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मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्रों का सामाजिक सम्मान : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्रों का सामाजिक सम्मान

(अ) समान-व्यवस्था के आधार

    वैदिक या मनु की समान-व्यवस्था में गुणों का ही महत्त्व था। जन्म को बड़प्पन अथवा समान का मानदण्ड कहीं नहीं माना गया है। महर्षि मनु लिखते हैं-

(क) वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी।

       एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम्॥    (2.136)

    अर्थ-धन, बन्धुपन, आयु, श्रेष्ठ कर्म, विद्वत्ता ये पांच समान के मानदण्ड हैं। इनमें बाद-बाद वाला मानदण्ड अधिक महत्त्वपूर्ण है। अर्थात् सर्वाधिक मान्य विद्वान् है, उसके बाद क्रमशः श्रेष्ठ कर्म करने वाला, आयु में बड़ा, बन्धु-बान्धव, धनवान् हैं। यह सामूहिक समान की मर्यादा है। यदि एक वर्ण वाले एकत्र हों तो वहां समान-व्यवस्था इस प्रकार होगी –

(ख)    विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः।

       वैश्यानां धान्यधनतः  शूद्राणामेव जन्मतः॥ (2.155)

    अर्थ-ब्राह्मणों में अधिक ज्ञान से, क्षत्रियों में अधिक बल से, वैश्यों में अधिक धन-धान्य से, शूद्रों में अधिक आयु से बड़प्पन और समान होता है।

(आ) शूद्रों को समान-व्यवस्था में छूट-

    मनु का शूद्रों के प्रति सद्भावपूर्ण एवं मानवीय दृष्टिकोण देखिए कि द्विजवर्णों में अधिक गुणों के आधार पर समान का विधान होते हुए भी उन्होंने शूद्र को विशेष छूट दी है कि यदि शूद्र नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो उसे पहले समान दें-

  पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च।    

  यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः, शूद्रोऽपि दशमीं गतः॥ (2.137)

    अर्थ-तीन द्विज-वर्णों में समान गुण वाले अनेक हों तो जिसमें श्लोक 2.136 में उक्त पांच गुणों में से अधिक गुण हों, वह पहले समाननीय है किन्तु शूद्र यदि नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो वह भी पहले समाननीय है।

देखिए, मनु के मन में शूद्र के प्रति कितनी उदारता एवं आदरभाव है कि वे अल्पगुणों वाला होते हुए भी शूद्र को ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों द्वारा पहले समान दिलवा रहे हैं! क्या ऐसा उदार मनु शूद्रों के प्रति कठोर और अन्यायपूर्ण विधान कर सकता है? कदापि नहीं। यह एक ही तर्क यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि वर्तमान मनुस्मृति में जो शूद्र-विरोधी कठोर श्लोक मिलते हैं, स्पष्टतः वे किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रक्षिप्त हैं। ऐसे उदार हृदय और मानवीय भाव रखने वाले महर्षि मनु का विरोध क्या उचित है?

(इ) शूद्रों का अद्भुत मानवीय समान

शूद्रों के प्रति मनु का कितना अद्भुत मानवीय भाव था इसकी जानकारी हमें मनु के निन आदेश में मिलती है। मनु कहते हैं कि अपने भृत्यों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही द्विज दपती भोजन करें-

भुक्तवत्सु-अथ विप्रेषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि।    

भुंजीयातां ततः पश्चात्-अवशिष्टं तु दपती॥ (3.116)

    अर्थ-द्विजों के भोजन कर लेने के बाद और अपने भृत्यों के (जो कि शूद्र होते थे) पहले भोजन कर लेने के बाद ही शेष बचे भोजन को द्विज दपती खाया करें।

क्या आज के वर्णरहित विश्व के किसीाी सयमानी समाज में मनु जैसा उच्च मानवीय दृष्टिकोण है? क्या आज के किसी समाज में मनु जैसा उदार-अद्भुत आदेश है? ऐसे अनुपम आदेशों के होते हुएाी मनु पर शूद्र विरोध का आरोप लगाना निरी कृतघ्नता नहीं तो और क्या है? मनुस्मृति में डाले गये, शूद्र विरोधी सभी श्लोकों को प्रक्षिप्त सिद्ध करने के लिए, क्या यह अकेला ही श्लोक पर्याप्त नहीं है? मनु द्वारा शूद्रों का अद्भुत समान विहित करने के बादाी मनु का विरोध क्यों?

मनु की वर्णव्यवस्था की विशेषताएं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वैदिक वर्णव्यवस्था एक मनोवैज्ञानिक एवं समाज-हितकारी व्यवस्था थी। जैसा कि महर्षि मनु ने (1.31, 87-91 में) स्वयं कहा है, वह निश्चय ही समाज को सुरक्षित और व्यवस्थित करके उसकी प्रगति और उन्नति करने वाली व्यवस्था है। उसकी विशेषताएं थीं –

  1. मनोवैज्ञानिक आधार-वर्णव्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों, रुचियों, योग्यताओं का और तदनुसार प्रशिक्षण का ध्यान रखा गया है। प्रत्येक मनुष्य में ये भिन्नताएं स्वाभाविक हैं। प्रत्येक को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के आधार पर कार्यचयन का अवसर प्रदान किया गया है। इसमें महाविद्वान् से लेकर अनपढ़ तक, सबको कार्य का अवसर प्राप्त है। एक के कार्य में दूसरे के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं है।
  2. कार्यसिद्धान्त का समान महत्त्व-मनुस्मृति की व्यवस्था ऐसे कार्यसिद्धान्त पर आधारित है जिसमें चारों वर्णों के कार्यों का समान और अनिवार्य महत्त्व है। जैसे शरीर के लिए मुख, बाहु, उदर, पैर सबका समान महत्त्व है और किसी एक के बिना शरीर अपंग हो जाता है, उसी प्रकार समाजरूपी पुरुष के लिए चारों वर्णों का महत्त्व है। किसी एक के बिना वह अपंग है। अतः चारों वर्ण अपने कार्यों से समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। सबका कार्य अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है।
  3. शक्ति का विकेन्द्रीकरण एवं संतुलन-मनुस्मृति में शक्तियों का विकेन्द्रीकरण करके, साी वर्णों में शक्तियों को बांटकर समाज में शक्ति-संतुलन स्थापित किया गया है। सभी वर्णों की शक्तियां और अधिकार सुनिश्चित हैं। वर्णव्यवस्था में किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह के पास असीमित शक्ति का संग्रह नहीं हो सकता। विविध शक्तियों का एक स्थान पर संग्रह होना ही समाज में असन्तुलन, अन्याय, अत्याचार, अभाव को पैदा करता है। अतः वर्णव्यवस्था ने ज्ञान, बल, धन और श्रम को पृथक्-पृथक् किया है। भारत में जब तक वर्णव्यवस्था रही कभी समाज में शक्ति का असन्तुलन नहीं हुआ। सबके लिए काम था। सबकी मूल आवश्यकताएं पूर्ण होती थीं।

आज ही कथित श्रेष्ठ व्यवस्था का उदाहरण लीजिए। व्यवसाय- स्वतन्त्रता के नाम पर आज कोई भी एक व्यक्ति या व्यक्तिसमूह ज्ञान, धन, बल और श्रम का अपरिमित संग्रह कर सकता है। एक ही व्यक्ति अनेक व्यवसायों पर नियन्त्रण कर लेता है। उसका दुष्परिणाम यह होता है कि तुलना में उतने ही व्यक्ति या परिवार व्यवसाय से वंचित हो जाते हैं। अनेक प्रकार की शक्तियां एकत्र करके वह व्यक्ति व्यवसाय तक सीमित नहीं रहता, अपितु साथ ही शासन, प्रशासन और समाज को अपने हितों के लिए नियन्त्रित करना आरभ कर देता है। वह मनमानियां भी करता है। एक स्थान पर अनेक व्यवसायों की शक्ति का संग्रह होने के परिणामस्वरूप गरीब, अधिक गरीब और शक्तिहीन हो रहे हैं। शक्तिसपन्न लोग अधिक शक्तिसपन्न हो रहे हैं। समाज में दो ही वर्ग बनते जा रहे हैं-पूंजीपति और गरीब। लोकतन्त्र होते हुएाी शक्ति-सपन्नों का राज्य है। वे प्रायः निरंकुश हैं, कानून की पकड़ से बाहर हैं। वर्णव्यवस्था वाले समाज में ज्ञान में ब्राह्मणों का वर्चस्व था, बल में क्षत्रियों का, धन में वैश्यों का, श्रम में शूद्रों का। ब्राह्मणों पर क्षत्रियों का अंकुश था और क्षत्रियों पर ब्राह्मणों का। वैश्य-शूद्रों पर भी राज्य का अंकुश था और राज्य पर वैश्यों का। एक वर्ण के व्यवसाय में दूसरा वर्ण हस्तक्षेप नहीं कर सकता था, अतः रोजगार के अधिक अवसर थे।

  1. विशेषज्ञ बनाने की पद्धति-वर्णव्यवस्था की पद्धति से शिक्षित-दीक्षित होकर जो व्यक्ति निकलते हैं वे अपने-अपने कर्मों में कुशल प्रशिक्षित अर्थात् विशेषज्ञ नागरिक होते हैं। ऐसे विशेषज्ञों से कोई भी समाज सदा उन्नति ही करेगा। प्रत्येक क्षेत्र के कार्यों में निरन्तर प्रगति होती रहेगी।
  2. विशेषता का हस्तान्तरण-मनुस्मृति में विहित व्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता से है। किन्तु इसमें यह भी स्वतन्त्रता है कि कोई बालक अपने माता-पिता के व्यवसाय को अपना सकता है। इस प्रकार विशेषज्ञता पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती जाती है। इससे विशेषज्ञता और विकासदर दोनों बढ़ती हैं। इसी विशेषता के कारण प्राचीनाारत में प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति हुई।
  3. कठोरता और लचीलेपन का समन्वय-वर्णव्यवस्था पद्धति में सभी के अधिकार, कर्तव्य और व्यवसाय निर्धारित हैं। जब तक व्यक्ति किसी वर्ण में रहता है, उसे कठोरता से उसके नियमों का पालन करना पड़ता है। उसके भंग करने पर राजदण्ड की व्यवस्था है।

किन्तु यदि कोई व्यक्ति वर्णपरिवर्तन करना चाहता है तो उसे इसकी छूट है। वह जिस वर्ण में जाना चाहता है उसकी आवश्यक योग्यता प्राप्त करके उस वर्ण को ग्रहण कर सकता है।

  1. वर्णव्यवस्था के मूल तत्त्व विश्व की सभी व्यवस्थाओं के अपरिहार्य तत्त्व-क्या हम वर्णव्यवस्था के मूल तत्त्वों की उपेक्षा कर सकते हैं? कदापि नहीं। जैसा कि बार-बार कहा गया है कि मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व हैं-गुण, कर्म, योग्यता। मनु व्यक्ति अथवा वर्ण को महत्त्व और आदर-समान नहीं देते अपितु वर्णस्थ गुणों को देते हैं। जहां इनका आधिक्य है, उस व्यक्ति और वर्ण का महत्त्व और आदर-समान अधिक है, न्यून होने पर न्यून है। आज तक संसार की कोई भी सय व्यवस्था इन तत्त्वों को न नकार पायी है और न नकारेगी। इनको नकारने का अर्थ है-अन्याय, असन्तोष, आक्रोश, अव्यवस्था और अराजकता। मुहावरों की भाषा में इसी स्थिति को कहते हैं ‘घोड़े-गधे को एक समझना’ या ‘साी को एक लाठी से हांकना।’ उसका परिणाम यह होता है कि कोई भी समाज या राष्ट्र न विकास कर सकता है, न उन्नति; न समृद्ध हो सकता है, न सपन्न; न सुखी हो सकता है, न संतुष्ट; न शान्त रह सकता है, न अनुशासित; न व्यवस्थित रह सकता है, न अखण्डित। उक्त गुणों से रहित व्यवस्था अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती। वर्तमान में निश्चित सर्वसमानता का दावा करने वाली सायवादी व्यवस्थााी इन तत्त्वों से स्वयं को पृथक् नहीं रख सकी है। उसमें भी गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार पद और सामाजिक स्तर हैं। उन्हीें के अनुरूप वेतन, सुविधा और समान में अन्तर हैं। वर्णव्यवस्था के मूल तत्वों को विश्व की कोई व्यवस्था नकार नहीं सकती।

वर्णव्यवस्था की वर्तमान में प्रासंगिकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार

इस युग में वर्णव्यवस्था की प्रासंगिकता पर बार-बार चर्चा उठती है। साथ ही यह प्रश्नाी उत्पन्न होता है कि क्या वर्तमान में वर्णव्यवस्था लागू हो सकती है? इसका उत्तर यह है कि यदि कोई शासनतन्त्र इसमें रुचि ले तो हो सकती है। जैसे मुस्लिम देशों में शरीयत प्रणाली का शासन आज भी लागू कर दिया जाता है। वर्णव्यवस्था प्रणाली तो बहुत ही मनोवैज्ञानिक और समाज-हितकारी व्यवस्था है। इससे समाज की निश्चय ही योजनाबद्ध रूप से उन्नति होती रही है और हो सकती है। प्राचीन काल में भारत जो विद्या, धन और बल में विश्व में सर्वोपरि था, वह इसी वैदिक वर्णव्यवस्था के अर्न्तगत रहकर था। महर्षि मनु के समय यह देश ‘विश्वगुरु’ था और अन्य देशों के जन यहां शिक्षा प्राप्त करने आते थे-

एतद्देशप्रसूतस्य     सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ (2.20)

    अर्थ-समस्त पृथिवी के मनुष्य आयें और इस भारतभू पर उत्पन्न विद्वान् एवं सदाचारी ब्राह्मणों के समीप रहकर अपने-अपने योग्य कर्त्तव्यों-व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त करें।

उस समय यह देश न केवल विद्या में ‘विश्वगुरु’ था अपितु धन-ऐश्वर्य में ‘स्वर्णभूमि’ और ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। बल-पराक्रम में अजेय था। कभी इसकी ओर आंख उठाकर देखने की किसी की हिमत नहीं हुई। यह व्यवस्था आदिपुरुष ब्रह्मा से लेकर महाभारत काल के बाद तक रही। इसी व्यवस्था में रहकर ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि जैसे विद्याविशेषज्ञ ऋषि हुए। स्वायभुव मनु, वैवस्वत मनु, जनक, अश्वपति जैसे राजर्षि; मय, त्वष्टा और विश्वकर्मा जैसे वास्तुकार; नल, नील जैसे सेतुविशेषज्ञ; वाल्मीकि, व्यास, कालिदास जैसे महाकवि; चरक, सुश्रुत, धन्वंतरि, वाग्भट्ट जैसे आयुर्वेदज्ञ; राम, कृष्ण जैसे पुरुषोत्तम; अर्जुन, कर्ण जैसे धनुर्धारी; वीर हनुमान जैसे शस्त्र और शास्त्रनिपुण, ऋषि भारद्वाज जैसे विमानविद्या विशेषज्ञ; आर्यभट्ट जैसे खगोलविद्, षड्दर्शनकारों जैसे अद्भुत चिन्तक उत्पन्न हुए थे।

देश का सर्वतोमुखी पतन तो तब हुआ जब यहाँ जन्मना जातिवाद का बोलबाला हो गया और अधिकांश समाज अज्ञानी हो गया और जातियों में विभाजित हो गया। इस जातिवाद को कर्मणा व्यवस्था की भावना ही मिटा सकती है। मैं तो इस बात को बल देकर कहना चाहूंगा कि जातिवादी व्यवस्था न तो वैदिक व्यवस्था है और न आर्यों की व्यवस्था। स्वयं को आर्य या वैदिक कहने वाले व्यक्तियों को या तो जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूआछूत को छोड़ देना चाहिये अथवा स्वयं को आर्य या वैदिक कहना छोड़ देना चाहिये। जब से ये भावनाएं रही हैं देश-जाति की हानि ही हुई है, और जब तक रहेंगी और अधिक हानि होती रहेगी। इनको छोड़ने पर ही वास्तविक एकता और विकास हो सकेगा।

जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप डॉ अम्बेडकर का मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर ने निनलिखित उल्लेखों में जातिव्यवस्था को वर्णव्यवस्था का विकृत या भ्रष्ट रूप माना है, जो बिल्कुल सही मूल्यांकन है। जो यह कहा जाता है कि जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था से विकसित हुई है, यह सरासर गलत है क्योंकि दोनों परस्परविरोधी व्यवस्थाएं हैं। डॉ0 अम्बेडकर विकास की धारणा को बकवास मानते हुए लिखते हैं-

(क) ‘‘कहा जाता है कि जाति, वर्ण-व्यवस्था का विस्तार है। बाद में मैं बताऊंगा कि यह बकवास है। जाति वर्ण का विकृत स्वरूप है। यह विपरीत दिशा में प्रसार है। जात-पात ने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह विकृत कर दिया है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 181)

(ख) ‘‘जातिप्रथा, चातुर्वर्ण्य का, जो कि हिन्दू आदर्श है, एक भ्रष्ट रूप है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 263)

(ग) ‘‘अगर मूल वर्णपद्धति का यह विकृतीकरण केवल सामाजिक व्यवहार तक सीमित रहता, तब तक तो सहन हो सकता था। लेकिन ब्राह्मण धर्म इतना कर चुकने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहा। उसने इस चातुर्वर्ण्य पद्धति के परिवर्तित तथा विकृत रूप को कानून बना देना चाहा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 216)

(आ) मनु जातिनिर्माता नहीं : डॉ0 अम्बेडकर का मत-

    कभी-कभी मनुष्य के हृदय से सत्य स्वयं निकल पड़ता है। डॉ0 अम्बेडकर के हृदय से भी ये निष्पक्ष शब्द एक समय निकल ही पड़े-

    (क) ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूं कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था। जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी।’’

(डॉ0 अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ0 29)

    (ख) कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिमेदार न हो, परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया है। वर्णव्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जातिव्यवस्था का जनक नाी हो, परन्तु उसके पूर्वज होने का उस पर निश्चित ही आरोप लगाया जा सकता है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 43)

कोई कितनााी आग्रह करे, किन्तु यह निश्चित है कि डॉ0 अम्बेडकर ने उक्त वाक्य लिाकर किसी एक मनु को ही नहीं, अपितु सभी मनुओं को जाति-व्यवस्था के निर्माता के आरोप से सदा-सदा के लिए मुक्त कर दिया है। इसके बाद जातिवाद के नाम पर मनु का विरोध करने का कोई औचित्य ही नहीं बनता।

जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप: डॉ सुरेन्द्र कुमार

यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि जन्मना जातिव्यवस्था वर्णव्यवस्था से विकसित व्यवस्था नहीं है अपितु उसकी विकृत व्यवस्था है। इसको मनु स्वायभुव के साथ कदापि नहीं जोड़ा जा सकता। यह बताया जा चुका है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्परविरोधी व्यवस्थाएं हैं। एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती। इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता है। वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख है और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् ‘जन्म’ प्रमुख है। जिन्होंने इनका समानार्थ में प्र्रयोग किया है उन्होंने स्वयं को और पाठकों को भ्रान्त कर दिया। ‘वर्ण’ शब्द ‘वृञ्-वरणे’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-‘जिसको स्वेच्छा से वरण किया जाये वह समुदाय’। निरुक्त में आचार्य यास्क ने ‘वर्ण’ शब्द के अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया है-

‘‘वर्णःवृणोतेः’’(2.14)=स्वेच्छा से वरण करने से ‘वर्ण’ कहलाता है।

वैदिक वर्णव्यवस्था में समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार समुदायों में व्यवस्थित किया गया था। जब तक गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर व्यक्ति इन समुदायों का वरण करते रहे, तब तक वह वर्णव्यवस्था कहलायी। जब अकर्मण्यता और स्वार्थवश जन्म से ब्राह्मण, शूद्र आदि माने जान लगे तो वह व्यवस्था विकृत होकर जातिव्यवस्था बन गयी। इस प्रकार जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था का विकास नहीं, अपितु विकार है। विकृत व्यवस्था का दोष मनु को नहीं दिया जा सकता। मनु न तो काल की दृष्टि से, न व्यवस्था की दृष्टि से जाति-व्यवस्था के निर्माता माने जा सकते हैं। जाति का निर्माता तो मनु से बहुत परवर्ती अर्थात् महाभारत काल के बाद का समाज है। वही मनुस्मृति में जातिवादी प्रक्षेप करने का उत्तरदायी है।

वर्णव्यवस्था का ह्रास और जातिवाद का उद्भव काल: डॉ सुरेन्द्र कुमार

विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से लेकर महाभारत (गीता) पर्यन्त वैदिक कर्माधारित वर्णव्यवस्था चलती रही है। गीता में स्पष्ट शदों में कहा गया है-

    ‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’’    [4। 13]

    अर्थात्गुण-कर्म-विभाग के अनुसार चातुर्वर्ण्यव्यवस्था का निर्माण किया गया है। जन्म के अनुसार नहीं।’ इसका अभिप्राय यह हुआ कि तब तक वर्णों का निर्धारक तत्त्व ‘जन्म’ नहीं था। वर्णव्यवस्था के अर्न्तगत रहकर भारत ने विद्या, बुद्धि, बल में अद्भुत उन्नति की थी; किन्तु महाभारत के विशाल युद्ध ने भारत के सारे ढांचे को चरमरा दिया। सारी सामाजिक व्यवस्थाओं में अस्त-व्यस्त स्थिति बन गई। धीरे-धीरे लोगों में अकर्मण्यता, स्वार्थ एवं लोभ के भावों ने स्थान बना लिया। कर्म की प्रवृत्ति नष्ट हो गई किन्तु सुविधा-समान की प्रवृत्ति बनी रही। इस प्रकार धीरे-धीरे वर्णव्यवस्था में विकार आने लगा और जन्म को महत्त्व दिये जाने के कारण जातिव्यवस्था का उद्भव हुआ। पहले वर्णों में जन्म का महत्त्व प्रारभ हुआ फिर वर्ण- संकरता के नाम पर जन्माधारित जातियों का निर्माण हुआ। इसी प्रकार जातियों में उपजातियों का विकास हुआ और भारत में पूरा जातितन्त्र फैल गया। इस निर्माण के साथ जातिगत असमानता का भाव भी उभरने लगा। उसी भाव के कारण अन्तर-वर्ण विवाह और सहभोज भी समाप्त होते गये। लेकिन फिर भी व्यवहार में लचीलापन था।

ऐसा प्रतीत होता है कि ईसा से 185 वर्ष पूर्व पुष्यमित्र शुङ्ग नामक ब्राह्मण राजा के काल में, जो अपने राजा मौर्य सम्राट् बृहद्रथ की हत्या करके, वर्णव्यवस्था के नियमों को तोड़कर राजा बन बैठा था, राज्य की ओर से जातिव्यवस्था को बढ़ावा दिया गया, जन्माधारित भावनाओं को सुदृढ़ बनाया गया, जातिवाद का सुनियोजित रूप से प्रसार किया गया। तभी ब्राह्मणों को जन्म के आधार पर महिमामण्डित और सर्वाधिकार-युक्त घोषित किया गया तथा शूद्र आदि निन वर्गों पर अनेक अंकुश लगाये गये और उनके विरुद्ध कठोर नियम लागू किये गये।

यह भी अनुमान सही प्रतीत हाता है कि उसी काल में प्रायः समस्त वैदिक भारतीय वाङ्मय में सुनियोजित पद्धति से जातिवादी प्रक्षेप किये गये जिनमें ब्राह्मणों की पक्षपातपूर्ण पक्षधरता और शूद्रों की अन्यायपूर्ण उपेक्षा प्रमुख विषय रहे। इस प्रकार धीरे-धीरे जातिवाद का जाल फैलता चला गया। ब्राह्मणों का वर्चस्व एवं धार्मिक एकाधिकार जातिवाद के प्रचार-प्रसार में सबसे सशक्त कारण बना। जब से जातिवाद का उदय हुआ तब से भारत का भाग्य सो गया क्योंकि जातिवाद ने भारत का चहुंमुखी विनाश किया है और कर रहा है।

लगभग 140 वर्ष पूर्व आर्यसमाज के प्रवर्तक ऋषि दयानन्द ने जब भारतीय समाज की दयनीय स्थिति को देखा तो उन्होंने वैदिक वर्णव्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को जनता के सामने स्पष्ट किया और मनु की मान्यताओं को सही अर्थ में समझाते हुए बताया कि ‘वर्ण’ कर्म से निर्धारित होते हैं, जन्म से नहीं; जातिवादी व्यवस्था वैदिक व्यवस्था नहीं है, आदि। उन्होंने मनुष्यमात्र के लिए शिक्षा का अधिकार घोषित किया और स्त्रियों तथा दलितों को समानशिक्षा और समानता का अधिकार घोषित करके एक नयी क्रान्ति का सूत्रपात किया। आज के ऊंच-नीच रहित समाज के निर्माण में महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने वैदिक प्राचीन वर्णव्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को हमारे सामने रख कर जहां नये समाज का निर्माण किया, वहीं प्राचीन संस्कृति का भी पुनरुद्धार किया।

मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था की वेदमूलकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु स्वयं स्वीकार करते हैं कि मनुस्मृति में वर्णित गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित वर्णव्यवस्था वेदमूलक है। इसका वर्णन तीन वेदों (ऋग्0 10.90.11-12; यजु0 31.10-11; अथर्व0 19.6.5-6) में पाया जाता है। मनु वेदों को धर्म में परमप्रणाम मानते हैं, अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था को वेदों से ग्रहण करके, उसे धर्ममूलक व्यवस्था मानकर अपने शासन में क्रियान्वित किया तथा अपने धर्मशास्त्र के द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किया।

पाठक इस तथ्य की ओर गभीरतापूर्वक ध्यान दें कि वेदों तथा मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के प्रसंग में वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्ति का नहीं। वहां यह बतलाया गया है कि किस अंग की समानता के आधार पर किस वर्ण की कल्पना की गई अर्थात् किस वर्ण का कैसे नामकरण किया गया। उत्पत्ति सबन्धी मन्त्रों और श्लोकों की व्याया में अनेक व्यायाकार भ्रमित होकर ब्राह्मण, शूद्र आदि व्यक्तियों की उत्पत्ति वर्णित करते हैं, जो वर्णव्यवस्था के मूल सिद्धान्त के ही विरुद्ध है। वेदमन्त्रों का सही अर्थ इस प्रकार है-

प्रश्न    यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।

         मुखं किमस्य, कौ बाहू, का ऊरू पादौ उच्येते ॥

उत्तर        ब्राह्मणो-अस्य मुाम् आसीद् बाहू राजन्यःकृतः।

         ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्यां शूद्रो अजायत ॥

(ऋग्0 10.90.11-12)

    प्रश्न-प्रश्न है कि (यत् पुरुषं वि-अदधुः) जिसको ‘पुरुष’ कहते हैं, उसकी अथवा समाजरूपी पुरुष की किस प्रतीक के रूप में कल्पना की गयी? वह (कतिधा अकल्पयन्) वह कल्पना कितने प्रकार से की गयी? (अस्य मुां किम्) इस समाज या पुरुष का मुख क्या है? (कौ बाहू) भुजाएं क्या हैं? (का ऊरू, पादौ उच्येते) जंघाएं अर्थात् मध्यमार्ग और पैर क्या कहे जाते हैं?

    उत्तर-इस पुरुष का, अथवा समाजरूपी पुरुष का (ब्राह्मणः मुखम् आसीत्) ब्राह्मण नामक वर्ण मुख = मुखमण्डल हुआ अर्थात् मुखमण्डल के गुणों के आधार पर प्रथम वर्र्ण का ‘ब्राह्मण वर्ण’ नाम रखा गया (बाहू राजन्यः कृतः) भुजा ‘क्षत्रिय वर्ण’ को बनाया गया अर्थात् भुजाओं के गुणों के अनुसार ‘राजन्य=क्षत्रिय वर्ण’ नाम रखा गया (यद् वैश्यः तद् अस्य ऊरू) जो ‘वैश्य वर्ण’ है, वह इसका मध्यभाग या जंघा रूप कहा गया अर्थात् पेट आदि मध्यभाग के गुणों के अनुसार ‘वैश्य वर्ण’ नाम रखा गया (शूद्रः पद्याम् अजायत) ‘शूद्रवर्ण’ पैरों की तुलना से निर्मित हुआ अर्थात् पैरों के गुणों के अनुसार ‘शूद्रवर्ण’ का नाम रखा गया।

    प्रश्न -आपने वर्णव्यवस्था का विधान करने वाले वेदमन्त्रों का अर्थ वर्ण की उत्पत्तिपरक किया है जबकि अन्य व्यायाकार वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्तिपरक अर्थ करते हैं। इनमें से किस व्याया को ठीक मानें? मनुस्मृति में किस प्रकार उत्पत्ति बतायी है?

    उत्तर     -यहां प्रस्तुत व्याया ही ठीक तथा शास्त्रानुकूल है। सबसे पहले इसमें वेदों के व्यायाग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण देता हूं। वहां एक आयापिका में वर्णों की उत्पत्ति बतलाते हुए पहले वर्णों की उत्पत्ति ही कही है-

‘‘ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव…….तत् असृजत् क्षत्रम्…… स विशमसृजत् सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’ (14.4.2.23-25)

यहां उत्पत्ति-प्रक्रिया में स्पष्टतः वर्णों की उत्पत्ति पहले कही है। तर्क के आधार पर भी उक्त व्याया सही है। इसमें पहला तर्क यह है कि जब पहले वर्ण उत्पन्न होंगे तभी तो व्यक्ति उनमें प्रवेश करेगा। जैसे, पहले आश्रमों, संस्कारों का अविष्कार हुआ। फिर उनमें व्यक्तियों का प्रवेश हुआ। जैसे पहले कक्षा का नाम (मैट्रिक, बी.ए., एम. ए., आचार्य) रखा जाता है। बाद में उसमें प्रवेश होता है। यहां दूसरा तर्क यह है कि उत्पत्ति एक बार ही हुआ करती है। जबकि वर्र्णपरिर्वतन होकर लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र बार-बार बनते रहते हैं। कभी स्वेच्छा से तो कभी दण्डस्वरूप वर्णपतन होता है। यदि ब्राह्मण को मुख से उत्पन्न हुआ कहा जाता है तो वह जब शूद्र घोषित होगा तो दोबारा उसकी उत्पत्ति पैरों से कैसे होगी? वह तो पहले ही उत्पन्न हो चुका है। तीसरा तर्क यह है कि एक वर्ण में करोड़ों लोग हैं, इतनी बड़ी संया में वे कैसे उत्पन्न होंगे? और रोज-रोज कैसे होते रहेंगे? अतः इसे आलंकारिक लाक्षणिक शैली का वर्णन मानना चाहिए। इस प्रकार यहां प्रस्तुत ‘वर्णों की उत्पत्ति’ वाला अर्थ ही तर्कसंगत है।

इस प्रसंग में बहुत-से लोग गलत अर्थ करके और फिर दूसरे उसे पढ़कर भ्रान्ति का शिकार हो जाते है और यह समझते हैं कि पुरुष से सीधे व्यक्तियों की उत्पत्ति बतलायी हैं, अतः वर्णव्यवस्था में सभी लोगों का वर्ण जन्म से ही निर्धारित होता है। यहा्रान्ति अपव्याया से उत्पन्न होती है। महर्षि मनु ने गत वेदमन्त्रों को सही अर्थ में समझा था, अतः उन्होंने भी पहले वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन किया है-

लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुख-बाहूरूपादतः।      

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्॥  (1.31)

    अर्थ- ‘समाज की विशेष उन्नति-समृद्धि के लिए परमात्मा ने मुख, बाहु, जंघा और पैरों के कार्यों की तुलना से क्रमशः ब्राह्मणवर्ण, क्षत्रियवर्ण, वैश्यवर्ण और शूद्रवर्ण को निर्मित किया। वर्णों का निर्माण करके फिर उनके कर्मों का निर्धारण इस प्रकार किया-

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः      

मुखबाहूरुपज्जानां पृथक् कर्माण्यकल्पयत्॥     (1.87)

    अर्थ- ‘इस सपूर्ण संसार की सुरक्षा एवं पालन-पोषण के लिए उस महातेजस्वी परमात्मा ने मुख, बाहु, ऊरु और पैरों की तुलना से निर्मित क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों के पृथक्-पृथक् कर्म निर्धारित किये। उसके बाद 1.89-92 में एक-एक वर्ण के कर्मों का वर्णन है। उन कर्मों को अपनाने के बाद ही व्यक्ति फिर उस-उस वर्ण का नाम धारण करता है। क्योंकि बिना वर्णनाम निर्धारित हुए और बिना कर्मों को धारण किये कोई ब्राह्मण नहीं कहला सकता। इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी नहीं कहला सकते। इस प्रकार वर्णस्थ व्यक्ति बनने का क्रम तो वणर्ोत्पत्ति और कर्म निर्धारण के पश्चात् तीसरे क्रम पर आता है। अतः पहले वर्णोत्पत्ति का होना ही अभीष्ट एवं बुद्धिसंगत है।

एक ही पुरुष से चार वर्णों की उत्पत्ति होने से वर्णों में ऊंच-नीच का भाव भी नहीं हो सकता है। यह केवल योग्यता का क्रम वर्णित है। पैरों के गुणों की समानता से शूद्रवर्ण की उत्पत्ति में भी नीचता या हीनता का भाव नहीं है। वैदिक साहित्य में पूषा देव, पृथ्वी, मन्त्रों की उत्पत्ति पैरों से कही गयी है। क्या इन देवों और मन्त्रों को हम नीच मान लेंगे? इसी प्रकार शूद्र वर्ण में भी नीचता का भाव नहीं समझना चाहिए। (विस्तृत विवेचन अ0 चार में पढ़िए।)

डॉ अबेडकर के मतानुसार वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ. अबेडकर वर्णव्यवस्था एवं जातिव्यवस्था को परस्पर विरोधी मानते हैं और वर्णव्यवस्था के मूलतत्त्वों की प्रशंसा करते हैं। उन्हीं के शदों में उनके मत उद्धृत हैं-

(क) ‘‘जाति का आधारभूत सिद्धान्त वर्ण के आधारभूत सिद्धान्त से मूलरूप से भिन्न है, न केवल मूल रूप से भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर-विरोधी है। पहला सिद्धान्त (वर्ण) गुण पर आधारित है’’ (अबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ. 81)

(ख) वर्ण और जाति दोनों का एक विशेष महत्त्व है जिसके कारण दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। वर्ण तो पद या व्यवसाय किसी भी दृष्टि से वंशानुगत नहीं है। दूसरी ओर, जाति में एक ऐसी व्यवस्था निहित है जिसमें पद और व्यवसाय, दोनों ही वंशानुगत हैं, और इसे पुत्र अपने पिता से ग्रहण करता है। जब मैं कहता हूं कि ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया, तब मेरा आशय यह है कि इसने पद और व्यवसाय को वंशानुगत बना दिया।’’ (वही खंड 7, पृ0 169)

(ग) ‘‘वर्ण निर्धारित करने का अधिकार गुरु से छीनकर उसे पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया।’’ (वही, खंड 7, पृ0 172)

(घ) ‘‘वर्ण और जाति, दो अलग-अलग धारणाएं है। वर्ण इस सिद्धान्त पर टिका हुआ है कि प्रत्येक को उसकी योग्यता के अनुसार, जबकि जाति का सिद्धान्त है कि प्रत्येक को उसके जन्म के अनुसार। दोनों में इतना ही अन्तर है जितना पनीर और खड़िया में।’’ (वही, खंड 1, पृ0 119)

(ङ) ‘‘वर्ण के अधीन कोई ब्राह्मण मूढ़ नहीं हो सकता। ब्राह्मण के मूढ़ होने की संभावना तभी हो सकती है, जब वर्ण जाति बन जाता है, अर्थात् जब कोई जन्म के आधार पर ब्राह्मण हो जाता है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 173)

(च) ‘‘जाति और वर्ण में क्या अन्तर है, जो महात्मा (गांधी) ने समझा है? जो परिभाषा महात्मा ने दी है उसमें मैं कोई अन्तर नहीं पाता हूं। जो परिभाषा महात्मा ने दी है उसके अनुसार तो वर्ण ही जाति का दूसरा नाम है, इसका सीधा कारण यह है कि दोनों का सार एक है अर्थात् पैतृक पेशा अपनाना। प्रगति तो दूर, महात्मा ने अवनति की है। वर्ण की वैदिक धारणा की व्याया करके उन्होंने जो उत्कृष्ट था उसे वास्तव में उपहासप्रद बना दिया है।…..(वह वैदिक वर्णव्यवस्था) केवल योग्यता को मान्यता देती है। वर्ण के बारे में महात्मा के विचार न केवल वैदिक वर्ण को मूर्खतापूर्ण बनाते हैं, बल्कि घृणास्पद भी बनाते हैं। वर्ण और जाति, दो अलग-अलग धारणाएं हैं। अगर महात्मा विश्वास करते हैं, जो वह अवश्य करते हैं कि प्रत्येक को अपना पैतृक पेशा अपनाना चाहिए, तो निश्चित रूप से जातपांत की वकालत कर रहे हैं तथा इसको वर्णव्यवस्था बताकर न केवल परिभाषिक झूठ बोल रहे हैं, बल्कि बदतर और हैरान करने वाली भ्रांति फैला रहे हैं। मेरा मानना है कि सारी भ्रान्ति इस कारण से है कि महात्मा की धारणा निश्चित और स्पष्ट नहीं है कि वर्ण क्या है और जाति क्या है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 119)

उपर्युक्त बहुत-से उद्धरणों में हमने देखा कि डॉ0 अबेडकर जाति और वर्ण को बिल्कुल भिन्न मानते हैं और वर्ण को श्रेष्ठ तथा आपत्तिरहित भी मानते हैं। मनु की व्यवस्था भी वर्णव्यवस्था है, जाति व्यवस्था नहीं। फिर भी मनु का विरोध क्यों?

वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं हैं। इतनी विरोधी हैं कि एक की उपस्थिति में दूसरी व्यवस्था का अस्तित्व नहीं रहता। इनके विभाजक मूलभूत अन्तर इस प्रकार हैं-

  1. वर्णव्यवस्था में बालक-बालिका या व्यक्ति किसी भी कुल में उत्पन्न होने के पश्चात् अपनी रुचियों, गुण, कर्म, योग्यता के अनुसार किसी भी इच्छित वर्ण को ग्रहण कर सकता है, जबकि जातिव्यवस्था में जाति का माता-पिता से निर्धारण होने के कारण व्यक्ति किसी अन्य इच्छित जाति को ग्रहण नहीं कर सकता।
  2. वर्णव्यवस्था में वर्णों के निर्धारक तत्त्व गुण, कर्म, योग्यता होते हैं, जबकि जातिव्यवस्था में केवल जन्म ही जाति का निर्धारक तत्त्व होता है। वर्णव्यवस्था में जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता, जबकि जातिव्यवस्था में जन्म का सर्वोच्च महत्त्व होता है।
  3. वर्णव्यवस्था में पद और व्यवसाय वंशानुगत होने अनिवार्य नहीं हैं, जबकि जातिव्यवस्था में ये अनिवार्य होते हैं।
  4. वर्णव्यवस्था में व्यक्ति की बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक क्षमताओं के विकास का स्वतन्त्र व खुला अवसर रहता है, जबकि जातिव्यवस्था में वह अवरुद्ध रहता है।
  5. वर्णव्यवस्था में असमानता के आधार पर ऊंच-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्य आदि का भेदभाव नहीं होता, जबकि जातिव्यवस्था में इनका अस्तित्व उग्र या शिथिल रूप में अवश्य बना रहता है।
  6. वर्णव्यवस्था में जीवनभर वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता बनी रहती है, जबकि जातिव्यवस्था में जहां एक बार जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त अनिवार्य रूप से उसी जाति में रहना पड़ता है।
  7. वर्णव्यवस्था में व्यक्ति निर्धारित कर्मों के न करने पर या उनके त्यागने पर वर्ण से अनिवार्यतः पतित हो जाता है, जबकि जातिव्यवस्था में अच्छा-बुरा कुछ भी करने पर उसी जाति का बना रहता है। जैसे-वर्णव्यवस्था में अनपढ़, मूढ़, चोर या डाकू को कभी ब्राह्मण वर्णस्थ नहीं माना जा सकता, जबकि जातिव्यवस्था में अनपढ, मूढ़, चोर या डाकू भी ब्राह्मण ही रहता है और वह उस पतित स्थिति में भी उच्च जातीयता का अभिमान रखता है।
  8. वर्णव्यवस्था में सवर्ण विवाह की प्राथमिकता होते हुए भी समान गुण-कर्म-योग्यता की कन्या से अन्य वर्ण में भी विवाह किया जा सकता है। मनु का कथन है-‘‘स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि’’ (2.238, 240)= ‘श्रेष्ठ स्त्री निनकुल से भी ग्रहण की जा सकती है।’ इस प्रकार वर्णव्यवस्था में अन्तर-वर्ण विवाह (अन्तर-जातीय विवाह) और सहभोज स्वीकार्य होते हैं। जातिव्यवस्था में ये दोनों ही स्वीकार्य नहीं होते।
  9. वर्णव्यवस्था स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक तथा स्वैच्छिक है, जबकि जातिव्यवस्था अस्वाभाविक, अमनोवैज्ञानिक और बलात् आरोपित है।
  10. वर्णव्यवस्था का व्यावहारिक क्षेत्र उदार एवं विस्तृत है, जबकि जातिव्यवस्था का संकीर्ण एवं सीमित।
  11. वर्णव्यवस्था समाज और राष्ट्र में सामुदायिक भावना एवं समरसता उत्पन्न कर दृढ़ता प्रदान करती है, जबकि जातिव्यवस्था विघटन पर विघटन पैदा करती है। जातिव्यवस्था का विघटन असीम है।
  12. वर्णव्यवस्था में शरीर, बुद्धि, मन का सामञ्जस्य बना रहता है, जबकि जातिव्यवस्था में इनका सामञ्जस्य होना सदा संभव नहीं होता।

मनु की वर्णव्यवस्था में जन्म की उपेक्षा: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था सामाजिक और प्रशासनिक दोनों व्यवस्थाओं का मिला-जुला रूप थी, जो मृत्युपर्यन्त व्यवहृत होती थी, किन्तु यह निर्विवाद रूप से सुनिश्चित है कि वह जन्म के आधार पर निर्णीत नहीं होती थी। ‘जन्म’ उसका निर्णायक तत्त्व नहीं था। वर्णव्यवस्था में ‘जन्म’ गौण अथवा उपेक्षित तत्त्व था। उसकी जातिव्यवस्था से कुछ भी समानता नहीं थी। अतः उसकी जातिव्यवस्था से तुलना करना न्यायसंगत नहीं है। जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें वर्णव्यवस्था के वास्तविक या यथार्थ स्वरूप का सही ज्ञान नहीं है या वे सही स्थिति को स्वीकार करना नहीं चाहते।

सपूर्ण मनुस्मृति में महर्षि मनु ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि ब्राह्मण आदि जन्म से होते हैं अथवा ब्राह्मण आदि का पुत्र ब्राह्मण आदि ही हो सकता है। मनु ने निर्धारित कर्मों को करने वाले को ही उस-उस वर्ण का माना है। ब्राह्मण किस प्रकार बनता है? इसका स्पष्ट निर्देश मनु ने निनलिखित श्लोक में दिया है-

       स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।

       महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥     (2.28)

अर्थ-‘विद्याओं के पढ़ने से; ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण आदि व्रतों के पालन से, विहित अवसरों पर अग्निहोत्र करने से, वेदों के पढ़ने से, पक्षेष्टि आदि अनुष्ठान करने से, धर्मानुसार सुसन्तानोत्पत्ति से, पांच महायज्ञों के प्रतिदिन करने से, अग्निष्टोम आदि यज्ञ-विशेष करने से मनुष्य का शरीर ब्राह्मण का बनता है।’ इसका अभिप्राय यह है कि इसके बिना मनुष्य ब्राह्मण नहीं बनता।

इसी प्रकार सप्तम अध्याय में राजा के पुत्र को कहीं राजा नहीं कहा है, अपितु उपनयनकृत क्षत्रियवर्णस्थ को राजा होना कहा है (7.2)। ऐसे ही वैश्य भी कृतसंस्कार व्यक्ति होता है, उसके बिना नहीं [9.326 (10.1)]। यदि मनु को वंशानुगत रूप से या जन्म से वर्ण अभीष्ट होते तो वे ऐसा वर्णन नहीं करते, यही कह देते कि ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण होता है, क्षत्रिय का क्षत्रिय, वैश्य का वैश्य और शूद्र का शूद्र होता है। निष्कर्ष यह है कि मनु को जन्म से वर्ण अभिप्रेत नहीं थे।

    मनु, जन्माधारित महत्ताभाव को कितना उपेक्षणीय समझते थे, इसका ज्ञान उस श्लोक से होता है जहां भोजनार्थ अपने जन्म के कुल-गोत्र का कथन करने वाले को उन्होंने ‘वान्ताशी = वमन करके खाने वाला’ जैसे निन्दित विशेषण से अभिहित किया है-

(क) न भोजनार्थं स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत्।

       भोजनार्थं हि ते शंसन् वान्ताशी उच्यते बुधै॥ (3.109)

    अर्थ – कोई द्विज भोजन प्राप्त करने के लिए अपने कुल और गोत्र का परिचय न दे। भोजन या भिक्षा के लिए कुल और गोत्र का कथन करने वाला ‘‘वान्ताशी’’ अर्थात् ‘वमन किये हुए को खाने वाला’ माना जाता है।

(ख)    वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी।

       एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम्॥   (2.136)

    अर्थ :-वित्त = धनी होना, बन्धु-बान्धव होना, आयु में अधिकता, श्रेष्ठ कर्म, विद्वत्ता, ये पांच समान के मानदण्ड हैं। इनमें बाद-बाद वाला अधिक-समान का पात्र है। अर्थात् सर्वाधिक समाननीय विद्वान् होता है, फिर क्रमशः श्रेष्ठ कर्म करने वाला, आयु में अधिक, बन्धु और धनवान् होते हैं। वैसे यह एक ही प्रमाण पर्याप्त है जो वर्णव्यवस्था में जन्म के महत्त्व को पूर्णतः नकार देता है। यदि जन्म का महत्त्व होता तो यह कहा जाता कि जन्मना ब्राह्मण प्रथम समाननीय है। किन्तु ऐसा नहीं है।

मनु की वर्णव्यवस्था में कर्म का ही महत्त्व है, जन्म का नहीं; इसको सिद्ध करने वाला उनका महत्त्वपूर्ण विधान यह भी है कि कोई बालक यदि निर्धारित आयु सीमा तक उपनयन संस्कार नहीं कराता है और किसी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त नहीं करता है तो वह आर्यों के वर्णों से बहिष्कृत हो जाता है। जैसे आज की व्यवस्था में निर्धारित आयु तक विद्यालयों में या अन्य शिक्षा संस्थानों में प्रवेश न लेने पर उन्हें प्रवेश नहीं मिलता। तब वह वैधानिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाता। यदि मनु जन्म से वर्ण मानते तो इस प्रतिबन्धात्मक विधान का उल्लेख ही नहीं करते। जो जिस वर्ण में पैदा हो गया, आजीवन वही रहता। न तो उसका वर्णनिर्धारण होता, न वर्ण से पतन होता, न परिवर्तन होता। इससे सिद्ध है कि मनु की वर्णव्यवस्था में जन्म का आधार मुय नहीं है। देखिए श्लोकोक्त विधान-

आषोडशात् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते।

आद्वाविंशात् क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विशः॥ (2.38)

अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः।

सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः॥ (2.39)

नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि   हि   कर्हिचित्।

ब्राह्मान् यौनांश्च सबन्धानाचरेद् ब्राह्मणः सह॥ (2.40)

    अर्थ-‘सोलह वर्ष का होने के बाद ब्राह्मण बनने के इच्छुक बालक का, बाईस वर्ष के बाद क्षत्रिय बनने के इच्छुक का, चौबीस वर्ष के बाद वैश्य बनने के इच्छुक का, उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं रहता। उसके बाद ये सावित्री व्रत (उपनयन) से पतित होकर आर्यवर्णों से बहिष्कृत हो जाते हैं। व्रत का पालन न करने वाले इन पतितों से फिर कोई द्विज अध्ययन-अध्यापन तथा विवाह सबन्धी वैधानिक व्यवहार न करे।’

यहां इस बिन्दु पर ध्यान दीजिए कि मनु ने ‘व्रात्य’ लोगों से वैधानिक सबन्धों का निषेध किया है, सामान्य व्यवहारों का नहीं। इसे हम आज के संदर्भ में यों समझ सकते हैं कि जैसे वैधानिक शिक्षा से वंचित व्यक्ति कहीं औपचारिक प्रवेश नहीं ले सकता किन्तु स्वयं अध्ययन आदि कर सकता है। उसी प्रकार व्रत से पतितों को स्वयं अध्ययन, धर्माचरण आदि का निषेध नहीं था। दूसरी विशेष बात यह है कि उस स्थिति में भी मनु ने उनका सदा-सदा के लिए वर्णग्रहण का मार्ग अवरुद्ध नहीं किया है। यदि वे लोग फिर भी वर्णग्रहण करना चाहें तो उनके लिए यह अवसर था कि वे प्रायश्चित्त के रूप में तीन कृच्छ व्रत करके पुनः उपनयन करा सकते थे (मनु0 11.191-992-, 212-214)। प्रायश्चित्त इसलिए है कि उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को भंग किया है, शिक्षा के पवित्र उद्देश्य की उपेक्षा की है, समाज में अज्ञान को बढ़ाने का पाप किया है; अतः उनको पहले इस दोष के लिए खेद अनुभव करने हेतु तथााविष्य में विधानों की दृढ़पालना हेतु प्रायश्चित्त करना चाहिए। यह आत्मा-मन को प्रभावित करने वाली धार्मिक विधि थी। आजकल इस प्रकार के मामलों में कानूनी शपथपत्र लिया जाता है। आजकल यह कानूनी प्रक्रिया है, पहले सामाजिक-धार्मिक प्रक्रिया थी। सामाजिक-धार्मिक प्रक्रिया में अधिक दृढ़ता और ईमानदारी रहती है, कानूनी केवल कागज का टुकड़ा बनकर रह जाता है।

(ई) मनु को जातिव्यवस्थापक मानने से मनुस्मृति-रचना व्यर्थ

यदि मनु को जन्मना जातिव्यवस्था का प्रतिपादक मान लेते हैं तो इसमें मनुस्मृति की रचना का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जायेगा। क्योंकि, मनुस्मृति में पृथक्-पृथक् वर्णों के लिए पृथक्-पृथक् कर्मों का विधान किया गया है। यदि कोई व्यक्ति जन्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कहलाने लगेगा तो वह विहित कर्म करे या न करे, वह उसी वर्ण में रहेगा। जैसा कि आजकल जन्मना जाति-व्यवस्था में है। कोई कुछ भी अच्छा-बुरा कर्म करे, वह वही कहलाता है, जो जन्म से है। उसके लिए कर्मों का विधान निरर्थक है। मनु ने जो पृथक्-पृथक् कर्मों का निर्धारण किया है, वही यह सिद्ध करता है कि वे कर्म के अनुसार वर्णव्यवस्था को मानते हैं, जन्म से नहीं।

जैसे आज भी पढ़ाना कार्य अध्यापक का है, जो पढ़ायेगा वह ‘अध्यापक’ कहलायेगा, सब कोई नहीं। इसी प्रकार चिकित्सा करने वाला ‘डॉक्टर’, वकालत करने वाला ‘वकील’ कहलाता है, अन्य नहीं। इसी तरह मनुस्मृति में निर्धारित कर्म करने वाला ही उस वर्ण का कहलायेगा। निर्धारित कर्म न करने वाला व्यक्ति केवल जन्म के आधार पर ब्राह्मण आदि नहीं कहा जायेगा।