सम्राट् को उद्बोधन -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः अग्निः । देवता अग्नि: । छन्दः स्वराड् आर्षी पङ्किः। क्षत्रेणाग्नेि स्वायुः सरभस्व मित्रेणग्ने मित्रधेये यतस्व। सुजातान मध्यमस्थाऽएधि राज्ञामग्ने विहुव्यो दीदिहीह॥ -यजु० २७.५ ( अग्ने ) हे तेजस्वी सम्राट् ! ( क्षत्रेण ) क्षात्रबल से ( स्वायुः ) अपनी राजकीय आयु (संरभस्व ) प्रारम्भ कर । ( अग्ने ) हे अग्रनायक! (मित्रेण ) मैत्रीसचिव की सहायता से ( मित्रधेये ) अन्य राजाओं को मित्र बनाने में ( यतस्व) यत्न कर। ( सजातानां राज्ञां) सहजात राजाओं में ( मध्यमस्थाः ) केन्द्रस्थ ( एधि ) हो। ( अग्ने ) हे प्रगतिशील ! (विहव्यः ) विशेष प्रशंसनीय होकर ( इह ) यहाँ राजसंघ में ( दीदिहि ) देदीप्यमान हो। हे अग्नितुल्य नवनिर्वाचित तेजस्वी सम्राट् ! आज से आप … Continue reading सम्राट् को उद्बोधन -रामनाथ विद्यालंकार→
जीवात्मा का वैभव -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः भार्गवो जामदग्निः । देवता अर्वा (आत्मा) ।छन्दः विराट् त्रिष्टुप् । तव शरीरं पतयिष्णवर्वन्तर्व चित्तं वार्ताऽइव ध्रजीमान्। तव शृङ्गाणि विष्ठिता पुरुवारण्येषुजर्भुराणा चरन्ति। -यजु० २९.२२ ( तव शरीरं ) तेरा शरीर ( पतयिष्णु ) विनाशशील है। ( अर्वन् ) हे ज्ञानी जीवात्मन् ! (तव चित्तं ) तेरा चित्त (वातः इव) वायु के समान ( ध्रजीमान् ) वेगवान् है। (तवशृङ्गाणि ) तेरे रक्षाबल रूप सींग ( पुरुत्रा ) चारों ओर ( विष्ठिता) विविध रूप में स्थित हैं, जो ( अरण्येषु ) जङ्गलों में भी (जर्भुराणा) देदीप्यमान होते हुए ( चरन्ति ) तेरे साथ विचरते हैं। जीवात्मा को वेदों में घोड़े-वाची अश्व, अर्वन्, वाजिन् आदि शब्दों से भी उद्बोधन दिया गया है। घोड़े की गति विशिष्ट होती है। … Continue reading जीवात्मा का वैभव -रामनाथ विद्यालंकार→
पहन लो कवच, विजय पाओ -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः भारद्वाजः । देवता वर्मी । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् । जीमूतस्येव भवति प्रतीकं यद्वर्मी याति सुमदामुपस्थे । अनाविद्धया तन्वा जय त्वत्स त्वा वर्मणो महिमा पिपत्तुं ॥ -यजु० २९.३८ ( जीमूतस्य इव ) बादल के समान ( भवति ) हो जाता है ( प्रतीकं ) रूप, ( यद् ) जब ( वर्मी ) कवचधारी योद्धा ( याति ) जाता है (समदाम् उपस्थे ) युद्धों के मध्य । हे कवचधारी योद्धा! ( अनाविद्धया तन्वा ) न बिंधे हुए शरीर के साथ ( जय) विजय प्राप्त कर ( त्वम् ) तू । ( सः वर्मणः महिमा ) वह कवच की महिमा ( त्वा पिपर्तु) तेरा रक्षण करती रहे। क्या तुमने किसी योद्धा को लोहे की … Continue reading पहन लो कवच, विजय पाओ -रामनाथ विद्यालंकार→
राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः भारद्वाजः । देवता वीराः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् । स्वदुषसर्दः पितरों वयोधाः कृच्छ्रश्रितः शक्तीवन्तो गभीराः। चित्रसेनाऽइषुबलाऽअमृध्राः सूतोवीराऽउरवों व्रातसाहाः ॥ -यजु० २९.४६ हमारे राष्ट्र के वीर सेनानायक ( स्वादुषंसदः ) उठने बैठने में स्वादु व्यवहार वाले हों, (पितरः ) देश के रक्षक हों, ( वयोधाः ) उत्कष्ट और दीर्घ आयु को धारण करने-करानेवाले हों, ( कृच्छ्रेश्रितः ) आपत्काल में आश्रय बननेवाले हों, ( शक्तीवन्तः) शक्तिशाली हों, ( गभीराः ) गम्भीर हों, (चित्रसेनाः ) चित्र-विचित्र सेनावाले हों, (इषुबलाः ) शस्त्रास्त्रों का बल उनके पास हो, ( अमृधाः) शत्रु द्वारा अहिंस्य हों, (सतोवीराः ) उनके साथ अनेक वीर योद्धा हों, ( उरवः ) विशाल डील-डौलवाले हों, (व्रातसाहाः ) शत्रुसमूह को परास्त करनेवाले हों। आओ, … Continue reading राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार→
हनूमान् वास्तविक स्वरूप : डॉ. शिवपूजनसिंह कुशवाह एम. ए. . हनूमान् का वास्तविक स्वरूप श्री हनूमान् की उत्पत्ति हनुमान जी की जन्म-कथा भिन्न-भिन्न पुराणों में भिन्न-भिन्न प्रकार की पाई जाती है पर इस विषय में सभी एकमत हैं कि हनूमान् के पिता केसरी और माता अंजनी थी। किसी भी प्राणी का जन्म एक बाप द्वारा एक ही माता के गर्भ से देखा जाता है परन्तु हनूमान् केसरी और अंजनी के अतिरिक्त, महादेव-पार्वती तथा वायु (मरुत्) के पुत्र भी कहे गये हैं, अर्थात् ३ पितामों से हनुमान जी उत्पन्न हुए, क्या यह माननीय है ? पुराणों ने बड़ा ही अनर्थ विश्व में फैलाया है। मिथ्या कथा लिखकर हनुमान जी को कहीं का न छोड़ा। शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता अध्याय २० श्लो०१ से १० तक’ … Continue reading हनूमान् का वास्तविक स्वरूप श्री हनूमान् की उत्पत्ति : डॉ. शिवपूजनसिंह कुशवाह एम. ए.→
॥ ओ३म्॥ सिन्ध के दादा लेखराज द्वारा संस्थापित मण्डली का परिवर्तित नामकरण संस्कार विभाजन के पश्चात् भारत में ‘ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय’ के नाम से किया गया। इनकी शाखायें भारत के अनेक नगरों में स्थापित हो चुकी हैं। इनका प्रधान केन्द्र आबू पर्वत पर ‘पोकरान हाउस’ में है जहाँ ग्रीष्म ऋतु में दादा लेखराज अनेक शिष्य शिष्याओं के साथ स्वयं निवास करते हैं। . लगभग १० वर्ष से विभाजन के पश्चात् यह ,संस्था ब्रह्माकुमारी नाम से चुप-चाप काम करती रही है। दिल्ली एवं अन्य नगरों की सम्भ्रान्त घरानों की देवियाँ घरबार छोड़कर जब दादा लेखराज के सम्पर्क में आबू पर चली गई तो उस समय यह संस्था जनता में चर्चा का विषय बन गई। कुछ लोगों ने इनका वास्तविक आचरण जानने … Continue reading ब्रह्माकुमारी संस्था की ढोल की पोल : श्री स्वामी आनन्दबोध सरस्वती→
नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः वरुण: । देवता मन्त्रोक्ताः । छन्दः स्वराड् धृतिः । सोमस्य विषिरसि तवेव मे विषिर्भूयात् । अग्नये स्वाहा सोमाय स्वाहा सवित्रे स्वाहा सरस्वत्यै स्वाहां पूष्णे स्वाहा बृहस्पतये स्वाहेन्द्राय स्वाहा घोषाय स्वाहा श्लोकाय स्वाहा शाय स्वाहा भगाय स्वाहार्यम्णे स्वाहा॥ -यजु० १०/२३ तू ( सोमस्य ) चन्द्रमा की ( त्विषिः असि) दीप्ति है, ( तव इव ) तेरी दीप्ति के समान (मे त्विषिः भूयात् ) मेरी दीप्ति हो। ( अग्नये स्वाहा ) अग्नि के लिए स्वाहा, (सोमायस्वाहा ) सोम के लिए स्वाहा, ( सवित्रे स्वाहा ) सविता के लिए स्वाहा, (सरस्वत्यै स्वाहा ) सरस्वती के लिए स्वाहा, ( पूष्णे स्वाहा ) पूषा के लिए स्वाहा, (बृहस्पतये स्वाहा ) बृहस्पति के लिए स्वाहा, ( इन्द्राय … Continue reading नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार→
माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः त्रितः । देवता अग्निः । छन्दः विराड् अनुष्टुप् । स्थिरो भव वीड्वङ्गऽआशुभंव वायुर्वन् । पृथुर्भव सुषदस्त्वमुग्नेः पुरीषवाहणः ।। -यजु० ११।४४ ( अर्वन् ) हे जीवनमार्ग के राही पुत्र! तू (स्थिरः) अडिग, स्थिर वृत्तिवाला और (वीड्वङ्गः ) दृढाङ्ग ( भव ) हो, (आशुः ) शीघ्रकारी तथा ( वाजी ) शरीरबल, नीतिबल तथा आत्मबल से युक्त (भव ) हो। ( त्वं ) तू ( पृथुः ) विस्तारप्रिय तथा ( सुषदः ) उत्कृष्ट स्थितिवाला ( भव) हो। ( अग्नेः पुरीषवाहनः३) अग्नि के पालन, रथचालन आदि कार्यों को करनेवाला तथा अग्निहोत्र की सुगन्ध फैलानेवाला हो। उवट एवं महीधर ने इस मन्त्र की व्याख्या में कर्मकाण्डपरक विनियोग के अनुसार ‘रासभ’ की सम्बोधन माना है। परन्तु महर्षि दयानन्द … Continue reading माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार→
सेनानायक पुरोहित की गर्वोक्ति-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः नाभा नेदिष्ठः । देवता पुरोहितो यजमानश्च।छन्दः आर्षी भुरिक् उष्णिक्। सशितं में ब्रह्म सर्शितं वीर्य बलम्। सशितं क्षत्रं जिष्णु यस्याहमस्मि पुरोहितः ॥ -यजु० ११ । ८१ ( मे ) मेरा ( ब्रह्म ) ज्ञान ( संक्षितं ) तीक्ष्ण है। ( संशितं ) तीक्ष्ण है (वीर्यम्) वीर्य और (बलम्) बल। ( संशितं ) तीक्ष्ण और (जिष्णु) विजयशील हो ( क्षत्रं ) क्षात्रबल ( यस्य ) जिस सम्राट् का ( अहम् अस्मि) मैं हूँ ( पुरोहितः ) पुरोहित, अग्रगन्ता, मुख्य सेनानायक के पद पर स्थित ।। मैं राष्ट्र का मुख्य सेनानायक हूँ। राष्ट्र मेरा है, मैं राष्ट्र का हूँ। राष्ट्र की स्थलसेना, जलसेना और अन्तरिक्षसेना मेरे अधीन है। जब कभी राष्ट्र पर शत्रु का संकट होता है, … Continue reading सेनानायक पुरोहित की गर्वोक्ति-रामनाथ विद्यालंकार→