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अरब का मूल मजहब (भाग ७)

अरब का मूल मजहब
भाग ७
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

अब तक के भागों मे हमने देखा कि जब भारत मे  धार्मिक और समाजिक जीवन मे वैदिक मान्यताएँ थी तो वहां पर भी वैदिक मान्यताएँ प्रचलित थी . जब भारत मे वैदिक व्यवस्था का ह्रास हुआ और पौरानिक मान्यताएँ प्रचलन मे आई तो वहां पर भी पौरानिक विचार अपनाये गये .अर्थात् अभी तक के प्रमाण से स्पष्ट है कि अरब मे कोई अन्य नही बल्कि भारतीय संस्कृति के अनुयायी ही मौजूद था जो बाद मे भारतीयों के प्रमाद की वजह से इस सनातन संस्कृति से दूर हो गया . इसका बहुत सारा कारण है जो इस शीर्षक से संबंधित नही है .

जब भारत मे पौरानिकों का बोलबाला था तो उसी समय भारत मे अन्य मतावलम्बी जैसे जैन , बौद्ध आदि का भी प्रचार – प्रसार जोरों पर था . जितने भी नये – नये मत व पंथ वाले थे वे सभी सनातन धर्म मे आये विकृति की वजह से टूट कर अलग स्वतंत्र रुप से अपना नया मत खड़ा किया था . यहां तक की पौरानिक मे भी कई विभाग बन चुके थे शैव, वैष्णव आदि जो एक दूसरे का विरोधी था . ऐसी परिस्थिति मे सनातन धर्मावलम्बी जो खुद कई भागों मे विभक्त होकर टूट चुका था वह दुसरे देशों मे धर्म प्रचार का काम बंद कर दिया , फिर भी अवशेष के रुप मे अरब आदि देशों मे कुछ कुछ उस समय की मान्यताओं का प्रचार प्रसार हुआ और वहां पर शैव , चार्वाक आदि मत का बोलबाला हो गया . ठीक मुहम्मद साहब के समय मे वहां पर महादेव को मानने वालों की संख्या बहुत थी , साथ मे मूर्तिपूजा , मांस ,शराब आदि का भी प्रचलन बहुत था .
आपको मोहम्मद साहब के समकालीन कवि की रचनाओं को दिखाता हूं जो उस समय मे प्रचलित वहां की मान्यताओं को स्पष्ट कर देगा .

कवि  :- उमरबिन हशाम कुन्नियात अबुलहकम .

योग्यता और विद्वता के कारण अरबवासी इन्हे अबुलहकम अर्थात् ज्ञान का पिता कहा करते थे जो रिस्ते मे मोहम्मद साहब के चाचा थे और उनके समायु था .

# क़फ़ा बनक जिक्रु अम्न अलूमु तब अशिरु ।
कुलूबन् अमातत उल् – हवा वतज़क्करु ।।
अर्थ :- जिसने विषय और आसक्ति में पड़कर अपने मन दर्पण को इतना मैला कर लिया है कि उसके अन्दर कोई भी भावना शेष न रह गई है .

# व तज़्क्रिहु बाऊदन इलिल बदए लिलवरा ।
वलकियाने ज़ातल्लाहे यौमा तब अशिरु ।।
अर्थ :- आयु भर इस प्रकार से बीत जाने पर भी यदि अन्त समय मे धर्म की ओर लौटना चाहे तो क्या वह खुदा को पा सकता है ? हाँ अवश्य पा सकता है .

# व अहल नहा उज़हू अरीमन महादेवहु ।
व मनाज़िले इल्मुद्दीन मिन हुमवव सियस्तरु ।।
अर्थ :- यदि आपने और अपनी सन्तान के लिए एक बार भी सच्चे मन से महादेव जी की पूजा करें तो धर्म के पथ पर सबसे उत्तम स्थान प्राप्त कर सकता है .

# मअस्सैरु अख़्लाकन हसन: कुल्लुहुम वय अख़ीयु ।
नुज़ूमुन अज़यतु सुम्मा कफ्अबल हिन्दू ।।
अर्थ :- हे ईश्वर वह समय कब आयेगा जब मैं हिन्दुस्तान की यात्रा करुंगा जो सदाचार का खजाना है और पथप्रदर्शक की तरह धर्म का गुरु है .

प्रमाण :- ‘अल-हिलाल’ , १९२३ ई. काहिरा से प्रकाशित मासिक पत्रिका का प्रथम पृष्ठ .

इन शेरों से प्रमाणित होता है कि जिस समय मे मोहम्मद साहब का उदभव हुआ उस समय अरब वासी वैदिक संस्कृति से बहुत दूर निकल चुका था और मूर्तिपूजा आदि मे पुरी तरह से व्यस्त था .लोग शैव थे और मांस मदिरा आदि का खुब प्रचलन था . लोग एकेश्वरवाद और वैदिक सिद्धांतो से बिलकुल अनभिज्ञ हो चुका था . मोहम्मद साहब और उनके चाचा मे धर्म संबंधी विषयों बहुत मतभेद था .

यह बहुदेववाद , मूर्तिपूजा आदि का चर्मोत्कर्ष परिस्थिति थी जिसने मोहम्मद को ऐकेश्वरवाद के सिद्धांत के साथ जन्म दिया परन्तु मोहम्मद साहब भी वेद विद्या और ज्ञान के अभाव मे कुछ अपनी मान्यताएँ और कुछ उसम मे वहां प्रचलित मान्यताओं के साथ एक नये मजहब की स्थापना कर खुद को पैगम्बर कह के लोगों पर जबरदस्ती थोप कर पुन: अरबवासी को अवैज्ञानिकता और अवैदिक सिद्धातों की गहरी अँधकार मे धकेल दिया  जिसमे तर्क और बुद्धि का प्रयोग करना मना ही है क्योंकि उसने कहा कि मेरी बातों पर शक मत करना ,,, यहि बाद मे इसलाम के नाम से प्रचलित हुआ जो आज भी नित्य नये नये कारनामे कर रहे हैं .

आज भी सनातन संस्कृति का चिह्न जिसे मोहम्मद साहब ने ज्यों का त्यों मान लिया , इसलाम और अरब मे दिखाई देता है , जो अरब मे प्रचलित सनातन संस्कृति का प्रमाण है . परन्तु मोहम्मद साहब के समर्थक बहुत ही खुंखार और तनाशाह प्रवृति के लोग थे जिन्होने उनलोगों को अपने रास्ते से हटा दिया जो उनकी बातों को न मानने की काफीराना हरकत की . फिर तलवार के बल पर कई देशों पर आक्रमण कर बलात् इसलाम की मान्यताएँ लोगों पर थोप दी जिसमे भारत भी था . मोहम्मद का मुख्य निशाना भारत था जो उस समय मूर्तिपूजा जैसी अवैदिक कार्यों मे लिप्त था और वही हुआ यहां पर भी बलात् हिन्दूओं को मुसलमान बनाया गया. भारत के सभी मुसलिम हिन्दू है उन्हे जबरदस्ती इसलाम बनाया गया था लेकिन लंबा समय बीतने की वजह से उनका स्वाभिमान खत्म हो चुका है, इसलाम कबूलवाने हेतु मोहम्मद के अनुयायियों द्वारा किये गये अत्याचारों को भूल चुका है , यहि वजह है कि वह आज इसलाम की साये मे जीना स्वाकार कर चुका है और भारत मूर्दाबाद की नारे लगाने से भी नही चुकते है , भारत माता की जय करने से भी घबरा जाते है , गौमाता की गर्दन पर छुरी चलाने से भी नही रुकते है . जिस मोहम्मद के चाचा  हिन्दुस्तान को पथप्रदर्शक मानता था उसी मोहम्मद के भारतीय अनुयायी आज जन्नत की चाहत मे मक्का की सैर पर निकलता है . क्या मूर्खता है ? कुछ तो अक्ल से काम लो . अपनी मूल संस्कृति को पहचानों ! क्या मिला है इन इसलामी मान्यता से , कभी इसलामी देश सीरीया , इराक, अफागानिस्तान , पाकिस्तान , बंग्लादेश आदि को तो देखो , सब शांतिदूतों की शांतिकार्य की आग मे जल रहे हैं .

तो मित्रों हमने कई भागों के माध्यम से देखा की अरब का मूल मजहब वैदिक ही था और है लेकिन अब उनसे दूर हो चुका है . परन्तु गलत राह से चलते हुए बहुत ही दूर भी चलें जाय तो बुद्धिमान उसी को कहा जाएगा जो इतनी दूर चलने के बाद भी वापस आकर सही रास्ते को पकड़ लें ! तो अपने जड़ों की ओर लौटो जिसकी बदौलत आपके पुर्वज कितने खुश और महान थे नही तो ऐसे ही लश्कर और आइसीस के द्वारा हर वक्त नये नये तरिके से दिल को शांति देने वाले कार्य आपको तोहफे के रुप मे मिलते रहेंगे !!

इस लेख की श्रृखंला को लिखने मे जिन पुस्तको. की सहायता ली गई वह इस प्रकार है ….
१. इसलाम संदेहों के घेरे में .
२. वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास .
३. अरब का क़दीमी मजहब.
४. सत्यार्थ प्रकाश.
५. अरब मे इसलाम .
६. वेदों का यथार्थ स्वरुप .
७. भारत के पतन के सात कारण.
और साथ मे कुछ विद्वान मित्र का भी सहयोग लिया गया .

जय आर्य , जय आर्यावर्त्त !

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब

अरब का मूल मजहब (भाग ६)

अरब का मूल मजहब
भाग ६
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

मै ने इस लेख की श्रृंखला मे “सैरुलकूल” नामक पुस्तक की चर्चा किया था जिसमे अरब के कवियों के उन रचनाओं को शामिल किया गया है जो समय-समय पर अरब मे प्रचलित धर्म संबंधी मान्यताओं का वर्णन करता है .
पिछले भागों मे कहा गया था कि उन शेरों को पेश किया जायेगा जिसमें भगवान कृष्ण की पुरानोक्त लीलाओं का वर्णन है.
यह शेर कवि ‘ आर बिन अंसबिन मिनात’ की रचना है जो हजरत मोहम्मद से ३०० वर्ष पूर्व की है .
ये रहा शेर …

🔴 जा इनाबिल अम्रे मुकर्रमतुन फ़िद्दनिया इलस्समाए ।
व मुखाज़िल काफिरीना कमा यकूलून फ़िलकिताबन ।।

अर्थ :- हे मेरे स्वामी आपने अपनी असीम कृपा से जो इस संसार के लिए अवतार लिया जबकि पापियों ने इस पर कब्जा कर रखा था , जैसा कि आपने स्वंय अपने ग्रंथ मे कहा है .

🔴 आयैन आयैन तब अरत दीन-अस्सादिक़ फिल-इन्स ।
जायत तबर्रल मूमिनीना व तत्तख़िज़लकाफिरीन शदीदन ।।

अर्थ :- जब जब संसार मे धर्म की कमी होती है और जब पाप बढ़ जाता है तब तब भक्तों की रक्षा और पापियों को दण्ड देने के लिए मैं जन्म लेता हूं .

🔴 रब्बना मुबारका बलदतुन नुज़िल्त मसरुरततुन ।
व ताकुलल अर्ज़ा बक़रतुन फ़ी उतुब्बि मसरुरु ।।

अर्थ :- हे प्रभु ! वह नगर धन्य है जहां आपने जन्म लिया और वह भूमि धन्य है जहां आप गौ चराते हुए अपने मित्रों के साथ खेला करते थे .

🔴 वल हुना फिस्सूरत अल-मलीह कमा जिइना फ़िस्सूरत बहुस्थि ।
नयना तत्तख़िज़ी यदिहा फ़िस्समाई लाक़रारा मसीहा ।।

अर्थ :- आपकी सांवली सूरत देखकर ऐसा मालूम होता है कि साक्षात् सौंदर्य की प्रतिमा मानवदेह में प्रकट हुई है . जब आप बांसुरी बजाते हैं तो उसकी मनोहर और सुरीली धुन पुरुषों और स्त्रियों को अपना भक्त बना लेती है .

🔴 रऐतु जमाली इलाहतुन फ़िलमलबूसे यदाहु नयना ।
राअसहु हुल्ली फ़िज़्ज़तुन मिनल इन्सि मसरुरा ।।

अर्थ :- हे ईश्वर ! एक बार मुझे भी अपना रुप दिखा दो जब कि आपने पीताम्बर पहना हुआ हो और हाथ मे बांसुरी हो , सिर पर ताज हो और कानों मे कुण्डल हो , जिस रुप को देखकर दुनिया आनन्द विभोर हो जाती है .

🔴 वजन्नतल हूर तनजी व तत्ताख़िज़ा बिललैनाते जबलून ।
व लि इबाद स्साहिलीन-अल-हुब्बि हल कुन्तु मसरुरा ।।

अर्थ :- हे प्रभो ! आपने अपनी पवित्र चरणों की ठोकर से स्वर्ग की अप्सरा को मोक्ष प्रदान किया था और अंगुली पर पर्वत उठाया था . भक्तों और मित्रों के लिए सब कुछ किया था . क्या हमें वंचित रखोगे ?

इन कसीदों को पढ़ने के बाद शायद ही कोई निरा मुर्ख और नासमझ होगा जो इस बात से इनकार करदें कि समय – समय पर भारत मे धर्म संबंधी जो मान्यताएँ प्रचलन मे रही है उस समय अरब मे भी वही प्रचलन मे था .वहां के विद्वान ज्ञान – विज्ञान , विधि व्यवस्था , समाजिक नियम आदि सब कुछ मे भारत का ही अनुशरण करता था . यहि वजह था कि भारत के उचित और अनुचित सभी परंपराओं को अपनाता गया और मोहम्मद के जन्म तक भारत से भी अधिक अवैदिक कार्यों मे फंस गया . इन शेरों मे वहां के कवियों ने जो भी कहा है , वह सभी कथाएं उस समय भारत मे पौरानिकों ने प्रचलित कर रखा था जिसमे भगवान कृष्ण पर मिथ्या दोष लगाया गया है जिसे आर्य समाज सदा से विरोध किया है . उन शेरों को यहां पर पेश करने का एक ही उद्देश्य है कि जिस समय भारत मे पौरानिक मान्यताएँ प्रचलन मे थी , उस समय अरब मे भी वही प्रचलन मे थी . अर्थात् जिस प्रकार भारत मे वैदिक धर्म होता गया उसी प्रकार विश्व के अन्य भागों जैसे अरब आदि मे भी वैदिक धर्म का ह्रास होता गया और अंतत: नये नये मजहबों के उत्पति की परिस्थिति तैयार कर दी .

अब मोहम्मद के समय मे प्रचलित धार्मिक मान्यताओं को भी इसी तरह के शेरों के माध्यम से अगले भागों मे पढ़ेगे . देखेंगे की किस प्रकार अरबवासीयों मे मद्य , मांस आदि का प्रचलन हो गया ! किस प्रकार भारत मे प्रचलित चार्वाक मत का प्रसार वहां भी हो गया !
इसलिए जरुर पढ़ें .
पढ़ते रहें , पढ़ाते रहें !

क्रमश :

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब

अरब का मूल मजहब (भाग ५)

अरब का मूल मजहब
भाग ५
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि महाभारत के पश्चात् भी अरब जगत वैदिक संस्कृति के रंगों मे रंगा हुआ था . लोग वेद वाणी को ही ईश्वरीय वाणी मानता था और उसी अनुरुप अपना जीवन जीया करता था , परन्तु ऐसी क्या परिस्थिति बनी की लोग इस ज्ञान से दूर होकर अवैदिक रिति-रिवाजों को अपने घर कर लिया .
जैसा की सभी जानते हैं कि है भारतवर्ष सृष्टि के आदि से ही ज्ञान – विज्ञान का जननी रहा है . विश्व का प्रत्येक देश इस भूमि को अपना गुरु मानता था और यहीं से विद्या ग्रहण करता था . इसी की वजह से भारत मे प्रचलित वैदिक धर्म अन्य देशों मे भी मौजूद था . स्वाभाविक सी बात है गुरु देश मे जो मान्यताएँ होगी वही शिष्य देश भी ग्रहण करेगा . जब महाभारत हुआ तो करोड़ों वर्षों से संरक्षित भारतीय ज्ञान – विज्ञान का क्षय का हो गया . इस ज्ञान को संरक्षित रखन हेतु योग्यत्तम व्यक्तियों का अभाव हो गया .लोग धीरे – धीरे वैदिक मान्यताओं को त्यागने लगे और अवैदिक मान्यताओं को अपनाने लगे . जब ज्ञान विज्ञान की जननी देश मे ही यह स्थिति हो गई तो स्पष्ट है अन्य देश मे भी यहां की अवैदिक मान्यताएँ अपनायी जायेगी  और वही हुआ . भारत मे लोग पाखंड, अंधविश्वास, बलि प्रथा आदि का प्रचलन शुरु हो गया . यज्ञ मे हजारों की संख्या मे पशुबलि होने लगी , लोग मांसाहारी हो गया . सब तरफ हिंसा का बोलबाला हो गया . तब हिंसा की इस चर्मोत्कर्ष परिस्थिति ने भारत मे अहिंसावादी मानव ‘बुद्ध’ और ‘महावीर’ का जन्म हुआ जिसने अहिंसा का प्रचार-प्रसार किया और पुन: विश्व के देशों ने भारत से इस संदेश को ग्रहण किया. परन्तु लोगों ने बाद मे उसी बुद्ध और महावीर का मुर्ति बनाकर पूजने लगा. तब वैदिक धर्मावलम्बी जो की अवैदिक मान्यताओं मे फंस चुका था , अपनी अस्तित्व को बचाने हेतु विभिन्न प्रकार के पुरानों की रचना करके विभिन्न प्रकार के देवी- देवताओं की कल्पना किया और उसका मूर्ति बना कर लोगों के बीच प्रस्तुत किया. इस प्रकार वेद की पावन उक्ति – ” एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ” को भूलकर ऐकेश्वरवाद से बहुदेववाद की ओर लोग बढ़ गया और अवतारवाद की नई अवैदिक मान्यता की कल्पना की गई . जब भारत मे अवतारवाद, मूर्तिपूजा आदि प्रचलित हो गई . इसको देखकर अरब मे भी यह अवतारवाद और मूर्तिपूजा का सिद्धांत प्रचलन मे आ गया . जिसको उस समय के अरब के प्रख्यता कवियों ने अपनी कविताओं मे बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया है .जैसा की मै पिछले भागों मे वह शेर पेश कर चुका हूं जिसमे वेद का वर्णन किया गया है और जो की लगभग ३८-३९०० वर्ष पुराना शेर है .उस से स्पष्ट हो गया था कि जिस समय भारत मे वैदिक मान्यताएँ प्रचलित थी उस समय तक अरब मे भी वैदिक व्यवस्था थी . अब मै प्रमाण के रुप मे उन कवि का वह शेर पेश करुंगा , जिसमें भगवान कृष्ण और उनकी गीता और अवतारवाद का वर्णन है. अर्थात् भारत मे जब वैदिक मान्यताओं का ह्रास हो गया और अवैदिक मान्यताएं , अवतारवाद आदि प्रचलित हुआ तो वहां भी वही मान्यताएं प्रचलित हो गई. लेख लंबी हो चुकी है , शेर को अगले भाग मे पेश करुंगा . अगला भाग जरुर पढ़ें , भारत मे प्रचलित भगवान कृष्ण की पुरानोक्त लीला का वर्णन अरब के ही कवि के शब्दों मे !

पढ़ते रहें , पढ़ाते रहें !

क्रमश :

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब

अरब का मूल मजहब (भाग ३)

अरब का मूल मजहब
भाग ३
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

अरब के विद्वानों की रचना जो कि महाभारत काल के पश्चात की है , उसे मै प्रमाण स्वरुप पेश कर रहा हूं जिस से स्पष्ट पता चलता है कि अरब निवासी आज अपने मुख्य मजहब से भटक गया है . किसी स्वार्थी के चक्कर मे आकर अपनी पुरानी संस्कृति को भूला दिया या फिर उसे जबरदस्ती अपनी मान्यताओं को बदलने या छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया . इसकी जीता जागता प्रमाण इस नवीन मजहब वालों का खुनी इतिहास है जिस पर समय आने पर चर्चा किया जायेगा .
आर्य समाज के पास पंडित महेन्द्रपाल की तरह ही एक और उज्वल रत्न हुए है जिन्हे पं. ज्ञानेन्द्रदेव सूफी के नाम से जाना जाता है. पंडित जी वैदिक धर्म को अपनाने से पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब के नाम से जाने जाते थे . उन्होने १९२५ से लेकर १९३१ ई. तक विभिन्न अरब एवं मुसलिम देशों की यात्रा की और बहुत सारा शोध किया जिसमे वाकई चौकाने वाले तथ्य है . उसी यात्रा के दौरान उन्हे ‘येरोसलम’ मे सुल्तान अब्दुल हमीद के नाम पर मौजुद एक प्रसिद्ध पुस्तकालय देखने को मिला जिसमे हजारों की संख्या मे पांडुलिपियां मौजूद थी . इनमें अरबी , सिरियानी , मिश्री , इब्रानी भाषाओं के विभिन्न कालों के सैकड़ों नमूने रखे हुए थे . इसी पुस्तकालय मे पंडित जी को ऊंट की झिल्ली पर लगभग ९०० वर्ष पूर्व की लिखी हुई “सैरुलकूल” नाम की पुस्तक मिली जिसमे अरब के प्राचीन कवियों का इतिहास है . इस पुस्तक के लेखक ‘अस्मई’ था जो आज से लगभग १३०० वर्ष पूर्व अलिफलैला की कहानियों के कारण प्रसिद्ध खलीफा “हारूँ रशीद” के दरबार मे कविशिरोमणि के पद पर विराजमान था . लेखक अश्मई ने अपनी पुस्तक मे विभिन्न कालों के कवियों की रचना के बारे बताया है . जिसमे उन्होने कवि “लबी बिन अख्तब बिन तुर्फा” के बारे मे कहता है कि वे अरबी साहित्य में कसीदे का जन्मदाता है. उसका समय बताते हुए कहता है कि वह हजरत मोहम्मद से लगभग २३-२४ सौ वर्ष पूर्व का है . अर्थात् महाभारत काल के बाद के कवि थे . उनका मै पांच शेर अर्थ सहित यहां पर उधृत करता हूं .जिसे पढ़कर महर्षि दयानन्द की सत्यार्थ प्रकाश वाली कथन की पुष्टि हो जाएगी कि महाभारत काल तक सर्व भूगोल वेदोक्त नियमो पर चलने वाला था .
यहां पर सिर्फ एक शेर पेश कर रहा हूं , बांकी अगले भाग मे पेश करुंगा . क्योंकि लेख लम्बी हो चुकी है .

प्रथम शेर :-

“अया मुबारक-अल-अर्जे युशन्नीहा मिन-अल-हिन्द ,
व अरदिकल्लाह यन्नज़िजल ज़िक्रतुन .”

अर्थ :- अय हिन्द की पुण्य भूमि ! तु स्तुति करने योग्य है क्योंकि अल्लाह ने अपने अलहाम अर्थात् दैवी ज्ञान का तुझ पर अवतरण किया है .

इस शेर से इस बात की भी पुष्टि होती है कि वेद का ज्ञान आदि मे आर्यावर्त के चारों ऋषि को प्रदान किया था और यहीं से वेद विद्या का पुरे विश्व मे प्रचार – प्रसार हुआ . इसलिए इस विश्वगुरु भारत के भूमि की वह कवि वंदना कर रहा है .  पर अफशोष की आज जिस पैगम्बर की दुहाई देकर लोग ‘भारत माता की जय’ कहने से इनकार कर रहा है उसी पैगम्बर के पूर्वजों के पूर्वज इसी भूमि की वन्दना करके ज्ञान पाने की आशा रखता था , अपनी इस वन्दना वाली कविता से कविशिरोमणि का पद पाया करता था .इस भारत भूमि की दर्शन हेतु ललायित रहता था , इस भूमि के ज्ञान की प्रकाश के बिना खुद को मोक्ष का अधिकारी नही समझता था . दुर्भाग्य है इस भूमि के ऐसे व्यक्तियों का जो इस पुण्य भूमि की अवहेलना करता है , उसकी जय घोष करने से इनकार करता है .शर्म करो कृतघ्नों ! आज जिस पैगम्बर की टूटी फूटी ज्ञान पर तुम इस भूमि की उपकार को भूल रहे हो उसी भूमि की ज्ञान की प्रकाश मे तुम्हारे पैगम्बर पल-बढ़ कर इस योग्य हुआ कि तुम्हे एकेश्वरवाद का पाठ पढ़ा सका !!
अगले शेर मे और भी नये – नये पिटारे खुलेंगे ! पढ़ते रहें और लोगों को पढ़ाते रहें !

जय आर्य , जय आर्यावर्त !
क्रमश :

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब

अरब का मूल मजहब (भाग १)

अरब का मूल मजहब
भाग १
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

यह कोई आश्चर्य की बात नही कि आज पुरी दुनिया में जितने भी मत और सम्प्रदाय बिना शिर-पैर का सिद्धांत लेकर एक-दुसरे को निगलने को तैयार है वे सभी एक ही मूल के विकृतावस्था मे आ जाने के फलस्वरुप कुछ नये और पुराने बातों को समेट कर विभिन्न नामों से पनपा है .क्योंकि कोई कितना भी खुद के बनाये मतों को परिष्कृत करके उसे खुदाई मत का नाम देकर लोगों के सामने जाल की तरह फैलाने की कोशीश करें , उसे उस समाज मे फैली तत्कालीन मत और सिद्धातों की साया उसे छोड़ नही सकता और जब किसी समाज मे दैवीय सिद्धांत मौजूद हो तब तो उसे अपने मतों को उस दैवीय सिद्धांत से सर्वथा अलग कर ही नही सकता . यहि वजह है कि प्रत्येक मत और सम्प्रदाय मे उसे अपने अस्तित्व मे आने से पहले का समाजिक नियम , परंपरा आदि अवशेष रुप मे मौजूद रह जाता है जो आगे चलकर उस खोखली मतों और मजहबों के खोखली सिद्धांतों का पोल खोल देती है , और जिसे थोड़ी भी सोचने समझने , सही गलत परखने की शक्ति होती है वह उसे मानने से इनकार कर देता है और अपने मूल सिद्धांतों जिस पर उनके पूर्वज करोड़ों वर्ष से चले आ रहे हैं , अपना लेता है और शायद इसे ही बुद्धिमानी भी कहते है . आखिर असत्य की बुनियाद पर कोई कितने बड़ा महल खड़ा पायेगा कभी न कभी तो उसे गिरना ही है . आज विभिन्न मतों का यहि हाल है , उसके अपने ही जो मनशील है , बुद्धिमान है , कुछ सोचने समझने की क्षमता रखता है वह इस गिरते हुए मजहबों , मतों , सम्प्रदायों रुपी महल मे क्रूरता की आग मे जलती मानवता , खत्म होती मानवीय जीवन मूल्य, दम तोड़ती मासूम जिन्दगी आदि विभीषिका को देखकर उसकी बुनियाद खंगालकर लोगों के सामने रखा है और इस खोखली बुनियाद वाले महल को ठोकर मार कर अपने मूल एवं ठोस बुनियाद वाले महल की तरफ लौटा है जिसमे न तो मानवता खत्म होती है , न ही कभी मानवीय जीवन मूल्य खत्म होता है , न ही कोई मासूम दम तोड़ती है जिसके सिद्धांतों के बल पर उनके पुर्वज करोड़ों वर्षों से सुखी , संपन्न और वैभवशाली थे और रहे है . तो दोस्तों मै बात कर रहा हूं ऐसे मजहब की जिसकी महल आज तो बहुत बड़ी है परन्तु बहुत ही कमजोर है और आज खोखली सिद्धांतों की बजह से ही कहीं आइसिस के रुप मे मानवता को तार-तार कर रही तो कहीं लश्कर के रुप मे , कही कोई सीरिया इसकी आग मे जलता है तो कही कोई पाकिस्तान पांच-पांच वर्ष के मासूमों की गोली से भुना हुआ शव की चित्कार पर रोता है , कहीं कोई आधी आबादी की विकास मे प्रयासरत मलाला जैसी देवी दिन-दहारे जानलेवा हमले का शिकार होती है तो कहीं कोई यजीदी लड़कियों को लूट का धन समझ उसकी अस्मतों को बीस-बीस दिन तक इसलिए रौंदा जाता है क्योंकि यह उसके मजहब मे जायज है. ये सब के सब मजहब की खोखली नियम से उस मे धर्म का कार्य समझा जाता है जो किसी भी रुप मे और किसी भी सभ्य समाज मे मान्य नही है . अब उस मजहब का नाम बताने की जरुरत नही है ,आप निश्चित रुप से समझ गये होंगे , इसमें शक की कोई नही.
तो क्या ऐसी कमी है कि ये सब घिनौने कार्य हो रहे है आज ? क्यों आज सब परेशान है ऐसे मजहब से ? क्यों आज उस मजहब को मानने वाले भी इस कुकृत्य है शर्मिंदा है ? क्योंकि इसका सिद्धांत किसी अल्पज्ञ मनुष्य द्वारा बनाया गया है जो महत्वाकांक्षी था , खुद को इतिहास मे पैगम्बर के रुप देखना चाहता था , लोगों पर अपना अधिपत्य चाहता था तो आप खुद सोच सकते है ऐसे मंसूबों वाले का सिद्धांत कभी सार्वभौमिक और समाजिक समरसता को बढ़ावा देने वाला हो सकता है क्या ?
अगले भाग मे मुहम्मद साहब से पुर्व की अरेबियन समाज मे फैली धर्मिक मान्यताओं के बारे मे विचार करेंगे !

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब )