स्वामी वेदानन्द तीर्थ और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

’स्वाध्याय-सन्दोह‘ के लेखक स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ (1892-1956) ने भी अपनी पुस्तक ’राष्ट्र रक्षा के वैदिक साधन‘ (1950) का प्राक्कथन डॉ0 बी0 आर0 अम्बेडकर से इसी उद्देश्य से लिखवाया था कि इस पुस्तक को पढ़कर डॉ0 अम्बेडकरजी बौद्ध धर्म से विमुख होकर वैदिक धर्म की ओर उन्मुख हो जाएँगे। उक्त पुस्तक के डॉ0 अम्बेडकरजी लिखित प्राक्कथन को पढ़कर लगता है कि उन्हें उक्त चर्चित पुस्तक ने प्रभावित तो किया, पर वे इससे पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हुए। उनके द्वारा बहुत ही सतर्कता के साथ लिखा हुआ प्राक्कथन इस प्रकार है-

”स्वामी वेदानन्द तीर्थ की इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखने के लिए मुझे प्रेरणा की गई। कार्यभार के कारण मैं लेखक की प्रार्थना स्वीकार करने में असमर्थता प्रकट करता रहा, किन्तु मेरे द्वारा कतिपय शब्द लिखने के लिए लेखक का अनुरोध निरन्तर रहा, अतः मुझे लेखक का अनुरोध स्वीकार करना ही पड़ा। लेखक की स्थापना यह है कि स्वतन्त्र भारत वेद प्रोक्त शिक्षा को अपने धर्म के रूप में अंगीकार करे। यह शिक्षा सम्पूर्ण वेदों में विभिन्न स्थलों पर निर्दिष्ट है और इसका लेखक ने इस पुस्तक में संकलन कर दिया है। मैं यह तो नहीं कह सकता कि यह पुस्तक भारत का धर्मग्रन्थ बन जाएगी, किन्तु यह मैं अवश्य कहता हूँ कि यह पुस्तक पुरातन आर्यों के धर्मग्रन्थों से संकलित उद्धरणों का केवल अद्भुत संग्रह ही नहीं है, प्रत्युत यह चमत्कारिक रीति से उस विचारधारा तथा आचार की शक्ति को प्रकट करती है, जो पुरातन आर्यों को अनुप्राणित करती थीं। पुस्तक प्रधानतया यह प्रतिपादित करती है कि पुरातन आर्यों में उस निराशावाद (दुःखवाद) का लवलेश भी नहीं था, जो वर्तमान हिन्दुओं में प्रबल रूप से छाया हुआ है।“ प्राक्कथन के अन्तिम परिच्छेद में वे पुनः लिखते हैं। ’पुस्तक की उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जाती यदि लेखक महोदय यह दर्शाने का प्रयत्न करते कि प्राचीन भारत के सत्ववाद तथा आशावाद को उत्तरकाल के निराशावाद ने कैसे पराभूत कर दिया ? मुझे आशा है कि लेख कइस समस्या की किसी अन्य समय पर विवेचना करेंगे। तथापि इस समय हमारे ज्ञान में यह कोई अल्प (नगण्य) वृद्धि नहीं है कि मायावाद (संसार को माया मानना) नवीन कल्पना है। इस दृष्टि से मैं इस पुस्तक का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।‘

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