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-विश्व इतिहास की अन्यतम् घटना- ‘महर्षि दयानन्द ने देश व धर्म के लिए माता-पिता-बन्धु-गृह व अपने सभी सुखों का स्वेच्छा से त्याग किया’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत संसार में महापुरूषों को उत्पन्न करने वाली भूमि रहा है। यहां प्राचीन काल में ही अनेक ऋषि मुनि उत्पन्न हुए जिन्होंने वेदानुसार आदर्श जीवन व्यतीत किया। इन ऋषियों में से कुछ के नाम ही विदित हैं।  अनेक ऋषि मुनियों ने महान कार्यों को किया परन्तु उन्होंने न तो अपना आत्म वृतान्त ही लिखा और न ही अपनी कोई पहचान ही साहित्य आदि के माध्यम से देश में छोड़ी। समय व्यतीत होने के साथ कुछ ऋषियों ने कुछ ग्रन्थों का सृजन वा रचना की। उनके साहित्य में इतिहास में हुए कुछ प्रमुख ऋषियों के नामों का उल्लेख है। इसी प्रकार से इन ऋषियों के ग्रन्थों पर कुछ अन्य ऋषियों ने भाष्य आदि टीकायें लिख कर अपने समय के जन साधारण का कल्याण किया। इनमें भी कुछ ऐतिहासिक ऋषियों के नाम सुरक्षित हैं। महर्षि बाल्मिकी ने रामायण लिखकर स्वयं, श्री रामचन्द्र जी, रामायण काल के कुछ ऋषियों व राजाओं आदि के नाम व इतिहास सुरक्षित किए हैं। रामायण के बाद सबसे बड़ा व प्रमुख इतिहास ग्रन्थ हमारे पास महाभारत है। इसमें उस काल के अनेक राजाओं व विद्वानों का वर्णन है जिनमें से एक अति प्रतिष्ठित महापुरूष श्री कृष्ण हैं। महाभारत काल के बाद युधिष्ठिर के वंशज अनेक राजा महाराजा हुए। इन सबके विस्तृत नाम व वृतान्त आदि तो सुरक्षित नहीं हैं परन्तु महर्षि दयानन्द की कृपा से सत्यार्थ प्रकाश में एक सूची मिलती है जिसमें राजा युधिष्ठिर की वंश परम्परा में क्षेमक तक राजाओं व उनके राज्यकाल का विवरण वर्ष, महीनों व दिन तक की गणना किया हुआ मिलता है। यह कुल 30 पीढि़यों के 1770 वर्ष 11 मास व 10 दिनों का संक्षिप्त व संकेतित इतिहास व विवरण है। इसके बाद के राजाओं से लेकर सम्वत् 1249 विक्रमी तक राजा यशपाल के शासनकाल तक का विवरण सत्यार्थप्रकाश में अंकित सूची में है। इस प्रकार अब से लगभग 823 वर्ष पूर्व तक के राजाओं का विवरण महर्षि दयानन्द की कृपा से आज देश की जनता के लिए सुलभ हुआ है। जब भारत की ज्ञान विज्ञान से युक्त वेद कालीन प्राचीन धर्म व संस्कृति पर विचार करते हैं तो हमें अनेक धार्मिक ग्रन्थों के रचयिता ऋषि मुनियों सहित आदर्श राजा श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, राजनीति के आचार्य महात्मा चाणक्य, स्वामी शंकराचार्य और महर्षि दयानन्द जी का ज्ञान होता है जिन्होंने अपने अपने समयों में महान कार्य कर इस देश व विश्व के धर्म व संस्कृति के वातावरण को प्रभावित किया। आज के इस लेख में हम स्वामी दयानन्द सरस्वती जी पर कुछ विचार कर रहे हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने सन् 1847 में अपनी आयु के  बाईसवें वर्ष में सच्चे शिव, मृत्यु पर विजय और सद्ज्ञान की प्राप्ति के लिए गृह त्याग किया था।  सन् 1860 में वह मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द की कुटिया में पहुंचे और लगभग 3 वर्षों में उनसे आर्ष व्याकरण, वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन पूरा कर सन् 1863 में गुरू की प्रेरणा व आज्ञा से देश व धर्म के सुधार के लिए कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट हुंए। उन्होंने नवम्बर, 1869 में काशी नरेश की मध्यस्थता में काशी के लगभग 30 विद्वानों से मूर्तिपूजा पर इतिहास प्रसिद्ध शास्त्रार्थ किया था। इस शास्त्रार्थ में लगभग 50 हजार लोग उपस्थित थे। पौराणिक विद्वान मूर्तिपूजा को वेद विहित सिद्ध नहीं कर सके थे। तदन्तर उन्होंने धर्म व वेद प्रचार के निमित्त मौखिक उपदेश व वार्तालाप सहित शास्त्रार्थ आदि द्वारा प्रचार किया और अपने मन्तव्यों के प्रचारार्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि अनेक ग्रन्थ लिखे। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि उन्होंने हिन्दी की महत्ता के कारण इतिहास में प्रथमवार धार्मिक विषयों को संस्कृत के स्थान पर हिन्दी भाषा में प्रस्तुत किया जिसका सुप्रभाव यह हुआ कि सामान्य व्यक्ति भी धर्म के मर्म को जानने में समर्थ हुआ और धर्म पर पण्डितों का एकाधिकार समाप्त हुआ। वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार के लिए उनके प्रमुख कार्यों में 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई के काकड़वाड़ी स्थान पर प्रथम आर्य समाज की स्थापना सहित सत्यार्थ प्रकाश और वेद भाष्य का प्रणयन आदि कार्य प्रमुख थे।

 

स्वामी जी जहां जहां वेद प्रचार हेतु जाते थे, उनके प्रवचनों में सम्मिलित लोगों में से अनेक उनसे अपना जीवन वृतान्त सुनाने का निवेदन करते थे। उन्होंने अगस्त, 1875 में पूना में दिये गये अपने प्रवचनों में से एक प्रवचन में अपने जीवन का वृतान्त प्रस्तुत किया था। इसके बाद थियोसोफिकल सोसायटी के संस्थापक कर्नल अल्काट की प्रेरणा व निवेदन पर उन्होंने अप्रैल, 1879 में अपना संक्षिप्त जीवनवृत्त लिखा। इस जीवनवृत्त के आरम्भ में उन्होंने लिखा है कि गृह त्याग के प्रथम दिन से ही जो मैंने लोगों को अपने पिता का नाम और अपने कुल का स्थान बताना अस्वीकार किया इसका यही कारण है कि मेरा कत्र्तव्य मुझे इस बात की आज्ञा नहीं देता। यदि मेरा कोई सम्बन्धी मेरे इस वृत्त से परिचय पा लेता तो वह अवश्य मेरे ढूंढने का प्रयत्न करता। इस प्रकार उनसे दो-चार होने पर मेरा उन के साथ घर जाना आवश्यक हो जाता। सुतरा एक बार पुनः मुझे धन हाथ में लेना पड़ता अर्थात् मैं गृहस्थ हो जाता। उनकी सेवा-शुश्रूषा भी मुझे करनी योग्य होती। और इस प्रकार उनके मोह में पड़कर सर्व सुधारों का वह उत्तम काम जिसके लिये मैंने अपना जीवन अर्पण किया है, तथा जो मेरा यथार्थ उद्देश्य है, जिसके अर्थ स्वजीवन-बलिदान करने की किंचित् चिन्ता नहीं की, और अपनी आयु (जीवन) को बिना मूल्य जाना, और जिसके अर्थ मैंने अपना (अपने जीवन का) सब कुछ स्वाहा करना अपना मन्तव्य समझा, अर्थात् देश का सुधार और धर्म का प्रचार, वह (मेरा) देश पूर्ववत् अन्धकार में पड़ा रह जाता। यहां महर्षि दयानन्द ने प्रसंगवश अपनी मृत्यु से साढ़े चार वर्ष पहले अपने जीवन का उद्देश्य बताने के साथ अपने मन की कुछ निजी बातें भी प्रकट की हैं जो कि अत्यन्त महत्वपूर्ण है और वही हमारे लेख का मुख्य विषय हैं।

 

उपर्युक्त पंक्तियों में महर्षि दयानन्द कह रहे हैं उन्होंने सर्व सुधारों के उत्तम काम के लिए ही अपना जीवन अर्पण किया है और यही उनका उद्देश्य है। आगे स्पष्ट कर सर्व सुधार से तात्पर्य उन्होंने देश का सुधार और धर्मं का प्रचार बताया है। महर्षि दयानन्द के इस वाक्य से ज्ञात होता था कि उनके समय में देश में अनेक क्षेत्रों में अन्धविश्वास, रूढि़वाद एवं पाखण्ड आदि अनेक विकृतियां विद्यमान थीं जिनसे देश कमजोर व अवनत हो गया था। इनका सुधार कर वह देश को सशक्त बनाना चाहते थे। देश का एक उत्कृष्ट वेदविद्यावान ब्रह्मचारी, अनेक शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमताओं से युक्त ऋषि तुल्य व्यक्ति देश के सुधार के लिए बिना किसी निजी प्रयोजन अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है, यह इतिहास की अपने प्रकार की अपूर्व घटना है। यहां हमें श्री रामचन्द्र जी की स्मृति हो आई। उन्होंने अपने पिता के वचनों की रक्षा के लिए वन जाना स्वीकार किया था। वहां प्रयोजन पिता के वचन थे। उनका विवाह हो चुका था और वनवास की अवधि में भी उनके अपने परिवार से सम्बन्ध बने रहे थे। श्री कृष्ण जी ने महाभारत के युद्ध में प्रमुख भूमिका निभाई। इसका कारण उनके पाण्डवों से संबंध थे। वह वैदिक विद्वान, योगी और राजनीतिज्ञ थे और सत्य व धर्म की रक्षा के लिए एक राजा होकर वह इस युद्ध में प्रवृत्त हुए थे। श्री कृष्ण जी ने विवाह भी किया और प्रद्युम्न के रूप में एक संस्कारित योग्य सन्तान को भी प्राप्त किया था। लेकिन स्वामी दयानन्द देश व धर्म के लिए अपने माता-पिता, धन, सम्बन्धों, विवाह, सन्तान, शारीरिक सुख व अपने जीवन आदि सभी कुछ को ईश्वर, देश व धर्म के लिए त्याग कर रहे हैं। अपने महानतम उद्देश्य की पूर्ति के प्रति वह श्री रामचन्द्र जी व श्री कृष्ण जी के समान ही योग्य, सक्षम व समर्थ थे। इस कार्य को उन्होंने प्राणपण से किया। इसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली और अपने उद्देश्य के लिए ही उन्होंने मात्र 58 वर्ष 8 महीने के अल्प जीवन में ही अपना बलिदान किया। उन्होंने जो कार्य किया वह इतिहास में अभूतपूर्व है। स्वामी दयानन्द के कार्यों व बलिदान का महत्व इस कारण भी है कि भारतवासी धर्म के यथार्थ व सत्य स्वरूप को भूल चुके थे। ईश्वर के स्वरूप व उपासना का ज्ञान भी भारतवासियों को नहीं था। यज्ञ का स्वरूप विकृत कर दिया गया था और सत्य स्वरूप का किसी को ज्ञान ही नहीं था। इसी कारण बौद्धमत अस्तित्व में आया और सनातन वैदिक धर्म का पराभव हुआ। देश में बाल विवाह होते थे जिससे विवाहित बालक-बालिकाओं की मृत्यु दर वृद्धि को प्राप्त हो रही थी। निस्तेज व अल्पजीवी सन्तानें उत्पन्न होती थीं। विधवाओं की दुर्दशा हो रही थी। स्त्रियों व दलितों के अध्ययन के अधिकारों तक को छीन लिया गया था। वेदों के यथार्थ विद्वान होना बन्द हो गये थे। सभी मनुष्यों का धर्म एक है। इस एक धर्म की अनेकानेक अन्धविश्वासों से युक्त शाखायें एवं प्रशाखायें उत्पन्न हो गईं थीं जो भोले-भाले लोगों का शोषण करती थीं। ब्राह्मण वर्ण व वर्ग को सभी प्रकार के अधिकार थे, अन्याय करने पर भी दण्ड का कोई विधान नहीं था और अन्यों पर अन्याय व शोषण किया जाता था। देश को कृत्रिम जन्मना-जाति व उपजातियायें में बांट दिया गया था जिससे देश कमजोर हुआ व हो रहा है। इन सब सामाजिक दोषों को दूर करने के साथ स्वामी दयानन्द ने वेदों का सत्य स्वरूप प्रकाशित किया, स्त्रियों व शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार दिया, सभी सामाजिक विषमतायें एवं अन्याय दूर किये और ईश्वर का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत कर उसकी सच्ची उपासना और यज्ञों का उद्धार किया। देश व विश्व का इतना उपकार करने पर भी देश के लोगों ने उनके उपकार बदला उन का अपमान, विरोध, अनेक बार उन्हें विष देकर तथा उनके प्राण लेकर दिया। हमें समझ में नहीं आता कि हम अपनी जाति को क्या कहें जो अपने ही त्राता के प्राणों का घात करती है। यहां यह उक्ति चरितार्थ होती है तू खाक उसे करना चाहे जो तेरा बेड़ा पार करे। अतः स्वामी दयानन्द ने सर्वसुधारों के लिए अपने प्राण देकर अपने वचनों को सत्य सिद्ध किया जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया था। हम अनुभव करते हैं कि उनके उपकारों से देश कभी उऋ़ण नहीं हो सकता।

 

अपने वचनों में स्वामी दयानन्द जी ने यह भी कहा है कि सुर्वसुधारों के अर्थ उन्होंने स्वजीवन-बलिदान करने का किंचित् विचार व चिन्ता नहीं की, और अपनी आयु (जीवन) को बिना मूल्य जाना, और जिसके अर्थ उन्होंने अपना सब कुछ स्वाहा करना अपना मन्तव्य समझा, अर्थात् देश का सुधार और धर्म का प्रचार, अन्यथा देश पूर्ववत् अन्धकार में पड़ा रह जाता। महर्षि के यह वाक्य भी उनके जीवन एवं कार्यों पर दृष्टि डालने पर सत्य सिद्ध होते हैं। महर्षि दयानन्द के अनुयायियों को यह देखकर दुःख होता है कि यह देश सत्य को जानने के प्रति सजग न होकर उदासीन है। सत्य का ग्रहण तो देशवासी तभी कर सकते हैं जबकि इन्हें सत्य गुरूओं का सान्निध्य व मार्गदर्शन प्राप्त हो। इसके लिए तो वैदिक साहित्य के अध्ययन की आवश्यकता है। अनार्ष ग्रन्थों को पढ़कर इन मत-पन्थ-सम्प्रदाय वादियों की बुद्धि भी इन मतों के अनुकुल हो गई है। मत-मतान्तरों के असत्य विचारों को पढ़ने व सुनने पर भी उनके मन में शंकायें  उत्पन्न नहीं होती? सत्य ज्ञान वेद के विरूद्ध सभी मत-मतान्तर अनेक असत्य व मिथ्या बातों का प्रचार करते हैं और उनके अनुयायी आंखें बन्द कर उन्हें स्वीकार कर लेते हैं जिससे ईश्वर व धर्म के विषय में सर्वत्र अन्धकार छाया हुआ है। अतः हमें महर्षि दयानन्द का तप व पुरूषार्थ पूर्ण सार्थक हुआ प्रतीत नहीं होता। आज भी चालाक व स्वार्थी लोग भोले भाले धर्मभीरू लोगों का शोषण करते हैं। उनमें से कुछ के अनैतिक कार्य भी समाज के सामने आते रहते हैं परन्तु देश की जनता फिर भी उदासीन रहती है। लोगों की इस मनोवृत्ति और अकर्मण्यता ने भविष्य में सत्य वैदिक धर्म की उन्नति पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। महर्षि दयानन्द के तप व पुरूषार्थ की पूर्ण सफलता न होने से देश के लिए भविष्य में विडम्बना सिद्ध हो सकती है जैसे कि पहले भी बनी है। अतः वेदों के प्रचार प्रसार की पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है। हम महर्षि दयानन्द के उन वाक्यों जिसमें उन्होंने अपनी भावनाओं को प्रकट किया और वैसा कर धर्म व देशोन्नति के लिए बलिदान हुए, नमन करते हैं। आज की परिस्थितियों में धर्म व देश सुधार के लिए हमें सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन और उसके अनुरुप सत्य मान्यताओं का प्रचार ही अभीष्ट लगता है। हम आशा करते हैं कि देश के प्रबुद्ध जन महर्षि दयानन्द के वैदिक साहित्य का निष्पक्ष रूप से अध्ययन कर धर्म व संस्कृति की रक्षा तथा देशोन्नति के लिए अपने कर्तव्य का निर्धारण कर उसका पालन करेंगे।

 

आज की परिस्थितियों में प्रासंगिक वैदिक विद्वान पं. राजवीर शास्त्री जी की जुलाई, 1998 में लिखी पंक्तियां प्रस्तुत हैं। वह लिखते हैं कि स्वाध्यायशील पाठकों और वेदभक्त आर्यपुरुषों के समक्ष दयानन्द-सन्देश मासिक पत्र का श्रावणी पर्व पर वेद-विशेषांक प्रस्तुत करते हुए जहां हमें अतीव प्रसन्नता हो रही है वहीं हमें वेद के प्रति अनास्था रखने वालों के प्रति सजगता एवं सतर्क रहने के लिए प्रोत्साहन भी मिल रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी में हमारे अन्दर वेद-ज्योति ने सन्मार्ग दर्शन होने से हमें सचेत किया था, आज वही ज्योति जिसने समस्त मतमतान्तर-वादियों के भीषण दुर्गों को ध्वस्त करके सत्य को ग्रहण करने के लिए उद्यत किया था, उन्हीं वेदानुयायियों को शिथिल, उपेक्षित, उत्साहहीन देखकर अत्यन्त दुःख भी होता है। इसका कारण स्वाध्यायहीनता व श्रद्धाहीनता भी है किन्तु अर्थ और काम की आसक्ति प्रमुख है। आज का मानव भौतिक चकाचौंध में इतना अधिक व्यस्त हो गया है कि जो आर्यजनता एक सजग-प्रहरी बनकर काम कर रही थी, वह भी उदासीन हो गयी है। महर्षि मनु ने सृष्टि के आरम्भ में ही आर्य जाति को सचेत करते हुए लिखा था-अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते। धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।। अर्थात् धर्म का ज्ञान उन व्यक्तियों को नहीं होता, जो अर्थ और काम अथवा कांचन कामिनी में आसक्त हैं और धर्म की जिज्ञासा रखने वालों को वेद ही परम प्रमाण है। महर्षि दयानन्द ने धर्म की जिज्ञासा को शान्त करने वाले परम प्रमाण वेदों को ही अपने प्रचार का मुख्य साधन बनाया था। आज भी वेद पूर्णरुपेण प्रासंगिक एवं व्यवहारिक है। वेदविहित व वेदानुकुल ही धर्म और वेद विरुद्ध सब कुछ अधर्म व पाप है।

 

लेख को विराम देते हुए आर्य महाकवि श्री वीरेन्द्र कुमार राजपूत की महर्षि दयानन्द पर कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैंः

 

जिसने गुरुदेव चरित्र पढ़ानिज मानस  जन्म सुधार लिया।

वह लौह सुवर्ण बना जिसने,   इस पारस को पहचान लिया।

पथभ्रष्ट अमीचन्द था, जिसका ऋषि ने  हाथ संभाल लिया,

गुरु ने जग से चलतेचलते जग को गुरुदत्त प्रदान किया।।          

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

नया सांस्कृतिक धार्मिक आक्रमणः- – राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्यसमाज के जन्मकाल से ही इस पर आक्रमण होते आये हैं। राजनैतिक स्वार्थों के  लिए राजनेताओं तथा राजनीतिक दलों ने भी समय-समय पर आर्य समाज पर निर्दयता से वार किये। विदेशी शासकों, देसी रजवाड़ों व विरोधियों ने भी वार किये। कमी किसी ने नहीं छोड़ी। समाज सुधार विरोधी पोंगा-पंथियों ने भी समय -समय पर डट कर वार किये। घुसपैठ करके कई एक ने आर्यसमाज का विध्वंस करने के लिए पूरी शक्ति लगा दी। गांधी बापू ने वेद पर, सत्यार्थप्रकाश पर, ऋषि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द पर बहुत चतुराई से प्रहार किया था। आर्य नेताओं तथा विद्वानों ने बड़े साहस से यथोचित उत्तर दिया। जवाहर लाल नेहरु ने भी लखनऊ में आर्यसमाज के महासमेलन में आर्य समाज पर घिनौना आक्रमण किया था। यह सन् 1963 की घटना है। तब भी आर्य समाज ने नकद उत्तर दिया था।

अब संघ परिवार एक योजनाबद्ध ढंग से अपनी पंथाई विचारधारा देश पर थोपने में लगा है। आर्यसमाज पर सीधा-सीधा आक्रमण होने लगा है। भाजपा के नये-नये मन्त्री-तन्त्री इस काम में जुट गये हैं। देहली में स्वामी विवेकानन्द की आड़ में श्री वी.के. सिंह ने अपनी सर्वज्ञता दिखाई। फिर गुरुकुल आर्यनगर हिसार के उत्सव पर हरियाणा के मन्त्रियों ने वही कुछ करते हुए संघ का जी भर कर बखान किया। इसके लिए गुरुकुल के प्रधान महाविद्वान्? सुमेधानन्द जी बधाई के पात्र हैं। वह भाजपा का ऋण चुकाने में लगे हैं।

  1. दत्त तथा चटर्जी नाम के दो बंगाली इतिहासकारों ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय थे जिन्होंने भारत भारतीयों केलिए घोष लगाया या सुनाया। स्वदेशी व स्वराज्य के इस घोष लगाने से उस युग का कौन-सा नेता व धर्मगुरु ऋषि दयानन्द के समकक्ष था? बड़ा होने का तो प्रश्न ही नहीं।
  2. जब स्वामी विवेकानन्द को कोई नरेन्द्र के रूप में भी अभी नहीं जानता था तब मथुरा की कुटी से दीक्षा लेकर महर्षि दयानन्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में गायत्री व यज्ञ हवन प्रचार, स्त्रियों को वेद का अधिकार, जाति भेद निवारण, अस्पृश्यता उन्मूलन व स्वदेशी का शंखनाद करने में लगे थे। उस काल में विदेश में निर्मित चाकूके प्रयोग से महर्षि का मन आहत हुआ। विदेशी वस्त्रों को तजकर ऊधो को स्वदेशी वस्त्रों के धारण करने की इसी काल में प्रेरणा दी गई। इससे पहले किसने स्वदेशी आन्दोलन का शंखनाद किया? स्वदेशी वस्तुओं व वस्त्रों के प्रयोग में सभी नेता व विचारक ऋषि दयानन्द को नमन करते आये हैं। अब संघ परिवार ने नया इतिहास गढ़ना आरभ किया है। जो मैक्समूलर तथा नेहरु न कर पाया वह भागवत जी के चेले करके दिखाना चाहते हैं।
  3. उन्नीसवीं शतादी के बड़े-बड़े विद्वान्, सुधारक और नेता प्रायः करके गोरी सरकार व गोरों की सर्विस में रहे। पैंशनधारी भी कई एक थे। स्वामी विवेकानन्द जी ने तो अंग्रेज जाति की कभी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की थी। गांधी जी की दृष्टि में सूर्य के तले और धरती के ऊपर अंग्रेज जाति जैसा न्यायप्रिय और कोई है ही नहीं। महर्षि दयानन्द ने किसी सरकार की, किसी राजा, महाराजा की नौकरी नहीं की। अंग्रेज जाति व अंग्रेज सरकार का कभी स्तुतिगान नहीं किया। हाँ। धर्मप्रचार की स्वतन्त्रता के लिए मुगलों की तुलना में वे अंग्रेजी राज की प्रशंसा करते थे।

न जाने किस आधार पर संघ परिवार स्वामी विवेकानन्द को उन्नीसवीं शतादी का सबसे बड़ा महापुरुष बताते हुए ऋषि दयानन्द को नीचा दिखाने पर तुला बैठा है। आश्चर्य का विषय है कि समर्थ गुरु रामदास व छत्रपति शिवाजी का गुणकीर्तन छोड़कर संघ ने स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श कैसे मान लिया?

स्वामी विवेकानन्द ने एक बार यह भी कहा था कि मुझे कायस्थ होने पर अभिमान या गौरव है। जो जन्म की जाति-पाँति पर इतराता है वह कितना भी बड़ा क्यों न हो वह आदर्श साधु महात्मा नहीं हो सकता। साधु की कोई जात व परिवार नहीं होता।

  1. अंग्रेजी न्यायालय का (Contempt of court) अपमान करने वाला सबसे पहला भारतीय महापुरुष महर्षि दयानन्द था। उन्हीं से प्रेरणा पाकर महात्मा मुंशीराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज) ने हुतात्मा कन्हाई लाल दत्त के अभियोग के समय बड़ी निड़रता से अंग्रेजी न्यायालय का अपमान ((Contempt of court)ç किया था। क्या किसी बड़े से बड़े नेता को इन दो ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिवाद करने की हिमत है?

ऋषि दयानन्द के काल की तो छोड़िये, महर्षि के बलिदान के पच्चीस वर्ष पश्चात् तकाी कोई भी भारतीय नेता अंग्रेजी न्यायपालिका (British Judiciary)का अपमान नहीं कर सका। न जाने संघ परिवार को महर्षि दयानन्द की यह विलक्षणता, गरिमा, बड़प्पन, देशप्रेम व शूरता क्यों नहीं दिखाई देती?

  1. किसी भी अन्य भारतीय महापुरुष द्वारा उस युग में न्यायपालिका के अपमान की घटना सप्रमाण दिखाने की विवेकानन्दी बन्धुओं को हमारी खुली चुनौती है। लोकमान्य तिलक को उन्नीसवीं शतादी के अन्तिम वर्षों में क्राफर्ड केस में अंग्रेजी न्यायालय ने दण्डित किया था। उन्हें बन्दी बनाया गया। सब नेता न्यायालय के निर्णय को माँ का दूध समझकर पी गये। कांग्रेस तब देश व्यापी हो चुकी थी। कौन बोला न्यायालय के इस घोर अन्याय पर? देशवासी नोट कर लें कि तब शूरता की शान स्वामी श्रद्धानन्द जी ने महात्मा मुंशीराम के रूप में इस निर्णय पर विपरीत टिपणी की थी। महात्मा जी की वह सपादकीय टिप्पणी हमारे पास सुरक्षित है।
  2. महर्षि दयानन्द जी सन् 1877 के सितबर अक्टूबर मास में जालंधर पधारे थे। तब आपने एक सार्वजनिक सभा में अपनी निर्भीक वाणी से दुखिया देश का दुखड़ा रखते हुए अंग्रेजी राज के अन्याय, पक्षपात तथा उत्पीड़न को इन शदों में व्यक्त किया थाः- ‘‘यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी की हत्या कर दे तथा वह (हत्यारा) न्यायालय में कह दे कि मैंने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैं।’’

इस व्यायान का सार सपूर्ण जीवन चरित्र महर्षि दयानन्द के पृष्ठ 73 पर कोई भी पढ़ सकता है। हुतात्मा पं. लेखराम जी ने स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन काल में अपने ग्रन्थ में यह पूरी घटना दे दी थी।

ऐसी निर्भीक वाणी उस युग के किसी भी साधु, सन्त व राजनेता के जीवन में दिखाने की क्या कोई हिमत करेगा?

जालन्धर के इसी व्यायान में ऋषि दयानन्द जी ने सन् 1857 की क्रान्ति को गदर (Mutiny) न कहकर विप्लव कहकर अपने प्रखर राष्ट्रवाद का शंख फूं का था। स्वातन्त्र्य वीर सावरकर जी ने वर्षों बाद हमारा प्रथम स्वातन्त्र्य संग्राम ग्रन्थ लिखकर घर-घर ऋषि की हुँकार पहुँचा दी। अंग्रेजी जानने वाले किसी और बाबा व नेता में तो इतनी हिमत न हुई।

  1. जब देशभक्त सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी को कारावास का दण्ड सुनाया गया तब महर्षि दयानन्द के मिशन के एक मासिक पत्र में सरकारी न्यायालय के इस अन्याय की निन्दा की गई। क्या किसी सन्यासी महात्मा ने देश में सुरेन्द्रनाथ जी के पक्ष में मुँह खोला या लिखा । हम इस घटना के प्रमाण स्वरूप अलय Document दस्तावेज दिखा सकते हैं।

दुर्भाग्य का विषय है कि आर्य समाज भी ऋषि की इन घटनाओं को विशेष प्रचारित (Highlight) नहीं करता।

  1. देश को सुनाना बताना होगा कि उन्नीसवीं शतादी के महापुरुषों में एकमेव सुधारक विचारक ऋषि दयानन्द थे जिन्होंने देश, धर्म व जाति हित में अपना बलिदान देकर बलिदान की परपरा चलाई। किसी और संगठन, किसी बाबा की परपरा में एक भी साधु, युवक, बाल, वृद्ध गोली खाकर, फांसी पर चढ़कर, छुरा खाकर, जेल में गल सड़कर देश धर्म के लिए बलिवेदी पर नहीं चढ़ा। यहाँ पं. लेखराम जी से लेकर वीर राम रखामल (काले पानी में), वीर वेदप्रकाश, भाई श्यामलाल और धर्मप्रकाश, शिवचन्द्र तक शहीदों की एक लबी सूची है। सेना प्रमुख श्रीयुत वी.के.सिंह तथा आर्यनगर हिसार में सुमेधानन्द महाराज की बुलाई नेता-पलटन इतिहास को क्या जाने?
  2. महर्षि दयानन्द का पत्र व्यवहार पढ़िये। प्रत्येक दो या तीन पत्रों के पश्चात् प्रत्येक पत्र में देश जाति के उत्थान कल्याण की ऋषि बात करते हैं। किसी अंग्रेजी पठित साधु, नेता के जीवन चरित्र व पत्रावली में ऐसा उद्गार, ऐसी पीड़ा और गुहार दिखा दीजिये। ऋषि दयानन्द की देन व व्यक्तित्व का अवमूल्यन करने वाले सब तत्त्वों को यह मेरी चुनौती है कि इन दस बिन्दुओं को सामने आकर झुठलावें।

देश की परतन्त्रता में मूर्तिपूजा की भूमिका पर महर्षि दयानन्द का सन् 1874 में दिया एक हृदयग्राही ऐतिहासिक उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमने विगत तीन लेखों में महर्षि दयानन्द के सन् 1874 में लिखित आदिम सत्यार्थ प्रकाश से हमारे देश आर्यावर्त्त में महाभारत काल के बाद अज्ञान व अन्धविश्वासों में वृद्धि, मूर्तिपूजा के प्रचलन, मन्दिरों के विध्वंश व इनकी अकूत सम्पत्ति की लूट, देश की परतन्त्रता आदि कारणों पर उनके उपदेशों को प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में यह एक अन्य उपदेश प्रस्तुत कर इस श्रृंखला का समापन कर रहे हैं। महर्षि दयानन्द अपने इस उपदेश में कहते हैं कि देश के चार ब्राह्मणों ने अच्छा विचार किया कि कोई क्षत्रिय राजा इस देश में अच्छा नहीं है, इसका कुछ उपाय करना चाहिए। वे चारों ब्राह्मण अच्छे थे, क्योंकि सब मनुष्यों के ऊपर कृपा करके उन्होंने अच्छी बात विचारी। ऐसा करना अच्छे पुरुषों का काम है बुरों का नहीं। फिर उन्होंने क्षत्रियों के बालकों में से चार अच्छे बालक छांट लिए और उन क्षत्रियों से कहा कि तुम लोग बालकों के खाने पीने का प्रबन्ध रखना। उन्होंने स्वीकार किया और सेवक भी साथ रख दिए। वे सब आबू राजपर्वत के ऊपर जाके रहे और उन बालकों की अक्षराभ्यास और श्रेष्ठ व्यवहारों की शिक्षा करने लगे। फिर उनका यथाविधि संस्कार भी उन्होंने किया। सन्ध्योपासन और अग्निहोत्रादिक वेदोक्त कर्मों की शिक्षा उन्होंने की तत्पश्चात व्याकरण, छः दर्शन, काव्यालंकार सूत्र सनातन कोश, यथावत् पदार्थ विद्या उनको पढ़ाई। इसके बाद वैद्यक शास्त्र तथा गान विद्या, शिल्प विद्या और धनुर्विद्या अर्थात् युद्ध विद्या भी उनको अच्छी प्रकार से पढ़ाई। राजधर्म जैसा कि प्रजा से वर्तमान करना और न्याय करना, दुष्टों को दण्ड देना तथा श्रेष्ठों का पालन करना, यह भी सब पढ़ाया। ऐसे 25 वा 26 वर्ष की आयु उनकी हुई।

 

उन पण्डितों की स्त्रियों (धर्मपत्नियों) ने इसी प्रकार से चार कन्या रूप गुण सम्पन्न को अपने पास रखके व्याकरण, धर्मशास्त्र, वैद्यक, गान विद्या तथा नाना प्रकार के शिल्प कर्म पढ़ाए और व्यवहार की शिक्षा भी की तथा युद्ध विद्या की शिक्षा, गर्भ में बालकों का पालन और पति सेवा का उपदेश भी यथावत् किया। फिर उन पुरुषों को परस्पर चारों का युद्ध करना और कराने का यथावत् अभ्यास कराया। इस प्रकार अध्ययन व अभ्यास करते हुए चालीस-चालीस वर्ष के वह पुरुष हुए। बीस-बीस वर्ष की वे कन्या हुईं। तब उनकी प्रसन्नता से और गुण परीक्षा से एक से एक का विवाह कराया। जब तक विवाह नहीं हुआ था, तब तक उन पुरुषों की और कन्याओं की यथावत् रक्षा की गई थी। इससे उनको विद्या, बल, बुद्धि तथा पराक्रम आदि गुण भी उनके शरीर में यथावत् हुए थे।

 

पश्चात उन पुरुषों से ब्राह्मणों ने कहा कि तुम लोग हमारी आज्ञा को मानों। तब उन सबों ने कहा कि जो आपकी आज्ञा होगी, वही हम करेंगे। तब उन ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि हमने तुम्हारे ऊपर परिश्रम किया है सो केवल जगत् के उपकार के हेतु किया है। सो आप लोग देखों कि आर्यावर्त्त में गदर मच रहा है। मुसलमान लोग इस देश में आकर बड़ी दुर्दशा करते हैं और धन आदि लूट के ले जाते हैं। सो इस देश की नित्य दुर्दशा होती जाती है। आप लोग यथावत् राजधर्म से प्रजा का पालन करो और दुष्टों को यथावत् दण्ड दो। परन्तु एक उपदेश सदा हृदय में रखना कि जब तक वीर्य की रक्षा और जितेन्द्रिय रहोगे, तब तक तुम्हारा सब कार्य सिद्ध होता जायेगा और हमने तुम्हारा विवाह अब जो कराया है सो केवल परस्पर रक्षा के हेतु किया है कि तुम और तुम्हारी स्त्रियां संग-संग रहोगे तो बिगड़ोगे नहीं और केवल सन्तानोत्पत्ति मात्र विवाह का प्रयोजन जानना और मन से भी पर-पुरुष वा पर-स्त्री का चिन्तन भी नहीं करना और विद्या तथा परमेश्वर की उपासना और सत्यधर्म में सदा उपस्थित रहना। जब तक तुम्हारा राज्य न जमें, तब तक स्त्री पुरुष दोनों ब्रह्मचर्याश्रम में रहो क्योंकि जो क्रीड़ासक्त होगे तो तुम्हारे शरीर से बल आदि न्यून हो जायेंगे। इससे युद्धादि में उत्साह भी न्यून हो जायगा और हम भी एक-एक के साथ एक-एक रहेंगे। अब हम और आप लोग चलें और चल के यथावत् राज्य का प्रबन्ध करें। फिर वे वहां से चले। वह चार इन नामों से प्रख्यात थे, चौहान, पंवार, सोलंकी इत्यादि। उन्होने दिल्ली आदि में राज्य किया था। जब वह राज्य करने लगे थे तब कुछ-कुछ सुप्रबन्ध भी हुआ था।

 

कुछ काल के पीछे एक मुसलमान सहाबुद्दीन गोरी भी उसी प्रकार इस देश कन्नौज आदि में आया था। उस समय कन्नौज का बड़ा भारी राज था सो इसके भय के मारे अपने ही लोग जाके उसको मिले और युद्ध कुछ भी नहीं किया क्योंकि उस वक्त राजाओं के शरीर स्त्री के शरीर से भी कोमल थे, इससे वे क्या युद्ध कर सकते?  फिर अन्यत्र युद्ध जहां-तहां किया सो उस सहाबुद्दीन गोरी का विजय हुआ और आर्यावत्र्त वालों का पराजय हुआ। पश्चात दिल्ली वालों से किसी समय उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में पृथ्वीराज मारा गया और उस सहाबुद्दीन गोरी ने अपना सेनाध्यक्ष दिल्ली में रक्षा के हेतु रख दिया। उसका नाम कुतुबद्दीन था। वह जब वहां रहा तब कुछ दिन के पीछे उन राजाओं को निकाल के आप राजा हुआ। उस दिन से मुसलमान लोग यहां राज्य करने लगे और सबने कुछ-कुछ जुलुम किया। परन्तु उनके बीच में से अकबर बादशाह कुछ अच्छा हुआ और न्याय भी संसार में होने लगा। सो अपनी बहादुरी से और बुद्धि से सब गदर मिटा दिया। उस समय राजा और प्रजा सब सुखी थे।

 

आर्यावर्त्त के राजा और धनाढ्य लोग विक्रमादित्य के पीछे सब विषय सुख में फंस रहे थे। उससे उनके शरीर में बल, बुद्धि, पराक्रम और शूरवीरता प्रायः नष्ट हो गई थी, क्योंकि सदा स्त्रियों का संग, गाना बजाना, नृत्य देखना, सोना, अच्छे-अच्छे कपड़े और आभूषण को धारण करना, नाना प्रकार के इत्र और अंजन नेत्र में लगाना, इससे उनके शरीर बड़े कोमल हो गए थे कि थोड़े से ताप वा शीत अथवा वायु का सहन नहीं हो सकता था। फिर वे युद्ध क्या कर सकते, क्योंकि जो नित्य स्त्रियों का संग और विषय भोग करेंगे, उनका भी शरीर प्रायः स्त्रियों जैसा हो जाता है। वे कभी युद्ध नहीं कर सकते, क्योंकि जिनके शरीर दृढ़, रोग रहित, बल, बुद्धि और पराक्रम तथा वीर्य की रक्षा करना और विषय भोग में नहीं फंसना, नाना प्रकार की विद्या का पढ़ना इत्यादि के होने से सब कार्य सिद्ध हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।

 

फिर दिल्ली में औरंगजेब एक बादशाह हुआ था। उसने मथुरा, काशी, अयोध्या और अन्य स्थान में भी जा-जा के मन्दिर और मूर्तियों को तोड़ डाला और जहां-जहां बड़े-बड़े मन्दिर थे, उस-उस स्थान पर अपनी मस्जिद बना दी। जब वह काशी में मन्दिर तोड़ने को आया तब विश्वनाथ कुंए में गिर पड़े और माधव एक ब्राह्मण के घर में भाग गए, ऐसा बहुत मनुष्य कहते हैं, परन्तु हमको यह बात झूठ मालूम पड़ती है, क्योंकि वह पाषाण वा धातु जड़ पदार्थ कैसे भाग सकता है, कभी नहीं। सो ऐसा हुआ होगा कि जब औरंगजेब आया तब पुजारियों ने भय से मूर्ति को उठाके उसे कुंए में डाल दिया और माधव की मूर्ति उठा के दूसरे घर में छिपा दी कि वह उसे न तोड़ सके। सो आज तक उस कुंए का बड़ा दुर्गन्धयुक्त जल पीते हैं और उसी ब्राह्मण के घर की माधव की मूर्ति की आज तक पूजा करते हैं।

 

देखना चाहिए कि पहिले तो सोने व चांदी की मूर्तियां बनाते थे तथा हीरा और माणिक की आंख बनाते थे। सो मुसलमानों के भय से और दरिद्रता से पाषाण, मिट्टी, पीतल, लोहा और काष्ठ आदि की मूर्तियां बनाते हैं। सो अब तक भी इस सत्यानाश करने वाले कर्म को नहीं छोड़ते, क्योंकि छोडें तो तब जो इनकी अच्छी दशा आवे। इनकी तो इन कर्मों से दुर्दशा ही होने वाली है जब तक कि इनको (मूर्ति पूजा) नहीं छोड़ते।

 

और महाभारत युद्ध के पहले आर्यावर्त्त देश में अच्छे-अच्छे राजा होते थे। उनकी विद्या, बुद्धि, बल, पराक्रम तथा धर्म निष्ठा और शूरवीरता आदि गुण अच्छे-अच्छे थे। इससे उनका राज्य यथावत् होता था। सो इक्ष्वाकु, सगर, रघु, दिलीप आदि चक्रवर्त्ती राजा हुए थे और किसी प्रकार का पाखण्ड उनमें नहीं था। सदा विद्या की उन्नति और अच्छे-अच्छे कर्म आप किया करते थे तथा प्रजा से कराते थे। कभी उनका पराजय नहीं होता था तथा अधर्म से कभी नहीं युद्ध करते थे और युद्ध से निवृत्त कभी नहीं होते थे। उस समय से लेके जैन राज्य के पहिले तक इसी देश के राजा होते थे, अन्य देश के नहीं। सो जैनों ने और मुसलमानों ने इस देश को बहुत बिगाड़ा है। सो आज तक बिगड़ता ही जाता है। आजकल अंग्रेजों का राज्य होने से उन (जैन व मुसलमान) राजाओं के राज्य से कुछ सुख हुआ है, क्योंकि अंग्रेज लोग मत-मतान्तर की बात में हाथ नहीं डालते और जो पुस्तक अच्छा पाते हैं, उसकी अच्छी प्रकार रक्षा करते हैं। और जिस पुस्तक के सौ रुपये लगते थे, उस पुस्तक का छापा होने से पांच रुपये में मिलता है। परन्तु अंगरेजों से भी एक काम अच्छा नहीं हुआ जो कि चित्रकूट पर्वत पर महाराज अमृतराज जी के पुस्तकालय को जला दिया। उसमें करोड़ों रूपये के लाखों अच्छे-अच्छे पुस्तक नष्ट कर दिये।

 

जो आर्यावर्त्त वासी लोग इस समय सुधर जायें तो सुधर सकते हैं और जो पाखण्ड ही में रहेंगे तो इनका अधिक-अधिक नाश ही होगा, इसमें कुछ सन्देह नहीं। क्योंकि बड़े-बड़े आर्यावर्त्त देश के राजा और धनाढ्य लोग ब्रह्मचर्याश्रम, विद्या का प्रचार, धर्म से सब व्यवहारों का करना और वैश्या तथा पर-स्त्री-गमन आदि का त्याग करें तो देश के सुख की उन्नति हो सकती है। परन्तु जब तक पाषाण आदि मूर्तिपूजन, वैरागी, पुरोहित, भट्टाचार्य और कथा कहने वालों के जालों से छूटें, तब उनका अच्छा (भाग्योदय) हो सकता है, अन्यथा नहीं।

 

प्रश्न-मूर्ति पूजन आदि सनातन से चले आए हैं उनका खण्डन क्यों करते हो? उत्तर–यह मूर्तिपूजन सनातन से नहीं किन्तु जैनों के राज्य से ही आर्यावर्त्त में चला है। जैनों ने परशनाथ, महावीर, जैनेन्द्र, ऋषभदेव, गोतम, कपिल आदि मूर्तियों के नाम रक्खे थे। उनके बहुत-बहुत चेले हुये थे और उनमें उनकी अत्यन्त प्रीति भी थी। इस लिये उन चेलों ने अपने मन्दिर बनाके अपने गुरुओं की मूर्ति पूजने लगे। फिर जब उनका शंकराचार्य ने पराजय कर दिया, इसके पीछे उक्त प्रकार से ब्राह्मणों ने मूर्तियां रची और उनके नाम महादेव आदि रख दिए। जैनों की उन मूर्त्तियों से कुछ विलक्षण बनाने लग गये और पुजारी लोग जैन तथा मुसलमानों के मन्दिरों की निन्दा करने लगे।

 

वदेद्यावनीं भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि। हस्तिना ताड्यमानोऽपि गच्छेज्जैनमन्दिरम्।।1।। इत्यादि श्लोक बनाए हैं कि मुसलमानों की भाषा बोलनी और सुननी भी नहीं चाहिए और यदि पागल हाथी किसी के पीछे मारने को दौड़े, तो यदि वह जैन के मन्दिर में जाने से बच भी सकता हो तो भी जैन के मन्दिर में न जाये किन्तु हाथी के सन्मुख मर जाना उससे अच्छा है। ऐसे निन्दा के श्लोक (इन मूर्ति पूजकों ने) बनाए हैं। सो पुजारी, पण्डित और सम्प्रदायी लोगों ने चाहा कि इनके खण्डन के विना हमारी आजिविका न बनेगी। यह केवल उनका मिथ्याचार है। मुसलमानों की भाषा (उर्दू, अरबी व फारसी आदि) पढ़ने में अथवा किसी अन्य देश की भाषा पढ़ने में कुछ दोष नहीं होता, किन्तु कुछ गुण ही होता है। अपशब्दज्ञानपूर्वके शब्दज्ञाने धर्मः। यह व्याकरण महाभाष्य (आन्हिक 1) का वचन है। इसका यह अभिप्राय है कि अपशब्द ज्ञान अवश्य करना चाहिए, अर्थात् सब देश देशान्तर की भाषा को पढ़ना चाहिए, क्योंकि उनके पढ़ने से बहुत व्यवहारों का लाभ होता है और संस्कृत शब्द के ज्ञान का भी उनको (जिनसे व्यवहार करते हैं) यथावत् बोध होता है। जितनी देशों की भाषायें जानें, उतना ही उन पुरुषों को अधिक ज्ञान होता है, क्योंकि संस्कृत के शब्द बिगड़ के ही सब देश भाषायें होती हैं, इससे इनके ज्ञानों से परस्पर संस्कृत और भाषा के ज्ञान में उपकार ही होता है। इसी हेतु महाभाष्य में लिखा है कि अपशब्द-ज्ञानपूर्वक शब्दज्ञान में धर्म होता है अन्यथा नहीं। क्योंकि जिस पदार्थ का संस्कृत शब्द जानेगा और उसके भाषा शब्द को न जानेगा तो उसको यथावत् पदार्थ का बोध और व्यवहार भी नहीं हो सकेगा। महाभारत में लिखा है कि युधिष्ठिर और विदुर आदि अरबी आदि देश भाषा को जानते थे। इस लिए जब युधिष्ठिर आदि लाक्षा गृह की ओर चले, तब विदुर जी ने युधिष्ठिर जी को अरबी भाषा में समझाया और युधिष्ठिर जी ने अरबी भाषा से प्रत्युत्तर दिया, यथावत् उसको समझ लिया। राजसूय और अश्वमेध यज्ञ में देश-देशान्तर तथा द्वीप-द्वीपान्तर के राजा और प्रजास्थ पुरुष आर्यावर्त्त में आए थे। उनका परस्पर (अनेक) देश भाषाओं में व्यवहार होता था तथा द्वीप-द्वीपान्तर में यहां के जन जाते थे और वह इस देश में आते थे फिर जो देश-देशान्तर की भाषा न जानते होते तो उनका व्यवहार सिद्ध कैसे होता? इससे क्या आया कि देश-देशान्तर की भाषा के पढ़ने और जानने में कुछ दोष नहीं, किन्तु बड़ा उपकार ही होता है।

 

महर्षि दयानन्द इसी क्रम में आगे लिखते हैं कि जितने पाषाण मूतिर्यों के मन्दिर हैं वे सब जैनों ही के हैं, सो किसी मन्दिर में किसी को जाना उचित नहीं, क्योंकि सब में एक ही लीला है। जैसी जैन मन्दिरों में पाषाणादि मूर्तियां हैं, वैसी आर्यावर्त्तवासियों के मन्दिरों में भी जड़ मूर्तिंया हैं। कुछ विलक्षण-विलक्षण नाम इन लोगों ने रख लिये हैं और कुछ विशेष नहीं। केवल पक्षपात ही से ऐसा करते हैं कि जैन मन्दिरों में न जाना और अपने मन्दिरों में जाना। यह सब लोगों ने आजाविका के हेतु अपना-अपना मतबलसिंधु बना लिया है।

 

यह उल्लेखनीय है कि महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा को ईश्वर ज्ञान वेदों के विरूद्ध, ज्ञान विरूद्ध, युक्ति, तर्क व प्रमाणों के विरूद्ध अनुपयोगी व ईश्वर की प्राप्ति में सहायक नहीं अपितु बाधक एवं इसे ऐसी खाई बताते हैं जिसमें गिरकर मूर्तिपूजक के जीवन का अन्त हो जाता, लाभ कुछ नहीं होता। वह ज्ञानस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सच्चिदानन्दादि स्वरूप, सब सुखों को देने वाले ईश्वर की महर्षि पतंजलि की योगविधि से वेदसम्मत स्तुति, प्रार्थना व उपासना के अनुगामी व प्रचारक थे। धार्मिक विषयों पर उनका विश्लेषण व निष्कर्ष था कि देश का पतन व परतन्त्रता का कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष तथा सामाजिक असमानता जैसे अन्धविश्वास व मिथ्याचार आदि कार्य व व्यवहार थे। व्यक्ति, समाज व देश को सुदृण बनाने के लिए अज्ञान व अन्धविश्वासों से बचना व इन्हें छोड़ना आवश्यक है। इसके साथ लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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‘मन्दिरों की लूट तथा धार्मिक साहित्य नष्ट करने संबंधी इतिहास विषयक ऋषि उपदेश’:- मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द धर्म, वेद, मत-मतान्तर, सामजिक विज्ञान सहित भारत के इतिहास के भी गम्भीर व मर्मज्ञ विद्वान थे। उनके लम्बे उपदेश के दो भाग हम प्रस्तुत कर चुके हैं। इस लेख में उनसे आगे का उपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं। इनका महत्व इतना ही है कि हम सत्य को जाने और इतिहास में की गई अपने पूवजों की गलतियों का सुधार करें। यदि ऐसा नहीं करते तो इतिहास की पुनरावृत्ति होने का डर बना रहता है। ऐसा न हो कि हम पुनः गलतियां करें और हमें पूर्व की भांति हानि उठानी पड़े। पूर्व लेखों के क्रम में उनके बाद देश में घटी घटनाओं का यथार्थ वर्णन करने वाले उपदेश किंचित सम्पादन के साथ पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत हैं।

महर्षि दयानन्द अपने उपदेश में कहते हैं कि एक महमूद गजनवी इस देश में आया और बहुत सी सोने और चांदी की मूर्तियां लूट ली। बहुत पुजारी और पण्डित पकड़ लिये और रात को पिसान पिसावे और दिन में जाजरूर आदि को सफा करवाये। और जहां कोई पुस्तक पाया उसको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। ऐसे वह आर्यावर्त्त में बारह बार आया और उसने बहुत लूट मार एवं अत्यन्त अन्याय किया। उसने इस देश की बड़ी दुर्दशा की। यहां तक कि शिरच्छेदन बहुतों का कर दिया। विना अपराधों के स्त्री, कन्या और बालकों को भी पकड़ के दुःख दिया और बहुतों को मार डाला, ऐसा उसने बड़ा अन्याय किया।

 

सो जिस देश में ईश्वर की उपासना छोड़ कर काष्ठ, पाषाण, वृक्ष, घास, कुत्ते, गधे और मिट्टी आदि की पूजा की जाती हो वहां ऐसा ही फल होगा, उत्तम कहां से होगा। फिर चार ब्राह्मणों ने एक लोहे की पोली (खोखली) मूर्ति बनवाई और उसको गुप्त कहीं रख दिया। फिर चारों ने लोगों को कहा कि हम को महादेव ने स्वप्न दिया है कि हमारा आप लोग मन्दिर बनवायें तो कैलाश को छोड़ के आर्यावर्त्त देश में मैं निवास करूं और सबको दर्शन दूं। प्रचार द्वारा ऐसा सब देशों में प्रसिद्ध कर दिया। फिर मन्दिर सब लोगों ने मिल के बनवाया। उसमें नीचे ऊपर और चारों ओर भीत में चुम्बक पत्थर रक्खे। जब मन्दिर पूरा हुआ, तब सब देशों में प्रसिद्ध कर दिया कि उस दिन मध्य रात्रि में कैलाश से महादेव मन्दिर में आवेंगे जो दर्शन करेगा उसका बड़ा भाग्य और मरने के पीछे वह कैलाश को चला जायगा। फिर उस समय में राजा, बाबू, स्त्री, पुरुष और लड़के बालायें उस स्थान में जुटे। उन चारों धूर्त्तों ने मूर्ति मन्दिर में कहीं गुप्त रख दी थी और मेला में ऐसा प्रसिद्ध कर दिया कि महादेव देव हैं सो भूमि को पग से स्पर्श न करेंगे, किन्तु आकाश में ही खड़े रहेंगे। ऐसा हमको स्वप्न में कहा है सो जब उस दिन पहर रात्रि गई तब सब को मन्दिर के बाहर निकाल दिए और किवाड़ बन्द करके वह चारों ब्राह्मण भीतर रहे। फिर उस मूर्ति को उठाके मन्दिर में ले गए और बीच में चुम्बक पाषाण के आकर्षणों से अधर आकाश में वह मूत्र्ति खड़ी रही और उन्होंने खूब मन्दिर में दीप जोड़ दिए फिर घण्टा, झल्लरी, शंख, रणसिंघा और नगारा बजाए। तब तो मेले में बड़ा उत्साह हुआ और उन्होंने दरवाजे खोल दिए। फिर मनुष्यों के ऊपर मनुष्य गिरे और मूर्ति को आकाश में अधर खड़ी देख के बड़े आश्चर्य युक्त हुए और लाखों रुपयों की पूजा चढ़़ी। अनेक पदार्थ पूजा में आए। फिर वे चारों धूर्त ब्राह्मण बड़े मस्त हो गए और महन्त हो गए। फिर नित्य मेला होने लगा और वहां करोडों रुपयों का माल इकट्ठा हो गया। सो वह मन्दिर द्वारका के पास प्रभा क्षेत्र स्थान में था और उस मूर्ति का नाम सोमनाथ रक्खा था। फिर महमूद गजनवी ने सुना कि उस मन्दिर में बड़ा माल है। ऐसा सुनके अपने देश से सेना लेके चढ़ा। सो जब पंजाब में आया, तब हल्ला हो गया और सोमनाथ की ओर चला तब लोगों ने जाना कि सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ेगा और लूटेगा। ऐसा सुन के बहुत से राजा, पण्डित और पुजारी सेना ले-ले के सोमनाथ की रक्षा हेतु इकट्ठे हुए। सोमनाथ के पास जब वह डेढ़ सौ दो सौ कोस दूर रहा, तब पण्डितों से राजाओं ने पूछा कि मुहूर्त देखना चाहिए। हम लोग आगे जाके उनसे लड़े। फिर पण्डित लोगों ने इकट्ठे होके मुहूर्त देखा, परन्तु मुहूर्त बना नहीं। फिर नित्य मुहूर्त ही देखते रहे, परन्तु कोई दिन चन्द्र, कोई दिन और ग्रह नहीं बने, कोई दिन दिक् शूल सन्मुख आया, कोई दिन योगिनी और कोई दिन काल नहीं बना। सो पण्डितों की बुद्धि को कालादिकों के भ्रमों ने खा लिया और राजा लोग विना पण्डितों की आज्ञा से कुछ करते नहीं थे। सो प्रायः पण्डित और राजा लोग मूर्ख ही थे। जो मूर्ख न होते तो पाषाणादि मूर्ति क्यों पूजते और मुहूर्तादिकों के भ्रमों से नष्ट क्यों होते? ऐसे विचार वह करते ही रहे, उस महमूद की सेना दूसरी मंजिल पर पहुंची, तब राजा लोगों ने पण्डितों से कहा कि अब तो जल्दी मुहूर्त देखों। तब पण्डितों ने कहा कि आज मुहूर्त अच्छा नहीं है। जो यात्रा करोगे तो तुम्हारा पराजय ही हो जायगा। तब वे ब्राह्मणों से डर के बैठे रहे। तब महमूद गजनवी धीरे-धीरे पांच छः कोश के ऊपर आकर ठहरा और दूतों से सब खबर मंगवाई कि वह क्या करते हैं? दूतों ने कहा कि वह आपस में मुहूर्त विचारा करते हैं। महमूद गजनवी के पास 30 हजार पुरुषों की सेना थी, अधिक नहीं और उनके पास दो, तीन लाख फौज थी। फिर उसके दूसरे दिन प्रातःकाल राजा पण्डित पुजारी मिल के मुहूर्त विचारने लगे। सो सब पण्डितों ने कहा कि आज का चन्द्रमा अच्छा नहीं और भी ग्रह क्रूर हैं। पुजारी लोग और पण्डित मूर्ति के आगे जा के गिर पड़े और अत्यन्त रोदन किया कि हे महाराज ! इस दुष्ट (काल-मुहूर्त) को खा लो और अपने सेवकों का सहाय करो। परन्तु वह लोहा क्या कर सकता है। और सब से कहने लगे कि आप लोग कुछ चिन्ता मत करो महादेव उस दुष्ट को ऐसे ही मार डालेंगे वा वह महादेव के भय से वहां से ही भाग जायेगा, उसका क्या सामर्थ्य है कि साक्षात् महादेव के पास आ सके और सन्मुख दृष्टि कर सके। ऐसे सब परस्पर बक(वास कर) रहे थे। फिर कुछ लड़ाई हुई और मुसलमान भी डरे कि विजय होगा वा पराजय? उस समय में (हमारे पण्डित) पुस्तक फैला-फैला के बहुत से मन्त्रों का जप और पाठ करते थे और कहते थे कि अब हमारा देवता और मन्त्र पाठ सिद्ध होता है सो वह वहां ही अन्धा हो जायगा। सो बड़ी मण्डली की मण्डली जप, पाठ और पूजा कर रही थी और मूर्ति के सामने औंधे गिर के पुकारते थे। एक सभा लग रही थी जिसमें राजा और पण्डित मुहूर्त को विचारते थे।

 

उस समय में उसके निकट एक पर्वत था और महमूद गजनवी ने एक तोप लगा दी और सभा के बीच में गोला मारा। उस समय कोई दन्तधावन करता था, कोई सोता था और कोई स्नान करता था, इत्यादि व्यवहारों से निश्चिन्त थे। सो उस गोले से सब पण्डित लोग पोथी पत्रा छोड़ के भागे और राजा लोग भी भाग उठे तथा सेना भी अपने-अपने स्थानों से भाग उठी और वह महमूद गजनवी सेना सहित धावा करके उस स्थान पर झट पहुंचा। उसको देख के सब भाग उठे। भागे हुए पण्डित, पुजारी, सिपाही तथा राजाओं को उसने पकड़ लिया और बांध लिया और उनके ऊपर बहुत-सी मार पड़ी तथा किसी को मार भी डाला और बहुत से भाग गए क्योंकि उन पण्डितों के उपदेश से वह सोलह पहर के बैठे थे और कथा सुनी थी कि मुसलमानों का स्पर्श नहीं करना और उनके दर्शन से धर्म जाता है,? ऐसी मिथ्या बातें सुनने के कारण भाग उठे। फिर मन्दिर के चारों ओर महमूद गजनवी की सेना हो गई और महमूद आप मन्दिर के पास पहुंचा, तब मन्दिर के महन्त और पुजारी हाथ जोड़ के खड़े हुए। महमूद को पुजारियों ने कहा कि आप जितना चाहें उतना धन ले लीजिए परन्तु मन्दिर और मूर्ति को न तोडि़ए, क्योंकि इससे हम लोगों की बड़ी आजीविका है। ऐसा सुनके महमूद गजनवी बोला कि हम बुत पूजने वाले नहीं किन्तु उनको तोड़ने वाले हैं। तब तो वे डरे और कहा कि एक करोड़ रुपया आप ले लीजिए परन्तु इसको मत तोडि़ए। ऐसे कहते सुनते तीन करोड़ तक कहा, परन्तु महमूद गजनवी ने नहीं माना और उनकी मुसक चढ़ा ली फिर उनको लेके मन्दिर में गया और उनसे पूछा कि खजाना कहां है सो कुछ तो उन्होंने बतला दिया।  फिर भी उसको लोभ आया कि और भी कुछ होगा। फिर उनको मारा पीटा तब उन्होंने सब खजाना बतला दिया। फिर मन्दिर में आके सब लीला देखी। फिर महन्त और पुजारियों से कहा कि तुमने दुनिया को ऐसी धूर्तता कर के ठग लिया क्योंकि लोहे की तो मूर्ति बनाई है। इसके चारों ओर चुम्बक पाषाण रखने से आकाश में यह मूर्ति अधर में खड़ी है। फिर उस मन्दिर का शिखर उन्होने तोड़वा दिया। जब वह चुम्बक पाषाण अलग हो गया, तब मूर्ति जमीन में चुम्बक-पाषाण में लग गई। फिर सब भीतें तोड़वा डाली। सब चुम्बकों के निकलने से मूर्ति जमीन में गिर पड़ी। फिर महमूद गजनवी ने अपने हाथ से लोहे के घन को पकड़ के उस मूर्ति के पेट में मारा। उससे मूर्ति फट गई। उससे बहुत जवाहिरात निकला क्योंकि हीरा आदि अच्छे-अच्छे रत्न वे पण्डित पाते थे, तब मूर्ति में ही रख देते थे। फिर महमूद ने उन महंत और पुजारियों को खूब तंग किया और फुसलाया भी। फिर उन्होंने भय से बतला दिया, जो कुछ था उसने सब ले लिया। सो अठारह करोड़ का माल उस मन्दिर से उसने पाया। फिर बहुत सी गाड़ी, ऊंट और मजूर उसके पास थे और भी वहां से पकड़ लिए। उनके ऊपर सब माल को लाद के अपने देश की ओर चला। सो थोड़े से थोड़े पण्डित, महंत और पुजारी तथा क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण और शूद्र तथा स्त्री, बालक दश हजार तक पकड़ के संग में ले लिए थे। उनका यज्ञोपवीत तोड़ डाला, मुख में थूक दिया और थोड़े-थोड़े सूखे चने नित्य खाने को देता था और जाजरूर सफा करवावे, पिसवावे, घास छिलवावे और घोड़ों की लीद उठवावे और मुसलमानों के जूठें बरतन मजवावे और सब प्रकार की नीच सेवा उनसे ली। ऐसे कराता-कराता जब मक्का के पास पहुंचा, तब अन्य मुसलमानों ने कहा कि इन काफरों का यहां रखना उचित नहीं। फिर उनको बुरी दशा से मार डाला ( …… इत्यादि)। ऐसे ही बारह दफे वह आया है और दो तीन बार मथुरा की भी दुर्दशा ऐसी ही की थी। और जहां-जहां वह गया था, वहां-वहां ऐसी ही दुर्दशा उस देश की की थी और डाकू की नांई वह आता था, मार के जो कुछ पाता था, सो अपने देश में ले जाता था। उस दिन से मुसलमान लोग दरिद्र से धनाढ्य हो गए हैं। सो आर्यावर्त्त के प्रताप से आज तक भी धन चला आता है और आर्यावर्त्त देश अपने ही दोषों से नष्ट होता जाता है।

 

इसलिये हमको बड़ा दुःख है कि ऐसा जो देश और इस प्रकार का धन जिस देश में है सो देश बाल्यावस्था में विवाह, विद्या का त्याग, मूत्र्ति पूजनादि पाखण्डों की प्रवृत्ति, नाना प्रकार के मिथ्या मजहबों का प्रचार, विषयासक्त और वेद विद्या का लोप, जब तक यह दोष रहेंगे, तब तक आर्यावर्त्त देशवालों की अधिक अधिक दुर्दशा ही होगी और जो सत्य विद्याभ्यास तथा सुनियम, धर्म और एक परमेश्वर की उपासना इत्यादि गुणों को ग्रहण करें तो सब दुःख नष्ट हो जायं और अत्यन्त आनन्द में रहें।

 

महर्षि दयानन्द ने आर्यावर्त्त में मूर्तिपूजा के प्रचलन का यह वृतान्त अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्करण में सन् 1874 में प्रस्तुत किया है। सारा देश जिसमें सभी मूर्ति पूजक बन्धु भी शामिल है, इन तथ्यों को यथावत् नहीं जानते। सत्य को जानना व मानना तथा असत्य को छोड़ना व दूसरों से छुड़वाना ही मनुष्य जीवन का एक उद्देश्य है। इसी उद्देश्य से सत्यार्थ के प्रकाश के लिए महर्षि दयानन्द का यह उपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है कि पाठक इतिहास की इस इन भूलीबिसरी घटनाओं को जानकर इनसे शिक्षा ग्रहण करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

स्वराज्य वा स्वतन्त्रता के प्रथम मन्त्र-दाता महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महाभारत काल के बाद देश में अज्ञानता के कारण अन्धविश्वास व कुरीतियां उत्पन्न होने के कारण देश निर्बल हुआ जिस कारण वह आंशिक रूप से पराधीन हो गया। पराधीनता का शिंकजा दिन प्रतिदिन अपनी जकड़ बढ़ाता गया। देश अशिक्षा, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड व सामाजिक विषमताओं से ग्रस्त होने के कारण पराधीनता का प्रतिकार करने में असमर्थ था। सौभाग्य से सन् 1825 में गुजरात में महर्षि दयानन्द का जन्म होता है। लगभग 22 वर्ष तक अपने माता-पिता की छत्र-छाया में उन्होंने संस्कृत भाषा व शास्त्रीय विषयों का ज्ञान प्राप्त किया। इससे उनकी तृप्ति नहीं हुई। ईश्वर के सच्चे स्वरूप का ज्ञान और मृत्यु पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है, इसके उपाय ढूंढने के लिये वह घर से निकल गये और लगभग 13 वर्षों तक धार्मिक विद्वानों व योगियों आदि की संगति तथा धर्म ग्रन्थों का अनुसंधान करते रहे। इसी बीच सन् 1857 ईस्वी का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम भी हुआ जिसे अंग्रेजों ने कुचल दिया। इसमें महर्षि दयानन्द की सक्रिय भूमिका होने का अनुमान है परन्तु इससे सम्बन्धित जानकारियां उन्होंने विदेशी राज्य होने के कारण न तो बताई और न ही उनका किसी ने अनुसंधान किया। इसके बाद सन् 1860 में मथुरा में दण्डी गुरू स्वामी विरजानन्द के वह अन्तेवासी शिष्य बने और उनसे आर्ष संस्कृत व्याकरण और वेदादि शास्त्रों का अध्ययन किया। गुरु व शिष्य धार्मिक अन्धविश्वासों, देश के स्वर्णिम इतिहास व पराधीनता आदि विषयों पर परस्पर चर्चा किये करते थे। अध्ययन पूरा करने पर गुरु ने स्वामी दयानन्द को देश से अज्ञान, अन्धविश्वास, सामाजिक असमानता व विषमता दूर करने का आग्रह किया। स्वामी दयानन्द जी ने गुरु को इस कार्य को प्राणपण से करने का वचन किया और सन् 1863 में इस कार्य को आरम्भ कर दिया।

स्वामी जी सन् 1874 में काशी में यथार्थ वेदोक्त धर्म का प्रचार, समाज सुधार के कार्य व अन्धविश्वासों का खण्डन कर रहे थे। उनके एक भक्त राजा जयकृष्ण दास ने उन्हें अपने समस्त विचारों, वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का एक ग्रन्थ लिखने का आग्रह किया। अल्प काल में ही महर्षि दयानन्द ने यह ग्रन्थ लिख कर पूरा कर दिया जिसको सत्यार्थ प्रकाश नाम दिया गया। लेखक ने इस ग्रन्थ का पुनः एक नया संशोधित संस्करण तैयार किया जो अक्तूबर, सन् 1883 में पूर्ण हो कर छपना आरम्भ हो गया था और सन् 1884 में प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व यह जानना आवश्यक है कि महर्षि दयानन्द वेद एवं समस्त वैदिक वांग्मय के पारदर्शी व अपूर्व विद्वान थे। उन्होंने अपने दिव्य ज्ञान चक्षुओं से जान लिया था कि ईश्वर, जीव व प्रकृति के समस्त सत्य रहस्य वेद और वैदिक साहित्य में निहित हैं। अन्य जितने में भी मत-मतान्तर उनके समय में प्रचलित थे वह सभी अज्ञान व असत्य मान्यताओं से युक्त थे व आज भी हैं। सभी मतों के धर्म ग्रन्थों में असत्य व अन्धविश्वासयुक्त मान्यताओं की भरमार थी जिसका दिग्दर्शन उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में किया है। देश की पराधीनता और इस कारण देश व देशवासियों के शोषण व उन पर होने वाले अत्याचारों से भी वह परिचित थे। वह जान गये थे कि पराधीनता का भी मुख्य कारण एक सत्य वेदोक्त मत का पराभव व नाना वेद विरुद्ध मतों का आविर्भाव, उनका प्रचलन व सामाजिक विषमता आदि थे। अतः सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय पर विचार करते हुए उन्होंने पराधीनता पर अपना ध्यान केन्द्रित कर व अपनी जान जोखिम में डालकर देश की स्वतन्त्रता का मूल मन्त्र देशवासियों को दिया। इस घटना के प्रकाश के कुछ समय बाद ही एक षडयन्त्र के अन्तर्गत उनका विषपान कराये जाने व समय पर समुचित चिकित्सा न होने के कारण देहावसान हो गया।

सन् 1883 में जिन दिनों महर्षि दयानन्द ने देश की आजादी विषयक यह पंक्तियां लिखी जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे, उस समय देश में सजग धार्मिक संस्था के रूप में हम ब्रह्म समाज को पाते हैं जिसके संस्थापक राजा राममोहन राय रहे हैं। यह मत व सम्प्रदाय तथा इसके संस्थापक अंग्रेजों के राज्य को भारत पर वरदान के रूप में देखता था। इससे आजादी विषयक विचार मिलने की सम्भावना नहीं थी। हमारे सनातन धर्म के विद्वानों की क्या स्थिति थी, इसका वर्णन वीर सावरकर जी ने किया है जो कि आर्य जगत प्रख्यात विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के शब्दों में प्रस्तुत करते हैं। वह अपनी पुस्तक इतिहास प्रदूषण में लिखते हैं कि वीर सावरकर जी ने अपनी आत्मकथा में ऋषि दयानन्द तथा आर्य समाज से प्राप्त ऊर्जा व प्रेरणा की खुलकर चर्चा की है। यदि ये बन्धु (श्री आर्यमुनि, मेरठ और उनका वेदपथ पत्रिका में प्रकाशित एक लेख) लार्ड रिपन के सेवा निवृत्त होने पर काशी के ब्राह्मणों द्वारा उनकी शोभा यात्रा में बैलों का जुआ उतार कर उसे अपने कन्धों पर धर कर उनकी गाड़ी को खींचने वाला प्रेरक प्रसंग उद्धृत कर देते तो पाठकों को पता चल जाता कि इस विश्व प्रसिद्ध क्रान्तिकारी को देश के लिए जीने मरने के संस्कार व विचार देने वालों में ऋषि दयानन्द अग्रणी रहे। अतः सनातन धर्म के विद्वानों से भी अंग्रेजों के भारत से वापिस जाने और देश को स्वतन्त्र करने की मांग की आशा नहीं की जा सकती थी। यह महर्षि दयानन्द ही थे जिन्होंने अपने गुरू विरजानन्द प्रदत्त वैदिक संस्कारों के आधार पर परतन्त्रता का विरोध किया और सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि ‘‘कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सवार्वेपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक्-पृथक् शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय (देश में स्वराज्य, अज्ञान व अन्धविश्वास रहित वैदिक धर्म का पालन) सिद्ध होना कठिन है।” इससे पूर्व महर्षि दयानन्द ने भारत में विदेशी शासन का कारण बताते हुए लिखा है कि ‘‘अब अभाग्योदय से, और आर्यों के आलस्यप्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावत्र्त में आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है, सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र है। दुर्दिन जब आता है, तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है।

महर्षि दयानन्द लिखित यह स्वर्णिम शब्द ही देश की आजादी के आधार वाक्य बने। इस समय तक देश में किसी राजनीतिक दल का कोई नेता नहीं था। कांगे्रस की स्थापना सन् 1885 में महर्षि दयानन्द के इन वाक्यों के कई वर्ष बाद हुई। अतः आज देश भर में जो स्वतन्त्रता दिवस की अड़सठवीं वर्षगांठ बनाई जा रही है उसकी प्राप्ति के लिए सन् 1883 में मन्त्र व विचार प्रस्तुत करने का श्रेय महर्षि दयानन्द को है। दुःख है कि सारा देश महर्षि दयानन्द के इस योगदान पर मौन है। 21 वीं शताब्दी में इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है? स्वामी दयानन्द के स्वदेशीय राज्य को सर्वोत्तम बताने पर टिप्पणी करते हुए आर्यजगत के विख्यात विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि भारत में अंग्रेज व्यापारी बन कर आये। व्यापार के लिए उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की। धीरे-धीरे यही कम्पनी भारत में अंग्रेजी राज्य का आधार बन गई। उसकी अपनी सेना थी। इस सेना और भारतीय रियासतों के परस्पर संघर्ष के फलस्वरूप किसी भी एक पक्ष के सैनिक बल की सहायता से वह देश पर अधिकार करती गई। 1849 में पंजाब की विजय के साथ उसका यह अभियान पूरा हो गया और समूचे देश में यूनियन जैक फहराने लगा, परन्तु विज्ञान का नियम है–’To every action there is an equal and opposite reaction’ अर्थात प्रत्येक क्रिया की उतनी ही जोरदार और विरोधी प्रतिक्रिया होती है। भारतीयों के भीतर विद्रोह की आग सुलगने लगी, और 10 मई 1857 को ज्वाला बनकर भड़क उठी और देश के कोने-कोने में फैल गई। परन्तु कुछ ही दिनों में यह आग ठण्डी पड़ गई और भारतीय लोग खून का घूंट पीकर रह गये। इस क्रिया की प्रतिक्रिया भी अवश्यंभावी थी। ब्रिटिश सरकार ने कूटनीति का सहारा लिया। महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणापत्र (Proclamation) जारी किया। उसकी भाषा बड़ी लुभावनी थी, पर एक व्यक्ति इस कूटनीतिक चाल को भांप गया। उसने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में एक घोषणा की जिसे उपर्युक्त पंक्तियों प्रस्तुत किया गया है।

सुराज्य भी स्वराज्य का विकल्प नहीं होता–‘Good government is no substitute for self-government.’ इसके उद्घोषक ग्रन्थकार दयानन्द ने अपनी प्रार्थना पुस्तक (Prayer book) आर्याभिविनय के माध्यम से अपने अनुयायियों को आदेश दिया कि वे प्रतिदिन प्रार्थना किया करें कि ‘‘अन्य देशवासी राजा हमारे देश में हों तथा हम पराधीन कभी रहें। भारत के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि यह पूरी तरह वही घोषणा थी जिसके द्वारा 8 अगस्त 1929 को महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो और 31 दिसम्बर 1929 को लाहौर में उसके लिए संघर्ष करने की घोषणा की थी। इससे पूर्व 1906 में दादाभाई नौरोजी ने इसका उच्चारण किया था। किन्तु स्वामी दयानन्द ने 1875 में जब स्वराज्य का विचार भी किसी के मस्तिष्क में भी नहीं उपजा या पूर्ण स्वराज्य ही नहीं, चक्रवर्त्ती साम्राज्य की घोषणा की थी। आज जबकि अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके हैं और हम स्वाधीनता का रसास्वादन कर रहे हैं तो कितने लोग है जो यह जानते हैं कि एक बार एक अंग्रेज कलक्टर ने स्वामी दयानन्द जी का भाषण सुनने के बाद कहा था कि ‘‘यदि आपके भाषण पर लोग चलने लग जाएं तो इसका परिणाम यह होगा कि हमें अपना बोरिया बिस्तर बांधना पड़ेगा। स्वामी दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के वचनों तथा भावनाओं का गम्भीर अध्ययन करनेवाले 1911 की जनसंख्या के अध्यक्ष मिस्टर ब्लण्ट ने लिखा था-“Dayanand was not merely a religious reformer, he was also a great patriot.  It would be fair to say that with him religious reform was a mere means to national reform.” (Census Report of 1911, Vol. XV, Part I, Chap. IV, P. 135) अर्थात् दयानन्द केवल धार्मिक सुधारक नहीं थे, वे एक महान् देशभक्त भी थे। यह कहना ठीक ही होगा कि उन्होंने धार्मिक सुधार को राष्ट्रीय सुधार के साधनरूप में ही अपनाया था।

 

इस लेख के माध्यम से हम यह बताना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द ही देश की आजादी के प्रथम मन्त्रदाता वा स्वराज्य और स्वतन्त्रता का विचार देने वाले महापुरूष थे। स्वामी दयानंद ने अपने ग्रन्थों व प्रवचनों में व अन्यत्र भी देशभक्ति के नाना विचार प्रस्तुत किये। देश की स्वतन्त्रता में उनका व उनके अनुयायी आर्यसमाजियों का प्रमुख योगदान है। अतः आज स्वतन्त्रता दिवस के दिन महर्षि दयानन्द और आर्य समाज के योगदान की भी चर्चा करना आवश्यक है। यह बताना भी उचित होगा कि क्रान्तिकारी के आद्य गुरू पं. श्यामजी कृष्ण वम्र्मा, श्री गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक गुरू महादेव गोविन्द रानाडे, समाज सुधारक व आजादी के प्रमुख नेता स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, पं. राम प्रसाद बिस्मिल आदि भी महर्षि दयानन्द की शिष्य मण्डली के ही व्यक्ति थे। देश की आजादी के आन्दोलन में देश के सभी आर्यसमाजियों ने किसी न किसी रूप में भाग लिया था जिस कारण देश आजाद हुआ। महर्षि दयानन्द ने देश की आजादी, धार्मिक व समाज सुधार में जो योगदान किया उसके लिये देशवासियों ने उनका सही मूल्यांकन कर उनके साथ न्याय नहीं किया। देखें, कि कब तक देश उनकी उपेक्षा करता है? आज स्वतन्त्रता दिवस पर भी हमें उनकी उपेक्षा स्पष्ट दिखाई दे रही है। यदि यही शब्द किसी अन्य व्यक्ति ने कहे होते व उनके व आर्यसमाज जैसा योगदान किसी अन्य संस्था ने किया होता तो आज उसकी देश भर में जयजयकार हो रही होती। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

उत्तर देने की आर्यसमाजी कला: प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

कुछ तड़प-कुछ झड़प

– राजेन्द्र जिज्ञासु

उत्तर  देने की कलाः गत तीन चार मास में बिजनौर के आर्यवीर श्री विजयभूषण जी तथा कुछ अन्य नगरों के आर्य सज्जनों ने भी चलभाष पर दो बातें विशेष रूप से इस लेखक को कहीं। . आपकी उत्तर देने की कला बहुत अनूठी है। २. आप तड़प-झड़प में इतिहास की ठोस सामग्री देते हैं। इसमें अलभ्य लेखों, पत्र-पत्रिकाओं तथा इस समय अप्राप्य साहित्य की पर्याप्त चर्चा होने से बहुत जानकारी मिलती है। अनेक बन्धुओं विशेष रूप से युवकों के मुख से ये बातें सुनकर उत्तर देने की कला पर दो-चार बार कुछ विस्तार से लिखने का विचार बना।

मैं गत दस-बारह वर्षों से मेधावी लगनशील युवकों से बहुत अनुरोध से यह बात कहता चला आ रहा हूँ कि वैदिक धर्म पर वार-प्रहार करने वालों को उत्तर देना सीखो। अब भी आर्य समाज में कुछ अनुभवी विद्वान् ऐसे हैं, जिनकी उत्तर देने की शैली मौलिक, विद्वतापूर्ण  तथा हृदयस्पर्शी है। श्री डॉ. धर्मवीर जी को जब उत्तर देना होता है तो उनकी लेखनी की रंगत ही कुछ निराली होती है। श्री राम जेठमलानी ने श्री रामचन्द्र जी पर एक तीखा प्रश्न उठाया। संघ परिवार के ही श्री विनय कटियार ने उनके स्वर में स्वर मिला दिया।

राम मन्दिर आन्दोलन का एक भी कर्णधार श्रीयुत् राम जेठमलानी के आक्षेप का सप्रमाण यथोचित उत्तर न दे सका। मेरे जैसे आर्यसमाजी रामभक्त भी तरसते रहे कि उमा भारती जी, श्री मुरली मनोहर जी अथवा सर संघचालक आदरणीय भागवत जी इस आक्षेप का कुछ सटीक उत्तर दें, परन्तु ऐसा कुछ भी न हुआ। परोपकारी का सम्पादकीय पढ़कर अनेक पौराणिकों ने भी यह माँग की कि श्री धर्मवीर जी श्री राम के जीवन पर इसी शैली में २५०-३०० पृष्ठों की एक मौलिक पुस्तक लिख दें।

श्री डॉ. ज्वलन्त कुमार जी भी जानदार उत्तर देते हैं। परोपकारी में श्री आचार्य सोमदेव जी तथा आदरणीय सत्यजित् जी द्वारा शंका समाधान की शैली प्रभावशाली व प्रशंसनीय है।

आर्यसमाज में श्री राजवीर जी जैसे उदीयमान लेखक तथा अनुभवी गम्भीर विद्वान् डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने भी इस विनीत से एक दो बार कहा, ‘आपने उत्तर देते हुए चुटकी लेना कहाँ से सीखा?’

मैंने कहा, ‘अपने बड़ों से और विशेष रूप से पूज्य पं. चमूपति जी से।’

प्रिय राजवीर जी तथा श्री धर्मेन्द्र जी ‘जिज्ञासु’ ने तो कुछ श्रम करके उत्तर देने की कला सीखी व विकसित की है, परन्तु बहुत से युवक इस दिशा में कुछ करके दिखा नहीं सके और राजवीर जी तथा धर्मेन्द्र जी भी समय के अभाव में जितना उन्हें बढ़ना चाहिये, बढ़ नहीं सके। कई युवक ऐसे भी मिले हैं, जो गुरु तो बनाने की ललक रखते हैं, परन्तु उनमें विनम्रता व श्रद्धा से सीखने की ललक नहीं। घर बैठे तो यह विद्या आती नहीं।

आइये, उत्तर देने की आर्यसमाजी कला का कुछ इतिहास यहाँ देते हैं। मैंने जो पूर्वजों (इस कला के आचार्यों) के मुख से जो कुछ सुना व पढ़ा है, इस कला के जनक तो स्वयं पूज्य ऋषिवर दयानन्द जी महाराज थे। उनके पश्चात् इस कला के सिद्धहस्त कलाकार पं. लेखराम जी मैदान में उतरे। यह मेरा ही मत नहीं है, लाला लाजपतराय जी ने भी अपनी लौह लेखनी से ऐसा ही लिखा है। बड़े-बड़े मौलवियों तथा सनातन धर्मी नेता पं. दीनदयाल जी का भी ऐसा ही मत था। मौलाना अ दुल्ला मेमार तथा मौलाना रफ़ीक दिलावरी जी का भी ऐसा ही मत था।

तनिक महर्षि जी की उत्तर देने की कला पर भी इतिहास शास्त्र का निर्णय सुना दें। आर्यसमाजी लेखक जो ऋषि जीवन की तोता रटन लगाते रहते हैं, वे इतिहास के इस निर्णय को जानते ही नहीं और परोपकारी में पढ़-सुनकर इसे आगे प्रचारित ही नहीं करते।

१. वैद्य शिवराम पाण्डे ऋषि के साथ प्रयाग रहे। वे काशी की पाठशाला में भी रहे। वे आर्यसमाजी तो नहीं थे, परन्तु ऋषि की संगत की रंगत मानते थे। आपका एक दुर्लभ लेख हमारे पास है। वे लिखते हैं कि ऋषि एक ही प्रश्न का उत्तर कई प्रकार से देना जानते थे। श्री गोस्वामी घनश्याम जी मुल्तान निवासी बाल शास्त्री की कोटि के विद्वानों में से एक थे। काशी शास्त्रार्थ के समय आप काशी में नहीं थे। जब काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् मूर्तिपूजकों ने देशभर में यह प्रचार करना चाहा कि स्वामी दयानन्द शास्त्रार्थ में हारे तो गोस्वामी झट से काशी गये। बाल शास्त्री से मिलकर पूछा, सच-सच बताओ! क्या स्वामी दयानन्द हारे या काशी के पण्डित?

तब बाल शास्त्री जी ने वीतराग दयानन्द के गुणों का बखान करते हुए कहा था कि हम जैसे निर्बल संसारी उन्हें हराने वाले कौन?

चाँदापुर के शास्त्रार्थ में पादरी महोदय ने कहा था, ‘‘सुनो भाई मौलवी साहबो! पण्डित जी इसका उत्तर हजार प्रकार से दे सकते हैं। हम और तुम हजारों मिलकर भी इनसे बात करें तो भी पण्डित जी बराबर उत्तर दे सकते हैं, इसलिए इस विषय में अधिक कहना उचित नहीं।’’

पादरी जी का यह कथन आर्यसमाज में प्रचारित करने वाले चल बसे। पुस्तकों की सूचियाँ बनाने वाले सम्पादक लेखक शास्त्रार्थ कला (विधा) को समझ ही न सके।

पं. लेखराम जी की उत्तर देने की कला की एक घटना ‘आर्य मुसाफिर’ मासिक की फाईलों में छपे उनके एक शास्त्रार्थ से मिली। सीमा प्रान्त के एक नगर में प्रतिमा पूजन पर एक शास्त्रार्थ में पण्डित जी ने ‘न तस्य प्रतिमाऽअस्ति’ इस वेद वचन से अपने कथन की पुष्टि की तो विरोधी ने कहा कि यहाँ ‘नतस्य’ है अर्थात् प्रतिमा के आगे झुकने की बात है। यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं। तब पण्डित जी ने कहा कि यदि यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं तो फिर इस मन्त्र में ‘यस्य’ शब्द  किसके लिए है? वहाँ पौराणिक पण्डितों ने भी पण्डित जी के इस तर्क व प्रमाण का लोहा माना। यह किसी भी शास्त्रार्थ में किसी संस्कृतज्ञ आर्य ने तर्क न दिया। श्रद्धेय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने इस प्रसंग में हमें कहा था, ‘‘यह तो पं. लेखराम जी के जन्म-जन्मान्तरों का संस्कार और उनकी ऊहा का चमत्कार मानना पड़ेगा।’’

अब इस प्रसंग में इतिहास का एक और निचोड़ देना लाभप्रद होगा। पं. गणपति शर्मा जी तथा श्री स्वामी दर्शनानन्द जी की उत्तर देने की कला भी विलक्षण थी। इनके पश्चात् आर्यसमाज में अपनी-अपनी कला से उत्तर देने में कई सुदक्ष कलाकार विद्वान् हुए, परन्तु स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, श्री पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय, पं. रामचन्द्र जी देहलवी, पं. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक, स्वामी सत्यप्रकाश जी- इन पाँच महापुरुषों के दृष्टान्त, तर्क व प्रमाण अत्यन्त प्रभावशाली, मौलिक व हृदयस्पर्शी होते थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ने चार बार पूरे भारत का पैदल भ्रमण किया। उनके पास दृष्टान्तों का अटूट भण्डार व जीवन के बहुत अनुभव थे।

आचार्य रामदेव जी, मेहता जैमिनि जी तथा श्री पं. धर्मदेव जी को विश्व साहित्य के असंख्य उद्धरण कण्ठाग्र थे। इन तीनों की उत्तर देने की कला भी बड़ी न्यारी व प्यारी थी। मैं बाल्यकाल में अपने छोटे से ग्राम के आर्यों की परस्पर की चर्चा सुन-सुनकर ग्राम के एक आर्य युवक कार्यकर्ता से पूछा करता था कि आचार्य रामदेव जी की वक्तृत्व कला की क्या विशेषता है? उनका  उत्तर था- उन्हें सब कुछ कण्ठाग्र है। मैं अपने निजी अनुभव से यह बताना चाहूँगा कि मैं सब पूज्य विद्वानों को ध्यान से सुना करता था। उनसे चर्चा किया करता था, फिर चिन्तन करने का अभ्यास हो गया। इससे मेरी भी उत्तर देने की कला विकसित हुई।

स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ ने मेरे आरम्भिक काल में अत्यन्त प्यार से, कुछ डाँटकर कहा कि जो पढ़ो व सुनो, उसपर विचार कर स्वयं उत्तर खोजो, फिर उ उत्तर न सूझे तो आकर पूछा करो। अब इन उतावले युवकों का न गहन अध्ययन है, न बड़ों से कुछ सीखने की भूख है। प्राणायाम की चर्चा सुनकर तथा दो योग शिविरों में भाग लेकर ये सब नौ सिखिये योगाचार्य बनकर ध्यान शिविर लगाने व अपना आश्रम या अड्डा बनाने में लग जाते हैं। यह प्रवृत्ति  धर्मप्रचार में बाधक रोड़ा बन रही है।

 

ऋषि दयानन्द के दृष्टान्त :आचार्य सोमदेव जी

आचार्य सोमदेव जी ने अपने प्रवचन क्रम में मनुस्मृति का स्वाध्याय कराया। मनु के श्लोकों की धर्म, सदाचार, संस्कृति, चरित्र-निर्माण आदि के अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से सरल व्याख्या प्रस्तुत की। अपने दार्शनिक प्रसंग में आपने बताया कि सांसारिक मनःस्थिति और आध्यात्मिक मनःस्थिति में अन्तर होता है। जहाँ सांसारिक स्थिति में जो हम चाहते हैं, प्रायः वैसा होता नहीं है, और जो होता है वह प्रायः हमें भाता नहीं है (अच्छा नहीं लगता है) और यदि संसार में कुछ अच्छा भी लगने लगता है तो वह ज्यादा दिन टिक नहीं पाता- अर्थात् संसार में जो चाहते वह होता नहीं, जो होता है वह हमें भाता नहीं, और जो भाता है वह ठहरता नहीं है। इसके विपरीत आध्यात्मिक स्थिति में जो होने वाली स्थिति होती है, व्यक्ति उसी को चाहता है, जो नहीं हो सकती, उसकी इच्छा नहीं करता। होने वाली स्थिति को चाहता है तो वह प्राप्त होती है और वह स्थायी भी दिखती है, टिकने वाली दिखती है। महर्षि दयानन्द जी ने जब जन्म लिया तो टिकना चाहते थे, जीना चाहते थे लेकिन स्थिति ऐसी दिख रही थी, परिस्थिति ऐसी बन रही थी कि जीवन टिकता हुआ दिख नहीं रहा था, घटनाएँ ऐसी घट रही थीं जिनसे स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि भैया, जीवन ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। शिव मन्दिर में गए, टिकाऊ ईश्वर चाहते थे लेकिन यह क्या? ईश्वर भी टिकाऊ नहीं मिल पा रहा। उधर मूर्तियों में चूहें क्या कूदे- ईश्वर भी हाथ से निकलने लगा। तो ऋषि-महर्षि क्या चाहते हैं? अथर्ववेद कहता है-

भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे।

ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु।।

– अथर्व. १९/४१/१

भद्रमिच्छन्त ऋषयः ऋषि लोग भद्र को चाहते हैं। भद्र के अतिरिक्त ऋषियों को कुछ भी नहीं चाहिए। मन्त्र में ऋषि का एक विशेषण कहा- स्वर्विदः स्वः सुख (को), विदः जानने वाला। यथार्थ में यदि कोई सुख को जानने वाला होता है, पहचानने वाला होता है तो वह ऋषि ही होता है, आध्यात्मिक व्यक्ति ही होता है, साधक ही होता है। सांसारिक व्यक्ति तो छिछले पानी में सुख ढूँढ़ने लगता है। निरुक्त में ज्ञान पिपासुओं को जलाशय/नदी में स्नान करने वाले के दृष्टान्त से समझाया है अर्थात् जलाशय में नहाने के लिए जाने वालों में कुछ घुटने तक पानी में जाकर ही सन्तुष्ट हो जाते हैं, कुछ छाती तक पानी में तृप्त हो जाते हैं, लेकिन अच्छे तैराक तो गहरे जल में गोते लगाकर ही सन्तुष्टि को पाते हैं। वैसे ही जहाँ सांसारिक व्यक्ति थोड़े से सुख से सन्तुष्ट हो जाता है, वहीं आध्यात्मिक थोड़े से सन्तुष्ट नहीं होता है। जब तक सुख की पुष्कल मात्रा न मिल जाए उसकी खोज जारी रहती है। तो यह भद्र प्राप्त कैसे होता है? मन्त्र कह रहा है- तपो दीक्षाम्+उपनिषेदुः अग्रे अर्थात् जब तपो= तप (और) दीक्षाम्= दीक्षा के, उपनिषेदुः= निकट जाते हैं अर्थात् सुख को जानने वाले ऋषि भद्रं को चाहते हुए (उसे प्राप्त करने के लिए) तप और दीक्षा के निकट जाते हैं (तप और दीक्षा का आचरण करते हैं) महर्षि दयानन्द का दृष्टान्त हमारे सामने है, भद्र को प्राप्त करने के लिए ऋषि ने कितना तप किया, चाहे शारीरिक तप हो या वाचनिक तप हो या मानसिक तप हो, इन तीनों ही तपों में तपाकर महर्षि ने स्वयं को कुन्दन बनाया है। जब महर्षि के शारीरिक तप की बात करें तो सच्चे गुरु की खोज में अलकनन्दा के उद्गम की ओर बढ़ते हुए रास्ता बेरी की कटीली झाड़ियों से अवरुद्ध हो गया तो लेटकर वहाँ से आगे निकले और ऐसा करते हुए अपने मांस का बलिदान देना पड़ा। जब और आगे गए तो शीत बढ़ती ही गई, नदी पार करते समय बर्फ के नुकीले किनारों से पैर लहुलुहान हो गए, लेकिन ऋषि भद्र के लिए आगे बढ़ते ही जा रहे हैं। इसी प्रकार महर्षि दीक्षित भी हुए। मन्त्र कह रहा है जब व्यक्ति तपस्वी और दीक्षित होता है, तब – ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातम् अर्थात् उस तपस्वी और दीक्षित से राष्ट्र उत्पन्न होता है, बल उत्पन्न होता है और ओज उत्पन्न होता है। बल और राष्ट्र तो विदित हैं, यह ओज क्या है? कई बार कहा जाता है कि इसके मुख में ओज है, इसकी वाणी में ओज है, इसके व्यक्तित्व में ओज है। शरीर में ओज है अर्थात् शरीर विशेष कान्ति से युक्त है, यह वैसी ही कान्ति होती है जैसी बसन्त की नई कोपलों (प       िायों) में होती है, जैसे बच्चों के शरीर में होती है। यह चमक करती क्या है? यह व्यक्तियों को आकर्षित करती है। महर्षि दयानन्द के शरीर में ओज था, उनकी वाणी में ओज था। कहते हैं जब महर्षि मूर्तिपूजा खण्डन में अपनी ओजस्वी वाणी में व्याख्यान करते थे, लोग इतने प्रभावित होते थे कि टोकरियों में भर-भरकर अपने घरों की मूर्तियाँ निकाल फेंकते थे। तो तपस्वी और दीक्षित में बल उत्पन्न होता है। महर्षि दयानन्द में कितना शारीरिक बल था? महर्षि जोधपुर में ठहरे हुए थे, भ्रमण में जाते समय मार्ग में एक भारी रहंठ आया करती थी, एक पहलवान जो इस रहंठ को घुमाकर हौदी में पानी भरता था, उसे इस बात का अभिमान था कि मेरे अतिरिक्त इस रहंठ को कोई भी घुमा नहीं सकता। एक बार महर्षि भ्रमणार्थ जब वहाँ पहुँचे तो हौदी को खाली देख, पशुओं के पीने के पानी के लिए और शारीरिक व्यायाम की दृष्टि से रहंठ घुमाने लगे, थोड़ी ही देर में हौदी भर गई, लेकिन महर्षि का व्यायाम भी पूरा नहीं हुआ तो महर्षि टहलने आगे निकल गए। जब लौटे तो इतने में वहाँ पहलवान भी आ चुका था। उसने महर्षि से पूछा- महाराज क्या आपने ये हौदी भरी है? महर्षि ने कहा कि हाँ, हमने भरी है, हमने सोचा कि इससे हमारा व्यायाम हो जाएगा, लेकिन हौदी जल्दी ही भर गई, व्यायाम भी पूरा नहीं हो पाया तो हम टहलते आगे चले गए। पहलवान को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि जिस हौदी को भरते-भरते मैं थक जाता हूँ, स्वामी जी का थकना तो दूर, ठीक से व्यायाम भी नहीं हुआ, कितना बल रहा होगा महर्षि के शरीर में! इसी प्रकार मानसिक बल भी, जितनी विषम परिस्थितियों में स्वयं को अडिग रखते हुए महर्षि ने कार्य किया, हम अनुमान कर सकते हैं कि कितना अधिक मानसिक बल रहा होगा और ऐसा होने पर अर्थात् जब भद्र की इच्छा करते हुए तपस्वी व दीक्षित होने पर ऋषि बल, राष्ट्र और ओज को उत्पन्न कर देते हैं तब- तदस्मै देवा उपसंनमन्तु अर्थात् उस ऋषि के लिए देवता भी प्रणाम करते हैं। विद्वान्/श्रेष्ठ उस तपस्वी का सम्मान करते हैं। इति।।

 

विश्व को ऋषी दयानन्द की देन – प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

महर्षि दयानन्द जी का प्रादुर्भाव विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। महर्षि का बोध पर्व उससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण  घटना है। आज पूरे विश्व में मानव के अधिकारों तथा मानव की गरिमा का मीड़िया में बहुत शोर मचाया जाता है। ऋषि के प्रादुर्भाव से पूर्व मानव के अस्तित्व का धर्म व दर्शन में महत्व ही क्या था?

बाइबिल की उत्पत्ति  की पुस्तक में आता है कि परमात्मा ने जीव, जन्तु, पक्षी, प्राणी पहले बनाये फिर उसने कहा, ‘‘Let us make man in our image’’ अब नये बाइबिल में श     द बदल गये हैं। अब हमें पढ़ने को मिलता है, ‘‘Let us make human beings in our image, in our likeness.’’ अर्थात् परमात्मा ने कहा हम ‘पुरुष को’ (अब मानवों को) अपनी आकृति जैसा और अपने सरीखा बनायें। यह कार्य छठे दिन किया गया। मानव की इसमें गरिमा क्या रही? वह जीव-जन्तुओं से पीछे बनाया गया और क्यों बनाया गया? इसका उत्तर  ही नहीं।

इस्लाम में मनुष्य को बन्दः कहा जाता है और भक्ति को उपासना को बन्दगी कहा जाता है। बन्दः का अर्थ है दास और बन्दगी का अर्थ दासता, सेवा करना आदि। तो यहाँ भी मानव की गरिमा क्या हुई? अबादत का अर्थ भी बन्दगी-दासता ही है। हिन्दू तो जगत् को मिथ्या व ब्रह्म को-केवल ब्रह्म की सत्ता  को स्वीकार करते थे। कुछ आत्मा को अनादि भी मानते थे। सब कुछ अस्पष्ट था।

महर्षि दयानन्द जी ने सिंह गर्जना करके कहा कि ईश्वर, जीव तथा प्रकृति तीनों अनादि हैं। तीनों की सत्ता है। जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता का घोष करके ऋषि मानव की गरिमा पहली बार इस युग में संसार को बताई।

जहाँ कर्ता  है, वहीं क्रिया होगी और जहाँ क्रिया है वहाँ कर्ता को मानना पड़ता है। सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह, उपग्रह सब गति करते हैं। गति देने वाले परमात्मा की सत्ता  तो स्वतः सिद्ध हो गई। उपादान कारण के बिना आज भी कुछ बनते नहीं देखा गया सो जगत् के उपादान कारण प्रकृति का अनादित्व भी सिद्ध हो गया। विज्ञान ऐसा ही मानता है। यह महर्षि दयानन्द की विश्व को बहुत बड़ी देन है।

मनुष्य की उत्पत्ति  की बात चली तो यह भी जान लें कि बाइबिल में आता है I give you every seed bearing plant on the face of the whole earch and every tree that has fruit with seed in it. They will be yours for fodd.  फिर लिखा है,  Trees that were pleasing to the eyes and good for food.

अर्थात् दो बार ईश्वर ने बाइबिल के अनुसार शाकाहार को मानव का पवित्र भोजन बताया व बनाया। यही वेदादेश है परन्तु ईसाई व मुसलमान ही मांसाहार व पशुहिंसा में अग्रणी हैं। ऋषि ने पेड़, पौधों, जलचर, नभचर व गाय आदि सब प्राणियों की मानव कल्याण व विश्व शान्ति के लिये सुरक्षा को आवश्यक बताया।

ऋषि बोध पर्व के दिन ऋषि के जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार जाग उठे। उन्हें पता चला कि ईश्वर वह नहीं जिसे हम बनाते हैं। ईश्वर वह है जो सृष्टि का कर्ता  है। ईश्वर खाता नहीं, वह खिलाता है। वह भोक्ता नहीं भोग देता है। वह द्रष्टा है। कर्म फल का भोग करने वाला जीव है। सर सैयद अहमद ने लिखा कि शिवरात्रि के दिन दयानन्द जी को जो ज्ञान हुआ क्या वह इलहाम (ईश्वरीय ज्ञान) नहीं था? आत्मा को प्रभु की आवाज सुनाई न दे तो दोष किसका? ऋषि ने स्वयं लिखा है कि आत्मा में नित्य गूञ्जने वाली आपकी आवाज को प्रभु हम सुनते रहें। मन में भय, लज्जा और शङ्का जो दुष्कर्म, पाप करते समय मनुष्य के मन में उत्पन्न होती है, ऋषि ने इसे ईश्वर की आवाज बताया है। पश्चिम के विद्वान् ने भी इसी बात को इन शब्दों  में कहा है, there is a candle of the lord within us अर्थात् हमारे भीतर प्रभु की एक बत्ती  प्रकाश करती रहती है।

महर्षि दयानन्द अपनी काया से बलवान् थे, वे अपने मन व मस्तिष्क से बलवान् थे और अपने आत्मा से भी महान् व बलवान् थे। कोलकाता विश्वविद्यालय के एक पूर्व दार्शनिक विद्वान् डॉ. महेन्द्रनाथ जी ने अत्यन्त मार्मिक शब्दों  में लिखा है-  Strong is the epithet that can be applied in truth to Dayanand, strong in intellect strong in adventures strong in heart and strong and organizing forces. And his teachings through life and writings cab summed up in one word STRENGTH  अर्थात् बलवान् एक ऐसी उपाधि है जो दयानन्द पर ठीक-ठीक चरितार्थ होती है, विचारों में- मस्तिष्क से बलवान्, साहसिक कार्य के कारण बलवान्, हृदय से बलवान् तथा शक्तियों के गठन करने में बलवान् और उसके जीवन एवं साहित्य द्वारा उसकी शिक्षाओं को एक शब्द  में बताना है तो वह है ‘शक्ति’

इससे अधिक हम ऋषि की महानता पर क्या कहें? ऋषि ने अपने सन्देश, उपदेश व जीवन द्वारा मानव समाज को प्रकाश दिया और मृतकों में नवजीवन का संचार किया। उनके बोध पर्व पर हम उन्हें शत बार नमन करते हैं।

 

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महर्षि दयानन्द दर्शन का विश्वव्यापी प्रभाव : प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

महर्षि दयानन्द दर्शन का विश्वव्यापी प्रभावःसस्ता साहित्य मण्डल ने ‘हमारी परम्परा’ नाम से एक ग्रन्थ का प्रकाशन किया है। इसके संकलनकर्ता अथवा सम्पादक प्रसिद्ध गाँधीवादी श्री वियोगीहरि जी ने आर्यसमाज विषय पर भी एक उ      ाम लेख देने की उदारता दिखाई है। उनसे ऐसी ही आशा थी। वे आर्यसमाज द्वेषी नहीं थे। इन पंक्तियों के लेखक से भी उनका बड़ा स्नेह था। प्रसंगवश यहाँ बता दें कि आप स्वामी सत्यप्रकाश जी का बहुत सम्मान करते थे।

इस ग्रन्थ में छपे आर्यसमाज विषयक लेख के लेखक आर्य पुरुष यशस्वी हिन्दी साहित्यकार स्वर्गीय श्री विष्णु प्रभाकर जी हैं। आपने इसमें एक भ्रमोत्पादक बात लिखी है जिसका निराकरण करना हम अपना पुनीत व आवश्यक कर्     ाव्य मानते हैं। आपने लिखा है कि आर्यसमाज के समाज सुधार सम्बन्धी कार्यों का जितना प्रभाव पड़ा है वैसा प्रभाव आर्यसमाज के दर्शन का नहीं पड़ा। हम इस भ्रमोत्पादक कथन के लिए मान्य विष्णु प्रभाकर जी को कतई दोष नहीं देते। उनका कथन इस दृष्टि से यथार्थ है कि ऋषि-दर्शन का जितना प्रचार होना चाहिए था उतना प्रचार इस समय नहीं हो रहा है। एक भावनाशील आर्य होने के नाते आपने जो अनुभव किया सो ठीक है। तथ्य यही है कि आर्यसमाज के नेताओं की तीन पीढ़ियों ने असह्य दुःख कष्ट झेलकर, जानें वारकर, रक्तरंजित इतिहास रचकर ऋषि दर्शन की संसार पर अमिट व गहरी छाप लगाई। चौथी पीढ़ी आन्तरिक शत्रु की घेराबन्दी में फंसकर हतोत्साहित ही नहीं हुई पूर्णतया पराजित व असहाय हो गई।

पराभव कैसे हुआ?ः- यह घेराबन्दी संस्थावादियों या स्कूल पन्थियों ने की। आर्यसमाज संस्थावाद के कीच-बीच फंसकर शिक्षा व्यापार मण्डल का रूप धारण कर गया। वैदिक दर्शन का प्रचार तो कुछ व्यक्ति तथा कुछ ही संस्थायें कर रही हैं। यहाँ पहली तीन पीढ़ी के महापुरुषों के कुछ नाम देकर उनके प्रति कृतज्ञता का प्रकाश करना हमारा कर्     ाव्य बनता है।

तीन पीढ़ियों के आग्नेय नेताः पं. गुरुद     ा विद्यार्थी और वीर शिरोमणि पं. लेखराम प्रथम पीढ़ी की दो विभूतियाँ थीं।

श्री स्वामी नित्यानन्द महाराज, स्वामी श्रद्धानन्द महाराज, स्वामी दर्शनानन्द महाराज, स्वामी योगेन्द्रपाल, पं. गणपति शर्मा, आचार्य रामदेव दूसरी पीढ़ी के तपस्वी सर्वस्व त्यागी मिशनरी नेता थे।

महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, पं. धर्मभिक्षु, पं. रामचन्द्र देहलवी, भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि, पं. गंगाप्रसाद द्वय, आचार्य चमूपति, वीर शिरोमणि श्याम भाई, क्रान्तिवीर नरेन्द्र, कर्मवीर लक्ष्मण आर्योपदेशक, कुँवर सुखलाल, स्वामी अभेदानन्द, पं. अयोध्याप्रसाद तीसरी पीढ़ी के समर्पित नेता थे।

चौथी पीढ़ी के नेता जोड़-तोड़ वादी कुर्सी भक्त, चुनाव तनाव के चक्करों में उलझकर मिशन को गौण बनाने का कलङ्क लेकर संसार से गये। ये लोग शिक्षा व्यापार मण्डल के सुनियोजित संगठन का सामना न कर पाये। गुरुकुल भी निष्प्राण हो गये। बड़ों से सम्पदा तो अपार मिल गई परन्तु न तो श्रीमद्दयानन्द उपदेशक विद्यालय लाहौर का स्थान कोई संस्था ले पाई और न स्वामी स्वतन्त्रानन्द के रिक्त स्थान की पूर्ति ही समाज कर पाया।

भूमि के गुरुत्व आकर्षण का नियमःतथापि यह मानना पड़ेगा कि पहली तीन पीढ़ियों ने इतना ठोस और व्यापक प्रचार किया कि सकल विश्व के वैचारिक चिन्तन तथा व्यवहार में भूमि के गुरुत्व आकर्षण के नियम के सदृश महर्षि दयानन्द के गुरुत्व आकर्षण का नियत ओतप्रोत है। जैसे यह नियम सब मानवीय गतिविधियों में ओतप्रोत है परन्तु दिखाई नहीं देता ठीक इसी प्रकार सब मत पन्थों के मानने वालों की सोच और व्यवहार में महर्षि दयानन्द का दर्शन ओतप्रोत है। यह छाप और प्रभाव भले ही देखने वालों को दिखाई न दे परन्तु इतिहास इसकी साक्षी दे रहा है। यह सब कुछ आपके सामने है। हाँ! हमें यह तो मान्य है कि अन्धविश्वासों की अन्धी आँधी सब मत पन्थों को उड़ाकर ले जाती दीख रही है। लीजिये महर्षि दयानन्द जी महाराज के वैदिक दर्शन को दिग्विजय के कुछ तथ्य कुछ बिन्दु इस लेखमाला में देते हैंः-

शैतान कहाँ है?ः- ईसाई तथा इस्लामी दर्शन का आधार शैतान के अस्तित्व पर है। शैतान सृष्टि की उत्प      िा के समय से शैतानी करता व शैतानी सिखलाता चला आ रहा है। उसी का सामना करने व सन्मार्ग दर्शन के लिए अल्लाह नबी भेजता चला आ रहा है। मनुष्यों से पाप शैतान करवाता है। मनुष्य स्वयं ऐसा नहीं सोचता। पूरे विश्व में आज पर्यन्त किसी भी कोर्ट में किसी ईसाई मुसलमान जज के सामने किसी भी अभियुक्त ईसाई व मुसलमान बन्धु ने यह गुहार नहीं लगाई कि मैंने पाप नहीं किया। मुझ से अपराध करवाया गया है। पाप के लिए उकसाने वाला तो शैतान है।

किसी न्यायाधीश ने भी कहीं यह टिप्पणी नहीं की कि तुम शैतान के बहकावे में क्यों आये? दण्ड कर्ता को ही मिलता है। कर्ता की पूरे विश्व के कानूनविद् यही परिभाषा करते हैं जो सत्यार्थप्रकाश में लिखी है अर्थात् ‘स्वतन्त्रकर्ता’ कहिये शैतान कहाँ खो गया? फांसी पर तो इल्मुद्दीन तथा अ    दुल रशीद चढ़ाये गये। क्या यह महर्षि दयानन्द दर्शन की विजय नहीं है? अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इरान, पाकिस्तान व मिश्र में इसी नियम के अनुसार अपराधी फांसी पर लटकाये जाते हैं और कारागार में पहुँचाये जाते हैं।

सर सैयद अहमद का लेख याद कीजियेः मुसलमानों के सर्वमान्य नेता तथा कुरान के भाष्यकार सर सैयद अहमद खाँ ने अपने ग्रन्थ में एक कहानी दी है। एक मौलाना को सपने में शैतान दीख गया। मौलाना ने झट से उसकी दाढ़ी को कसकर पकड़ लिया। एक हाथ से उसकी दाढ़ी को खींचा और दूसरे हाथ से शैतान की गाल पर कस कर थप्पड़ मार दिया। शैतान की गाल लाल-लाल हो गई। इतने में मौलाना की नींद खुल गई। देखता क्या है कि उसके हाथ में उसी की दाढ़ी थी जिसे वह खींच रहा था और थप्पड़ की मार से उसी का गाल लाल-लाल हो गया था।

इस पर सर सैयद की टिप्पणी है कि शैतान का अस्तित्व कहीं बाहर नहीं (खारिजी वजूद) है। तुम्हारे मन के पाप भाव ही तुम से पाप करवाते हैं। अब प्रबुद्ध पाठक अपने आपसे पूछें कि यह क्रान्ति किसके पुण्य प्रताप से हो पाई? यह किसका प्रभाव है? मानना पड़ेगा कि यह उसी ऋषि का जादू है जिसने सर्वप्रथम शैतान वाली फ़िलास्फ़ी की समीक्षा करके अण्डबण्ड-पाखण्ड की पोल खोली।

‘जवाहिरे जावेद’ के छपने परः- देश की हत्या होने से पूर्व एक स्वाध्यायशील मुसलमान वकील आर्य सामाजिक साहित्य का बड़ा अध्ययन किया करता था। उस पर महर्षि के वैदिक सिद्धान्त का गहरा प्रभाव पड़ता गया परन्तु एक वैदिक मान्यता उसके गले के नीचे नहीं उतर रही थी। जब जीव व प्रकृति भी अनादि हैं, इन्हें परमात्मा ने उत्पन्न नहीं किया तो फिर परमात्मा इनका स्वामी कैसे हो गया? प्रभु जीव व प्रकृति से बड़ा कैसे हो गया? तीनों ही तो समान आयु के हैं। न कोई बड़ा और न ही छोटा है।

आचार्य चमूपति की मौलिक दार्शनिक कृति ‘जवाहिरे जावेद’ के छपते ही उसने इसे क्रय करके पढ़ा। पुस्तक पढ़कर वह स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पास आया। महाराज के ऐसे कई मुसलमान प्रेमी भक्त थे। उसने स्वामी जी से कहा कि आर्यसमाज की सब मान्यताएँ मुझे जँचती थीं, अपील करती थीं परन्तु प्रकृति व जीव के अनादि व का सिद्धान्त मैं नहीं समझ पाया था। पं. चमूपति जी की इस पुस्तक को पढ़कर मेरी सब शंकाओं का उ ार मिल गया।

मित्रो! कहो कि यह किस की दिग्विजय है। इसी के साथ यह बता दें कि दिल्ली के चाँदनी चौक बाजार में किसी गली में एक प्रसिद्ध मुस्लिम मौलाना महबूब अली रहते थे। मूलतः आप चरखी दादरी (हरियाणा) के निवासी थे। आपने भी यह अद्भुत पुस्तक पढ़ी। फिर आपने एक बड़ा जोरदार लेख लिखा। श्री सत्येन्द्र सिंह जी ने हमें उस लेख का हिन्दी अनुवाद करने की प्रेरणा दी। अब समय मिलेगा तो कर देंगे। इस लेख में पण्डित जी के एतद्विषयक तर्कों को पढ़कर मौलाना ने सब मौलवियों से कहा था कि यदि प्रकृति व जीव के अनादित्व को स्वीकार न किया जावे तो कुरान वर्णित अल्लाह के सब नाम निरर्थक सिद्ध होते हैं। मौलाना की यह युक्ति अकाट्य है। कैसे? अल्लाह के कुरान में ९९ नाम हैं यथा न्यायकारी, पालक, मालिक, अन्नधन (रिजक) देने वाला आदि। अल्लाह के यह गुण व नाम भी तो अनादि हैं। जब जीव नहीं थे तो वह किसका पालक, मालिक था? किसे न्याय देता था? प्रकृति उत्पन्न नहीं हुई थी तो जीवों को देता क्या था? तब वह स्रष्टा (खालिक) कैसे था? किससे सृजन करता था? मौलाना की बात का प्रतिवाद कोई नहीं कर सका। अब प्रबुद्ध पाठक निर्णय करें कि यह किस की छाप है? यह वैदिक दर्शन की विजय है या नहीं?

मरयम कुमारी थी क्या?ः- मुसलमान व ईसाई दोनों ही हज़रत ईसा का जन्म कुमारी मरयम से मानते आये हैं। अब विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रैण्ड रस्सल तथा सर सैयद की कोटि के विचारक ऐसा नहीं मानते। सर सैयद अहमद खाँ ने तो लाहौर के एक पठित मुस्लिम युवक के प्रश्न का उत्तर  देते हुए श्री ईसा के जन्म विषयक तर्क भी वही दिया जो पं. लेखराम जी ने कुल्लियात आर्य मुसाफिर में दिया है। अमेरिका से प्रकाशित एक पुस्तक में कई युवा पादरियों ने अनेक ऐसे-ऐसे वैदिक विचारों को स्वीकार किया है।

पुराण व्यासकृत नहींः हरिद्वार के सन् १८७९ के कुम्भ तक ऋषि विरोधियों का सबसे बड़ा सनातनी सेनापति पं. श्रद्धाराम फिलौरी था। वह ऋषि की शत्रुता में काशी वालों से भी तब तक कहीं आगे था। उसने लिखा है कि १८ पुराण व्यासकृत नहीं। यह सन्देश इस युग में सर्वप्रथम ऋषि ने सुनाया। यह छाप ऋषि की वैदिक विचारधारा की नहीं तो किसकी है?

वेद संहितायें चार ही हैंःपौराणिक तो उपनिषद् ब्राह्मण ग्रन्थ सबको वेद ही मानते थे। महर्षि का घोष था कि चार संहितायें ही ईश्वरीय वाणी हैं। त्रिवेदी और चतुर्वेदी ब्राह्मण तो पाये जाते हैं परन्तु कई विद्वानों को सात उपनिषदें कण्ठाग्र हैं फिर वे सप्तवेदी और आठ-दस उपनिषदों के विद्वान् अष्टवेदी, दशवेदी और एकदशवेदी क्यों नहीं? अमेरिका से प्रकाशित स्द्गष्ह्म्द्गह्ल ञ्जद्गड्डष्द्धद्बठ्ठद्दह्य शद्घ ञ्जद्धद्ग ङ्कद्गस्रड्डह्य के ईसाई लेखक ने तथा डॉ. अविनाशचन्द्र वसु सरीखे सब लेखकों ने चार संहिताओं को ही वेद माना है। यह किसके पुण्य प्रताप का फल है।

वेद के यौगिक अर्थः वेद भाष्यकारों को महर्षि ने आर्ष ग्रन्थों के आधार पर वेदभाष्य करने के लिये यौगिक अर्थों की कुञ्जी दी। ॥…….. पुस्तक के अमेरिकन लेखक ने भी डंके की चोट से महर्षि की वेदभाष्य की इस विधा को स्वीकार किया है। कौन है जो इस मूलभूत आर्ष मान्यता की इस दिग्विजय को महर्षि दयानन्द का विश्वव्यापी प्रभाव न मानेगा?

न्याय की रात या न्याय का दिनः ईसाई मुसलमान सभी प्रलय की रात (या दिन) को ईश्वरीय न्याय के सिद्धान्त को मानते आये हैं। इसी को अंग्रेजी में —— कहा जाता है। अब डॉ. गुलाम जेलानी की लोकप्रिय पुस्तकों में इस्लाम का नया दार्शनिक दृष्टिकोण सामने आया है। वह यह घोषणा कर रहे हैं कि अल्लाह ताला प्रतिपल न्याय करता है। जिसकी आँखें हैं वे देख रहे हैं कि सारे संसार पर ऋषि की दार्शनिक छाप का गहरा प्रभाव है। आर्यसमाज की वेदी से ही दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रचार बन्द होने से स्कूल खोले, नारी उद्धार किया, स्वराज्य के मन्त्र द्रष्टा की रट लगाने वालों के दुष्प्रचार को प्रमुखता मिलने से भ्रामक विचार फैल गया कि आर्यसमाज के दार्शनिक विचारों का संसार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।

टिप्पणी

. द्रष्टव्य सत्यामृतप्रवाह लेखक पं. श्रद्धाराम जी।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-१५२११६

‘मर्यादा पुरूषोत्तम एवं योगेश्वर दयानन्द’-मनमोहन कुमार आर्य

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ओ३म्

मर्यादा पुरूषोत्तम एवं योगेश्वर दयानन्द


 

महर्षि दयानन्द को 13, 15 और 17 वर्ष की आयु में घटी शिवरात्रि व्रत, बहिन की मृत्यु और उसके बाद चाचा की मृत्यु से वैराग्य उत्पन्न हुआ था। 22 वर्ष की अवस्था तक वह गुजरात प्राप्त के मोरवी नगर के टंकारा नामक ग्राम में स्थित घर पर रहे और मृत्यु पर विजय पाने की ओषधि खोजते रहे। जब परिवार ने उनकी भावना को जाना तो विवाह करने के लिए उन्हें विवश किया। विवाह की सभी तैयारियां पूर्ण हो गई और इसकी तिथि निकट आ गई। जब कोई और विकल्प नहीं बचा तो आपने गृह त्याग कर दिया और सत्य ज्ञान की खोज में घर से निकल पड़े। आपने देश भर का भ्रमण कर सच्चे ज्ञानी विद्वानों और योगियों की खोज कर उनकी संगति की और संस्कृत व शास्त्रों के अध्ययन के साथ-साथ योग का भी क्रियात्मक सफल अभ्यास किया। योग की जो भी सिद्धियां व उपलब्धियां हो सकती थी, उन्हें प्राप्त कर लेने के बाद भी उनका आत्मा सन्तुष्ट न हुआ। अब उन्हें एक ऐसे गुरू की तलाश थी जो उनकी सभी शंकायें और भ्रमों को दूर कर सके। मनुष्य की जो सत्य इच्छा होती है और उसके लिए वह उपयुक्त पुरूषार्थ करता है तो उसकी वह इच्छा अवश्य पूरी होती है और ईश्वर भी उसमें सहायक होते हैं। ऐसा ही स्वामी दयानन्द के जीवन में भी हुआ और उन्हें प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरू स्वामी विरजानन्द सरस्वती का पता मिला जो मथुरा में संस्कृत के आर्ष व्याकरण एवं वैदिक आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन कराते थे। सन् 1860 में आप उनके शरणागत हुए और अप्रैल 1863 तक उनसे अध्ययन व ज्ञान की प्राप्ति की। अध्ययन पूरा कर गुरू दक्षिणा में स्वामीजी ने अपने गुरू को उनकी प्रिय लौंगे प्रस्तुत की। गुरूजी ने भेंट सहर्ष स्वीकार की और दयानन्द जी को कहा कि वेद और वैदिक धर्म, संस्कृति व परम्परायें अवनति की ओर हैं और विगत 4-5 हजार वर्षों में देश व दुनियां में मनुष्यों द्वारा स्थापित कल्पित, अज्ञानयुक्त, अन्धविश्वास से पूर्ण मान्यतायें व परम्परायें प्रचलित हो गईं हैं। हे दयानन्द ! तुम असत्य का खण्डन तथा सत्य का मण्डन कर सत्य पर आधारित ईश्वर व ऋषियों की धर्म-संस्कृति व परम्पराओं का प्रचार व उनकी स्थापना करो। स्वामी दयानन्द ने अपने गुरू की आज्ञा को सिर झुकाकर स्वीकार किया और कहा कि गुरूजी ! आप देखेंगे कि यह आपका अंकिचन शिष्य व सेवक आपसे किये गये अपने इस वचन को प्राणपण से पूरा करने में लगा हुआ है। ऐसा ही हम अप्रैल, 1863 से अक्तूबर, 1883 के मध्य उनके जीवन में घटित घटनाओं में देखते हैं।

 

इस घटना के बाद स्वामी दयानन्द ने देश भर का भ्रमण किया। वेदों पर उन्होंने अपना ध्यान केन्द्रित किया। उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास किये। उन्होंने इंग्लैण्ड में प्रथम बार प्रो. फ्रेडरिक मैक्समूलर द्वारा प्रकाशित चारों वेद मंगाये। उन्होंने चारों वेदों का गहन अध्ययन किया और पाया कि वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं जो सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा की आत्माओं में सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी ईश्वर द्वारा प्रकट, प्रेरित, प्रविष्ट व स्थापित किये गये थे। उन्होंने यह भी पाया कि वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत में भारी अन्तर है। लौकिक संस्कृत के शब्द रूढ़ हैं जबकि वेदों के सभी शब्द नित्य होने के कारण घातुज या यौगिक हैं। उन्होंने यह भी जाना कि वेदों के शब्दों के रूढ़ अर्थों के कारण अर्थ का अनर्थ हुआ है। उन्होंने पाणिनी की अष्टाध्यायी, काशिका, पंतंजलि के महाभाष्य, महर्षि यास्क के निघण्टु और निरूक्त आदि ग्रन्थों की सहायता से वेदों के पारमार्थिक एवं व्यवहारिक अर्थ कर एक अपूर्व महाक्रान्ति को जन्म दिया और अपने पूर्ववर्ती पौर्वीय व पाश्चात्य वैदिक विद्वानों के वेदार्थों की निरर्थकता व अप्रमाणिकता का अनावरण कर सत्य का प्रकाश किया। महर्षि दयानन्द ने अपनी वेद विषयक मान्यताओं और सिद्धान्तों, जो कि शत प्रतिशत सत्य अर्थों पर आधारित हैं, का प्रकाश किया और इसके लिए उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, संस्कृत वाक्य प्रबोध, व्यवहारभानु आदि अनेकानेक ग्रन्थों का सृजन किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती का यह कार्य मर्यादा पालन के साथ-साथ मर्यादाओं की स्थापनाओं का कार्य होने से इतिहास में अपूर्व है जिस कारण वह मर्यादाओं के संस्थापक होने से मर्यादा पुरूषोत्तम विशेषण के पूरी तरह अधिकारी है। इतना ही नहीं, उन्होंने वैदिक मर्यादा की स्थापना के लिए वेदों के संस्कृत व हिन्दी में भाष्य का कार्य भी आरम्भ किया। सृष्टि के आरम्भ से उनके समय तक उपलब्ध वेदों के भाष्यों में आर्ष सिद्धान्तों, मान्यताओं व परम्पराओं से पूरी तरह से समृद्ध कोई वेद भाष्य संस्कृत वा अन्य किसी भाषा में उपलब्ध नहीं था। मात्र निरूक्त ग्रन्थ ऐसा था जिसमें वेदों के आर्ष भाष्य का उल्लेख व दिग्दर्शन था। महर्षि दयानन्द ने उसका पूर्ण उपयोग करते हुए एक अपूर्व कार्य किया जो उन्हें न केवल ईश्वर की दृष्टि में अपितु निष्पक्ष संसार के ज्ञानियों में सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करता है।

वेदों का प्रचार प्रसार ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य सिद्ध होता है। धन कमाना व सुख भोगना गौण उद्देश्य हैं परन्तु मुख्य उद्देश्य वेदों का अध्ययन व अध्यापन, प्रचार व प्रसार, उपदेश व शास्त्रार्थ, सत्य का मण्डन व असत्य का खण्डन, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, ऊंच-नीच की भावनाओं से मुक्त होकर सबको समान मानना व दलित व पिछड़ों को ज्ञानार्जन व धनोपार्जन में समान अधिकार दिलाना, अछूतोद्धार व दलितोद्धार आदि कार्य भी मनुष्य जीवन के कर्तव्य हैं, यह ज्ञान महर्षि दयानन्द के जीवन व कार्यों को देख कर होता है। आज देश व समाज में वेदों का यथोचित महत्व नहीं रहा जिस कारण समाज में अराजकता, असमानता, विषमता, अज्ञानता, अन्धविश्वास, परोपकार व सेवा भावना की अत्यन्त कमी, दुखियों, रोगियों व निर्धनों, भूखों, बेरोजगारों के प्रति मानवीय संवेदनाओं व सहानुभूति में कमी, देश भक्ति की कमी या ह्रास आदि अवगुण दिखाई देते हैं जिसका कारण वेदों का अप्रचलन, अप्रचार व अवैदिक विचारों का प्रचलन, प्रचार व प्रभाव है। यह बात समझ में नहीं आती कि जब वेद सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए, वेदों से पूर्व संसार में कोई ग्रन्थ रचा नहीं गया और न प्राप्त होता है, वेदों की भाषा व उसके विचारों व ज्ञान का अथाह समुद्र जो मानव जाति के लिए कल्याणकारी है, फिर भी उसे भारत व संसार के लोग स्वीकार क्यों नहीं करते? हम संसार के सभी मतावलम्बियों से यह अवश्य पूछना चाहेंगे कि आप वेदों से दूरी क्यों बनाये हुए हैं? क्या वेद कोई हिंसक प्राणी है जो आपको हानि पहुंचायेगा, यदि नहीं फिर आपको किस बात का डर है? यदि है तो वह निःसंकोच भाव से क्यों नहीं बताते? महर्षि दयानन्द का मानना था जिसे हम उचित समझते हैं कि यदि सारे संसार के लोग वेदों का अध्ययन करें, समीक्षात्मक रूप से गुण-दोषों पर विचार करें और गुणों को स्वीकार कर लें तो सारे संसार में शान्ति स्थापित हो सकती है। अशान्ति व विरोध का कारण ही विचारों व विचारधाराओं की भिन्नता है, कुछ स्वार्थ व अज्ञानता है तथा कुछ व अधिक विषयलोलुपता एवं असीमित सुखभोग की अभिलाषा व आदत है। महर्षि दयानन्द यहां एक आदर्श मानव के रूप में उपस्थित हैं और वह हमें इतिहास में सभी बड़े से बड़े महापुरूषों से भी बड़े दृष्टिगोचर होते हैं। अतः यदि उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम कहा जाये तो यह अत्युक्ति नहीं अपितु अल्पयुक्ति है। उन्होंने स्वयं तो सभी मानवीय मर्यादाओं का पालन किया ही, साथ हि सभी मनुष्यों को मर्यादा में रहने वा मर्यादाओं का पालन करने के लिए प्रेरित किया और उससे होने वाले धर्म, अर्थ, काम मोक्ष के लाभों से भी परिचित कराया।

 

आईये, अब स्वामी दयानन्द जी के योगेश्वर होने के स्वरूप पर विचार करते हैं। हम जानते है कि संसार में एक सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता ईश्वर है और वही योगेश्वर भी है। उसके बाद हमारे उन योगियों का स्थान आता है जिन्होंने कठिन योग साधनायें कीं और ईश्वर का साक्षात्कार किया। यह लोग सच्चे योगी कहला सकते हैं। अब विद्या को प्राप्त करने के बाद विद्या का दान करने का समय आता है। यदि कोई सिद्ध योगी योग विद्या का दान नहीं करता व अपने तक सीमित रहता है तो वह स्वार्थी योगी ही कहला सकता है। महर्षि दयानन्द ने देश भर में घूम-घूम कर योगियों की संगति की, योग सीखा और उसमें वह सफल रहे। इतने पर ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। इसके बाद भी उन्होंने विद्या के ऐसे गुरू की खोज की जो उनकी सभी शंकायें व भ्रान्तियां दूर कर दें। इस कार्य में भी वह सफल हुए और उन्हें विद्या के योग्यतम् गुरू प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती प्राप्त हुए। उनसे उन्हें पूर्ण विद्या का दान प्राप्त हुआ और वह पूर्ण विद्या और योग की सिद्धि से महर्षि के उच्च व गौरवपूर्ण आसन पर विराजमान होकर भूतो भविष्यति संज्ञा के संवाहक हुए। स्वामी श्रद्धानन्द ने उन्हें बरेली में प्रातः वायु सेवन के समय समाधि लगाये देखा था। महर्षि जहां-जहां जाते व रहते थे, उनके साथ के सेवक व भृत्य रात्रि में उन्हें योग समाधि में स्थित देखते थे। उनके जीवन में ऐसे उदाहरण भी है कि वेदों के मन्त्रों का अर्थ लिखाते समय उन्हें जब कहीं कोई शंका होती थी तो वह एक कमरे में जाते थे, समाधि लगाते थे, ईश्वर से अर्थ पूछते थे और बाहर आकर वेदभाष्य के लेखकों को अर्थ लिखा देते थे। जीवन में वह कभी डरे नहीं, यह आत्मिक बल उन्हें ईश्वर के साक्षात्कार से ही प्राप्त हुआ एक गुण था। अंग्रेजों का राज्य था, सन् 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम हो चुका था, उस समय वह 32 वर्ष के युवा संन्यासी थे। उन्होंने उस संग्राम में गुप्त कार्य किये जिसका विवरण उन्होंने कभी प्रकट नहीं किया न उनके जीवन के अनुसंधानकर्ता व अध्येता पूर्णतः जान पाये। इसके केवल संकेत ही उनके ग्रन्थों में वर्णित कुछ घटनाओं में मिलते हैं। इस आजादी के आन्दोलन के विफल होने पर उन्होंने पूर्ण विद्या प्राप्त कर पुनः सक्रिय होने की योजना को कार्यरूप दिया और अन्ततः वेद प्रचार के नाम से देश में जागृति उत्पन्न की। अन्तोगत्वा 15 अगस्त, 1947 को देश अंग्रेजों की दासता से स्वतन्त्र हुआ। उनके योगदान का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि स्वराज्य को सुराज्य से श्रेष्ठ बताने वाले प्रथम पुरूष स्वामी दयानन्द थे और उनके आर्य समाजी विचारधारा के अनुयायियों की संख्या आजादी के आन्दोलन में सर्वाधिक थी। लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, महादेव रानाडे, क्रान्ति के पुरोधा श्यामजी कृष्ण वर्मा, पं. राम प्रसाद बिस्मिल, शहीद सुखदेव आदि सभी उनके अनुयायी व अनुयायी परिवारों के व्यक्ति थे। महर्षि दयानन्द को इस बात का भी श्रेय है कि उन्होंने योग को गृहत्यागी संन्यासी व वैरागियों तक सीमित न रखकर उसे प्रत्येक आर्य समाज के अनुयायी के लिए अनिवार्य किया। आर्य समाज के अनुयायी जो ईश्वर का ध्यान सन्ध्या करते हैं वह अपने आप में पूर्ण योग है जिसमें योग के आठ अंगों का समन्वय है। स्वयं सिद्ध योगी होने और योग को घर-घर में पहुंचाने के कारण स्वामी दयानन्द योगेश्वर के गरिमा और महिमाशाली विशेषण से अलंकृत किये जाने के भी पूर्ण अधिकारी है।

 

महर्षि दयानन्द के वास्तविक स्वरूप को जानने व मानने का कार्य इस देश के लोगों ने अपने पूर्वाग्रहों, अज्ञानता व किन्हीं स्वार्थों आदि के कारण नहीं किया। इससे देश वासियों व विश्व की ही हानि हुई है। उन्होंने वेदों के ईश्वर प्रदत्त ज्ञान को सारी दुनियां से बांटने का महा अभियान चलाया लेकिन संकीर्ण विचारों के लोगों ने उनके स्वप्न को पूरा नहीं होने दिया। आज आधुनिक समय में भी हम प्रायः रूढि़वादी बने हुए हैं। आत्म चिन्तन व आत्म मंथन किये बिना किसी धार्मिक व सामाजिक विचारधारा पर विश्वास करना रूढि़वादिता है जो देश, समाज व विश्व के लिए हितकर नहीं है। हम अनुभव करते हैं कि शिक्षा में मजहबी शिक्षा की पूर्ण उपेक्षा कर वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ तर्क, युक्ति, सृष्टिक्रम के अनुकूल ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के स्वरूप का अध्ययन सभी देशवासियों को अनिवार्यतः कराया जाना चाहिये। मनुष्य ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकता है, उसे प्राप्त करने की योग की विधि पर भी पर्याप्त अनुसंधान होकर प्रचार होना चाहिये जिससे हमारा मानव जीवन व्यर्थ सिद्ध न होकर सार्थक सिद्ध हो। लेख के समापन पर हम मर्यादा पुरूषोत्तम और योगश्वर दयानन्द को कोटिशः नमन करते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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