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पं गंगाप्रसाद उपाध्याय और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

श्री पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय (1881-1968) ने डॉ0 अम्बेडकरजी को विद्वान् तर्कशील, उत्तम लेखक तथा वक्ता स्वीकार करते हुए लिखा है- ”श्री अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी।“ आर्यसमाज में दलितों का प्रवेश पचास वर्ष से चला आया था। महादेव गोविन्द रानाडे के सोशल कांफ्रेंस में अधिकतर आर्यसमाजियों का सहयोग रहता था। आर्य नेता तथा सहस्त्रों आर्यसमाजी दलितोद्धार में लगे हुए थे। भेद केवल उद्योग और साफल्य की मात्रा का था। डॉ0 अम्बेडकरजी स्वभाव से हथेली पर सरसों जमानेवाले व्यक्तियों में से हैं। उनको मनचाही चीज तुरन्त मिले, अन्यथा वह दल परिवर्तन कर देते हैं।“इस धारणा के बाद भी आर्य विद्वान् पं0 गंगाप्रसादजी माननीय डॉ0 अम्बेडकर जी द्वारा प्रस्तुत हिन्दू कोड बिल के पक्षधर थे। बात उस समय की है जब गंगा प्रसाद उपाध्याय आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश के प्रधान (1941-1947) थे। तब काशी के कुछ पण्डितों ने आर्यसमाज इलाहाबाद चैक पधारकर उनसे कहा, ‘विदेशी सरकार हिन्दुओं के धर्म को भ्रष्ट करने के लिए हिन्दू कोड बिल पास करना चाहती है। आर्यसमाज हिन्दू संस्कृति का सदा से रक्षक रहा है। हम चाहते हैं कि इसके विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन चलाया जाए और आर्यसमाज इस सांस्कृतिक युद्ध में हमारा पूरा सहयोग करे।‘

काशी के पण्डितों के उपरोक्त अनुरोध को सुनकर उपाध्यायजी ने कहा-’जब तक मैं ’बिल‘ का पूरा अध्ययन न कर लूँ और अपने मित्रों से बिल के गुण-दोषों पर परामर्श न कर लूँ, मेरे लिए यह कहना कठिन होगा कि आर्यसमाज आपको कहाँ तक सहयोग दे सकेगा ? — शायद आर्यसमाज इस दृष्टिकोण से आपसे सहमत न हो, क्योंकि आर्यसमाज एक सुधारक संस्था है और हिन्दू पण्डितों की सदैव से एक मनोवृत्ति रही है, वह यह कि सुधार के काम में रोड़ा अटकाना। हिन्दू समाज मरणासन्न हो रहा है। आप स्वयं चिकित्सा का उपाय नहीं सोचते और दूसरों को रोगी के समीप तक फटकरने नहीं देते। आर्यसमाज को अपने जन्म से अब तक यही कटु अनुभव हुआ है। बाल-विवाह-निषेध (1929) के कानून में आपने विरोध किया। अनुमति कानून जैसे अत्यावश्यक कानून के पास होते समय भी यही आवाज आई कि विदेशियों और विधर्मियों को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं, आर्यसमाज अपने सुधार में हरेक उचित साधन का प्रयोग करता रहा और एक अंश में आप भी विदेशी सरकार से पीछा नहीं छुड़ा सके, आप अपनी आत्म-रक्षा के लिए विदेशी सरकार की कचहरियों, पुलिस, सेना आदि का प्रयोग करते रहे हैं।

हिन्दू कोड बिल का अध्ययन करने के उपरान्त पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि-हिन्दू कोड बिल का विरोध, बिना सोचे समझे सनातन धर्म के ठेकेदारों की ओर से खड़ा किया गया है।

सार्वदेशिक सभा ने अपने प्रधान पं0 इन्द्र विद्यावाचस्पति (1889-1960) और मन्त्री पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय के हिन्दू कोड बिल के अनुकूल होने के बावजूद केवल बहुमत के आधार पर सामूहिक रूप से हिन्दू कोड बिल का विरोध करने का निर्णय ले लिया था।

सार्वदेशिक सभा के उपरोक्त निर्णय पर अपना तीव्र असन्तोष व्यक्त करते हुए भी उपाध्यायजी ने लिखा था। ’आर्यसमाज ने यह विरोध करके अपना नाम बदनाम कर लिया। अब —(इस सन्दर्भ में)—आर्यसमाज का नाम सुधारक—संस्थाओं की सूची से काट दिया जाएगा—अधिकांश आर्यसमाजियों ने भी सनातनियों का साथ देकर उनके ही सुर में सुर मिलाया, जो मेरे विचार से सर्वथा अनुचित, निरर्थक तथा आर्यसमाज की उन्नति के लिए घातक था।‘

श्री उपाध्यायजी की दृष्टि में हिन्दू कोड बिल ’पौराणिक और वैदिक धर्म‘ के बीच एक ऐसी चीज थी, जो आर्यसमाज के अधिक निकट और पौराणिकता से अधिक दूर है, अर्थात् इसका झुकाव आर्यसमाज की ओर है। आर्यसमाज को इसकी सहायता करनी चाहिए थी, उसने उसका विरोध करके पौराणिक कुप्रथाओं को जीवित रखने में सहायता दी।

   श्री उपाध्याय जी का यह मन्तव्य था कि – ’चाहे फल कुछ भी हो, आर्यसमाज को किसी अवस्था में भी सुधार के विरोधियों का साथ देकर सुधार-विरोधिनी मनोवृत्ति को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए था। मैं हारूँ या जीतूँ, मुझे कहना तो वही चाहिए, जो सत्य है।‘

पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय सार्वदेशिक सभा के मन्त्री (1946-1951) होते हुए भी आर्यसमाजियों को हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में अपने अनुकूल करने में असमर्थ रहे। पुनरपि उन्होंने आर्यसमाज की इस सनातनी प्रवृत्ति की परवाह न करते हुए, माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के ‘हिन्दू कोड बिल‘ के अनुकूल ही कई स्थानों पर व्याख्यान दिये। श्री उपाध्यायजी के अनुसार यह भ्रामक और राजनीति प्रेरित प्रचार था कि-हिन्दू कोड बिल-1. भाई-बहिन के विवाह (सगोत्र विवाह) को विहित ठहराता है। 2. तलाक चलाना चाहता है और 3. पुत्रियों को जायदाद में हक दिलाकर हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को नष्ट करना चाहता है।

हमें इस बात की जानकारी नहीं है, माननीय डॉ0 अम्बेडकर और पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय की कभी प्रत्यक्ष भेंट हुई या नहीं, श्री उपाध्यायजी द्वारा लिखे 1. अछूतों का प्रश्न, 2. ’हिन्दूजाति का भयंकर भ्रम‘, 3. ’दलित जातियाँ और नया प्रश्न‘, 4. ’हिन्दुओं का हिन्दुओं के साथ अन्याय‘, 5. डॉ0 अम्बेडकर की धमकी आदि सम-सामयिक प्रचारार्थ लिखी गई लघु पुस्तिकाओं से सम्भवतः इन सब बातों पर और अधिक प्रकाश पड़े। हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में श्री उपाध्यायजी ने बड़ी तीव्रता से यह अनुभव किया था कि-’सनातनी मनोवृत्ति आर्यसमाज में प्रविष्ट हो चुकी है।‘ इस मनोवृत्ति को सन् 1928 में ही डॉ0 अम्बेडकरजी ने ताड़ लिया था और अपने एक लेख में लिखा था कि ’आज आर्यसमाज को सनातन धर्म ने निगल लिया है।‘