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स्वामी श्रद्धानन्द संन्यास-दीक्षा शताब्दी:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

यह वर्ष महाप्रतापी संन्यासी, शूरता की शान स्वामी श्रद्धानन्द जी का संन्यास दीक्षा शताब्दी वर्ष है। वर्ष भर हम परोपकारी में स्वामी जी महाराज के जीवन व देन पर कुछ न कुछ लिखते रहेंगे। वर्ष भर परोपकारिणी सभा कई कार्यक्रम आयोजित करेगी और करवायेगी। इस लेखक द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज पर अब तक का सबसे बड़ा ग्रन्थ ‘शूरता की शान-स्वामी श्रद्धानन्द’ चार-पाँच मास तक छप जायेगा। इसमें पर्याप्त ऐसी सामग्री दी जा रही है जो अब तक किसी ग्रन्थ में नहीं दी गई। दस्तावेजों को स्कैन करके भी ग्रन्थ में दिया जायेगा।

आज-भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ- स्वामी श्रद्धानन्द जी की शूरता की एक अनूठी घटना यहाँ संक्षेप में दी जाती है। सन् १९०५ के मार्च मास में पंजाब के एक देशभक्त ला. दीनानाथ जी ने अपने पत्र में एक गोरे द्वारा एक भारतीय को मारे जाने की दु:खद घटना का समाचार प्रकाशित कर दिया। तब ऐसा करना बड़े साहस का कार्य था। ऐसा ही एक समाचार प्रकाशित करने के कारण श्री लाला लाजपतराय जी पर सरकार ने अभियोग चला दिया था। ला. दीनानाथ पर भी विपत्तियों के पर्वत टूट सकते थे।

श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी ने उनकी पुष्टि में ‘गोराशाही की करतूत’ शीर्षक से ‘सद्धर्मप्रचारक’ में एक लम्बा लेख देने का जोखिम उठाया। यह दुर्लभ अंक हमारे पास है। उस समय महात्मा मुंशीराम के रूप में पूज्यपाद स्वामी जी शिमला से अम्बाला छावनी पहुँचे। उन्हें वहाँ से मुम्बई मेल से आगे की यात्रा करनी थी। ट्रेन के आने में बहुत देर थी। प्लेटफार्म पर चार गोरे सैनिकों ने शराब के नशे में उत्पात मचा रखा था। जो भी भारतीय यात्री उनको दिखाई देता उस पर वे टूट पड़ते। ठुडे (बूट पहने ठोकरें लगाते) मारते हुये, यात्रियों की पिटाई-धुनाई कर देते।

भयभीत यात्री जान बचाते भाग खड़े हुये। रेलवे के अधिकारी असहाय मूक दर्शक बने बैठे थे। गोरों ने प्लेटफार्म पर लम्बे-चौड़े, निर्भीक मुनि महात्मा मुंशीराम जी को भी देखा, परन्तु निर्भीक, वीर, आर्य तपस्वी पर हाथ उठाने की उनकी हिम्मत न हुई। न ही शूरता की शान हमारे महात्मा जी डरकर वहाँ से भागे। यह घटना तीन जून सन् १९०५ को घटी। महात्मा जी ने छ: जून १९०५ के ‘सद्धर्म प्रचारक’ के लेख में उक्त घटना प्रकाशित कर दी। गोरे सैनिक महात्मा जी के निकट आये और कहा, ‘‘टुम शीख है?’’ अर्थात् क्या तुम सिख हो? महात्माजी ने कहा, नहीं मैं सिख तो नहीं हँू। उनके सिर के बाल व दाढ़ी देखकर गोरों ने ऐसा कहा।

फिर कहा, हमें सिखों से डर लगता है। वे हमें नदी में डुबोते हैं। महात्मा जी ने कहा, यदि वे तुम्हें शराब, व्हिस्की की नदी में डुबो दें तो कैसा लगे? उन्होंने कहा, यह तो बहुत आनन्ददायक होगा। ऐसी कुछ चर्चा नशे में डूबे उन क्रूर सैनिकों ने स्वामी जी से की। किसी राष्ट्रीय ख्याति के नेता के साथ शराब के नशे में धुत गोरे सैनिकों की यह इकलौती घटना हमारे स्वराज्य-संग्राम का स्वर्णिम पृष्ठ है।

जब सब असहाय भारतीय यात्री पिटाई के डर से प्लेटफार्म से भाग निकले तो अकेले महात्मा मुंशीराम वहीं डटकर विचरते रहे। इतने पर ही बस नहीं, श्री महात्मा जी ने घटना घटित होने के चौथे ही दिन अपने लोकप्रिय पत्र ‘सद्धर्म प्रचारक’ में इसे प्रकाशित करके अपनी निर्भीकता का परिचय देकर सबको चकित कर दिया। गोराशाही की उस युग में ऐसी धज्जियाँ उड़ाने वाला ऐसा शूरवीर नेता और कौन था? इस देश के इतिहास में महर्षि दयानन्द के पश्चात् ऐसे कड़े शब्दों में गोरों के अन्याय व उत्पात की कड़े शब्दों में निन्दा करने वाला पहला साधु महात्मा यही शूरता की शान श्रद्धानन्द ही था। कोई और नहीं।

डॉ अम्बेडकर जी द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी का अभिनन्दन

जो हिन्दू सुधारक अस्पृश्यता निवारण के लिए प्रयत्न कर रहे थे। उनके विषय में बाबासाहब अम्बेडकर (सन् 1920-27) गौरवोद्गार अभिव्यक्त करते हुए नजर आते हैं तथा वे और अधिक कार्य करें, इस दृष्टि से आह्वान करते हुए भी दिखलाई देते हैं। इस सम्बन्ध में आर्यसमाज व उनके नेता स्वामी श्रद्धानन्द का नाम सबसे पहले लिया जाना आवश्यक है।

”स्वामीजी दलितों के सर्वोंत्तम हितकत्र्ता व हितचिन्तक थे“ ये उद्गार डॉ0 अम्बेडकर ने 1945 के ’कांग्रेस और गान्धीजी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया ?‘ नामक ग्रन्थ में अभिव्यक्त किये हैं (पृ0 29-30)। कांग्रेस में रहते हुए स्वामीजी ने जो कार्य किया उसकी उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक प्रशंसा की है। कांग्रेस ने अस्पृश्योद्धार के लिए 1922 में एक समिति स्थापित की थी। उस समिति में स्वामीजी का समावेश था। अस्पृश्योद्धार के लिए उन्होंने कांग्रेस के सामने एक बहुत बड़ी योजना प्रस्तुत की थी और उसके लिए उन्होंने एक बहुत बड़ी निधि की भी माँग की थी, परन्तु उनकी माँग अस्वीकृत कर दी गई। अन्त में उन्होंने समिति से त्यागपत्र दे दिया (पृ0 29)। उक्त ग्रन्थ में स्वामीजी के विषय में वे एक और स्थान पर कहते हैं, ’स्वामी श्रद्धानन्द ये एक एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अस्पृश्यता निवारण व दलितोद्धार के कार्यक्रम में रुचि ली थी, उन्हें काम करने की बहुत इच्छा थी, पर उन्हें त्यागपत्र देने के लिए विवश होना पड़ा‘ (पृ0 223)।

दिनांक-4.11.1928 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय लेख में बाबासाहब लिखते हैं-”आर्यसमाज यह समाज (ब्राह्मण नहीं, अपितु) ब्राह्मण्यत्व मुक्त हिन्दू धर्म का एक सुधारित-संशोधित संस्करण है। आर्यसमाज हिन्दू समाज के (जन्मना) चातुर्वण्र्य को तोड़कर उसे एकवर्णी करने के लिए जन्मा आन्दोलन है, उसका साहस विलक्षण है“ (90-112)। स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या दि0-23.12.1926 को हुई और उसके बाद आर्यसमाज के स्वरूप में परिवर्तन होने की आलोचना बाबासाहब ने की है, उपरोक्त सम्पादकीय में वे आगे लिखते हैं-”आर्यसमाज हिन्दू समाज को एक वर्णी करने के अपने मूल कार्य को भूलकर हिन्दू महासभा की तरह शुद्धि अभियान के पीछे लगा है, अब इन दोनों की इतनी घनिष्ठ मित्रता हो गई है कि हिन्दू महासभा का ध्येय आर्यसमाज का ध्येय बन गया है (पृ0 112)। दिनांक-7.10.1927 को अमरावती में सम्पन्न ’आर्य धर्म परिषद‘ में चातुर्वण्र्य का प्रस्ताव पारित होने की जानकारी बाबासाहब देते हैं, फिर भी उन्हें आर्यसमाज से आशा होने के कारण वे उसे उपदेश करते हुए लिखते हैं कि-”आर्यसमाज ने हिन्दू महासभा की बातों में आने की अपेक्षा हिन्दू महासभा को अपने विचारों के अनुरूप बनाना चाहिए, इसी से आर्यसमाज के उद्देश्य की पूत होगी (पृ0 112)।“

दिनांक 22.4.1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ में आर्यसमाज के शुद्धि कार्य की आलोचना करते हुए बाबासाहब कहते हैं-”शुद्धि करके विधर्म में गये लोगों को फिर से स्वीकार करने का एक हाथ से प्रयत्न करना और दूसरे हाथ से स्वधर्म में रहनेवालों के साथ चिढ़ाने जैसा आचरण करना, होश में रहनेवाले मनुष्यों का लक्षण नहीं है। स्वामी श्रद्धानन्दजी के यशस्वी कार्य का यह स्मारक नहीं, अपितु उस महापुरुष द्वारा आरम्भ किये हुए कार्य का विकृत रूप है“ (पृ0 15)। दिनांक-15 मार्च 1929 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय में भी उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्दजी का गौरव तथा आर्यसमाज की आलोचना की है। वे कहते हैं-’स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्दजी के पवित्र आन्दोलन का इन ढोंगी लोगों ने गुड़-गोबर बना दिया है (244)।‘

 

दिनांक 21.12.1928 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में स्वामीजी का गौरव प्रस्तुत करनेवाला श्री पी0 आर0 लेलेजी का एक विशाल लेख प्रकाशित हुआ है। उसके अन्त में यह कहा गया है कि-”उन्हें (स्वामीजी को) श्रद्धांजलि देने का अधिकार अपना अर्थात् प्रमुख रूप् से बहिष्कृत व्यक्तियों (दलितों) का ही है। यदि अपनी उन्नति नहीं हुई, तो स्वामीजी को, उनके सच्चे हितैषी की आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी“ (205)। ’महात्मा स्वामी श्रद्धानन्द को‘, ’हिन्दुओं के उद्धार को‘ तो अन्यों को ’ब्राह्मणों के उद्धार की‘, ’अहर्निश चिंता लगी हुई हैं‘-प्रायः यह बाबासाहब कहते रहते थे (पृ0 31)। इसी उपकृत व कृतज्ञ भावना से महाड़ में मार्च-1927 में सम्पन्न ’कुलाया जिला बहिष्कृत परिषद्‘ में स्वामीजी को श्रद्धांजलि देने का प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसमें कहा गया था-”श्रद्धानन्दजी के अमानुष हत्या के प्रति इस सभा को अत्यन्त दुःख हो रहा है और उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्यक्रम के अनुसार हिन्दू जाति को अस्पृश्यता निर्मूलन का कार्य करना चाहिए“ (9)। (डॉ0 आंबेडकरांचे सामाजिक धोरणः एक अभ्यास-लेखक-शेषराव मोरे, पृष्ठ 75-76 प्रथमावृत्ति (मराठी ग्रन्थ) जून, सन् 1998)।

कांग्रेस द्वारा अस्पृश्यता निवारण का कार्य न करने के कारण कांग्रेस समिति से त्यागपत्र देनेवाले स्वामी श्रद्धानन्द का जो गौरव उन्होंने किया है, वह आपने देखा ही है, परन्तु 1945 के ’कांग्रेस और गान्धीजी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया ? ग्रन्थ में बाबासाहब ने गान्धीजी की आलोचना करते हुए लिखा है-”स्वामी श्रद्धानन्दजी का पक्ष लेने की अपेक्षा गाँधीजी ने श्रद्धानन्दजी के विरोधी प्रतिगामी लोगों का पक्ष लिया है। (29-226)“ इतना ही नहीं तो कांग्रेस का अस्पृश्यता निवारण का प्रस्ताव अर्थात् ’अस्पृश्यों से सम्बद्ध कपटनाट्य था‘ (22) ’विशुद्ध राजनीति थी‘ (26)। ऐसा डॉ0 अम्बेडकर ने 1945 के उपरोक्त ग्रन्थ में कहा है-तत्रैव-85।

दिनांक 3, जून 1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ के सम्पादकीय में बाबासाहब ने हिन्दू महासभा की स्थापना कब और कैसे हुई इस तथ्य की जानकारी दी है। ’कांग्रेस के पुराने सभासदों की जैसी सामाजिक परिषद, वैसी ही नये सभासदों की हिन्दू महासभा‘ ऐसा वे प्रतिपादित करते हैं (10.43)। आरम्भ में हिन्दू समाज के पुनर्गठन का कार्य सफलता के साथ सम्पन्न होगा। ऐसा सभी को प्रतीत होता था, पर समाज सुधार का कोई भी उपक्रम इस संस्था के हाथ से सम्पन्न नहीं हुआ-उसकी कार्यक्षमता शब्दों तक ही सीमित रही-यह आरोप हमारा नहीं, अपितु स्वामी श्रद्धानन्दजी ने किया है। बाबासाहब के अनुसार-इसी कारण से श्रद्धानन्दजी ने महासभा से त्यागपत्र दिया था। (43)-तत्रैव-180।