्ध है कि जो व्यक्ति व जाति इतिहास से सबक नहीं सीखती वह पुनः उन्हीं मुसीबतों मे फंस जाती व फंस सकती है अर्थात् इतिहास अपने आप को दोहराता है। महर्षि दयानन्द ने हमें हमारी भूलों का ज्ञान कराकर असत्य व अज्ञान पर आधारित मिथ्या विश्वासों को छोड़ने के लिये चेताया था। हमने अपनी मूर्खता, आलस्य, प्रमाद व कुछ लोगों के स्वार्थ के कारण उसकी उपेक्षा की। आज भी हम वेद मत को मानने वाली हिन्दू जनता को सुसंगठित नहीं कर पाये जिसका परिणाम देश, समाज व जाति के लिए अहितकर हो सकता है। महर्षि दयानन्द ने वेदों का जो ज्ञान प्रस्तुत किया है वह संसार के समस्त मनुष्यों के लिए समान रूप से कल्याणकारी है। लेख की समाप्ति पर उनके शब्दों को एक बार पुनः दोहराते हैं- जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरूद्ध वाद छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईष्र्या द्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहैं तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।यदि ये (मतमतान्तर वाले) लोग अपने प्रयोजन (स्वार्थ) में फंस कर सब के प्रयोजन (हित कल्याण) को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें। आईये, सत्य को ग्रहण करने व असत्य का त्याग करने का व्रत लें। इसके लिये वेदों का स्वाध्याय करें और वेदानुसार ही जीवन व्यतीत करें जिससे देश, समाज व विश्व को लाभ प्राप्त हो।

 

            –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि दयानन्द और अपमान

प्रत्येक व्यक्ति सोचने समझने के लिए स्वतंत्र हैं . वह अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार परिस्थिति के आंकलन के अनुसार निर्णय लेकर कार्य करता है . एक वर्ग ऐसा  भी होता  जो किसी अन्य के विचारों को  बिना सोचे समझे अनुपालन करना आरम्भ कर देते हैं वहीं  कुछ किसी न किसी कारणवश उनकी बातों से सहमत नहीं होते  . यह मानव जाती का स्वभाव और व्यवहार में प्रदर्शित होता  है .

यही कारण है की महापुरुषों के जहाँ अनुगामी लोगों की पचुरता होती है वहीं ऐसे लोगों का समूह भी होता है जो उनकी बातों से सहमत नहीं होते.  महापुरुष विरोधियों की बातों को सुनने और उनकी कटाक्षों को सहने की सामर्थ्य रखते हैं और इनसे विचलित नहीं होते उनका यही आचरण उन्हें दूसरों से भिन्न और महान बना देता है .

स्वामी दयानन्द भी इसके अपवाद नही थे . महर्षि दयानन्द जी के पूना  प्रवास के दौरान वहां के सम्माननीय लोगों ने ऋषी के सम्मान में एक जूलूस ऋषि दयानन्द को हाथी पर बिठा कर अश्व और गाजे बाजे के साथ निकाला . ( देवेन्द्र बाबू द्वारा रचित जीवन चरित्र )

वहीं पौराणिक पक्ष ने इसके विरोध में दूसरा जूलूस  निकाला और जिसमें एक गधे को सजाकर उस पर गधानंद लिख दिया .

पूना से प्रकाशित लोक हितवादी पत्रिका के फरवरी १८८३ के अंक में सम्पादक ने इस घटना के बारे में ऋषि दयानन्द के लिए लिखा है :

मान अपमान में समबुद्धि ऋषि दयानन्द :

“जैसे राजा की सवारी का हाथी गाँव के उपद्रवी कुत्तों के भौंकने से तनिक भी नहीं डरता वैसे ही हमारा यह बड़ी प्रसंशा के योग्य प्रबल वीर उपर्युक्त लोगों की असंख्य कुचेष्टाओं से कभी तनिक भी नहीं डगमगाया

ऐसे जगतपूज्य महानुभाव के साथ हमारे पूना के समान अत्यंत सभ्य नगर में कभी कोई ऐसा छल नहीं करना चाहिए था परन्तु कुटिल स्वार्थी और मत्सरी लोगों ने अपने साथ इस नगर को भी कलंकित कर दिया .

खैर ! जहाँ उत्तम लोग रहते हैं वहां चांडालों के घर भी होते हैं . इस लोकोप्ती से यदि हम अपने मन को संतोष भी करा लें तो भी यह बात बुरी हो गयी . इसलिए यहाँ के बहुत से सज्जन और विद्वान लोगों ने स्वामी जी के पास जाकर बहुत खेद व्यक्त किया परन्तु धन्य वह तपोनिधि ! जिसके धैर्य , गाम्भीर्य और शौर्य में तनिक भी अंतर पड़ा हुआ किसी के देखने में नहीं आता .

ऋषि दयानन्द का चरित्र, विद्वता उनका आचरण था ही अद्वितीय जिसे देखकर सभी मंत्रमुग्ध हो जाते थे .आलोचनाओं का ऋषी दयानन्द के व्यवहार उनके कार्य पर क्या प्रभाव पढ़ा पूना से प्रकाशित लोक हितवादी पत्रिका के फरवरी १८८३ के अंक में सम्पादक का लेख और ऋषी दयानन्द के लिए प्रयुक्त उनके शब्द और सम्पादक की इस घटना के उनके शहर में घटित होने को लेकर ग्लानी स्वयं वर्णन कर रही है .इस बारे में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं .

आवश्यकता इस बात पर विचार करने की है  कि आज ऋषि दयानन्द को लेकर जब एक वर्ग अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करे  तो  हमारा व्यवहार कैसा हो !. क्या हमें ऋषी दयानन्द के व्यवहार आचरण से शिक्षा ग्रहण करनी है या निरंकुश आतताइयों के अनुकूल व्यवहार करना हमारा ध्येय होना चाहिए .

हमारा व्यवहार उन आदर्शों उन सिद्धांतों की कसोटी पर हो जिनका  हमारे पूर्वजों हमारे सम्माननीय विभूतियों ने अनुगमन किया है .

 

ओ३म् ‘क्या देश ने महर्षि दयानन्द को उनके योगदान के अनुरूप स्थान दिया?’ -मनमोहन कुमार आर्य

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने भारत से अज्ञान, अन्धविश्वास आदि दूर कर इनसे पूर्णतया रहित सत्य सनातन वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना की थी और इसे मूर्तरूप देने के लिए आर्यसमाज स्थापित किया था। वैदिक धर्म की यह पुनस्र्थापना इस प्रकार से है कि सत्य, सनातन, ज्ञान व विज्ञान सम्मत वैदिक धर्म महाभारत काल के बाद विलुप्त होकर उसके स्थान पर नाना प्रकार के अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानतायें व पाखण्डों से युक्त पौराणिक मत ही प्रायः देश में प्रचलित था जिससे देश का प्रत्येक नागरिक दुःख पा रहा था। अज्ञान व अन्धविश्वास ऐसी चीजें हैं कि यदि परिवार में एक दो सदस्य भी इनके अनुगामी हों, तो पूरा परिवार अशान्ति व तनाव का अनुभव करता है। देश की जब बहुत बड़ी जनता अन्धविश्वासों में जकड़ी हुई हो, तो फिर सारे देश पर उसका दुष्प्रभाव पड़ता ही है और ऐसा ही महर्षि दयानन्द जी के समय में हो रहा था। उनके आगमन से पूर्व वैदिक धर्म के अज्ञान व अन्धविश्वास के कारण तथा विश्व में सत्य धर्म का प्रचार न होने के कारण अविद्यायुक्त मत उत्पन्न हो गये थे जो हमारे सनातन वैदिक धर्म की तुलना में सत्यासत्य की दृष्टि से निम्नतर थे। महर्षि दयानन्द ने सत्य धर्म का अनुसंधान किया और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सृष्टि की आदि में ईश्वर से ऋषियों को प्राप्त ज्ञान ‘‘चार वेद ही वास्तविक धर्म की शिक्षायें हैं जिनका संसार के प्रत्येक व्यक्ति को आचरण करना चाहिये तभी वसुधैव कुटुम्बकम् का स्वप्न साकार होने के साथ विश्व में सुख व शान्ति स्थापित हो सकती है। स्वामी दयानन्द जी को सद्ज्ञान प्रदान कराने वाले गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा थे। उन्होंने गुरू दक्षिणा में उनसे देश से अज्ञान व अन्धविश्वास मिटाकर देश में वैदिक सूर्य को पूरी शक्ति के साथ प्रकाशित करने का दायित्व सौंपा था जिसे अपूर्व शिष्य महर्षि दयानन्द ने स्वीकार किया और उसका प्राणपण से पालन किया। इतिहास में स्वामी विरजानन्द सरस्वती जैसे गुरू और स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे शिष्य देखने को नहीं मिलते। ऐसा भी कोई महापुरूष इस देश विश्व में नहीं हुआ जिसे इतनी अधिक समस्याओं के साथ एक साथ जूझना पड़ा हो जितना की स्वामी दयानन्द जी को जूझना पड़ा।

 

स्वामी दयानन्द के समय देश धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों से गम्भीर रूप से ग्रसित था। राजनैतिक दृष्टि से भी यह स्वतन्त्र न होकर पहले मुगलों तथा बाद में अंग्रेजों का गुलाम बना। यह परतन्त्रता ईसा की आठवीं शताब्दी से आरम्भ हुई थी। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से चार ऋषियों को आध्यात्मिक व भौतिक अर्थात् परा व अपरा विद्याओं का ज्ञान ‘‘वेद’’ प्राप्त हुआ था। सृष्टि के आरम्भ से बाद के समय में उत्पन्न सभी ऋषियों व राजाओं ने इसी वैदिक धर्म का प्रचार कर सारे संसार को अन्धविश्वासों से मुक्त किया हुआ था। लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत काल के बाद वेदों का प्रचार प्रसार बाधित हुआ जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत में सर्वत्र अज्ञान व अन्धविश्वास फैल गया और इसका प्रभाव शेष विश्व पर भी समान रूप से हुआ। अज्ञानता व अन्धविश्वासों के परिणाम से देश में सर्वत्र मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, बाल विवाह, पुनर्विवाह न होना, सतीप्रथा, विधवाओं की दयनीय दशा, जन्मना जातिवाद, स्त्रियों व शूद्रों को वेद आदि की शिक्षा का अनाधिकार आदि के उत्पन्न होने से देश व समाज का घोर पतन हुआ। यह समय ऐसा था कि लोग धर्म के सत्यस्वरूप को तो भूले ही थे, ईश्वर व आत्मा के स्वरूप सहित अपने कर्तव्यों को भी भूल गये थे। विधर्मी हमारे बन्धुओं का जोर-जबरस्ती, प्रलोभन व नाना प्रकार के छल द्वारा धर्मान्तरित करते थे। हिन्दू समाज के धर्म गुरूओं को इसकी किंचित भी चिन्ता नहीं थी। ऐसे समय में महर्षि दयानन्द का आगमन हुआ जैसे कि रात्रि के बीतने के बाद सूर्योदय होता है।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों का उद्घोष कर कहा कि वेद ईश्वरीय ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों में कोई बात अज्ञानयुक्त असत्य नहीं है। वेद ज्ञान का उद्देश्य मनुष्यों को धर्म अधर्म तथा सत्य असत्य की शिक्षा देकर कर्तव्य अकर्तव्य का बोध कराना है। वेद विहित कर्तव्य ही धर्म तथा वेद निषिद्ध कार्य ही अधर्म कहलाते हैं। मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, बाल विवाह, अनमेल विवाह को उन्होंने वेद विरूद्ध कार्य बताया। उन्होंने पूर्ण युवावस्था में समान गुण, कर्म व स्वभाव वाले युवक युवती के विवाह को वेद सम्मत बताया। वह सबको वेद आदि शास्त्रों सहित ज्ञान व विज्ञान से पूर्ण एक समान, अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा के पक्षधर थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्णो को वह गुण, कर्म व स्वभावानुसार मानते थे तथा जन्मना जाति वा जन्मा मिथ्या वर्ण व्यवस्था के प्रथम व सबसे बड़े विरोधी थे। उन्होंने देश व जाति के पतन के कारणों पर विचार व अनुसंधान किया और इसकी जड़ में उन्होंने वेद विद्या का अनभ्यास, ब्रह्मचर्य का पालन न करना, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, बाल व अनमेल विवाह सहित बहु विवाह एवं व्यभिचार, जन्मना जाति व्यवस्था, सामाजिक असमानता आदि को कारण बताया। उन्होंने पूरे देश में एक जन आन्दोलन चलाया व अनेक कुप्रथाओं का उन्मूलन भी किया। वह आर्य भाषा हिन्दी के प्रबल समर्थक और गोहत्या सहित सभी पशुओं के प्रति हिंसा वा मांसाहार के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने एक निराकार व सर्वव्यापक ईश्वर की उपासना का सन्देश दिया। वह त्रैतवाद के उद्घोषक थे व उन्होंने उसे तर्क, युक्ति व न्याय की कसौटी पर सत्य सिद्ध किया। ईश्वर की उपासना की सही विधि उन्होंने देश वा विश्व को दी। ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य स्वरूप का भी उन्होंने अनुसंधान कर प्रचार किया। उन्होंने सभी धर्मों का अध्ययन कर पाया कि संसार के सभी मनुष्यों का एक ही धर्म है और वह है सत्याचरण। सत्य वह है जो वेद प्रतिपादित कर्तव्य हैं। उन्होंने वायु शुद्धि, स्वास्थ्य रक्षा और प्राणि मात्र के सुख तथा परजन्म के सुधार के लिए अग्निहोत्र यज्ञों का भी प्रचलन किया।

 

विधवा विवाह का उनके विचारों से समर्थन होता है, जो कि उन दिनों एक प्रकार से आपद धर्म था। उनकी एक मुख्य देन धार्मिक जगत में मतभेद व भ्रान्ति होने पर उसके निदान हेतु शास्त्रार्थ की प्राचीन पद्धति को पुनर्जीवित करना था। सभी मतों के विद्वानों से उन्होंने अनेक विषयों पर शास्त्रार्थ किये और वैदिक मान्तयाओं की सत्यता को देश व संसार के समक्ष सिद्ध किया। उनकी एक अन्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन शुद्धि की परम्परा को स्थापित करना था। उनके व उनके अनुयायियों के वेद प्रचार से अनेक स्वजाति व अन्य मतस्थ बन्धु प्रभावित हुए और उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक वैदिक धर्म स्वीकार किया। आजकल इस परम्परा को हमारे अनेक पौराणिक बन्धु भी अपना रहे हैं जो कि उचित ही है। शुद्धि का अर्थ है श्रेष्ठ मत व धर्म को ग्रहण करना और निम्नतर व हेय को छोड़ना। हम स्वयं पौराणिक परिवार के थे और हमने आर्यसमाज द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म को अपनाया है। शास्त्रार्थ व शुद्धि, यह दो कार्य, महर्षि दयानन्द के हिन्दू जाति के लिए वरदान स्वरूप कार्य हैं। उनकी एक प्रमुख देन सत्यार्थ प्रकाश व इतर वैदिक साहित्य का प्रणयन है। सत्यार्थ प्रकाश तो आज का सर्वोत्तम धर्म ग्रन्थ है। जो इसको जितना अपनायेगा, उसकी उतनी ही आध्यात्मिक भौतिक उन्नति होगी। महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायियों के प्रयत्नों के बाद भी मूर्तिपूजा जारी है जिसका बुद्धि संगत समाधान व वेदों में विधान आज तक कोई मूर्तिपूजा का समर्थक दिखा नहीं सका। अतीत में इसी मूर्तिपूजा व इन्हीं अन्धविश्वासों के कारणों से हमारा सार्वत्रिक पतन हुआ था। अन्य सभी अन्धविश्वास काफी कम हुए हैं जिससे देश में भौतिक सामाजिक उन्नति हुई है। इस सब देश समाज की उन्नति का श्रेय यदि सबसे अधिक किसी एक व्यक्ति को है तो वह हैं महर्षि दयानन्द सरस्वती। हम महर्षि दयानन्द की सभी सेवाओं के लिए उनको कृतज्ञता पूर्वक नमन करते हैं। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर जिन कार्यों को करणीय बताया और जिन अज्ञानपूर्ण कार्यों का विरोध किया, उसे संसार का सारा बुद्धिजीवी समाज स्वीकार कर चुका है जिससे दयानन्द जी के सभी कार्यों का महत्व निर्विवाद रूप से सिद्ध है।

 

एक काल्पनिक प्रश्न मन में यह भी उठता है कि यदि महर्षि दयानन्द भारत में न आते तो हमारे समाज व देश की क्या स्थिति होती। हमने जो अध्ययन किया है उसके आधार पर यदि महर्षि दयानन्द न आते तो हमारे समाज से अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां, मिथ्याचार, व्यभिचार, जन्मना जातिवाद, सामाजिक असमानता कम होने के स्थान पर कहीं अधिक वृद्धि को प्राप्त होती। विधर्मी हमारे अधिकांश भाईयों को अपने अपने मत वा धर्म में परिवर्तित करने का प्रयास करते और उसमें वह सफल भी होते, ऐसा पुराने अनुभवों से अनुमान कर सकते हैं। हिन्दू समाज में उस समय धर्मान्तरण को रोकने वाला तो कोई नेता व विद्वान था ही नहीं। इससे देश का सामाजिक वातावरण भयंकर रूप से विकृत हो सकता था। देश में स्वाधीनता के प्रति वह जागृति उत्पन्न न होती जो आर्य समाज की देन है। आर्य समाज ने आजादी में जो सर्वाधिक योगदान दिया है उसके न होने से देश के आजाद होने में भी सन्देह था। कुल मिलाकर देश की वर्तमान में जो स्थिति है उससे कहीं अधिक खराब स्थिति देश व समाज की होती। यदि महर्षि न आते तो वेद तो पूर्णतया लुप्त ही हो गये होते। योग व आयुर्वेद भी विलुप्त हो जाते या मरणासन्न होते। सच्ची ईश्वरोपासना से सारा संसार वंचित रहता। लोगों को सत्य धर्म व मत-मजहब-सम्प्रदाय का अन्तर पता न चलता। कुल मिलाकर स्थिति आज की तुलना में भयावह होती, यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है।

 

हमारे इस विवेचन से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि महर्षि दयानन्द देश में सबसे अधिक मान-सम्मान व आदर पाने के अधिकारी हैं। इस पर भी देश के प्रभावशाली लोगों ने अपने-अपने मत, अपने अपने हितों के साधक व राजनैतिक समीकरण में फिट होने वाले इच्छित व्यक्तियों को गुण-दोष को भूलकर मुख्य माना। आर्य समाज जिसने देश को ज्ञान विज्ञान सम्मत बनाने, देश को आजादी का मन्त्र देने व अंग्रेजों से प्रताड़ना मिलने पर भी देश की स्वतन्त्रता के लिए तिल तिल कर जलने का कार्य किया व समाज से असमानता दूर करने का महनीय व महानतम कार्य किया, उसकी देश की आजादी के बाद घोर उपेक्षा की गई है। आज का समय सत्य व यथार्थवाद का न होकर समन्वयवाद व स्वार्थवाद का अधिक दिखायी देता है। सब अपने अपने विचारों व विचारधाराओं के लोगों को ही श्रेष्ठ व ज्येष्ठ मानते हैं जबकि सत्य दो नहीं केवल एक ही होता है। हम निष्पक्ष भाव से विचार करने पर भी महर्षि दयानन्द को ही देश का महानतम महापुरूष पाते हैं। स्वार्थ, अज्ञानता तथा अपने व पराये में पक्षपात करने का यह युग इस देश में कभी समाप्त होगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। यह ईश्वर का संसार और ब्रह्माण्ड है। महर्षि दयानन्द तो अपना बलिदान देकर अपना एक एक श्वास इस देश को अर्पित कर चले गये हैं। अब तक भी देश में सत्य आध्यात्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा न होकर हमारे हृदयों में सर्वव्यापक सच्चिदानन्द परमात्मा के स्थान पर पाषाण देवता ही विराजमान हैं। यह स्थिति भी अप्रिय है कि आज आर्य समाज संगठनात्मक दृष्टि से शिथिल पड़ गया है। यहां भी वेद विरोधी व ऋषि द्रोही स्वार्थी व्यक्तियों की कमी नहीं है जो येन केन प्रकारेण अपना प्रभुत्व कायम रखना चाहते हैं।

 

यदि हमारे सभी देशवासी महर्षि दयानन्द के दिखाये मार्ग को सर्वात्मा स्वीकार कर लेते और उस पर चलते तो आज हम संसार में आध्यात्मिक व भौतिक प्रगति में प्रथम स्थान पर होते। कोई देश हमें आंखे दिखाने की कुचेष्टा नहीं कर सकता था। परन्तु नियति ऐसी नहीं थी। आज भी देशवासी एक मत, एक भाव, एक भाषा, एक सुख दुख के मानने वाले नहीं है। यहां तक कि ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ में दी गई संस्कृत भाषा व ईश्वरीय ज्ञान वेद भी देश व विश्व में राजनीति व हानि लाभ की दृष्टि से देखे जाते हैं। इसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है। इससे समाज बलवान होने के स्थान पर कमजोर हुआ है। महर्षि दयानन्द देश को आदर्श देश व विश्व गुरू बनाना चाहते थे, उनका वह स्वप्न अधूरा है। अनुभव होता है कि इसमें अनेक शताब्दियां लग सकती है। यह सत्य है कि देश व विश्व को सुखी, सम्पन्न, समृद्ध, एक भाव व विश्व गुरू बनाने में जो मार्ग महर्षि दयानन्द ने बताया है, वही एक मात्र सही मार्ग है और उसी पर चल कर ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का लक्ष्य प्राप्त होगा। नान्यः पन्था विद्यते अयनाय।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121