कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः वत्सः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् । प्रति पन्थामपद्महि स्वस्तिगामनेहसंम् ।। येन विश्वाः परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु ॥ -यजु० ४। २९ हे अग्नि! हे अग्रनायक जगदीश्वर ! हम (स्वस्तिगाम्) कल्याण प्राप्त करानेवाले, (अनेहसम्) निष्पाप (पन्थां प्रति) मार्ग पर (अपद्महि) चलें, (येन) जिससे, मनुष्य (विश्वाः द्विषः) सब द्वेषों या द्वेषियों को (परिवृणक्ति) दूर कर देता है और (विन्दते) पा लेता है (वसु) ऐश्वर्य। | हम जीवन में न जाने कैसे-कैसे मार्गों पर चलते रहते हैं। कभी हम ऐसे बीहड़ मार्ग पर चल पड़ते हैं, जो एक तो बहुत ही कण्टकाकीर्ण होता है, दूसरे जिसके विषय में यही नहीं पता चलता कि यह हमें ले कहाँ जायेगा। कभी हम … Continue reading कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार→
न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः वत्सः । देवता दम्पती । छन्दः आस्तारपङ्किः। समख्ये देव्या धिया से दक्षिणयोरुचक्षसा मा मुऽआयुः प्रमोषीर्मोऽअहं तवं वीरं विदेय तवे देवि सन्दृशिं॥ -यजु० ४।२३ | हे पत्नी ! मैं (देव्या धिया) देदीप्यमान बुद्धि के साथ (समख्ये) कह रहा हूँ, (उरुचक्षसा) विशाल दृष्टिवाली (दक्षिणया) बलवती इच्छा के साथ (सम् अख्ये) कह रहा हूँ कि (मा मे आयुः प्रमोषी:४) न तू मेरी आयु की हिंसा कर (मो अहं तवे) न मैं तेरी आयु की हिंसा करूँ। (देवि) हे देवी! (तवे संदृशि) तेरे संदर्शन में, मार्गदर्शन में मैं (वीरं विदेय) वीर सन्तान को प्राप्त करूं। वेदादि शास्त्रों ने और सन्त-महात्माओं ने ब्रह्मचर्य की बहुत महिमा वर्णित की है। अथर्ववेद के … Continue reading न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार→
नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः वत्सः । देवता नारी । छन्दः निवृद् ब्राह्मी पङ्किः। चिदसि मुनासि धीरसि दक्षिणासि क्षत्रियासि युज्ञियास्यदितिरस्युभयतः शीष्र्णी ।सा नः सुप्राची सुप्रतीच्येधि मित्रस्त्वा पुदि बैनीतां पूषाऽध्वनस्पत्चिन्द्रायाध्यक्षाय ।। -यजु० ४ । १९ हे नारी! तू (चिद् असि) चेतनावाली है, ज्ञानवती है। (मना असि) मननशीला है, मनस्विनी है (धीः असि) बुद्धिमती है, ध्यान करनेवाली है। (दक्षिणा असि) बलवती है, त्यागमयी है। (क्षत्रिया असि) क्षत्रिया है। (यज्ञिया असि) यज्ञार्ह है, यज्ञ की अधिकारिणी है। (अदितिः असि) अदीना है, अखण्डिता है। (उभयतः शीष्ण) ज्ञान और कर्म दोनों ओर मस्तिष्क लगानेवाली है। (सा) वह तू (न ) हमारे लिए (सुप्राची) सुन्दरता से आगे बढ़नेवाली और (सुप्रतीची) सुन्दरता से पीछे हटनेवाली (एधि) हो। (मित्रः) तेरा वैवाहिक सप्तपदी विधि का सखा (त्वा … Continue reading नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार→
पुनः हमें मन, आयु, प्राण आदि प्राप्त हो – रामनाथ विद्यालंकार ऋषयः अङ्गिरसः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् ब्राह्मी बृहती। पुनर्मनः पुनरायुर्मऽआगन्पुनः प्राणः पुनरात्मा मऽआगन्पुनश्चक्षुः पुनः क्षोत्रे मूऽआर्गन्। वैश्वानरोऽअदब्धस्तनूपाऽअग्निर्नः पातु दुरितार्दवद्यात् ॥ –यजु० ४। १५ | (पुनः मनः) फिर मन, (पुनः आयुः) फिर आयु (मे आगन्) मुझे प्राप्त हो । (पुनः प्राणः) फिर प्राण, (पुनः आत्मा) फिर आत्मा (मे आगन्) मुझे प्राप्त हो। (पुनः चक्षुः) फिर चक्षु, (पुनः श्रोत्रम्) पुनः कान (मे आगन्) मुझे प्राप्त हो । (वैश्वानरः२) सब नरों का हितकर्ता, (अदब्धः) अपराजित, (तनूपा:) शरीर और आत्मा का रक्षक (अग्निः) अग्रनायक परमात्मा (नः पातु) हमें बचाये (दुरिताद्) पापजन्य दुःख से तथा दुष्कर्म से और (अवद्यात्) पापाचरण से तथा निन्दा से ।। कोई समय था जब मेरे अन्दर मनोबल … Continue reading पुनः हमें मन, आयु, प्राण आदि प्राप्त हो – रामनाथ विद्यालंकार→
हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार ऋषयः अङ्गिरसः । देवता अग्निः । छन्दः विराट् आर्षी अनुष्टुप् । अग्ने त्वः सु जागृहि वय सु मन्दिषीमहि। रक्षा णोऽअप्रयुच्छन् प्रबुधे नः पुनस्कृधि॥ -यजु० ४।१४ (अग्ने) हे विद्वन् ! (त्वं) आप (सु जागृहि) अच्छे प्रकार जागरूक रहें, (वयं) हम (सु मन्दिषीमहि) सम्यक् प्रकार आनन्दित रहें। (रक्ष नः) रक्षा करते रहिए हमारी (अप्रयुच्छन्) बिना प्रमाद के। (नः) हमें (पुनः) फिर फिर (प्रबुधे कृधि) प्रबोध के लिए पात्र बनाते रहिए। हे विद्वन् ! आप अग्नि हैं, ज्ञान की ज्योति आपके अन्दर जल रही है, विविध विद्याओं की ज्वालाएँ आपके मानस में उठ रही हैं। आपसे हमारा निवेदन है कि जागरूक रहकर आप हमारे अन्दर भी ज्ञान-विज्ञानों की ऊँची ऊँची ज्वालाएँ उठा कर हमें उद्भट विद्वान् बना दीजिए, … Continue reading हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार→
व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार ऋषयः अङ्गिरसः । देवता अग्निः । छन्दः क. स्वराड् ब्राह्मी अनुष्टुप्, | र. आर्षी उष्णिक्।। व्रतं कृणुताग्निर्ब्रह्मग्निर्यज्ञो वनस्पतिय॒ज्ञियः। दैवीं धियं मनामहे सुमृडीकामूभिष्टये वर्षोधां यज्ञवाहससुतीर्था नोऽ असूद्वशे । ‘ये देवा मनोजाता मनोयुजो दक्षक्रतवस्ते नोऽवन्तु ते नः पान्तु तेभ्यः स्वाहा ॥ -यजु० ४।११ हे मनुष्यो! (व्रतं कृणुत) व्रत ग्रहण करो। (अग्निः ब्रह्म) अग्रनायक होने से ब्रह्म का नाम अग्नि है’, (अग्निः यज्ञः) वह अग्रणी ब्रह्म यज्ञरूप है, यज्ञमय है, वह (वनस्पति:२) वनों, रश्मियों और जलों का पालयिता और (यज्ञियः) उपासना-यज्ञ के योग्य है। हम (अभिष्टये) अभीष्ट प्राप्ति के लिए (दैवीं) दिव्यगुणसम्पन्न (धियं) बुद्धि की (मनामहे) याचना करते हैं, (सुमृडीको) जो अतिशय सुख देनेवाली हो, (वधां) विद्या, दीप्ति और ब्रह्मवर्चस को धारण करानेवाली हो, (यज्ञवाहसम्) और जो … Continue reading व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार→
ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार ऋषयः अङ्गिरसः । देवता विद्वान्। छन्दः आर्षी पङ्किः ऋक्सामयोः शिल्पे स्थस्ते वामारंभेते मां पातुमास्य यज्ञस्योदृचः। शर्मीसि शर्म मे यच्छ नमस्तेऽअस्तु मा मा हिश्सीः ॥ -यजु० ४।९ | तुम (ऋक्सामयोः) ऋक् और साम के (शिल्पे स्थः) शिल्प हो। (ते वाम्) उन तुमको (आरभे) ग्रहण करता हूँ। (ते) वे तुम दोनों (मा पातम्) मेरा पालन-रक्षण करो (आ अस्य यज्ञस्य उदृचः१) इस जीवन-यज्ञ की समाप्ति तक। हे। विद्वन्! आप (शर्म असि) सुखदायक हैं, (ते नमः अस्तु) आपको नमन हो। (मा मा हिंसीः) मेरी हिंसा मत करना। ‘ऋक्’ शब्द स्तुत्यर्थक ऋच् धातु से निष्पन्न हुआ है। किसी भी जड़-चेतन पदार्थ का यथार्थ वर्णन स्तुति कहलाता है। इन पदार्थों में परमेश्वर से लेकर तृणपर्यन्त बड़े-छोड़े सभी पदार्थ … Continue reading ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार→
त्याग-यज्ञ का ग्रहण – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः प्रजापतिः । देवता यज्ञः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् । स्वाहा यज्ञं मनसः स्वाहोरोरन्तरिक्षात् स्वाहा द्यावापृथिवीभ्यास्वाहा वातदारंभे स्वाहा॥ -यजु० ४।६ (स्वाहा यज्ञम्) त्यागरूप यज्ञ को (मनसः) मन से, (स्वाहा) त्यागरूप यज्ञ को (उरोः अन्तरिक्षात्) विस्तीर्ण अन्तरिक्ष से, (स्वाहा) त्यागरूप यज्ञ को (द्यावापृथिवीभ्यां) द्यावापृथिवी से, (स्वाहा) त्यागरूप यज्ञ को (वातात्) वायु से (आरभे) ग्रहण करता हूँ। (स्वाहा) यह लो, मैं त्याग कर रहा हूँ। कैसा सुरम्य शब्द है ‘स्वाहा’ ! स्वाहा=सु+आ+हा। सु=सुन्दर प्रकार से, आ=आगम्य, आकर, हा=त्याग करना। स्वाहा’ में प्रथम अक्षर ‘सु’ है, जिससे सूचित होता है कि त्याग या हविर्दान सौन्दर्य के साथ होना चाहिए। खीझते हुए, किसी के भय से, रोते-धोते त्याग करना त्याग नहीं कहलाता। ‘स्वाहा’ में अन्तिम अक्षर ‘हा’ … Continue reading त्याग-यज्ञ का ग्रहण – रामनाथ विद्यालंकार→
पवित्रता की पुकार ऋषिः प्रजापतिः । देवता परमात्मा। छन्दः निवृद् ब्राह्मी पङ्किः।। चित्पतिर्मा पुनातु वाक्पर्तिर्मा पुनातु देवो मा सविता पुनात्वच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्॥ -यजु० ४।४ (चित्पतिः१) विज्ञान का पालक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे। (वाक्पतिः) वाणी का पालक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे। (सविता देवः) सन्मार्गप्रेरक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे (अच्छिद्रेण पवित्रेण) त्रुटिरहित पवित्र वेदमन्त्र से, और (सूर्यस्य रश्मिभिः) सूर्य की रश्मियों से। (तस्य ते) उस तेरे (पवित्रपूतस्य) वेदमन्त्रों से पवित्र हुए मेरा (पवित्रपते) हे पवित्र कर्म के अधिपति जगदीश्वर [कल्याण हो]। (यत्कामः) जिस कामनावाला मैं (पुने) स्वयं को पवित्र करता हूँ (तत्) उस अपनी कामना को (शकेयम्) पूर्ण कर सकें। मैंने पवित्रात्मा ऋषि, मुनि, संन्यासी प्रभुभक्तों के … Continue reading पवित्रता की पुकार – रामनाथ विद्यालंकार→
तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्। भुद्राऽउते प्रशस्तयो भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासर्हः । -यजु० १५ । ३९ हे वीर! तू ( वृत्रतूर्ये ) पापी के वध में ( मनः) मन को ( भद्रं कृणुष्व ) भद्र रख, ( येन ) जिस मन से तू ( समत्सु ) युद्धों में ( सासहः ) अतिशय पराजयकर्ता [होता है] ।। हे वीर! तू पापी का वध करने के लिए क्यों प्रवृत्त हुआ है? तेरा उद्देश्य तो पाप का वध करना है। यदि पापी का वध किये बिना पाप का वध हो सके, तो क्या यह मार्ग तुझे स्वीकार नहीं है? प्रेम से या साम, दान, भेद रूप उपायों से भी तो पापी … Continue reading तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार→