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दयानन्द बावनी और उसके रचयिता महाकवि दुलेराय जी

दयानन्द बावनी और उसके रचयिता महाकवि दुलेराय जी :-

महाकवि दुलेराय काराणी भुज-कच्छ में जन्मे एक जैनी समाज सेवी सज्जन हुए हैं। वे गुजराती तथा हिन्दी के जाने माने कवि थे। आपने गाँधी जी पर गुजराती भाषा में बावनी लिखी। आपने एक आर्यसमाजी मित्र श्री वल्लभदास की सत्प्रेरणा से दयानन्द बावनी नाम से एक उत्तम काव्य रचा, जिसे सोनगढ़ गुरुकुल से प्रकाशित किया गया। गुजरात के प्रसिद्ध आर्यसमाजी सुधारक शिवगुण बापू जी भी भुज-कच्छ में जन्मे थे। अहमदाबाद में महाकवि जी श्री शिवगुण बापू जी से मिलने उनके निवास पर प्रायः आते-जाते थे। दयानन्द बावनी का दूसरा संस्करण पाटीदार पटेल समाज ने छपवाया था। इसका प्राक्कथन कवि ने ही लिखा था। इसके विमोचन के अवसर पर आप घाटकोपर मुबई पधारे।

शिवगुण बापूजी के परिवार की तीन पीढ़ियाँ आज भी इस काव्य को सपरिवार भाव-विभोर होकर जब गाती हैं तो एक समा बँध जाता है। इस वर्ष ऋषि मेला पर शिवगुण बापूजी के पौत्र श्री दिलीप भाई तथा उनकी बहिन नीति बेन ने बावनी सुनाकर सबको मुग्ध कर दिया। इसके प्रकाशन की वड़ी जोरदार माँग उठी। श्री डॉ. राजेन्द्र विद्यालङ्कर ने यह दायित्त्व अपने ऊपर लिया है। अगले वर्ष के ऋषि मेला पर श्री शिवगुण बापू की छोटी पौत्री प्रीति बेन से जब आर्यजन बावनी सुनेंगे तो वृद्ध आर्यों को कुँवर सुखलाल जी की याद आ जायेगी।

महाकवि दुलेराय ने महर्षि के प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि में लिखा हैः-

वैदिक उपदेश वेश, फैलाया देश देश

क्लेश द्वेष को विशेष मार हटाया।

सत्य तत्त्व खोल खोल, अनृत को तोड़ तोड़

तेरे मन्त्रों ने महाशोर मचाया।

धन्य धन्य मात तात, तेरा अवतार

होती है भारत मात आज निहाला।

‘आंध्रभूमि’ के सपादक श्री शास्त्री जीः- इस बार ऋषि मेले से ठीक पहले कुछ दुःखद घटनायें घटीं, इस कारण सभा से जुड़े सब जन कुछ उदास थे, तथापि मेले पर दूर दक्षिण से ‘आंध्रभूमि’ के सपादक श्री म.वी.र. शास्त्री जी तथा युवा विद्वान् पं. रणवीर शास्त्री जी के तेलंगाना से अजमेर पधारने पर सब हर्षित हुए। मान्य शास्त्री जी सपादक ‘आंध्रभूमि’ एक कुशल लेखक हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी पर आपके ग्रन्थ ने धूम मचा दी है। अब आप राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने व नवचेतना के संचार के लिए वीर भगतसिंह पर एक ग्रन्थ लिखने में व्यस्त हैं। आर्य जनता की इच्छा है कि इसका विमोचन अगले ऋषि मेला पर हो।

‘सन्त रोमां रोल्या के महर्षि दयानन्द विषयक उत्साहवर्धक यथार्थ विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

सन्त रोमां रोल्या (1866-1944) यूरोप के उच्चकोटि के ग्रंथकारों और साहित्यिकों में से थे जो यूरोप के महान् मस्तिष्कों का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रख्यात हैं। उन्हें सन् 1915 का साहित्य का नोबेल पुरुस्कार भी मिला है। फ्रेंच भाषा में उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी लिखी जिसके प्रथम भाग का अंग्रेजी अनुवाद कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रो. ई0एफ0 मलकीलन स्मिथ ने किया और जो सन् 1930 में अद्वैत आश्रम मायावती अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित हुई। इस जीवन चरित्र में विद्वान् ग्रन्थकर्ता ने एकता के निर्माता “Builders of Unity” शीर्षक के अन्तर्गत लगभग 25 पृष्ठों में महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के विषय में आलोचनात्मक दृष्टि से विचार किया है। उनका दृष्टिकोण पाश्चात्य था और भारत से दूर बैठ कर वह लिख रहे थे। वह महर्षि दयानन्द के प्रति सद्भावना रखते हुए भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा का मूल्यांकन करने में कहीं-कहीं असमर्थ रहे। उन्होंने उपलब्ध हुई सामग्री के आधार पर महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा उसका ऐतिहासिक मूल्य है। श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी में महर्षि दयानन्द से संबंधित सन्त रोमां रोल्या द्वारा लिखी सामग्र्री के अनुवादक श्री रघुनाथ प्रसाद पाठक ने मार्च, 1957 को लिखा है कि कई स्थलों पर तो संत रोमां रोल्या ने महर्षि दयानन्द के अभिनन्दन में जो शब्द लिखे हैं, उसे पढ़ कर लगता है कि उन्होंने महर्षि की इतनी प्रशंसा की है कि उन्होंने कलम ही तोड़ दी है। इस लेख में हम संत रोमां रोल्या द्वारा कहे गये 8 प्रमुख कथनों को अंग्रेजी भाषा व उसके अनुवाद सहित उद्धृत कर रहें हैं। शेष प्रसंगों को लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए छोड़ दिया है जिसके लिए हम पाठकों से अनुग्रह करेंगे कि वह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली द्वारा प्रकाशित लघु पुस्तक ‘‘भारत का एक ऋषि पढ़ने का कष्ट करें।

 

सन्त रोमां रोल्या लिखते हैं कि  (1) “The man (Dayanand) with the nature of a lion is one of those whom Europe is too apt to forget when she judges India, but whom she will probably be forced to remember to her cost, for he was that rare combination, a thinker of action with a genius for leadership. (p.146)” अर्थात् सिंह समान निर्भीक प्रकृति वाला यह महापुरुष उन व्यक्तियों में था जिन्हें भारत का मूल्यांकन करते समय यूरोप भुलाने की चेष्टा करता हुआ भी भुला सकेगा, क्योंकि ऐसा करना उसके (यूरोप के) लिये महंगा सौदा सिद्ध होगा। इस महान् पुरुष दयानन्द में विचार, कर्म और नेतृत्व की प्रतिभा का अनुपम सम्मिश्रण था।’ 

 

(2) Dayanand was not a man to come to an understanding with religious philosphers imbued with Western ideas. (p.150) अर्थात् दयानन्द पाश्चात्य विचारों से विमोहित दार्शनिकों के साथ समझौता करने वाले महानुभाव थे।

 

(3) It was impossible to get the better of him for he possessed an unrivalled knowledge of Sanskrit and the Vedas while the burning vehemence of his words brought his adversaries to naught.  They likened him to a flood. Never since Shankara had such a prophet of Vedism appeared. (p.150) अर्थात् उन (दयानन्द) पर विजय पाना असम्भव था क्योंकि वे वैदिक वांड्मय और संस्कृत के अनुपम भण्डार थे। उनके शब्दों की धधकती हुई आग से उनके विरोधियों का विरोध भस्मसात हो जाया करता था। वे लोग जल की प्रबल बाढ़ के साथ दयानन्द की तुलना किया करते थे। शंकराचार्य के पश्चात् दयानन्द जैसा वेदवित् भारत भूमि में उत्पन्न नहीं हुआ।

 

(4)  Dayanand’s stern teachings corresponded to the thought of his countrymen and to the first stirrings of Indian nationalism to which he contributed. (p.153) अर्थात् दयानन्द की उग्र और प्रौढ़ शिक्षायें उसके देशवासियों की विचारधारा के अनुकूल थीं और उन शिक्षाओं से भारतीय राष्ट्रीयता का सर्वप्रथम नवजागरण हुआ।

 

(5) The enthusiastic reception accorded to the thunderous champion of the Vedas, a Vedist belonging to a great race and penetrated with the sacred writings of ancient India and with her heroic spirit is then easily explained.  He alone hurled the defiance of India against her invaders. (p.157) अर्थात् महान् वीर योद्धा दयानन्द का उत्साहपूर्वक स्वागत होने का कारण इस पृष्ठभूमि के प्रकाश में सहज ही में समझ में सकता है कि वे स्वयं वेदों के उग्र प्रचारक थे और वीरभावना के साथ प्राचीन भारत के पवित्र ग्रन्थों को साथ लेकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने अकेले ही भारत पर आक्रमण करने वालों के विरुद्ध मोर्चा लगाया।

 

(6) He had no pity for any of his fellow countrymen past or present who had contributed in any way to the thousand year decadence of India, at to one time the mistress of the world. अर्थात् दयानन्द ने अपने देश के प्राचीन वा अर्वाचीन किसी भी निवासी को क्षमा नहीं किया जिसने किसी किसी रूप में उस भारत के 1000 वर्ष के हुए पतन में योग दिया था, जो किसी समय संसार का शिरमौर था।

 

(7) It was in truth an epoch making date for India when a Brahman not only acknowledged that all human beings have the right to know the Vedas whose study had been previously prohibited by orthodox Brahmans, but insisted that their study and propaganda was the duty of every Arya (p.159) अर्थात् सत्य यह है कि भारत के लिए वह दिन एक युगप्रवर्तक दिन था जब एक ब्राह्मण ने केवल यह स्वीकार किया कि उस वेदज्ञान पर मानव मात्र का अधिकार है जिनका पठनपाठन उनसे पूर्व के कट्टर पन्थी ब्राह्मणों ने निषिद्ध कर दिया था, अपितु इस बात पर भी बल दिया कि वेदों का पढ़नापढ़ाना और सुननासुनाना सब आर्यो का परम धर्म है। इसके आगे एक अन्य स्थान पर वह लिखते हैं कि (8) दयानन्द ने भारत के निष्प्राण शरीर में अपना अदम्य उत्साह, अपना दृढ़ निश्चयात्मक संकल्प और सिंह जैसा रक्त भर कर उसे सजीव किया। उसके शब्द वीरोचित शक्ति के साथ गूंज गये।

 

संत रोमा रोल्या ने महर्षि दयानन्द जी के जीवन के अनेक प्रसंगों को भी अपनी लेखनी से श्रद्धापूर्ण शब्दों में प्रस्तुत किया है। यहां हम उनके द्वारा लिखित ‘‘काशी शास्त्रार्थ की एक घटना को देकर सन्तोष कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि शास्त्रार्थ में पराजित हुए पौराणिक पंडितों ने दयानन्द को अपने रोम (काशी) में आने के लिए आमंत्रित किया। दयानन्द निर्भयतापूर्वक वहां गए और सन् 1869 के नवम्बर मास के उस महान् शास्त्रार्थ में प्रवृत्त हुए जिसकी तुलना होमर के काव्य में वर्णित संग्राम के साथ की जा सकती है। लाखों आक्रान्ताओं के सामने जो उन्हें परास्त करने के लिए उत्सुक थे, उन्होंने अकेले 300 पंडितों के साथ शास्त्रार्थ किया, दूसरे शब्दों में पोप गढ़ की अग्रगामिनी और सुरक्षित दोनों सेनाओं के साथ दयानन्द ने यह सिद्ध किया कि जिन ग्रंथों पर आचरण किया जाता है वे वेदानुकूल नहीं हैं। उन्होंने अपना आधार वेद को बनाया हुआ था। पंडितों का धीरज टूटते हुए देर लगी। उन्होंने दयानन्द का परिहास और बहिष्कार किया। दयानन्द को अपने चारों ओर निराशा के बादल छाये हुए दिखाई पड़े परन्तु महाभारत जैसे इस संघर्ष की प्रतिध्वनि से समस्त भारत गूंज उठा जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतवर्ष में उनका नाम प्रसिद्ध हो गया।

 

हमने साहित्य का नोबल पुरुस्कार प्राप्त संत रोमां रोल्या जी की पुस्तक से महर्षि दयानन्द विषयक कुछ मुख्य प्रसंगों को प्रस्तुत किया है जिससे एक विदेशी निष्पक्ष विद्वान के शब्दों में महर्षि दयान्द के व्यक्तित्व व कृतित्व का अनुमान लगाया जा सके। महर्षि दयानन्द जैसा विलक्षण वेदभक्त, देशभक्त, ब्रह्मचर्य का आदर्श, वेदों के ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण, अपूर्व समाजसुधारक, पतितोद्धारक धर्मप्रचारक भारत में अभी तक दूसरा उत्पन्न नहीं हुआ। इतना और निवेदन करना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द का वेदों के प्रति कोई परम्परागत व अतार्किक पूर्वाग्रह नहीं था अपितु वेदों के महत्व व विशेषताओं ने ही उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया था। उन्होंने युक्ति व तर्क की कसौटी तथा सृष्टिक्रम के अनुकूल होने के कारण ही वेदों की महत्ता को स्वीकार किया था। वेदों का धर्म व समाज सम्बन्धी विचारों व शिक्षाओं में जो गौरवपूर्ण स्थान है, वह संसार के किसी अन्य ग्रन्थ का उसकी सामग्री की विशेषता की दृष्टि से नहीं है। वेद सार्वभौम धर्मग्रन्थ हैं जो मनुष्यों को सदाचारी और गुणवान बनाते हैं और जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त कराते हैं। अन्य ग्रन्थों में यह बात न होने के कारण ही महर्षि दयानन्द ने वेदों को अपनाया था। संत रोमां रोल्या जी ने स्वामी दयानन्द जी के प्रति जिन भावपूर्ण शब्दों को लिखा वह निष्पक्ष एवं यथार्थ है। महर्षि दयानन्द ऐसे ही थे व इससे भी अधिक महत्वपूर्ण, गौरवशाली व महान थे। वेद और दयानन्द जी की शरण में सच्चे आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान प्राप्त करने और अपने जीवन को सफल बनानें के लिए आईये और सफल मनोरथ होइये।  

 –मनमोहन कुमार आर्य

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‘महर्षि दयानन्द का आदर्श एवं प्रेरक जीवन’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द वैदिक विचारधारा के ऋषि, विद्वान, आप्तपुरुष, सन्त, महात्मा सहित देश व समाज के हितैषी अपूर्व महापुरुष थे। उनका जीवन सारी मनुष्य जाति के लिए आदर्श, प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय है। आज के लेख में हम उनके जीवन की कुछ महत्वपूर्ण प्रेरणादायक घटनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं। हम आशा करते हैं कि इनके अध्ययन व अनुकरण से सभी को लाभ होगा।

 

पहली घटना हम बरेली में उनके व्याख्यान की ले रहे हैं जिसका वर्णन स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी आत्मकथा कल्याण मार्ग के पथिक में किया है। बरेली में एक दिन स्वामी जी व्याख्यान दे रहे थे। व्याख्यान में नगर के गणमान्य पुरुष और बड़े-बड़े राज-अधिकारी, कमिश्नर आदि सभी उपस्थित थे। व्याख्यान में ईसाई मत की मिथ्या मान्यताओं का खूब खण्डन किया गया। दूसरे दिन व्याख्यान से पूर्व उनसे कहा गया कि आप इतना खण्डन न करें, इससे उच्च अंग्रेज अधिकारी अप्रसन्न होंगे। दूसरे दिन का व्याख्यान प्रारम्भ हुआ। व्याख्यान में कमिश्नर आदि सभी उच्च राज्याधिकारी उपस्थित थे। स्वामीजी ने गरज कर कहा-‘‘लोग कहते हैं कि असत्य का खण्डन कीजिए, पर चाहे चक्रवर्ती राजा भी अप्रसन्न क्यों हो जाए, परिणाम कुछ भी हो, हम तो सत्य ही कहेंगे। अभय से पूर्ण मनुष्य के ऐसे जीवन को ही कहते है ईश्वर की सत्ता और सत्य पर अटल विश्वास।

 

दूसरी घटना कर्णवास में महर्षि दयानन्द के प्रवास की ले रहे हैं। जब स्वामीजी यहां आये थे तो अनूपशहर का एक अच्छा संस्कृतज्ञ विद्वान् पं. हीरावल्लभ अपने कुछ साथियों के साथ शास्त्रार्थ के लिए स्वामीजी के पास आया। सभा संगठित हुई। पं. हीरावल्लभ ने बीच में ठाकुरजी का सिंहासन, जिस पर शालिग्रामादि की मूर्तियां थी, रखकर सभा में प्रतिज्ञा की कि मैं स्वामीजी से इन्हें भोग लगवाकर ही उठूंगा। छह दिन तक बराबर धाराप्रवाह संस्कृत में शास्त्ररार्थ होता रहा। सातवें दिन पण्डित हीरावल्लभ ने सभा में प्रकट कर दिया कि जो कुछ स्वामीजी कहते हैं वही ठीक है और सिंहासन पर वेद की स्थापना की। महर्षि दयानन्द के सभी उपलब्ध शास्त्रार्थ और प्रवचन पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी के ग्रन्थ महर्षि दयानन्द के शास्त्रार्थ और प्रवचन में उपलब्ध हैं। पाठक इस ग्रन्थ का अध्ययन कर इस ज्ञानवर्धक सामग्री से लाभान्वित हो सकते हैं।

 

कर्णवास की ही एक अन्य घटना इस प्रकार है कि एक दिन स्वामीजी गंगा तट पर उपदेश कर रहे थे। बरौली के राव कर्णसिंह अपने कुछ हथियार-बन्द साथियों सहित वहां आए और बातचीत करते-करते बड़े क्रोध में आकर उन्होंने तलवार खींच कर स्वामीजी पर आक्रमण किया। स्वामीजी ने तलवार छीनकर दो टुकड़े कर दिए और राव को पकड़कर कहा कि ‘मैं तुम्हारे साथ इस समय वही सलूक कर सकता हूं जो किसी ‘‘आततायी (आतंकवादी) के साथ किया जा सकता है। परन्तु मैं संन्यासी हूं, इसलिए छोड़ता हूं। जाओ, ईश्वर तुम्हें सुमति देवे।’

 

स्वामी दयानन्द जी का जीवन महान था। उनकी महानता एक उदाहरण तब सामने आया जब उन्होंने अपनी हत्या का प्रयास करने वाले को न केवल क्षमा कर दिया अपितु वैधानिक दण्ड से भी बचाया। यह घटना अनूपशहर की है। वहां स्वामी जी के सच्चे और स्पष्ट उपदेश से अप्रसन्न होकर एक दुष्ट पुरुष ने स्वामीजी के पास आकर नम्रता प्रदर्शित करते हुए एक पान का बीड़ा उनको भेंट किया। स्वामीजी ने लेकर उसे मुंह में रख लिया। मुंह में रखते ही उन्हें मालूम हो गया कि इसमें विष मिला हुआ है। योग सम्बन्धी बस्ती और न्यौली-क्रियाओं को करके उन्होंने उसके प्रभाव को नष्ट कर दिया। जब यह हाल वहां के मजिस्ट्रेट सैयद मुहम्मद को मालूम हुआ तो उसने उस दुष्ट व्यक्ति को पकड़कर हवालात में डाल दिया और स्वामीजी के पास आकर अपनी कारगुजारी प्रकट करने आया तो स्वामीजी ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट करके उसे छुड़वा दिया और कहा कि ‘‘मैं दुनिया को कैद कराने नहीं अपितु कैद से छुड़ाने आया हूं।

 

स्वामीजी जब उदयपुर में थे तब वहां एक दिन उदयपुर के महाराजा महाराणा सज्जनसिंह जी को मनुस्मृति का पाठ पढ़ाते हुए कहा कि–‘‘यदि कोई अधिकारी धर्मपूर्वक आज्ञा दे तभी उसका पालन करना चाहिए। अधर्म की बात माननी चाहिए। इस पर सरदारगढ़ के ठाकुर मोहनसिंह जी ने कहा कि महाराणा हमारे राजा हैं, यदि इनकी कोई बात हम अधर्मयुक्त बतलाकर न मानें तो ये हमारा राज छीन लेंगे। इस पर स्वामीजी ने कहा कि –‘‘धर्महीन हो जाने से और अधर्म के काम करके अन्न खाने से तो भीख मांगकर पेट का पालन करना अच्छा है। इस घटना में स्वामीजी ने उदयपुर के महाराजा के भय से सर्वथा शून्य होकर धर्म को सर्वोपरि महत्व दिया। इससे यह भी शिक्षा मिलती है कि किसी भी मनुष्य को अपने आश्रयदाताओं व उच्चतम अधिकारियों की धर्म विरुद्ध आज्ञाओं को न मानना चाहिये भले ही इससे उनकी कितनी भी हानि क्यों न हो।

 

उदयपुर की ही एक अन्य घटना है। वहां एक दिन एकान्त में स्वामीजी से महाराजा सज्जनसिंह जी ने कहा कि महाराज ! आप मुर्तिपूजा का खण्डन करना छोड़ दें। यदि आप इसे स्वीकार कर लें तो एक लिंग महादेव के मन्दिर, जिसके साथ लाखों रुपये की जायदाद लगी हुई है, आपकी होगी, और आप सारे राज्य के गुरु माने जाऐंगे। स्वामीजी ने उत्तर दिया–‘‘आपके सारे राज्य से मैं एक दौड़ लगाकर कुछ समय में बाहर जा सकता हूं परन्तु ईश्वर के संसार से दूर नहीं जा सकता, फिर मैं किस प्रकार इस धर्मविरुद्ध तुच्छ प्रलोभन में आकर ईश्वर की आज्ञा भंग करूं। यह है ईश्वर, उसकी व्यवस्था व धर्म में पूर्ण विश्वास और स्वार्थ से रहित सच्चे त्याग का उदाहरण।

 

प्रयाग की एक घटना है। एक दिन स्वामीजी एक सभा में उपस्थित थे। पं. सुन्दरलालजी आदि कुछ सभ्य पुरुष भी उपस्थित थे। स्वामीजी यकायक हंस पड़े। कारण पूछने पर बतलाया कि एक पुरुष मेरे पास आ रहा है, उसके आने पर एक कौतुक दिखाई देगा। थोड़़ी देर बाद एक व्यक्ति स्वामीजी के लिए कुछ विष मिश्रित मिठाई लाकर कहने लगा कि महाराज इसमें से कुछ भोग लगाएं। स्वामीजी ने थोड़ी सी मिठाई उठाकर लानेवाले को दी, उसे कहा कि इसे तुम खाओ, परन्तु उसने मिठाने लेने और खाने से इन्कार कर दिया। स्वामीजी इस पर हंस पड़े और पं. सुन्दरलालजी आदि पुरुषों से कहा कि देखों यह अपने पाप के कारण स्वयं कांप रहा है और लज्जित है। इसे पर्याप्त दण्ड मिल गया है अब और दण्ड की आवश्यकता नहीं। यह थी स्वामी दयानन्द जी की योग व ईश्वरोपासना की शक्ति और दयालुता।

 

स्वामीजी की मृत्यु जोधपुर में उन्हें विष दिये जाने के कारण हुई थी। स्वामीजी जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह के छोटे भाई कुंवर प्रताप सिंह व महाराजा के निमंत्रण पर पधारे थे। उन्होंने अपने प्रवचनों में राजाओं के दुव्र्यसनों मुख्यतः राजाओं की वेश्याओं में आसक्ति वा वैश्याचारिता का तीव्र खण्डन किया था। अपनी शिक्षाओं में उन्होने वैश्याओं की उपमा कुतिया से और राजाओं की उपमा शेर से दी थी। मत-मतान्तरों की मिथ्या बातों का खण्डन तो वह करते ही थे। अतः एक षडयन्त्र के अंतर्गत उनके विरोधियों ने उनके पाचक को अपने वश में करके उसके द्वारा स्वामीजी को सितम्बर, 1883 के अन्तिम सप्ताह की एक रात्रि को दूध में जहर डलवाकर पिलवा दिया था। स्वामीजी को इसका पता देर रात्रि तब चला जब उन्हें उदरशूल, दस्त होने के साथ वमन आदि की शिकायत हुई। स्वामीजी को सारी स्थिति का पता चल जाने पर उन्होंने अपने पाचक को पास बुलाकर उसे कुछ रूपये देते हुए कहा कि इन्हें लेकर नेपाल के राज्य आदि किसी ऐसे स्थान पर चले जाओ जहां तुझे पकड़ा न जा सके और तुझे अपने प्राण न खोने पड़ें। अपने प्राणहंता की इस प्रकार रक्षा कर उन्होंने इतिहास में एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है। ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में दुर्लभ है।

 

स्वामीजी ने पूना में अपने जीवन की घटनाओं विषयक एक उपदेश दिया था। उन्होंने थियोसोफिकल सोसायटी के निवेदन पर अपनी संक्षिप्त आत्मकथा भी लिखी थी। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके अनेक खोजपुर जीवन चरित्र प्रकाश में आये जिनमें पं. लेखराम, पं. गोपालराव हरि, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, मास्टर लक्ष्मण आर्य, श्री हरविलास सारदा, श्री रामविलास शारदा आदि प्रमुख हैं। यह सभी जीवनचरित रामायण एवं महाभारत की ही भांति आदर्श, प्रेरणादायक तथा पाठक में धर्म के प्रति अनुराग व बोध उत्पन्न करने में समर्थ हैं। इन्हें पढ़कर एक दस्यु वृत्ति का मनुष्य भी साधू बन सकता है और सच्चा मानव जीवन व्यतीत कर सकता है। पाठकों को इन जीवन चरितों से लाभ उठाना चाहिये। आशा है कि पाठक लेख को पसन्द करेंगे।

            –मनमोहन कुमार आर्य

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यह इतिहास नहीं, इतिहास का उपहास हैः राजेन्द्र जिज्ञासु

यह इतिहास नहीं, इतिहास का उपहास हैः- दिल्ली के करोलबाग क्षेत्र के एक माननीय, सुयोग्य और अनुभवी आर्य पुरुष ने योगी श्री सच्चिदानन्द व आदित्यपाल कपनी द्वारा प्रचारित ‘योगी का आत्म चरित’ पुस्तक में वर्णित सामग्री पर चलभाष पर कुछ चर्चा की। आपने कहा,‘‘मुझे तड़प झड़प’ पढ़े बिना चैन नहीं आता’’। सन् 1857 के विप्लव में महर्षि के भाग लेने पर प्रकाश डालने को आपने कहा।

मेरा निवेदन है कि मेरठ से इस विषय की उत्तम पुस्तक का नया संस्करण छप चुका है। स्वामी पूर्णनन्द जी महाराज ने इसमें दूध का दूध, पानी का पानी कर दिया है। मैं भी श्री दीनबन्धु, सच्चिदानन्द महाराज व आदित्यपाल सिंह के एतद्विषयक दुष्प्रचार को एक षड्यन्त्र मानता हूँ। आप निम्न बिन्दुओं पर विचार करेंः-

  1. 1. ऋषि जी ने यह तथाकथित सामग्री अपने किसी भक्त, शिष्य वैदिक धर्मी को क्यों न दिखाई या लिखवाई?
  2. 2. ऋषि ने ठाकुर मुकन्दसिंह व भोपाल सिंह जी को अपने साहित्य के प्रसार के लिए कोर्ट में मुखतार बनाया। परोपकारिणी सभा का प्रधान महाराणा सज्जनसिंह जी को बनाया । इन्हें तो अपनी तीस वर्ष की घटनाओं का एक भी पृष्ठ न लिखवाया। इसका कारण क्या है?
  3. 3. ऋषि दयानन्द सरीखे दूरदर्शी ने एक ही को यह कहानी क्यों न लिखवाई? चार को क्यों लिखवाई? गोपनीयता क्या चार को लिखवाने से रह सकती थी?
  4. 4. इन चार ब्रह्मचारियों का ऋषि के नाम कभी कोई पत्र किसी ने देखा? क्या ऋषि ने इन्हें कभी कोई पत्र लिखा?
  5. 5. इन बगले भक्तों में से बंगाल से ऋषि की सेवा के लिए क्या कोई अजमेर पहुँचा?
  6. 6. महर्षि के दाहकर्म में ब्रह्म समाजी की इस चौकड़ी में से अजमेर किसी ने दर्शन दिये क्या?
  7. 7. ऋषि के मुख से ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की बहुत प्रशंसा व बड़ाई इन धोखाधड़ी करने वालों ने करवाई है। इतिहास प्रदूषित करने वाले इन नवीन पुराणकारों को इतना भी तो पता नहीं कि कोलकाता की पौराणिकों की जिस सभी ने दक्षिणा लेकर ऋषि के विरुद्ध व्यवस्था (फतवा) दी थी, उस व्यवस्था पर ईश्वरचन्द्र जी विद्यासागर तथा गो-मांस भक्षण के प्रचारक राजेन्द्र लाल मित्र के भी हस्ताक्षर थे।
  8. 8. ऋषि जब लँगोटधारी थे, वस्त्र नहीं पहनते थे, तब शरीर पर मिट्टी रमाते थे। इसी अवस्था में एक बार छलेसर पधारे। छलेसर वालों ने एक मूल्यवान् पशमीना बिछाकर उस पर बैठने की विनती की तो ऋषि ने कहा- यह ठीक नहीं। आपका मूल्यवान् पशमीना गन्दा हो जायेगा। उन्होंने अनुरोध करके वहीं बैठने पर बाध्य किया। छलेसर के ठाकुरों की सेवा के लिये ऋषि ने कभी गुणकीर्तन क्यों न किया? कोई आदर्श संन्यासी तिरस्कार से क्रुद्ध होकर किसी को कोसता नहीं और सत्कार पाकर किसी का भाट बनकर उनके गीत नहीं गाया करता। कोलकाता में कोई अपने यहाँ ठहराने को तैयार नहीं था। क्या ऋषि ने उन्हें कोसा? कहीं भी किसी से ऐसी किसी घटना की ऋषि ने कभी भी चर्चा नहीं की। ब्रह्म समाजियों ने बंगाल में की गई सेवाओं पर ऋषि के मुख से जो प्रशंसा करवाई है- यह ऋषि के चरित्र हनन का षड्यन्त्र है।
  9. 9. महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश के तेहरवें समुल्लास में बाइबल की दो आयतों की समीक्षाओं में दार्शनिक विवेचन के साथ सूली व साम्राज्य, विदेशी शासकों की न्यायपालिका व लूट खसूट पर कड़ा प्रहार करके इतिहास रचा है। भारत में अंग्रेजों के न्यायालयों व शोषण पर ऐसी तीखी आलोचना करने वाले प्रथम विचारक व देशभक्त नेता ऋषि दयानन्द थे। महर्षि की अज्ञात जीवनी का ढोल पीटने वालों के ज्ञात इतिहास से ऋषि की निडरता की इन दो समीक्षाओं के महत्त्व का पता ही न चला। इन पर न कभी कुछ लिखा व कहा गया।
  10. 10. महर्षि जब जालंधर पधारे, तब भी विदेशी न्यायपालिका द्वारा गोरों के विदेशी के साथ भेदभाव पर कड़ा प्रहार किया।3 भारतीय की हत्या के दोषी गोरे अपराधी को दोषमुक्त करने पर ऋषि के हृदय की पीड़ा का इन्हें पता ही न चला। पं. लेखराम धन्य थे, जिन्होंने साहस करके यह घटना दे दी। फिर केवल लक्ष्मण जी ने यह प्रसंग लिखा। न जाने अन्य लेखकों ने इसे क्यों न दिया?
  11. 11. ऋषि की प्रतिष्ठा के लिए ऐसी सच्ची घटनायें क्या कम हैं? उन्हें महिमा मण्डित करने के लिए असत्य की, झूठे इतिहास की आवश्यकता नहीं है।

स्वामी विरजानन्द और स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म व संस्कृति के सर्वाधिक प्रेमी ऐतिहासिक देशवासी’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

धर्म व संस्कृति के इतिहास पर दृष्टि डालने पर यह तथ्य प्रकट होता है कि महाभारत काल में ह्रासोन्मुख वैदिक धर्म व संस्कृति दिन प्रतिदिन पतनोन्मुख होती गई। महाभारत युद्ध का समय लगभग पांच हजार वर्ष एक सौ वर्ष है। महाभारत काल तक भारत ही नहीं अपितु समूचे विश्व में वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार रहा है। यह भी तथ्य है कि विश्व में आज से पांच हजार वर्ष पूर्व कोई अन्य मत, धर्म व संस्कृति थी ही नहीं। वेद-आर्य धर्म के पतन का कारण ऋषि-मुनि कोटि के विद्वानों व आचार्यों का अभाव व कमी ही मुख्यतः प्रतीत होती है। महाभारत युद्ध में देश के बड़ी संख्या में अनेक राजा, क्षत्रिय व विद्वान मृत्यु को प्राप्त हुए। इससे राजव्यवस्था में खामियां उत्पन्न हुई। वर्ण-संकर का कारण भी यह महाभारत युद्ध था। वैदिक वर्ण व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त हो गई और उसका स्थान जन्मना जाति व्यवस्था, जिसे महर्षि दयानन्द ने मरण व्यवस्था कहा है, ने ले लिया। ऋषि-मुनियों व वेदों के विद्वानों की कमी व प्रजा द्वारा धर्म-कर्म में रुचि न लेने के कारण अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न होने आरम्भ हो गये थे जो उन्नीसवीं शताब्दी, आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व, अपनी चरम अवस्था में पहुंच चुके थे। लोगों को यह पता ही नहीं था कि यथार्थ धर्म जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा चार आदि ऋषियों को दिये गए चार वेदों ऋग्वेद, यजर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के ज्ञान से आरम्भ हुआ था, वह प्रचलित अज्ञान व अन्धविश्वासयुक्त मत वा धर्म से कहीं अधिक उत्कृष्ट व श्रेष्ठ था व है। सौभाग्य से देश के सौभाग्य का दिन तब आरम्भ हुआ जब महर्षि दयानन्द के विद्या गुरू स्वामी विरजानन्द जी का जन्म पंजाब के करतारपुर की धरती पर हुआ। बचपन में उनके माता-पिता का देहान्त हो गया था। शीतला अर्थात् चेचक का रोग होने के कारण आपकी दोनों आंखे बचपन में ही चली गई। आपके भाई व भाभी का स्वभाव व व्यवहार आपके प्रति उपेक्षा व प्रताड़ना का था। अतः आपने गृह त्याग कर दिया। आपको घर से न जाने देने व रोकने वाला तो कोई था ही नहीं। अतः आप घर छोड़ने के बाद ऋषिकेश, हरिद्वार व कनखल आदि स्थानों पर रहकर तपस्या व साधना करते रहे। संस्कृत का अध्ययन भी आपने किया। विद्या ग्रहण के प्रति उच्च भाव संस्काररूप में आपमें विद्यमान थे जिसका लाभ यह हुआ कि आप नेत्रहीन होने पर भी संस्कृत व वैदिक ज्ञान से सम्पन्न हुए जो कि विगत पांच हजार वर्षों में हुए अन्य विद्वानों के भाग्य में नहीं था।

 

इतिहास में स्वामी दयानन्द जी का व्यक्तित्व भी अपूर्व व महान है। वह भी 14 वर्ष की अवस्था में सन् 1839 की शिवरात्रि के दिन व्रत व पूजा में अज्ञान व अन्धविश्वास की बातों का प्रमाण अपने शिवभक्त पिता से मांगते हैं। उनका समाधान न पिता और न ही अन्य कोई कर पाता है। उनमें सच्चे शिव वा ईश्वर को जानने का संस्कार वपन हो जाता है। शिवरात्रि की घटना के बाद मूलशंकर, स्वामी दयानन्द का जन्म का नाम, की बहिन और चाचा की मृत्यु हो जाती है। अब उन्हें मृत्यु से डर लगता है। वह मृत्यु का उपाय जानने की कोशिश करते हैं, परन्तु उनका निश्चित समाधान घर पर रहकर नहीं होता। अतः वह अपने प्रश्नों के समाधान के लिए बड़े योगियों व विद्वानों की शरण में जाने के लिए अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर का त्याग कर निकल पड़ते हैं। स्वामी विरजानन्द जी के पास सन् 1860 में पहुंच कर व उनसे लगभग 3 वर्ष अध्ययन कर उनकी सभी इच्छायें पूरी होती है। समाधि सिद्ध योगी तो वह गुरु विरजानन्द जी के पास आने से पहले ही बन चुके थे। अब वह वेद विद्या में निष्णात भी हो गये। स्वामी विरजानन्द जी से विदा लेने से पूर्व स्वामी दयानन्द अपने गुरु के लिए उनकी प्रिय वस्तु लौंग दक्षिणा के रूप में लेकर उपस्थित होते हैं। गुरुजी इस दक्षिणा को स्वीकार करते हुए दयानन्द जी से अपने मन की बात कहते हैं। उन्होंने कहा कि सारा देश ही नहीं अपितु विश्व अज्ञान व अन्धविश्वासों की बेडि़यों में जकड़ा हुआ है जिससे सभी मनुष्य नानाविध दुःख पा रहे हैं। उन्हें दूर करने का एक ही उपाय है कि वेदों के ज्ञान का प्रचार कर समस्त अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों को दूर किया जाये। गुरुजी स्वामीजी से वेदों का प्रचार कर मिथ्या अन्धविश्वासों का खण्डन करने का आग्रह करते हैं। उत्तर में स्वामी दयानन्द अपने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर उसके अनुसार अपना जीवन अर्पित करने का वचन देते हैं। गुरुजी दयानन्दजी के उत्तर से सन्तुष्ट हो जाते हैं। स्वामी दयानन्द का इस घटना के बाद का सारा जीवन अज्ञान पर आधारित अन्धविश्वासों के खण्डन, समाज सुधार व सत्य ज्ञान के भण्डार वेदों के प्रचार में ही व्यतीत होता है।

 

स्वामी दयानन्द जी ने गुरुजी से विदा लेकर मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, सामाजिक विषमता व सभी सामाजिक कुरीतियों का खण्डन करने के साथ वेदों की शिक्षाओं का प्रचार किया। वह एक-एक करके अनेक स्थानों पर जाते, वहां प्रवचन देते, लोगों से मिलकर उनकी शंकाओं का समाधान करते, पौराणिक व इतर मतों के विद्वानों से शास्त्रार्थ करते और वेदों के प्रमाणों व युक्तियों से अपनी बात मनवाते थे। 16 नवम्बर, 1869 को काशी में मूर्तिपूजा पर वहां के शीर्षस्थ लगभग 30 पण्डितों से उनका विश्व प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ जिसमें वह विजयी होते हैं। इसके बाद उन्होंने आर्यसमाजों की स्थापना, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, वेद भाष्य, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया तथा परोपकारिणी सभा की सथापना की।  इन सबका उद्देश्य देश व विश्व से धार्मिक अज्ञान, अन्धविश्वास सहित सामाजिक विषमता तथा सभी सामाजिक कुरीतियों को दूर कर वैदिक धर्म की विश्व में स्थापना करना था जिससे संसार से दुःख समाप्त होकर सर्वत्र सुख व आनन्द का वातावरण बने।

 

स्वामी विरजानन्द जी और स्वामी दयानन्द के जीवन का सबसे बड़ा गुण उनका ईश्वर के सच्चे स्वरुप का ज्ञान, उसके प्रति पूर्ण समर्पण, वेदों का यथार्थ ज्ञान तथा उसके प्रचार व प्रसार की प्रचण्ड व प्रज्जवलित अग्नि के समान तीव्रतम प्रबल व दृण भावना का होना था। अज्ञान व अन्धविश्वास सहित सामाजिक विषमता व सभी सामाजिक कुरीतियां उन्हें असह्य थी। उन्होंने प्राणपण से वेदों का प्रचार कर अज्ञान के तिमिर का नाश किया। उन दोनों महापुरुषों के समान वेदों का ज्ञान रखने वाला व उनके प्रचार व प्रसार के लिए अपनी प्राणों को हथेली पर रखने वाला उनके समान ईश्वरभक्त, वेदभक्त, देशभक्त, ईश्वर-वेद-धर्म का प्रचारक, अद्वितीय ब्रह्मचारी, माता-पिता-परिवार-गृह-संबंधियों का त्यागी व हर पल समाज, देश व मानवता के कल्याण का चिन्तन व तदनुरुप कार्यों को करने वाला महापुरुष दूसरा नहीं हुआ। उन्होंने अपने जीवन में जो कार्य किया, वह आदर्श कार्य था जो ईश्वर द्वारा प्रेरित होने सहित उसे करने की समस्त शक्ति व बल भी उन्हें ईश्वर की ही देन था। यदि यह दोनों महापुरुष यह कार्य न करते तो हमें लगता है कि कुछ समय बाद वैदिक धर्म व संस्कृति संसार से विदा हो कर इतिहास की वस्तु बन जाती। स्वामी विरजानन्द और स्वामी दयानन्द जी ने परस्पर मिलकर जो कार्य किया उसे अभूतपूर्व कह सकते हैं। महर्षि दयानन्द जैसा ईश्वर-वेद-देश-समाज भक्त दूसरा मनुष्य नहीं हुआ है। उन्होंने संसार के लोगों को सच्चा मार्ग दिखाया। उसी मार्ग का अनुसरण कर ही मनुष्य अपनी आत्मा की उन्नति कर सकता है, अपने भविष्य व मृत्योत्तर जीवनों व जन्मों को संवार सकता है और धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। यही मनुष्य जीवन का चरम व प्रमुख उद्देश्य व लक्ष्य है। अपने गुणों व कार्यों से न केवल गुरु विरजानन्द अपितु महर्षि दयानन्द भी सूर्य व चन्द्र की समाप्ति तक अमर रहेंगे। इन दोनों महान आत्माओं का विश्व के इतिहास में अद्वितीय व अमर स्थान बन गया है। उनके प्रयासों के परिणाम से हम निःसंकोच वैदिक धर्म को भविष्य का विश्व धर्म भी कह सकते हैं जिसमें सभी मनुष्यों का सुख व कल्याण निश्चित रुप से निहित है। अन्य कोई मार्ग व पथ मनुष्य जीवन व देश की उन्नति व दुःखों से मुक्ति का नहीं है।

मनमोहन कुमार आर्य

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श्री पं. भानुदत्त जी का वह ऐतिहासिक लेखःराजेन्द्र जिज्ञासु

श्री पं. भानुदत्त जी का वह ऐतिहासिक लेखः- आर्य समाज के निष्ठावान् कार्यकर्त्ताओं, उपदेशकों, प्रचारकों व संन्यासियों से हम एक बार फिर सानुरोध यह निवेदन करेंगे कि ‘समाचार प्रचार’ की बजाय सैद्धान्तिक प्रचार पर शक्ति लगाकर संगठन को सुदृढ़ करें। समाज में जन शक्ति होगी तो राजनीति वाले पूछेंगे। राजनेता वोट व नोट की शक्ति को महत्त्व देंगे। बिना शक्ति के राजनेताओं का पिछलग्गू बनना पड़ता है। आर्य समाज को अपने मूलभूत सिद्धान्तों की विश्वव्यापी दिग्विजय और मौलिकता के साथ-साथ अपने स्वर्णिम इतिहास को प्रतिष्ठापूर्वक प्रचारित करने पर अपनी शक्ति लगानी चाहिये।

‘परोपकारी’ के पाठकों को यह जानकारी दी जा चुकी है कि भारत सरकार ने पं. श्रद्धाराम फिलौरी की एक जीवनी छापी है। इसमें बिना सोचे-विचारे ऋषि दयानन्द पर निराधार प्रहार किये गये हैं। ‘इतिहास की साक्षी’ नाम की पुस्तक छपवाकर सभा ने पं. श्रद्धाराम के शदों में ऋषि की महानता व महिमा तो दर्शा ही दी है। साथ ही पं. श्रद्धाराम के साथी पं. गोपाल शास्त्री जमू एवं पं. भानुदत्त जी के ऋषि के प्रति उद्गार विचार भी दे दिये हैं।

यहाँ एक तथ्य का अनावरण करना आवश्यक व उपयोगी रहेगा। हम सबको पूरे दलबल से इसे प्रचारित करना होगा। परोपकारी में प्रकाशित काशी शास्त्रार्थ पर प्रतिक्रिया देते हुए एक सुयोग्य सज्जन ने एक प्रश्न पूछा तो उसे बताया गया कि इस घटना के 12 वर्ष पश्चात् देश के मूर्धन्य सैंकड़ों विद्वानों का जमघट वेद से मूर्तिपूजा का एक भी प्रमाण न दे सका। इससे बड़ी ऋषि की विजय और क्या होगी?

सत सभा लाहौर के प्रधान संस्कृतज्ञ पं. भानुदत्त मूर्तिपूजा के पक्ष में नहीं थे। पं. श्रद्धाराम आदि पण्डितों के दबाव में इन्होंने ऋषि का विरोध करने के लिए नवगठित मूर्तिपूजकों की सभा का सचिव बनना स्वीकार कर लिया। प्रतिमा पूजन के पक्ष में व्यायान भी दिये।

जब कलकत्ता की सन्मार्ग संदर्शिनी सभा ने महर्षि को बुलाये बिना और उनका पक्ष सुने बिना उनके विरुद्ध व्यवस्था (फतवा) दी तब पं. भानुदत्त जी ने बड़ी निडरता से महर्षि के पक्ष में एक स्मरणीय लेख दिया। इनकी आत्मा देश भर के दक्षिणा लोभी पण्डितों की इस धाँधली को सहन न कर सकी।

श्री पं. भानुदत्त जी का कड़ा व खरा लेख कलकत्ता के ही एक पत्र में उक्त सभा के 19 दिन पश्चात् प्रकाशित हुआ था। आपने लिखा, ‘‘हा नारायण! यह क्या हो रहा है? एक पुरुष है और 100 ओर से उसे घसीटता है (अर्थात् घसीटा जाता है)। राजा राममोहन राय उठे, उसके बाद देवेन्द्रनाथ ठाकुर आये, फिर केशवचन्द्र सेन आये, और उनके बाद स्वामी दयानन्द जाहिर हो रहे हैं। सपादक महाशय! जब यह दशा हमारे देश की है, तो फिर बिना तर्क और वादियों के ग्रन्थ देखे घर में ही फैसला कर देना किसी प्रकार से योग्य नहीं प्रतीत होता, और न तो इससे वादियों के मत का खण्डन और साधारण समाज की सन्तुष्टि ही हो सकती है। सब यही कहेंगे कि सब कोई अपने-अपने घर में अपनी स्त्री का नाम ‘महारानी’ रख सकते हैं। अवतार आदि के मानने वालों तथा वेद विरुद्ध मूर्तिपूजा के स्थापन करने वालों को पूछो कि कभी दयानन्द कृत ‘सत्यार्थप्रकाश’ और ‘वेदभाष्य’ का प्रत्यक्ष विचार भी किया है? ………….प्रिय भ्राता! यदि कोई मन में दोख न करे तो ऐसी सभा के वादियों को इस बात के कहने का स्थान मिलता कि सरस्वती जी (ऋषि दयानन्द) के समुख होकर शास्त्रार्थ कोई नहीं करता, अपने-अपने घरों में जो-जो चाहे ध्रुपद गाते हैं।’’1

जिस पं. भानुदत्त को ऋषि के मन्तव्यों के खण्डन के लिए आगे किया गया, वही खुलकर लिख रहा है कि महर्षि के सामने खड़े होने का किसी में साहस ही नहीं। ऋषि जीवन के ऐसे-ऐसे प्रेरक प्रसंग तो वक्ता भजनोपदेशक सुनाते नहीं। ऋषि की वैचारिक मौलिकता व दिग्विजय की चर्चा नहीं होती। अज्ञात जीवनी की कपोल कल्पित कहानियाँ सुनाकर जनता को भ्रमित किया जाता है।

ऋषि दयानन्द की विलक्षणता: डॉ धर्मवीर

ऋषि दयानन्द की विलक्षणता

ऋषि दयानन्द के जीवन में कई विलक्षणताएँ हैं, जैसे-

घर न बनानाकिसी भी मनुष्य के मन में स्थायित्व का भाव रहता है। सामान्य व्यक्ति भी चाहता है कि उसका कोई अपना स्थान हो, जिस स्थान पर जाकर वह शान्ति और निश्चिन्तता का अनुभव कर सके। एक गृहस्थ की इच्छा रहती है कि उसका अपना घर हो, जिसे वह अपना कह सके, जिस पर उसका अधिकार हो, जहाँ पहुँचकर वह सुख और विश्रान्ति का अनुभव कर सके।

यदि मनुष्य साधु है तो भी उसे एक स्थायी आवास की आवश्यकता अनुभव होती है। उसका अपना कोई मठ, स्थान, मन्दिर, आश्रम हो। वह यदि किसी दूसरे के स्थान पर रहता है तो भी उसे अपने एक कमरे की, कुटिया की इच्छा रहती है, जिसमें वह अपनी इच्छा के अनुसार रह सके, अपने व्यक्तिगत कार्य कर सके, अपनी वस्तुओं को रख सके।

ऋषि दयानन्द इसके अपवाद हैं। घर से निकलने के बाद उन्होंने कभी घर बनाने की इच्छा नहीं की। उन्हें अनेक मठ-मन्दिरों के महन्तों ने अपने आश्रम देने, उनका महन्त बनाने की इच्छा व्यक्त की, परन्तु ऋषि ने उन सबको ठुकरा दिया। राजे-महाराजे, सेठ-साहूकारों ने उन्हें अपने यहाँ आश्रय देने का प्रस्ताव किया, परन्तु ऋषि ने उनको भी अस्वीकार कर दिया। ऐसा नहीं है कि ऋषि को इसकी आवश्यकता न रही हो। ऋषि ने वैदिक यन्त्रालय के लिये स्थान लिया, मशीनें खरीदीं, कर्मचारी रखे, परन्तु उसको अपने लिये बाधा ही समझा। पत्र लिखते हुए ऋषि ने लिखा- आज हम गृहस्थ हो गये, आज हम पतित हो गये। इसमें उनकी इस आवश्यकता के पीछे की विवशता प्रकाशित होती है।

एक ऋषि भक्त मास्टर सुन्दरलाल जी ने ऋषि को लिखा- आपकी लिखी-छपी पुस्तकें मेरे घर में रखी हैं, उन्हें कहाँ भेजना है? तब ऋषि ने बड़ा मार्मिक उत्तर सुन्दरलाल को लिखा- मेरा कोई घर नहीं है, तुहारा घर ही मेरा घर है, मैं पुस्तकों को कहाँ ले जाऊँगा? इस बात से उनकी निःस्पृहता की पराकाष्ठा का बोध होता है।

पशुओं के अधिकारों की रक्षा बहुत लोग दया परोपकार का भाव रखते हैं, वे प्राणियों पर दया करते हैं, उनकी रक्षा भी करते हैं, परन्तु ऋषि पशुओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं। पशुओं की रक्षा के लिए समाज के सभी वर्गों से आग्रह करते हैं, उनके विनाश से होने वाली हानि की चेतावनी देते हैं, ऋषिवर कहते हैं- गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है। ऋषि ने कहा है- हे धार्मिक सज्जन लोगो! आप इन पशुओं की रक्षा तन, मन और धन से क्यों नहीं करते? हाय!! बड़े शोक की बात है कि जब हिंसक लोग गाय, बकरे आदि पशु और मोर आदि पक्षियों को मारने के लिये ले जाते हैं, तब वे अनाथ तुम हमको देखके राजा और प्रजा पर बड़े शोक प्रकाशित करते हैं-कि देखो! हमको बिना अपराध बुरे हाल से मारते हैं और हम रक्षा करने तथा मारनेवालों को भी दूध आदि अमृत पदार्थ देने के लिये उपस्थित रहना चाहते हैं और मारे जाना नहीं चाहते। देखो! हम लोगों का सर्वस्व परोपकार के लिये है और हम इसलिये पुकारते हैं कि हमको आप लोग बचावें। हम तुहारी भाषा में अपना दुःख नहीं समझा सकते और आप लोग हमारी भाषा नहीं जानते, नहीं तो क्या हममें से किसी को कोई मारता तो हमाी आप लोगों के सदृश अपने मारनेवालों को न्याय व्यवस्था से फाँसी पर न चढ़वा देते? हम इस समय अतीव कष्ट में हैं, क्योंकि कोई भी हमको बचाने में उद्यत नहीं होता।

ऋषि केवल धार्मिक आधार पर ही प्राणि-रक्षा की बात नहीं करते, वे उनके अधिकार की बात करते हैं। समाज को उनके हानि-लाभ का गणित भी समझाते हैं। एक गाय के मांस से एक बार में कितने व्यक्तियों की तृप्ति होती है? इसके विपरीत एक गाय अपने जीवन में कितना दूध देती है? उसके कितने बछड़े-बछड़ियाँ होती हैं, बैलों से खेती में कितना अन्न उत्पन्न होता है, गाय के गोबर-मूत्र से भूमि कितनी उर्वरा होती है? ऐसा आर्थिक विश्लेषण किसी ने उनसे पूर्व नहीं किया। जहाँ तक प्राणियों के लिये ऋषि के मन में दया भाव का प्रश्न है, वह दया तो केवल दयानन्द के ही हृदय में हो सकती है। ऋषि लिखते हैं- भगवान! क्या पशुओं की चीत्कार तुहें सुनाई नहीं देती है? हे ईश्वर! क्या तुहारे न्याय के द्वार इन मूक पशुओं के लिये बन्द हो गये हैं?

अनाथ एवं अवैध सन्तानों के अधिकारों की रक्षाऋषि ने समाज में जो बालक-बालिकायें, माता-पिता और संरक्षक-विहीन, अभाव-पीड़ित, प्रताड़ित और उपेक्षित थे, उनके अधिकारों के लिये सरकार से लड़ाई लड़ी।

जो बालक अविवाहित माता-पिता की सन्तान हैं, समाज उन्हें हीन समझता है, उन बालकों को अवैध कहकर, उनकी उपेक्षा करता है। ऋषि कहते हैं- माता-पिता का यह कार्य समाज की दृष्टि में अवैध कहा जाता हो, परन्तु इसमें सन्तान किसी भी प्रकार से दोषी नहीं है। साी बालक ईश्वर की व्यवस्था से तथा प्रकृति के नियमानुसार ही उत्पन्न होते हैं, अतः वे समाज में समानता के अधिकारी हैं। उनकी उपेक्षा करना, उनके साथ अन्याय है।

कोई शिष्य, उत्तराधिकारी नहीं बनाया- सभी मत-सप्रदाय परपरा के व्यक्ति अपने उत्तराधिकारी नियुक्त करते हैं। ऋषि के समय उनके भक्त, शिष्य, अनुयायी थे, परन्तु किसी भी व्यक्ति को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया। उन्होंने अपनी वस्तुओं और धन का उत्तराधिकारी परोपकारिणी सभा को बनाया। अपने धन को सौंपते हुए, वेद के प्रचार-प्रसार और दीन-अनाथों की रक्षा का उत्तरदायित्व दिया। विचारों और सिद्धान्तों के प्रचार के लिये आर्यसमाज के दस नियम और उनका पालन करने के लिये आर्यसमाज का संगठन बनाया।

धार्मिक क्षेत्र में प्रजातन्त्र का प्रयोगधर्म और आस्था के क्षेत्र में उत्तराधिकार और गुरु-परपरा का स्थान मुय रहा है। शासन-परपरा में ऋषि के समय विदेशों में प्रजातन्त्र स्थापित हो रहा था। भारत में राजतन्त्र ही चल रहा था। अंग्रेज लोग राजाओं के माध्यम से ही भारतीय प्रजा पर शासन कर रहे थे। जहाँ राजा नहीं थे, वहाँ अंग्रेज अधिकारी ही शासक थे। शासन में जनता की कोई भागीदारी नहीं थी। ऋषि का कार्य क्षेत्र धार्मिक और सामाजिक था। इस क्षेत्र में प्रजातन्त्र की बात नहीं की जाती थी, गुरु-महन्त जिसको उचित समझे, उसे अपना उत्तराधिकारी चुन सकते थे। सभी लोग गुरु के आदेश को शिरोधार्य करके उसका अनुसरण करते थे, आज भी ऐसा हो रहा है।

धार्मिक क्षेत्र आस्था और श्रद्धा का क्षेत्र है। व्यक्ति के मन में जिसके प्रति आस्था हो, वह उसको गुरु मान लेता है, उसका अनुयायी हो जाता है, परन्तु स्वामी जी ने इस क्षेत्र में तीन बातों का समावेश किया- प्रथम बात, किसी के प्रति श्रद्धा करने से पूर्व उसकी परीक्षा करना, किसी भी विचार को परीक्षा करने के उपरान्त ही स्वीकार करना। आज तक किसी गुरु ने शिष्य को यह अधिकार नहीं दिया कि वह गुरु की बातों की परीक्षा करे, उसके सत्यासत्य को स्वयं जाँचे। यही कारण है कि स्वामी जी के शिष्यों में गुरुडम को स्थान नहीं है।

ऋषि की दूसरी विलक्षणता- परीक्षा करने की योग्यता मनुष्य में तब आती है, जब वह ज्ञानवान होता है और मनुष्य को ज्ञानवान गुरु ही बनाता है। ऋषि दयानन्द अपने शिष्यों, भक्तों और अनुयायी लोगों को पहले ज्ञानवान बनाते हैं, फिर उस ज्ञान से अपने विचार की परीक्षा करने को कहते हैं।

सामान्य गुरु लोग अपने भक्तों और शिष्यों को ज्ञान का ही अधिकार नहीं देते, परीक्षा करने के अधिकार का तो प्रश्न ही नहीं उठता। ऋषि मनुष्य मात्र को ज्ञान का अधिकारी मानते हैं, अतः ज्ञान का उपयोग परीक्षा में होना स्वाभाविक है। तीसरी बात ऋषि ने धार्मिक क्षेत्र में की, वह है  प्रजातान्त्रिक प्रणाली का उपयोग। धार्मिक लोग सदा समर्पण को ही मान्यता देते हैं, वहाँ गुरु परपरा ही चलती है, परन्तु ऋषि ने धार्मिक संगठनों की स्थापना कर उनमें प्रजातन्त्रात्मक पद्धति का उपयोग किया। यह विवेचना का विषय हो सकता है कि यह पद्धति सफल है या असफल है। मनुष्य की बनाई कोई भी वस्तु शत-प्रतिशत सफल नहीं हो सकती, अतएव समाज में नियम, मान्यता, व्यवस्थाएँ सदा परिवर्तित होती रहती हैं। गुरुडम की समाप्ति प्रजातन्त्र के बिना सभव नहीं थी, अतः ऋषि ने इसे महत्त्व दिया है। प्रजातन्त्रात्मक पद्धति की विशेषता है कि इसमें योग्यता का समान होता है। इसमें हम देखते हैं कि योग्यता के कारण एक व्यक्ति जो सबसे पीछे था, वह इस पद्धति में एक दिन सबसे अग्रिम पंक्ति में दिखाई देता है।

मूर्ति-पूजा- मूर्ति पूजा एक ऐसा प्रश्न है, जिसके निरर्थक होने में बुद्धिमान सहमत हैं, परन्तु व्यवहार में स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं। ऋषि ने मूर्ति-पूजा को पाप और अपराध कहा, इसके लिये पूरे देश में शास्त्रार्थ किये। काशी के विद्वानों को ललकारा। ऋषि मूर्ति-पूजा के विरोध के प्रतीक बन गये। समाज में समाज-सुधारकों की बड़ी परपरा है, प्रायः सभी ने उसको यथावत् स्वीकार करके ही अपनी बात रखी, जिससे उनके अनुयायी बनने में जनता को किसी प्रकार की कठिनाई नहीं आई। लोगों ने अपने भगवानों की पंक्ति में सुधारकों को भी समानित स्थान दे दिया। आश्चर्य है, आचार्य शंकर जैसे विद्वान्, जिनके लिये अखण्ड एकरस ब्रह्म जिसके सामने जीना-मरना, संसार का होना, न होना कोई अर्थ नहीं रखता, वे शिव की मूर्ति को भगवान मानकर उसकी पूजा-अर्चना करना ही अपना धर्म मानते हैं। तस्मै नकाराय नमः शिवाय जैसा स्तोत्र रचते हैं। मूर्ति-पूजा सबसे बड़ा पाखण्ड है, जिसमें एक पत्थर भगवान का विकल्प तो बन सकता है, परन्तु एक नौकर या एक गाय का विकल्प नहीं बन सकता। दुकान पर दुकानदार पत्थर के नौकर को बैठाकर अपना काम नहीं चला सकता और न ही पत्थर की गाय से दूध प्राप्त कर सकता है। प्रश्न यह है कि पत्थर का भगवान संसार की सारी वस्तुयें दे सकता है तो पत्थर की गाय दूध क्यों नहीं दे सकती या मनुष्य पत्थर के नौकर को दुकान पर छोड़कर बाहर क्यों नहीं जा सकता?

ऋषि दयानन्द ने मूर्ति-पूजा को धूर्तता और मूर्खता का समेलन बताया है। मन्दिर को चलाने वाला चालाक दुकानदार होता है और पूजा कर चढ़ावा चढ़ाने वाला भक्त भय, लोभ में फँसा अज्ञानी। यही मूर्ति-पूजा का रहस्य है, जिसे सभी जानते हैं, परन्तु इसको घोषणापूर्वक कहना ऋषि का ही कार्य है।

राष्ट्रीयता जिन्हें हम समाज-सुधारक या धार्मिक-नेता कहते हैं, वे राजनीति और शासन के सबन्ध में चुप रहना ही अच्छा समझते हैं। उनकी उदासीन या सर्वमैत्री भाव वाली दृष्टि कोउ नृप होऊ हमें का हानि वाली रहती है, परन्तु ऋषि ने अपने ग्रन्थ में राजनीति पर एक अध्याय लिखा और अपने लेखन, भाषण में उनके उचित-अनुचित पर टिप्पणी भी की। ऋषि दयानन्द अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं- विदेशी राज्य माता-पिता के समान भी सुखकारी हो, तो भी अपने राज्य से अच्छा नहीं हो सकता। आपने अंग्रेजी शासन की चर्चा करते हुए कहा कि अंग्रेज अपने कार्यालय में देसी जूते को समान नहीं देता, वह अंग्रेजी जूता पहनकर अपने कार्यालय में आने की आज्ञा देता है। यह लिखकर उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेम प्रकाशित किया है।

ऋषि अंग्रेज अधिकारी द्वारा शासन में किसी प्रकार की असुविधा न होने की बात पर उसके लबे शासन की प्रार्थना का प्रस्ताव ठुकरा कर प्रतिदिन भगवान से देश के स्वतन्त्र होने की प्रार्थना करने की बात करते हैं। यही कारण है कि भारत के किसी मन्दिर में ‘भारत माता की जय’ नहीं बोली जाती, परन्तु आर्यसमाज मन्दिरों  में प्रत्येक सत्संग के बाद भारत माता की जय बोलना आर्यसमाज की धार्मिक परिपाटी का अङ्ग है। यह बात सभी समाज-सुधारकों से ऋषि को अलग करती है।

वेद के पढ़ने का अधिकार भारत को आज भी वेद के बिना देखना सभव नहीं, भारत के सभी सप्रदाय वेद से सबन्ध रखते हैं, उनका अस्तित्व वेद से है। जो आस्तिक सप्रदाय हैं, वे वेद में आस्था रखते हैं, वेद को पवित्र पुस्तक और धर्म ग्रन्थ मानते हैं, दूसरे सप्रदाय वेद को धर्मग्रन्थ नहीं मानते, स्वयं को वेद-विरोधी स्वीकार करते हैं। सबसे विचारणीय बात है कि वेद को मानने वाले अपने को आस्तिक कहते हैं, वेद न मानने वाले को लोग नास्तिक कहते हैं। सामान्य रूप से ईश्वर को मानने वाले आस्तिक कहलाते हैं। ईश्वर की सत्ता को जो लोग स्वीकार नहीं करते, उनको नास्तिक कहा जाता है। कुछ लोग वेद को स्वीकार नहीं करते, परन्तु किसी-न-किसी रूप में ईश्वर की सत्ता मानते हैं, अतः ऐसे लोगों को भी नास्तिकों की श्रेणी में रखा गया। इस देश के आस्तिक भी नास्तिक भी, वेद से जुड़े होने पर भी दोनों का वेद से कोई सबन्ध शेष नहीं है। वेद-समर्थक भी वेद नहीं पढ़ते, वेद-विरोधी भी वेद को बिना पढ़े समर्थकों की बातें सुनकर ही वेद का विरोध करते हैं।

ऋषि दयानन्द इन दोनों से विलक्षण हैं। उनके वेद सबन्धी विचारों का विरोध वेद के समर्थक भी करते हैं और वेद विरोधी भी। दोनों ऋषि दयानन्द के विरोधी हैं और इसी कारण ऋषि दयानन्द दोनों का ही विरोध करते हैं।

ऋषि दयानन्द की इस विलक्षणता का कारण उनकी वेद-ज्ञान की कसौटी है। लोग कहते हैं- ऋषि दयानन्द ने वेद कब पढ़े हैं? गुरु विरजानन्द के पास तो वे केवल ढाई वर्ष तक रहे, फिर वेद कब पढ़े? इसका उत्तर है- दण्डी विरजानन्द के पास ऋषि दयानन्द ने वेदार्थ की कुञ्जी प्राप्त की, वह कुञ्जी है- आर्ष और अनार्ष की। हमारे समाज में संस्कृत में लिखी बात को प्रमाण माना जाता है। आर्ष-अनार्ष में विभाजन करने से मनुष्यकृत सारा साहित्य अप्रमाण कोटि में आ जाता है। अब जो शेष साहित्य बचा है, उसके शुद्धिकरण की कुञ्जी शास्त्रों ने दी है। ऋषि दयानन्द ने उसको आधार बनाकर सारे वैदिक साहित्य को स्वतः प्रमाण और परतः प्रमाण में बाँट कर जो कुछ वेद के मन्तव्यों से विरुद्ध लिखा गया है, उसे निरस्त कर अप्रामाणिक घोषित कर दिया। जो कुछ इनमें वेद विरुद्ध लिखा गया, वह दो प्रकार का है, एक- स्वतन्त्र ऋषियों के नाम पर लिखे गये ग्रन्थ तथा दूसरे- ऋषि ग्रन्थों में की गई मिलावट, जिसे शास्त्रीय भाषा में प्रक्षेप कहते हैं। ऋषि ने इस प्रक्षेप को परतः प्रमाण मानकर जो कुछ वेदानुकूल नहीं है, उसे त्याज्य घोषित कर दिया। इस प्रकार ऋषि को वेद तक पहुँचना सरल हो गया।

अब बात शेष रही, वेद किसे माना जाय? पौराणिक लोग सब कुछ को वेद का नाम देकर सारा पाखण्ड ही वैदिक बना डालते हैं। ऋषि ने मूल वेद संहिता और शाखा ब्राह्मण भाग को वेद से भिन्न कर दिया। आज हमारे पास दो यजुर्वेद हैं, इनमें किसे वेद स्वीकार किया जाय, इस पर ऋषि दयानन्द की युक्ति बड़ी बुद्धि ग्राह्य लगती है। वे कहते हैं- शुक्ल और कृष्ण शद ही इसके निर्णायक हैं। शुक्ल प्रकाश होने से श्रेष्ठता का द्योतक है, कृष्ण प्रकाश रहित होने से कम होने का। दूसरा तर्क है, जिसमें मूल है, वह शुक्ल तथा जिसमें व्याया है, उसे कृष्ण कहा गया है।

ऋषि समस्त वेद को वेदत्व के नाते एक स्वीकार करते हैं तथा शेष वैदिक साहित्य को वेदानुकूल होने पर प्रमाण स्वीकार करते हैं। जहाँ तक हमारे पौराणिक लोग हैं, वे वेद को तो ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं, परन्तु वेद में सब कुछ उचित-अनुचित है, यह भी उन्हें स्वीकार्य है। ऋषि दयानन्द जो ईश्वर और प्रकृति के नियमों के अनुकूल है, उसे ही वेद मानते हैं। जो ईश्वरीय ज्ञान प्रकृति नियमों के विरुद्ध है, उसे वेद प्रोक्त नहीं माना जा सकता।

वेद के अर्थ विचार की जो कसौटी ऋषि दयानन्द ने प्रस्तुत की है, वह भी शास्त्रानुकूल है। समस्त वेद एक होने से तथा वेद एक बुद्धिपूर्ण रचना होने से वेद में परस्पर विरोधी बातें नहीं हो सकती तथा वेद के शदों का अर्थ आज की लौकिक संस्कृत के शद कोष से निर्धारित नहीं किया जा सकता। शद का अर्थ पूरे मन्त्र में घटित होना चाहिए तथा मन्त्र का अर्थ भी बिना प्रसंग के नहीं किया जा सकता। ऐसी परिस्थिति में हमारे पास वेदार्थ करने का जो उपाय शेष रहता है, वह बहुत सीमित है। कोष के नाम पर हमारे पास निघण्टु निरुक्त है। उसके अतिरिक्त वैदिक साहित्य में आये शदों के निर्वचन हमारा मार्गदर्शन करते हैं। हमारे पास वेदार्थ करने का एक और उपाय है- वेदार्थ में यौगिक प्रक्रिया का प्रयोग करना। लोक में प्रायः रूढ़ि, योग-रूढ़ शदों से काम चलाया जाता है, परन्तु रूढ़ि शदों से वेदार्थ करना, वेद के साथ अन्याय है, अतः यास्कादि ऋषि वेदार्थ के लिये यौगिक प्रक्रिया को अनिवार्य मानते हैं।

ऋषि दयानन्द इसी आधार पर वेदार्थ को इस युग के अनुसार प्रस्तुत करने में समर्थ हो सके।

ऋषि दयानन्द की वेद के सबन्ध में एक और विलक्षणता है। वेद के भक्त वेद को धर्मग्रन्थाी मानते हैं, परन्तु वेद को धर्मग्रन्थ स्वीकार करने वालों को उसे पढ़ना तो दूर, उसके सुनने तक का अधिकार देने को तैयार नहीं। इसके विपरीत वेद पढ़ने-सुनने पर दण्डित करने का विधान करते हैं। इस विषय में ये लोग कुरान एवं मोहमद साहब से भी आगे पहुँच गये। मनुष्य के धार्मिक होने के लिये धर्मग्रन्थ होता है, धर्मग्रन्थ को जाने बिना कोई भी धर्माधर्म को कैसे जान सकता है? यह ऐसा प्रयास है, जैसे कोई बालक अपने माता-पिता से बात न कर सके। उसके शद न सुने और उनकी बात माने। ऋषि दयानन्द वेद मन्त्र से ही इस धारणा का खण्डन कर देते हैं। वे कहते हैं- वेद ईश्वरीय ज्ञान है, संसार ईश्वर का है। प्रकृति के सभी पदार्थों पर सबका समान अधिकार-जल, वायु, पृथ्वी, आकाश सभी कुछ पर। बिल्कुल वैसे ही, जैसे सन्तानों का अपने पिता की सपत्ति पर अधिकार होता है, अतः प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वेद रूपी इस सपत्ति को अपनी सन्तान, परिजन, सेवकों को प्रदान करे। ऋषि इसके लिए यजुर्वेद का प्रमाण देते हैं-

यथेमां वाचं कल्याणी मा वदानि जनेयः ब्रह्मराजन्यायां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृद्ध्यतामुपमादो नमतु।

– डॉ. धर्मवीर

जिसने महर्षिकृत ग्रन्थ कई बार फाड़ डाले: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

आर्यसमाज के आरम्भिक  काल के निष्काम सेवकों में श्री

सरदार गुरबक्श सिंहजी का नाम उल्लेखनीय है। आप मुलतान,

लाहौर तथा अमृतसर में बहुत समय तक रहे। आप नहर विभाग में

कार्य करते थे। बड़े सिद्धान्तनिष्ठ, परम स्वाध्यायशील थे। वेद,

शास्त्र और व्याकरण के स्वाध्यय की विशेष रुचि के कारण उनके

प्रेमी उन्हें ‘‘पण्डित गुरुदत्त  द्वितीय’’ कहा करते थे।

आपने जब आर्यसमाज में प्रवेश किया तो आपकी धर्मपत्नी

श्रीमति ठाकुर देवीजी ने आपका कड़ा विरोध किया। जब कभी

ठाकुर देवीजी घर में सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका को

देख लेतीं तो अत्यन्त क्रुद्ध होतीं। आपने कई बार इन ग्रन्थों को

फाड़ा, परन्तु सरदार गुरबक्श सिंह भी अपने पथ से पीछे न हटे।

पति के धैर्य तथा नम्रता का देवी पर प्रभाव पड़े बिना न रहा। आप

भी आर्यसमाज के सत्संगों में पति के संग जाने लगीं।

पति ने पत्नी को आर्यभाषा का ज्ञान करवाया। ठाकुर देवी ने

सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन किया। अब तो उन्हें वेद-प्रचार

की ऐसी धुन लग गई कि सब देखकर दंग रह जाते। पहले भजनों

के द्वारा प्रचार किया करती थीं, फिर व्याख्यान  देने लगी। व्याख्याता

के रूप में ऐसी प्रसिद्धि पाई कि बड़े-बड़े नगरों के उत्सवों में उनके

व्याख्यान होते थे। गुरुकुल काङ्गड़ी का उत्सव तब आर्यसमाज का

सबसे बड़ा महोत्सव माना जाता था। उस महोत्सव पर भी आपके

व्याख्यान हुआ करते थे। पति के निधन के पश्चात् आपने धर्मप्रचार

में और अधिक उत्साह दिखाया फिर विरक्त होकर देहरादून के

समीप आश्रम बनाकर एक कुटिया में रहने लगीं। वह एक अथक

आर्य मिशनरी थीं।

 

‘दया के सागर महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द के जीवन में अन्य अनेक गुणों के साथ दया नाम का गुण असाधारण रूप में विद्यमान था। उनमें विद्यमान इस गुण दया से सम्बन्धित कुछ उदाहरणों को आर्यजगत के महान संन्यासी और ऋषिभक्त स्वामी वेदानन्द तीर्थ ने अपनी बहुत ही प्रभावशाली व मार्मिक भाषा में प्रस्तुत किया है। पाठकों को इसका रसास्वादन कराने के लिए हम इसे प्रस्तुत कर रहे हैं। यह उल्लेख स्वामी वेदानन्द जी ने स्वरचित ऋषि बोध कथा पुस्तक के जन्म तथा बालकाल अध्याय में किया है। स्वामी जी लिखते हैं कि ’’दयानन्द के आगमन से पूर्व गौ आदि पशुओं की अन्धाधुन्ध हत्या हो रही थी। (उनके समय तक किसी ने गोहत्या के विरोध में आवाज उठाई हो, इसका कहीं प्रमाण नहीं मिलता)। ऋषि ने उसको (गोहत्या को) बन्द कराने के लिए अनेक प्रयत्न किये। उनका लिखा ‘‘गोकरुणानिधि ग्रन्थ काय में लघु है किन्तु उपाय में अति महान् है। उसका एक-एक वाक्य ऋषि के हृदय में इन निरीह पशुओं के प्रति दया एवं करुणा का परिचय दे रहा है। हम प्रत्येक पाठक से अनुरोध करते हैं कि वे एक बार इसका अवश्य पाठ करें। ऋषि ने इसके समीक्षा प्रकरण को, भगवान् से प्रार्थना पर समाप्त किया है। उनके शब्द ये हैं-‘‘हे महाराजाधिराज जगदीश्वर ! जो इनको कोई न बचावे तो आप इनकी रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हूजिए।”

 

ऋषि ने सत्यार्थप्रकाश में प्रार्थना के सम्बन्ध में यह शब्द लिखे हैं-‘‘जो मनुष्य (ईश्वर से) जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वर्त्तमान करना चाहिए अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की प्रार्थना करे, उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करे अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है।” (सप्तम समुल्लास-सत्यार्थप्रकाश)

 

ऋषि ने तदनुसार अपनी यह प्रार्थना पुरुषार्थ के साथ की है। गोकरुणानिधि लिखने के अतिरिक्त वे अपने जीवन के अन्तिम दिनों में गोरक्षा के निमित्त एक आवेदन पत्र पर हस्ताक्षर करा रहे थे। उनकी कामना थी कि कम-से-कम दो करोड़ मनुष्यों के हस्ताक्षर कराके इंग्लैण्ड (की महारानी विक्टोरिया को) भेजे जाएं। इससे ऋषि की दयालुता का बोध सुस्पष्टतया हो जाता है। गौओं के जीवन की रक्षा अर्थात् हत्या बन्द कराने के निमित्त उन्होंने राज्याधिकारियों से भेंट करने में भी संकोच न किया। (इतिहास में गोरक्षा का यह अपूर्व उदाहरण है। सनातन धर्म के बन्धुओं में गोरक्षा की प्रवृत्ति महर्षि दयानन्द की इस घटना के बहुत बाद उत्पन्न हुई)।

 

अनूपशहर में ऋषि अपनी मधुरिमामयी वाणी से लोगों के हृदयों में धर्मप्रीति की भावनाएं भर रहे थे कि एक कपटी जन ने पान में विष डालकर दिया। वहां का तहसीलदार ऋषि का भक्त था। उसे जब इस वृत्तान्त का भान हुआ तो उसने उस पामर विषदाता को बंधवा दिया। दयालु दयानन्द ने यह सुनकर उससे कहा ‘‘सैयद अहमदजी ! आपने अच्छा नहीं किया। मैं संसार को बन्धनों से छुड़वाने के लिए यत्नवान् हूं, मैं इन्हें बंधवाने, कैद कराने नहीं आया।” अपने घातक के प्रति भी दया। अद्भुत है दयानन्द तेरी दया। धन्य हो तुम्हारी जननी, धन्य है तुम्हारे पिता और धन्य है आपश्री के गुरुदेव। धन्य ! धन्य !!

 

दयानन्द की दया का एक और उदाहरण सुन लीजिए। जोधपुर में मूर्ख पाचक ने उन्हें दूध के साथ कालकूट विष दिया। एक घूंट पीते ही उन्हें इसका ज्ञान हो गया तो दयालु दयानन्द ने उस जगन्नाथ को रुपये देकर नेपाल भाग जाने को कहा। ऋषि ने उसे कहा–‘‘जगन्नाथ ! शीघ्र यहां से भागकर नेपाल चले जाओ ! राठोरों को यदि तेरी करतूतों का पता चल गया तो तेरा एक-एक अंग काट लेंगे, अतः भाग जा।”

 

अपने प्राणघातक के प्राणों को बचाने की चिन्ता अतिशय दयालु के अतिरिक्त किसको हो सकती है? इस विषय में दयानन्द की समता का एक भी उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं है। इस प्रकार दया के व्यवहारों के दृष्टान्त ऋषि के जीवन में अनेक हैं। चैदह बार उन्हें विष दिया गया किन्तु दयानन्द ने किसी को दण्ड दिलाने का यत्न नहीं किया।

 

दयानन्द ने अपने जन्म नाम (दयाल जी) तथा संन्यास नाम (दयानन्द) दोनों को यथार्थ कर दिखाया। यह दयानन्द के गौरव को चार चांद लगाता है।”

 

हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द के जीवन में दया के उपर्युक्त उदाहरणों को पढ़कर उनके हृदय की भावनाओं से कुछ परिचित हो सकेंगे। हम पाठकों को महर्षि दयानन्द का स्वामी सत्यानन्द व अन्य विद्वानों द्वारा लिखित जीवनचरित पढ़ने का भी निवेदन करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की कुछ प्रमुख मान्यतायें’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

वेदों पर आधारित महर्षि दयानन्द जी की कुछ प्रमुख मान्यताओं को पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं:

ईश्वर विषयक

ईश्वर कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षण युक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।

वेद विषयक

विद्या धर्मयुक्त ईश्वरप्रणीत संहिता मन्त्रभाग को निर्भ्रांत स्वतः प्रमाण मानता हूं। वे स्वयं प्रमाणरूप हैं कि जिनका प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। जैसे सूर्य वा प्रदीप अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे चारों वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं, और चारों वेदों के ब्राह्मण, 6 अंग, 6 उपांग, 4 उपवेद और 1127 वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मा आदि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, उन को परतः प्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन है, उनका अप्रमाण मानता हूं।

धर्म अधर्म

जो पक्षपात रहित, न्यायाचरण, सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको धर्म और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभंग वेदविरुद्ध है, उसको अधर्म मानता हूं।

जीव, जीवात्मा अर्थात् मनुष्य का आत्मा

जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ, नित्य है, उसी को जीव मानता हूं।

देव

विद्वानों को देव और अविद्वानों को असुर, पापियों को राक्षस, अनाचारियों को पिशाच मानता हूं।

देवपूजा

उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री और स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना देवपूजा कहाती है। इस से विपरीत अदेवपूजा होती है। इन मूर्तियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़़ मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूं।

यज्ञ

उसको कहते हैं कि जिस में विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिन से वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना है, उसको उत्तम समझता हूं।

आर्य और दस्यु

आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं। मैं भी वैसे ही मानता हूं।

स्तुति

गुणकीर्तन श्रवण और ज्ञान होना, इस का फल प्रीति आदि होते हैं।

प्रार्थना

अपने सामथ्र्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करना और इसका फल निरभिमान आदि होता है।

 

उपासना

 

जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, वैसे अपने करना, ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, योगाभ्यास से ऐसा निश्चय व साक्षात् करना उपासना कहाती है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।

 

सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना

 

जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उन से युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं, उन से पृथक मानकर प्रशंसा करना सगुण-निर्गुण स्तुति, शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना सगुण-निर्गुण प्रार्थना और सब गुणों से सहित सब दोषों से रहित परमेश्वर को मान कर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना सगुणनिर्गुणोपासना कहाती है।

 

हम आशा करते हैं कि पाठक उपर्युक्त वैदिक सत्य सिद्वान्तों को अपने ज्ञान व आचरण हेतु उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121