ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार

ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः   अङ्गिरसः ।  देवता   विद्वान्।  छन्दः आर्षी पङ्किः

ऋक्सामयोः शिल्पे स्थस्ते वामारंभेते मां पातुमास्य यज्ञस्योदृचः। शर्मीसि शर्म मे यच्छ नमस्तेऽअस्तु मा मा हिश्सीः ॥

-यजु० ४।९ |

तुम (ऋक्सामयोः) ऋक् और साम के (शिल्पे स्थः) शिल्प हो। (ते वाम्) उन तुमको (आरभे) ग्रहण करता हूँ। (ते) वे तुम दोनों (मा पातम्) मेरा पालन-रक्षण करो (आ अस्य यज्ञस्य उदृचः१) इस जीवन-यज्ञ की समाप्ति तक। हे। विद्वन्! आप (शर्म असि) सुखदायक हैं, (ते नमः अस्तु) आपको नमन हो। (मा मा हिंसीः) मेरी हिंसा मत करना।

‘ऋक्’ शब्द स्तुत्यर्थक ऋच् धातु से निष्पन्न हुआ है। किसी भी जड़-चेतन पदार्थ का यथार्थ वर्णन स्तुति कहलाता है। इन पदार्थों में परमेश्वर से लेकर तृणपर्यन्त बड़े-छोड़े सभी पदार्थ आ जाते हैं। परमेश्वर की जब हम स्तुति करते हैं कि वह अमुक-अमुक गुणों से युक्त है, तब हमारा आशय होता है कि जहाँ तक सम्भव हो हम भी वैसे ही बने । ऋक् यथार्थवर्णन की एक कला है। ऋग्वेद को यह नाम इसीलिए दिया गया है कि इस वेद में अग्नि, वायु, जल, सूर्य, ओषधियों आदि का तथा परमात्मा, जीवात्मा, मन, प्राण आदि का यथार्थ परिचय इस हेतु से दिया गया है कि हमें इनका यथार्थ ज्ञान हो और हम इनका ज्ञान पाकर इनसे यतोचित लाभ उठाएँ। ऋक् का यह शिल्प अज्ञानियों को ज्ञानी बनाता है, सोतों को जगाता है, अकर्मण्यों को कर्मण्य करता है, सङ्कल्पहीनों को सङ्कल्प कराता है, अनृत से सत्य की ओर ले जाता है, अशिव को शिव में परिणत करता है, असुन्दर को सुन्दर बनाता है।

‘साम’ के शिल्प में ज्ञान-कर्म-उपासना की चित्रकारी है। साम के शिल्प में सङ्गीत है, समस्वरता है, शान्ति की धारा है। कैसे एक-एक, दो-दो, तीन-तीन ऋचाएँ मिल कर सङ्गीत में परिणत होती हैं, यह साम के शिल्प का क्षेत्र है। ‘सा’ और ‘अम’ से मिल कर साम बनता है। ‘सा’ से वाक् अभिप्रेत है और ‘अम’ से प्राण । वाणी जब प्राण के आरोह-अवरोह से सङ्गीत का रूप धारण कर लेती है, तब वह ‘साम’ कहलाता है। उणादि कोष में ‘षो अन्तकर्मणि’ धातु से मनिन्=मन् प्रत्यय करके साम की सिद्धि की गयी है। साम। का शिल्प पाप-ताप आदि का अन्त करता है, इस कारण उसे साम कहते हैं। उणादि के एक वृत्तिकार श्वेतवनवासी ने ‘षो’ धातु को यहाँ गानार्थक माना है। ऋचा पर साम का गान होता है।

हे ऋक् और साम के शिल्पो ! मैं तुम्हें ग्रहण करता हूँ, अपने जीवन में उतारता हूँ। मेरे जीवनयज्ञ की समाप्ति तक तुम मेरी आघात-प्रतिघातों से रक्षा करते रहो । हे ऋक् और साम शिल्प के विद्वन् ! आप ‘शर्म’ हैं, शान्ति के गृह हैं, शान्तिधाम हैं । हम आपको नमन करते हैं, ऋक् और साम के शिल्प की विद्या में हमें भी पारङ्गत करने की कृपा कीजिए। हमें शिष्यत्व में न लेकर हमारी हिंसा मत कीजिए, अपितु अपना अन्तेवासी बना कर और ऋक्-साम का शिल्प सिखा कर हमें कृतकृत्य कर दीजिए। आपको पुन: नमस्कार है।

ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. उत्तमा ऋग् उदृक्, तस्या उदृचः आ पर्यन्तम् । एतयज्ञससमाप्ति पर्यन्तमत्यर्थ:-म०।।

२. ऋच्यध्यूढं साम गीयते ।

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