राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः भारद्वाजः । देवता वीराः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

स्वदुषसर्दः पितरों वयोधाः कृच्छ्रश्रितः शक्तीवन्तो गभीराः। चित्रसेनाऽइषुबलाऽअमृध्राः सूतोवीराऽउरवों व्रातसाहाः ॥

-यजु० २९.४६

हमारे राष्ट्र के वीर सेनानायक ( स्वादुषंसदः ) उठने बैठने में स्वादु व्यवहार वाले हों, (पितरः ) देश के रक्षक हों, ( वयोधाः ) उत्कष्ट और दीर्घ आयु को धारण करने-करानेवाले हों, ( कृच्छ्रेश्रितः ) आपत्काल में आश्रय बननेवाले हों, ( शक्तीवन्तः) शक्तिशाली हों, ( गभीराः ) गम्भीर हों, (चित्रसेनाः ) चित्र-विचित्र सेनावाले हों, (इषुबलाः ) शस्त्रास्त्रों का बल उनके पास हो, ( अमृधाः) शत्रु द्वारा अहिंस्य हों, (सतोवीराः ) उनके साथ अनेक वीर योद्धा हों, ( उरवः ) विशाल डील-डौलवाले हों, (व्रातसाहाः ) शत्रुसमूह को परास्त करनेवाले हों।

आओ, मित्रो ! वीर-पूजा करें। राष्ट्र की रक्षा का उत्तरदायित्व जिनके ऊपर है, उन वीरों को सम्मान दें। ये सेनानायक युद्ध में अपने योद्धाओं का नेतृत्व करते हुए प्राणों की भी आहुति देने को तैयार रहते हैं। कैसे हैं ये सेनानायक? यह वेद के शब्दों में सुनिये । एक ओर जहाँ वीरता की छवि इनके रोम रोम में व्याप्त रहती है, वहाँ दूसरी ओर उठने-बैठने, वार्तालाप करने आदि सामान्य व्यवहार में भी ये बड़े मधुर होते हैं । इनके शिष्टाचार को देख कर कोई यह सोच भी नहीं सकता कि ये शत्रु की जान जोखिम में डालनेवाले बहादुर सेनापति हैं। ये ‘पितर:’ हैं, देशरक्षक है, राष्ट्र की रक्षा में ऐसे संनद्ध रहते हैं कि इनका नाम सुनकर भी शत्रुसेना की हवाइयाँ उड़ने लगती हैं। ये ‘वयोधाः’ हैं, अपनी तथा राष्ट्रवासियों की आयु  को सुरक्षित रखनेवाले हैं। इनके होते हुए किसी को यह भय नहीं रहता कि कहीं शत्रु हमारा प्राणघात करके हमारी आयु का अपहरण न कर ले। ये स्वयं भी अपने प्राणों को सुरक्षित रख कर उत्कृष्ट और दीर्घ आयु व्यतीत करनेवाले हैं। ये ‘कृच्छेश्रित:’ हैं, कष्ट या आपत्तिकाल में दूसरों का आश्रय बननेवाले हैं। वे बड़ी से बड़ी कठिन या विपत्ति की परिस्थिति में भी अपनी सेना को खाई में कुदा कर और स्वयं कूद कर असहाय को सहायता देनेवाले हैं। ये शक्तिशाली ऐसे हैं कि सदा युद्ध का स्वागत करने के लिए उद्यत रहते हैं, जहाँ प्राणों का सङ्कट हो वहाँ जाने में इन्हें आनन्द आता है, इनके दिल में शत्रुसंहार के अरमान भरे होते हैं। अन्दर से इनकी बाहें फड़क रही होती हैं, किन्तु ऊपर से उदासीन दिखायी देते हैं। ये ‘चित्रसेन’ हैं। इनकी सेनाओं में अद्भुत वीरता है, राष्ट्ररक्षा की अद्भुत उमङ्ग है, अद्भुत रणचातुरी है, शत्रु को धराशायी करने की अद्भुत कला है। ये ‘इषुबल’ हैं, संहारक बाणों का, बड़े से बड़े मारक अस्त्र-शस्त्रों का बल इनके पास है। ये * अमृध्र’ हैं, शत्रु से अहिंसनीय हैं, क्योंकि रणनीति के ज्ञाता है। शत्रु इन्हें किसी दिशा में विद्यमान समझ रहा होता है, किन्तु ये होते दूसरी दिशा में हैं। इनके साथ अनेक वीर योद्धा हैं। इनमें से कोई पाँच सौ वीरों का, कोई सहस्र वीरों का नेतृत्व कर रहा होता है। ये विशाल डील-डौलवाले हैं, विस्तीर्ण वक्षस्थलवाले, शाल वृक्ष के समान ऊँचे और महाबाहु हैं। ये व्रातसाह’ हैं, रिपुदल को क्षणभर में परास्त कर देनेवाले हैं। इनकी रणकुशलता के आगे अपनी सेना पर कोई आँच नहीं आती और शत्रुसेना भयभीत होकर उलटे पैर भाग खड़ी होती है। उसमें घबराहट व्याप जाती है, वह घुटने टेक कर अपनी पराजय स्वीकार कर लेती है।

आओ, हम ऐसे राष्ट्ररक्षक सेनानायकों का जयजयकार करें, इनके प्रशस्तिगीत गायें, इनका अभिनन्दन करें।

पाद-टिप्पणी

१. मृध:=संग्राम, निर्घ० २.१७, मृधु मर्दने, का० कृ० ।।

राष्ट्र के वीर सेनानायक कैसे हो? -रामनाथ विद्यालंकार 

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