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डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुस्मृति एवं आर्य (हिन्दू) साहित्य के विरोध के कारण और उनकी समीक्षा: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

डॉ. अम्बेडकर के समग्र वाङ्मय को पढ़ने के उपरान्त यह निष्कर्ष सामने आता है कि डॉ0 अम्बेडकर आरभ में प्राचीन भारतीय साहित्य के शोधात्मक और समीक्षात्मक ध्येय को लेकर चले थे और वे प्राचीन समाजव्यवस्था की मौलिकता को, विशेषतः उस अवस्था में शूद्रों की वास्तविक स्थिति को पाठकों के समक्ष रखकर जातिवादी समाज में विचार-परिवर्तन करना चाहते थे। यह उनका पहला चरण था। फिर दूसरा चरण शुरू हुआ जिसमें अकस्मात् उनका ध्येय घोर विरोधी स्वर में परिवर्तित हो गया और वे उसी को अपना पक्ष मानकर केवल खण्डनात्मक व प्रतिशोधात्मक लेखन करने लगे। इसके कुछ मनोवैज्ञानिक एवं परिस्थितिजन्य कारण रहे हैं।

डॉ0 भीमराव रामजी अम्बेडकर का जब जन्म हुआ, उस समय पौराणिक हिन्दू समुदाय जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूआछूत, सामाजिक भेदभाव जैसी कुप्रथाओं से ग्रस्त था। उसके कारण उन्होंने अपने जीवन में अनेक भेदभावपूर्ण असमानताओं, अन्यायों, उपेक्षाओं और यातनाओं को भोगा। यह स्वाभाविक ही है कि प्रत्येक जागरूक एवं स्वाभिमानी व्यक्ति के मन में ऐसे व्यवहार के प्रति आक्र ोश जन्म लेता है। डॉ0 अम्बेडकर के मन में ऐसे व्यवहार की प्रतिक्रिया में आक्रोश का एक स्थायी भाव बन गया था। उन्होंने जिन-जिन कारणों को इस भेदभावपूर्ण व्यवस्था का उत्तरदायी समझा, उनके प्रति उनका आक्रोश विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ। उनका यह आक्रोश जीवनभर बना रहा और अवसर पाकर प्रकट होता रहा। दलितों के साथ गत दो-तीन सहस्रादियों में जो व्यवहार हुआ वह सर्वथा अमानवीय और निन्दनीय था। अब उसमें कठोरता से सुधार किया जाना चाहिए। किन्तु विगत व्यवहार के प्रति प्रतिशोधात्मक भावना रखकर वैसा व्यवहार करना भी उतना ही अनुचित है। प्रतिशोधात्मक भावना से सुधार की आशा रखना व्यर्थ है जबकि वर्गविद्वेष की आशंका का पनपना निश्चित है। यदि यह स्थिति बनेगी तो वह निश्चित रूप से समाज और राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध होगी। अतीत के व्यवहार का प्रतिशोध लेना वर्तमान में कभी संभव नहीं हो सकता, हाँ, स्थिति में सुधार अवश्य संभव हो सकता है।

डॉ0 अम्बेडकर जैसे सुशिक्षित लेखकाी आक्रोश के इतने वशीभूत हो गये कि वे प्रतिशोधात्मक प्रतिक्रिया से बच नहीं सके। आगे उन्हीं कारणों पर विचार किया जा रहा है।

  1. सत्य के शोध का दावा : केवल दिाावा

डॉ0 अम्बेडकर के आरभिक लेखन में यह दावा प्राप्त होता है कि वे प्राचीन भारतीय साहित्य का अध्ययन-मनन-अन्वेषण करके उसमें वर्णित समाजव्यवस्था के मौलिक स्वरूप को और शूद्रों की प्राचीन स्थिति को पाठकों के सामने रखकर यह बताना चाहते हैं कि वर्तमान में जो व्यवस्था और व्यवहार प्रचलित है यह एक विकृत रूप है और उसको सुधारा जाना जरूरी है। डॉ0 अम्बेडकर अपने ध्येय को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं-

(क) ‘‘मैंने एक इतिहासवेत्ता की हैसियत से अनुसन्धान किया है। इतिहासवेत्ता धार्मिक पुस्तकों और अन्य पुस्तकों में कोई भेद नहीं मानते। उनका काम तो सत्य की खोज है।’’

‘‘इतिहासवेत्ता का तरीका दूसरा है। इतिहासवेत्ता को सही, निष्पक्ष, निष्काम, बेधड़क और सत्य का प्रेमी होना चाहिए। उसको निष्पक्षभाव से छोटी से छोटी चीज की जांच करनी चाहिए। अपने अनुसन्धान में मैंने अपने को निष्पक्ष रखा है।’’(शूद्रों की खोज, प्राक्क्थन, पृ0 5-6, समता प्रकाशन नागपुर)

(ख) ‘‘इस आलेख का प्राथमिक उद्देश्य यह बताना है कि अनुसन्धान का सही मार्ग कौन-सा है, ताकि एक सत्य उजागर हो। हमें इस विषय के विश्लेषण में पक्षपातरहित रहना है। भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए, बल्कि इस विषय पर वैज्ञानिक और निष्पक्ष रूप से विचार किया जाए।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, भारत में जातिप्रथा, पृ0 36)

    समीक्षा-सत्य के अनुसन्धान का यह दावा कुछ सीमा तक ‘हू वर द शूद्राज्?’ (शूद्रों की खोज) नामक पुस्तक में सही माना जा सकता है। उसके बाद रचे गये साहित्य में यह दावा कहीं सत्य नहीं दिखायी पड़ता। पाठक देख रहे हैं कि डॉ0 अम्बेडकर का प्रायः सारा लेखन भावनात्मक विरोध पर टिका हुआ है। वह भी निष्पक्ष न होकर एकपक्षीय है। उसमें ‘विरोध के लिए विरोध’ का लक्ष्य स्पष्ट झलकता है। डॉ0 साहब सत्य-अनुसन्धान और निष्पक्ष विचार की प्रतिज्ञा को नहीं निभा सके। सत्य-अनुसन्धान का लक्ष्य राह में ही कहीं भटक गया? इसकी आड़ में उन्होंने केवल विरोध ही विरोध किया है। यह दावा केवल दिखावा बन कर रह गया है।

  1. दलित राजनीति के लिए मनु और मनुस्मृति का अन्धविरोध

ऐसा प्रतीत होता है कि डॉ0 अम्बेडकर के आक्रोशपूर्ण मानस को केवल शोधात्मक समालोचना से सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने स्वयं को दलितों के संरक्षक और सामाजिक नेता के रूप में स्थापित करना आरभ किया। तब वे शोधात्मक समीक्षा को छोड़कर विरोधात्मक आलोचना पर उतर आये। इस दूसरे स्तर पराी वे वैदिक साहित्य तथा वैदिक वर्णव्यवस्था को अपेक्षाकृत उपयोगी एवं तर्कसमत मानते रहे। जातिवाद और उसके उतरदायी घटकों का, विशेषतः मनु और मनुस्मृति का उन्होंने एकपक्षीय विरोध करना आरभ कर दिया। ब्राह्मणवाद पर उन्होंने तीखे प्रहार करने शुरू किये और ब्राह्मणवाद को ही जातिवाद का जनक एवं उत्तरदायी माना। मनुस्मृति को डॉ. अम्बेडकर ने केवल इसी पहलू से देखा और समझा था, इस कारण मनु और मनुस्मृति के अन्धविरोध को उन्होंने अपना लक्ष्य बना लिया। वे स्वयं अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-

(क) ‘‘मुझ पर मनु का भूत सवार है और मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि मैं उसे उतार सकूं। वह शैतान की तरह जिन्दा है।’’ (डॉ0 अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड 1, पृ0 29)

(ख) ‘‘भारत के विधिनिर्माता के रूप में यदि मनु का कोई अस्तित्व रहा है, तो वह एक ढीठ व्यक्ति रहा होगा।……..यदि वह क्रूर न होता, जिसने सारी प्रजा को दास बना डाला, तो ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह अपना आधिपत्य जमाने के लिए इतने अन्यायपूर्ण विधान की संरचना करता, जो उसकी ‘व्यवस्था’ में साफ झलकता है।’’ (अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड 1, पृ0 29)

(ग) ‘‘सामाजिक अधिकारों के सबन्ध में मनु के कानून से ज्यादा बदनाम और कोई विधि-संहिता नहीं है।’’ (वही खंड 1, पृ0 85 तथा वही, खंड 6, पृ0 93)

(घ) ‘‘मनु एक ऐसा भाड़े का दलाल था, जो एक विशेष समुदाय में जन्मे लोगों के स्वार्थ की रक्षा करने के लिए रखा गया था।’’ (वही, खंड 6, पृ0 100)

(ङ) ‘‘नीत्शे की तुलना में मनु के महामानव का दर्शन अधिक नीच तथा भ्रष्ट है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 101)

पाठक अब इन कथनों को ध्यान से पढें

(च) ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूं कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था। जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी। वह तो उसका पोषक था।’’ (वही, खंड 1, पृ0 29)

(छ) ‘‘कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिमेदार न हो, परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया है।…….वर्णव्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जातिव्यवस्था का जनक न भी हो परन्तु उसके पूर्वज होने का उस पर निश्चित ही आरोप लागया जा सकता है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 43)

(ज) ‘‘तर्क में यह सिद्धान्त है कि ब्राह्मणों ने जाति-संरचना की।’’ (वही, खंड 1, पृ0 29)

(झ) ‘‘जातिव्यवस्था का जनक होने के कारण विभिन्न जातियों की उत्पत्ति के लिए मनु को स्पष्टीकरण देना होगा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 57)

(ञ) ‘‘मनु ने जाति का सिद्धान्त निर्धारित किया है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 228)

    समीक्षा-उक्त वाक्यों में हृदय का सच फूट पड़ा है। वस्तुतः डॉ0 अम्बेडकर पर मनु का भूत सवार हो चुका था। भूत सवार होने पर मनुष्य की असामान्य मनःस्थिति, असंतुलित विचार, अनिश्चयात्मक समीक्षा और अस्थिर चित्त हो जाते हैं। उपर्युक्त उद्धरणों में तीन-तीन परस्पर-विरोध हैं और मनु के लिए अपशदों की बौछार है। कोई भी कथन निश्चयात्मक नहीं, जिसको प्रामाणिक माना जा सके। यह केवल अविचारित और अन्धविरोध मात्र है। विडबना देखिए, एक ही मुंह से तीन-तीन बातें कही गयी हैं-1. मनु जातिनिर्माता नहीं, 2. मनु जातिनिर्माता है, 3. जातिनिर्माता ब्राह्मण हैं।

प्रश्न यह है कि यदि मनु जातिनिर्माता नहीं हैं और ब्राह्मण जातिनिर्माता हैं तो मनु का अन्धविरोध और अपमान क्यों किया गया है? यह ऐतिहासिक तथ्य है कि सभी चौदह मनु क्षत्रिय थे, ब्राह्मण नहीं; अतः उन पर ब्राह्मण या ब्राह्मणवादी होने का मिथ्या आरोप कैसे लग सकता है? स्वायंभुव मनु एक चक्रवर्ती सम्राट् था, अतः किसी का ‘भाड़े का दलाल’ भी नहीं हो सकता। यदि यह कथन मनु सुमति भार्गव (185 ई0 पूर्व) के लिए है तो उस बात को स्पष्ट करना चाहिए था। वह मनुस्मृति का रचयिता है ही नहीं। उसके कारण प्राचीन आदरणीय मनुपरपरा का अपमान करना एक साहित्यिक अपराध है। पाठक देख सकते हैं कि उपर्युक्त वाक्यों में कितनी आक्रोशपूर्ण और प्रतिशोधात्मक भावना भरी है। यह किसी सत्यानुसन्धाता या साहित्यिक समीक्षक का लेखन-स्तर नहीं कहा जा सकता।

पूर्व अध्यायों के उद्धरणों में डॉ. अम्बेडकर ने स्पष्ट शदों में स्वीकार किया है कि वर्णव्यवस्था की रचना वेदों से हुई। मनु इसके निर्माता नहीं, केवल प्रसारक हैं। वेदों की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित है, जो बुद्धिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है। वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्परविरोधी हैं। मनु जातिव्यवस्था के निर्माता भी नहीं हैं। इस प्रकार मनु वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था, दोनों के निर्माता के आरोप से मुक्त हो जाते हैं। वर्णव्यवस्था के पोषक होने के कारण उन पर यह भी आरोप नहीं बनता कि उन्होंने जन्मना जातिवाद का पोषण किया। यदि वर्णव्यवस्था बुद्धिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है, तो अव्यवस्था के समय में व्यवस्था का पोषण करके उन्होंने उत्तम कार्य ही किया है, अपराध नहीं किया। मनु वैदिक धर्मावलबी होने से वेदों को परमप्रमाण मानते हैं। अपने धर्मग्रन्थों के आदेशों का पालन करते हुए उन्होंने उसकी अच्छी व्यवस्थाओं का प्रचार-प्रसार किया तो यह कोई दोष नहीं। सभी धर्मावलबी ऐसा करते हैं। बौद्ध बनने के बाद डॉ. अम्बेडकर ने भी बौद्ध विचारों का प्रचार-प्रसार किया है। यदि उनका यह कार्य उचित है, तो मनु का भी उचित था। इतनी स्वीकारोक्तियां होने के उपरान्त भी, आश्चर्य है, कि अपने ही कथनों के विरुद्ध जाकर डॉ. अम्बेडकर मनु को स्थान-स्थान पर जातिवाद का जिमेदार ठहरा कर उनकी निन्दा करते हैं। परवर्ती सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोपकर उन्हें कटु वचन कहना कहां का न्याय है?

संविधान में पचास वर्षों में छियासी के लगभग संशोधन किये जा चुके हैं, जिनमें कुछ संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल हैं, जैसे-अंग्रेजी की अवधि बढ़ाना, आरक्षण की अवधि बढ़ाना, मुसलमानों में गुजाराभत्ता की शर्त हटाना आदि। क्या इन परवर्ती संशोधनों का, और भावी संशोधनों का जिमेदार डॉ. अम्बेडकर को ठहराया जा सकता है? यदि नहीं, तो हजारों वर्ष परवर्ती विकृत-व्यवस्थाओं के लिए मनु को जिमेदार कैसे ठहराया जा सकता है?

जो यह कहा गया है कि ‘अकेला मनु न तो जातिव्यवस्था को बना सकता था और न लागू कर सकता था।’ यह तो स्वयं ही डॉ. अम्बेडकर ने मान लिया कि इन दोनों बातों के लिए मनु जिमेदार नहीं है। डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार, इसका अर्थ यह निकला कि पहले से ही समाज में वर्णव्यवस्था प्रचलित थी और समाज ने उसे स्वयं स्वीकृत किया हुआ था। वह लोगों के दिल-दिमाग में रची-बसी व्यवस्था थी, लोगों द्वारा उत्तम मानी हुई व्यवस्था थी, और सर्वस्वीकृत थी। मनु द्वारा थोपी नहीं गयी थी। जब समाज द्वारा स्वीकृत व्यवस्था थी, तो उसमें मनु का क्या दोष? आपने जनता द्वारा स्वीकृत वर्तमान व्यवस्था का पोषण किया है, मनु ने समाज द्वारा स्वीकृत अपने समय की वर्णव्यवस्था का पोषण किया था। इसमें दोष या अपने-अपने समय में दोनों के दोषी होने का अवसर ही कहां है?

डॉ. अम्बेडकर का एक कथन में (दूसरे एक में नहीं) मानना है कि वर्णव्यवस्था जातिव्यवस्था की जननी है, क्योंकि वर्णव्यवस्था का मनु ने पोषण किया था, इसलिए मनु दोष के पात्र हैं। कितना अटपटा और लचीला तर्क है यह! ठीक जातिवाद जैसा! जैसे-किसी ने श्राद्ध नहीं किया तो वह पिछली छह पीढ़ियों के पूर्वजों सहित नरक में जायेगा, क्योंकि वे उसके जनक और पोषक थे। किसी ने श्राद्ध किया तो उसकी पिछली छह-पीढ़ियां तर जायेंगी, क्योंकि वे उसके जनक थे। ऐसे ही डॉ0 साहब कहते हैं कि जातिव्यवस्था दोषपूर्ण है, अतः उसकी पूर्वव्यवस्था और उसके पोषक मनु भी दोषी हैं। आश्चर्य तो यह है कि एक कानूनवेत्ता एक काूननदाता के लिए ऐसे आरोपों का प्रयोग कर रहा है! संविधान में तो डॉ. अम्बेडकर ने ऐसा कानून नहीं बनाया कि किसी अपराधी क ो दण्ड देने के साथ-साथ उसके माता-पिता, दादा, परदादा आदि को भी अपराधी घोषित कर दिया जाये, इसलिए कि वे उसके ‘जनक’ हैं।

विगत को अपराधी घोषित करके उन्हें दण्डित और नष्ट-भ्रष्ट करने के इस सिद्धान्त को यदि कुछ राष्ट्रीय मामलों के लिए भी संविधान में लागू कर देते तो उससे उन राष्ट्रवादियों को सन्तोष होता, जिनकी यह विचारधारा रही है कि देश स्वतन्त्र होने के बाद उन लोगों को अपराधी घोषित करके दण्डित किया जाना चाहिए, जिन्होंने विगत में राष्ट्रदोह और स्वतन्त्रताप्राप्ति का विरोध किया था; जिन्होंने विदेशी शासकों का सहयोग किया, गुप्तचरी की, देशभक्तों को फांसी दिलवायी। वे लोग जमीन, पद-पैसे पाकर तब भी सपन्न-सुखी थे, आज भी हैं; और स्वतन्त्रतासेनानी और उनके परिजन दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं! शायद ही ऐसी छूट किसी व्यवस्था-परिवर्तन ने दी हो! यदि वैसा होता तो गद्दारों को सबक मिलता और भावी राष्ट्रीय एकता-अखण्डता और स्वतन्त्रता के हित में होता।

वर्ण को जाति का जनक मानकर मनु को इस तरह दोषी ठहराया जा रहा है, जैसे मनु पहले ही जानते थे कि भविष्य में वर्ण से जाति का जन्म होगा, और इस आशा में वे जानबूझकर वर्ण का पोषण कर रहे थे। डॉ. अम्बेडकर ने वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था का पोषण किया है। क्या वे जानते थे कि इससे भविष्य में कौन-सी व्यवस्था का जन्म होगा? बिल्कुल नहीं। इसी प्रकार मनु को भी नहीं पता था कि वर्णव्यवस्था का भविष्य में अच्छा या बुरा क्या रूप होगा।

डॉ. अम्बेडकर वर्तमान जाति-पांति रहित संविधान के लेखक एवं पोषक हैं। दुर्भाग्य से, सैकड़ों वर्षों के बाद यदि यह जातिवादी रूप ले जाये तो क्या डॉ. अम्बेडकर उस के जनक होने के जिमेदार बनेंगे? सभी कहेंगे-नहीं, वे तो जातिवाद के विरोधी हैं, उन्हें जनक क्यों कहा जाये? इसी प्रकार जातिव्यवस्था भी वर्णव्यवस्था की विरोधी व्यवस्था है। मनु को अपनी वर्णव्यवस्था की विरोधी जातिव्यवस्था का जनक कैसे कहा जा सकता है? इस प्रकार उन पर जातिव्यवस्था का जनक होने का आरोप सरासर गलत है। सच यह है कि बाद के समाज ने मनु की वर्णव्यवस्था को विकृत कर दिया और उसे जातिव्यवस्था में बदल दिया; अतः वही परवर्ती समाज इसका जनक भी है, दोषी भी।

  1. दलित नेतृत्व और धर्मपरिवर्तन की आड़ में प्रतिशोधात्मक भावना

    उनके विरोध का तीसरा चरण तब शुरू होता है जब उन्होंने स्वयं को सामाजिक नेता से राजनेता स्थापित करने की ओर कदम बढ़ाये। राजनेताओं की प्रायः यह नीति होती है कि अपने समर्थकों और अनुयायियों का संयाबल बढ़ाने के लिए, उनकी प्रिय और हितकर बातों को बार-बार तथा तीव्र स्वर में उठाते हैं, और केवल उन्हीं एकपक्षीय बातों को कहते रहते हैं। डॉ0 अम्बेडकर भी ऐसा ही कहने और करने लगे। उन्होंने साहित्यिक-ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों-प्रमाणों पर तटस्थ विचार करना छोड़ दिया।

यह चरण कई कदम आगे तब बढ़ा जब उन्होंने हिन्दू धर्म को त्यागकर बौद्धधर्म को ग्रहण करने का मन बनाया। जैसी कि पन्थों की रीति होती है, जब व्यक्ति अपने अभीष्ट पन्थ को स्थापित, सुदृढ़ एवं विकसित करना चाहता है और प्रतिपक्षी पन्थ को निर्बल देखना चाहता है तब वह अपने अभीष्ट पन्थ की प्रशंसा करता नहीं अघाता और प्रतिपक्षी पन्थ की निन्दा करते-करते संतुष्ट नहीं होता। उसी प्रकार डॉ0 अम्बेडकर ने भी वैदिक धर्म सहित हिन्दू धर्म पर उग्र प्रहार करने प्रारभ कर दिये जबकि बौद्ध पन्थ की महिमा का गुणगान शुरू कर दिया। तब उन्होंने एक धार्मिक प्रतिपक्षी के समान वेदों, वैदिक साहित्य एवं वैदिक व्यवस्था सहित समस्त हिन्दू व्यवस्था का घोर एवं अविचारित विरोध करना अपना लक्ष्य बना लिया। इस चरण में उन्हें हिन्दुत्व और मनुस्मृति की प्रत्येक अच्छाई भी बुराई नजर आने लगी। वे एक-एक छिद्र को ढूंढ-ढूंढ कर ऐसे विरोध करने लगे जैसे केवल विरोध से ही उन्हें संतुष्टि मिलती हो। अब वे समीक्षक-आलोचक से कहीं दूर हटकर, केवल राजनीतिक और घोर धार्मिक विरोधी की भूमिका में आ गये। अपनी घोर धार्मिकविरोधी की भूमिका के बारे में वे स्वयं लिखते हैं। पाठक उन्हीं के शदों में पढ़ें-

(क) ‘‘वेद बेकार की रचनाएं हैं। उन्हें पवित्र या सन्देह से परे बताने में कोई तुक नहीं है।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 13, पृ0 111)

(ख) ‘‘ऐसे वेदशास्त्रों के धर्म को निर्मूल करना अनिवार्य है।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ0 95)

(ग) ‘‘यदि आप जातिप्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगाना होगा। …..आपको श्रुति और स्मृति के धर्म को नष्ट करना ही चाहिए।’’ (वही खंड 1, पृ0 99)

(घ) ‘‘जहां तक नैतिकता का प्रश्न है, ऋग्वेद में प्रायः कुछ है ही नहीं, न ऋग्वेद नैतिकता का ही आदर्श प्रस्तुत करता है।’’ (वही, खंड त्त्, पृ0 47, 51)

(ङ) ‘‘यह (ऋग्वेद) आदिम जीवन की प्रतिच्छाया है, जिनमें जिज्ञासा आधिक है, भविष्य की कल्पना नहीं है। इनमें दुराचार अधिक, गुण मुट्ठी-भर हैं।’’ (वही, खंड 8, पृ0 51)

(च) ‘‘अथर्ववेद मात्र जादू-टोनों, इन्द्रजाल और जड़ी-बूटियों की विद्या है। इसका चौथाई जादू-टोनों और इन्द्रजाल से युक्त है।’’ (वही, खंड 8, पृ0 60)

(छ) ‘‘वेदों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे आध्यात्मिक अथवा नैतिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता हो।’’ (वही,ांड 8, पृ0 62)

(ज) ‘‘ब्राह्मणों ने नियोजित अर्थ-व्यवस्था के उद्देश्य से आश्रम प्रणाली बनाई। यह इतनी बड़ी मूर्खता है कि उसका कारण और उद्देश्य समझ पाना एक बहुत बड़ी पहेली है।’’ (वही खंड 8, ‘परिशिष्ट-1’, पृ0 265)

(झ) ‘‘हिन्दूधर्म अपवित्रता के भय से व्याकुल है।……उसे धर्म कहना ही गलत है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 120)

(ञ) ‘‘इसीलिए डंके की चोट पर मैं यह कहा करता हूं कि ऐसे धर्म (हिन्दूधर्म) को निर्मूल करना अनिवार्य है और इस कार्य में कोई अधर्म नहीं है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 98)

(ट)  ‘‘मेरे जैसे व्यक्ति को जो हिन्दूधर्म का इतना विरोधी और अन्त्यज है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 24)

यहां डॉ0 अम्बेडकर के वे वचन और निष्कर्ष उद्धृत नहीं किये जा रहे हैं जो उन्होंने वैदिक संस्कृति और ऋषि-मुनियों के बारे में लिखे हैं। वे इतने घृणित, असय और कुत्सित हैं कि उन्हें सय पाठकों के समक्ष नहीं रखा जा सकता।

    समीक्षा- उपर्युक्त कथन और भाषा, उस लेखक की है जो अपने बारे में सत्य-अनुसन्धाता, पक्षपातरहित, निष्काम तथा तटस्थ इतिहासकार होने का दावा करता है। डॉ0 अम्बेडकर को अपनी भावनाओं के आहत होने का कष्ट है किन्तु वैदिक और हिन्दू धर्मियों की आस्था पर क्रूरता से कुठाराघात करने का कोई दुःख नहीं है। स्वयं को वेद और वैदिक एवं हिन्दू धर्मविरोधी घोषित करने में जिसको गर्व का अनुभव हो रहा है, उस लेखक से पक्षपातरहित विवेचन की आशा करना मृगतृष्णा मात्र है।

वैदिक धर्म के विषय में जो सबसे अधिक आपत्तिपूर्ण दुर्भावयुक्त और खतरनाक बात डॉ0 अम्बेडकर ने कही है, वह है- ‘‘यदि आप जातिप्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शाों में डायनामाइट लगाना होगा।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ0 99)। एक ओर वे मानते हैं कि वेदों में जातिव्यवस्था न होकर वर्णव्यवस्था है और वर्णव्यवस्था गुण-कर्म पर आधारित होने से बुद्धिमत्तापूर्ण है, घृणास्पद नहीं, फिर भी धर्मग्रन्थ वेदों में डयनामाइट लगाने की अनुचित और उत्तेजक बात कहते हैं!! कितना अनुचित और परस्परविरोधी वक्तव्य है उनका! वेद, धर्मशा, रामायण, महाभारत, पुराण, गीता सभी को नष्ट-भ्रष्ट करने और उनसे नाता तोड़ने की बात कही है उन्होंने! धर्मशास्त्र धर्मजिज्ञासा, साहित्य, संस्कृति, सयता, आचार-व्यवहार, जीवनमूल्य सभी के आश्रय और प्रेरणा स्रोत होते हैं। उनको नष्ट करने का अभिप्राय है आर्य (वैदिक) संस्कृति-सयता, धर्म, इतिहास साहित्य आदि सब कुछ को नष्ट करना। क्या डॉ0 अम्बेडकर यही चाहते थे? यदि डॉ0 अम्बेडकर हिन्दू धर्म में रहकर पीड़ित थे और उन्हें वह छोड़ना था, तो वे उसे छोड़कर केवल ‘मनुष्य’ के नाते भी रह सकते थे, किन्तु धर्म के आश्रय के बिना वे नहीं रह सके। उन्होंने बौद्ध मत का आश्रय लिया और बौद्ध-शाों को प्रमाण माना, जबकि हिन्दुओं को वे धर्म और धर्मशाों का त्याग करने के लिए कहते हैं।

डॉ0 अम्बेडकर और दलितवर्ग द्वारा झेली गयी पीड़ाएं अन्यायपूर्ण थीं, किन्तु किसी सपूर्ण समुदाय के धर्म और धर्मशास्त्रों को अपमानपूर्वक नष्ट करने की बात कहना, क्या अन्यायपूर्ण और पीड़ाजनक नहीं है? प्रतिशोध-भावना से इस प्रकार की अनुचित और आघातकारक बातें कहना बहुत ही आपत्तिजनक है। उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि यह बात संभव भी है या नहीं?

डॉ0 अम्बेडकर की उक्त सोच ठीक वैसी ही है जैसे किसी के हाथ-पैर में फोड़ा हो जाये तो उसका आप्रेशन कर उसको निकाल देने के बजाय उस आदमी को जान से ही मार दिया जाये! यहां मैं महात्मा गांधी द्वारा उस समय दिये गये उत्तर को उद्धृत करना चाहूंगा- ‘‘जैसे कोई कुरान को अस्वीकार कर मुसलमान कैसे बना रह सकता है और बाइबल को अस्वीकार कर कोई ईसाई कैसे बना रह सकता है। (अंबेडकर वाङ्मय खंड 1, पृ0 110) वैसे वेदों-शाों को अस्वीकार कर कोई हिन्दू कैसे हो सकता है?’’

वेदों में जातिव्यवस्था का नामोनिशान तक नहीं है। फिर भी डॉ0 अम्बेडकर ने वेदों की अकारण आलोचना की, उनको नष्ट करने की बात कही, उनके महत्त्व को अंगीकार नहीं किया। बौद्ध होकर भी उन्होंने ऐसा ही किया है। उन्होंने बौद्ध-शाों की और अपने गुरु की अवज्ञा की है, क्योंकि बौद्ध शाों में महात्मा बुद्ध ने वेदों और वेदज्ञों की प्रशंसा करते हुए धर्म में वेदों के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। कुछ प्रमाण देखिए-

(अ) ‘‘विद्वा च वेदेहि समेच्च धमम्।

         न उच्चावचं गच्छति भूरिपज्जो।’’      (सुत्तनिपात 292)

    अर्थात्-महात्मा बुद्ध कहते हैं-‘जो विद्वान् वेदों से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है, वह कभी विचलित नहीं होता।’

(आ) ‘‘विद्वा च सो वेदगू नरो इध, भवाभवे संगं इमं विसज्जा।

    सो वीतवण्हो अनिघो निरासो, अतारि सेा जाति जरांति ब्रूमीति॥’’                               (सुत्तनिपात 1060)

    अर्थात्-‘वेद को जानने वाला विद्वान् इस संसार में जन्म और मृत्यु की आसक्ति का त्याग करके और इच्छा, तृष्णा तथा पाप से रहित होकर जन्म-मृत्यु से छूट जाता है।’ सुतनिपात के वेदप्रशंसा विषयक अन्य श्लोक द्रष्टव्य हैं- 322, 458, 503, 846,1059 आदि।

डॉ0 अम्बेडकर की मनु-विरोध परपरा में डॉ0 भदन्त आनन्द कौसल्यायन द्वारा ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ के नाम से किया गया मनुस्मृति-विरोध केवल ‘विरोध’ के लिए ही है, जो अत्यन्त सतही है। उसमें न तर्क है, न सयक् विश्लेषण। अपव्याया और अपप्रस्तुति का आश्रय लेकर अच्छे को भी बुरा सिद्ध करने का प्रयास है। उन्हें जहां इस बात पर आक्रोश है कि मनु ने नारियों की निन्दा की है, तो इस बात पर भी दुःख है कि उन्हें ‘‘पूजार्हा=समानयोग्य’’ क्यों कहा गया? इसी को कहते हैं ‘चित भी मेरी पट भी मेरी।’ उनकी स्थिति विरोधाभासी है। महात्मा गांधी के प्रशंसक हैं, किन्तु उनके निष्कर्षों को नहीं मानते। बौद्ध हैं, किन्तु बौद्ध साहित्य में वर्णित वेद-वेदज्ञ आदि के महत्त्व को स्वीकार नहीं करते। स्वयं को गर्व से अवैदिक = अहिन्दू घोषित करते रहे, किन्तु हिन्दुओं के शाों के तथाकथित उद्धार में और हिन्दुओं में पूज्य महापुरुषों मनु, राम आदि की निन्दा-आलोचना में आजीवन लगे रहे।

  1. संस्कृत भाषा एवं शैली के ज्ञान का अभाव

मनु, मनुस्मृति तथा वैदिक साहित्य सबन्धी गभीर, व्यापक एवं तथ्यात्मक जानकारी न होने का एक कारण डॉ0 अम्बेडकर का संस्कृत भाषा के ज्ञान का अभाव रहा है। यद्यपि उन्होंने एक गर्वोक्ति में इस कारण को अस्वीकार किया है तथापि परोक्ष शैली में उन्होंने इस वास्तविकता को स्वीकार भी कर लिया है। यह सत्य है कि वे संस्कृत भाषा के गभीर ज्ञाता नहीं थे। उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य एवं व्यवस्था सबन्धी जो कुछ पढ़ा, समझा और लिखा, वह अंग्रेजी रूपान्तरणों और समीक्षाओं के माध्यम से ही समझा है। डॉ0 अम्बेडकर इस तथ्य को स्वयं स्वीकार करते हुए लिखते हैं-

(क) ‘‘यदि यह कहा जाय कि मैं संस्कृत का पंडित नहीं तो मैं मानने को तैयार हूं।’’

‘‘परन्तु संस्कृत का पंडित न होने से मैं इस विषय पर लिख क्यों नहीं सकता? संस्कृत का बहुत-थोड़ा अंश है जो अंग्रेजी भाषा में उपलध नहीं है। इसलिए संस्कृत न जानना मुझे इस विषय पर लिखने का अनधिकारी नहीं ठहरा सकता। अंग्रेजी अनुवादों का पन्द्रह साल अध्ययन करने के बाद यह अधिकार मुझे अवश्य प्राप्त है।’’ (शूद्रों की खोज, प्राक्कथन पृ0 2, समता प्रकाशन नागपुर)

    समीक्षा-आलोच्य ग्रन्थों की भाषा एवं शैली तथा परपरा का गभीर ज्ञान न होने के कारण कोई भी लेखक उस भाषा की प्रकृति, शैली, अर्थपरपरा, वक्ता का अभिप्राय, अन्तर्विरोध आदि को नहीं समझ पाता। डॉ0 अम्बेडकर द्वारा उद्धृत सभी सन्दर्भ दूसरे लेखकों के हैं, अतः यह मानना पड़ेगा कि मूलतः निष्कर्ष भी उन्हीं के हैं। वे स्वयं मनुस्मृति आदि ग्रन्थों के श्लोकों पर विचार नहीं कर सके। यदि वे संस्कृत भाषा के ज्ञाता होते तो निश्चय ही स्थिति कुछ अलग होती।

संस्कृत ज्ञान के अभाव में डॉ0 अम्बेडकर न तो मनु के श्लोकों के सही अर्थ का निर्णय कर सके, न परस्परविरोध का और न मनुस्मृति की प्रक्षिप्तता एवं मौलिक स्थिति का। जहां तक प्रक्षिप्तों के अस्तित्व का प्रश्न है, अब इसमें कोई मतभेद नहीं रह गया है कि उपलध मनुस्मृति में मौलिक व प्रक्षिप्त, दोनों प्रकार के श्लोक प्राप्त हैं। अनेक श्लोकों में परस्परविरोध और प्रसंगविरोध आदि हैं। डॉ0 अम्बेडकर के समय तक इस विषय पर शोध नहीं हुआ था, अतः उन्हें यह निर्णय उपलध नहीं हुआ और संस्कृत भाषा का ज्ञान न होने से वे स्वयं इनका निर्णय कर नहीं सके। उनके जितने विरोध और आपत्तियां हैं वे या तो प्रक्षिप्त श्लोकों पर केन्द्रित हैं, या फिर अर्थभेद या अशुद्ध अर्थ पर आधारित हैं। आपत्तिपूर्ण श्लोकों अर्थात् प्रक्षिप्तों पर आलोचना प्रस्तुत करते हुए उन्होंने इस तथ्य का उत्तर नहीं दिया कि आलोचित श्लोक का विरोधी जो श्लोक मनुस्मृति में उपलध है, जो कि आपत्तिरहित, उत्तम मान्यता का वर्णन करने वाला है, उसको वे क्यों नहीं स्वीकार करते? या एक साथ दो विरोधी श्लोक एक ग्रन्थ में क्यों है? यदि वे इस तथ्य पर चिन्तन कर लेते तो उन्हें मनुस्मृति का अन्धविरोध करने का विचार ही छोड़ देना पड़ता।

डॉ0 अम्बेडकर ने मनुस्मृति की मौलिक और प्रक्षिप्त स्थिति पर पृथक् से विचार नहीं किया। न मौलिक श्लोकों को पृथक् विचारा, न प्रक्षिप्तों को, उन्होंने सारी मनुस्मृति की अलोचना की है; जो केवल प्रक्षिप्तों पर आधारित है। इस प्रकार डॉ0 अम्बेडकर ने अच्छे श्लोकों के साथ सारी मनुस्मृति की निन्दा कर डाली, जो ऐतिहासिक तथ्य के विपरीत मत है। यह रहस्यपूर्ण बात है कि डॉ0 अम्बेडकर ने वेदों, रामायण, गीता, महाभारत, पुराण, सूत्रग्रन्थ सभी में प्रक्षेपों का अस्तित्व घोषित किया है, किन्तु मनुस्मृति में स्वीकार नहीं किया। ऐसा क्यों? स्पष्ट है कि यदि वे मनुस्मृति में भी मौलिक व प्रक्षेप के अस्तित्व को ईमानदारी से स्वीकार कर लेते तो उनका ‘विरोध के लिए विरोध’ का अभियान चल ही नहीं पाता। (प्रमाणों के लिए द्रष्टव्य है अध्याय संया छह)

  1. वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति-प्रक्रिया तथा व्यावहा-रिकता को न समझ पाना

वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति-प्रक्रिया एवं व्यावहारिकता के वास्तविक स्वरूप को न समझना अथवा समझे हुए सही स्वरूप पर स्थिर न रहना, विरोध का एक अन्य कारण है।

समीक्षा-डॉ0 अम्बेडकर ने जब-जब चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को सही समझा है, तब-तक उन्होंने उसकी प्रशंसा की है। जब ठीक नहीं समझा, तब निन्दा की है। कभी-कभी ठीक समझकर भी वे अपने मत पर स्थिर नहीं रहे। यदि स्थिर रहते तो महर्षि मनु के उग्र और अविचारित विरोध के सारे अवसर समाप्त हो जाते अर्थात् डॉ0 साहब को मनु का विरोध करने का अवसर ही नहीं मिलता।

वर्णव्यवस्था को समझने में भूल तब होती है जब हम वर्ण को जाति के समान जन्म से मान लेते हैं। वर्ण जन्म से निर्धारित नहीं होता था जबकि जाति जन्म से निर्धारित होती थी और होती है। वर्ण का अभिप्राय यह था कि किसी भी कुल में उत्पन्न होने के उपरान्त व्यक्ति अपने गुण, कर्म, योग्यता के अनुसार किसी भी वर्ण का चयन करके उस वर्ण को धारण कर सकता था। यह व्यवस्था ठीक ऐसी ही थी जैसे आज किसी भी कुल का व्यक्ति किसी भी नौकरी का कार्य कर सकता है। जब डॉ0 अम्बेडकर वर्ण के इस मौलिक और सही स्वरूप को त्यागकर उसको जन्म पर आधारित मान लेते हैं तब वे चातुर्वर्ण्य का विरोध करते हैं और चातुर्वर्ण्य-विधायक वेदमन्त्रों की तथा मनुस्मृति के श्लोकों की जन्माधारित व्याया प्रस्तुत करते हैं। यह निर्विवाद है कि वे भलीभांति जानते थे, और जैसा कि उन्होंने अनेक बार लिखा भी है कि वैदिक चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में वर्ण गुण-कर्म-योग्यता से निर्धारित होते थे। उनके द्वारा किये गये बारंबार विरोध को पढ़कर यह संदेह होता है कि चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के सही स्वरूप की जानकारी रखते हुए भी डॉ0 अम्बेडकर द्वारा जो उसका विरोध किया जाता रहा है, वह जानबूझकर और योजनाबद्ध है। शायद वे राजनीति से प्रेरित स्थिति में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के सही स्वरूप को जानबूझकर मानना नहीं चाहते थे क्योंकि फिर वे ‘विरोध के लिए विरोध’ नहीं कर सकते थे। तब तर्क उन्हें विरोध के मार्ग पर नहीं बढ़ने देता। इसलिए उन्होंने वर्णव्यवस्था के सही स्वरूप को अनेक स्थलों पर प्रस्तुत करने के बावजूद चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को जन्म से जोड़कर भ्रामक रूप में प्रस्तुत किया है और उसकी आड़ लेकर मनु, मनुस्मृति तथा आर्य (हिन्दू) शास्त्रों का खुलकर विरोध किया है। (इसके उदाहरण द्रष्टव्य हैं-‘डॉ0 अम्बेडकर के ग्रन्थों में परस्परविरोध’ शीर्षक आगामी अध्याय आठ में)

डॉ0 अम्बेडकर सहित वर्णव्यवस्था के समीक्षकों को एक भ्रान्ति यह है कि वे मुख, बाहु, जंघा, पैर से सीधे वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्ति मानते हैं जबकि उन प्रसंगों में वर्णों की आलंकारिक उत्पत्ति है, व्यक्तियों की नहीं। पहले वर्ण बने हैं फिर उनमें कर्मानुसार व्यक्ति दीक्षित हुए हैं (द्रष्टव्य – ‘वर्णव्यवस्था का यथार्थ स्वरूप’ शीर्षक अध्याय तीन)। पहले व्यवस्था बनती है, पुनः व्यक्तियों पर लागू होती है। अतः पैर से शूद्रवर्ण की आलंकारिक उत्पत्ति दर्शाई है, शूद्रों की नहीं। इस सही प्रक्रिया को समझ लेने पर यह आक्रोश स्वतः समाप्त हो जाता है कि शूद्रों की उत्पत्ति पैर से क्यों कही गयी है? क्योंकि चारों वर्णों में से अयोग्यता के कारण किसी भी कुल का व्यक्ति शूद्र होकर शूद्रवर्ण में समाविष्ट हो सकता था।

संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत मान्य और खरी नहीं होती। अतः कुछ कमियों के आधार पर परवर्ती जातिव्यवस्था (हिन्दू व्यवस्था) की निन्दा और अपमान करना कदापि उचित नहीं माना जा सकता। हाँ, उसमें निहित कुप्रथाओं पर प्रहार होना ही चाहिए। आज की संवैधानिक व्यवस्था, जिसका न्याय, समानता आदि का दावा है, क्या सपूर्ण है? अभी ही वह न जाने कितने विवादों से घिरी है। सामयिक आवश्यकता के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया है, फिर भी आज उस पर उग्र विवाद है। आज के सैकड़ों वर्ष पश्चात् जब ये परिस्थितियां विस्मृत हो जायेंगी, तब जो इस व्यवस्था का इतिहास लिखा जायेगा, शायद वह आरक्षित जातियों के लिए भी वैसा ही लिखा जायेगा, जो ब्राह्मणों के सन्दर्भ में आज प्राचीन धर्मशाों का लिखा जा रहा है।

वर्तमान संवैधानिक व्यवस्थाओं में, उच्चतम अधिकारी से लेकर निनतम कर्मचारी तक के लिए परीक्षाओं-उपाधियों के अनुसार नियुक्ति का प्रावधान है। कुछ स्थान मनोनयन से भरे जाते हैं। थोड़े से वर्षों में ही स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों के मनोनयन में, सत्ता में बैठे नेताओं, अधिकारियों के सबन्धी या सिफारिशी ही अधिकांशतः ले लिये जाते हैं; योग्यता का पैमाना भुला दिया गया है। योग्यता की जांच के लिए साक्षात्कार आयोजित होते हैं, किन्तु तब भी हजारों नौकरियां सिफारिश और पैसे के आधार पर दी जा रही हैं। न्यायालयों द्वारा रद्द अनेक चयनसूचियां इसके सत्यापित प्रमाण हैं। राजनीतिक स्तर पर होने वाले ‘राज्यपाल’ आदि पदों के मनोनयन में योग्यता नाम की कोई वस्तु दिखायी नहीं पड़ती। वहां अपने-पराये का नग्न रूप है। कल्पना कीजिए, जिसकी कि संभावनाएं प्रबल दिखायी पड़ रही हैं, सैकड़ों वर्ष बाद ये व्यवस्थाएं और अधिक विकृत होकर यदि जन्माधारित रूप ले गयीं तो क्या उसकी जिमेदारी डॉ0 अम्बेडकर और संविधान-सभा की मानी जायेगी? क्या उन द्वारा प्रदत्त व्यवस्था उस भावी विकृत व्यवस्था की जननी मानी-जानी जायेगी? यदि नहीं, तो मनु को भी जाति-व्यवस्था का जनक और जिमेदार नहीं कहा जा सकता।

  1. प्राचीन धर्मशास्त्रों एवं मान्यताओं के ज्ञान का अभाव

आर्य (हिन्दू)-शास्त्रों की मौलिक परपराओं और मान्यताओं को भी डॉ0 अम्बेडकर भारतीय परपरा के अनुसार नहीं समझ सके। अंग्रेजी अनुवादों पर निर्भर होने के कारण उन्होंने शास्त्रों का स्वरूप और काल वही समझा, जो पाश्चात्य लेखकों ने कपोलकल्पना से स्थापित किया था। परिणामस्वरूप डॉ0 अम्बेडकर का आर्य (हिन्दू) शास्त्रों का विवेचन एकपक्षीय रहा। इस स्थिति को वे अनुभव भी करते थे। उन्होंने इस विवशता को इन शदों में स्वीकार किया हैं-

(क) ‘‘हिन्दू धर्मशास्त्र का मैं अधिकारी ज्ञाता नहीं हूं।’’ (जातिभेद का उच्छेद, पृ0 101, बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ)

(ख) ‘‘महात्मा जी (गांधी जी) की पहली आपत्ति यह है कि मैंने जो श्लोक चुने हैं, वे अप्रमाणिक हैं। मैं यह मान सकता हूं कि मेरा इस विषय पर पूर्ण अधिकार नहीं है।’’ (वही, पृ0 120)

    समीक्षा-डॉ0 अम्बेडकर ने वैदिक मान्यताओं, स्थापनाओं एवं परपराओं को प्राचीन भारतीय मतानुसार नहीं समझा, या समझकर स्वीकार नहीं किया। उनके प्रायः सभी निष्कर्ष अंग्रेजी अनुवादों और समीक्षाओं पर निर्भर हैं। इस कारण उन द्वारा प्रस्तुत मान्यताएं गड्ड-मड्ढ हो गयी हैं। जैसे, डॉ0 अम्बेडकर ने लिखा है कि मनुस्मृति का रचयिता मनु नामधारी सुमति भार्गव है जो ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्ग (185 ईस्वी पूर्व) का समकालीन है। इससे स्पष्ट हुआ कि वे उसी की आलोचना कर रहे हैं, प्राचीनतम मनुओं की नहीं। किन्तु उन्होंने इस तथ्य को स्पष्ट नहीं किया। विरोध में सभी मनुओं को घसीटा है।

भारतीय प्राचीन मतानुसार ‘मनुस्मृति’ मूलतः मनु स्वायंभुव की रचना है, जो ब्रह्मा के पुत्र थे। उसी मनुस्मृति का उल्लेख सपूर्ण प्राचीन वैदिक एवं लौकिक संस्कृत वाङ्मय में है। वही प्राचीन काल से भारतीय समाज में प्रचलित है। उस मनुस्मृति में मूलतः गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित चातुर्वर्ण्य व्यवस्था विहित है। यह संभव है कि उस मनुस्मृति में प्रक्षेप के रूप में जो जातिव्यवस्था के श्लोक मिलाये हैं वे मनु सुमति भार्गव ने मिलाये हो। इस तथ्य का स्पष्टीकरण न किये जाने से प्राचीन मनु भी अनावश्यक रूप से निन्दा के शिकार हो रहे हैं।

मनु का काल मनुष्यों की सृष्टि का प्रारभिक काल है (देखिए आरभ में वंशावली)। उस समय कर्मणा वैदिक व्यवस्था ही थी। स्वयं डॉ0 अम्बेडकर का भी मत है कि जन्मना जाति व्यवस्था तो महाभारत के बाद और बौद्धकाल से पूर्व प्रारभ हुई और ईसापूर्व की शतादियों में ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्ग के काल में सुदृढ़ हुई। मनु के काल में जन्मना जातिव्यवस्था थी ही नहीं तो उसका मनु द्वारा वर्णन कैसे संभव है? स्पष्ट है कि मनुस्मृति में ऐसे श्लोकों का प्रक्षेप जन्मना जातिवाद के उद्भव के बाद हुआ है। उनका जिमेदार प्राचीनतम महर्षि मनु स्वायभुव को कैसे माना जा सकता है? इस तथ्य पर न तो पाश्चात्य लेखकों ने ईमानदारी से विचार किया और न डॉ0 अम्बेडकर ने किया। यदि डॉ0 अम्बेडकर ऐसा करने का अवसर पाते तो आज स्थिति भिन्न और सुखद होती। अब, डॉ0 अम्बेडकर के अनुयायियों को इस तथ्य पर अवश्य ही विचार करना चाहिये कि जो आदिपुरुष एवं राजर्षि मनु जब निर्दोष एवं आरोपरहित हैं तो उनको दोषी और आरोपी कहने का अन्याय क्यों किया जाये? यदि वे विरोध करना ही चाहते हैं तो डॉ0 अम्बेडकर द्वारा कथित ईसापूर्व द्वितीय शती के ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्गकालीन ‘मनु सुमति भार्गव’ का विरोध करें, जो अनुमानतः मनुस्मृति में ब्राह्मणवादी विचारधारा का प्रक्षेपकर्त्ता है, आदिपुरुष मनु का विरोध नहीं करें।

डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुप्रोक्त वर्णपरिवर्तन का समर्थन: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर  ने कई स्थलों पर प्राचीन काल में वर्णपरिवर्तन के अवसरों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। वर्णपरिवर्तन का स्पष्ट अभिप्राय है कर्मणा वर्णव्यवस्था, और कर्मणा वर्णव्यवस्था का अभिप्राय है जन्मना जातिवाद का अस्तित्व न होना। इस प्रकार वैदिक और मनु की वर्णव्यवस्था में कहीं भी आपत्ति करने की गुंजाइश नहीं रहती है। वे लिखते हैं-

(क) ‘‘इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य होने के लिए चुन लिए जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गए होते थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 170)

इस सन्दर्भ के अतिरिक्त डॉ0 अम्बेडकर र ने ऊपर तथा अन्य उन उद्धृत श्लोकों के अर्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है जिनमें मनु ने वर्णपरिवर्तन का विधान किया है। इसका अभिप्राय यह निकला कि वे श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र को सिद्धान्त रूप में मान्य हैं-

(ख) ‘‘जिस प्रकार कोई शूद्र ब्राह्मणत्व को और कोई ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न भी प्राप्त होता है।’’ (मनुस्मृति 10.65) (वही, खंड 13, पृ0 85)

(ग) ‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकाररहित है, और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है।’’ (मनुस्मृति 9.335)(वही, खंड 9, पृ0 117)

मनु की वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र वर्णपरिवर्तन करके उच्च वर्ण प्राप्त कर सकते थे, मनु के इस सिद्धान्त का डॉ0 अम्बेडकर र स्पष्ट समर्थन कर रहे हैं। मनु आपत्तिरहित सिद्धान्त के प्रदाता हैं, फिर भी मनु का विरोध क्यों? अपने इस परस्परविरोध का उत्तर डॉ0 अम्बेडकर र को देना चाहिए था किन्तु उन्होंने कहीं नहीं दिया क्या अब डॉ0 साहब के अनुयायी या अन्य मनुविरोधी, शूद्र-सबन्धी परस्परविरोधों का उत्तर देने का साहस करेंगे?

 

डॉ. अम्बेडकर के मतानुसार मनु शूद्रों के भी आदिपुरुष व आदरणीय पूर्वज: डॉ. सुरेन्द कुमार

जैसा कि प्राचीन भारतीय परपरा को उद्धृत कर यह सप्रमाण दिखाया गया है कि प्राचीन वैदिक इतिहास के अनुसार मनु स्वायभुव आदितम ऐतिहासिक राजर्षि हैं और वे सबके श्रद्धेय है। डॉ0 अबेडकर ने प्राचीन मनुओं के विषय में इन्हीं ऐतिहासिक तथ्यों को स्वीकार करते हुए उन्हें आदरणीय पुरुष माना है। वे लिखते हैं –

(क) ‘‘स्वयंभू के पुत्र मनु (स्वायंभुव) के एक पुत्र प्रियंवद थे। उनके पुत्र अग्नीध्र हुए। अग्नीध्र के पुत्र नाभि और नाभि के पुत्र ऋषभ हुए। ऋषभ के एक और वेदविद् पुत्र हुए जिनमें नारायण के परमभक्त भरत ज्येष्ठ थे। उन्हीं के नाम पर इस देश का नाम ‘भारत’ पड़ा।…..उपरोक्त से पता चलता है कि सुदास किन प्रतापी राजाओं का वंशज था।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 13, पृ0 104)

(ख) आगे वे इस वंश का कुछ और विवरण प्रस्तुत करते हैं। स्वायभुव मनु की सुदीर्घ वंश परपरा में आगे चलकर सातवां मनु वैवस्वत हुआ। उसके पुत्र इक्ष्वाकु से क्षत्रियों का सूर्यवंश चला और पुत्री इला से चंद्रवंश चला। उसकी वंश परपरा को दर्शाते हुए वे लिखते हैं-

‘‘पुरूरवा वैवस्वत मनु का पौत्र और इला का पुत्र था। नहुष पुरूरवा का पौत्र था। निमि इक्ष्वाकु का पुत्र था जो स्वयं मनु वैवस्वत का पुत्र था। इक्ष्वाकु की ख्त्त्वीं पीढ़ी में त्रिशंकु हुआ। इक्ष्वाकु की भ्वीं पीढ़ी में सुदास था। वेन, मनु वैवस्वत का पुत्र था। ये सभी मनु के वंशज होने के कारण सभी सुदास से सबन्धित होने चाहिएं। ये सुदास के शूद्र होने के प्रमाण हैं।’’ (वही, खंड 13, पृ0 152)

यहां डॉ0 अबेडकर के निष्कर्षों में कुछ संशोधन की आवश्यकता है। एक तो यह कि सुदास के शूद्र घोषित किये जाने का यह मतलब नहीं है कि उसका पूर्वापर सारा वंश शूद्र था। इस तरह तो मनु स्वायंभुव भी शूद्र कहा जायेगा। दूसरा, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंशक्रम नहीं है, केवल प्रसिद्ध पुरुषों की तालिका है। अन्य नवीन इतिहासकारों के अनुसार सुदास वैवस्वत मनु की 63 वीं प्रमुख पीढ़ी में थे। इसी वंश में राम 76 वीं प्रमुख पीढ़ी में हुए।

ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्ग, वैवस्वत मनु के वंश के प्रमुख पुरुषों की 170 पीढ़ी पश्चात् हुआ है जिसकी चर्चा डॉ0 अबेडकर बार-बार ब्राह्मणवाद के संस्थापक राजा के रूप में करते हैं। स्वायभुव मनु से तो यह बहुत-बहुत दूर की पीढ़ी में आता है। यह ‘शुङ्ग’ वंश में उत्पन्न सामवेदी ब्राह्मण था और मौर्य सम्राट् बृहद्रथ का मुय सेनापति था। इसने उसका वध करके राज्य पर बलात् कजा किया था।

(ग) डॉ0 अबेडकर के मतानुसार वर्तमान शूद्र मूलतः क्षत्रिय जातियों से सबन्धित थे और वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के सूर्यवंश से थे। इस प्रकार वैवस्वत मनु शूद्रों के आदिपुरुष सिद्ध होते हैं और स्वायंभुव मनु, जो मूल मनुस्मृति के रचयिता हैं, वे उनके भी आदितम पुरुष सिद्ध होते हैं। डा. अबेडकर लिखते हैं-

‘‘शूद्र सूर्यवंशी आर्यजातियों के एक कुल या वंश थे। भारतीय आर्य समुदाय में शूद्र का स्तर क्षत्रिय वर्ण का था।’’ (वही, खंड 13, पृ0 165)

(घ) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में मनु आदरसूचक संज्ञा थी।’’ (वही, खंड 7, पृ0 151)

(ङ) ‘‘याज्ञवल्क्य नामक विद्वान् जो मनु जितना ही महान् है, कहता है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 179)

प्रश्न उपस्थित होता है कि जब प्राचीन राजर्षि स्वायभुव मनु शूद्रों के भी आदरणीय आदिपुरुष थे तो उनके द्वारा अपने आदिपुरुष का विरोध करना क्या कृतघ्नतापूर्ण असयाचरण नहीं है? नवीन लोगों द्वारा विहित व्यवस्थाओं को प्राचीन मनुओं पर थोपकर उनकी निन्दा और अपमान करना, क्या ऐतिहासिक अज्ञानता नहीं है? कितने दुःख का विषय है कि जिस अतीत पर हम भारतीयों को गर्व करना चाहिए, अपनी अज्ञानता और भ्रान्ति के कारण हम उसकी निन्दा कर रहे हैं! यह बौद्धिक पतन की चरम स्थिति है।

डॉ अम्बेडकर जी द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी का अभिनन्दन

जो हिन्दू सुधारक अस्पृश्यता निवारण के लिए प्रयत्न कर रहे थे। उनके विषय में बाबासाहब अम्बेडकर (सन् 1920-27) गौरवोद्गार अभिव्यक्त करते हुए नजर आते हैं तथा वे और अधिक कार्य करें, इस दृष्टि से आह्वान करते हुए भी दिखलाई देते हैं। इस सम्बन्ध में आर्यसमाज व उनके नेता स्वामी श्रद्धानन्द का नाम सबसे पहले लिया जाना आवश्यक है।

”स्वामीजी दलितों के सर्वोंत्तम हितकत्र्ता व हितचिन्तक थे“ ये उद्गार डॉ0 अम्बेडकर ने 1945 के ’कांग्रेस और गान्धीजी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया ?‘ नामक ग्रन्थ में अभिव्यक्त किये हैं (पृ0 29-30)। कांग्रेस में रहते हुए स्वामीजी ने जो कार्य किया उसकी उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक प्रशंसा की है। कांग्रेस ने अस्पृश्योद्धार के लिए 1922 में एक समिति स्थापित की थी। उस समिति में स्वामीजी का समावेश था। अस्पृश्योद्धार के लिए उन्होंने कांग्रेस के सामने एक बहुत बड़ी योजना प्रस्तुत की थी और उसके लिए उन्होंने एक बहुत बड़ी निधि की भी माँग की थी, परन्तु उनकी माँग अस्वीकृत कर दी गई। अन्त में उन्होंने समिति से त्यागपत्र दे दिया (पृ0 29)। उक्त ग्रन्थ में स्वामीजी के विषय में वे एक और स्थान पर कहते हैं, ’स्वामी श्रद्धानन्द ये एक एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अस्पृश्यता निवारण व दलितोद्धार के कार्यक्रम में रुचि ली थी, उन्हें काम करने की बहुत इच्छा थी, पर उन्हें त्यागपत्र देने के लिए विवश होना पड़ा‘ (पृ0 223)।

दिनांक-4.11.1928 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय लेख में बाबासाहब लिखते हैं-”आर्यसमाज यह समाज (ब्राह्मण नहीं, अपितु) ब्राह्मण्यत्व मुक्त हिन्दू धर्म का एक सुधारित-संशोधित संस्करण है। आर्यसमाज हिन्दू समाज के (जन्मना) चातुर्वण्र्य को तोड़कर उसे एकवर्णी करने के लिए जन्मा आन्दोलन है, उसका साहस विलक्षण है“ (90-112)। स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या दि0-23.12.1926 को हुई और उसके बाद आर्यसमाज के स्वरूप में परिवर्तन होने की आलोचना बाबासाहब ने की है, उपरोक्त सम्पादकीय में वे आगे लिखते हैं-”आर्यसमाज हिन्दू समाज को एक वर्णी करने के अपने मूल कार्य को भूलकर हिन्दू महासभा की तरह शुद्धि अभियान के पीछे लगा है, अब इन दोनों की इतनी घनिष्ठ मित्रता हो गई है कि हिन्दू महासभा का ध्येय आर्यसमाज का ध्येय बन गया है (पृ0 112)। दिनांक-7.10.1927 को अमरावती में सम्पन्न ’आर्य धर्म परिषद‘ में चातुर्वण्र्य का प्रस्ताव पारित होने की जानकारी बाबासाहब देते हैं, फिर भी उन्हें आर्यसमाज से आशा होने के कारण वे उसे उपदेश करते हुए लिखते हैं कि-”आर्यसमाज ने हिन्दू महासभा की बातों में आने की अपेक्षा हिन्दू महासभा को अपने विचारों के अनुरूप बनाना चाहिए, इसी से आर्यसमाज के उद्देश्य की पूत होगी (पृ0 112)।“

दिनांक 22.4.1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ में आर्यसमाज के शुद्धि कार्य की आलोचना करते हुए बाबासाहब कहते हैं-”शुद्धि करके विधर्म में गये लोगों को फिर से स्वीकार करने का एक हाथ से प्रयत्न करना और दूसरे हाथ से स्वधर्म में रहनेवालों के साथ चिढ़ाने जैसा आचरण करना, होश में रहनेवाले मनुष्यों का लक्षण नहीं है। स्वामी श्रद्धानन्दजी के यशस्वी कार्य का यह स्मारक नहीं, अपितु उस महापुरुष द्वारा आरम्भ किये हुए कार्य का विकृत रूप है“ (पृ0 15)। दिनांक-15 मार्च 1929 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय में भी उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्दजी का गौरव तथा आर्यसमाज की आलोचना की है। वे कहते हैं-’स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्दजी के पवित्र आन्दोलन का इन ढोंगी लोगों ने गुड़-गोबर बना दिया है (244)।‘

 

दिनांक 21.12.1928 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में स्वामीजी का गौरव प्रस्तुत करनेवाला श्री पी0 आर0 लेलेजी का एक विशाल लेख प्रकाशित हुआ है। उसके अन्त में यह कहा गया है कि-”उन्हें (स्वामीजी को) श्रद्धांजलि देने का अधिकार अपना अर्थात् प्रमुख रूप् से बहिष्कृत व्यक्तियों (दलितों) का ही है। यदि अपनी उन्नति नहीं हुई, तो स्वामीजी को, उनके सच्चे हितैषी की आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी“ (205)। ’महात्मा स्वामी श्रद्धानन्द को‘, ’हिन्दुओं के उद्धार को‘ तो अन्यों को ’ब्राह्मणों के उद्धार की‘, ’अहर्निश चिंता लगी हुई हैं‘-प्रायः यह बाबासाहब कहते रहते थे (पृ0 31)। इसी उपकृत व कृतज्ञ भावना से महाड़ में मार्च-1927 में सम्पन्न ’कुलाया जिला बहिष्कृत परिषद्‘ में स्वामीजी को श्रद्धांजलि देने का प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसमें कहा गया था-”श्रद्धानन्दजी के अमानुष हत्या के प्रति इस सभा को अत्यन्त दुःख हो रहा है और उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्यक्रम के अनुसार हिन्दू जाति को अस्पृश्यता निर्मूलन का कार्य करना चाहिए“ (9)। (डॉ0 आंबेडकरांचे सामाजिक धोरणः एक अभ्यास-लेखक-शेषराव मोरे, पृष्ठ 75-76 प्रथमावृत्ति (मराठी ग्रन्थ) जून, सन् 1998)।

कांग्रेस द्वारा अस्पृश्यता निवारण का कार्य न करने के कारण कांग्रेस समिति से त्यागपत्र देनेवाले स्वामी श्रद्धानन्द का जो गौरव उन्होंने किया है, वह आपने देखा ही है, परन्तु 1945 के ’कांग्रेस और गान्धीजी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया ? ग्रन्थ में बाबासाहब ने गान्धीजी की आलोचना करते हुए लिखा है-”स्वामी श्रद्धानन्दजी का पक्ष लेने की अपेक्षा गाँधीजी ने श्रद्धानन्दजी के विरोधी प्रतिगामी लोगों का पक्ष लिया है। (29-226)“ इतना ही नहीं तो कांग्रेस का अस्पृश्यता निवारण का प्रस्ताव अर्थात् ’अस्पृश्यों से सम्बद्ध कपटनाट्य था‘ (22) ’विशुद्ध राजनीति थी‘ (26)। ऐसा डॉ0 अम्बेडकर ने 1945 के उपरोक्त ग्रन्थ में कहा है-तत्रैव-85।

दिनांक 3, जून 1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय में बाबासाहब ने हिन्दू महासभा की स्थापना कब और कैसे हुई इस तथ्य की जानकारी दी है। ’कांग्रेस के पुराने सभासदों की जैसी सामाजिक परिषद, वैसी ही नये सभासदों की हिन्दू महासभा‘ ऐसा वे प्रतिपादित करते हैं (10.43)। आरम्भ में हिन्दू समाज के पुनर्गठन का कार्य सफलता के साथ सम्पन्न होगा। ऐसा सभी को प्रतीत होता था, पर समाज सुधार का कोई भी उपक्रम इस संस्था के हाथ से सम्पन्न नहीं हुआ-उसकी कार्यक्षमता शब्दों तक ही सीमित रही-यह आरोप हमारा नहीं, अपितु स्वामी श्रद्धानन्दजी ने किया है। बाबासाहब के अनुसार-इसी कारण से श्रद्धानन्दजी ने महासभा से त्यागपत्र दिया था। (43)-तत्रैव-180।

पं शिवपूजन सिंह और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

महाराष्ट्र प्रान्तीय विदर्भ अंचल के वाशिम जनपद में स्थित कारंजा (लाड़) के ठाकुर रामसिंह जी आर्य के सौजन्य से आर्यसमाज कारंजा का प्राचीन ग्रन्थालय देखने का सौभाग्य 10 जून 2001 को प्राप्त हुआ। ग्रन्थालय में आर्यसमाज की अनेक दुर्लभ प्रतियाँ सँजोकर रखी हुई थीं। इन्हीं अंकों में जुलाई-अगस्त 1951 के सार्वदेशिक मासिक के अंक भी शामिल थे, जिसमें कानपुर के वैदिक गवेषक श्री शिवपूजनसिंह का डॉ0 अम्बेडकरजी के वेदादिविषयक विचारों की समीक्षा में लिखा हुआ ’भ्रान्ति निवारण‘ नामक लेख भी था। यह लेख 54 उद्धरणों से समृद्ध, बौद्धिक और विचारात्मक था, अतः उसे यात्रा में तत्काल न पढ़कर यथावकाश पढ़ने का विचार कर सुरक्षित रख दिया।

हमारी ’आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर‘ विषयक पुस्तिका इससे पूर्व प्रकाशित हो चुकी थी। अब 2008 में जब इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करने की चर्चा चली तो मुझे श्री शिवपूजन सिंह कुशवाह के उपरोक्त लेख का स्मरण हो आया। कागजों के अम्बार में ’खोई हुई वस्तु की खोज‘ में लगा तो अनथक प्रयास से चर्चित लेख हाथ लग पाया और दिनांक 26 अप्रैल 2008 को उसे प्रथम बार पढ़ने के उपरान्त मन गद्गद् हो गया।

 

अन्तर्मन को प्रसन्न करनेवाला इस लेख का वह स्थल था जहाँ लेखक ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि विद्वद्वर्य पं0 धर्मदेवजी विद्यावाचस्पति सिद्धान्तालंकार सम्पादक सार्वदेशिक से डॉ0 अम्बेडकर महोदय ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वे ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ के अग्रिम अंग्रेजी संस्करण से उस भाग को हटवा देंगे, जो उन्हें आक्षेपार्ह प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ के हिन्दी अनुवादक पं0 सोहनलालजी शास्त्री महोदय को भी डॉ0 अम्बेडकर महोदय ने कहा था कि ’हिन्दी संस्करण से भी वह आक्षेपार्ह अंश निकाल दिया जाए।‘

यहाँ अंग्रेजी-हिन्दी संस्करण से जिस भाग या अंश को हटा देने की बात चल रही है, उसे हमने ’आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर‘ के प्रथम संस्करण की पादटिप्पणियों में 12वें क्रमांक पर उद्धृत किया था। इस अंश की ओर हमारा विशेष ध्यान मनुस्मृति के भाष्यकार प्रा0 डॉ0 सुरेन्द्रकुमारजी (हरियाणा) तथा डॉ0 ब्रह्ममुनिजी वानप्रस्थ (महाराष्ट्र) ने भी दिलाया था। ‘शूद्रों की खोज’ ग्रन्थ की प्रस्तावना में प्रकाशित वह अंश इस प्रकार है-

”यह पुस्तक आर्यसमाज मत के विरुद्ध है। यह विरोध दो आवश्यक बातों में है। 1. आर्यसमाजियों का यह विश्वास है कि आर्यों में चार वर्ण आदि से कायम हैं। लेकिन प्राचीन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि पहले भारतीय आर्यों में सिर्फ तीन ही वर्ण थे। 2. आर्यसमाजियों का विश्वास है कि वेद अनादि और ईश्वरकृत हैं, परन्तु इस पुस्तक में सिद्ध किया गया है कि वेदों का पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए पीछे से जोड़ा है। ये दोनों बातें आर्यसमाजी सिद्धान्त के विरुद्ध हैं। मुझे आर्यसमाजियों का इसलिए विरोध करने में हिचक नहीं है, क्योंकि उन्होंने हिन्दू समाज में भ्रान्ति का प्रचार किया है। उनका यह प्रचार कि वेद अनादि, अनन्त और अभ्रान्त हैं, अतः वेदों के आधार पर जो सामाजिक संस्थाएँ, वर्णव्यवस्था आदि बनी हैं, वे भी अनादि, अनन्त और अभ्रान्त हैं, ऐसे विश्वास को फैलाना समाज का सबसे बड़ा अनहित है। जब तक यह सिद्धान्त कायम है, हिन्दू समाज कभी सुधार की ओर नहीं जा सकता।“

पं0 शिवपूजनसिंह के अनुसार डॉ0 अम्बेडकरजी के ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ से उपरोक्त अंश को निकालने के निर्देशों का प्रकाशकों ने उल्लंघन कर दिया जो अत्यंत निन्दनीय बात है।

 

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि अपनी बात से टस से मस न होनेवाले, अपने लेख से अल्पविराम को भी कम न करने वाले डॉ0 अम्बेडकर जैसे सुहृद व्यक्ति क्या अपनी बात को कभी पीछे ले सकते हैं ? हम उन्हें यही कहना चाहते हैं कि- डॉ0 अम्बेडकरजी प्रकाण्ड विद्वान् थे और अपने से प्रतिकूल सिद्धान्त से सहमत होने पर वे उसे स्वीकार कर लेते थे। जान-बूझकर खारे जल का पानी पीना उन्हें पसन्द नहीं था। स्वामी वेदानन्द तीर्थ लिखित ’राष्ट्र-रक्षा के वैदिक साधन‘ की प्रस्तावना में डॉ0 अम्बेडकरजी ने यह स्वीकार किया है कि-’मैं यह तो नहीं कह सकता कि यह पुस्तक भारत का धर्मग्रन्थ बन जाएगी, किन्तु यह मैं अवश्य कहता हूँ कि यह पुस्तक पुरातन आर्यों के धर्मग्रन्थों से संकलित उद्धरणों का केवल अद्भुत संग्रह ही नहीं है, प्रत्युत यह चमत्कारिक रीति से उस विचारधारा तथा आचार शक्ति को प्रकट करती है, जो पुरातन आर्यों को अनुप्राणित करती थीं। पुस्तक प्रधानतया यह प्रतिपादित करती है कि पुरातन आर्यों में उस निराशावाद (दुःखवाद) का लवलेश भी नहीं था, जो वर्तमान हिन्दुओं में प्रबलरूप से छाया हुआ है। इस समय हमारे ज्ञान में यह कोई अल्प (नगण्य) वृद्धि नहीं है कि मायावाद (संसार को माया मानना) नवीन कल्पना है। इस दृष्टि से मैं इस पुस्तक का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।‘

डॉ0 अम्बेडकरजी और पं0 धर्मदेवजी सिद्धान्तालंकार में आपस में जो सैद्धान्तिक चर्चा हुई उसे पाठक ’बौद्धमत और वैदिकधर्म का तुलनात्मक अनुशीलन‘ ग्रन्थ में विस्तार से पढ़ सकते हैं। यहाँ मैं केवल उस बात को प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो मुझे महाराष्ट्र के वयोवृद्ध उपदेशक पं0 उत्तममुनिजी वानप्रस्थी ने कही थी। वह यह कि-’एक बार पं0 धर्मदेवजी ने हमसे कहा था कि-’माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने हमारा कथन सम्पन्न होने के उपरान्त यह कहा कि-’एक माँ अपने बच्चे को जैसे समझाती है, उस वात्सल्यभाव से आपने मुझे वैदिकधर्म समझाने का प्रयास किया है, पर मैं क्या करूँ, इन हिन्दुओं की मानसिकता मुझे बदलती हुई प्रतीत नहीं होती। उनका स्वभाव कठमुल्लाओं की तरह प्रतिगामी हो गया है।‘ प्रा0 डॉ0 महेन्द्रदास ठाकुर के अनुसार डॉ0 अम्बेडकर स्वयं आर्यसमाज में दलितों के साथ प्रवेश करने का मन बना चुके थे, लेकिन हिन्दु महासभा तथा आर्यसमाज की निकटता को देख वे बुद्ध दीक्षा की ओर मुड़े। (लेख-वह तूफान साथ लिए चलता था ”वैदिक गर्जना“-पं0 नरेन्द्र स्मृति विशेषांक मार्च-अप्रैल 2008, पृष्ठ 53)। स्मरण रहे सैद्धान्तिक स्तर पर डॉ0 अम्बेडकर वर्ण व्यवस्था को नहीं मानते थे, फिर भी उन्होंने यह स्वीकार किया था कि-’महात्मागाँधी की जन्मना वर्णव्यवस्था की तुलना में स्वामी दयानन्द सरस्वती की कर्मणा वर्णव्यवस्था बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी है।‘

माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी पं0 धर्मदेवजी सिद्धान्तालंकार के प्रति अत्यन्त ही सम्मानभाव रखते थे। इस तथ्य का पता इस बात से चलता है कि उन्होंने अपने विधि मन्त्री के काल में भारत सरकार के विधि मन्त्रालय की ओर से ’हिन्दू कोड बिल तथा उसका उद्देश्य‘ नामक 204 पृष्ठों का एक ग्रन्थ प्रकाशित किया था, जिसमें पं0 धर्मदेवजी द्वारा लिखित दस लेखों की एक लेखमाला पृष्ठ 56 से 113 तक उद्धृत करते हुए डॉ0 अम्बेडकरजी ने लिखा था-’वेदों के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं0 धर्मदेव विद्यावाचस्पति उन थोड़े से व्यक्तियों में हैं, जिनके जीवन का अधिकांश समय वेदों एवं आर्यों के अन्यान्य प्राचीन धर्मग्रन्थों के अनुशीलन और अनुसन्धान में बीता है। पिछले दिनों उनकी एक लेखमाला दिल्ली के सुप्रसिद्ध हिन्दी दैनिक ’वीर अर्जुन‘ में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने प्राचीन स्मृतियों, वेदों तथा शास्त्रों के प्रमाण एवं उद्धरण देकर हिन्दू बिल के विविध विधानों का सारगर्भित विवेचन किया है। विचारशील पाठकों के लिए ’वीर अर्जुन‘ की स्वीकृति से यह लेखमाला यहाँ पुनः प्रकाशित की जा रही है। (पृष्ठ 56)

इस प्रदीर्घ प्रस्तावना के साथ प्रस्तुत है, श्री शिवपूजनसिंह लिखित ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख का सार-संक्षेप, जिसमें डॉ0 अम्बेडकरजी के वेदादि-विषयक विचारों की समालोचना की गई है। पूर्वपक्ष के रूप में डॉ0 अम्बेडकरजी का वेदादि-विषयक आक्षेप पक्ष पहले और वैदिक विद्वानों के चिन्तन पर आधारित श्री शिवपूजनसिंह का समाधान पक्ष बाद में साररूप में विवेकशील पाठकों के हितार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है।

पं0 शिवपूजनसिंह कुशवाहा गवेषणापूर्ण तथा उद्धरण प्रधान शैली के सुप्रसिद्ध लेखक के रूप में ˗ प्रख्यात थे। आपने अम्बेडकर लिखित ’अछूत कौन और कैसे‘ तथा ’शूद्रों की खोज‘ नामक ग्रन्थों में माननीय डॉ0 महोदय ने वैदिक विचारधारा पर जो आक्षेप किए हैं, उसका ’भ्रान्ति निवारण‘ शीर्षक से ’सार्वदेशिक‘ मासिक (जुलाई-अगस्त 1951) के अंकों में समीक्षा की है। ’अछूत कौन और कैसे‘ ग्रन्थ के आठ मुद्दों और ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ के तीन मुद्दों को आपने समालोचना का विषय बनाया है। स्वाध्यायशील श्री शिवपूजनसिंह ने अपनी एक पुस्तक भी ’अथर्ववेद की प्राचीनता‘ भी पं0 धर्मदेवजी विद्यावाचस्पति के द्वारा डॉ0 अम्बेडकरजी की सेवा में भेजी थी। इस ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख के अन्त में लेखक ने लिखा है-’आशा है आप मेरे प्रमाणों पर पूर्णरूप से विचारकर तदनुकूल अपने ग्रन्थ में संशोधन करेंगे।‘ इस निवेदन के साथ उन्होंने अपने समीक्षात्मक लेख को पूर्णविराम दिया है।

 

’अछूत कौन और कैसे‘ ग्रन्थ में माननीय डॉ0 अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत पूर्वपक्ष या आक्षेपों का श्री शिवपूजनसिंह ने ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख में उत्तर पक्ष या समाधान पक्ष के रूप में जो निराकरण किया है, वह विवेकशील पाठकों के विचारार्थ संवादरूप में प्रस्तुत है-

डॉ0 अम्बेडकर-आर्य लोग निर्विवादरूप से दो हिस्सों और दो संस्कृतियों में विभक्त थे, जिनमें से एक ऋग्वेदीय आर्य तथा दूसरे यजुर्वेदीय आर्य थे, जिनके बीच बहुत बड़ी सांस्कृतिक खाई थी। ऋग्वेदीय आर्य यज्ञों में विश्वास करते थे, अथर्ववेदीय जादू-टोने में।

पं0 शिवपूजनसिंह-दो प्रकार के आर्यों की कल्पना केवल आपके और आप-जैसे कुछ मस्तिष्कों की उपज है। यह केवल कपोल-कल्पना या कल्पना विलास है। इसके पीछे कोई ऐसा ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। कोई ऐतिहासिक विद्वान् भी इसका समर्थन नहीं करता। अथर्ववेद में किसी प्रकार का जादू-टोना नहीं है।

डॉ0 अम्बेडकर-ऋग्वेद में आर्यदेवता इन्द्र का सामना उसके शत्रु अहि-वृत्र (साँप-देवता) से होता है, जो कालान्तर में नागदेवता के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

पं0 शिवपूजनसिंह-वैदिक और लौकिक संस्कृत में आकाश-पाताल का अन्तर है। यहाँ इन्द्र का अर्थ सूर्य और वृत्र का अर्थ मेघ है। यह संघर्ष आर्यदेवता और नागदेवता का न होकर सूर्य और मेघ के बीच में होनेवाला संघर्ष है। वैदिक शब्दों के विषय में नैरुक्तों का ही मत मान्य होता है। वैदिक निरुक्त प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने के कारण आपको भ्रम हुआ है।

डॉ0 अम्बेडकर-महामहोपाध्याय डॉ0 काणे का मत है कि-गाय की पवित्रता के कारण ही वाजसनेयी संहिता में गोमांस भक्षण की व्यवस्था दी गई है।

पं0 शिवपूजनसिंह-श्री काणेजी ने वाजसनेयी संहिता का कोई प्रमाण और सन्दर्भ नहीं दिया है और न ही आपने यजुर्वेद पढ़ने का कष्ट उठाया है। आप जब यजुर्वेद का स्वाध्याय करेंगे तब आपको स्पष्ट गोवध निषेध के प्रमाण मिलेंगे।

डॉ0 अम्बेडकर-ऋग्वेद से ही यह स्पष्ट है कि तत्कालीन आर्य गोहत्या करते थे और गोमांस खाते थे।

पं0 शिवपूजनसिंह-कुछ प्राच्य और पाश्चात्य विद्वान् आर्यों पर गोमांस भक्षण का दोषारोपण करते हैं, किन्तु बहुत से प्राच्य विद्वानों ने इस मत का खण्डन किया है। वेद में गोमांस भक्षण का विरोध करने वाले 22 विद्वानों के स-सन्दर्भ मेरे पास प्रमाण हैं। ऋग्वेद से गोहत्या और गोमांस भक्षण का आप जो विधान कह रहे हैं, वह वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के अन्तर से अनभिज्ञ होने के कारण कह रहे हैं। जैसे वेद में ’उक्ष‘ बलवर्धक औषधि का नाम है, जबकि लौकिक संस्कृत में भले ही उसका अर्थ ’बैल‘ क्यों न हो।

डॉ0 अम्बेडकर-बिना मांस के मधुपर्क नहीं हो सकता। मधुपर्क में मांस और विशेषरूप से गोमांस का एक आवश्यक अंश होता है।

पं0 शिवपूजनसिंह-आपका यह विधान वेदों पर नहीं, अपितु गृह्मसूत्रों पर आधारित है। गृह्मसूत्रों के वचन वेदविरुद्ध होने से माननीय नहीं हैं। वेद को स्वतः प्रमाण मानने वाले महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार ‘दही में घी या शहद मिलाना मधुपर्क कहलाता है। उसका परिमाण 12 तोले दही में चार तोले शहद या चार तोले घी का मिलाना है।‘

डॉ0 अम्बेडकर-अतिथि के लिए गोहत्या की बात इतनी सामान्य हो गई थी कि अतिथि का ही नाम ’गोघ्न‘, अर्थात् गौ की हत्या करने वाला पड़ गया था।

पं0 शिवपूजनसिंह-’गोघ्न‘ का अर्थ गौ की हत्या करनेवाला नहीं है। यह शब्द ’गौ‘ और ’हन्‘ के योग से बना है। गौ के अनेक अर्थ हैं-यथा-वाणी, जल, सुखविशेष, नेत्र आदि। धातुपाठ में महर्षि पाणिनि ’हन्‘ का अर्थ ’गति‘ और ’हिंसा‘ बतलाते हैं। गति के अर्थ हैं-ज्ञान, गमन और प्राप्ति। प्रायः सभी सभ्य देशों में जब कभी किसी के घर अतिथि आता है तो उसके स्वागत करने के लिए गृहपति घर से बाहर आते हुए कुछ गति करता है, चलता है, उससे मधुर वाणी में बोलता है, फिर जल से उसका सत्कार करता है और यथासम्भव उसके सुख के लिए अन्यान्य सामग्रियों को प्रस्तुत करता है और यह जानने के लिए कि प्रिय अतिथि इन सत्कारों से प्रसन्न होता है वा नहीं, गृहपति की आँखें भी उसी ओर टकटकी लगाए रहती हैं। ’गोघ्न‘ का अर्थ हुआ- ’गौः प्राप्यते दीयते यस्मै स गोघ्नः‘ त्र जिसके लिए गौदान की जाती है, वह अतिथि ’गोघ्न‘ कहलाता है।

डॉ0 अम्बेडकर-हिन्दू चाहे ब्राह्मण हों या अब्राह्मण, न केवल मांसाहारी थे, किन्तु गोमांसाहारी थे।

पं0 शिवपूजनसिंह-आपका कथन भ्रमपूर्ण है, वेद में गोमांस भक्षण की बात तो जाने दीजिए मांस भक्षण का भी विधान नहीं है।

डॉ0 अम्बेडकर-मनु ने भी गोहत्या के विरोध में कोई कानून नहीं बनाया, उसने तो विशेष अवसरों पर ’गो-मांसाहार‘ अनिवार्य ठहराया है।

पं0 शिवपूजनसिंह-मनुस्मृति में कहीं भी मांस-भक्षण का वर्णन नहीं है, जो है वह प्रक्षिप्त है। आपने भी इस बात का कोई प्रमाण नहीं दिया। मनुजी ने कहाँ पर गो-मांस अनिवार्य ठहराया है। मनु (5/51) के अनुसार तो हत्या की अनुमति देनेवाला, अंगों को काटनेवाला, मारने वाला, क्रय और विक्रय करनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला और खानेवाला इस सबको घातक कहा गया है।

’अछूत कौन और कैसे‘ के अतिरिक्त माननीय डॉ0 अम्बेडकर जी का दूसरा ग्रन्थ है-’शूद्रों की खोज‘। इसमें भी उन्होंने वैदिक विचारधारा पर कुछ आक्षेप किए हैं। यहाँ भी पूर्ववत् संवाद शैली में डॉ0 अम्बेडकरजी का आक्षेप पक्ष और शिवपूजनसिंह का समाधान पक्ष प्रस्तुत है-

डॉ0 अम्बेडकर-पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रक्षिप्त किया है। कोल बुक का कथन है कि पुरुष सूक्त छन्द तथा शैली में शेष ऋग्वेद से सर्वथा भिन्न हैं। अन्य भी अनेक विद्वानों का मत है कि पुरुष सूक्त बाद का बना हुआ है।

पं0 शिवपूजनसिंह-आपने जो पुरुष सूक्त पर आक्षेप किया है, वह आपकी वेद अनभिज्ञता को प्रकट करता है। आधिभौतिक दृष्टि से चारों वर्णों के पुरुषों का समुदाय-’संगठित समुदाय‘-’एक-पुरुष‘ रूप है। इस समुदाय पुरुष या राष्ट्र-पुरुष के यथार्थ परिचय के लिए पुरुष सूक्त के मुख्य मन्त्र ’ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्….‘ (यजुर्वेद 31/11) पर विचार करना चाहिए।

उक्त मन्त्र में कहा है ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जंघाएँ और शूद्र पैर। केवल मुख, केवल भुजाएँ, केवल जंघाएँ या केवल पैर पुरुष नहीं, अपितु मुख, भुजाएँ, जंघाएँ और पैर, ’इनका समुदाय‘ पुरुष अवश्य है। वह समुदाय भी यदि असंगठित और कर्मरहित अवस्था में है तो उसे हम पुरुष नहीं कहेंगे। उस समुदाय को पुरुष तभी कहेंगे जबकि वह समुदाय एक विशेष प्रकार के क्रम में हो और एक विशेष प्रकार से संगठित हो।

राष्ट्र में मुख के स्थानापन्न ब्राह्मण हैं, भुजाओं के स्थानापन्न क्षत्रिय, जंघाओं के स्थानापन्न वैश्य और पैरों के स्थानापन्न शूद्र हैं। राष्ट्र में ये चारों वर्ण, जब शरीर के मुख आदि अवयवों की तरह सुव्यवस्थित हो जाते हैं, तभी इनकी पुरुष संज्ञा होती है। अव्यवस्थित या छिन्न-भिन्न अवस्था में स्थित मनुष्य समुदाय को वैदिक परिभाषा में पुरुष शब्द से नहीं पुकार सकते। आधिभौतिक दृष्टि से ’यह सुव्यवस्थित तथा एकता के सूत्र में पिरोया हुआ ज्ञान, क्षात्र, व्यापार-व्यवसाय, परिश्रम-मजदूरी इनका निदर्शक जनसमुदाय ही ’एक पुरुष‘ रूप है।

चर्चित मन्त्र का महर्षि दयानन्द इस प्रकार अर्थ करते हैं-”इस पुरुष की आज्ञा के अनुसार विद्या आदि उत्तम गुण तथा सत्यभाषण और सत्योपदेश आदि श्रेष्ठ कर्मों से ब्राह्मण वर्ण उत्पन्न होता है। इन मुख्य गुण और कर्मों के सहित होने से वह मनुष्यों में उत्तम कहलाता है और ईश्वर ने बल पराक्रम आदि पूर्वोक्त गुणों से युक्त क्षत्रिय वर्ण को उत्पन्न किया है। इस पुरुष के उपदेश से खेती, व्यापार और सब देशों की भाषाओं को जानना तथा पशुपालन आदि मध्यम गुणों से वैश्य वर्ण सिद्ध होता है, जैसे पग सबसे नीचे का अंग है, वैसे मूर्खता आदि निम्न गुणों से शूद्र वर्ण सिद्ध होता है।“

आपका लिखना कि पुरुष सूक्त बहुत समय बाद ऋग्वेद में जोड़ दिया गया, सर्वथा भ्रमपूर्ण है। चारों वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं, पुरुष सूक्त बाद का नहीं है। मैंने अपनी पुस्तक ”ऋग्वेद के दशम मण्डल पर पाश्चात्य विद्वानों का कुठाराघात“ में सम्पूर्ण पाश्चात्य और प्राच्य विद्वानों के इस मत का खण्डन किया है कि ऋग्वेद का दशम मण्डल, जिसमें पुरुष सूक्त भी विद्यमान है, बाद का बना हुआ है।

डॉ0 अम्बेडकर-शूद्र क्षत्रियों के वंशज होने से क्षत्रिय है। ऋग्वेद में सुदास, शिन्यु, तुरवाशा, तृप्सु, भरत आदि आदि शूद्रों के नाम आये हैं।

पं0 शिवपूजनसिंह-वेदों के सभी शब्द यौगिक हैं, रूढ़ि नहीं। आपने ऋग्वेद से जिन नामों को प्रदर्शित किया है। वे ऐतिहासिक नाम नहीं हैं। वेद में इतिहास नहीं है, क्योंकि वेद सृष्टि के आदि में दिया ज्ञान है।

डॉ0 अम्बेडकर-छत्रपति शिवाजी शूद्र तथा राजपूत हूणों की सन्तान हैं। (शूद्रों की खोज, दसवाँ अध्याय, पृष्ठ 77 से 96)

पं0 शिवपूजनसिंह-शिवाजी शूद्र नहीं, वरन् क्षत्रिय थे, इसके लिए अनेकों प्रमाण इतिहासों में भरे पड़े हैं। राजस्थान के प्रख्यात इतिहासज्ञ, महामहोपाध्याय डॉ0 गौरीशंकर हीराचन्द ओझा डी0 लिट् लिखते हैं-’मराठा जाति दक्षिणी हिन्दुस्तान की रहनेवाली है। उसके प्रसिद्ध राजा छत्रपति शिवाजी के वंश का मूल-पुरुष मेवाड़ के सीसोदिया राजवंश से ही था।‘ कविराज श्यामलदासजी लिखते हैं-‘शिवाजी महाराणा अजयसिंह के वंश में थे।‘ यही सिद्धान्त डॉ0 बालकृष्ण जी एम0ए0डी0 लिट्, एफ0आर0एस0एस0 का भी है।

इसी प्रकार राजपूत हूणों की सन्तान नहीं, किन्तु शुद्ध क्षत्रिय हैं। श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य एम0 ए0, श्री ई0बी0 कावेल, श्री शेरिंग, श्री व्हीलर, श्री हंटर, श्री क्रूक, पं0 नगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य एम0एम0डी0एल0 आदि विद्वान् राजपूतों को शूद्र क्षत्रिय मानते थे। प्रिवी कौंसिल ने भी निर्णय किया है, अर्थात् जो क्षत्रिय भारत में रहते हैं और राजपूत एक ही श्रेणी के हैं।

            6 दिसम्बर 1956 को माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी का देहावसान हुआ। शिवपूजनसिंह का यह चर्चित ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख ’सार्वदेशिक‘ मासिक में उनके देहावसान से लगभग पाँच साल तीन महीने पूर्व प्रकाशित हुआ था। ’सार्वदेशिक‘ से डॉ0 अम्बेडकरजी सुपरिचित थे तथा चर्चित अंक भी उनकी सेवा में यथासमय भिजवा दिया गया था। भारत रत्न डॉ0 अम्बेडकरजी के ’अछूत कौन और कैसे‘ और ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती लिखित ’ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका‘ एवं रिसर्च स्कासॉलर शिवपूजनसिंह कुशवाह का ’भ्रान्ति निवारण‘ नामक 16 पृष्ठीय आलेख मूलरूप में ही पढ़कर आशा है विचारशील पाठक सत्यासत्य का निर्णय लेंगे। मूलतः ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख संवाद शैली में नहीं है, अपितु शंका-समाधान शैली में है। हमने स्वाध्यायशील पाठकों की सुविधा और सरलता हेतु संवाद शैली में रूपान्तरित किया है।

पं लक्ष्मीदत्त दीक्षित और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में आर्यजगत् के एक शिरोमणि विद्वान् पं0 लक्ष्मीदत्तजी दीक्षित (स्वामी विद्यानन्दजी सरस्वती-1915-2003) डॉ0 अम्बेडकरजी के सम्पर्क में आये थे। उनकी माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से चार बार मुलाकात हुई थी। श्री लक्ष्मीदत्तजी उस समय दिल्ली के दरियागंज क्षेत्र में रहते थे, तो डॉ0 अम्बेडकरजी की कोठी तिलक मार्ग पर थी। जब पं0 दीक्षितजी की डॉ0 अम्बेडकरजी से सर्वप्रथम भेंट हुई, तब माननीय डॉ0 महोदय ने स्पष्ट किया, ’मेरा इस बात पर कोई आग्रह नहीं है कि हिन्दू समाज की एक आचार संहिता हो।‘

द्वितीय भेंट में माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने पं0 दीक्षितजी से कहा-’सनातनधर्मियों के विरोध की मुझे चिन्ता नहीं, क्योंकि वे तो सदा से हर अच्छी बात का विरोध करते आये हैं और छह महीने से अधिक उनका विरोध चलता नहीं। आर्यसमाज से बात करने के लिए मैं हर समय तैयार हूँ, क्योंकि सब बातों में उससे सहमत न होते हुए भी इतना तो मानता ही हूँ कि उसकी बात बुद्धिपूर्वक होती है।

तीसरी बात जब पं0 लक्ष्मीदत्तजी डॉ0 अम्बेडकरजी से मिलने गए तो वे उन्हें एक बड़े कमरे में ले गये। जहाँ दूर-दूर तक मेजों पर बड़ी-बड़ी पुस्तकें फैली हुई थीं और अनेक विद्वान, जिनमें एक दो सन्यासी भी थे, उनका अध्ययन कर रहे थे। माननीय डॉ0 अम्बेडकर ने बतलाया कि जो लोग हिन्दू कोड बिल को हिन्दू धर्म का विरोधी कहते हैं, उनके सामने मैं इसकी एक-एक धारा के लिए हिन्दू शास्त्रों से दस-दस प्रमाण प्रस्तुत करूँगा, श्री दीक्षितजी के अनुसार ’डॉ0 अम्बेडकर के लिए ऐसा करना कुछ कठिन नहीं था।

पं0 लक्ष्मीदत्तजी ने हिन्दू कोड बिल के सम्बन्ध में देशभर के उच्च कोटि के 500 हिन्दू विद्वानों और धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक नेताओं को एक परिपत्र भेजा था, जो कि जवाबी पोस्टकार्ड के रूप में था, जिसमें उन्होंने लिखा था-हिन्दू कोड बिल के सम्बन्ध में तीन प्रकार के मत हैं-1. उसके एक-एक अक्षर का विरोध किया जाए। 2. उसके एक-एक अक्षर का समर्थन किया जाए। 3. उस पर विचार करके उसमें जो अच्छी बातें हैं, उनका समर्थन और जो अनुचित हो, उनका विरोध किया जाए। साथ में संलग्न जवाबी कार्ड में तीनों मत उद्धृत कर विद्वानों से कहा गया कि जिससे सहमत हैं, उसे छोड़कर शेष दोनों को काट दें और अपने हस्ताक्षर करके लौटा दें।

पाँच सौ में से लगभग तीन सौ व्यक्तियों ने उत्तर भेजे। उनमें से केवल एक केन्द्रीय मन्त्री श्री नरहर विष्णु गाडगिल ने बिल के एक-एक अक्षर का समर्थन किये जाने के पक्ष में अपना मत दिया, तो तत्कालीन हिन्दू महासभा के नेता श्री नारायण भास्कर खरे ने इसके एक-एक अक्षर का विरोध किये जाने के पक्ष में अपनी सम्मति दी। शेष सब ने विचारोपरान्त उचित बातों का समर्थन करने तथा अनुचित का विरोध करने के पक्ष में अपना मत दिया। पं0 लक्ष्मीदत्तजी ने उक्त समस्त विवरण डॉ0 अम्बेडकरजी को भेज दिया।

 

सम्भवतः दिसम्बर 1949 में हिन्दू कोड बिल लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। उस दिन लोकसभा की दर्शक दीर्घा खचाखच भरी हुई थी। श्री दीक्षितजी को उस दिन लोकसभा के उपाध्यक्ष श्री अनन्त शयनम् आयंगर के प्रियजनों के लिए सुरक्षित कक्ष में स्थान मिल गया था। डॉ0 अम्बेडकरजी ने पं0 लक्ष्मीदत्त द्वारा संकलित उक्त विवरण ’हिन्दुस्तान टाइम्स‘ को यथास्थान प्रकाशनार्थ दे दिया। जिस दिन हिन्दू कोड बिल लोकसभा में प्रस्तुत हुआ। ठीक उसी दिन वह विवरण ’हिन्दुस्तान टाइम्स‘ में प्रकाशित हुआ। समाचार पत्र का तीसरा पृष्ठ पं0 लक्ष्मीदत्तजी के वक्तव्य से भरा पड़ा था। इस प्रकार विद्वानों के मत संकलन और उसके प्रकाशन-प्रसारण के सिलसिले में श्री लक्ष्मीदत्तजी की डॉ0 अम्बेडकरजी से चैथी मुलाकात हुई थी।

पं गंगाप्रसाद उपाध्याय और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

श्री पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय (1881-1968) ने डॉ0 अम्बेडकरजी को विद्वान् तर्कशील, उत्तम लेखक तथा वक्ता स्वीकार करते हुए लिखा है- ”श्री अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी।“ आर्यसमाज में दलितों का प्रवेश पचास वर्ष से चला आया था। महादेव गोविन्द रानाडे के सोशल कांफ्रेंस में अधिकतर आर्यसमाजियों का सहयोग रहता था। आर्य नेता तथा सहस्त्रों आर्यसमाजी दलितोद्धार में लगे हुए थे। भेद केवल उद्योग और साफल्य की मात्रा का था। डॉ0 अम्बेडकरजी स्वभाव से हथेली पर सरसों जमानेवाले व्यक्तियों में से हैं। उनको मनचाही चीज तुरन्त मिले, अन्यथा वह दल परिवर्तन कर देते हैं।“इस धारणा के बाद भी आर्य विद्वान् पं0 गंगाप्रसादजी माननीय डॉ0 अम्बेडकर जी द्वारा प्रस्तुत हिन्दू कोड बिल के पक्षधर थे। बात उस समय की है जब गंगा प्रसाद उपाध्याय आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश के प्रधान (1941-1947) थे। तब काशी के कुछ पण्डितों ने आर्यसमाज इलाहाबाद चैक पधारकर उनसे कहा, ‘विदेशी सरकार हिन्दुओं के धर्म को भ्रष्ट करने के लिए हिन्दू कोड बिल पास करना चाहती है। आर्यसमाज हिन्दू संस्कृति का सदा से रक्षक रहा है। हम चाहते हैं कि इसके विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन चलाया जाए और आर्यसमाज इस सांस्कृतिक युद्ध में हमारा पूरा सहयोग करे।‘

काशी के पण्डितों के उपरोक्त अनुरोध को सुनकर उपाध्यायजी ने कहा-’जब तक मैं ’बिल‘ का पूरा अध्ययन न कर लूँ और अपने मित्रों से बिल के गुण-दोषों पर परामर्श न कर लूँ, मेरे लिए यह कहना कठिन होगा कि आर्यसमाज आपको कहाँ तक सहयोग दे सकेगा ? — शायद आर्यसमाज इस दृष्टिकोण से आपसे सहमत न हो, क्योंकि आर्यसमाज एक सुधारक संस्था है और हिन्दू पण्डितों की सदैव से एक मनोवृत्ति रही है, वह यह कि सुधार के काम में रोड़ा अटकाना। हिन्दू समाज मरणासन्न हो रहा है। आप स्वयं चिकित्सा का उपाय नहीं सोचते और दूसरों को रोगी के समीप तक फटकरने नहीं देते। आर्यसमाज को अपने जन्म से अब तक यही कटु अनुभव हुआ है। बाल-विवाह-निषेध (1929) के कानून में आपने विरोध किया। अनुमति कानून जैसे अत्यावश्यक कानून के पास होते समय भी यही आवाज आई कि विदेशियों और विधर्मियों को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं, आर्यसमाज अपने सुधार में हरेक उचित साधन का प्रयोग करता रहा और एक अंश में आप भी विदेशी सरकार से पीछा नहीं छुड़ा सके, आप अपनी आत्म-रक्षा के लिए विदेशी सरकार की कचहरियों, पुलिस, सेना आदि का प्रयोग करते रहे हैं।

हिन्दू कोड बिल का अध्ययन करने के उपरान्त पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि-हिन्दू कोड बिल का विरोध, बिना सोचे समझे सनातन धर्म के ठेकेदारों की ओर से खड़ा किया गया है।

सार्वदेशिक सभा ने अपने प्रधान पं0 इन्द्र विद्यावाचस्पति (1889-1960) और मन्त्री पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय के हिन्दू कोड बिल के अनुकूल होने के बावजूद केवल बहुमत के आधार पर सामूहिक रूप से हिन्दू कोड बिल का विरोध करने का निर्णय ले लिया था।

सार्वदेशिक सभा के उपरोक्त निर्णय पर अपना तीव्र असन्तोष व्यक्त करते हुए भी उपाध्यायजी ने लिखा था। ’आर्यसमाज ने यह विरोध करके अपना नाम बदनाम कर लिया। अब —(इस सन्दर्भ में)—आर्यसमाज का नाम सुधारक—संस्थाओं की सूची से काट दिया जाएगा—अधिकांश आर्यसमाजियों ने भी सनातनियों का साथ देकर उनके ही सुर में सुर मिलाया, जो मेरे विचार से सर्वथा अनुचित, निरर्थक तथा आर्यसमाज की उन्नति के लिए घातक था।‘

श्री उपाध्यायजी की दृष्टि में हिन्दू कोड बिल ’पौराणिक और वैदिक धर्म‘ के बीच एक ऐसी चीज थी, जो आर्यसमाज के अधिक निकट और पौराणिकता से अधिक दूर है, अर्थात् इसका झुकाव आर्यसमाज की ओर है। आर्यसमाज को इसकी सहायता करनी चाहिए थी, उसने उसका विरोध करके पौराणिक कुप्रथाओं को जीवित रखने में सहायता दी।

   श्री उपाध्याय जी का यह मन्तव्य था कि – ’चाहे फल कुछ भी हो, आर्यसमाज को किसी अवस्था में भी सुधार के विरोधियों का साथ देकर सुधार-विरोधिनी मनोवृत्ति को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए था। मैं हारूँ या जीतूँ, मुझे कहना तो वही चाहिए, जो सत्य है।‘

पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय सार्वदेशिक सभा के मन्त्री (1946-1951) होते हुए भी आर्यसमाजियों को हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में अपने अनुकूल करने में असमर्थ रहे। पुनरपि उन्होंने आर्यसमाज की इस सनातनी प्रवृत्ति की परवाह न करते हुए, माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के ‘हिन्दू कोड बिल‘ के अनुकूल ही कई स्थानों पर व्याख्यान दिये। श्री उपाध्यायजी के अनुसार यह भ्रामक और राजनीति प्रेरित प्रचार था कि-हिन्दू कोड बिल-1. भाई-बहिन के विवाह (सगोत्र विवाह) को विहित ठहराता है। 2. तलाक चलाना चाहता है और 3. पुत्रियों को जायदाद में हक दिलाकर हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को नष्ट करना चाहता है।

हमें इस बात की जानकारी नहीं है, माननीय डॉ0 अम्बेडकर और पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय की कभी प्रत्यक्ष भेंट हुई या नहीं, श्री उपाध्यायजी द्वारा लिखे 1. अछूतों का प्रश्न, 2. ’हिन्दूजाति का भयंकर भ्रम‘, 3. ’दलित जातियाँ और नया प्रश्न‘, 4. ’हिन्दुओं का हिन्दुओं के साथ अन्याय‘, 5. डॉ0 अम्बेडकर की धमकी आदि सम-सामयिक प्रचारार्थ लिखी गई लघु पुस्तिकाओं से सम्भवतः इन सब बातों पर और अधिक प्रकाश पड़े। हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में श्री उपाध्यायजी ने बड़ी तीव्रता से यह अनुभव किया था कि-’सनातनी मनोवृत्ति आर्यसमाज में प्रविष्ट हो चुकी है।‘ इस मनोवृत्ति को सन् 1928 में ही डॉ0 अम्बेडकरजी ने ताड़ लिया था और अपने एक लेख में लिखा था कि ’आज आर्यसमाज को सनातन धर्म ने निगल लिया है।‘

स्वामी वेदानन्द तीर्थ और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

’स्वाध्याय-सन्दोह‘ के लेखक स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ (1892-1956) ने भी अपनी पुस्तक ’राष्ट्र रक्षा के वैदिक साधन‘ (1950) का प्राक्कथन डॉ0 बी0 आर0 अम्बेडकर से इसी उद्देश्य से लिखवाया था कि इस पुस्तक को पढ़कर डॉ0 अम्बेडकरजी बौद्ध धर्म से विमुख होकर वैदिक धर्म की ओर उन्मुख हो जाएँगे। उक्त पुस्तक के डॉ0 अम्बेडकरजी लिखित प्राक्कथन को पढ़कर लगता है कि उन्हें उक्त चर्चित पुस्तक ने प्रभावित तो किया, पर वे इससे पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हुए। उनके द्वारा बहुत ही सतर्कता के साथ लिखा हुआ प्राक्कथन इस प्रकार है-

”स्वामी वेदानन्द तीर्थ की इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखने के लिए मुझे प्रेरणा की गई। कार्यभार के कारण मैं लेखक की प्रार्थना स्वीकार करने में असमर्थता प्रकट करता रहा, किन्तु मेरे द्वारा कतिपय शब्द लिखने के लिए लेखक का अनुरोध निरन्तर रहा, अतः मुझे लेखक का अनुरोध स्वीकार करना ही पड़ा। लेखक की स्थापना यह है कि स्वतन्त्र भारत वेद प्रोक्त शिक्षा को अपने धर्म के रूप में अंगीकार करे। यह शिक्षा सम्पूर्ण वेदों में विभिन्न स्थलों पर निर्दिष्ट है और इसका लेखक ने इस पुस्तक में संकलन कर दिया है। मैं यह तो नहीं कह सकता कि यह पुस्तक भारत का धर्मग्रन्थ बन जाएगी, किन्तु यह मैं अवश्य कहता हूँ कि यह पुस्तक पुरातन आर्यों के धर्मग्रन्थों से संकलित उद्धरणों का केवल अद्भुत संग्रह ही नहीं है, प्रत्युत यह चमत्कारिक रीति से उस विचारधारा तथा आचार की शक्ति को प्रकट करती है, जो पुरातन आर्यों को अनुप्राणित करती थीं। पुस्तक प्रधानतया यह प्रतिपादित करती है कि पुरातन आर्यों में उस निराशावाद (दुःखवाद) का लवलेश भी नहीं था, जो वर्तमान हिन्दुओं में प्रबल रूप से छाया हुआ है।“ प्राक्कथन के अन्तिम परिच्छेद में वे पुनः लिखते हैं। ’पुस्तक की उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जाती यदि लेखक महोदय यह दर्शाने का प्रयत्न करते कि प्राचीन भारत के सत्ववाद तथा आशावाद को उत्तरकाल के निराशावाद ने कैसे पराभूत कर दिया ? मुझे आशा है कि लेख कइस समस्या की किसी अन्य समय पर विवेचना करेंगे। तथापि इस समय हमारे ज्ञान में यह कोई अल्प (नगण्य) वृद्धि नहीं है कि मायावाद (संसार को माया मानना) नवीन कल्पना है। इस दृष्टि से मैं इस पुस्तक का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।‘