भपज्जरस्य भ्रमणावलोकादाधारशून्या कुरिति प्रतीति: । खस्थं न दृष्टंच गुरु क्षमातः खेऽधः प्रयातीति वदन्ति बौद्धाः ॥ द्वौ द्वौ रवीन्दू भगणौ चतद्व देकान्तरौ तावुदयं व्रजेताम् । यदब्रु वन्नेव मनर्थवादान् ब्रवीम्यतस्तान प्रति युक्तियुक्तम् ॥ बौद्ध कहते हैं कि आकाश में निराधार सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि को भ्रमण करते देखते हैं । इसी प्रकार पृथिवी निराधार ही है और कोई भी भारी पदार्थ आकाश में स्थिर नहीं रहता, अतः पृथिवी को भी स्थिर मानना उचित नहीं । तो यह नीचे को जा रही है जैसा मानना चाहिए। जैन और बौद्ध यह भी मानते हैं कि सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि दो-दो हैं, एक अस्त होता है तो दूसरा काम करता है । इस पर भास्कराचार्य कहते हैं कि इनका कथन अनर्थवाद है और इसमें यह … Continue reading पृथिवी और बौद्ध सिद्धान्त :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ→
गौ, ग्मा, ज्मा, क्ष्मा, क्षा, क्षमा, क्षोणि, क्षिति, अवनि, उर्वी, मही, रिपः, अदिति, इला, निर्ऋति, भू, भूमिः, गातुः, गोत्रा । इत्येक- विंशतिः पृथिवीनामधेयानि । – निघण्टु । १ । १ ये २१ नाम पृथिवी के हैं। इनके प्रयोग वेदों में आया करते हैं । इनमें से एक भी शब्द नहीं जो पृथिवी के अचलत्व का सूचक हो जब पृथिवी को अचल मानने लगे तो संस्कृत कोश में पृथिवी के नामों के साथ अचला, स्थिरा आदि शब्द भी आने लगे “भूर्भूमिरचलाऽनन्ता रसा विश्वम्भरा स्थिरा” अमरकोश । इससे सिद्ध होता है कि वैदिक समय में पृथिवी स्थिरा नहीं मानी जाती थी । वाचक शब्दों से भी विचारों का बहुत पता लगा है। जिस समय जैसा विचार उत्पन्न होता है शब्द भी तदनुकूल … Continue reading वेदों में पृथिवी के नाम :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ→
अब यह तो विस्पष्ट हो गया कि जब भूमि घूम रही है तब इसके आधार की आवश्यकता नहीं । धर्माभास पुस्तकों में यह एक अति तुच्छ प्रश्न और समाधान है। मुझे आश्चर्य होता है कि इन ग्रन्थकर्त्ताओं ने एकाग्र हो कभी इस विषय को न विचारा और न सूर्य-चन्द्र-नक्षत्रों की ओर ध्यान ही दिया । उन्हें यह तो बड़ी चिन्ता लगी कि यदि पृथिवी का कोई आधार न हो तो यह कैसे ठहर सकती, किन्तु इन्हें यह नहीं सूझा कि यह महान् सूर्य निराधार आकाश में कैसे घूम रहा है, हमारे ऊपर क्यों नहीं गिर पड़ता। इन लाखों कोटियों ताराओं को कौन असुर पकड़े हुए है। हमारे शिर पर गिर कर क्यों नहीं चूर्ण- चूर्ण कर देता । हाँ, इसका … Continue reading पृथिवी का आधार: पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ→
यद्यपि छोटे से छोटे पदार्थ का भी ऊपर और नीचे भाग माना जा सकता है। सेब और कदम्ब फल का भी कोई भाग नीचे का माना ही जाता है । वैसा ही पृथिवी का भी हिसाब हो सकता है किन्तु आश्चर्य यह है कि पृथिवी के सामने मनुष्य जाति इतनी छोटी है कि इसकी आकृति नहीं के बराबर है। इसी हेतु पृथिवी के अर्धगोलक पर रहने वाला अन्य अर्धगोलक पर रहने वाले को अपने से नीचे समझता है, किन्तु वे दोनों एक ही सीध में हैं, नीचे-ऊपर नहीं । जैसे अमेरिका देश पृथिवी के अर्धगोलक में है और द्वितीय अर्धगोलक में यूरोप, एशिया देश हैं। ये दोनों एक सीध में होने पर भी एक-दूसरे के ऊपर- नीचे प्रतीत होते हैं। … Continue reading पृथिवी का ऊपर और नीचे का भाग :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ→
यद्यपि देखने से प्रतीत होता है कि दर्पण के समान पृथिवी सम अर्थात् चिपटी है तथापि अनेक प्रमाणों से पृथिवी की आकृति गेंद या कदम्ब फल के समान गोल है, यह सिद्ध होता है। अपने संस्कृतशास्त्रों में इसी कारण इसका नाम ही भूगोल रखा है। यदि कोई आदमी ५० कोश का ऊँचा हो तो झट से उसको इसकी गोलाई मालूम होने लगे । इस पृथिवी के ऊपर हिमालय पर्वत भी गृह के ऊपर चींटी के समान है, अतः इसकी गोलाई हम मनुष्यों को प्रतीत नहीं होती । १ – इसके समझने के लिए समुद्र स्थान लीजिए । समुद्र सैकड़ों कोश तक चौड़ा होता है । जल की सतह बराबर हुआ करती है । यदि दर्पणाकार पृथिवी होती तो समुद्र में … Continue reading पृथिवी गोल है: पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ→
अहस्ता यदपदी वर्धत क्षा शचीभिर्वेद्यानाम् । शुष्ण परि प्रदक्षिणिद् विश्वायवे निशिश्नथः ॥ । – ऋ०१० । २२ । १४ क्षा – पृथिवी । पृथिवी के गौ, ग्मा, ज्मा आदि २१ नाम निघण्टु । १ में उक्त हैं। इनमें एक नाम क्षा है । शची-कर्म, क्रिया, गति । निघण्टु में अपः, अन: आदि २६ नाम कर्म के हैं, इनमें शची का भी पाठ है। शुष्ण यह नाम आदित्य अर्थात् सूर्य का भी है, यथा- “शुष्णस्यादित्यस्यशोषयितुः ” निरुक्त ५ । १६ पृथिवी पर के रस को सूर्य शोषण किया करता है, अतः सूर्य का नाम शुष्ण है। प्रदक्षिणित्- घूमती हुई । विश्वायवे – विश्वास के लिए । अथमन्त्रार्थ – (क्षा) यह पृथिवी (यद्) यद्यपि ( अहस्ता) हस्तरहिता और ( अपदी) पैर से … Continue reading पृथिवी का भ्रमण:पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ→
उत्तर – जल (आप:) स्त्रिलिंग का प्रतीक है और अग्नि पुल्लिंग। जैसे स्त्री पति के बांयी तरफ सोती है ऐसे ही जल को अग्नि के बायीं ओर (उत्तर दिशा) मे रखना चाहिए। अग्नि और जल के बीच से नही निकलना चाहिए क्योंकि स्त्री और पुरुष के जोड़े के बीच नही पड़ना चाहिए। यजुर्वेद के मन्त्र 1/6 को पढते हुए जल को लाना और 1/7 को पढते हुए वेदी के पास रखना चाहिए। इन दोनो मंत्रो को अर्थ सहित आगे भेजेंगे। विशेष हवन तथा संस्कार आदि करने से पहले एक य तीन दिन पहले से व्रत रखते हैं जब व्रत रखे तो क्या व्रत मे खा सकते हैं? उत्तर-देवो को खिलाने से पहले नही खाना चाहिए देव यज्ञ के माध्यम से … Continue reading प्रश्न – यज्ञ के प्रारम्भ मे जल को हवन कुंड के किस दिशा मे रखना चाहिए ? आचार्य कपिल→
पराभवस्य हैतन्मुखं यदतिमानः – शतपथ ब्राह्मण ५.१.१.१ अभिमान ही पराजय का मुख है। आजकल हम अपने आसपास अभिमान से भरे लोग देख रहे है। किसी को जाति का अभिमान है तो किसी को पैसो का। किसी को बोडी का अभिमान् है तो किसी को पूर्वजो का। जिसने जबजब अभिमान् किया है तबतब वह ही नष्ट हुआ है। शतपथकार इसे समझाते हुए कहते है की देवता और असुरोमें लडाई हो गयी। दोनों सोचने लगे की कहां आहूति दे। असुर अभिमान् के कारण अपने ही मुखमें आहूति देने लगे अर्थात् सब कुछ खुद को लिए ही करने लगे। देवता एकदूसरे को आहूति देने लगे। उनहें सर्वस्व प्राप्त हो गया। यह कथामें बहुत गहरा संदेश है। जिस परिवारमें लोग अपने ही बारेमें सोचते … Continue reading अभिमान ही पराजय का मुख है।ऋषि उवाच→
वैदिक धर्म में सप्तर्षि की बहुत प्रतिष्ठा है। पुराण कथाओ में सप्तर्षि शब्द विविध ऋषिओं के साथ जोडा गया है। आकाश में भी तारामंडल को सप्तर्षि नाम मिला है। यह सप्तर्षि का वैदिक स्वरूप क्या है? चलीये देखते है। बृहदारण्यकोपनिषद् २.२.४ में राजर्षि काश्यराज अजातशत्रु, बालाकी गार्ग्य को सप्तर्षि का अर्थ समझा रहे है। इस उपनिषद् के अनुसार सप्तर्षि हमारे सिरमें रहनोवाली सात इन्द्रिय का समूह है। इस नाम के ऋषि इतिहासमें अवश्य हुए है, लेकिन सप्तर्षि का कंसेप्ट इन्द्रिय के अर्थमें है। बृहदारण्क अनुसार गौतम और भरद्वाज – दोनों कान विश्वामित्र और जमदग्नि – दोनों नेत्र वशिष्ठ और कश्यप – नाक के दो छिद्र अत्रि – वाणी इस प्रकार इन गौतम आदि नाम विविध इन्द्रिय के है। इन अर्थमें … Continue reading सप्तर्षि कौन है ? ऋषि उवाच→
आजकल सनातनी ने यज्ञ करना छोड दिया है । अग्निहोत्र के विषयमें एक महत्वपूर्ण संवाद राजा जनक और याज्ञवल्क्य के मध्य हुआ था, जिसका वर्णन शतपथ ब्राह्मणमें मिलता है। राजा जनक याज्ञवल्क्य जी को पूछते है की क्या आप अग्निहोत्र को जानते हो? तब याज्ञवल्क्यजी उत्तर देते है की – हे राजन्, में अग्निहोत्र को जानता हूं। जब दूध से घी बनेगा, तब अग्निहोत्र होगा। तब जनकने याज्ञवल्क्य की परीक्षा लेने के लिए प्रश्नो की शृङ्खला लगा दी। जनक – अगर दूध ना हो तो किस प्रकार हवन करोगे? याज्ञ – तो गेहूं और जौं से हवन करेंगे। जनक – अगर गेहूं और जौं ना हो तो कैसे हवन करोगे? याज्ञ – तो जङ्गल की औषधीओ से यज्ञ करेंगे। जनक … Continue reading प्रत्येक सनातनी के लिए नित्य यज्ञ करना आवश्यक है। – ऋषि उवाच→