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वेदों की विद्याओं में लगने वाले कर्मभेद (वाम प्रशस्य कर्म) -छैलबिहारी लाल

वेदों में मूर्तमान संसार को बनाने में जो कर्म लगे उनको कभी सूचीकृत करके दस प्रशस्य नाम भेदों में वर्गीकृत किया गया है। यह कर्म प्रसार (प्रैशर) देने वाले कर्मों के रूप में है। अस्त्रेमा। अनैमा। अनेद्यः। अनेभि-शस्त्यः। उक्थ्य। सुनीथः। पाकः। वामः। वयुनम। यहाँ पर हम वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्म का विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।

            इन्दवा वामुशान्ति हि (ऋ. १।२।४) मधुछन्दा ऋषि, इन्द्र वायु देवता, गायत्री छनद, इस कर्म को महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपनी चतुर्वेद विषय सूची में मित्र लक्षण में कार्य करने वाला कर्म बतलाया है और विद्युत एवं वायु की मित्रता द्वारा उशान्ति रूपी कान्ति कर्मों को प्रसारित करने वाला वाम कर्म सिद्धान्त दिया है। हमारे वैदिक ग्रन्थों में इस स्थल का बहुत अधिक तरह-तरह से वर्णन किया गया है। तैत्तरीय संहिता १।४।४।१, शतपथ ब्राह्मण ४।१।३।१९, एतरेय ब्राह्मण २।४।२, ३।१।१, आदि में भी बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में शुक्ल नामक अन्न और अश्वनी उशमसि नामक क्रान्ति कर्म के १०९ भेदों में से एक भेद के साथ इसका प्रयोग दर्शाया गया है।

            ऋ. १।१७।३ में काण्डवो मेधातिथि ऋषि इन्दिरा वरूणो विज्ञान में गायत्री छनद भेद द्वारा विद्युत अग्नि और जल के मित्र लक्षणों में ‘‘ईम’’ नामक ज्वलनशील द्रव्य पदार्थ को वाम नामक प्रशस्य कर्म के द्वारा राये नामक धन को प्राप्त करने सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी सूक्त के ७ से ९ वाले तीन मंत्रों में भी तरह-तरह से प्रयोग करने के सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है।

            ऋ. १।२२।३।४ में विमान विद्या के साथ शून्यता वृत्ति नामक ऊषा किरणों के रूप में वाम नामक प्रशस्य कर्मों के द्वारा आकाश में गमन आदि और हिरण्य-पाणिन नामक सुवर्ण आदि रत्न आदि को प्राप्त कराने में प्रयोग दर्शाया गया हैं। ऋ. १।३०।१८ में शुनशेप ऋषि के अश्विनो विज्ञान में समुद्र और अन्तरिक्ष में दस्त्रा अश्विनी द्वारा ऐसे अश्वों को खींचने में वाम कर्म सिद्धान्तों को दिया है जिसमें मनुष्य आदि प्राणी न लगे हों। इस प्रकरण को एतरेय ब्राह्मण ७।३।४ में भी दिया गया है। ऋ. १।३४।१, ५, १२ हिरण्य स्तूप ऋषि आगिरस सिद्धान्त के अश्विनों विज्ञान के युवम भेद द्वारा तीन बार (गेज प्रणाली) मे वाम कर्म का शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के लिए १२ मंत्रों में बहुत ही विस्तृत वर्णन किया गया है। इन विमान आदि को बनाने में कौन-कौन सी धातु लगेंगी इन सब के साथ तरह-तरह के ईंधन वलों और उनके साथ प्रयोग होने वाले अन्य वल लक्षणों का वर्णन करते हुए अन्तरिक्ष यानों के द्वारा ११ दिन में भूगोल पृथ्वी के अन्त को पहुंचाने वाले विमानों का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकरण को आजकल के अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों के साथ आधुनिक विज्ञान से समन्वय करके आगे का ज्ञान बड़ी अति सहजता पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। ऋ. १।४६।१, ३, ५, ८, में प्रकण्व ऋषि सिद्धान्तों में दिव और उषा नामक प्रकाश और किरणों को मित्र गुणों द्वारा वाम कर्म द्वारा प्रयोग करने का विमान आदि सवारियों में प्रयोग करने के सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी प्रकरण से सम्बन्धित ऊषा और प्रकाश को विमान विज्ञान में प्रयोग करने में वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्मों के सिद्धान्त ४७ वें सूक्त में भी दिये गये हुए हैं। इन स्थलों को भिन्न-भिन्न वेद भाष्यकारों के भाष्यों से एवं चतुर्वेद व्याकरण पदसूचियों के माध्यम से प्राप्त करके संसार के विमान के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ाया जा सकता है। ऋ. १।९३।२, ३, ४ में रहुगणपुत्रों गौतम ऋषि के अग्नि सोम सिद्धान्तों में भूरिक उष्णिक, विराट, अनुष्टुप और स्वराट पंक्ति छनद भेद द्वारा अग्नि और सोम के मित्र लक्षणों में वाम नामक प्रेशर देने वाले कर्म सिद्धान्तों को वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में भी विमान विद्या आदि में अग्नि के सोम से मित्र लक्षणों को विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। ऋ. १।१०८।१, ५, ६ में भी आगिरसकुत्स ऋषि के इन्द्राग्नि विज्ञान में त्रिष्टुप पंक्ति और विराट त्रिष्टुप छनद भेद द्वारा विमान विद्या में तरह-तरह के सिद्धान्तों का शिला सिद्धान्तों का शिल्प क्रियाओं के साथ वाम प्रशस्य कर्म के सिद्धान्त दिये हुए हैं। १०९ वाले सूक्त में भी इस विद्या का और अधिक विस्तार किया गया है। वहां पर अग्नि और विद्युत् के मित्र लक्षण द्वारा यवत अश्विनियों के साथ सूर्य और पवन का संयोग वाम नामक प्रशस्य कर्म में लगाने का सिद्धान्त दिया गया है।

            ऋ. १।११९।९ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनी विज्ञान सिद्धान्त में यम वायु और श्वेत प्रकाश के साथ वाम नामक प्रशस्य कर्म को विमान विज्ञान की शिल्प क्रियाओं के प्रयोग करने का सिद्धान्त दिया गया है। इसी सूक्त में ११ से १३ वाले मंत्रों में नश, नासत्या और पुम भुजा नामक अश्विनी के साथ वाम प्रशस्य कर्म का प्रयोग दर्शाया गया है। २१-२८वें मंत्र में भी इसको विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। इससे अगले सूक्त में छंद भेद से ५, २, ४, ९, १०, १५, १८, २२, २३, २५ (२। ३९।८) में भी वाम नामक प्रशस्य कर्म की विद्याओं का भिन्न-भिन्न प्रयोग सिद्धान्त दर्शाया गया है। ऋ. १।११८।१ (२।५८।३) ४, ५। १०। ११ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में (श्येनपत्या) बाज के समान उड़ने वाला, पवन के समान वेगवाला, मन के समान गति वाला रथ या यान ऊपर से नीचे  उतरने का वाम सिद्धान्त दिया है। भिन्न-भिन्न मंत्रों में त्रिष्टुप छन्दों के माध्यम से जलयानों की गति वायुयानों का ऊपर-नीचे आने जाने का सिद्धान्त दिया है। जैसे ऊषा धीरे-धीरे प्रकाशित होती है उसी प्रकार क्रम से गति को बढ़ाया घटाया जाने को दर्शाया है। इन मंत्रों में जवसा गति का सिद्धान्त महत्व रखता है।

            ऋ. १।११९।१; २; ४;५; ७; ९ में दीर्घतमसः कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में जगती तथा त्रिष्टुप छन्दों द्वारा विमान विद्या की भिन्न-भिन्न कार्य प्रणलियों को प्रकाश्ति किया गया है। प्रथम मंत्र में (जीराश्वम्) गति वाले अश्व (इंजन) का वर्णन है। अश्विनौ विद्या में प्रशस्य कर्म से एक ऐसे विशाल यान को दर्शाया गया है जिसमें सैकड़ों भंडारण हों, हजारों पताकाएँ लगी हों। यह जलयान का वर्णन है। (ऊध्र्वाधीतिः) समुद्र लहरों पर ऊपर-नीचे करने का सिद्धान्त है। यहाँ (धर्मं) और (ऊर्जानी) पदों से सौर ऊर्जा सिद्धान्त दिया गया है जिससे प्रकाश के लिए यानों में दूसरा प्रयोग हो सके।

            ऋ. १।१२०।१; ३; ५; में उशिक पुत्रः कक्षीवान ऋषि तथा अश्विनौ देवता हैं। छनद गायत्री व उष्णिक छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म सिद्धान्त दिए हैं। यानादि में प्रकाश की आवश्यकता होती है। यहाँ इन मंत्रों में प्रकाश विद्या का वर्णन है। (जोषे) कान्ति या प्रकाश के लिए विद्या-विज्ञान का विधान करने को कहा है। ऋ. १।१२२।७; ९; १५ मंत्रों के कक्षीवान ऋषि विश्वेदेवा हैं। इन मंत्रों में त्रिष्टुप, पंक्ति छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म का सिद्धान्त दिया है एवं मित्र-वरूण क्रिया (उठाने गिराने की क्रिया) से चलने वाले यन्त्र विशेषों का सिद्धान्त है। चार के स्थान पर तीन व्यवधानों को नष्ट करना चाहिए अर्थात् क्रम से ही यन्त्रों की कमी दूर करनी चाहिए। ऋ. १।१३५।४, ५; ६; मन्त्रों के परूच्छेय ऋषि दृष्टा, वायुदेवता व अष्टि छनद हैं। प्रशस्य कर्म के लिए इन्द्र + वायु के प्रयोग से वाम क्रिया का दिग्दर्शन कराया है। विद्युत् वायु के योग से अनेक शिल्प क्रियाऐं हुआ करती है। अतः विमान विद्या में इनके प्रयोग का सिद्धान्त दिया है।

            ऋ. १।१३७। १-३ मंत्रों के परूच्छेप ऋषि, मित्रावरूणौ देवते, शक्चरी छनद हैं। मित्र + वरूण विज्ञान से वाम् क्रिया द्वारा यन्त्रों की क्रियाशीलता प्रकट हो रही है। (इन्दवः) द्रव का बूंद-बूंद होकर टपकने से यंत्र में गति प्रदान होती है यह गति ही समस्त जगत के कार्यों का सम्पादन करती है। ‘अद्रिभि’ क्रिया से यन्त्रों में स्निग्ध अर्थात् चिकनाई पहुँचाने की विधि या सिद्धान्त दिया गया है। आगे सूक्त १३९ के मंत्र ३, ४, ५ के परूच्छेप ऋषि, अश्विनौ देवता। अष्टी, व जगती छनद हैं। ‘‘स्वर्ण-यान’’ भारत के प्राचीन वैभव को उजागर कर रहे हैं। अश्विनौ विज्ञान-विमान विद्या की अंगभूत इकाई है जो विमानों की गति को नियंत्रण में रखती है। (पवयः) पहियों को घूमने की दिशा व दशा को प्रदान करने की क्रिया विशेष जिससे यान दिशा परिवर्तन व गति परिवर्तन कर सकें। (दिविष्टषु) आकश मार्ग में ही अग्नि आदि पदार्थों को प्रयुक्त करके नीचे न गिरने वाले सिद्धान्त को दर्शाया गया है। अर्थात् ऊपर की ही ओर उड़ान भरने का सिद्धान्त जैसे (राकेट) ऊर्ध्वयान। इन यानों के विषय में पांचवें मंत्र में कहा कि ये यान दिन रात चलते रहें तो भी ये नष्ट नहीं हो सकते। ये रहस्यमयी वेदविज्ञान-विद्याएं मंत्रों में छिपी पड़ी हैं। इन्हें उजागर कर हम आर्यावर्त्त के प्राचीन गौरव को पुनः प्रतिष्ठित करें, भगवान से यही प्रार्थना है।

            ऋ. १।१५१।२; ३; ६-९; मंत्रों के दीर्घतमा ऋषि, मित्रा वरूणौ देवता तथा जगती छनद भेद हैं। शिल्प क्रियाओं में प्रशस्य कर्म भेद से वाम क्रिया द्वारा ऋषि ने विज्ञान के सिद्धान्त निरूपित किए हैं। यहाँ पृथ्वीस्थ कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए मिस्त्रावरूणौ विज्ञान का समावेश है। ऋ. ६।१५२।३; ७ (३।६२।१६) प्रथम मंडल के सूक्त १५२ में दीर्घतमा ऋषि, मित्रावरूणौ देवते तथा त्रिष्टुप छनद भेद है। इन मंत्रों में वेद-विद्या के विभाग करने को कहा है जिससे विद्याओं को वर्गीकरण होकर उन-उन पर अलग-अलग क्रियाएँ की जा सकेंगे। अगले सूक्त के मंत्र १-४ तक मित्रा वरूणौ विज्ञान है। ऋषि दीर्घतमा, देवता मित्रावरूणौ छनद त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। १।१५४।२ के दीर्घतमा ऋषि, विष्णु देवता निचृत जगती छन्द हैं। मंत्र में इन्द्र विष्णु विद्या दी गई है। विद्युत् किसी कार्य-क्रिया को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाती है। ऋ. १।१५७।६ दीर्घतमा ऋषि, अश्विनौ देवते, विराट् त्रिष्टुप छन्द विमानों में चिकित्सा आदि का प्रबन्ध का होना अनिवार्य हो।

            ऋ. १।१५८। १-४ दीर्घतमा ऋषि अश्विनौ देवता, त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। सूर्य और पवन के योग से जो कार्य सिद्ध होते हैं वह विद्या दर्शाई गई है। अगले सूक्त १।१८०।१; २-५; ७, १० के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते। त्रिष्टुप, पंक्ति छंद भेद। अश्विनौ विद्या एवं प्रशस्य कर्म से (द्याम् परि इयानम्) आकाश को सब ओर से जाते हुए रथ (विमान) को स्वीकार करें। अगले सूक्त १।१८१।१७-८९ के अगस्त्य ऋषि अश्विनौ देवते, त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। पूरा सूक्त वाम् क्रिया से संबंधित है यहाँ पूरे सूक्त में वाम कर्म द्वारा अश्विनौ-विज्ञान को सिद्ध किया है। ऐश्वर्य के लिए मन के समान वेगवाले यानों का होना दिखाया है। १।१८२।८ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता हैं, स्वराट् पंक्ति छन्द हैं। अश्विनौ विज्ञान से यंत्रों में बल (शक्ति) को किस प्रकार बढ़ाया जाता है इसके विषय में कहा गया है। ऋ. १।१८३।३, ४ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। यहाँ सर्वाग सुन्दर रथ (विमान) विद्या को दर्शाया है और ऐसा विमान बनाने का वर्णन है जिसे कोई चोर, ठग अपहरण न कर सके।

अर्थात् अपहरणकत्र्ता का जिसमें प्रवेश ही न होने पाये। ऋ. १।१८४।१; ३; ४; ५; ६; अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता। पंक्ति और त्रिष्टुप छन्द भेद् द्वारा अश्विनौ विद्या का विधान है। वाम कर्म द्वाराशिल्प क्रियाओं के सिद्धान्त दिये हैं। अन्तरिक्ष में दिशाओं का ज्ञान करके विमान चालन की क्रिया को दर्शाया गया है। ऋ. १।१८५।४ के अगस्त्य ऋषि द्यावा पृथिव्यौदेवते निचृत् त्रिष्टुप छंद हैं। पृथ्वी से सूर्यादि प्रकाशित लोकों तक का विज्ञान प्रशस्य कर्मों द्वारा कैसे सिद्ध किया जा सकता है इसके लिए अगस्त्य ऋषि ने मंत्र में कहा है कि यानों को किस प्रकार संतापरहित करके सुख पूर्वक विचरण कर सकते हैं। और भी वाम् नामक प्रशस्य कर्म के चारों वेदों में अनेक स्थल उपलब्ध हैं।

वेद विद्या अनुसंधान, बारहद्वारी,

पसरट्टा हाथरस (अलीगढ़)-२०४१०१

वर्तमान परमाणु (एटम) की उत्पत्ति और वेद -ब्रह्यचारी अग्निव्रत नैष्ठिक

जिस समय डाल्टन का परमाणुवाद संसार के सम्मुख प्रस्तुत हुआ उस समया एटम (परमाणु) को किसी भी पदार्थ का मूल कण माना जाने लगा परन्तु इलेक्ट्रोन आदि की खोज से डाल्टन का परमाणुवाद इतिहास की बात होकर रह गया। एटम को विखण्डित करते-करते आज मूल कण कहे जाने वाले कणों की संख्या दौ सौ के लगभग ही हो चुकी है। इन कणों को भी वैज्ञानिक उत्पन्न कर रहा है, दूसरों में परिवर्तित कर रहा है उदासीन पाई मैसोन की त्रिज्या १० से, मानी जा रही है तब इन्हें कैसे मूलकण माना जाये ?

            आज एटम का स्टेण्डर्ड मॉडल प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रारूप में छः क्वार्क (u, d, c, b, t) तथा छः लैप्टोन (इलेक्ट्रॉन, म्यूऑन, टाऊन, इलेक्ट्रॉन-न्यूट्रिनो, म्यूऑन-न्यूट्रिनो तथा टाऊन-न्यूट्रिनो) ये मूल कण कहे जा रहे है। अन्य मूल कणों को इन्हीं से निर्मित माना जा रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है-

All evidences point to the fact that the leptons have no internal structure and are point particles. They are considered more elementary than handrons which have internal structure ¼quark-structure½ Leptons and quarks seem to be at the same level of elementriness.

            ¼Atomic & Nuclear Physics – Vol. II S.N. Ghoshal-New Delhi, P.९०५½

            अर्थात् लप्टोन तथा क्वार्क कणों की आन्तरिक संरचना नहीं होती इस कारण ये कण प्रोटीन, न्यूट्रोन आदि कणों की अपेक्षा अधि कमूल कण हैं। इसके आगे यही ग्रन्थकार लिखता है-

            Each type of Lepton is associated with a neutrino. The elementriness

            अर्थात् प्रत्येक लेप्टान के साथ लगभग शून्य द्रव्यमान का कण न्यूट्रिनों संयुक्त होता है। इस कण के बारे में ब्रिटिश वैज्ञानिक लिखते हैं-

            Every particles is accompanies by another particles called neutrino which mass in rest is zero. It is high energy particles. Its speed is equal to light speed.

            ¼Atomic energy-macmillon & Co.Ltd.-London-१९६२½

            अर्थात् विरामावस्था में शून्य द्रव्यमान वाला न्यूट्रिनो कण प्रत्येक कण के साथ संयुक्त होता है जिसमें उच्च ऊर्जा होती है तथा प्रकाश वेग गति करता है।

            प्रश्न यह है कि क्या न्यूट्रिनो तथा उसके संयोगी कणों का संयोग अनादि है? ऐसा हो ही नहीं सकता तब ये कण भी विशेषकर वे जिसके साथ न्यूट्रिनों का संयोग अनिवार्य है, मूलकण नहीं हो सकता तब सिद्ध है कि लेप्टोनों का निर्माण कभी न कभी हुआ है। इसी प्रकार क्वार्क कणों के साथ ग्लूऑन कणों की कल्पना की जाती है। जिस आधार पर लेप्टोनों का अनादित्व असिद्ध हुआ उसी प्रकार क्वार्कों का भी अनादित्व असिद्ध होगा। तब जो कण अनादि नहीं हो सकते वे मूल कण भी कैसे कहे जा सकते हैं? फिर वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रत्येक कण गतिशील ही होता है। वेद भी ऐसा स्पष्ट रूपेण कहता है। विज्ञान और वेद दोनों ही यह भी मानते हैं कि कणीय गति से ही कणों की सत्ता है।

            वायवायाहि दर्शते मे सोभा अरंकृताः तेषां पाहि-ऋग्वेद १/२/१

            मंत्र बतला रहा है कि गति गुण ने ही संसार भर के मूर्तिमान पदार्थों को सजा रखा है और वही इनकी रक्षा भी कर रहा है।

            विज्ञान के शब्दों में-

Only Few are stable, such as the proton, electron, neutrino, positron, photon, and poton, the rest are all unstable.

            ¼ Atomic & Nuclear Physics-S.N.GHOSHAL, P.९०१½

            निश्चित ही गति की सत्ता अनादि नहीं है तब वर्तमान में मूलकण कहे जाने वाले कणों में से कोई भी कण आद्य अवस्था में विद्यमान नहीं था। जब इनका अस्तित्व गति के अभाव में समाप्त हो जाता है तब ये कण किसमें परिवर्तित हो जाते हैं उस सत्ता को मूलावस्था क्यों न माना जाय? प्रश्न यह भी है कि बिना गति इन कणों की सत्ता रहती नहीं और वैज्ञानिक इन कणों का द्रव्यमान विराम अवस्था में ही मापते और बतलाते हैं तब क्यों कर इन्हें विराम में प्राप्त कर पाते हैं? फिर वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि गतिशील कण का द्रव्यमान अपेक्षाकृत वर्धमान होता जाता है। इससे सिद्ध है कि ऊर्जा में कुछ न कुछ द्रव्यमान अवश्य होता है।

            अब वैज्ञानिक सृष्टि की आदिम अवस्था में इन कणों का निर्माण स्वीकार करते हैं, वे मानते हैं कि प्रारम्भ में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कल्पनातीत ताप था।

            Thus at the time + १०-४५ after zero time the temperature was about १०-३२ K. Between + १०-३५ s only rwo of the fundamental interactions were operative. These were the unfield strong weak force and the gravitati onal force. A type of very heavy particles are called the X-Bosons exited during the period, which  helped change the quarks into leptons and vikce weasa———-As we approached the time + १०-१०s there is defreezing of the strong plus electron weak interaction is and the two interactions now appear as Distinct. So there are now the there fundamental interaction – gravitational strong nuclear and electro weak in operation. W+ and Zo Bos appear at + १०-१० s The electron weak interaction begin to defreeze electro-megnetic and weak forces become seperated now we have all the four distinct interactions operative. Between १०-६s -१०-४s there is another transition. The neutrons and the protons being to take shape due to the combination of the quark. So that the fundamental particles are produed familiar to us in the present day universe begin to appear.

            At about + १०-३s the temp has fallen to ८*१० १० K. Hundrads of different elementry particles are produced by collisions at the available energy.

            At the time zero plus there minutes the temp is about to ७० times, that found in the core of the sun. This is when the protons and neutrons begin to combine to from the complet nueclai.

            The formation of the atoms came much later at the time zero plus ५००००० years. The universe cooled down sufficiently so that electrons and the nuclei could join together to from the atoms.

            { Atomic and Nuclear Physics – Page ९५१-५२}

            उपर्युक्त उदाहरण पर विचारने से निम्न तथ्य सामने आते हैं-

१.        आदिम अवस्था का ताप सूर्य के केन्द्रीय ताप का १ करोड़ अरब गुना था, जो वर्तमान में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहीं सम्भव नहीं होगा।

२.        उस ताप में अत्यन्त तेजी से गिरावट आती है।

३.        उस समय किसी भी प्रकार के कण नहीं होते हैं। कहा गया है कि सर्वप्रथम उत्पन्न बोसोन कण लेप्टोन को क्वार्क तथा क्वार्कों को लेप्टोनों में परिवर्तित करते हैं।

४.        लगभग ५ लाख वर्ष में एटम का निर्माण हो पाता है।

५.        पूर्व में दो ही बल थे जो बाद में चार बलों में विभक्त हो गये। उपर्युक्त बिन्दुओं की समीक्षा से निम्न प्रश्न उपस्थित होते हैं-

१.  वह उच्चतम ताप कैसे, किसमें तथा किसके द्वारा उत्पन्न हुआ? यदि ईश्वरीय सत्ता को भी यह प्रश्न शेष रहेगा कि ताप किस प्रकार तथा किस उपादान पदार्थ से उत्पन्न किया गया। यह ताप वाली स्थिति अनादि तो हो नहीं सकती तब उपर्युक्त प्रश्न अनुत्तरित रहेगे ही।

२.  उस ताप में इतनी तेजी से गिरावट आना भी कैसे हुआ? केवल ३ मिनट में ताप १० ३२ K से लगभग ३-४ अरब K तक पहुंच जाना अप्रत्याशित सा प्रतीत होता है। केवल तीन मिनट में नाभिकों का निर्माण हो जाना जबकि एटम के निर्माण में ५ लाख वर्ष, लगे, यह बात उचित प्रतीत नहीं होती।

३.  बोसोनों की उत्पत्ति के पश्चात् क्वार्क से लेप्टान तथ लेप्टान से क्वार्क बनने के सिद्धान्त में अन्योन्य आश्रय का दोष आयेगा। इन दोनों में कौन प्रथम, इसका उत्तर कैसे दिया जायेगा? फिर जो प्रथम बना तो किससे और यदि दोनों एक साथ कैसे बने और जिससे भी बने उसी से फिर क्यों नहीं बने ?

            जैसा कि हम विचार कर चुके हैं कि अब तक मूलकण कहे जाने वाले कणों में से मूलकण कोई प्रतीत नहीं होता, हाँ ग्लूऑन, न्यूट्रिनों, फोटोन जैसे कुछ कण अवश्य ही ज्ञान कणों में प्राथमिक प्रतीत होते हैं।

                        -: अब हम वैदिक विचारधारा को प्रस्तुत करें:-

            सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि सृष्टि सृजन के पूर्व अर्थात् आदिम अवस्था क्या थी?

            गीर्णिभुवनं तमसापगूढ़म……………ऋग्वेद १०१/८८/२

            अर्थात् उस समय सब कुछ निगला हुआ सा और अंधकार से आवृत था।

            तम आसीत्तमसागूढ़मग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्। ऋग्वेद १०/१२९/३

            अर्थात् सबको लीन किये हुये चिन्ह रहित तथा अंधकार से आवृत और सब ओर व्याप्त यह प्रकृति थी।

            नासदासीनों सदासीत्तदानीं नासीद्वजः ऋग्वेद-१०/१२९/१

            अर्थात् उस समय शून्य रूप असत् आकाश भी नहीं था क्योंकि उसका व्यवहार नहीं था और न ही सत् अर्थात् सत्व, रज, तम से बना प्रधान ही था अथवा उस समय अभाव रूप असत् तथा भावरूप व्यक्त जगत् दोनों ही नहीं थे। और न रजस् अर्थात् परमाणु ही थे। इसी को  भगवान मनु ने इस प्रकार कहा-

            आसीदिदं तमोभूतम प्रज्ञातम लक्षणम्।

            अग्रतक्र्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः।। मनु १/५

            अर्थात् उस समय की अवस्था पूर्णतः अन्धकारमय, न जानने योग्य, लक्षणविहीन, तर्क न करने योग्य प्रसुप्त जैसी थी। कोई ध्वनि, प्रकाश, गति आदि कुछ भी नहीं था।

            इसके साथ

            ऽस्वधया तदेकम्…………………..ऋ. १०/१२९/२

            अर्थात् वह परमात्मा स्वधा (प्रकृति ) के साथ रहता है क्योंकि

            योऽस्याधयक्षः………………………..ऋ. १०/१२९/७

            अर्थात् वह परमात्मा ही इस सृष्टि का अध्यक्ष है, वही इसकी रचना, पालन तथा धारण आदि करता है। वेद यह भी स्पष्ट करता है कि उपर्युक्त अवस्था न केवल स्थान विशेष में बल्कि…………..

            तिरश्र्वीनोक्तितो रश्मिरेषामधः रिवदासीदुपरि स्विदासीत्……………. -ऋ. १०/१२९/५

            उपर्युक्त बिन्दुओं पर विचार करने पर निम्नलिखित तथ्य प्राप्त होते हैं-

१.        वह अवस्था पूर्णतः अंधकार व प्रसुप्त होने से अव्यक्त एवं अज्ञेय ही होती है। जिस प्रकार हम किसी वस्तु को निगल लेते हैं तब निगली हुई वस्तु का अभाव तो नहीं होता परन्तु वह छिप जाती है। इसी प्रकार उस समय सब कुछ अंधकार द्वारा निगला हुआ होता है। अंधकार, शांत, निष्क्रियता की सीमा इतनी कि उससे अधिक ब्रह्माण्ड में कहीं एवं कभी सम्भव नहीं हो सकती।

वैज्ञानिक प्रारम्भिक अवस्था को अत्यन्त तप्त, तेजस्वी बतलाते हैं जहां प्रकाश एवं ऊष्मा की चरम सीमा है जो कहीं तथा कभी उसके पश्चात् कल्पित भी नहीं की जा सकती जबकि वैदिक विचारधारा इसके ठीक विपरीत है अर्थात् उस समय इतना शैत्य जितना कभी और कहीं भी इस ब्रह्माण्ड में इस अवस्था के पश्चात् सम्भव नहीं है।

२.        उस समय एटम आदि नहीं होते हैं। यहां ‘परमाणु’ शब्द का अर्थ एटम या अणु (मॉलीक्यूल) आदि ही है न कि सबसे सूक्ष्म कण भगवान यास्क के शब्दों में-

अर्थात् प्रकाश एवंज ल का सूक्ष्मतम कण वा लोक को रजस् कहते हैं। प्रकाश का सूक्ष्म कण फोटोन जल का एक अणु अर्थात् किसी भी साधन से दृष्टि में आने योग्य कण वा लोक लोकान्तर। ये सभी उस समय अविद्यमान थे।

३.        उस समय जो भी मूलकण होते हैं, वे सलिल अवस्था जैसे होते हैं। ‘‘सलति गच्छति निम्नं देशं सलिलम्’’ अर्थात् जो नीचे की ओर सरकता है, फिसलता है ‘सलिल’ कहलाता है। इस का तात्पर्य यह नहीं कि उस समय ऐसी अवस्था वास्तव में होती है बल्कि यहां आशय मात्र यह है कि कण परस्पर किसी भी प्रकार के चिपचिपेपन से रहित अर्थात् एक दूसरे पर पूर्णतः फिसलने योग्य होते हैं। पूर्णतः पारस्परिक बन्धन (आकर्षण या प्रतिकर्षण) रहित। और यह सलिल भी कैसा था।-

आपं वा इयमग्रे सलिल…………………….मासीत् तै. १/१/३/५

अर्थात् प्रारम्भ में यह ‘आपस्’ ही सलिल था। और आपस् क्या है-

अिर्वाइदं सर्वमाप्तम्……………….शतपथ १/१/१/१४

अर्थात् ऐसा पदार्थ सर्वत्रव्याप्तथा और भी-

अगृता ह्यापः……………………..-शत. ३/९/४।१६

            अर्थात् वह आपस् अमृत था अर्थात् अनादि था ऊपर, नीचे, दांये, बांये सर्वत्र वह सलिल रूपी मूलपदार्थ भरा रहता है। इसी कारण आकाश अर्थात् अवकाश का अभाव बताया गया है।

४.        इस अवस्था को वेद ‘स्वधा’ नाम से सम्बोधित करता है।

स्वधा शब्द का अर्थ है- ‘‘स्वं दधातीति स्वधा’’ अर्थात् जो स्व को धारण करती है। अब स्व क्या है-

स्वरित्यसौ (द्यु) लोकः-शत. ८/७/४/५

अन्तो वै स्वः – ऐत. ५/२०

अर्थात् द्यु को धारण करने वाली। यहां ‘द्यु’ शब्द का अर्थ विद्युत् से है अर्थात् जो विद्युत को धारण करने वाली है।-

यजुर्वेद ३३/२२ के शब्दों में- ‘‘अमृतानि तस्थौ’’ अर्थात् विद्युत रूपी ‘स्वधा’ कहा।

            इस स्वधा को शतपथकार ने और भी स्पष्ट किया-

            स्वधाकांर पितरः (उपजीवन्ति) – शत. १४/८/१

            मत्र्याः पितरः – शत. २/१/३/४

            अर्थात् जो उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं, वे पदार्थ वा कण पितर कहलाते हैं तथा वे पितर स्वधा के कारण ही जीवित रहते हैं अर्थात् वह पदार्थ जिसके आश्रय पर विनाशी कण निर्भर हैं, स्वधा कहलाता है और इसी का अपर नाम प्रकृति है।

५.        इस अव्यक्त स्वधा प्रकृति के साथ परमात्मा चेतन तत्व सदैव रहता है जो सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माता, नियन्त्रक व संचालक है। उसके बिना उस निष्क्रिय, शान्त, अन्धकारावृत मूलपदार्थ प्रकृति में क्रिया का होना सर्वथा असम्भव है।

अब प्रकृति की इस स्थिति के गुणों पर विचार करते हैं। वर्तमान विज्ञान इस स्थिति तक विचार नहीं पाया है। वेद उस अव्यक्त प्रकृति को ‘‘त्रितस्य धारया” -ऋ. ९/१०२/३ तथा ‘त्रिधातु’ – ऋ. १/१५४/४ कहकर तीन सत्व, रजस् तथा तमस् का बोध करा रहा है। वेद में अनेकत्र प्रकृति के त्रैत का उल्लेख है।

            इस त्रैत को भी ‘सलक्ष्मा’ ऋ. १०/१२/६ कहकर साम्यावस्था वाली सिव् कर रहा है प्रकृति के त्रैत और उसकी साम्यावस्था विषय में भगवत्कपिलर्षि ने लिखा-

            सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः – सांख्य दर्शन १/२६

            अर्थात् सत्व, रजस् तथा तमस् की साम्यावस्था का नाम, प्रकृति है। अब यह विचारणीय है कि सत्व, रजस् तथा तमस् क्या है? इनकी साम्यावस्था क्या है? कुछ आर्य विद्धान् प्रोटोन, इलेक्ट्रोन तथा न्यूट्रोन को क्रमशः सत्व, रजस् तथा तमस् मानते रहे हैं परन्तु अब इलेक्ट्रोन को छोड़कर अन्य कणों की मौलिकता विज्ञान ने असिद्ध कर दी है। हमारीदृष्टि में इलेक्ट्रोन भी मूल कण नहीं है।

            अब क्रमशः सत्व, रजस् तथा तमस् पर विचार करते हैं-

            ‘‘प्रीत्यप्रीति विषादाद्यैर्गुणाना मन्योन्य वैधम्र्यम्” – सां. द. १/९२

            ‘‘प्रकाशशीलं सत्वं क्रियाशीलं रजः स्थितिशीलं तमः” – यो. द. २/१८

            प्र व्यासर्षि भाष्य अर्थात् सत्व प्रीति आकर्षण एवं प्रकाश युक्त, रजस् अप्रीति (प्रतिकर्षण) तथा क्रियाशीलता युक्त तमस् विषाद् (उदासीनता) युक्त तथा स्थितिशील है। सांख्य सिद्धान्त में ख्यातिर्लब्ध आर्य विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इनके अतिरिक्त अन्य गुणों का भी वर्णन किया है। यथा-सत्व = लघु, रजस् = चल तथा प्रवर्तन, तमस् = उदासीन एवं अकर्मण्य।

            अर्थात् ऐसा कण जो प्रकाश तथा आकर्षण का अधिष्ठान होते हुये लघु हो, सत्व, ऐसा कण जो क्रियाशीलता गति तथा प्रतिकर्षण का अधिष्ठान हो, रजस् तथा ऐसा कण जो गुरूता तथा निष्क्रियता का अधिष्ठान हो तमस्, साथ में ये सभी आदि मूलकण होवें। वर्तमान में कहे जाने वाले मूलकणों में से न्यूट्रिनों, फोटोन तथा ग्लूऑन की स्थिति कुछ मूल प्रतीत होती है। फोटोन जैसा सत्व, न्यूट्रोन जैसा रजस् तथा ग्लूऑन जैसा तमस् हो सके परन्तु फोटोन में आकर्षण न्यूट्रोन में प्रतिकर्षण जब तक सिद्ध न हो तथा ग्लूऑन का स्वरूप पूर्ण स्पष्ट न हो तब तक ऐसी तुलना उचित नहीं कही जा सकती। विज्ञान जो भी सिद्ध वा प्राप्त करे, हमारी मान्यता है कि मूल प्रकृति उन मूलकणों का समूदाय है संयोग नहीं जो परस्पर पूर्णबन्धन सहित, शान्त एवं उपर्युक्त गुणों से युक्त होते हैं। इस पूर्ण शिथिल, शान्त अंधकार में-

            ‘‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति” (तै. उप.)

            ‘‘कामस्तदग्रे समवर्तताधि’’ -ऋ. १०/१२९/४

            अर्थात् परमात्मा सर्वप्रथम सृष्टि रचना करने की कामना करता है। किसी भी कार्य के लिये सर्वप्रथम इच्छा का होना अनिवार्य है परन्तु परमात्मा की इच्छा, ज्ञान व क्रिया सब स्वभाविक होते हैं।

            ‘‘स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च” – श्रे्व. उप.

            ळम जिस प्रकार की इच्छा करते हैं, उस प्रकार की इच्छा नहीं बल्कि जीवों के पालनार्थ ( भोग एवं मोक्ष हेतु) इच्छा करता है। भगवान मनु ने कहा-

            ‘‘व्यंजयत्रिदम्……………………….प्रादुरासीतमोनुदः।’’ -मनु. १/६

            अर्थात् उस अंधकारमयी प्रकृति का प्रेरक इस जगत् को प्रकटावस्था में लाता हुआ परमात्मा प्रकट हुआ। सर्वप्रथम उसने क्या किया-

            ‘‘यानि, त्रीणि बृहन्ति येषां चतुर्थं विनियुक्त वाचम्।’ – अथ. ८/९/३

            अर्थात् जो तीन (सत्व, रजस् तथा तमस्) हैं उनमें चैथा ब्रह्म वाक् नियुक्त कर देता है। यहां यह वाक् का अर्थ सामान्य नहीं होकर गूढ़ अर्थ है।

            ‘‘बाग्वै भर्गः।’’ -शतपथ १०/३/४/१०

            अर्थात् भर्ग (तेज) ही वाक् है, तब अर्थ हुआ कि वह परमात्मा तेजहीन इन तीनों को तेज युक्त कर देता है जगा देता है।

            ‘‘तस्मिन् प्रजापतौ सर्वाणि यानि त्रीणि’’ – अथर्व- १०/७/४०

            कहकर सत्व, रजस् तथा तमस् को परमात्मा की ज्योति रूप जड़ शक्तियां कहा है। इस तेज को ही ऋग्वेद में अग्नि नाम दिया है।

            ‘‘यस्मिन् देवा विदथे मादयन्ते’’ -ऋ. १०/१२/७

            ‘‘यस्मिन् देवा मन्मनि संचरन्ति’’ -ऋ. १०/१२/८

            अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि के शक्तिशाली एवं सक्रिय होने पर ही सभी दिव्य शक्तियां गति और क्रिया का संचार करती हैं। इस विद्युद्रूपाग्नि को मानव कभी जान भी सके परन्तु उस ईश्वरीय तेज को कभी परीखित वा निरीक्षित नहीं किया जा सकेगा। यजुर्वेद में……………….

            ‘‘द्यौरासीत्पूर्वचिति’’……………२३/५४ का भाष्य करते हुये भगवान् दयानन्द कहते हैं कि विद्युत पहिला संचय है। ऋ. ४/१/११ में कहा- स जायत प्रथमः अर्थात् वह विद्युद्रूपाग्नि सर्वप्रथम उत्पन्न होता है ऐसा प्रतीत होता है कि कारणावस्था में परमात्मा द्वारा तेज प्रदान करने से मूल उपादान में क्षोभ उत्पन्न होता है जिससे तीन तीनों गुणों का अन्तर्निहित भाव उत्पन्न होता है आकर्षण, प्रतिकर्णण, प्रकाशशीलता, क्रियाशीलता, गुरूता, लघुता आदि सभी गुण अस्तित्व में आ जाते हैं अथवा जो अन्तर्मुखी थे वे बहिर्मुखी हो जाते हैं। यहां विद्युत् की उत्पत्ति संकेत है परन्तु वास्तव में विद्युत् की उत्पत्ति नहीं होती। वेद विद्युत को ‘प्रत्ना’ (ऋ. ६/६२/५) अर्थात् पुरातन मानता है। यजुर्वेद ३/१६ में भी महर्षि के भाष्य में इसे प्राचीन और अनादि कहा है। त बवह प्रथम अवस्था अव्यक्त होना मात्र है।

            प्रश्न यह हो सकता है कि सभी गुण अव्यत्त वा साम्य कैसे रहते हैं? यह अत्यन्त रहस्यमय तथ्य है कि जिसका उद्घाटन सम्भव प्रतीत मुझे तो नहीं होता। हां इतना भी कहूंगा कि वर्तमान विज्ञान भी व्यक्त ऊर्जा के भी स्वरूप को स्पष्ट नहीं कर सका है तब अव्यक्त को स्पष्ट कर देना क्यों कर सम्भव है? कोई बताये कि स्थितिज ऊर्जा के लिये कोई पिण्ड जब नीचे गिरने लगता है और उसकी स्थितिज ऊर्जा का गतिज ऊर्जा में परिवर्तन होता है। मान लें उस पिण्ड ने नीचे गिरकर किसी वस्तु को तोड़ दिया तब वह ऊर्जा कहां गयी? प्रोटोन तथा न्यूट्रोन की अधिकता वा न्रूवता से कोई वस्तु आवेशित हो जाती है। कोई बताये कि इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि में आवेश क्यों होता है आवेश का स्परूप क्या होता है, सर्वप्रथम इसे कौन उत्पन्न करता है, ये प्रश्न हैं जिनका समाधान नहीं हो सका है तब अव्यक्त को व्यक्त करवाना कैसे सम्भव है? आज तक इलेक्ट्रोन के स्वरूप को भी पूर्णतः जान नहीं पाये जबकि इसके प्रयोग से संसार में विराट् क्रान्ति खड़ी हो गयी तब मूलावस्था में गुणों की साम्यता का स्वरूप दर्शाना क्योंकर हो सकता है?

            कुछ विद्वानों की मान्यता है कि प्रकृति का प्रत्येक कण तीनों गुणों (सत्व, रजस् तथा तमस्) का युग्म है जिनके संयोग विशेष से धन ऋण वा उदासीन कण अस्तित्व में आते हैं। मेरे विचार से इस मान्यता का यह दोष होगा कि आवेश का युग्म अनादि नहीं हो सकता तब प्रकृति का अनादित्व असिद्ध होगा, जो अनेक प्रश्नों को जन्म देगा। इस कारण प्रत्येक कण को स्वतंन्त्र ही मानना होगा और उन्हीं कणों को सत्यार्थ प्रकाश में परमाणु कहा है। कोई यह कहे कि विद्युत् का प्रथम प्राकट्य कैसे होता है? तो इसका उत्तर यह है कि चेतन कत्र्ता के रहते तो यह होना सम्भव है परन्तु इसके बिना अवश्य ही असम्भव रहेगा। मैं तो यह पूछना चाहता हूँ कि प्रारम्भ में अत्युच्च ताप के अस्तित्व को कैसे सम्भव मानते हैं? यह अवस्था तो नियन्त्रक एवं नियामक सत्ता परमात्मा के सहाय से भी सम्भव नहीं। हां कुछ कालोपरान्त अवश्य सम्भव है। मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे विज्ञान उन्नत होगा वैदिक प्रक्रिया को अवश्य स्वीकार करेगा। अब इसके पश्चात्

            ‘‘प्रकृतेर्महान्……………………………’’-सां.द. १/२६

१.        शब्द तन्मात्रा:- इस तन्मात्रा से आकाश की उत्पत्ति मानी गयी है। शब्द तन्मात्रा शब्द ऊर्जा का सूक्ष्मतम रूप है जिसके स्वरूप का निर्धारण करना अति दुष्कर कार्य है। आकाश कोई पदार्थ विशेष न होकर शून्य वा अवकाश का ही नाम है। ऋषि दयानन्द जी का कहना है- ‘‘वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि बिना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सकें’’ (सत्यार्थ प्रकाश-अष्टम समुल्लास)

भगवान कणादर्षि ने शब्द को आकाश का गुण बतलाया है। इस आधार पर अनेक विद्वान् आकाश को शून्य न मानकर पदार्थ विशेष मानते हुए कहते हैं कि गुण शून्य नहीं तो गुणी शून्य क्योंकर हो सकता है? मेरे विचार से वे कणाद ऋषि का आशय नहीं समझते । आचार्य ने शब्द को आकाश का गुण उस प्रकार सहज भाव से नहीं माना है जिस प्रकार अन्य गुण-गुणियों के सम्बन्ध दर्शाये हैं बल्कि अन्य किसी भी भूत का गुण सम्भव न मानकर आकाश के ही शेष रह जाने पर -‘‘परिशेषालिंगमा-काशास्य’’ वै. द. २/१/२७

            इसके आगे आचार्य ने आकाश का समवाय वा असमवाय कोई कारण नहीं माना और न ही आकाश के वायु आदि के समान परमाणु ही स्वीकार किये हैं।

            भगवत्कणाद ने काल, दिशा के समान आकाश को भी निष्क्रिय माना है। मेरे विचार से इन तीनों का व्यवहारार्थ ही उपयोग है। यह न किसी का उपादान है और न उसका कोई उपादान है। इसका मुख्य लिंग आचार्य लिखते हैं-

            ‘‘निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिंगम्।’’ – वै. द. २/१/२०

            अर्थात् निकलना, प्रवेश करना, इस प्रकार की क्रिया का सम्भव होना, आकाश का लिंग है। ऐसे ही गुण कुछ सर आलीवर लाज ने ईथर रूपी आकाश के बताये हैं परन्तु वे इसे पदार्थ विशेष मानते हैं साथ ही ईथर को सर्वव्यापक, प्रसार संकुचन से पूर्णतः रहित मानते हैं, जो उचित नहीं।

२.        स्पर्श तन्मात्रा:- स्मर्तव्य है कि आकाश शून्य है परन्तु शब्द तन्मात्रा शून्य नहीं है। ऐसा अनुमान होता है कि सर्वप्रथम उस तामस् प्रधान अहंकार में शब्द (नाद) उत्पन्न होता है। वैसे महत् अवस्था से ही गति का प्रादुर्भाव मानना होगा अन्यथा अहंकार की उत्पत्ति भी सम्भव न हो परन्तु वह गति क्षेत्रीय सम्पीडन, अक्षीयचक्रण वा कम्पन के रूप में ही हो सकती है।

वायु की भांति उन कणों का स्वेच्छया गति करना, उस समय (प्रारम्भ में) सम्भव नहीं इसी कारण ‘‘आकाशाद्वायुः’’ – तै. उप.

            अर्थात् आकाश से वायु उत्पन्न होता है अर्थात् नाद से हलचल उत्पन्न होना ही वायु का उत्पन्न होना है। कणों की हलचल के समय ही अवकाश उत्पन्न हो जाता है, वहीं आकाश कहलाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार की स्थिति में ही वायव्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है, और उसी स्थिति में विभिन्न कणों का निर्माण होता है। तथा हाईड्रोजन आयनों के निर्माण तक की प्रक्रिया तक की प्रक्रिया स्पर्श तन्मात्रा निर्माण के अन्तर्गत माना जा सकता है। ये सभी कण विशाल गैसीय मेघ के रूप में परिवर्तित हुये। तदुपरान्त-

३.        रूप तन्मात्रा:- सम्भवतः दृश्य प्रकाश के सूक्ष्मतम फोटोन को रूप तन्मात्रा कहते हैं। अब तक जो ऊर्जा थी, उसे अदृश्य तरंगो के रूप ही माना जा सकता है। स्थान-स्थान पर हाईड्रोजन आयनों के संलयन से नेब्यूलाओं को निर्माण होने लगा इसे ही ‘‘वायोरग्निः’’ – तै. उप. कहा। और भी

‘‘अग्निना अग्निः समिध्यते’’ – ऋ. १/१२/६

            अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि से अग्नि प्रकट होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऊर्जा की उत्पत्ति का यह एक नया मार्ग खुल जाता है। जो अब तक जारी है। तब तक ऊर्जा का निरन्तर पतन हो रहा था अब इससे स्थायित्व वा वृद्धि का एक नया स्त्रोत खुल जाता है।

अर्थात् प्रकृति से महत् तत्व का निर्माण होता है इसी को भगवान मनु ने ‘मन’ कहा है। यह महत् तत्व सम्भवतः फोटोन, न्यूट्रिनों एवं ग्लूऑन से पूर्व की स्थिति हो क्योंकि साम्यावस्था भंग होने मात्र से ही महत् तत्व का निर्माण होता है इस कारण ये फोटोन आदि की पूर्वावस्था जिनमें उपर्युक्त सत्वादि गुण हों, होगी। इन तीनों को सात्विक, रजस् तथा तामस् महत् कह सकते हैं। तदुपरान्त- ‘‘महतोऽहंकारः’’ -सां. द. १/२६

            अर्थात् उस महत् तत्व तीन प्रकार का होता है विचारपूर्वक यह प्रतीत होता है कि फोटोन, न्यूट्रिनों तथा ग्लूऑन की स्थिति यहां बन जाती है सम्भव है एक्स वा गामा जैसी किरणों का निर्माण प्रथम होता है और इन्हीं के फोटोन प्रथम निर्मित होते हों। मेहता रिसर्च इन्सटीट्यूट प्रयाग में अन्तराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक डॉ. अशोक सेन का स्ट्रिंग सिद्धान्त यहां प्रारम्भ होता हो परन्तु यहां तक प्रकाश ऊष्मा तो है परन्तु दृश्य प्रकाश की उत्पत्ति अभी वैदिक विचारधारा से तो नहीं मानी जा सकती क्योंकि दृश्य प्रकाश-रूप तन्मात्रा का ही अपर नाम हो सकता है तथा इन से ही लेप्टानों विशेषकर इलेक्ट्रोन, पाजिट्रॉन को भी अहंकार के अन्तर्गत मान सकते हैं, की उत्पत्ति होती है। सात्विक अहंकार गौण तथा तामस की प्रधानता से क्वार्क आदि कणों का भी निर्माण होता है। पुनरपि क्वार्क आदि कणों को अहंकार के अन्तर्गत ही समाहित किया जायेगा। ‘ अहंकार शब्द का अर्थ है जो व्यक्त किया जा सके। अब से पूर्व यद्यपि अव्यक्त अवस्था कब की ही भंग हो गयी परन्तु ऐसी अवस्था जिसे विज्ञान वा बुद्धि द्वारा व्यक्त किया जा सके, वह अहंकार ही है।

            ऐसा प्रतीत होता है कि यहां तक उत्पन्न कण अपने प्रतिकणों से मिलकर अपार ऊर्जा पैदा करते हैं अथवा यह भी सम्भव है कि फोटोन आदि की अधिकता ही उस ऊर्जा का कारण हो जो भी हो मन का वह स्वरूप दृश्य नहीं होगा। इन्हीं प्रक्रियाओं के चलते तन्मात्राओं की उत्पत्ति भी होती जाती है-

            ‘‘अहंकारात् पंचतन्मात्राणि’’ – १/२६ सां. द.

            अर्थात् अहंकार से पांच तन्मात्रायें उत्पन्न होती हैं जिनमें से शब्द तन्मात्रा की उत्पत्ति अहंकार के प्रथम चरण में ही हो जाती प्रतीत होती है।

            प्रश्न यह है कि सूक्ष्म तन्मात्रा क्या होती है अथर्ववेद १/३३/१, ३ में सूक्ष्म तन्मात्राओं के गुण निम्न प्रकार दर्शाये हैं।

            (हिरण्यवर्णाः) अर्थात् व्यापनशील और कमनीय गुणों वाली (यासु सविता यासु अग्निः जातः) जिनमें सूर्य और पार्थिव अग्नि उत्पन्न हुई (याः) जिन (आपः अग्नि द्धिरे) तन्मात्राओं ने विद्युद्रूपाग्नि को गर्भ के सामन धारण किया है (यासां देवाः दिवि भक्षम्) जिन तन्मात्राओं का सब प्रकाशमय पदार्थ आकाश में भोजन करते हैं।

            इससे निम्न तथ्य उद्घाटित होते हैं-

१.  तन्मात्रायें सम्पूर्ण अवकाश रूपी आकाश में फैली रहती हैं।

२.  तन्मात्रायें कमनीय स्वरूप वाली अर्थात् आकर्षण-प्रतिकर्षण आदि बलों से युक्त होती हैं। फोटोन से लेकर नाभिक वा एटम वा आयन इन सबको तन्मात्रायें कह सकते हैं।

३.  सूर्य और पार्थिव अग्नि उनमें होती हैं अर्थात् इनके अन्दर ही नाभिकीय संलयन आदि क्रियाओं के होने से प्रकाशमय पदार्थों द्वारा तन्मात्राओं का भोजन करना लिखा है।

            ‘तन्मात्रा’ शब्द का अर्थ है- उतना सा, सूक्ष्म सा अर्थात् जिसका अपना कोई वैशिष्ट्य हो उसके और सूक्ष्म होने से समाप्त हो जाये। प्रतीत होता है कि भगवत्कणाद का परमाणु है।

            तन्मात्राओं के भेदः

            पंच तन्मात्राओं की उत्पत्ति क्रमशः होती है।

            तन्मात्राओं को प्रकाश में भक्षण करने की बात यही कि हाईड्रोजन का भक्षण हीलियम तथा ऊर्जा की उत्पत्ति होती है इसके उपरान्त ब्रह्माण्ड में अनेकत्र नेब्यूलाओं का निर्माण हो जाता है-

            ‘‘यद्देवा यतयो यथा भुवनान्यपिन्वत।

            अत्रा समुद्र आ गुढ़हमः सूर्यमाजभर्तन।’’ – ऋ. १०/७२/७

            अर्थात् जब दैवी शक्तियां मेघों की तरह लोकों को अपने परमाणुओं से पूरित करती हैं, तब आकाश में निगूढ़ सूर्य को चमका देते हैं। अन्यच-

            ‘‘प्रसीमादित्यो असृजद्विधंर्ता ऋतं सिन्धवो वरूणस्य यन्ति’’        -ऋ. २/२८/४

            अर्थात् सभी ओर विविध लोकों का धारक सूर्य (हिरण्यगर्भ) उदक, नदी और मेघों को प्राप्त होते हैं। यहां उदक, नदी तथा मेघ जल के नहीं बल्कि वह सूर्य ही आग का विशाल समुद्र होता है

 जिसमें अनेक आग्नेय धारायें होती है। अन्दर होने वाली प्रक्रिया के विषय में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय खगोलज्ञ डॉ. जयन्त विष्णु नार्लीकर का मानना है- हाईड्रोजन का संलयन होकर हीलियम के नाभिक पुनः कार्बन पुनः तारे के संकुचन से तारे के ताप में वृद्धि होकर कार्बन तथा हीलियम मिलकर ऑक्सीजन तथा अन्य तत्व नियॉन, सल्फर, नाईट्रोजन से लेकर लोहा आदि सभी तत्व बनते हैं-………………(विज्ञान, मानव और ब्रह्माण्ड, १९९९) इसी प्रक्रिया का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है-

            ‘‘तमिद्गर्भ प्रथमदध्र आपो यत्र देवा समगच्छन्त।।’’ – १०/८२/६

            अर्थात् उस विराट् में स्थित हिरण्यगर्भ को प्रकृति परमाणु पहिले धारण करते हैं जिसमें समस्त पदार्थ संगत होते हैं।

            इस प्रकार वर्तमान में कहे जाने वाले सभी तत्वों के परमाणुओं को निर्माण नेब्यूलाओं में होता रहता है। अब तक सम्पन्न प्रक्रिया में लाखों वर्ष लगते हैं।

            हम इस पर गम्भीरता से विचार करें तो प्रतीत होता है कि वर्तमान विज्ञान तथा वैदिक विचारधारा इस विषय में बहुत भिन्न नहीं है। हां वैदिक विचारधारा वर्तमान प्रचलित विज्ञान की विचारधारा से कुछ आगे है। जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति करेगा, उसे अपनी अवधारणायें परिवर्तित वा स्पष्ट करके वैदिक विचारधारा के अनुकूल आने को विवश होना होगा। अन्त में विषय के अधिकारी विद्वानों की सेवा विनम्र निवेदन है कि लेखक सिद्ध नहीं बल्कि साधक है। न्यूनतायें सम्भव हैं। विद्धान उनको दूर करने का ही यत्न करेंगे ऐसी आशा है।

                                                            प्रधान, आर्य समाज भीनमाल

                                                                                    जनपद-जालौर (राजस्थान) ३४३०२९

वेदों का वनस्पति-विभाग -सुश्री सूर्या देवी आचार्या

सृष्टि के पदार्थों का वर्णीकरण या विभाजन इतना सरल, सुकर नहीं है जितना कि हम समझते हैं, क्योंकि पदार्थ निर्माता परमात्मा अनन्त ज्ञान वाला है अतः उसके निर्माण भी अनन्त हैं दुज्र्ञेय हैं। पृथिवी के जिन पदार्थों को हम अहर्निश देखते हैं, उनमें बाहुल्य उन पदार्थों का होता है जिनके हम नाम तक नहीं जानते, गुण, कर्म को जानता तो दूर की बात है, उनमें कुछ एक ही ऐसे पदार्थ होते हैं जिनके रूप, रंग, नाम, गुण आदि से परिचय रखते हैं, पुनरपि हमारे ऋषि मुनियों ने पदार्थों के वर्गीकरण में उनके विभाजन में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है, अपनी ऊहा से तीनों लोकों के पदार्थों का स्वरूप वैदिक ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है।

            पृथिवी के जिन पदार्थों को वृक्ष, पेड़, बेल, तृण, घास, फूस आदि नामों से पहचानते हैं और नित्य रोपते, उखाड़ते, रौंदते, फेंकते हैं उनका विभाजन आयुर्वेद के चरक, सुश्रुत ग्रन्थों में तथा अन्य चिकित्सकीय शास्त्रों में वनस्पति, ओषधि आदि नामों से किया जाता है। वनस्पतियों का यह विभाजन सुगन्धित छिलके वाली, फल-फूल या बीज की समानता रखने वाली गोंद पाली गांठदार जड़ वाली इत्यादि प्रकार के आधारों पर किया है।

            चरक में इन वनस्पतियों का विभाग औद्रिद द्रव्य के नाम से चतुर्धा वर्णित है-

            भौममौषधमुद्दिष्टम् औद्रिदं तु चतुर्विधम्।

            वनस्पतिर्वीरूधश्र्व वानसपत्यस्तथौषधिः।

            फलैर्वनस्पतिः पुष्पैर्वानस्पत्यः फलैरपि।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः प्रतानैर्वीरूधः स्मृताः।।

                                                                                                चरक. सू. १। ७०, ७१ ।।

            अर्थात् वनस्पति, वीरूध, वानस्पत्य और ओषधि ये चार प्रकार के औद्रिद द्रव्य हैं। फलवाले पौधे, वनस्पति, जिनमें फल और फूल दोनों प्रकार होते हैं वे वानस्पत्य, फल पकने बाद नष्ट होने वाले औषधि तथा बहुत विस्तार वाले वीरूध कहे जाते हैं।

            इसी प्रकार सुश्रुत में भी-

           तासां स्थावराश्र्वतुर्विधाः- वनस्पतियोवृक्षावीरूधऔषधय इति। तासु अपुष्पाः फलवन्तो वानस्पत्यः। पुष्पफलवन्तो वृक्षाः। प्रतानवत्यः स्तम्बिन्यश्र्व वीरूधः, फलपाकनिष्ठा ओषधय इति।                                            -सुश्रुत.सू. १।३७।।

            अर्थात् स्थावर द्रव्य चार प्रकार के हैं-वनस्पति, वृक्ष, वीरूध और ओषधि। जिन पौधों में पुष्प् न हो फल आते हों वे वनस्पति जिनमें पुष्प, फल दोनों आते हो, वह वृक्ष जो फैलने वाले और गुल्म=झाड़ वाले हैं वे वीरूध तथा जो फलों के पकने तक ही जीवित रहते हैं अर्थात् पकने के बाद स्वयं सूखकर गिर पड़ते हैं उन्हें ओषधि कहा जाता है। चरक और सुश्रुत के वचनों में कुछ थोड़ा सा अन्तर है। चरक जिसे वानस्पत्य कहता है सुश्रुत उसे वृक्ष नाम से अभिहित करता है।

            पाणिनीय सूत्र ‘‘विभाषौषधि वनस्पतिभ्यः’’पा. ८।४।६ के व्याख्यान में काशिकाकार जयादित्य ने भी वनस्पतियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है- फलीवनस्पतिज्र्ञेयो वृक्षाः पुष्पफलोपगाः ।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः लतागुल्माश्र्व विरूधः।।  – कशिका, ८।४।६।।

            इस वचन की व्याख्या करते हुये न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि तथा पदमञ्चजरीकार हरदत्त मिश्र ने वनस्पतिः = उदुम्बर, प्लक्ष, अश्र्वत्थ आदि, पुष्पोपगाः = वेतस् बाँस आदि, फलोपगाः = उदुम्बर, प्लक्ष आदि तथा पुष्पफलोपगाः = आम्र इत्यादि वृक्ष होते हैं, अर्थात् जो वपस्पति होता है वह निश्चित वृक्ष होता है, और जो वृक्ष होता है उसका निश्चित रूप से वनस्पति होना आवश्यक नहीं है। औषध्यः = शालि = धान, गेहूं कदली आदि, लता – मालती इत्यादि, गुल्माः = हृस्व शाखाओं वाले होते हैं और वीरूधः = बहुत व पत्तों वाले कहलाते हैं ऐसा व्याख्यान किया है।

            मनु महाराज ने भी वनस्पतियों का विभाग दर्शाया है-

            उद्रिजाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः बहुपुष्पफलोपगाः।

            अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः।

            पुष्पिणः फलिनश्रै्वव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः।

            गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः।

            बीजकाण्डरूहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च।।

                                                                                                – मनु. १।४६, ४७, ४८

            बीज तथा शाखा से लगने वाले स्थावन जीव उद्रिज होते हैं। फल के पकने पर जिनके पौधे नष्ट हो जाते हैं और जिनमें बहुत फल, फूल लगते हैं वे ओषधि कहाते हैं, बिना फूल लगे फलने वालों को वनस्पति और फूल लगने के बाद फलने वाले को वृक्ष कहते हैं।

            इस प्रकार लोक में फल, फूल आदि के आधार पर वनस्पति, वीरूध, ओषधि आदि का विभाजन पृथक्-पृथक् किया गया है, यानी इनका जातिगत भेद स्थापित किया गया है, पर वेदों में वनस्पति, वीरूध औषधि आदि शब्द पर्याय रूप में ही आये हुए हैं अतः वनस्पतियों के विभाग का फल, फूल आदि के आधार पर स्पष्ट संकेत नहीं प्राप्त है अपितु वनस्पतियों के रंग, रूप, गुण आदि द्वारा उनका विभाजन स्पष्ट लक्षित होता है।

            वैसे तो चारों वेदों में ही औषधियों का वर्णन है तथापि अथर्ववेद में बहुलता से दृष्टिगोचर होता है, एतदर्थ ही अथर्ववेद भैषज्य वेद भी कहा जाता है।

            वनस्पतियों के वर्गीकरण के लिये अथर्ववेद के ८ वें काण्ड का ७ वाँ सूक्त विशेष रूप से द्रष्टव्य है। सांकेतिक सूक्त में रूप, रंग, आकार द्वारा वनस्पतियों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है-

रूपभेद- प्रस्तृणती स्ताम्बिनीरेकशुगाः प्रतन्वतीरोषधीरा वदामि।

अंशुमतीः काण्डिनीर्या विशाखा ह्नयामि ते वीरूधो वैश्र्वदेवी रूग्राः पुरूषजीवनीः।।                                                                                                                        – अर्थव. ८।७।४।।

            प्रस्तृणतीः = (स्तृञ् आच्छादने) बहुत छादन करने वाली अर्थात् मूल से ही विभिन्न शाखाओं में फैलने वाली अनार, मेंहदी आदि, स्तम्बिनीः = (स्था + अम्बच्, इनिः) एक तने रूप खम्भे वाली अशोक, कदम्ब आदि, एकशुगाः = एक अकुर, कोपल वाली, आक आदि, प्रतन्वतीः = बहुत फैली हुई ब्राह्मी, हेलेञ्चा, पुदीना आदि, ओषधीः = ओषधियों को, आ वदामि = (मैं परमात्मा या वैद्य) आदेश देता हूँ, बुलाता हूँ, तथा याः = जो, अंशमतीः = काटों वाली, नागफनी, भटकटैय्या, ऊँटकटारा आदि, काण्डिनीः = बहुत काण्ड = शाखा वाली ईख, सरकण्डा, दूर्वा आदि, विशाखाः = शाखाहीन खजूर, ताड़ आदि (विगताः शाखाः) तथा शाखा सहित आम, अमरूद आदि (विशिष्टाः शाखाः), वैश्र्वदैवीः = सभी धारण कराने वाली, वीरूधः = विशेष रूप से उगती हुई ओषधियाँ (विशेषण रोहन्तीति वीरूधः) ते ह्नयामि = तुम्हारे लिये बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            इस मन्त्र में रूप भेद सेऔषधियों का वर्णन है। विभिन्न शाखा, एक तना, काँटा आदि विशेषण औषधियों के रूप को बता रहे हैं। मन्त्र में  ‘ओषधी’ तथा ‘वीरूधः’पद आये हैं जो लोकोक्त अर्थों के वाचक नहीं है। अपितु वनस्पति इस सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हैं।

            रंगभेद- या बभ्रवो याश्र्व शुक्रा रोहिणीरूत पृश्रयः।

            असिक्रीः कृष्णा ओषधीः सर्वा अच्छावदामसि।।                                                                                                -अथर्व. ८।७।१।।

            याः = जो, बभ्रवः = भूरे रंग वाली पोषण, धारण करने वाली, कत्था आदि (डुभृञ् धारणपोषणयोः) याश्र्व = और जो, शुक्राः = श्वेत रंग वाली, वीर्य बढ़ाने वाली, सफेद फूल की कटेरी आदि, रोहिणीः = लाल रंग की अथवा स्वास्थ्य उत्पन्न करने वाली, कुटकी, मजीठ आदि (रूह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च) उत = और, पृश्नयः = चितकबरी (व्याघ्र रूपं वै पृश्निः त्रै. ४।२।२४) , असिक्नीः = श्याम = नील वर्ण वाली, अबद्ध शक्ति वाली, बाकुची आदि, कृष्णाः = आकर्षण करने वाली, काले वर्ण वाली पिपरामूल, पीपल आदि, औषधीः = औषधियाँ हैं, सर्वाः = उन सबको, अच्छ्रावदामसि = अच्छे प्रकार, मैं वैद्य आदेश देता हूँ।

            यह मन्त्र ओषधियों को रंगभेद से वर्णन कर रहा है। औषधीः शब्द सामान्य अर्थ वाली है, फल पाकान्त ओषधि के लिये नहीं।

            टाकर भेद- मधुमन्मूलं मधुमदग्रमासां मधुमन्मध्यं वीरूधां बभूव।

            मधुमत् पर्णं मधुमत् पुष्पमासां मधोः संभक्ता अमृतस्य भक्षो

            घृतमत्रं दुहृतां गोपुरोगवम्।।                                                -अथर्व. ८।७।१२।।

            आसां वीरूधाम् = इन ओषधियों का, मूलं मधुमत् = जड़ माधुर्य वाला, अग्रम् = ऊपरीभाग – सिरा, मधुमत् = माधुर्य युक्त, मध्यमम् = मध्य भाग, मधुमत् = माधुर्य युक्त, पर्णम् = पत्ते, मधुमत् = माधुर्य वाले, पुष्पम् = फूल, मधुमत् = मधुर्य वाले, बभूव = हैं, आसाम् = इन ओषधियों का, अमृतस्य भक्षः = अमृत का भोजन है अर्थात् अमरता देने वाला है मधोः संभक्ताः = मधुरता से परिपूर्ण हैं, गोपुरोगवम् = गौओं का पालन करने वाले या गौओं का प्राधान्य मानने वाले इन ओषधियों से , घृतम् = घी, अन्नम् = अन्न का, दुहृताम् = दोहन करें।

            यहाँ ओषधियों का आकार रूप से वर्णन है तथा गौओं को इन ओषधियों का भक्षण कराके घृतादि पदार्थ ग्रहण करें, यह निर्दिष्ट किया है। मन्त्र का ‘वीरूधाम्’ पद सामान्य रूप से ओषधि अर्थ में प्रयुक्त है। प्रतान विशिष्ट वनस्पतियों के  लिये नहीं।

            यावतीः कितयीश्रे्वमाः पृथिव्यामध्योषधीः।

            ता मा सहसुपण्र्यो मृत्योर्मृञ्चन्त्वहंसः।।                           -अथर्व. ८।७।१३।।

            यावतीः = जितनी, च = और, कियतीः = कितनी भी अर्थात् विभिन्न परिमाण वाली, इमाः = ये, पृथिव्याम् अधि = पृथिवी के ऊपर, ओषधिः = ओषधियाँ है, ताः = वे, सहस्त्रपण्र्यः = सहस्त्र पत्तों वाली, हजार प्रकार से पोषण करने वाली, सफेद दूब आदि (प पालनपूरणयोः) मा = मुझको, मृत्योः = मृत्यु से अहंसः = पाप से, मुञ्चन्तु = छुड़ावें।

            यहाँ पत्तों के आकार रूप से ओषधियों का वर्गीकरण है, और ‘ओषधी’ पद सामान्य अर्थवाला है, फल पाकान्त अर्थ वाला नहीं।

            मुमुचाना ओषधयोऽग्नेर्वैश्वानरादधि।

            भूमिं संतन्वतीरित यासां राजा वनस्पतिः।                        -अथर्व. ८।७।१६।।

            मुमुचानाः = रोगों को छुड़ाने वाली, ओषधयः = ओषधियाँ हैं वे, वैश्वानरात् अग्नेः = सब मनुष्यों को ले जाने वाले, प्रेरक अग्रगणी परमेश्वर से, अधि = अधिकृत होकर, भूमिम् = भूमि पर, सन्तन्वतीः विस्तृत होती हुई दूब, पुनर्नवा आदि लतायें, इतः = गई हुई हैं, यासाम् = जिन ओषधियों का, राजा = राजा, वनस्पतिः = सोम है (सोमो वै वनस्पतिः मै. १।१०।९।।)

            परमेश्वर द्वारा विस्तृत की हुई जो ओषधियाँ हैं, जो रोगों को दूर करती हैं उनका फैलने के आकार रूप से वर्णन है। मन्त्र में आये ‘ओषधयः’ एवं ‘वनस्पतिः’ पद लोक प्रसिद्ध अर्थ वाले नहीं हैं।

            पुष्पवतीः प्रसूमतीः फलिनीरफला उत।

            संमातर इव दुह्नामस्मा अरिष्टतातये।                  -अथर्व. ८।७।२७।।

            पुष्पवतीः = पुष्पों वाली, प्रसूमतीः = सुन्दर, कोमल पलव अकुर वाली, फलिनीः = फलवाली, उत = और, अफलाः = फलरहित ओषधियाँ, संमातर इव = सहयोगी माताओं के समान, अस्मै = इस रूग्ण मनुष्य के लिये, अरिष्टतातये = कल्याण के लिये, स्वास्थ्य के लिये, दुहाम् = दूध देवें।

            यह मन्त्र भी फूलों वाली, पलवों वाली, फलों वाली एवं बिना फलवाली ओषधियों का आकार भेद से वर्णन कर रहा है।

           गुणभेद- जीवलां नघारिषां जीवन्तीमोषधीमहम्।    अरून्धतीमुन्नयन्तीं पुष्पां मधुमतीमिह हुवेऽस्मा अरिष्टतातये।

                                                                                                           -अथर्व. ८।७।६।।

            जीवलाम् = जीवन देने वाली, नघारिषाम् = कभी भी हानि न करने वाली, जीवन्तीम् = प्राण धारण करने वाली, गिलोय आदि, अरून्धतीम् = बाधा न डालने वाली, चोट आदि प्रहारों को भरने वाली, औधा हेली, भंगरैला आदि, उन्नन्तीम् = उन्नत बनाने वाली, पुष्पाम् = फूलों वाली, मधुमतीम् = माधुर्य रस वाली, ओषधीम् = ताप नाशक, अन्नादि ओषधि को (ओषद् (दहत्) धयन्तीति वा ओषति दहति एनाः धयन्तीति वा, दोष धयन्तीति वा। निरू. ९।२६। धेर पाने) इह = यहाँ, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अरिष्टतातये = कल्याण करने के लिये, अहम् = परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            इस मन्त्र में जीवन आदि देने वाली ओषधियों के गुणों का वर्णन है। मन्त्र का ‘ओषधीः’ शब्द सामान्य वनस्पति वाचक है।

            इहा यन्तु प्रचेतसो मेदिनीर्वचसो मम।

            यथेमं पारमामसि पुरूषं दुरितादधि।।                      -अथर्व. ८।७।७।।

            प्रचेतसः = चेतनता देने वाली, मेदिनीः = प्रीति करने वाली, (ञमिदा स्नेहने + अच्, इनिः, डीष्) रूक्षता हटाकर स्निग्धता प्रदान करने वाली ओषधियाँ, इह = यहाँ मेरे पास, मम वचसा = मुझ चिकित्सक के वनन के साथ अर्थात् चिकित्सा का विचार करने पर, आयन्तु = आवें, यथा = जिससे, इमं पुरूषम् = इस मनुष्य को दुरितात्, अधि = कष्ट से ऊपर, दूर, पारयामसि = पार लगा दूँ।

            यह मन्त्र भी ओषधियों के गुणों का वर्णन कर रहा है।

            उन्मुञ्चन्तीर्विवरूणा उग्रा या विषदूषणीः।

            अथो बलासनाशनीः कृत्यादूषणीश्र्व यास्ता इहा यन्त्वोषधीः।

                                                                                                             -अथर्व. ८।७।१०।।

            याः = जो, उन्मुञ्चन्तीः = रोग से मुक्त करने वाली, विवरूणाः = विशेष करके स्वीकार करने योग्य, उग्राः = तीक्ष्ण, बल, गन्ध रसादि वाली, विषदूषणीः = विष हरण करने वाली, इलायची आदि, अथ = और, यः = जो, बलासनाशनीः = बल गिराने वाले सन्निपात, कफ आदि को नाश करने वाली ( बल + असु क्षेपणे + अण्, बलम् अस्यति क्षिपतीति = बलासः, तस्य नाशनीः इति बलासनाशनीः), च = और, कृत्यादूषणीः = हिंसा, पीड़ा मिटाने वाली अजवाइन, लाक्षा गुग्गुल आदि (कृञ् हिंसायाम् + क्यप्, टाप), ओषधीः = ओषधियाँ हैं ताः = वे, आयन्तु = आवें, प्राप्त होवें।

            यहाँ पर विष नाशक औषधियों के गुणों का वर्णन है। ‘ओषधिः’ पद का पूर्वतम् सामान्य अर्थ है।

            उत्पत्ति भेद- अवकोल्बा उदकात्मान ओषधयः।

                           व्यृषन्तु दुरितं तीक्ष्णश्रृड्ग्यः।।    -अथर्व. ८।७।९।।

            अवकोल्बाः = पीड़ा को जलाने वाली, नष्ट करने वाली, शैवाल, काई ये युक्त (अव हिंसायाम् +वुन्, टाप्, उल्वम् ऊर्णोतेः वृणोतेर्वा रिरू. ६।३६। ऊर्णुन्ध्या वृञ् + वन्, वस्य बः रेफस्य लत्वम्, वकारस्य उत्वम् इति उल्बाः)  उदकात्मानः = जल जीवन वाली, जलकुम्भी, कमल, सिंघाड़ा आदि, तीक्ष्णशृड्ग्यः = तीक्ष्ण काट करने वाली, तीक्ष्ण अग्रभाग वाली गोखुरू आदि, ओषधयः = ओषधियाँ, दुरितम् = रोग को, वि ऋषन्तु = बाहर रिकालें (ऋषी गतौ)।

            यह मन्त्र जलीय ओषधियों का उत्पत्ति भेद से वर्णन करता है। ‘ओषधीः’ पद सामान्यार्थक है।

            या रोहन्त्यागिरसीः पर्वतेषु समेषु च।

            ता नः पयस्वतीः शिवा ओषधीः सन्तु शं हृदे।                    -अथर्व. ८।७।१७।।

            आगिरसी = अग्नि, विद्युत् आदि गुणों से युक्त या अगों में रस भरने वाली, पर्वततेषु = पर्वतों में, च = और, समेषु = चैरस भू प्रदेशों में, रोहन्ति = उगती हैं, ताः = वें, पयस्वतीः = दुग्ध तथा रस वाली, शिवाः = कल्याण करने वाली,

 ओषधीः = ओषधियाँ, नः = हमारे, हृदे = हृदय के लिये शम् = शान्तिदायक, सन्तु – होवें।

            इस मन्त्र में पर्वत आदि स्थानों में होने वाली ओषधियों का औत्पत्तिक भेद दर्शाया है। ‘ओषधीः’ पद का अर्थ पूर्ववत् है।

  ओषधि प्रधान भेद- अश्र्वत्थो दर्भो वीरूधां सोमो राजामृतं हविः।   वीहिर्यवश्र्व भेषजौ दिवस्पुत्रावमत्र्यौ।।

                                                                                                -अथर्व. ८।७।२०।।

            अश्र्त्थः = ‘‘वृक्षों में’’ पीपल, दर्भः = ‘‘तृणों में’’ दाभ, कांस, वीरूधाम् = ‘‘लताओं में’’ (विशेषेण रून्धन्ति अन्यान् वृक्षान् इति वीरूधः) सोमः = सोमलता, राजा = ओषधि राज है, अमृतम् = ‘‘प्राकृतिक द्रव पदार्थों में’’ जल (अमृतमिति उदक नाम, निघं. १।१२), हविः = ‘‘जगमज वस्तुओं में’’ यज्ञीय घृत और ‘‘अन्नों में’’ व्रीहि = चावल, च = और, यवः = जौ, तथा दिवस्पुत्रौ = ‘‘आकाशीय पदार्थों में’’ द्यौलोक के पुत्र सूर्य और चाँद, अमत्र्यौ भेषजौ = अगर भेषज हैं, भय निवारक पदार्थ हैं (भेषं भयं जयति = भेषजम्)।

            इस मन्त्र में अश्र्वत्थ, दर्भ, सोमलता आदि को महा औषधि के रूप में वर्णित किया है। विरूधाम् पद वनस्पति सामान्यार्थ का द्योतक है।

            ऋतु भेद- अग्नेर्धासो अपां गर्भों या रोहन्ति पुनर्णघ्वाः।

            ध्रुवाः सहस्त्रनाम्नीर्भेषजीः सन्त्वाभृताः ।। – अथर्व. ८।७।८।।

            अग्नेः = अग्नि का (जठराग्नि का). घासः = जो, पुनर्णवाः = बार-बार नवीन औषधियाँ, ऋतु-ऋतु में, रोहन्ति = उगती हैं वे, ध्रवाः = दृढ़ गुणवाली, सहस्त्रनाम्नीः = हजारों नामों वाली, आभृताः = भली भाँति पुष्ट की हुई, भेषजीः = भय निवारक औषधियाँ, सन्तु = प्राप्त होवें।

            मन्त्र में प्रति ऋतु में पुनः पुनः होने वाली औषधियों का संकेत है जो मनुष्य के लिये उपयोगी हैं तथा शरीर बल बढ़ाने वाली हैं।

            उज्जिहीध्वे स्तनयत्यभिक्रन्दत्योषधीः।

            यदा वः पृश्निमातरः पर्जन्यो रेतसावति।                           -अथर्व. ८।७।२१।।

            पृश्निमातरः = पृथिवी को माता मानने वाली अर्थात् पृथिवी से उत्पन्न होने वाली (इयं पृथिवी वै पृश्निः तै. ब्रा. १।४।१।५), ओषधीः = ओषधियों, उज्जिहीध्वे = तुम खड़ी हो जाती हो, उत्पन्न हो जाती हो (ओहाड्. गतौ) यदा = जब, पर्जन्यः = मेघ, स्तनयति = गरजता है, अभ्रिक्रन्दति = कड़कता है और वः = तुमको, रेतसा = जल से (रेतः उदक नामसु, निघ. १।१२) अवति = तृप्त करता है (अव तृप्तौ)।

            इस मन्त्र में वर्षा ऋतु में होने वाली औषधियों का संकेत है। औषधीः समान्यार्थक है।

            उपयोग भेद- वराहो वेद वीरूधं नकुलो वेद भेषजीम्।

                          सर्पा गन्धर्वा या विदुस्ता अस्या अवसे हुवे।।                   -अथर्व. ८।७।२३।।

            वराहः = सूअर, वीरूधम् = औषधी को, वेद = जानता है, नकुलः = नेवला, भेषजीम् = रोग जीतने वाली, भय दूर करने वाली औषधियों को, वेद = जानता है, सर्पाः = साँप् और गन्र्धवाः = गौ-पृथिवी को धारण करने वाले अर्थात् = भूमि में बिल बनाकर रहने वाले चूहे, छछुन्दर, गोह आदि प्राणी (गौः इति पृथिव्याः नामधेयम् निघ. १।१), याः = जिन औषधियों को, विदुः =जानते हैं, ताः = उन को, अस्मै = इस पुरूष के लिये, अवसे = रक्षा हेतु, मैं वैद्य अथवा परमेश्वर, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            मन्त्र में जंगली पशुओं, जन्तुओं द्वारा उपयोग में ली जाने वाली औषधियों का उपयोग भेद से वर्णन है। यहाँ बताया गया है कि जिन कन्द आदि औषधियों को सूअर आदि उपयोग में लाते हैं, बलिष्ठ बनते हैं उनसे मनुष्यों को भी अपना उपचार करना चाहिये। मन्त्र में ‘वीरूधम्’, ‘भेषजीम्’ पद पर्यायार्थक हैं।

            याः सुपर्णा आगिरसीर्दिव्या या रघटो विदुः।

            वयांसि हंसा या विदुर्याश्र्व सर्वे पतत्रिणः।।

            मृगा या विदुरोषधीस्ता अस्मा अवसे हुवे।।                        -अथर्व. ८।७।२४।।

            याः = जिन, आगिरसीः = अगों में गति लाने वाली तथा अग्नि, विद्युत् आदि गुणों वाली औषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = गरूड़, गिद्ध आदि, याः दिव्याः = जिन दिव्य ओषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = आकाश में उड़ने वाले पक्षी (रघि गतौ + अच्, अट गतौ + क्पि् = रघटः, रघे गन्तवे आकाशे अटन शीलाः = रघटः), विदुः = जानते हैं, याः = जिनको, वयांसि = जिन ओषधियों को मृगाः = सभी पंख वाले जीव, विदुः = जानते हैं, याः ओषधीः = जिन ओषधियों को मृगाः = वन्य पशु, विदुः = जानते हैं, ताः = उन सबको, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अवसे = रक्षणार्थ, मैं परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लेता हूँ।

            यह मन्त्र भी औषधियों के उपयोग भेद का वर्णन कर रहा है। गरूड़ आदि पक्षी जिन औषधियों को व्यवहार में लाते हैं उनसे विष नाश, दूर दृष्टि, स्फूर्ति आदि का लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ लेना चाहिये यह मन्त्र में स्पष्ट किया गया है। ‘ओषधीः’ पद का पूर्ववत् सामान्य अर्थ है।

            यावतीनामोषधीनां गावः प्राश्नन्त्यध्न्या यावतीनामजावयः।

            तावतीस्तुभ्यमोषधीः शर्म यच्छन्त्वाभृताः।।                                -अथर्वं. ८।७।२५।।

मारने योग्य गौवें और, यावतीनाम् = जितनी औषधियों का, अजावयः = भेड़, बकरियाँ, प्राश्नन्ति = चारा करती हैं, खाती हैं, तावतीः = वे सभी अभृताः = भली भाँति पुष्ट की हुई, ओषधीः औषधियों, तुभ्यम् = तुझ मनुष्य को, शर्म = सुख, यच्छुन्तु – देवें।

            इस मन्त्र में गाँव, नगर में रहने वाले पशुओं द्वारा चारा के रूप में उपयोग में आने वाली औषधियों का वर्णन है। ‘ओषधीः’ औषधीनाम्, पद सामान्य अर्थ वाले हैं।

            यावतीषु मनुष्या भेषजं भिषजो विदुः।

            तावतीर्विश्र्व भेषजीरा भरामि त्वामभि।।                                       -अथर्व, ८।७।२६।।

            यावतीषु = जितनी ओषधियों में, भिषजः मनुष्याः = वैद्य लोग (भिषज् चिकित्सायाम् क्विप्, भिषक्), भेषजम् = चिकित्सा, विदुः = जानते हैं, तावतीः = उतनी, विश्र्वभेषजीः = सब रोगों को जीतने वाली ओषधियों को, त्वाम् अभि = तुम्हारी ओर मैं परमात्मा और वैद्य, आभरामि = लाता हूँ।

            मन्त्र में वैद्य जनों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली क्वाथ, कषाय, चूर्ण, अवलेह, भस्म आदि औषधियों का वर्गीकरण है।

            अथर्ववेद के उपर्युक्त सूक्त में विभिन्न प्रकार की औषधियों का वर्गीकरण अपने ढंग का है। जिन औषधियों को लोक में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि अलग-अलग नामों से विभाजित करके जाना जाता है। उन्हें वेद में रूप, रंग, आकार, गुण, उत्पत्ति, औषधि महौषधि प्राधान्य = ऋतु एवं उपयोग के आधार पर विभाजित किया गया है।

            तात्पर्य यह हुआ वेद में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि शब्द जो उद्धिज पदार्थों का ज्ञान करा रहे हैं वे परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं, जैसा कि मन्त्रों में आये वीरूध, वनस्पति आदि पदों से स्पष्ट है। यानी वनस्पति आदि शब्द फल वाले पौधों के लिये ही प्रयुक्त नहीं है अपितु सामान्यतः पौधे अर्थ में प्रयुक्त हैं अर्थात् वे शब्द यौगिकता, व्यापकता के अर्थ को लिये हुये हैं, यथा- वनस्पति- वनानां पाता वा पालयिता वा। निरू. ८।३।।

            जो वन = जल को, रस को सुरक्षित रखते हैं वे वनस्पति।

            औषधी- औषद् (दहत्) धयन्तीति वा, औषधि एनाः धयन्तीति वा। दोषं धयन्तीति वा। निरू. ९।२६।।

            जलते हुये अर्थात् ताप को जो पीते हैं अथवा ताप में इनको पीते हैं तथा जो दोष को पीते हैं वे औषधि हैं।

            वीरूध- विशेषण रून्धन्ति, रोहन्तीति वा वीरूधः। निरू. ६।३।९।।

            जो विशेष रूप से रोकते हैं या उगते हैं वे वीरूध हैं।

            इन व्युत्पत्तियों के अनुसार इन शब्दों का पर्यायवाचित्व समुचित है, और उपर्युक्त विभाग ही वनस्पतियों का वेदोक्त वर्गीकरण है जिसे वेद से ही जानना चाहिये।

            वैसे रोगानुसार औषधियों के निर्माणनुसार, अन्य कई और विभाग बन सकते हैं जो वस्तुतः औषधियों के गुणादि वर्गीकरण में ही समाहित हो जाते हैं।

पाणिनि कन्या महाविद्यालय, वाराणसी- १० (उ. प्र.)

वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य–डॉ. कृष्णलाल

वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य (पदार्थ विद्या के विशेष सन्दर्भ में) -डॉ. कृष्णलाल

आधुनिक विज्ञान की सभी गवेषणाओं का लक्ष्य सृष्टि के तत्वों के मूल तक पहुंचना है। विज्ञान समस्त दृष्टि में क्या, क्यों और कैसे की खोज करता है। सभी पदार्थों में कोई मूल तत्व, अपरिवर्तित गुण की खेज करके विज्ञान यथार्थ की गहराई तक उत्तर कर सूक्ष्मेक्षिका द्वारा मूल सूत्र को ढूँढता है। एक ओर इससे जहां नये तथ्य उद्घाटित होते हैं, वहीं उस सूत्र को मानवता के उपकार में लगाया जा सकता है।

            वेद के अनुसार सृष्टि का मूल सूत्र ही ऋत और सत्य है जो सब ओर समिद्ध तप या उष्णता से उत्पन्न होते हैं। उन्हीं से व्यक्त संसार से पहले अव्यक्त प्रकृतिरूप रात्रि उत्पन्न होती है (विद्यमान रहती है) और गतिशील सूक्ष्म कणों के रूप में व्यापक जल बनता है।

            ऋत वह मूलभूत तत्व है जो निरन्तर अपने स्वाभाविक रूप में गतिशील रहता है। वह गति प्रत्येक पदार्थ की गति, सापेक्ष गति भी हो सकती है, वह काल अबाध गति भी हो सकती है और वही प्रत्येक पदार्थ या तत्व के केन्द्र में विद्यमान परमाणुओं की गति भी हो सकती है। सार यह कि इस गति के बिना सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उस समय की स्थिति में सत् असत् का विश्लेषण हो ही नहीं सकता।

            थ्जसे उपरिनिर्दिष्ट मन्त्र में समुद्र अर्णव कहा गया है उसके मूल में भी गति (ऋ-क्षत) तत्व विद्यमान है। इसे ही एक अन्य स्थल पर सब देवों (तत्वों) का मिलना अथवा गति करना कहा गया है।

            उपर्युक्त ऋत के साथ-साथ सत्य भी सृष्टि के आधार में स्थायी तत्व है। ऋत गतिशील या गति प्रदान करने वाला तत्व है तो सत्य वास्तविकता है, अरितत्व है। (सन्तमर्थमाययति)। सम्भवतः दोनों तत्वों के इस मौलिक तथा सभी पदार्थों के आधार में समान महत्व के कारण बहुत स्थानों पर वेद में ही इन दोनों का प्रयोग पर्यायवाची रूप में भी हुआ है।

            अथर्ववेद (१२.१.१) के अनुसार पृथ्वी को धारण करने वाले ये दो प्रमुख तत्व हैं। सम्य जहाँ बृहत् महान् या व्यापक हैं, वहीं ऋत् उग्र, कठोर, शाश्र्वत है। ‘एक अन्य मन्त्र’ में कहा गया है कि पृथ्वी सत्य के द्वारा थामी गई है.. द्युलोक भी सत्य के द्वारा थामा गया है, ऋत अर्थात् निरन्तर गति से आदित्य अपने स्थान पर स्थिर है। इसी प्रकार ऋत से ही सोम (चन्द्रमा) द्युलोक में स्थित है।

            ऋत गति है क्योंकि सभी आदित्यादि ज्योतिःपिण्ड अपने-अपने मार्ग में निश्चित गति करते हैं। इस गति के प्रतीक रूप में ऋत की व्याख्या निरूक्त में जल के रूप में सब ओर पहुंचने वाला बताकर दी गई है। ऋत के मूल में गत्यर्थक ऋ धातु है। सदा एक ही स्थिति में निर्विकार रहने वाले परमेश्वर की तुलना में समस्त व्यक्त सृष्टि में गति मूल तत्व है। साम्यावस्था में सृष्टि हो ही नहीं सकती। जब तत्व, रजस्, तमस् तीनों गुणों की साम्यावस्था में विक्षोभ होता है, तभी सृष्टि का आरम्भ होता है। विक्षोभी अथवा हलचल गति का ही दूसरा नाम है। यह गति प्रत्येक तत्व के एक-एक कण में विद्यमान है जिसके नाभिक अथवा केन्द्र में निरन्तर प्रोटोन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन गति करते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इनसे भी सूक्ष्म परमाणुओं का पता लगाया है जिन्हें न्यूट्रॉन नाम दिया गया है। इन न्यूट्रॉन का प्रतिकण भी होता है। इन दोनों में से एक अपने कक्ष पर दक्षिणावर्त घूमना है तो उसका प्रतिकण वामावर्त घूमता है। यह अत्यधिक ऊर्जा का कण है। इसकी गति प्रकाश की गति के समान होती है।

            एक मन्त्र में नदियों (धाराओं) की गति के बताने के लिए ऋत शब्द प्रयुक्त है और सूर्य को सत्य का विस्तार करने वाला कहा गया है। क्या यहाँ नदियों से सूक्ष्म कणों की धाराओं की गति अभिप्रेत नहीं हे? अन्यथा भी ऋत गति का द्योतक तो है ही।

            जैसा कि ऊपर बताया गया है, ये ऋत और सत्य दोनों ही नाम वेदों में ही अनेक स्थानों पर समानार्थक हो गये हैं। एक मन्त्र में सत्य के साथ असत्य के अर्थ में अनृत के प्रयोग से इस तथ्य की पुष्टि होती है। वह मन्त्र आपः (व्यापक सृष्टि-जल) के सम्बन्ध में बताता है कि सूक्ष्म वाष्प-कणों के रूप में यह जल सम्पदा मध्यमस्थान (अन्तरिक्ष) में व्यास (आप्) रहता है और वहीं अपनी व्याप्ति के द्वारा वरूण (व्यापक परमेश्वर) सबका राजा होकर पहुँचा रहता है और वहीं से समस्त जनों के सत्य और असत्य आचरणों को देखता रहता है।

            वैदिक दृष्टि से सत्याचरण के साथ-साथ सत्य वास्तविक तत्व भी है। तभी तो अन्यत्र कहा गया है कि प्रजापति ने सत्य और असत्य (अवास्तविक) दोनों को अलग किया और केवल सत्य (वास्तविकता) में श्रद्धा (विश्वास) का आधान किया, अनृत (अवास्तविक, मिथ्या) में नहीं।

            पदार्थों की ऊपरी, बाह्म रूप-रचना देख्कार जिसे हम वास्तविक समझ बैठते हैं, वास्तविक तत्व वह नहीं है। उस वास्तविक तत्व को जानने पर पहचानने के लिए ऊपरी अवारनण हटाकर उसके पीछे देखना पड़ता है। तब वास्तविक सत्य तत्व ज्ञान होता है। वही तत्व सृष्टि के सभी पदार्थों के मूल में है।

            अग्नि भी अपने स्वरूप से और अपने दाहक तथा दान और आदान (हु दानादानयोः) -अग्नि सभी कुछ लेकर भस्म करके वायुमण्डल में उसका प्रभाव और दग्ध पदार्थों का भस्म देता है करने वाले तत्वों से युक्त है और क्रान्त (स्थूल दृष्टि से न देखे-जाने योग्य) कार्य करता है। इसलिए वह सत्य है और अद्भुत कीर्ति वाला है। विज्ञान उसके इस स्वरूप को समझ उसके विविध प्रयोग करता है। अगिन का स्वरूप सत्य इसलिए भी है क्योंकि विद्युत् और सूर्य में भी यही रूप होने के कारण उन्हें भी अग्नि ही कहा गया है।

            वेद सभी पदार्थों, या मौलिक भौतिक तत्वों में एक ऋत, सदास्थायी सूत्र कहाँ है और अनृत मिथ्या तत्व कौन सा है, इसकी खोज करता हे। वहां प्रेरणा दी गई है कि पृथ्वी और आकाश को प्रत्यक्ष जानने वाले विद्वान् इस तथ्य का अन्वेषण करें क्योंकि विज्ञान का रहस्य इस अन्वेषण में छिपा हुआ है।

            इससे अगले मन्त्र में फिर ऋत की खोज कर स्वर मुखर हुआ है क्योंकि वहाँ फिर प्रश्न है कि हे देवो अथवा मूल तत्वों, तुम्हारे ऋत (शाश्र्वत नियम) का स्थान क्या है और सर्वव्यापक वरूण (आवरक तत्व) की दृष्टि कहाँ है? हम महान् अर्यमा (शत्रुओं के नियामक सूर्य) के किस सत्य मार्ग से दुरूह ग्रन्थियों का उत्क्रमण करें। निश्चय ही हम शाश्र्वत नियम का मार्ग है।

            ऋत ही ऐसा तत्व है जो पदार्थों को उनके मूल रूप में स्थिर रखता है। इस मूलभूत स्थिरता, शाश्र्वतरूपता का नाम ऋत है। इसके विपरीत पदार्थों का परिवर्तनशील रूप अनृत है। यह रूप आयु से सीमित है। वा.सं. ७.४० के मन्त्र ‘‘एष ते योनिर्ऋतायुभ्यां त्वा’’ की व्याख्या करते हुए शतपथ में कहा गया है कि ब्रह्म ही ऋत है, ब्रह्म ही मित्र है, ब्रह्म ही ऋत है। वरूण ही आयु है, वरूण संवत्सर है (क्योंकि वह परिवर्तनशील है), वरूण ही संवत्सर है, आयु है।

            बृहस्पति, परमेश्वर (बृहतां पाता वा पालयिता वा) भी ऋतप्रजात (ऋ. २.२३.१५) है क्योंकि उससे ही ऋत, शाश्र्वत नियम का जन्म होता है। अग्रि को भी ऋतप्रजात कहा गया है क्योंकि वह ऋत का वाहक है (ऋ. १.६५.५) उसके मूल में शाश्र्वत नियम निरन्तर रहता है, जल से सम्बद्ध विद्युत् रूप अग्नि में भी वही शाश्र्वत तत्व विद्यमान रहता है। ऋ. १०.६७.१ में भी बुद्धि को ऋतप्रजाता कहा गया है क्योंकि वही उत्तम स्थिति में ऋत को उत्पन्न करती है। उत्कृष्ट रूप मे बुद्धि, अध्याम अथवा विज्ञान के माध्यम से ऋत का ही अन्वेषण करती है।

            इसी क्रम में उषा को भी ऋतपा और ऋतेजा कहा गया है क्योंकि वह शाश्र्वत नियम का पालन करती हुई चलती है।

                        ऋत को सभी पदार्थों की आद्य शक्ति के रूप में देखा गया है। यह शक्ति विनाशकारक भी है। वैज्ञानिक इस विषय में निश्चित ज्ञान रखते हैं कि ऋतरूप परमाणुओं के विखण्डन में कितनी शक्ति निहित है जो विनाशक भी हो सकती है। यही नहीं, ऋत के, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ के मूल सूक्ष्म तत्व के धारणस्थान सुदृढ़ और सुनिश्चित होते हैं। एक-एक पदार्थ-शरीर के लिए वे ही बहुत आह्लादक अर्थात् उसे उसके रूप में धारणा कर महत्व प्रदान करने वाले होते हैं। अन्न भी उस ऋत का फल है और ऋत से ही गौएं (सूर्य-किरणें) ऋत में (शाश्र्वत नियम में) प्रविष्ट होती हैं। सार यह कि वेद के अनुसार प्रत्येक पदार्थ, और उसकी गति में मूल तत्व के रूप में ऋत विद्यमान है। विस्तार के कारण बहुत रूपों वाले पृथ्वी और अनतरिक्ष को पृथ्वी बताकर उन्हें गम्भीर कहा गया है क्योंकि उनमें विद्यमान प्रत्येक तत्व का अभी तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो सका है। ये दोनों ही परम गौएं कही जाती हैं जो ऋत अर्थात् शाश्र्वत तत्व के लिए (उसके नियमानुसार) दोहन करती हैं अर्थात्  असंख्य पदार्थों को उत्पन्न करती रहती हैं (प्रकट करती हैं)।

                        एक मन्त्र में अग्नि (परमेश्वर) को सम्बोधित करके कहा गया है कि अविनाशिनी, अखण्ड रूप में बहने वाली, मधुर जलों वाली दिव्य नदियाँ (अर्थात् सर्वत्र व्याप्त जलकण) ऋत या शाश्र्वत नियम से प्रेरित होकर सदैव बहने के लिए धारण की गई है, निरन्तर गति करती है।

            जिन नदियों का वर्णन ऊपर किया गया है, ये सामान्य जल की नदियाँ नहीं हैं। ये अमर हैं और अबाधित हैं। इससे संकेत मिलता है कि ये सृष्टि के आरम्भ से ब्रह्माण्ड में व्याप्त सूक्ष्म जलकणों (आपः) की धारायें हैं जो ऋत (शाश्र्वत नियम, निरन्तर गति) से प्रेरित हैं। यह गति ऐसी है जैसी युद्ध के लिए सदैव तैयार घोड़े की होती है, अर्थात् निरन्तर गति है। ऋत निरन्तर गति का ही नाम है।

            सूर्यरूपी पौरूषयुक्त बलिष्ठ अग्नि वृषभ अर्थात् वर्षा के रूप में कामनाओं का वर्षक है। वह भी ऋत से अर्थात् निरन्तर गतिरूपी शाश्र्वत नियम से लिपटा हुआ अर्थात् युक्त है। वह स्पन्दित न होता हुआ अथवा स्तिमित गति से विचरण करता है। सबकी आयु को धारण करने वाला वह वर्षक पृश्नि अन्तरिक्षरूपी ऊध का दोहन करता है और शुक्र अर्थात् बलिष्ठ जल की वृष्टि करता है।

            इससे अगले ही मन्त्र में ऋत (नियमित गति) के साथ अंगिरसों (वायु सहित विद्युतों), गौओं (किरणों), ऊषा, सूर्य और अग्नि का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इस ऋत के द्वारा ही अंगिरस विद्युत् मेघ का भेदन करते हुए उसे (खाली करके) दूर फेंक देते हैं और (गतिशील) किरणों के साथ संयुक्त होकर प्रशंसित होते हैं, वे नेतृत्वगुणयुक्त (ऋतपालक) उषा के पास रहते हैं और जब (उषा का तीव्र प्रकाश रूप) अग्नि प्रकट होता है तो सूर्य दिखाई देता है। अग्नि, सूर्य, उषा-तीनों अग्निरूप होने के कारण ऋत (शाश्र्वत गतिमय नियम) से ही सम्बद्ध हैं। सब प्राणियों के सुख के लिए उनकी यह क्रिया-प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। मन्त्र से मेघस्थ विद्युत, वायु और अग्नि का गतियुक्त स्थायी सम्बन्ध स्पष्ट होता है।

            बहुत काव्यात्मक शब्दों में एक मन्त्र मं प्रश्न किया गया है। कि पहले वाला (पुराना) ऋत कहाँ गया और नया कौन उसे धारणा करता है? द्युलोक और पृथ्वी-ये दोनों ही मेरे लिए उस तत्व को जानती हैं (और बताती हैं)।

            मरूत् (विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार से चलने वाली वायएँ) ऋतसाप हैं अर्थात् ऋत से संयुक्त हैं। वे ऋत अर्थात् शाश्र्वत नियम के अनुसार चलती हैं। इस ऋत के द्वारा ही वे सत्य को प्राप्त होती हैं। मेघ, वर्षा, विद्युत, आदि के माध्यम से उनका सत्य स्वरूप प्रकट होता है, उनके वास्तविक कार्य उनके दीर्घकालिक हित से प्रकट होते हैं। कारण यह है कि वे शुचिज मा हैं, उनका जन्म ही पवित्रता से पवित्रता के लिए हुआ है। वे पवित्र हैं। अथवा वे ज्वलनशील तत्वों से युक्त हैं।

            उषाओं को ऋत (शाश्र्वत नियम) से युक्त घोड़ों अर्थात् किरणों के द्वारा सब लोकों पर फैल जाने वाली कहा गया है। किरणों की यह गति ही ऋत है-यह ऐसा ऋत है जिससे विज्ञान ज्योतिःपिण्डों की दूरी मापता है। विज्ञान के शाश्र्वत नियम के अनुसार सदा से ये उषायें एक सी हैं; अतः इसके लिए यह कहना असम्भव है कि इनमें से कौन सी पुरानी है और वह कहां है? वे सब एक जैसी चमक वाली चलती हैं और जीर्ण न होने वाली वे नये पुराने के भेद से नहीं जानी जातीं। विज्ञान भी इन्हीं शाश्र्वत रूपों और नियमों की खोज करता है। उषाओं के पीछे एक ही तत्व की समानता है जिसे ऋत कहा जाता है। उसके प्रकाश में, गति में, काल में, स्वरूप में वही एक समान तत्व विद्यमान रहता है। उसे ही सत्य कहा जाता है।

            इस प्रसंग में उषा का ‘ऋतावरी’ विशेषण ध्यान देने योग्य है जिससे स्पष्ट होता है कि उषा ऋत अथवा शाश्र्वत नियम अथावा सत्य को धारण करने वाली है और उससे ही प्रकाशित होने वाली या उसको अपने व्यवहार से प्रकाशित करने वाली है। यह ऋत अथवा सत्य उषा के मूल रूप सूर्य से ही अनुप्रेरित है। अनेक वेदमन्त्रों में उषा/उषाओं के प्रसंग में ‘ऋतावरी’ विशेषण का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार विद्युत और अन्तरिक्ष ऋतावरी है, द्युलोक और पृथ्वी भी ऋतावरी है क्योंकि सबके पीछे ऋत अथवा सत्य-नियम कार्य कर रहा है। ये दोनों बलिष्ठ हैं, देवों-विभिन्न दानादिगुणयुक्त पदार्थों को उत्पन्न करने वाली (और इस प्रकार) ये यज्ञ को आगे ले जाने वाली बढ़ाने वाली हैं।

            इसी प्रकार सूर्य और पवन अथवा रस और ज्योतिरूप अश्र्वितनौ भी ऋत अथवा शाश्र्वत नियम से बढ़ने वाले बताये गये हैं। मित्रावरूणौ अर्थात् सूर्य और वायु भी सत्यनियम से बढ़ने वाले हैं।

            सूर्य के विभिन्न रूप तथा वरूण (व्यापक प्रकाश वाला और अन्धकाररोधक), मित्र (मित्र के समान हितकारी और सुखकरग) तथा अर्यमा (शत्रुओं को नियन्त्रित करने वाला) ऋत से युक्त हैं, अपनी क्रियाओं और गति में ऋत का स्पर्श करने वाले, गतिशील जनों को आगे ले जाने वाले, शोभनदानी और शोभन नेतृत्व करने वाले हैं।

           इस प्रकार वेद में ऋत और सत्य देवों अथवा दानादिगुणयुक्त प्राकृतिक पदार्थों के मूल में बताये गये हैं। उनके पीछे शाश्र्वत नियम और सतत गति की प्रच्छन्न प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है

पाद -टिप्पणी

१. त्रतं च सत्यं चाभीद्वात्तपसोऽध्यजायत। रान्न्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः।। ऋ.१०.१९०.१

२. नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम्। ऋ. १०.१२९.१

३. तभिद्गर्भं प्रथमं दघ्र आपो यत्र देवाः समगच्छन्त विश्वे। ऋ. १०.६३.६

४. सत्यं बृहद् ऋतमुग्रं……………………पृथिवीं धारयन्ति।

५. सत्येनोत्तभिता भूमिः सत्येनोत्तभिता द्यौः। ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधिष्ठितः।। ऋ. १०.८५.१

६. ऋतभित्युदकनाम। प्रत्यृतं भवति। नि. २.२५

७. Every particle is accompanied by another particle called neutrino. It is high energy particle. Its speed is eqyal to hight speed. ¼ Atomic energy-Macmillon and Co. Ltd., London½

८. ऋतमर्षन्ति सिन्धवः सत्यं तातान सूर्यः। ऋ. १.१०५.१२

९. यासां राजा वरूषो याति सत्यानृते अवपश्यन् जनानाम्। ऋ. ९.४९.३

१०. दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः। अश्रद्धामनुतेऽदधाच्छद्वां सत्ये प्रजापतिः।। वा.सं. १९.७७

११. हिरण्यमवेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।। वा.सं. ४०.१७

१२. अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। ऋ. १.१.५

१३. अप्येते उत्तरे ज्योतिषी अग्नी उच्येते। निरूक्त ७.१६

१४. अभी ये देवाः स्थन त्रिष्वा रोचने दिवः।

   कद्व ऋतं कदनृतं क्व प्रत्ना व आहुतिर्वित्तं मे अस्य रोदसी ।। ऋ. १.१०५.५

१५. कद्व ऋतस्य धर्णसि कद्वरूणस्य चक्षणम्। कदर्यम्णो महस्पथाति महस्पथाति कामेम दूढ्यः ।। ऋ. १.१०५.६

१६. ब्रह्म वा ऋतं ब्रह्म हि मित्रो ब्रह्मो ह्यृतं वरूण एवायुः संवत्सरो हि

   वरूणः संवत्सर आयुः। श. ब्रा. ४.१.४.१०

१७. ऋ. १.११३.१२

१८. ऋतस्य हि शुरूधः सन्ति पूर्वी। ऋ. ४.२३.८

१९. ऋतस्य दृव्व्हा धरूणानि सन्ति पुरूणि चन्द्रा वपुषे वपूंषि।

      ऋतेन दीर्घ मिषणन्त पृक्ष ऋतेन गाव ऋतमा विवेशुः ।। ऋ. ४.२३.९

२०. ऋताय पृथ्वी बहुले गभीरे ऋताय धेनू परमे दुहाते।। ऋ. ४.२३.१०

२१. ऋतेन देवीरमृता अमृक्ता अर्णोभिरापो मधुमद्भिरग्ने।

       बजी न सगेंषु प्रस्तुभानः प्र सदमित्स्त्रवितवे दधन्युः।। ऋ. ४.३.१२

२२. ऋतावरि – ऋ. २.१.१, ऋतावरी – ऋ. ६.६१.९, ऋ. ३.५४.४, ३.६१.६, ऋ. ४.५२.२, ऋतावरीम्   – ऋ. ५.८०.१, ऋतावरीः – ३.५६.५

२३. ऋ. १.१६०.१

२४. ऋ. ४.५६.२ देवी देवेभिर्यजते यजत्रैरमिनती तस्थतुरूक्षमाणे।

ऋतावरी अद्रुहा देवपुत्रे यज्ञस्य नेत्री शुचयद्भिरकैः।।

२५. ऋ. १.४७.१ (ऋतावृधा) तुं अश्र्विनौ यद्व्यश्नुवाते सर्वं रसेनान्यो ज्योतिषान्यः।

(रिरूक्त १२१)

२६. ऋ. १.२.८ (ऋतावधौ)

२७. ते हि सत्या ऋतस्पृश ऋतावानो जने जने।

सुनीथासः सुदानवोंऽहोश्चिदुरूचक्रयः ।। ऋ. ५.३७.४

वेद और भौतिक – विज्ञान -डॉ. महावीर मीमांसक

वेद का विषय बहुत लम्बे समय से विवादास्पद रहा है। वेद के प्राचीन प्रामाणिक विद्वान् ऋषि आचार्य यास्क ने अपने वेदार्थ-पद्धति के पुरोधा ग्रन्थ निरूक्त के वेदार्थ के ज्ञाताओं की तीन पीढ़ियों का उल्लेख किया है। पहली पीढ़ी वेदार्थ ज्ञान की साक्षात् द्रष्टा थी जिसे वेदार्थ ज्ञान में किञ्चित् मात्र भी सन्देह नही था। (साक्षात्कृत धर्माण, सृषमो बभुवः।) दूसरी पीढ़ी उन वैदिक विद्वानों की हुई जिन्हें वेदार्थ ज्ञान साक्षात् नहीं था, उन्होंने अपने से पुरानी ऋषियों की उस पीढ़ी से जो साक्षात्कृत धर्मार्थी, उपदेश के द्वारा वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस दूसरी पीढ़ी को भी वेदार्थ ज्ञान सर्वथा शुद्ध और अपने वास्तविक रूप में ही मिला (ते पुनरवरेभ्योऽसाक्षात्कृत धर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः।) और तीसरी पीढ़ी उन लोगों की आयी जो उपदेश के द्वारा भी वेदार्थ ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ थी। उन्होंने वेद वेदाग आदि ग्रन्थों का सम्मान किया और उन ग्रन्थों की सहायता से वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस तीसरी पीढ़ी को वेदार्थ ज्ञान साक्षात् रूप में नहीं हुआ अपितु परोक्ष रूप में प्राप्त हुआ। अतः इनका ज्ञान परतः प्रामाण्य ग्रन्थों पर आधारित था, वेद का स्वतः प्रामाण्य ज्ञान तो वेदार्थ को साक्षात् वेद की अन्तःसाक्षी के आधार पर समझने वाले लोगों को था। फिर इन तीनों पीढ़ियों में समय का परस्पर अन्तराल बहुत था। और इस तीसरी पीढ़ी के बाद तो उत्तरवर्ती लोगों को वेद-वेदाग आदि ग्रन्थ जो वेदार्थ के लिये परतः प्रामाण्य के ग्रन्थ हैं, और भी अधिक दुरूह और समझ से दूर हो गये। यास्क के समय तक आते-आते यह परिणाम हुआ कि वेदार्थ अधिकतर ओझल हो गया। विद्वान् वेद का मनमाना अर्थ करने लगे। एक-एक मन्त्र का अर्थ करने की परम्परा १०, ११ प्रकार की चल पड़ी, यह स्वयं यास्क ने लिखा है, ‘‘इति याज्ञिकाः, इति पौराणिंका, इत्यैतिहासिकाः, इति वैयाकरणाः, इत्यन्ये, इन्यपरे, इत्येके”, इन शब्दों में यास्क ने अपने ग्रन्थ निरूक्त में एक मन्त्र की व्याख्या अनेक प्रकार से करनेका ब्यौरा दिया है। परिणामस्वरूप वेदार्थ इतना अनिश्चित, विवादास्पद बन गया कि एक सम्प्रदाय वैदिक विद्वानों की इसी कमी का दुरूपयोग और लाभ उठाकर कहने लगा कि वेद जब इतना अस्पष्ट विवादस्पद और अज्ञात है तो वेद के मन्त्र अनर्थक हैं, उसका कोई अर्थ नहीं है (‘‘अनर्थकाः मन्त्रा इति कौत्सः”) यह वेदार्थ के अत्यन्त अन्धकार की स्थिति भी जो यास्क के समय तक थी।

            यास्क ने वेदार्थ उद्धार का बीड़ा उठाया। सर्वप्रथम यास्क आचार्य ने उन वैदिक शब्दों और वैदिक धातुओं का संकलन अपने निघण्टु में किया जो वेदार्थ के लिये उस समय दुरूह तथा अधिक आवश्यक थे। फिर यास्क ने निरूक्त की रचना की। जिसमें पहले वेदार्थ पद्धति का प्रतिष्ठापन किया। वेद को अनर्थक मानने वाले सम्प्रदाय का उन्हीं की युक्तियों से खण्डन किया, उन्हीं का जूता उन्हीं के सिर पर मारा। यास्क ने उद्घोष दिया कि सब नाम आख्यातज हैं और वेदार्थ करने के लियें वे यौगिक होते हुवे भी किसी एक निश्चितार्थ में रूढ़ हैं, उदाहरणार्थ परिव्राजक, भूमिज इत्यादि जिनको पूर्व पक्षी भी यौगिक मानते हुवे भी योगरूढ़ मानता है, जिससे शब्दों की यौगिक व्युत्पत्ति करने के बावजूद भी मनमाना काल्पनिक अर्थ न किया जा सके। यह उन लोगों के लिये करारा जवाब था जो यौगिक पद्धति पर आक्षेप करके कहते थे कि तृण शब्द का अर्थ केवल तिनका न करके वे सब अर्थ तृण शब्द के होने चाहिये जो भी कुरेदने का काम करते हैं। खैर हमारा यहां यह विषय नहीं है, इस पर हम अन्यत्र विस्तार से लिख चुके हैं (द्र. ले. द्वारा वेदभाष्य पद्धति और स्वामी दयानन्द एक सर्वेक्षण।)

            यास्क सर्वप्रथम वैदिक विद्धान् थे जिनका लिखित ग्रन्थ न केवल यह कहता है कि वेद में भैतिक विज्ञान है, अपितु वेद की व्याख्या भी इस आधार पर करता है। यास्क ने अपने निरूक्त के प्रारम्भ में ही देवता शब्द की परिभाषा दी जो देवता वेद के प्रत्येक सूक्त  या अध्याय के प्रारम्भ में दिये हुवे होते हैं। ‘‘यास्क ऋषि र्यस्यां देवतायामार्थपत्यमिच्छत् स्तुतिं प्रगुड्.क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति” इस यास्कीय परिभाषा के अनुसार देवता उस सूक्त का वर्णनीय विषय होता है जो शीर्षक के रूप् में प्रत्येक सूक्त या अध्याय के प्रारम्भ में वेद में दिया हुआ होता है ताकि पाठक को निश्चय रहे कि अमुक्त मन्त्रों का वर्णनीय विषय अमुक है। यास्क ने समूचे वेदों के अध्याय के आधार पर यह निर्णय दिया कि सभी वैदिक मन्त्रों के देवता अर्थात् वर्णनीय विषय केवल तीन ही हैं, वे या तो पृथ्वी स्थानीय भौतिक विज्ञान अग्नि है, या अन्तरिक्ष स्थानीय भौतिक विज्ञान इन्द्र मेघ या विद्युत आदि हैं, या द्युस्थानीय भौतिक विज्ञान सूर्य है। (र्द्रतिस्त्र एव देवताः इत्यादि) अग्निः पृथ्वीस्थानीय इन्द्रन्तरिक्षास्थानीयः, सूर्यो द्युस्थानीयः। समग्र विश्व मण्डल की सृष्टि (समष्टि) इन्हीं तीन भौतिक भागों में विभक्त है, और वेद इसी समृद्धि के विज्ञान की व्याख्या है जिनमें आत्मा और परमात्मा चेतन तत्व भी समाहित हैं, अतः वेद के मन्त्रों के ये तीन ही विषय या देवता है। निरूक्तकार यास्क ने इस स्थापना के बाद वेद के सभी देवताओं का इन्हीं तीनों भागों में बांट कर इनकी भौतिक वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की। यहां इस दिशा में रिरूक्त के दो उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ।

            वेद में ‘असुर’ शब्द सूर्य के विशेषण के रूप में प्रयक्त किया गया है यथा असुरत्व मे कम जिसका शब्दिक अर्थ हुआ कि एकमात्र सूर्य ही असुर हैं। अब यहां ‘असुर’ शब्द का अर्थ बड़ा ही आपत्तिजनक और अनर्थक है जैसा कि साधारणतः समझा जाता है और आधुनिक भाष्यकारों ने किया भी है, जिससे सूर्य असुर कहते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि सूर्य वेद में असुर इसलिये कहा गया क्योंकि वह संसार में प्राणदायक शक्ति है तो वह केवल मात्र सूर्य है। यह कितना महत्वपूर्ण भौतिक विज्ञान का रहस्य वेद में छुपा हुवा है। आज संसार के वैज्ञानिक कह रहे हैं कि संसार में जीवन (प्राणी) तभी तक है जब तक सूर्य है, यदि सूर्य नष्ट होता है तो विश्व में जीवन प्राणी भी समाप्त हो जायेंगे। यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य वेद में बड़े ही सहज भाव से कह दिया गया है। सूर्य से ही सब प्राणी वनस्पति आदि जीवित हैं।

            दूसरा उदाहरण ‘वैश्र्वानर’ शब्द का है। वैदिक शब्द ‘वैश्र्वानर’ का क्या अर्थ है? यह यास्क के समय बड़ा विवादास्पद बन गया था। अतः यास्क ने निरूक्त में प्रश्न उठाया ‘अथ को वैश्र्वानर?’ इसका समाधान भी यास्क ने इस शब्द की व्युत्पत्ति से किया है। वैश्र्वानरः की व्युत्पत्ति है ‘‘विश्र्वानराज्जायते इति वैश्र्वानरः’’ अर्थात् विश्र्वानर से पैदा होने वाले को वैश्र्वानरः कहते हैं। विश्र्वानरः का अर्थ है सूर्य। सूर्य से साक्षात् क्या वस्तु उत्पन्न होती है इसका परीक्षण यास्क ने वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा किया। यास्क ने कहा कि एक आतिशी शीशे का एक भाग सूर्य की ओर रखो और उसके दूसरी तरफ से सूर्य की किरणों को गुजारने दो। जिधर सूर्य की किरणें गुजर रही हैं उधर किरणों के समक्ष सूखा गोबर (शुष्क गोमय) ऐसे रखो कि सूर्य की किरणें उस गोबर पर पड़े। थोड़ी देर बाद उस गोबर में धुआं क उठेगा और आग पैदा हो जायेंगी। यह अग्नि ही वैश्र्वानर है क्योंकि यह विश्र्वानर अर्थात् सूर्य से पैदा होती है। इस प्रकार यास्क ने यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य स्थिर किया कि समूची पार्थिव अग्नि वैश्र्वानर है क्योंकि यह सूर्य से पैदा होती है। यही आज की सौर ऊर्जा (Solar Energy) है जिसे आज के वैज्ञानिक अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। यही तथ्य यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही कह दिया गया जिसका देवता सविता है ‘‘इषे त्वोज्र्जे त्वा’’ अर्थात् हे सूर्य हम तेरा उपयोग ऊर्जा शक्ति की प्राप्ति के लिये करें।

            यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य ब्राह्मण ग्रन्थ और पूर्व मीमांसा के याज्ञिक दर्शन में भी भरे पड़े हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है ‘‘अग्नीषोमी यमिन्द्रं जगत’’ यह संसार अग्नि और सोम दो भौतिक शक्तियों से निर्मित है। यही अग्नि और सोम आज की ऋणात्मक और धनात्मक, सरकार और नकारात्मक (Positive और Negative) शक्तियाँ हैं। यही वे दो धुरी हैं जिन पर आज का कम्प्यूटर विज्ञान केन्द्रित है जिसका आधार (Binary System) (द्विधुरीय पद्धति) है। पूर्व मीमांसा का समग्र यज्ञ विज्ञान इसी दर्शन पर आधारित है। उदाहरणार्थ वर्षा की आवश्यकता होने पर वर्षा करवाने के लिये वर्षेष्टि याग जो इसी वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित है कि वर्षा करवाने वाली भौतिक शक्तियों को कैसे वृष्टि-अनुकूल वातावरण पैदा करने के लिये यज्ञ द्वारा आवर्जित किया जाये।

            भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण अतिवृष्टि और अनावृष्टि की समस्या जो कृषि को एकदम सीधे विनाशकारी रूप से प्रभावित करती है, का समाधान ढूंढने के लिये बड़ी वैज्ञानिक खोजें प्राचीनकाल में हुई थीं। इन्हीं समस्याओं का समाधान, वृष्टियाग है जो आज भी देश की आर्थिक दशा जिसका आधार कृषि है को सुधारने के लिये अत्यन्त उपयोगी और प्रासगिक है। वेद में इसीलिये एक पूरा सूक्त कृषि सूक्त है। प्राचीनकाल में कृषि विज्ञान पर भारत से बढ़ कर वैज्ञानिक खोज और किसी देश में नहीं हुई। कौटिल्यार्थ शास्त्र इसी के विस्तार से भरा पड़ा है। आज तो इसके साथ पर्यावरण की समस्या भी जुड़ गई है जो कृषि और छोटे वृक्षों को नष्ट करने तथा यज्ञ-याग आदि के अभाव के कारण पैदा हुई हैं।

            इसी प्रकार अन्य याग हैं जो भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिये की गई कामनाओं की पूर्ति के निमित्त किये जाते हैं। इसीलिये पूर्व मीमांसा में महर्षि जैमिनि ने यज्ञ की परिभाषा दी है ‘‘देवतोद्देश्येन द्रव्यत्यणः याग’’।

            वैदिक विज्ञान की यह धारा वैदिक दर्शनों में विशेष विषय के रूप में निष्पन्दित हुई जिसमें न्याय और वैशेषिक दर्शन में भौतिक विज्ञान के (Physics) आधारभूत पांच महाभूत, सांख्य दर्शन में प्राणिक विज्ञान (Biologycal Science) के प्रमुख तत्व बुद्धि, मन, चित्त, अहकार, ज्ञानेन्द्रियाँ तथा तन्मात्रायें आदि और वेदान्त दर्शन में आध्यात्मिक (Metaphysics) चेतना तत्व का विशेष गम्भीर और व्यापक विश्लेषण किया गया। पद्धति और प्रक्रिया का विशद् प्रतिपादन किया गया। इनमें एक-एक दर्शन के प्रत्येक भौतिक वैज्ञानिक तत्व पर गम्भीर और स्वतन्त्र खोज और चिन्तन करने की आवश्यकता है।

            यास्क के बाद मध्यवर्ती काल में यह वैदिक विज्ञान लुप्त हो गया और आधुनिक काल में ऋषि दयानन्द ने इसे फिर से मूल रूप में समझा। उन्होंने घोषणा कि ‘‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है’’ और इसमें समूचा भौतिक विज्ञान मौजूद है। उन्होंने सभी वेदों का भाष्य करने का बीड़ा उठाया और भूमिका के रूप में ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने न केवल यह घोषणा की अपितु स्थान-स्थान पर भौतिक विज्ञान के नमूने वेदमन्त्रों की व्याख्या करके प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक विज्ञान प्रथम कोटि का विज्ञान है और आत्मा और परमात्मा का भी विज्ञान है। भौतिक विज्ञान बिना आध्यात्मिक विज्ञान के अधूरा पगु और अप्रासगिक है। आधुनिक विज्ञान में यह उन्होंने नया अध्याय जोड़ा जो कोरे और नंगे भौतिक विज्ञान की पूर्ति की पराकाष्ठा ही नहीं अपितु विज्ञान जन्य अनेक कमियों और समस्याओं का एकमात्र समाधान भी है। वायुयान विज्ञान, तार विज्ञान, विद्युत् विज्ञान आदि अनेक भौतिक विज्ञानों के नमूने ऋषि दयानन्द ने वेदमऩ्त्रों की व्याख्या करके उस समय प्रस्तुत किये जब इन विज्ञानों का आधुनिक आविष्कार भी नहीं हुआ था। वेदों में भौतिक विज्ञान का उद्घोष ऋषि दयानन्द का आधुनिक युग का अद्वितीय नारा था।

            वेदों में विज्ञान के कुछ नमूने हम पेश करते हैं। ऋग्वेद का सर्वप्रथम प्रारम्भिक मन्त्र है ‘‘अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्’’।। इसी मन्त्र में ईळे क्रियावाची शब्द है। इसका अर्थ अन्य सभी वेद भाष्यकारों ने अशुद्ध किया है। स्वामी दयानन्द ने इसके वास्तविक अर्थ को निरूक्त के आधार पर किया है।

            निघण्टु में वेद के पा्रणाणिक भाष्य पद्धति के व्याख्याता यास्क ने कहा है, ‘‘ईळिरध्येषणा कर्मा”, अर्थात् ईळ धातु अध्येषणार्थक है। अध्येषणा का अर्थ यास्क ने किया है ‘‘अध्येषणा सत्कार पूर्व को व्यापारः”, अर्थात् अध्येषणा का अर्थ है किसी वस्तु के गुणों और क्रियाओं को ठीक-ठीक समझ कर उसके उन गुणों के उपयोगार्थ उस वस्तु को उसी प्रकार के काम में लाना। यही अर्थ स्वामी दयानन्द ने भी किया है। यहां इस मन्त्र का देवता-वर्णनीय विषय-अग्नि है। अतः इसका अर्थ हुआ कि मैं (मनुष्य) अग्नि (भौतिक पदार्थ) को उसके गुण और क्रिया समझ कर उस का उसी प्रकार का उपयोग करूं। यहां अग्नि के कुछ गुण दिये हैं। यहां अग्नि को ‘देवम्’ कहा गया है, देव का अर्थ है प्रकाश और गति। (दिवु धातु द्युति और गति अर्थ वाली) स्पष्ट है कि अग्नि के दो गुण प्रकाश और गति का भौतिक विज्ञान में अत्यधिक महत्व है। अग्नि के लिये एक और शब्द ‘होतारम्’ का यहां प्रयोग है जिसका अर्थ है ध्वनि करने वाला (ह्नेञ् शब्दे) तथा वस्तुओं को खाने या नष्ट करने वाला (हू दानांदनयोः धातु) । अग्नि का विस्फोटक रूप और विध्वंसकारी ध्वनि सर्वविदित ही है। तथा अग्नि अपने में डाली गयी प्रत्येक वस्तु को खा डालती, जला डालती या नष्ट कर डालती है। इसी प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त का पांचवा मन्त्र हैः- अग्निर्होता कविक्रतु सत्यश्र्वित्रश्रवस्तमः। देवो देवे भिरागमत्।। यहां भौतिक अग्नि को दो औरू विशेषणों का प्रयोग है। एक है कविक्रतुः जिसका अर्थ पारदर्शक कर्म वाला (कविः, क्रान्तदर्शी भक्ति यास्क) (क्रतु कर्मपर्याय)। अग्नि पारदर्शक होने से, आधुनिक टेलिविजन, एक्सरे आदि के काम में लाया जाता है। दूसरा गुण है ‘चित्रश्रवस्तमः’, अग्नि अद्भुत तरीके  से ध्वनि का श्रवण करवाता है, यह गुण टेलिफोन आदि के कार्यों को सम्भव और सयोग आविष्कार का कारण बना है। हमने अग्नि आदि अनेक भौतिक पदार्थों के गुणों को भौतिक विज्ञान के सन्दर्भ में अपनी पुस्तक (Glorious Vision Of The Vedas)में वर्णित किया है, जो हौलेण्ड से छपी है, पाठक विस्तार से वहीं से देख सकते हैं।

            वेद में सविता और सूर्य इन दो भिन्न-भिन्न शब्दों से सूर्य का वर्णन मिलता है, यह क्यों? सविता शब्द की व्युत्पत्ति सर्जनार्थक षुञ् धातु से है अतः सविता का अर्थ है सर्जन करने वाला, सविता सूर्य का वह रूप है जो सर्जन करने वाला है अतः सविता के वर्णन में सूर्य के सभी सर्जनात्मक रूपों का वर्णन है। और सूर्य शब्द की व्युत्पत्ति है गत्यर्थक सृ धातु से जिसका अर्थ है गति देने वाला। अतः सूर्य के वर्णन में उन रूपों का समावेश है जो सूर्य के गतिप्रद रूप हैं। इसी प्रकार किरणों के १५ नाम निघण्टु में दिये हैं जो किरणों के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के निदर्शक हैं। आधुनिक विज्ञान को अभी तक सात प्रकार की किरणें ही विदित हैं वेद की शेष किरणों पर शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार यास्क ने वैदिक निघुण्टु में पानी के एक सौ नाम दिये हैं जो पानी के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के वाचक हैं। अभी तक पानी के रूप, पानी, बादल, भाप, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन आदि ही ज्ञात हैं, शेष पानी के कौन से रूप हैं? शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। वैदिक देवता मरूत और वायु आदि में भी मौलिक अन्तर हैं, ये एक ही भौतिक पदार्थ के पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। इस प्रकार वैदिक भौतिक विज्ञान का बहुत व्यापक विश्नल क्षेय है जो खोज चाहता है। हम यहां केवल एक ही और वेद में भौतिक विज्ञान का आधुनिकतम उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देंगे।

           आइन्सटाइन आधुनिक युग के महान्-वैज्ञानिक माने जाते हैं। उन्होंने देश और काल (Time & Space) के विषय में भौतिक विज्ञान के अद्भुत सिद्धान्तों का आविष्कार करके सृष्टि-विज्ञान की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। आइन्सटाइन को अभी-अभी मात दी है स्टीफन्स हौकिग ने। स्टीफन हौकिग की आधुनिकतम वैज्ञानिक खोज यह है कि प्रलय काल में भी समय की सत्ता रहती है। यह तथ्य उन्होंने अपने आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर नये फामूर्ले पेश करके सिद्ध किया है। प्रलय-अवस्था के काल की गण्ना करने के फामूर्ले भी उन्होंने दिये हैं। इस अपनी वैज्ञानिक नयी खोज का बड़ा रोचक वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक ‘‘Story of Creation: From Big-Bang to Big Crunch” में बड़े विस्तार से किया है।

            यह वैज्ञानिक तथ्य वेद में पहले से ही वर्णित हैं। यह हमने खोजा है। ऋग्वेद के चार सूक्त अर्थात् मं. १०, सू. १२९, मं. १०, सूक्त १५४, मं. १०, सूक्म १९१, ये चार सूक्त भाववृत्तम् नाम से प्रसिद्ध हैं क्योंकि इन चारों सूक्तों में सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय अवस्था का वर्णन है, अतः ये चारों सूक्त ऋग्वेद के सृष्टि विज्ञान के सूक्त कहे जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि सृष्टि विज्ञान के विषय पर स्टीफन्स हौकिग की पुस्तक (Story of Creation) का नाम भी यही ‘भाववृत्तम्’बनता है। लगता है (Story of Creation) ‘भाववृत्तम्’ का ही अनुवाद हो यह अद्भुत संयोग ही कहा जा सकता है। अस्तु ऋग्वेद के प्रथम भाववृत्तम् सूक्त अर्थात् १०वें मण्डल का १२९वां सूक्त जो नासदीय सूक्त से भी जाना जाता है, इन शब्दों से प्रारम्भ होता हैः- नासदासीत्रो सदासीत्तदानीम्। मन्त्र के इस प्रथम चरण में सृष्टि के पहले प्रलय अवस्था का वर्णन है जिसमें कहा गया है कि प्रलय अवस्था में सत् और असत् देनों ही नहीं थे। यहां यह उल्लेखनीय है कि ‘सत्’ और असत् में दोनों ही वैदिक शब्द बड़े वैज्ञानिक तकनीकी अर्थ में प्रयुक्त हैं जिनकी व्याख्या का यहां अवकाश नहीं है। यहां हम यह बतलाना चाह रहे हैं कि उस प्रयावस्था में जिस अवस्था का वर्णन यहां ऋग्वेद में ‘सत्’ और ‘असत्’ के अभाव के रूप में किया है, एक पदार्थ का भाव स्पष्ट माना है और वह है काल, जिसे ‘तदानीम’ शब्द से विज्ञात घोषित किया है। ‘तदानीम्’ अर्थात् उस समय-जब ‘सत्’ और ‘असत’ भी नहीं थे, किन्तु समय (काल) था। स्टीफन्स हौकिग और आइन्स्टाइन की काल सम्बन्धी प्रमुख खोज को वेद ने एक ही सहज और सरल शब्द ‘तदानीम्’ से धाराशायी कर दिया। वैदिक विद्धानों का अभी तक समूचे भाववृत्त सूक्त की वैज्ञानिक व्याख्या तथा इस मन्त्र की इस व्याख्या पर ध्यान नहीं गया है। प्रलय अवस्था में काल की सत्ता और प्रलय अवस्था के काल की गणना जो एक अत्यन्त कठिन वैज्ञानिक चुनौती है, भारतीय दर्शनों में बड़े विस्तार से दी है। प्रलय अवस्था में सूर्य के अभाव में काल गणना का मापक दण्ड या साधन यन्त्र क्या हो यह बड़ी वैज्ञानिक समस्या है। किन्तु प्राचीन भारतीय ऋषियों ने इस गुत्थी को बड़े वैज्ञानिक कार्ल सागम ने इस तथ्य की पुष्टि को ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में २६ जनवरी १९९७ को छपे अपने साक्षात्कार में बड़े प्रशंसनीय शब्दों में स्वीकारा है। यहां यह सब यहां लिखना सम्भव नहीं है। दो वर्ष पूर्व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हमने इस विषय पर शोधलेख पढ़ा था, जिसकी चर्चा स्थानीय समाचार पत्रों में खूब रही थी।

            इस खोजपूर्ण तथ्य के उद्घाटन के साथ ही हम अपने लेख समाप्त करने से पहले २१वीं सदी और वैदिक विज्ञान की याद दिलाना चाहेंगे। २१वीं सदी पश्चिम के विज्ञान की आंधी और तूफान लेकर विश्व में आयेगी। वैज्ञानिक आविष्कार प्रकृति के रहस्यों को खोल कर रख देंगे। भौतिक विज्ञान की उपलब्धियां मानव को इतना साधन सम्पन्न बना देंगे कि जीवन के तौर तरीके सर्वथा बदल जायेंगे। समाज और राष्ट्र का एक नया भौतिक रूप उभर कर सामने आयेगा। आधुनिक Information Technology, रोबोट, शरीर विज्ञान की नयी खोजें, आने वाले समय का पूर्वाभास करवा रही हैं। ऐसे समय में आर्यसमाज की ही नहीं अपितु समूचे भारत राष्ट्र की परिचायक सत्ता का प्रश्न होगा। वेद और प्राचीन भारतीय भारतीय शास्त्रों का ज्ञान-विज्ञान पश्र्विम की इस आन्धी के साथ टक्कर लेने की पूरी क्षमता रखते हैं, देश की गरिमा को वैदिक ज्ञान-विज्ञान ही सर्वोपरि स्थान पर रख पायेगा, यही देश और समाज की सबसे महत्वपूर्ण धरोहर होगी जिस पर राष्ट्र गर्व करके पश्र्विम के भौतिक अन्धकार में सूर्य के समान विश्व को प्रकाश दिखला सकता है। परोपकारिणी सभा जो स्वामी दयानन्द जी महाराज की एकमात्र उत्तराधिकारिणी सभा है, का विशेष रूप सेयह दायित्व बन जाता है कि ऐसेसमय में वैदिक ज्ञान विज्ञान की खोज करके मानव मात्र का प्रकाश स्तम्भ बने, जिससे दयानन्द और वेद की पताका सर्वोपरि लहराती रहेगी। आधुनिक भौतिक विज्ञान में अपने आप को भूलते हुवे मानव को ज्ञान-विज्ञान की चरम पराकाष्ठा आध्यात्मिक चेतना की याद दिलाती रहे। जो अखण्ड समाप्ति के दश्ज्र्ञन की समूची वैज्ञानिक व्याख्या है।

ए-३।११, पश्चिम विहार देहली-११००६३

हे गौ माता -रामनाथ विद्यालंकार

हे गौ माता। 

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता सविता। छन्दः क. स्वराड् बृहती, र. ब्राह्मी उष्णिक्।

ओ३म् इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमा कर्मणूऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं ‘प्रजार्वतीरनमीवाऽ अयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघशसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात ह्वीर्यजमानस्य शून् पाहि॥

-यजु० १ । १ 

हे गौ माता !

मैं (इषे त्वा ) अन्नोत्पत्ति के लिए तुझे पालता हूँ, (अर्जे त्वा ) बलप्राणदायक गोरस के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम (वायवः स्थ) वायु के समान जीवनाधार हो। ( देवः सविता ) दाता परमेश्वर व राजा ( श्रेष्ठतमाय कर्मणे ) श्रेष्ठतम कर्म के लिए, हमें (वः प्रार्पयतु) तुम गौओं को प्रदान करे। (अघ्न्याः ) हे न मारी जानेवाली गौओ! तुम (आप्यायध्वम् ) वृद्धि प्राप्त करो, हृष्टपुष्ट होवो। ( इन्द्राय) मुझ यज्ञपति इन्द्र के लिए ( भागं ) भाग प्रदान करती रहो। तुम (प्रजावतीः ) प्रशस्त बछड़े-बछड़ियों वाली, ( अनमीवा:६) नीरोग तथा ( अयक्ष्माः ) राजयक्ष्मा आदि भयङ्कर रोगों से रहित होवो। ( स्तेनः ) चोर (वः मा ईशत ) तुम्हारा स्वामी न बने, ( मा अघशंसः ) न ही पापप्रशंसक मनुष्य तुम्हारा स्वामी बने। (अस्मिन् गोपतौ ) इस मुझ गोपालक के पास ( धुवाः ) स्थिर और ( बह्वीः७) बहुत-सी ( स्यात ) होवो। हे परमेश्वर व राजन ! आप ( यजमानस्य ) यजमान के (पशून्) पशुओं की ( पाहि ) रक्षा करो।

 हे गौ माता !

मैं तुझे पालता हूँ तेरी सेवा के लिए, अन्नोत्पत्ति के लिए और गोरस की प्राप्ति के लिए। तू सबका उपकार करती है, अत: तेरी सेवा करना मेरा परम धर्म है, इस कारण तुझे पालता हूँ।

तुझे पालने का दूसरा प्रयोजन अन्नोत्पत्ति है। तेरे गोबर और मूत्र से कृषि के लिए खाद बनेगा, तेरे बछड़े बैल बनकर हल जोतेंगे, बैलगाड़ियों में जुत कर अन्न खेतों से खलिहानों तक और व्यापारियों तथा उपभोक्ताओं तक ले जायेंगे।इस प्रकार तू अन्न प्राप्त कराने में सहायक होगी, इस हेतु तुझे पालता हूँ।

तीसरे तेरा दूध अमृतोपम है, पुष्टिदायक, स्वास्थ्यप्रद, रोगनाशक तथा सात्त्विक है, उसकी प्राप्ति के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम वायु हो, वायु के समान जीवनाधार हो, प्राणप्रद हो, इसलिए तुम्हें पालता हूँ।

दानी परमेश्वर की कृपा से तुम मुझे प्राप्त होती रहो। राष्ट्र के ‘सविता देव’ का, राष्ट्रनायक राजा प्रधानमन्त्री और मुख्य मन्त्रियों का भी यह कर्तव्य है कि वे श्रेष्ठतम कर्म के लिए तुम्हें गोपालकों के पास पहुँचाएँ राष्ट्र की केन्द्रीय गोशाला में अच्छी जाति की गौएँ पाली जाएँ, जो प्रचुर दूध देती हों और गोपालन के इच्छुक जनों को उचित मूल्य पर दी जाएँ।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ है। अग्निहोत्र रूप यज्ञ के लिए भी और परिवार के सदस्यों तथा अतिथियों को तुम्हारा नवनीत और दूध खिलाने-पिलाने रूप यज्ञ के लिए भी प्रजाजनों को राजपुरुषों द्वारा उत्तम जाति की गौएँ प्राप्त करायी जानी चाहिएँ।

हे गौओ!

तुम ‘अघ्न्या’ हो, न मारने योग्य हो । राष्ट्र में राजनियम बन जाना चाहिए कि गौएँ। मारी–काटी न जाएँ, न उनका मांस खाया जाए। यदि किसी। प्रदेश में बूचड़खाने हैं तो बन्द होने चाहिएँ। दुर्भाग्य है हमारा कि वेदों के ही देश में वेदाज्ञा का पालन नहीं हो रहा है। मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है, न उसके दाँत मांस चबाने योग्य हैं, न आँतें मांस पचाने योग्य हैं।

हे गौओ !

तुम अच्छी पुष्ट होकर रहो। मुझ यज्ञपति इन्द्र का भाग मुझे देती रहो, बछड़े-बछड़ियों का भाग उन्हें प्रदान करती रहो। तुम प्रजावती होवो, उत्तम और स्वस्थ बछड़े-बछड़ियों की जननी बनो । तुम रोगरहित और यक्ष्मारहित होवो। तुम मुझ सदाचारी याज्ञिक गोस्वामी के पास रहो, चोर तुम्हें न चुराने पावे। पापप्रशंसक और पापी मनुष्य तुम्हारा स्वामी न बने। पापी नर-पिशाचों को गोरस नसीब न हो। मुझ गोपालक के पास तुम स्थिररूप से रहो, संख्या में बहुत होकर रहो, जिससे मैं गोशाला चलाकर उन्हें भी तुम्हारा दूध प्राप्त करा सकें, जो स्वयं गोपालन नहीं कर सकते हैं।

हे परमेश्वर ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो, हे राजन् ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो।


पाद-टिप्पणियाँ

१. इष्=अन्न, निघं० २.७।

२. ऊर्ग रसः, श० ५.१.२.८ । ऊर्जा बलप्राणनयोः, चुरादिः ।।

३. दीव्यति ददातीति देवः दाता। देवो दानाद्, निरु० ७.१५ ।

४. षु प्रसवैश्वर्ययोः, भ्वादिः, घूङ् प्राणिगर्भविमोचने, अदादिः । | ( सविता सर्वजगदुत्पादकः सकलैश्वर्यवान् जगदीश्वरः-द०भा० । (सवितः) सकलैश्वर्ययुक्त सम्राट्, य० ९.१-द०भा० ।।

५. (ओ) प्यायी वृद्धौ, भ्वादिः ।।

६. (अनमीवाः) अमीवो व्याधिर्न विद्यते यासु ताः । अम रोगे इत्यस्माद् | बाहुलकाद् औणादिक ईवन् प्रत्यय:-द०भा० ।

७. बह्वीः=बह्वयः । बह्वी+जस्, पूर्वसवर्णदीर्घ, वा छन्दसि पा० ६.१.१०६ ।।

८. यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। -श०१.७.१.५

९. अघ्न्या=गौ, निघं० २.११। अघ्न्या अहन्तव्या भवति, निरु० ११.४० । अघ्न्या इति गवां नाम के एता हन्तुमर्हति, म०भा० शान्तिपर्व २६३ ।

-रामनाथ विद्यालंकार

जिज्ञासा समाधान: – आचार्य सोमदेव

परमात्मा का गौणिक नाम ब्रह्मा क्यों है? क्योंकि ब्रह्म शब्द बहुवाचक है, जबकि ईश्वर एक है और ऋषि का नाम भी ब्रह्मा आया है, वह भी एक ही मनुष्य था। अग्रि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों को ब्रह्मा नाम देने में क्या दोष है, क्योंकि वे सबसे महान् भी थे और यथार्थ में एक से अधिक भी थे।?

आपकी यह दूसरी जिज्ञासा भाषा को न जानने के कारण है। यदि संस्कृत भाषा को ठीक जान रहे होते तो ऐसी जिज्ञासा न करते। ‘ब्रह्मा’ शब्द एक वचन में ही है, बहुवचन में नहीं। ब्रह्म शब्द नपुंसक व पुलिंग दोनों में होता है। नपुंसक लिंग में ब्रह्म और पुलिंग में ब्रह्मा शब्द है। यह ब्रह्मा प्रथमा विभक्ति एक वचन का है। मूल शब्द ब्रह्मन् है, राजन् के तुल्य। ब्रह्मन् शब्द का बहुवचन ब्रह्मण: बनेगा, इसलिए ब्रह्मा शब्द को जो आप बहुवचन में देख रहे हैं सो ठीक नहीं। परमात्मा एक है, इसलिए उसका गौणिक नाम ब्रह्मा एक वचन में ही है। जब यह शब्द एक वचन में ही है तो इससे अग्रि, आदित्य आदि बहुतों का ग्रहण भी नहीं होगा। यदि ग्रहण करेंगे तो दोष ही लगेगा। और यदि ‘‘ब्रह्म शब्द बहुवाचक है’’ इससे आपका यह अभिप्राय है कि ब्रह्म शब्द ‘बहुत’ अर्थ को कहने वाला है और चूँकि परमात्मा एक है, अत: उसके लिए ब्रह्म शब्द का प्रयोग उचित नहीं है, तो यह कहना भी आपका ठीक नहीं है, क्योंकि ब्रह्म शब्द ‘बहुत’ अर्थ का वाचक नहीं है। ब्रह्म का अर्थ तो ‘बड़ा’ होता है। परमात्मा सबसे बड़ा है, अत: उसे ब्रह्म कहा जाता है। ‘सर्वेभ्यो बृहत्वात् ब्रह्म, अर्थात् सबसे बड़ा होने से ईश्वर का नाम ब्रह्म है।’

– स.प्र. १

ऐसे ही ब्रह्मा नाम के ऋषि सकल विद्याओं के वेत्ता होने के कारण ज्ञान की दृष्टि से सबसे बड़े थे, अत: उन्हें ब्रह्मा कहा गया। और ब्रह्मा परमात्मा का नाम इसलिए है-

योऽखिलं जगन्निर्माणेन बर्हति (बृंहति) वद्र्धयति स ब्रह्मा

जो सम्पूर्ण जगत् को रच के बढ़ाता है, उस परमेश्वर का नाम ब्रह्मा है। – स.प्र. १

यज्ञ से विभिन्न रोगों की चिकित्सा

ओउम
यज्ञ से विभिन्न रोगों की चिकित्सा
प्रेषक : डा. अशोक आर्य ,
यज्ञ पर्यावरण की शुद्धि का सर्वश्रेष्ठ साधन है | यह वायुमंडल को शुद्ध रखता है | वर्षा होकर धनधान्य की आपूर्ति होती है | इससे वातावरण शुद्ध व रोग रहित होता है |एक ऐसी ओषध है जो सुगंध भी देती है, पुष्टि भी देती है तथा वातावरण को रोगमुक्त रहता है | इसे करने वाला व्यक्ति सदा रोग मुक्त व प्रसन्नचित रहता है | इतना होने पर भी कभी कभी मानव किन्ही संक्रमित रोगाणुओं के आक्रमण से रोग ग्रसित हो जाता है | इस रोग से छुटकारा पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की दवा लेनी होती है | हवन यज्ञ जो बिना किसी कष्ट व् पीड़ा के रोग के रोगाणुओं को नष्ट कर मानव को शीघ्र निरोग करने की क्षमता रखते हैं | इस पर अनेक अनुसंधान भी हो चुके हैं तथा पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं | डा. फुन्दन लाल अग्निहोत्री ने इस विषय में सर्वप्रथम एक सुन्दर पुस्तक लिखी है “यज्ञ चिकित्सा’ | संदीप आर्य ने यज्ञ थैरेपी नाम से भी एक पुस्तक लिखी है | इस पुस्तक का प्रकाशन गोविंद राम हासानंद ४४०८ नयी सड़क दिल्ली ने किया है | इन पुस्तकों में अनेक जड़ी बूटियों का वर्णन किया गया है , जिनका उपयोग विभिन्न रोगों में करने से बिना किसी अन्य ओषध के प्रयोग के केवल यज्ञ द्वारा ही रोग ठीक हो जाते हैं | इन पुस्तकों के आधार पर आगे हम कुछ रोगों के निदान के लिए उपयोगी सामग्री का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि यदि इस सामग्री के उपयोग सेपूर्ण आस्था के साथ यज्ञ किया जावे तो निश्चत ही लाभ होगा |
कैंसर नाशक हवन
गुलर के फूल, अशोक की छाल, अर्जन की छाल, लोध, माजूफल, दारुहल्दी, हल्दी, खोपारा, तिल, जो , चिकनी सुपारी, शतावर , काकजंघा, मोचरस, खस, म्न्जीष्ठ, अनारदाना, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, ,गंधा विरोजा, नारवी ,जामुन के पत्ते, धाय के पत्ते, सब को सामान मात्रा में लेकर चूर्ण करें तथा इस में दस गुना शक्कर व एक गुना केसर दिन में तीन बार हवन करें |
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संधि गत ज्वर ( जोड़ों का दर्द )
संभालू ( निर्गुन्डी ) के पत्ते , गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के पत्ते, गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के पत्ते, रल आदि का संभाग लेकर चूरन करें , घी मिश्रित धुनी दें, हवं करीं
निमोनियां नाशक
पोहकर मूल, वाच, लोभान, गुग्गल, अधुसा, सब को संभाग ले चूरन कर घी सहित हवं करें व धुनी दें |
जुकाम नाशक
खुरासानी अजवायन, जटामासी , पश्मीना कागज, लाला बुरा ,सब को संभाग ले घी सचूर्ण कर हित हवं करें व धुनी दें |
पीनस ( बिगाड़ा हुआ जुकाम )
बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, नीम के पत्ते, वा|य्वडिंग,सहजने की छाल , सब को समभाग ले चूरन कर इस में धूप का चूरा मिलाकर हवन करें व धूनी दें
श्वास – कास नाशक
बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, वच, पोहकर मूल, अडूसा – पत्र, सब का संभाग कर्ण लेकर घी सहित हवं कर धुनी दें |
सर दर्द नाशक
काले तिल और वाय्वडिंग चूरन संभाग ले कर घी सहित हवं करने से व धुनी देने से लाभ होगा |
3
चेचक नाशक – खसरा
गुग्गल, लोभान, नीम के पत्ते, गंधक , कपूर, काले तिल, वाय्वासिंग , सब का संभाग चूरन लेकर घी सहित हवं करें व धुनी दें
जिह्वा तालू रोग नाशक
मुलहठी, देवदारु, गंधा विरोजा, राल, गुग्गल, पीपल, कुलंजन, कपूर और लोभान सब को संभाग ले घी सहित हवं करीं व धुनी दें |
टायफायड :
यह एक मौसमी व भयानक रोग होता है | इस रोग के कारण इससे यथा समय उपचार न होने से रोगी अत्यंत कमजोर हो जाता है तथा समय पर निदान न होने से मृत्यु भी हो सकती है | उपर्वर्णित ग्रन्थों के आधार पर यदि ऐसे रोगी के पास नीम , चिरायता , पितपापदा , त्रिफला , आदि जड़ी बूटियों को समभाग लेकर इन से हवन किया जावे तथा इन का धुआं रोगी को दिया जावे तो लाभ होगा |
ज्वर :
ज्वर भी व्यक्ति को अति परेशान करता है किन्तु जो व्यक्ति प्रतिदिन यग्य करता है , उसे ज्वर नहीं होता | ज्वर आने की अवास्था में अजवायन से यज्ञ करें तथा इस की धुनी रोगी को दें | लाभ होगा |
नजला, , सिरदर्द जुकाम
यह मानव को अत्यंत परेशान करता है | इससे श्रवण शक्ति , आँख की शक्ति कमजोर हो जाते हैं तथा सर के बाल सफ़ेद होने लगते हैं | लम्बे समय तक यह रोग रहने
पर इससे तायिफायीद या दमा आदि भयानक रोग भी हो सकते हैं | इन के निदान के लिए मुनका से हवन करें तथा इस की धुनी रोगी को देने से लाभ होता है |
नेत्र ज्योति

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नेत्र ज्योति बढ़ाने का भी हवन एक उत्तम साधन है | इस के लिए हवन में शहद की आहुति देना लाभकारी है | शहद का धुआं आँखों की रौशनी को बढ़ता है
मस्तिष्क को बल
मस्तिष्क की कमजोरी मनुष्य को भ्रांत बना देती है | इसे दूर करने के लिए शहद तथा सफ़ेद चन्दन से यग्य करना चाहिए तथा इस का धुन देना उपयोगी होता है |
वातरोग
: वातरोग में जकड़ा व्यक्ति जीवन से निराश हो जाता है | इस रोग से बचने के लिए यज्ञ सामग्री में पिप्पली का उपयोग करना चाहिए | इस के धुएं से रोगी को लाभ मिलता है |
मनोविकार
मनोरोग से रोगी जीवित ही मृतक समान हो जाता है | इस के निदान के लिए गुग्गल तथा अपामार्ग का उपयोग करना चाहिए | इस का धुआं रोगी को लाभ देता है |
मधुमेह :
यह रोग भी रोगी को अशक्त करता है | इस रोग से छुटकारा पाने के लिए हवन में गुग्गल, लोबान , जामुन वृक्ष की छाल, करेला का द्न्थल, सब संभाग मिला आहुति दें व् इस की धुनी से रोग में लाभ होता है |
उन्माद मानसिक
यह रोग भी रोगी को मृतक सा ही बना देता है | सीताफल के बीज और जटामासी चूरन समभाग लेकर हवन में डालें तथा इस का धुआं दें तो लाभ होगा |
चित्भ्रम
यह भी एक भयंकर रोग है | इस के लिए कचूर ,खास, नागरमोथा, महया , सफ़ेद चन्दन, गुग्गल, अगर, बड़ी इलायची ,नारवी और शहद संभाग लेकर यग्य करें तथा इसकी धुनी से लाभ होगा |
पीलिया

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इस के लिए देवदारु , चिरायत, नागरमोथा, कुटकी, वायविडंग संभाग लेकर हवन में डालें | इस का धुआं रोगी को लाभ देता है |
क्षय रोग
यह रोग भी मनुष्य को क्षीण कर देता है तथा उसकी मृत्यु का कारण बनता है | ऐसे रोगी को बचाने के लिए गुग्गल, सफेद चन्दन, गिलोय , बांसा(अडूसा) सब का १०० – १०० ग्राम का चूरन कपूर ५- ग्राम, १०० ग्राम घी , सब को मिला कर हवन में डालें | इस के
धुएं से रोगी को लाभ होगा |
मलेरिया
मलेरिया भी भयानक पीड़ा देता है | ऐसे रोगी को बचाने के लिए गुग्गल , लोबान , कपूर, हल्दी , दारुहल्दी, अगर, वाय्वडिंग, बाल्छाद, ( जटामासी) देवदारु, बच , कठु, अजवायन , नीम के पते समभाग लेकर संभाग ही घी डाल हवन करें | इस का धुआं लाभ देगा |
अपराजित या सर्वरोग नाशक धुप
गुग्गल, बच, गंध, तरीन, नीम के पते, अगर, रल, देवदारु, छिलका सहित मसूर संभाग घी के साथ हवन करें | इसके धुआं से लाभ होगा तथा परिवार रोग से बचा रहेगा|
डा. अशोक आर्य
१०४- शिप्रा अपार्टमैंट कौशाम्बी जिला गाजियाबाद उ. प्र.
चलभाष ०९८११५२७९३५

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

– शिवनारायण उपाध्याय

वैदिक वाङ्मय में इस विषय पर कई स्थानों पर विचार किया गया है। ऋग्वेद, मुण्डकउपनिषद्, तैत्तिरीयउपनिषद्, प्रश्नोपनिषद्, छान्दोग्यउपनिषद् तथा बृहदारण्यकउपनिषद् में इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर मैं भी इस विषय पर पूर्व में छः लेख लिख चुका हूँ। एक बार पुनः इसी विषय को लिखने का उपक्रम इसलिए करना पड़ रहा है कि आर्य समाज के ही प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती आन्ध्रप्रदेश ने माह जून 2015 में ‘वैदिकपथ’ पत्रिका में एक लेख प्रकाशित करवाया है, जिसमें सृष्टि की आयु के स्वामी दयानन्द सरस्वती के निर्णय का विरोध किया है।

सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विज्ञान का मानना तो यह है कि सृष्टि की उत्पत्ति Big Bang (भयंकर विस्फोट) के साथ ही प्रारमभ हुई और परिवर्तन के कई चरणों से गुजरती हुई वर्तमान स्थिति में पहुँची है। Big Bang के साथ ही आकाश और समय का कार्य प्रारमभ हुआ। सृष्टि उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार रहा- आकाश, ज्वलनशील वायु, अग्नि, जल और निहारिका का मण्डल। निहारिका मण्डल में ही सौर मण्डलों ने स्थान पाया। पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से छिटक कर अलग होने के बाद धीरे-धीरे परिवर्तित होकर वर्तमान रूप में हुई। श्वास लेने योग्य वायु के बनने, पानी के पीने योग्य होने पर पानी के अन्दर सर्वप्रथम जलचरों को जीवन मिला। फिर क्रमशः जल-स्थलचर, स्थलचर और आकाशचर प्राणियों की उत्पत्ति हुई। सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व क्या था? इस विषय में विज्ञान का कहना है कि Big Bang के बाद ही सृष्टि नियम विकसित हुए हैं और उनके आधार पर हम घोषित कर सकते हैं कि भविष्य में कब क्या होगा और वे घोषणाएँ सब सत्य सिद्ध हो रही हैं, अतः हमें Big Bang के पूर्व की स्थिति को जानने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अज्ञान से हमारे वैज्ञानिक कार्य पर कोई भी प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। अस्तु।

वैज्ञानिक विचार धारा पर संक्षेप में वर्णन कर देने के उपरान्त अब हम इस विषय पर वैदिक वाङ्मय के विचार पाठकों के सामने रखने का प्रयास कर रहे हैं। वैदिक वाङ्मय में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति का वर्णन भी किया गया है। पाठकों के लिए नासदीय सूक्त के मन्त्र दिये जा रहे हैं-

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमाऽपरोयत्।

किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नभः किमासीद्गहनं गभीरम्।।

-ऋग्वेद 10.129.1

अर्थ- (नासदासीत्) जब यह कार्य सृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण विद्यमान था। असत् शून्य नाम आकाश भी उस समय नहीं था क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। (ना सदासीत्तदानीम्) उस काल में सत् अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाकर जो प्रधान कहाता है, वह भी नहीं था। (नासीद्रजः) उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा (नो व्योमाऽपरोयत्) विराट अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के निवास का स्थान है, वह (आकाश) भी नहीं था। (किमावरीव…….गभीरम्) जो यह वर्तमान जगत् है, वह भी अत्यन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढँक सकता है और उससे अधिक वा अथाह भी नहीं हो सकता है, जैसे कोहरे का जल पृथ्वी को नहीं ढँक सकता है तथा उस जल से नदी में प्रवाह नहीं आ सकता है और न वह कभी गहरा अथवा उथला हो सकता है।

                        तम आसीत्तमसा गुलमग्रेऽप्रकेतं सलितं सर्वमा इदम्।

                        तुच्छ्येनावपिहितं यवासीत्तपसस्तन्माहिना जायतैकम्।।

– ऋ. 10.129.3

अर्थ- उस समय यह जगत् अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सममुख एकदेशी आच्छादित तथा पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से कारण रूप से कार्य रूप में कर दिया।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।

                       आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास।।

– ऋ. 10.129.2

सृष्टि के पूर्व प्रलयकाल में मृत्यु नहीं थी, मृत्यु के अभाव में अमरता भी नहीं थी। न मारक शक्ति के विपरीत अमृत अथवा सब जीव मुक्तावस्था में थे, ऐसा भी नहीं कह सकते। रात्रि एवं दिन का प्रज्ञान भी नहीं था। उस समय केवल वायु की अपेक्षा न रखने वाला सदा जाग्रत ब्रह्म ही था। उस समय उससे भिन्न, उसके समान अथवा उससे अधिक कुछ भी नहीं था। प्रकृति ऊर्जारूप में परिवर्तित होकर अव्यक्त थी।

फिर सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई, इस पर तैत्तिरीय उपनिषद् का कहना है-

‘सो कामयत। बहुस्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत। यदिद किञ्च। तत सृष्टावा तदेवानु प्राविशत्। तदनुप्रविश्य। सच्चत्यच्यामवत्। निरुक्तं चानिरुक्तं च। निलयन चानिलयन च। विज्ञानं चापिज्ञानं च। सत्यं चानृतं च। सत्यमभवत। यदिद किञ्च। तत्सत्यमित्या चक्षते।

-तै.उप. ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक 6

अर्थ- उसने कामना की कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ, तब उसने तप किया। क्रिया का प्रारमभ हो गया। जब यह क्रिया बढ़ते-बढ़ते उग्र रूप में पहुँची, तब उसे तप कहा गया। तप के प्रभाव से यह सब विश्व सृजा गया। सबकी सृष्टि करके वह ब्रह्म सृष्टि में अनुप्रविष्ट हो गया। आगे विपरीत कणों का वर्णन भी किया गया है-

सत्व रजस्तमसा सामयावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारोऽहंकारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूल भूतानि पुरुष इति पञ्च विंशतिर्गण।।

अर्थ- सत्व, रज और तम रूप शक्तियाँ हैं। इन शक्ति रूपों की समावस्था, निश्चेष्ठावस्था प्रकट रूपावस्था को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ तथा पञ्चतन्मात्राओं से पाँच स्थूलभूत, स्थूलभूतों से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन उत्पन्न होता है। पुरुष (चेतन सत्ता) इनसे भिन्न हैं। इन 25 पदार्थों को जानना, समझना विवेक में आवश्यक है।

ऋग्वेद में सृष्टि उत्पत्ति परमेश्वर ने इस प्रकार की है-

ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मारइवाधमत्।

देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सद जायत।।

– ऋ. 10.72.2

प्रकृति और ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर ने दिव्य पदार्थों के परमाणुओं को लोहार के समान धोंका, अर्थात ताप से तप्त किया है। वास्तव में इसी को वैज्ञानिकों ने भयंकर विस्फोट Big Bang कहा है। इन दिव्य पदार्थों के पूर्व युग, अर्थात् सृष्टि के प्रारमभ में अव्यक्त (असत्) प्रकृति से (सत्) व्यक्त जगत् उत्पन्न किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली के प्रथम अनुवाक में सृष्टि उत्पत्ति का क्रम भी बताया गया है-

तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः समभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी।      पृथिव्या ओषधय। ओषधीयोऽन्नम् अन्नाद् रेतः। रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।।

अर्थात् परम पुरुष परमात्मा से पहले आकाश, फिर वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी उत्पन्न हुई है। पृथ्वी से ओषधियाँ, (अन्न व फल फूल) ओषधियों से वीर्य और वीर्य से पुरुष उत्पन्न हुए, इसलिए पुरुष अन्न रसमय है।

पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य में से छिटक कर हुई है, इस पर कहा गया है-

                           भूर्जज्ञ उत्तानपदो भूव आशा अजायन्त |

अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि।।

– ऋ. 10.72.4

अर्थ- पृथ्वी सूर्य से उत्पन्न होती है। पृथ्वी से पृथ्वी की दशा को बताने वाले भेद उत्पन्न होते हैं। प्रातःकालीन उषा से आदित्य उत्पन्न होता है, अर्थात् दृष्टि गोचर होता है और सांय कालीन उषा आदित्य से उत्पन्न होती है।

सृष्टि उत्पत्ति पर विचार कर लेने पर अब सृष्टि की वर्तमान आयु पर विचार करते हैं। वर्तमान में सृष्टि का वर्णन Friedmann Model के अनुसार किया जाता है। इसमें Big Bang के साथ ही आकाश-समय निरन्तरता का जन्म हो जाता है, अर्थात् समय की गणना Big Bang के प्रारमभ होने के साथ ही शुरू हो जाती है। एक अमेरिकन वैज्ञानिक Edwin Hubble ने 9 विभिन्न आकाश गंगाओं (Galaxies) की दूरी जानने का प्रयत्न किया। उसने बताया कि हमारी आकाश गंगा तो अत्यन्त छोटी है, ऐसी तो करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं। साथ ही उसने यह भी बताया कि जो (Galaxy) हमसे जितना अधिक दूर है, उतनी ही अधिक तेजी से वह हम से दूर भागती जा रही है। उसने उनकी हमसे दूर होने की चाल की गति भी ज्ञात कर ली। फिर इस सिद्धान्त पर भी Big Bang के समय तो सब एक ही स्थान पर थे। उन्हें इतना दूर जाने में कितना समय लगा, उसका एक नियम भी खोज लिया।

नियम है- V=HR. यहाँ V आकाश गंगा की हमसे दूर भागने की गति है,  R आकाश गंगा की हमसे दूरी है और H Constant है। Edwin Hubble ने यह भी ज्ञात किया कि कोई भी आकाश गंगा जो हमसे d दश लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर है, उसकी दूर हटने की गति 19d मील प्रति सैकण्ड है। अतः अब समय R=106 d प्रकाश वर्ष, T =106×365×24×3600×186000d वर्ष

19d×3600×24×365

=186×109=9.7×109वर्ष

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Saint Augustine ने अपनी पुस्तक The City of God में बताया कि उत्पत्ति की पुस्तक के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 500 वर्ष पूर्व हुई है।

बिशप उशर का मानना है कि सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 4004 वर्ष पूर्व हुई है और केब्रीज विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. लाइटफुट ने सृष्टि उत्पत्ति का समय 23 अक्टूबर 4004 ईसा पूर्व प्रातः 9 बजे बताया है जो हास्यास्पद है। अब हम वैदिक वाङ्मय के आधार पर सृष्टि की आयु पर विचार करते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के दूसरे अध्याय अथ वेदोत्पत्ति विषय में इस पर विचार किया है कि वेद की उत्पत्ति कब हुई? इससे यह मानना चाहिए कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति कब हुई, क्योंकि मानव के उत्पन्न होने पर ही तो वेद का ज्ञान उसे प्राप्त हुआ है। इससे पूर्व की स्थिति अर्थात् सृष्टि उत्पन्न होने के प्रारमभ से मानव के उत्पन्न होने के समय पर उन्होंने अपने विचार देना उचित नहीं समझा। वास्तव में मनुष्य ने तो अपने उत्पन्न होने के बाद ही समय की गणना प्रारमभ की है। सृष्टि के उस समय की गणना वह कैसे करता, जब बन ही रही थी? वह कैसे जानता कि सृष्टि उत्पन्न होने की क्रिया के प्रारमभ होने से उसके पूर्ण होने तक सृष्टि निर्माण में कितना समय व्यतीत हुआ है? इस पर फिर चर्चा करेंगे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी गणना में मनुस्मृति के श्लोकों को ही मुखय रूप से काम में लिया है-

अत्वार्याहुः सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।

तस्य यावच्छतो सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथा विधः।।

-मनु. 1.69

उन दैवीयुग में (जिनमें दिन-रात का वर्णन है) चार हजार दिव्य वर्ष का एक सतयुग कहा है। इस सतयुग की जितने दिव्य वर्ष की अर्थात् 400 वर्ष की सन्ध्या होती है और उतने ही वर्षों की अर्थात् 400 वर्षों का सन्ध्यांश का समय होता है।

इतंरेषु ससन्ध्येषु ससध्यांशेषु च त्रिषु।

एकापायेन वर्त्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च।।

-मनु. 1.70

और अन्य तीन-त्रेता, द्वापर और कलियुग में सन्ध्या नामक कालों में तथा सन्ध्यांश नामक कालों में क्रमशः एक-एक हजार और एक-एक सौ कम कर ले तो उनका अपना-अपना काल परिणाम आ जाता है।

इस गणना के आधार पर सतयुग 4800 देव वर्ष, त्रेतायुग 3600 देव वर्ष, द्वापर 2400 वर्ष तथा कलियुग 1200 देव वर्ष के होते हैं। इस चारों का योग अर्थात् एक चतुर्युगी 12000 देव वर्ष का होता है।

दैविकानाम युगानां तु सहस्त्रं परि संखयया।

ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च।। – मनु. 1.72

देव युगों को 1000 से गुण करने पर जो काल परिणाम निकलता है, वह ब्रह्म का एक दिन और उतने ही वर्षों की एक रात समझना चाहिए। यह ध्यान रहे कि एक देव वर्ष 360 मानव वर्षों के बराबर होता है।

तद्वै युग सहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः।

रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदोजनाः।।मनु. 1.73

जो लोग उस एक हजार दिव्य युगों के परमात्मा के पवित्र दिन को और उतने की युगों की परमात्मा की रात्रि समझते हैं, वे ही वास्तव में दिन-रात = सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय काल के विज्ञान के वेत्ता लोग  हैं।

इस आधार की सृष्टि की आयु = 12000×1000 देव वर्ष = 12000000 देव वर्ष

12000000×360 = 4320000000 देव वर्ष

12000000 देव वर्ष = 4320000000 मानव वर्ष

यत् प्राग्द्वादशसाहस्त्रमुदितं दैविक युगम्।

तदेक सप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते।।   -मनु. 1.79

पहले श्लोकों में जो बारह हजार दिव्य वर्षों का एक दैव युग कहा है, इससे 71 (इकहत्तर) गुना समय अर्थात् 12000×71 = 852000 दिव्य वर्षों का अथवा 852000×360= 306720000 वर्षों का एक मन्वन्तर का काल परिणाम गिना गया है।

फिर अगले श्लोक में कहा गया है कि वह महान् परमात्मा असंखय मन्वन्तरों को, सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय को बार-बार करता रहता है, अर्थात् सृष्टी  प्रवाह से अनादि है।

फिर स्वामी दयानन्द सरस्वती संकल्प मन्त्र के आधार पर वेद का उत्पत्ति काल बताते हैं।

3म् तत्सत् श्री  ब्रह्मणः द्वितीये प्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वते मन्वन्तरेऽअष्टाविंशतितमे कलियुगे कलियुग प्रथम चरणेऽमुकसंवत्सरायमनर्तु मास पक्ष दिन नक्षत्र लग्न मुहूर्तेऽवेदं कृतं क्रियते च।

यह जो वर्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान है। इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं और सात मन्वन्तर आगे होवेंगे। ये सब मिलकर चौदह मन्वन्तर होते हैं।

इस आधार पर वेदोत्पत्ति की काल गणना इस प्रकार होगी-

छः मन्वन्तरों का समय = 4320000×71×6= 1840320000 वर्ष

वर्तमान मन्वन्तर की 27 चतुर्युगी का काल= 4320000×27= 116640000 वर्ष

अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के गत तीन युगों का काल= 3888000 वर्ष

कलियुग के प्रारभ से विक्रम सं. 2072 तक का काल= 3043 + 2072 वर्ष

= 5115 वर्ष

कुल योग = 1840320000 +116640000 + 3888000 +5115 वर्ष

= 1960853115 वर्ष। चूंकि विक्रम संवत् के प्रारमभ तक कलियुग के 3043 वर्ष व्यतीत हो चुके थे और 3044 वाँ वर्ष चल रहा था, इसलिए वर्तमान में 1960853116वाँ वर्ष चल रहा है।

अब कुछ विद्वान् कहते हैं कि सृष्टि की आयु जब मनु 1000 चतुर्युगी मानते हैं और दूसरी तरफ इसी आयु को 14 मन्वन्तर अर्थात् 994 चतुर्युगी कहा जाता है, तो दोनों के अन्तर 6 चतुर्युगों का समन्वय कैसे होगा? इसका उत्तर यह है कि 994 चतुर्युग तो मानव भोग काल है और 6 चतुर्युगों का समय सृष्टि उत्पत्ति के प्रारमभ से लेकर मानव अथवा वेदों की उत्पत्ति तक का है। सृष्टि उत्पत्ति में जो समय लगा है, वह सृष्टि की आयु में माना जावेगा। इसी प्रकार भोग काल 994 चतुर्युगों के अन्त में प्रलय काल प्रारमभ होगा और वह प्रलय की आयु में जोड़ा जायेगा।

ऋग्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि काल लगे बिना कोई कार्य नहीं होता-

त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्संपृञ्चानः सदने गोभिरद्भि।

                        कविबुध्नं परि मर्मृज्यते धीः सा देवताता समिति र्बभूवः।।

– ऋ. 1.95.8

अर्थ- मनुष्य को चाहिए कि (यत्) जो (संपृञ्चानः) अच्छा परिचय करता कराता हुआ (कविः) जिसका क्रम से दर्शन होता है, वह समय (सादने) सदन में (गोभिः) सूर्य की किरणों वा (अद्भिः) प्राण आदि पवनों से (उत्तरम्) उत्पन्न होने वाले (त्वेषम्) मनोहर (बुध्नम्) प्राण और बल सबन्धी विज्ञान और (रूपम्) स्वरूप को (कृणुते) करता है तथा जो (धीः) उत्पन्न बुद्धि वा क्रिया (परि) (मर्मृज्यते) सब प्रकार से शुद्ध होती है (सा) वह (देवताता) ईश्वर और विद्वानों के साथ (समितिः) विशेष ज्ञान की मर्यादा (बभूव) होती है, इस समस्त उक्त व्यवहार को जानकर बुद्धि को उत्पन्न करें।

भावार्थ- मनुष्यों को जानना चाहिये कि काल के बिना कार्य स्वरूप उत्पन्न होकर और नष्ट हो जाये- यह होता ही नहीं है और न ब्रह्मचर्य आदि उत्तम समय के सेवन के बिना शास्त्र बोध कराने वाली बुद्धि होती है, इस कारण काल के परम सूक्ष्म स्वरूप को जानकर थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ न खोवें, किन्तु आलस्य छोड़कर समय के अनुसार व्यवहार और परमार्थ के कामों का सदा अनुष्ठान करें।

यह भी ध्यान रखें कि जिस क्रिया में जो समय लगे, वह उसी का होगा। स्वामी जी ने इस प्रकरण में वेद का उत्पत्ति काल बताया है, सृष्टि की आयु नहीं बताई है। यदि सृष्टि की आयु जानना चाहें तो इसमें सृष्टि का उत्पत्ति काल जोड़ दें, तब सृष्टि की आयु होगी-

= 1960853116+25920000= 1986773116 वर्ष

साथ ही सृष्टि की शेष आयु होगी= 4320000000-1986773116= 2333226884 वर्ष सन्धि और सन्ध्यांश काल तो युगों की आयु में पहिले ही जोड़ लिए हैं, फिर मन्वन्तर के प्रारमभ और अन्त में एक सतयुग का जोड़ना व्यर्थ है। स्वामी जी ने ही नहीं, मनु ने भी इसका उल्लेख नहीं किया है। ज्ञान के अभाव में सृष्टि उत्पत्ति काल को न समझ कर 25920000 वर्षों को 15 भागों में व्यर्थ विभाजित कर क्षति पूर्ति करने का प्रयत्न किया गया है। इससे तो यहूदी ही अच्छे हैं, जो सृष्टि की उत्पत्ति 6 दिनों में स्वीकार करते हैं। यदि उनके दिन का मान एक चतुर्युगी मान लें तो उनकी सृष्टि उत्पत्ति की गणना ठीक वेदों के अनुरूप हो जाती है। इति।

 

– 73, शास्त्रीनगर, दादाबाड़ी, कोटा-324009 (राजस्थान)

सृष्टि विज्ञान, वैदिक साहित्य और स्वामी दयानन्द

ओ३म्

सृष्टि विज्ञान, वैदिक साहित्य और स्वामी दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़े अनेक रहस्य हैं जिन्हें विज्ञान आज भी खोज नहीं पाया अथवा जिसका विज्ञान जगत व हमारे धार्मिक व सामाजिक लोगों का यथोचित ज्ञान नहीं है। महर्षि दयानंद सत्य-ज्ञान के जिसाज्ञु थे। उन्होंने धर्म-समाज-ज्ञान-विज्ञान किसी भी पक्ष की उपेक्षा न कर सभी विषयों का यथोचित ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से देश का भ्रमण कर उस समय उपलब्ध प्राचीन व प्राचीनतम ग्रन्थों सहित अधिकारी विद्वानों के उपलब्ध ग्रन्थों का भी अध्ययन कर उनमें उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त किया। ऐसा कर उनको अनेक नये तथ्यों व रहस्यों का ज्ञान हुआ जिसे वह अपने प्रवचनों में प्रस्तुत करते थे और जब उन्होंने साहित्य सृजन का कार्य किया तो सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों में उस ज्ञान का प्रसंगानुसार वर्णन किया। उनसे प्राप्त सृष्टि के रहस्य सम्बन्धी ज्ञान के लिए तो उनके सभी ग्रन्थों को पढ़ना आवश्यक है परन्तु आज के लेख में हम सत्यार्थप्रकाश से उनके कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे कुछ प्रमुख बातों का ज्ञान हो सके।

 

जगत की उत्पत्ति में कितना समय व्यतीत हुआ, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि एक अरब, छानवें करोड़, कई लाख और कई सहस्र वर्ष जगत् की उत्पत्ति और वेदों के प्रकाश होने में हुए हैं। इस का स्पष्ट व्याख्यान उन्होंने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में विस्तार से किया है, वहीं देखना उचित है। वह आगे बताते हैं कि सब से सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात् जो काटा नहीं जा सकता उसका नाम परमाणु है। साठ परमाणुओं के मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्वयणुक जो स्थूल वायु है, तीन द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अर्थात् तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उस का दोगुना होने से पृथिवी आदि दृश्य पदार्थ होते हैं। इसी प्रकार क्रम से मिला कर भूगोलादि परमात्मा ने बनाये हैं। यहां हम विचार करते हैं कि यदि स्वामी दयानन्द के जीवनकाल में कोई व्यक्ति उनसे परमाणु विषयक इस विवरण पर विस्तृत व्याख्या लिखने का अनुग्रह करता तो उत्तम होता जिससे हमें इस विषय के व्याख्या सहित उनके विस्तृत विचार ज्ञात हो सकते थे। उनसे इनका श्रोत व सन्दर्भ भी जाना जा सकता था। अब उनके न रहने पर हमें नहीं लगता की कोई ऐसा विद्वान है जो परमाणु विज्ञान उनके इन कथनों का आधुनिक विज्ञान से संगति लगाकर व समाधान कर सके।

 

अगला प्रश्न महर्षि दयानन्द यह लेते हैं कि इस सृष्टि का धारण कौन करता है। कोई कहता है शेष अर्थात् सहस्र फण वाले सप्र्प के शिर पर पृथिवी है। दूसरा कहता है कि बैल के सींग पर, तीसरा कहता है कि किसी पर नहीं, चैथा हता है कि वायु के आधार, पांचवां कहता है कि सूर्य के आकर्षण से खिंची वा खैंची हुई अपने स्थान पर स्थित, छठा कहता है कि पृथिवी भारी होने से नीचे-नीचे आकाश में चली जाती है इत्यादि। इनमें से किस बात को सत्य मानें? इसके उत्तर में वह कहते हैं कि जो शेष, सर्प्प और बैल के सींग पर धरी हुई पृथिवी स्थित बतलाता है उस को पूछना चाहिये कि सर्प्प और बैल के मां बाप के जन्म समय किस पर थी? तथा सर्प्प और बैल आदि किस पर हैं? बैल वाले मुसलमान तो चुप ही कर जायेंगे। परन्तु सप्र्प वाले कहेंगे कि सर्प्प कूर्म पर, कूर्म जल पर, जल अग्नि पर, अग्नि वायु पर तथा वायु आकाश में ठहरा है। उन से पूछना चाहिये कि सब किस पर हैं? तो अवश्य कहेंगे परमेश्वर पर। जब उन से कोई पूछेगा कि शेष और बैल किस का बच्चा है? शेष कश्यप-कद्रू और बैल गाय का। कश्यप मरीची, मरीची मनु, मनु विराट्, विराट् ब्रह्मा का पुत्र, ब्रह्मा आदि सृष्टि का था। जब शेष का जन्म ही नही हुआ था, उसके पहले पांच पीढ़ी हो चुकी है, तब किस ने धारण की थी? अर्थात् कश्यप के जन्म समय में पृथिवी किस पर थी? तो तेरी चुप मेरी भी चुप और लड़ने लग जायेंगे। इस का सच्चा अभिप्राय यह है कि जो बाकी रहता है उस को शेष कहते हैं। किसी कवि ने शेषाधारा पृथिवीत्युक्तम्  ऐसा कहा कि शेष के आधार पृथिवी है। दूसरे ने उसके अभिप्राय को न समझ कर सर्प्प की मिथ्याकल्पना कर ली। परन्तु जिसलिये परमेश्वर उत्पत्ति और प्रलय से बाकी अर्थात् पृथक रहता है इसी से उसको, परमेश्वर को, शेष कहते हैं और उसी के आधार पर पृथिवी है। सत्येनोत्तभिता भूमिःयह ऋग्वेद का वचन है। इसका अर्थ है कि जो त्रैकाल्याबाध्य है अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता उस परमेश्वर ने भूमि, सूर्य और सब लोकलोकान्तरों का धारण किया है। उक्षा दाधार पृथिवीमुत द्याम्, यह भी ऋग्वेद का वचन है। इसमें ‘‘उक्षा शब्द को देखकर किसी ने बैल का ग्रहण किया होगा क्योंकि उक्षा बैल का भी नाम है। परन्तु उस मूढ़ को यह विदित न हुआ कि इतने बड़े भूगोल के धारण करने का सामर्थ्य बैल में कहां से आयेगा? वैदिक साहित्य में उक्षा वर्षा द्वारा भूगोल के सेचन करने से सूर्य का नाम है। उस ने अपने आकर्षण से पृथिवी को धारण किया है। परन्तु सूर्यादि का धारण करने वाला बिना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं है। अतः महर्षि दयानन्द सभी उपलब्ध विवरणों की वैदिक साहित्य से तुलना कर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि इस सृष्टि को धारण करने वाला ईश्वर वा परमेश्वर ही है, और कोई नहीं। महर्षि दयानन्द समाधि सिद्ध अर्थात् ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार किये हुए अथवा ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति किये हुए मनुष्य वा विद्वान थे। वह वैज्ञानिकों के मत कि समस्त सौर्य मण्डल वा ब्रह्माण्ड को आकर्षण-अनुकर्षण, प्रत्येक पिण्ड की अपनी-अपनी धुरी व वृत्ताकार गति के कारण स्थित-स्थिर हैं वा गति कर रहे हैं, इनको स्वीकार करने के साथ परमेश्वर का इन सबका उत्पत्तिकर्ता व धारणकर्ता स्वीकार करते हैं।

 

इसी प्रसंग में एक अन्य प्रश्न महर्षि दयानन्द ने यह किया है कि इतने बड़े-बड़े  भूगोलों को परमेश्वर कैसे धारण कर सकता होगा? इसका उत्तर वह यह कहकर देते हैं कि जैसे अनन्त आकाश के सामने बड़े-बड़े भूगोल अर्थात् समुद्र के आगे जल के छोटे कण के तुल्य भी नहीं हैं, वैसे अनन्त परमेश्वर के सामने असंख्यात लोक एक परमाणु के तुल्य भी नहीं कह सकते। वह बाहर भीतर सर्वत्र व्यापक अर्थात् विभूः प्रजासु (यजुर्वेद वचन), वह परमात्मा सब प्रजाओं में व्यापक होकर सब का धारण कर रहा है। जो वह ईसाई, मुसलमान व पुराणियों के कथनानुसार विभू न होता तो इस सब सृष्टि का धारण कभी नहीं कर सकता था क्योंकि विना प्राप्ति (ईश्वर के सर्वव्यापक अर्थात् सबको सर्वत्र प्राप्त हुए बिना) के किसी को कोई धारण नहीं कर सकता। वह आगे कहते हैं कि यदि कोई कहे कि ये सब लोक-लोकान्तर परस्पर आकर्षण से धारित होंगे, पुनः परमेश्वर के धारण करने की क्या अपेक्षा है? उन को यह उत्तर देना चाहिये कि यह सृष्टि अनन्त है वा सान्त (अन्त वाली वा सीमित)? जो अनन्त कहें तो आकार वाली वस्तु अनन्त कभी नहीं हो सकती और जो सान्त कहें तो उनके पर भाग सीमा अर्थात् जिस के परे कोई भी दूसरा लोक नहीं है, वहां किस के आकर्षण से धारण होगा? जैसे समष्टि कहाता है और एक-एक वृक्षादि को भिन्न-भिन्न गणना करें तो व्यष्टि कहाता है, वैसे सब भूगोलों को समष्टि गिनकर जगत् कहें तो सब जगत् का धारण और आकर्षण का कर्ता विना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं। इसलिए जो सब जगत् को रचता है वही दाधार पृथिवीमुत द्याम्।।, यह यजुर्वेद का वचन है, इसमें कहा गया है कि जो पृथिव्यादि प्रकाशरहित लोक-लोकान्तर पदार्थ तथा सूर्यादि प्रकाश वाले लोक और पदार्थों का रचन व धारण परमात्मा ही करता है। जो सब में व्यापक हो रहा है वही सब जगत् का कर्ता और धारण करने वाला है।

 

महर्षि दयानन्द सौर मण्डल विषयक कुछ प्रश्नोत्तर प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पृथव्यादि लोग घूमते हैं वा स्थिर हैं? वह उत्तर में कहते हैं कि घूमते हैं। (प्रश्न) कितने ही लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता है और पृथिवी नहीं घूमती। दूसरे कहते हैं कि पृथिवी घूमती है सूर्य नहीं घूमता। इसमें सत्य क्या माना जाये? इसका उत्तर महर्षि दयानन्द वेदों के आधार पर देते हैं। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए। वेदों का ज्ञान और आधुनिक विज्ञान की खोजे परस्पर एक समान व पूरक हैं। पूर्व प्रश्न के उत्तर में महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के अध्याय 3 के मन्त्र 63 आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं प्रयन्त्स्वः।। को प्रस्तुत कर उसका अर्थ बताते हुए कहा है कि यह भूगोल समुद्र नदी के जल सहित सूर्य के चारों ओर घूमता जाता है इसलिए भूमि अर्थात् सम्पूर्ण पृथिवी घूमा करती है। एक अन्य वैज्ञानिक खोज को वेदों में दिखाने हेतु वह यजुर्वेद के 33/43 मन्त्र कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।। को प्रस्तुत कर कहते हैं कि जो सविता अर्थात् सूर्य वर्षादि का कर्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्तमान, सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप, वृष्टि वा किरण के साथ आकर्षण गुण से सह वर्तमान, अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। इसी प्रकार एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य प्रकाशक और दूसरे सब लोक-लोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे- दिवि सोमो अधि श्रितः।। यह अथर्ववेद का 14/1/1 मन्त्र है। इसका तात्पर्य बताते हुए दयानन्द जी कहते हैं कि यह चन्द्रलोक सूर्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्यान्ह, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देशदेशान्तरों में सदा वर्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्यावर्त में सूर्यादय होता है उस समय पाताल अर्थात् अमेरिका में अस्त होता है और जब आर्यावर्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्यावर्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है।

 

महर्षि दयानन्द ने सृष्टि रचना व इससे जुड़े विषयों पर जो तथ्य वैदिक साहित्य के आधार पर प्रस्तुत किये हैं वह अति विस्तृत एवं विज्ञानसम्मत हैं। इसके लिए उनके समस्त ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। महाभारत काल के बाद भारत के ब्राह्मण कहे जाने वाले विद्वानों ने वैदिक साहित्य की उपेक्षा कर अज्ञानयुक्त पुराणों आदि की रचना कर मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जाति आदि की मिथ्या परम्पराओं को प्रचलित किया। उन्होंने सांगोपांग वेदाध्ययन न कर इसका परिणाम सामाजिक व वैज्ञानिक उन्नति का कार्य बन्द कर दिया था जिसके कारण भारत का पतन हुआ। वहीं दूसरी ओर यूरोप के सुधीजनों ने वहां की विज्ञान विरूद्ध व विज्ञान रहित धार्मिक मान्यताओं की उपेक्षा कर विज्ञान की उन्नति पर अपना ध्यान व शक्ति को केन्द्रित किया जिसका परिणाम आज का आधुनिक विज्ञान है। हमारे पौराणिक विद्वान व संसार के अन्य मतवाले आज भी वहीं हैं जहां वह मध्यकाल में थे। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ऐसे पहले वैदिकधर्मी विद्वान उत्पन्न हुए जिन्होंने विज्ञान को धर्म को आवश्यक अंग स्वीकार किया और विज्ञान की उपेक्षा न कर उसका पोषण किया। महाभारत काल से पूर्व वैदिक धर्म विज्ञान का पूर्ण पोषक व आधार रहा है। इसी कारण महाभारत काल तक भारत में ज्ञान व विज्ञान सर्वोच्च रहा। ज्ञान व विज्ञान से युक्त धार्मिक मान्यतायें एवं इनके परस्पर समन्वय से धर्म, समाज व विज्ञान की उन्नति होकर मानवजाति को लाभ वा सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है। आज भी मध्यकालीन अज्ञानतापूर्ण मान्यतायें चाहे वह किसी भी मत व मतान्तर की हों, उचित नहीं कही जा सकती। सभी मतों व धर्मों को विज्ञान के आलोक में अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों का संशोधन कर अपने-अपने मत व धर्म को मनुष्यों के लिए अधिक उपयोगी, स्वीकार्य एवं परिणाम प्राप्ति में सहायक बनाना चाहिये। हम स्वामी दयानन्द के धर्म व विज्ञान के सन्तुलित सिद्धान्तों का अध्ययन करने व उसमें निहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति की प्ररेणा को आज के युग में सर्वाधिक प्रासंगिक व सभी मनुष्यों द्वारा ग्रहण किये जाने की आवश्यकता को अनुभव करते हैं क्योंकि इसी में मनुष्यजाति का कल्याण है।

मनमोहन कुमार आर्य

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