अरब का मूल मजहब (भाग ३)

अरब का मूल मजहब
भाग ३
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

अरब के विद्वानों की रचना जो कि महाभारत काल के पश्चात की है , उसे मै प्रमाण स्वरुप पेश कर रहा हूं जिस से स्पष्ट पता चलता है कि अरब निवासी आज अपने मुख्य मजहब से भटक गया है . किसी स्वार्थी के चक्कर मे आकर अपनी पुरानी संस्कृति को भूला दिया या फिर उसे जबरदस्ती अपनी मान्यताओं को बदलने या छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया . इसकी जीता जागता प्रमाण इस नवीन मजहब वालों का खुनी इतिहास है जिस पर समय आने पर चर्चा किया जायेगा .
आर्य समाज के पास पंडित महेन्द्रपाल की तरह ही एक और उज्वल रत्न हुए है जिन्हे पं. ज्ञानेन्द्रदेव सूफी के नाम से जाना जाता है. पंडित जी वैदिक धर्म को अपनाने से पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब के नाम से जाने जाते थे . उन्होने १९२५ से लेकर १९३१ ई. तक विभिन्न अरब एवं मुसलिम देशों की यात्रा की और बहुत सारा शोध किया जिसमे वाकई चौकाने वाले तथ्य है . उसी यात्रा के दौरान उन्हे ‘येरोसलम’ मे सुल्तान अब्दुल हमीद के नाम पर मौजुद एक प्रसिद्ध पुस्तकालय देखने को मिला जिसमे हजारों की संख्या मे पांडुलिपियां मौजूद थी . इनमें अरबी , सिरियानी , मिश्री , इब्रानी भाषाओं के विभिन्न कालों के सैकड़ों नमूने रखे हुए थे . इसी पुस्तकालय मे पंडित जी को ऊंट की झिल्ली पर लगभग ९०० वर्ष पूर्व की लिखी हुई “सैरुलकूल” नाम की पुस्तक मिली जिसमे अरब के प्राचीन कवियों का इतिहास है . इस पुस्तक के लेखक ‘अस्मई’ था जो आज से लगभग १३०० वर्ष पूर्व अलिफलैला की कहानियों के कारण प्रसिद्ध खलीफा “हारूँ रशीद” के दरबार मे कविशिरोमणि के पद पर विराजमान था . लेखक अश्मई ने अपनी पुस्तक मे विभिन्न कालों के कवियों की रचना के बारे बताया है . जिसमे उन्होने कवि “लबी बिन अख्तब बिन तुर्फा” के बारे मे कहता है कि वे अरबी साहित्य में कसीदे का जन्मदाता है. उसका समय बताते हुए कहता है कि वह हजरत मोहम्मद से लगभग २३-२४ सौ वर्ष पूर्व का है . अर्थात् महाभारत काल के बाद के कवि थे . उनका मै पांच शेर अर्थ सहित यहां पर उधृत करता हूं .जिसे पढ़कर महर्षि दयानन्द की सत्यार्थ प्रकाश वाली कथन की पुष्टि हो जाएगी कि महाभारत काल तक सर्व भूगोल वेदोक्त नियमो पर चलने वाला था .
यहां पर सिर्फ एक शेर पेश कर रहा हूं , बांकी अगले भाग मे पेश करुंगा . क्योंकि लेख लम्बी हो चुकी है .

प्रथम शेर :-

“अया मुबारक-अल-अर्जे युशन्नीहा मिन-अल-हिन्द ,
व अरदिकल्लाह यन्नज़िजल ज़िक्रतुन .”

अर्थ :- अय हिन्द की पुण्य भूमि ! तु स्तुति करने योग्य है क्योंकि अल्लाह ने अपने अलहाम अर्थात् दैवी ज्ञान का तुझ पर अवतरण किया है .

इस शेर से इस बात की भी पुष्टि होती है कि वेद का ज्ञान आदि मे आर्यावर्त के चारों ऋषि को प्रदान किया था और यहीं से वेद विद्या का पुरे विश्व मे प्रचार – प्रसार हुआ . इसलिए इस विश्वगुरु भारत के भूमि की वह कवि वंदना कर रहा है .  पर अफशोष की आज जिस पैगम्बर की दुहाई देकर लोग ‘भारत माता की जय’ कहने से इनकार कर रहा है उसी पैगम्बर के पूर्वजों के पूर्वज इसी भूमि की वन्दना करके ज्ञान पाने की आशा रखता था , अपनी इस वन्दना वाली कविता से कविशिरोमणि का पद पाया करता था .इस भारत भूमि की दर्शन हेतु ललायित रहता था , इस भूमि के ज्ञान की प्रकाश के बिना खुद को मोक्ष का अधिकारी नही समझता था . दुर्भाग्य है इस भूमि के ऐसे व्यक्तियों का जो इस पुण्य भूमि की अवहेलना करता है , उसकी जय घोष करने से इनकार करता है .शर्म करो कृतघ्नों ! आज जिस पैगम्बर की टूटी फूटी ज्ञान पर तुम इस भूमि की उपकार को भूल रहे हो उसी भूमि की ज्ञान की प्रकाश मे तुम्हारे पैगम्बर पल-बढ़ कर इस योग्य हुआ कि तुम्हे एकेश्वरवाद का पाठ पढ़ा सका !!
अगले शेर मे और भी नये – नये पिटारे खुलेंगे ! पढ़ते रहें और लोगों को पढ़ाते रहें !

जय आर्य , जय आर्यावर्त !
क्रमश :

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब

One thought on “अरब का मूल मजहब (भाग ३)”

  1. अति सुन्दर और ज्ञानवर्धक लेख है।कृपया ऐसे लेख दूसरे वैदिक विषयों पर भी लिखें ताकि आज का हिन्दू समाज भी अपने गौरवशाली अतीत के बारे में जान सके।और अपनी संस्कृति को पूर्ण आदर के साथ अपनाये।
    धन्यवाद।

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