डॉ अबेडकर के मतानुसार वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ. अबेडकर वर्णव्यवस्था एवं जातिव्यवस्था को परस्पर विरोधी मानते हैं और वर्णव्यवस्था के मूलतत्त्वों की प्रशंसा करते हैं। उन्हीं के शदों में उनके मत उद्धृत हैं-

(क) ‘‘जाति का आधारभूत सिद्धान्त वर्ण के आधारभूत सिद्धान्त से मूलरूप से भिन्न है, न केवल मूल रूप से भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर-विरोधी है। पहला सिद्धान्त (वर्ण) गुण पर आधारित है’’ (अबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ. 81)

(ख) वर्ण और जाति दोनों का एक विशेष महत्त्व है जिसके कारण दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। वर्ण तो पद या व्यवसाय किसी भी दृष्टि से वंशानुगत नहीं है। दूसरी ओर, जाति में एक ऐसी व्यवस्था निहित है जिसमें पद और व्यवसाय, दोनों ही वंशानुगत हैं, और इसे पुत्र अपने पिता से ग्रहण करता है। जब मैं कहता हूं कि ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया, तब मेरा आशय यह है कि इसने पद और व्यवसाय को वंशानुगत बना दिया।’’ (वही खंड 7, पृ0 169)

(ग) ‘‘वर्ण निर्धारित करने का अधिकार गुरु से छीनकर उसे पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया।’’ (वही, खंड 7, पृ0 172)

(घ) ‘‘वर्ण और जाति, दो अलग-अलग धारणाएं है। वर्ण इस सिद्धान्त पर टिका हुआ है कि प्रत्येक को उसकी योग्यता के अनुसार, जबकि जाति का सिद्धान्त है कि प्रत्येक को उसके जन्म के अनुसार। दोनों में इतना ही अन्तर है जितना पनीर और खड़िया में।’’ (वही, खंड 1, पृ0 119)

(ङ) ‘‘वर्ण के अधीन कोई ब्राह्मण मूढ़ नहीं हो सकता। ब्राह्मण के मूढ़ होने की संभावना तभी हो सकती है, जब वर्ण जाति बन जाता है, अर्थात् जब कोई जन्म के आधार पर ब्राह्मण हो जाता है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 173)

(च) ‘‘जाति और वर्ण में क्या अन्तर है, जो महात्मा (गांधी) ने समझा है? जो परिभाषा महात्मा ने दी है उसमें मैं कोई अन्तर नहीं पाता हूं। जो परिभाषा महात्मा ने दी है उसके अनुसार तो वर्ण ही जाति का दूसरा नाम है, इसका सीधा कारण यह है कि दोनों का सार एक है अर्थात् पैतृक पेशा अपनाना। प्रगति तो दूर, महात्मा ने अवनति की है। वर्ण की वैदिक धारणा की व्याया करके उन्होंने जो उत्कृष्ट था उसे वास्तव में उपहासप्रद बना दिया है।…..(वह वैदिक वर्णव्यवस्था) केवल योग्यता को मान्यता देती है। वर्ण के बारे में महात्मा के विचार न केवल वैदिक वर्ण को मूर्खतापूर्ण बनाते हैं, बल्कि घृणास्पद भी बनाते हैं। वर्ण और जाति, दो अलग-अलग धारणाएं हैं। अगर महात्मा विश्वास करते हैं, जो वह अवश्य करते हैं कि प्रत्येक को अपना पैतृक पेशा अपनाना चाहिए, तो निश्चित रूप से जातपांत की वकालत कर रहे हैं तथा इसको वर्णव्यवस्था बताकर न केवल परिभाषिक झूठ बोल रहे हैं, बल्कि बदतर और हैरान करने वाली भ्रांति फैला रहे हैं। मेरा मानना है कि सारी भ्रान्ति इस कारण से है कि महात्मा की धारणा निश्चित और स्पष्ट नहीं है कि वर्ण क्या है और जाति क्या है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 119)

उपर्युक्त बहुत-से उद्धरणों में हमने देखा कि डॉ0 अबेडकर जाति और वर्ण को बिल्कुल भिन्न मानते हैं और वर्ण को श्रेष्ठ तथा आपत्तिरहित भी मानते हैं। मनु की व्यवस्था भी वर्णव्यवस्था है, जाति व्यवस्था नहीं। फिर भी मनु का विरोध क्यों?

2 thoughts on “डॉ अबेडकर के मतानुसार वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार”

  1. सिरी मानजी…,
    आप काल बाह्य चर्चा को नया स्वरूप प्रदान चाहते है पर आप सरासर यह भूल जाते है की यह चर्चा ९० वर्ष पुरानी है .जिस चर्चा की कोई निष्पन्नता एवम् सुपरिणाम न हो उस चर्चा का क्या महत्व है..?
    मौजूदा हालात में वर्ण महत्वपूर्ण है या जाती ..?
    जब जाती नष्ट होगी तो वर्ण बचेगा कैसे ..?
    शोध ,निष्कर्ष तभी महत्व पूर्ण होते है जब उस का कोई साधक बाधक परिणाम हो ..
    गांधी वर्ण के समर्थक थे और आर्य समाजीष्ठ जाती के ..,’जात पात तोड़क मण्डल’ के एक पत्र के उत्तर में गाँधी ने आर्य समाजिष्टो को दोगली मानसिकता का शिकार बताया था.
    असल में बाबासाहब की’ कास्ट इन इण्डिया’
    में ही वर्ण और जाती की समीक्षा का विश्लेषण है जो की इस से पूर्व डॉ अंबेडकर के अलावा कीसी भी व्यक्ति ने जाती और वर्ण का सही विवेचन नही किया था.
    सीरी मान .. सुरेद्र कुमार आशय छोड़ कर सन्दर्भ का प्रस्तुतिकरण में माहिर नजर आते है , और कुछ हद तक अनुवाद के शिकार भी हुए है.

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