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ओम् का माहात्म्य :- उत्तरा नेरूर्कर

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ओम् का माहात्म्य

 

सभी हिन्दू ’ओम्’ पद का अत्यधिक सम्मान करते हैं । जहां एक ओर वैदिक पाठों में तो इसका उच्चारण होता ही है, परन्तु अन्य अवैदिक स्तुतियों, भजनों, पूजाओं में भी इसका विशेष स्थान पाया जाता है । यहां तक कि अन्य धर्मों में भी इसका बोलबाला है । ईसाइयों का ’आमैन्’ और मुसलमानों का ’आमीन्’ स्पष्ट रूप से ओम् के अपभ्रंश हैं । हर प्रार्थना के बाद इसे जोड़ा जाता है । इनके धर्म-ज्ञाताओं से इन शब्दों के अर्थ पूछे जाएं, या उनके महत्त्व पर प्रकाश डालने को कहा जाए, तो वे कोई भी सन्तोषजनक उत्तर न दे पायेंगे । वस्तुतः, कब ओम् उन देशों में पहुंचा, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है । बौद्ध धर्म तो हिन्दू-धर्म के बहुत निकट है । सो, वहां ओम् जैसा का तैसा पाया जाता है – “ओम् मनि पद्मे हुम्’ । वैदिक संस्कृति में, जबकि परमात्मा के नाम असंख्य हैं, ओम् का स्थान शिखर पर है । ऐसा क्यों है ? इस प्रश्न पर इस लेख में विचार किया गया है।

पहले हम देखते हैं कि किसने हमें बताया कि ओम् परमात्मा का मुख्य नाम है । एक ओर जहां ब्राह्मण-ग्रन्थों ने उसके माहात्म्य का वर्णन किया है, वहीं प्रायः सभी उपनिषदों ने इसकी स्तुति में कसर नहीं छोड़ी है । कुछ ऐसे ही श्लोक नीचे दिये हैं –

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति

तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीमि – ओमित्येतत् ॥ कठ० १।२।१५ ॥

यहां यमराज नचिकेता को परम सत्य बताते हुए कहते हैं कि, “जिस प्राप्तव्य को सब वेद बार-बार कहते हैं, जिस के लिए सभी तप बताये गये हैं, जिसकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य जैसे कठिन व्रत का आचरण किया जाता है, वह संक्षेप में ’ओम्’ – यह पद है ।

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ॥ मुण्डक० २।२।४ ॥

उस ब्रह्म को जब लक्ष्य करो, तब प्रणव का धनुष बनाओ, अर्थात् ओंकार का जप करो, और आत्मा को बाण बना कर उसपर चढ़ जाओ, और अपने लक्ष्य को बींध दो, प्राप्त कर लो । ओम् के सहारे से ब्रह्म जितनी शीघ्रता से मिलता है, उतना किसी और शब्द से नहीं मिलता । यही बात एक अन्य श्लोक कहता है –

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।

एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ कठ० १।२।१७ ॥

इस ओम् का ही आलम्बन श्रेष्ठ है, सबसे ऊंचा है । जो इस आश्रय को जान गया, वह ब्रह्म के लोक में महत्त्व पाता है, अर्थात् ब्रह्म को पा जाता है, मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।

इस प्रकार हम पाते हैं कि पुनः पुनः आध्यात्मिक शास्त्र हमें बता रहे हैं कि ओम् को अपने मार्ग का दीपक बनाओ, क्योंकि यही सब से शक्तिशाली और प्रभावात्मक आलम्बन है ।

फिर भी, यह स्पष्ट नही हुआ कि ओम् में वह कौन सी विशेषता है जिसके कारण सब ऋषि-मुनि हमें यह बता रहे हैं ! इसको समझने के लिए थोड़ा और अन्वेषण करते हैं ।

ओम् की एक व्युत्पत्ति ’अव’ धातु से मन् प्रत्यय लगाकर बताई गई है । इस धातु को पाणिनि के धातु-पाठ में इस प्रकार पढ़ा गया है – अव रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति-तृप्ति-अवगम-प्रवेश-श्रवण-स्वामी-अर्थ-याचन- क्रिया-इच्छा-दीप्ति-अवाप्ति-आलिङ्गन-हिंसा-दान-भाग-वृद्धिषु । उपर्युक्त प्रकार से सन्धि-विच्छेद करने से २० अर्थ बनते हैं; ’स्वामी+अर्थ’ को एक पद मानने से, और ’दान’ के बदले ’आदान’ पढ़ने से दो अर्थ और बनते हैं । इस प्रकार यहां कुल २२ अर्थों का योग है । इतने अधिक अर्थ पाणिनि ने किसी और धातु के नहीं लिखे ! इसीसे इस धातु की विशेषता ज्ञात होती है । फिर, ये सभी अर्थ कर्ता या कर्म या दोनों के रूप में परमात्मा में घटाए जा सकते हैं । यथा –

प्रवेश – जो सब में प्रवेश करे अर्थात् सर्वव्यापक है (कर्ता)

याचन – जिसे या जिससे सब मांगें (कर्म)

अवाप्ति – जिसको सब प्राप्त है (कर्ता), और जो सब वस्तुओं में प्राप्त होता है (कर्म)

इसीलिए स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि इस नाम में परमात्मा के अन्य सभी नाम समाहित हो जाते हैं । इस विशेषता के कारण ही केवल यही पद परमात्मा का निज नाम होने योग्य है; अन्य किसी का भी यह नाम नहीं हो सकता – तस्य वाचकः प्रणवः (योगदर्शनम् १।२५) । जहां इन्द्र, आदि, शब्द विभिन्न प्रकरणों में जीवात्मा, मेघ, विद्युत्, आदि के द्योतक हो सकते हैं, वहां ओम् शब्द किसी और का वाचक सम्भव ही नहीं है । अपितु इस शब्द का अपने वाच्य से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इसको परमात्मा की तरह अक्षर = अकाट्य, नाश-रहित ही कहा गया है, जबकि यह २ अक्षरों का बना हुआ है –

एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म ॥ कठ० १।२।१६ ॥ – यह ’ओम्’ अक्षर ही ब्रह्म है ।

ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं । भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥ माण्डूक्य० १ ॥ – ओम् यह अक्षर (ब्रह्म) है । इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ दिख रहा है, वह इसका उपव्याख्यान – इसको कुछ अंश में कहने वाला है । (उदाहरण के लिए -) जो भूत, वर्तमान और भविष्य में हुआ, है और होगा, वे सभी ओंकार ही हैं । और जो इन तीनों कालों से परे है, वह भी ओंकार ही है । कितनी सुन्दरता से ऋषि ने ओम् का व्याख्यान किया है !

माण्डूक्य ने इसका एक अन्य प्रकार से विवरण दिया है । वहां ओम् को ३ मात्राओं में विभक्त किया गया है – अ, उ और म् । फिर अकार को ब्रह्म का जागरित रूप बताया है, जिस प्रकार प्राणी की जागरित-अवस्था होती है । इस रूप में परमात्मा इस विराट् ब्रह्माण्ड की रचना करके वैश्वानर अग्नि के समान सब में व्याप्त होता है, और सब प्राणियों के ज्ञान और व्यवहार के लिए प्रकट होता है । इसलिए मोटी टाइप में दिये शब्द भी इस अकार के अन्तर्गत अर्थ हैं ।

उकार से परमात्मा का स्वप्नस्थान अभिप्रेत है, जो कि जागरित और सुषुप्ति के बीच की अवस्था है । उस समय मन अन्दर ही अन्दर काम करता है, बाहरी विषयों से दूर । इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के रचन में सूक्ष्मावस्था को प्राप्त प्रकृति का रूप, उत्पन्न होते हुए भी, अप्रकट होता है । वहां परमात्मा तैजस और हिरण्यगर्भ के रूप में स्थित होता है । उस सूक्ष्मावस्था को वायु से भी सम्बोधित किया जाता है ।

मकार में शब्द के उच्चारण के अन्त के साथ-साथ जैसे परमात्मा भी सुषुप्ति में चले जाते हैं ! सुषुप्ति प्रलयावस्था या कारण जगत् की द्योतक है । इस अवस्था में केवल एक ईश्वर ही प्राज्ञ रहता है, जबकि अन्य सब सुषुप्ति में पहुंच जाते हैं । इस रूप को आदित्य = न नष्ट होने वाला भी कहा गया है ।

माण्डूक्य ने एक चौथी मात्रा भी बताई है, जो सबसे गूढ़ है । ओम् के उच्चारण का अन्त होने पर जो नीरवता है, उसे ऋषि ने अव्यवहार्य मात्रा बताया है, जो परमात्मा के निराकार रूप की द्योतक है, जो कि इस प्रपञ्च से अतीत है । इस अवस्था को वेदों ने इस प्रकार कहा है –

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ यजु० ३१।३ ॥

अर्थात् परमात्मा के एक पाद में तो यह समूचा विश्व है, और उसके शेष तीन पादों में वह अपने अमिश्रित, अमृत, प्रकाशमय रूप में स्थित है । सो, जो ओम् की चार मात्राओं में से यह अन्तिम मात्रा है, वही वास्तव में तीन मात्राओं के बराबर है, जबकि अन्य तीन मात्राएं महत्त्व में एक मात्रा के बराबर हैं !

मनु इस विषय में कहते हैं –

अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः ।

वेदत्रयान्निरदुहद् भूर्भुवः स्वरितीति च ॥ मनुस्मृतिः २।७६ ॥

तीनों वेदों से प्रजापति ने एक-एक मात्रा – अ, उ और म् – दुह कर निकाली, और उसी प्रकार तीन व्याहृतियां – भूः, भुवः, स्वः – भी वेदों का निचोड़ हैं ।

इस प्रकार ओम् पद को ऋषियों ने सदा से परमात्मा का समीपतम नाम माना है, बल्कि उसको सही रूप में व्यक्त करने वाला बताया है । ओम् के विभिन्न अर्थों से भी ज्ञात होता है कि ओम् में अर्थों का सागर समाया हुआ है । जिस प्रकार ईश्वर अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव वाला है, उसी प्रकार यह छोटा-सा नाम उन सभी को प्रकाशित करने का सामर्थ्य रखता है । उसकी सरलता में भी परमात्मा का एक गुण सन्निहित है । परमात्मा भी सरल स्वभाव वाले हैं, उनमें कोई धोखा या दिखावा नहीं है । और ऐसे ही मनुष्य उसे प्रिय भी हैं !

शासन पद्धति और इसकी समस्याएँ : डा. अशोक आर्य

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आज भारत सहित विश्व में अनेक शासन व्यवस्थाएं चल रही हैं | इन में एकतंत्र ,सीमित एकतंत्र,प्रजातंत्र,गणतंत्र आदि कुछ शासन पद्धतियाँ हमारे सामने आती हैं | इन पद्धतियों में से हम किस पद्धति को उत्तम मानते हैं तथा वेद किस पद्धति को अपनाने के लिए हमें प्रेरणा देता है | इन बातों पर यहाँ हम विचार करते हैं | यजुर्वेद में कहा गया है कि विशी राजा प्रतिष्ठित: यजुर्वेद २०.९ || अर्थात राजा का सब कुछ प्रजा पर ही आधारित होता है | प्रजा जब तक खुश है तब तक ही राजा कार्य कर सकता है | प्रजा के विरोध में आते ही राजा के हाथ से सत्ता चली जाती है | इस से स्पष्ट होता है कि राजा का चुनाव करने की प्रथा वेद ने ही दी है | वेद प्रजातंत्र व्यवस्था में शासन चलाने के लिए स्पष्ट आदेश देता है | आज के मानव ने अनेक बार वेद के विरुद्ध शासन व्यवस्था की है , जिससे अनेक समस्याएँ पैदा हो रही हैं | इन सब समस्याओं का समाधान केवल वेद ही देता है | अत: अमारे लिए आवश्यक है कि वेद में इन समस्याओं का समाधान खोज कर तदनुरूप शासन चला कर समस्या दूर करें | वेद तो कहता है कि जब राजा प्रजा को प्रसन्न नहीं रख पाता तो उसे तत्काल हटा देना चाहिए | ऋग्वेद में इस प्रकार बताया गया है :
आ त्वाहार्षमन्त्रेधि ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलि: |
विशस्त्वा सर्वा वान्छ्न्तु मा त्वद्राष्टमधि भ्रशट ||ऋग्वेद १०.१७३.१ ||


राज्य सता में एक पुरोहित होता है | यह पुरोहित सत्ता क्षेत्र में प्रजा का प्रतिनिधित्व करता है | चुनाव होने के पश्चात यह पुरोहित नवनिर्वाचित शासक को सम्बोधन करते हुए कहता है कि मैं तुझे प्रजा में से चुनकर लाया हूँ | प्रजा के आदेश से मैं तुझे राजा के पद पर आसीन कर रहा हूँ | इससे स्पष्ट होता है कि जिसे आज हम चुनाव अधिकारी कहते हैं , उसे वेद ने पुरोहित कहा है | आज के चुनाव अधिकारी इस पुरोहित का ही प्रतिरूप होते हैं | यह पुरोहित अथवा चुनाव अधिकारी जनता की प्रतिमूर्ति होने के कारण जनता की इच्छानुसार ही राजा को चलाते हैं , ज्योंही प्रजा किसी राजा के , किसी शासक के अथवा किसी शासक दल के विमुख होती है ,त्यों ही यह पुरोहित , यह चुनाव अधिकारी राजा को हटा कर दूसरा शासक चुनने के लिए जनता के पास जाता है | समस्या तो उस समय पैदा होती है , जब शासक अथवा राजा प्रजा की चिंता भी नहीं करता और पद को छोड़ने के लिए तैयार भी नहीं होता , जैसा की हम विगत कुछ वर्षों से भारत में देख रहे हैं | प्रजा ने वर्तमान शासक का भरपूर विरोध किया किन्तु यहाँ का शासक निरंकुश बनकर कहने लगा हम जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं , अब जनता में से कोई भी हमारे विरोध में नहीं बोला सकता | जो बोलेगा , उसे हम कुचल कर रख देंगे | इससे देश में अव्यवस्था को बल मिला तथा समस्याएँ खडी हुई |
नए राजा को उपदेश करते हुए चुनाव अधिकारी अथवा पुरोहित आगे कहता है कि जनता के निर्णय के अनुसार मैं तुझे इस देश की सता का अधिकारी बना रहा हूँ | तु इस सता पर स्थिर हो , इस का अधिष्ठाता बन , इस पर बैठ कर जनता के लिए कार्य कर | इस शासन को संभालने के पश्चात तूं कभी भी अपने कर्तव्य से विचलित मत होना | बड़ी से बड़ी समस्या आने पर भी घबराना नहीं | तुझे उत्तम मान कर ही यह शासन की चाबी तेरे हाथ में दी गई है कि तेरे में तत्काल उत्तम निर्णय लेने की शक्ति है , तेरे में

उत्तम व्यवस्था करने के गुण हैं | यदि तूं ठीक से इस कार्य को करता रहेगा तो मैं तेरे साथ हूँ तथा यह जनता , यह प्रजा तेरा आदर करती है | ज्योंही तूने जनता को भुला दिया , जनता की इच्छा के विरुद्ध कार्य करने लगा त्यों ही तुझे इस सता से वंचित कर दिया जावेगा |
पुरोहित आगे कहता है कि इस सता को संभालने के पश्चात इस देश की सारी प्रजाएँ , सारी जनता तेरा आदर करेगी | अब तूं किसी एक समुदाय का , किसी एक दल का प्रतिनिधि नहीं है , अब पूरे देश की जनता का तू प्रतिनिधि है , शासक है | तूं ऐसे कार्य कर की देश की पूरी की पूरी प्रजा तुझे पसंद करे , तुझे चाहे तथा तेरी कामना करे | सारी प्रजा की सब कामनाएं जब तू पूरा करेगा तो इस सत्ता का अधिकारी बना रहेगा किन्तु प्रजा के रुष्ट होते ही तेरी यह सत्ता तेरे से छीन जावेगी | प्रजा तुझे हटा देवेगी | इसलिए तू सदा ऐसे कार्य करना कि यह सत्ता तेरे से कभी भी छीन न पावे | इसका एक मात्र उपाय है कि तूं प्रजा की इच्छा के अनुरूप शासन चला |
इस से स्पष्ट होता है कि वेद शासन व्यवस्था में प्रजा को सर्वोपरि मानता है तथा आदेश देता है की देश की सरकार का चुनाव प्रजा करे तथा यह सरकार तब तक ही कार्य करे , जब तक प्रजा प्रसन्न है | प्रजा के विरोध में आते ही यह सरकार सता के सूख को त्याग दे तथा नई सरकार को चुना जावे | इस से यह भी स्पष्ट होता है कि राजा का शासन प्रजा की दया पर ही निर्भर है | ज्यों ही राजा निरंकुश होता है , प्रजा के अनुरूप कार्य नहीं करता तो यह प्रजा तत्काल उसे पदच्युत करने की शक्ति रखती है , उसे इस शासन के पद से हटा सकती है अर्थात इस सरकार या उसके किसी भी अंग को , किसी भी अधिकारी को वापिस बुला कर , उसके स्थान पर नए व्यक्ति को, अथवा नए दल को बैठा सकती है |

ऋग्वेद का यह मन्त्र स्पष्ट आदेश दे रहा है कि राजा तब तक ही सत्ता का अधिकारी है , कोई भी सरकार तब तक ही इस सत्ता की गद्दी पर आसीन है , जब तक वह प्रजा को प्रसन्न रख सकती है , अन्यथा नहीं | देश में अत्याचार बढ़ रहे हों , अनाचार का शासन हो जावे, महंगाई बढ़ने लगे किन्तु इसे रोकने की क्षमता सरकार के पास न हो या फिर जान बुझ कर इसे रोक न पा रही हो , भृष्टाचार बढ़ जावे , सरकार के अंगभूत सांसद या विधायक अथवा मंत्रिगण भ्रष्टाचार से अपना घर भर रहे हों , देश की सुरक्षा व्यवस्था गड़बड़ा रही हो , अन्याय का राज्य हो , जनता को अकारण ही परेशान किया जाने लगे, शिक्षा, बिजली , पानी आदि की ठीक से व्यवस्था न हो पा रही हो अथवा जनता की किसी मांग को सरकार स्वीकार करने को तैयार न हो तो जनता के पास एसी शक्ति हो कि वह तत्काल एसी सरकार को चलता करे तथा अपनी व्यवस्था के लिए नयी सरकार को चुने |

डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१०
गाजियाबाद , भारत
दूरभाष ०१२०२७७३४००, ०९७१८५२८०६८

धर्म तर्क की कसौटी पर : प्रकृति के सिद्धान्त – आचार्य राम चन्द्र जी

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वैज्ञानिकों में प्राय: मतभेद पाया जाता है। भिन्न भिन्न विषयों में उनकी भिन्न भिन्न धारणाएं होती हैं। यह स्वाभाविक भी है। जब दो वैज्ञानिक परीक्षण आरम्भ करते हैं तो उनकी भिन्न भिन्न धारणाएं, भिन्न भिन्न शैलियां, परिस्थितियां और उपकरण होते हैं। अत: यदि उनके विचारों में भेद पाया जाए तो इसमें आश्चर्य का कोई कारण नहीं है। परन्तु संसार भर के वैज्ञानिक इस बात में एकमत हैं कि प्रकृति के सिद्धान्त एक है,अटल और अपरिवर्तनशील  हैं। उनमें कोई भी परिवर्तन नहीं हो सकता।

  जब हम प्रकृति का अध्ययन करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि प्रकृति सतत परिवर्तनशील है। जो आज है वह कल नहीं होगा। जो अवस्था इस समय है, दो क्षण पूर्व वह नहीं थी। दो क्षण में कितना परिवर्तन आ सकता है ? अभी आंधी आ सकती है, शान्त वातावरण में तूफान आ सकता है, वर्षा हो सकती है, सूर्य का तेज बढ़ सकता है। पर्वतों में बर्फ गिर सकती है, सैकडों मील भूमि उससे प्रभावित हो सकती है फिर भूकम्प आते हैं क्षण भर में पृथ्वी के हिलनें से नगर के नगर धराशायी हो जाते हैं। सहस्रों प्राणियो की मृत्यु हो जाती है, सैकड़ों एकड़ भूमि पर बालू बिछ जाती है। पर्वतों के बर्फीले भाग खिसक जाने हैं। लहलहाते उपवन और चहचहाते नगर वीरान हो जाते हैं    इतनें बड़े बड़े परिवर्तन होने पर भी कोई भी वैज्ञाानिक एक पल के लिए भी प्रकृति के सिद्धान्तों को परिवर्तनशील मानने को एक पल के लिए भी उद्यत नहीं होगा।

यदि प्रकृति के नियमों में स्थायित्व न होता तो संसार में एक भी अन्वेषणशाला न होती। प्रकृति के अस्थाई परिवर्तनशील नियमों को जानने की आवश्यकता किसी को भी अनुभव न होती। उदाहरणस्वरूप जब पानी का अध्ययन किया गया तो पता चला कि दो भाग हाईड्रोजन और एक भाग आक्सीजन को यदि मिलाया जाए तो उसका रूप पानी होता है। यह सिद्धान्त अटल है। देश काल परिस्थिति का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फिर चाहे वह गंगा का जल हो, टेम्ज+,वोल्गा वा मिस्सीसिप्पी का जल हो सर्वत्र यह नियम इसी रूप में कार्य करता है। अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका आदि स्थनों, सतयुग द्वापर, त्रेता अथवा कलियुग आदि युग तथा भूत भविष्य और वर्तमान काल के लिए भी बलपूर्वक यह कहा जा सकता है कि जल के विषय में सदा यही नियम कार्य करेगा।

विज्ञान की सर्वत्र यही  स्तिथी है। पाठशाला में आज जो रेखागणित अथवा बीजगणित के नियम पढ़ाए जाते हैं वे आज भी वे ही हैं जिनका यूक्लिड नें आरम्भ किया था। आर्यभÍ, पाइथागेारस, प्लैटो, न्यूटन, जगदीषचन्द्र वसु, रमन आदि संसार प्रसिद्ध वैज्ञानिकों नें प्रकृति के सिद्धान्तों का जो अध्ययन किया था, वही आज भी हमारे मतिष्कों को आलोकित कर रहा है।

वैज्ञानिकों की विचारधाराएं भिन्न भिन्न रही हैं। उनमें मतभेद भी रहे हैं। उसमें उनकी अपनी अल्पज्ञता अथवा किन्हीं कारणों से उचित निर्णय पर न पहुंच पाना जैसे कारण रहे। उन्होंने पुन: प्रयत्न किए और ठीक ठीक निर्णयों पर पहुंचकर अपने ज्ञान का परिष्कार किया।

कहते हैं यह विज्ञान का युग है। विज्ञान ने बड़ी उन्नति कर ली है। इससे केवल इतना ही तात्पर्य है कि पहले प्रकृति के जिन सिद्धान्तों से हमारा परिचय नहीं था, अब ऐसे असंख्य नियमों से हम परिचित हो गए हैं। प्रकृति विषयक हमारा ज्ञान पूर्वापेक्षा अधिक परिष्कृत हो गया है। हम प्राय: देखते हैं कि हमसे कभी कभी भूल हो जाती है और हम कुछ का कुछ समझ बैठते है। इस पर हम यह कभी नहीं कहते कि प्रकृति ने अपना नियम बदल लिया अब उसमें परिवर्तत हो गया है।

परिवर्तनशील वस्तु में परिवर्तन तो होगा ही। उदाहरण स्वरूप आपने धातु निर्मित कोई छड़ ली। नापने पर वह आठ फुट की पाई गई। कुछ कालोपरान्त नापने पर यह एक इंच अधिक पाई गई धातु की छड़ परिवर्तनशील हैं। इसलिए हम यह नहीं कह सकते पहले नापनें वाले से अवश्य ही भूल हुई थी। यह सम्भव है कि ताप के प्रभाव से लम्बाई में परिवर्तन आ गया हो।

इसी प्रकार कलकत्ता अथवा बम्बई का डेढ़ सौ वर्ष पूर्व का वर्णन पढ़ा जाय तो उसमें कितनी विभिन्नता मिलेगी । डेढ़ सौ वर्ष पूर्व कलकत्ता एक छोटी सी नगरी थी। आज गगनचुम्बी अट्टालिका इसकी शोभा बढ़ा रही हैं। किस प्रकार मछुआरों का एक गांव आज का इतना बड़ा नगर हो गया। बम्बई भी किस प्रकार उन्नत हो गया। इस सब को देखकर हम यह तो न कहेंगे कि १५० वर्ष पूर्व किसी पर्यटक नें इन नगरों का भ्रान्तिपूर्ण वर्णन कर दिया। रामायण मे प्रयागराज का वर्णन है। वह वर्णन वर्तमान के प्रयाग से कितना अलग है। क्या इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वाल्मीकि जी ने प्रयागराज की कल्पना मात्र की थी।

परन्तु प्रकृति के सिद्धान्तों का जो वर्णन वर्तमान बाईबल में पाया जाता है उस पर कौन विश्वास करेगाा। बाईबल में पृथ्वी को चपटा माना गया है। वहां पृथ्वी को गतिशील भी नहीं माना गया। हमारा मस्तिष्क कभी भी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि पृथ्वी कभी चपटी रही होगी अथवा यह किसी समय सूर्य का चक्कर नहीं लगाती होगी। आज का कोई विद्यार्थी ऐसी भूल नहीं करेगा। और विक्षिप्त व्यक्ति तो ऐसी धारणाओं का उपहास उड़ाएगे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रकृति परिवर्तनशील है परन्तु उसके नियम अटल हैं। भ्रम इसलिए होता है कि हमने प्रृकृति और इसके सिद्धान्त को ठीक प्रकार नहीं समझा। हम कहते हैं प्रकृति के सिद्धान्त या  सोने का रंग इन दोनों में का और के अर्थों पर विचार करो। जब हम सोने का रंग कहते हैं तो इसमें का शब्द का वह अर्थ नहीं होता जो प्रकृति का सिद्धान्त मे का शब्द का है। यहां सोना एक वस्तु है और वह आधार है रंग का। परन्तु जब हम प्रकृति के सिद्धान्त कहते है तो यहां सिद्धान्त प्रकृति का आधार स्वरूप नहीं है। प्राय: शब्दों की खींचतान समाज में की जाती है। बाल की खाल निकाली जाती है। इससे प्रकृति के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्त धारणाएं लोगों के हृदय में स्थान पा जाती हैं। इस प्रकार की खींचतान से अप सिद्धान्त प्रचलित हो जाते हैं उनका विचारपूर्वक अध्ययन करना चाहिए।

प्रकृति में विभिन्नताएं प्रकट करनें वाली आश्चर्यजनक घटनाएं समाचार पत्रों में बहुधा स्थान पा जाती हैं। उनका सहारा पाकर अनकों पौराणिक कथानकों की पुष्टी की जाती है। अमुक स्त्री के सांप उत्पन्न हुआ, अमुक बालक के दो मुख थे और एक शरीर, अमुक बालक के मुख पर हाथी जैसी नाक थी। अमुक घोड़ी नें बकरी को जन्म दिया। यह सब विभिन्नताएं देखनें में तो आश्चर्यजनक होती है, परन्तु सन्तति’शास्त्र के उल्लंघन मात्र से एसी घटनाएं हो जाती हैं। दो मुख वाला बालक होना या हाथी जैसा मुख होने से यह सिद्ध नहीं होता कि मानवी माता हाथी को जन्म दे सकती है। ऐसी ऐसी रेत की नींव पर बड़े बडे हवाई किले खड़े कर लिए जाते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी कल्पना की उड़ान से ऐसी ऐसी धारणाओं को जन्म देते है कि जिससे समाज की महान क्षति होती है। यह विचार ही है जो मानव के परिष्कार अथवा पतन का कारण बनते है उदाहरण स्वरूप कुछ ज्ञान शास्त्र की कोटि में आ गए हैं। सूर्य सिद्धान्त का ज्ञान वास्तविक है परन्तु क्या  फलित ज्योतिष जिसको जिस किसी प्रकार सूर्य सिद्धान्त से जोड़ दिया गया है, इसको कौन युक्ति युक्त कहेगा ? ग्रहों का हेर फेर, अमुक ग्रह में उत्पन्न व्यक्ति अमुक भाग्य रखेगा इसको कौन बुद्धिमान व्यक्ति स्वीकार करेगा। जिन ग्रहों के फेर हमारे देश में विपत्तियों की आंधी आ रही है अमरीका और रूस देश वासी उनमें क्या क्या नहीं कर रहे। ग्रहों के हेर फेर,उच्चाटन, मारण की क्रियायें, दानवों की कपोल कल्पनाएं,जादू टोने, आत्माओं का आवाहन आदि अनेक विद्याएं हैं जिनकी जड़ समाज में गहरी जम चुकी हैं। यह सब केवल भ्रान्तियां है जो मानव जाति में जड़ता की वृद्धि कर रही हैं।

 

वेदों में गुण, कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था

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वेदों में गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था:-

लेखक – विपुल प्रकाश 

अक्सर लोगो में एक भ्रान्ति देखने को मिलती है कि वेदों  में जन्माधारित वर्ण व्यवस्था है। और साथ साथ लोग ये भी कह्ते हैं कि आर्य जाति के लोगों ने शुद्र जो कि भारत के मूल निवासी थे उनको अपना मातहत बनाया और वेदाध्ययन से वञ्चित रखा । सर्वप्रथम तो हम यह विचार करे कि वेदों में आर्य शब्द गुणसूचक है अथवा जातिसूचक।

कृणवन्तो विश्वमार्यम्

अर्थात् “सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाना है” ऐसा वेदों में लिखा हुआ है। अब सवाल यह उठता है कि अगर आर्य कोई जाति विशेष है जिस प्रकार अफ़्रीकन,अमेरिकन इत्यादि,फ़िर तो इस कथन का कहना कभी सार्थक नही हो सकता है। कारण यह कि अफ़्रीकन नस्ल का व्यक्ति मृत्युपर्यन्त भी अमेरिकन नस्ल का नही बन सकता है। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्य कोई जातिसूचक शब्द नही अपितु एक गुणसूचक शब्द है।

अब सवाल उठता है कि ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र में से आर्य कौन और अनार्य कौन है ?

तो इसका उत्तर है कि वेदो में कर्मों के आधार पर  मनुष्यों का विभाजन आर्य और दस्यु के रूप में किया गया है और आर्यों (कर्म से श्रेष्ठ) के बीच गुणों के आधार पर आर्य और शूद्र के रूप में :-उत शूद्रे उतार्ये।। (अथर्व. 19.62.1)।

इससे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य आर्य (गुणों के आधार पर श्रेष्ठ ) हैं और शूद्र अनार्य है। अब चूकि वेदों मे कृणवन्तो विश्वमार्यम् की बात लिखी हुई है तो इससे ये स्पष्ट होता है कि शूद्रों को भी आर्य बनाया जाना सम्भव है क्योकि आर्य बनाना तो अनार्य के लिए ही सार्थक है भला जो पहले से ही आर्य है उसे फ़िर से दोबारा आर्य बनाने का क्या अर्थ रह जाता है?अतः वेद स्पष्ट रूप से ये आदेश देते है कि अगर कोइ शूद्र भी उत्तम गुण कर्मो वाला हो तो वह आर्य अर्थात ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य बन सकता है।

और आर्य गुण कर्म के आधार पे ही होना सम्भव है इसिलिये कोई आर्य कुल( ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य) में पैदा हुआ व्यक्ति भी गुण कर्म से श्रेष्ठ  न होने पर अनार्य अर्थात शूद्र हो जाएगा ऐसा वेदों का आदेश है। अब अगर शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र तो फ़िर क्षत्रिय व वैश्य भी इसी प्रकार से वर्ण परिवर्तन को प्राप्त हो सकते हैं । अगर दूसरे शब्दों में बोला जाये तो किसी भी वर्ण का व्यक्ति अन्य तीनो वर्णो को प्राप्त कर सकता है। और तो और अगर  दस्यु   भी उत्तम कार्य करने लगे तो आर्य बन जाएगा।

ऋषि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित विवाह विधि वैदिक, युक्तिसंगत है

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ऋषि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित  विवाह विधि वैदिक, युक्तिसंगत है –

सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में स्वामी जी ने कहा –

“जब तक इसी प्रकार सब ऋषि-मुनि, राजा-महाराजा आर्य लोग ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ ही के स्वयंवर विवाह करते थे तब तक इस देश की सदा उन्नति होती थी | जब से ब्रह्मचर्य से विद्या का न पढना, बाल्यावस्था में पराधीन, अर्थात माता-पिता के अधीन विवाह होने लगा; तब से क्रमश: आर्यावर्त देश की हानी होती चली आई है |इससे इस दृष्ट काम को छोड़ के सज्जन लोग पूर्वोक्त प्रकार से स्वयंवर विवाह किया करे |

“ जब स्त्री-पुरुष विवाह करना चाहे तब विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीर का परिमाण आदि यथा योग्य होना चाइये | जब तक इनका मेल नहीं होता तब तक विवाह में कुछ भी सुख नहीं होता | न बाल्यावस्था में विवाह करने में सुख होता है |

“कन्या और वर का विवाह के पूर्व एकांत में मेल ने होना चाइये, क्यों की युवावस्था में स्त्री-पुरुष का एकांत वास दूषण कारक है |

“परन्तु जब कन्या व वर के विवाह का समय हो, अर्थात जब एक वर्ष व छह महीने ब्रह्मचर्य आश्रम और विद्या पूरी होने में शेष रहे तब कन्या और कुमारो का प्रतिबिम्ब, अर्थात जिसको ‘फोटोग्राफ’ कहते है अथवा प्रतिकृति उतारके कन्याओ की अध्यापिकाओ के पास कुमारो की और कुमारों के अध्यापको के पास कन्याओ की प्रतिकृति भेज देवे |

“ जिस-जिस का रूप मिल जाए, उस-उसका इतिहास अर्थात जन्म से लेके उस दिन पर्यंत जन्म-चरित्र का जो पुस्तक हो, उसको अध्यापक लोग मंगवा के देखे | जब दोनों के गुण-कर्म-स्वाभाव सदृश हों तब- जिस-जिसके साथ जिसका विवाह होना योग्य समझे उस-उस पुरुष व कन्या का प्रतिबिम्ब और इतिहास कन्या और वर के हाथ में देवे और कहे कि इसमें जो तुम्हारा अभिप्राय हो सो हम को विदित कर देना |

“ जब उन दोनों का निश्चय परस्पर विवाह करने का हो जाए तब उन दोनों का समावर्तन एक ही समय में होवे | जो वे दोनों अध्यापकों के सामने विवाह करना चाहें तो वहा, नहीं तो कन्या के माता-पिता के घर में विवाह होना योग्य है | जब वे समक्ष हों तब अध्यापकों व कन्या के माता-पिता आदि भद्र पुरषों के सामने उन दोनों की आपस में बात-चित, शास्त्रार्थ करना औरजो कुछ गुप्त व्यवहार पूछे सो भी सभा में लिखके एक दुसरे के हाथ में देकर प्रश्नोत्तर कर लेवे इत्यादि |

प्रश्न :- अब यहाँ विधर्मी शंका यह करते है “ स्वामी दयानन्दजी ने विवाह संस्कार में जो यह लिखा है कि विवाह स्वयंवर रीती से होना चाइये, कन्या और वर की इच्छा ही विवाह में प्रधान है | कन्या और वर सबके समक्ष वार्तालाप व शास्त्रार्थ करे इत्यादि |यह सब बातें वेद शास्त्र के विरुद्ध है | आर्य समाजियों का यह दावा है कि स्वामी दयानंद की शिक्षा वैदिक है, अत: वे इन सब बातों को सिद्ध करने के लिए वेद, शास्त्रों के प्रमाण देवे |

समाधान :- ऋषि दयानंद जी ने विवाह के सम्बन्ध में सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रंथो में लिखी है वे सब वेद, शास्त्रों और इतिहास के अनुकूल तथा युक्ति संगत है | इस बात को सिद्ध करने के लिए प्रमाण नीचे दिए जाते है |

प्रमाण संख्या १

तमस्मेरा युवतयो युवानं ……………यन्त्याप: | ऋग्वेद २/३५/४

भावार्थ : जवान स्त्रिया उत्तम ब्रह्मचर्य से युक्त होकर जवान ब्रह्मचारी पुरषों को जैसे जल वा नदी स्वयं समुद्र को प्राप्त होती है वैसे स्वयमेव प्राप्त होती है |

प्रमाण संख्या २

कियती योषा मर्यतो ……………………………….वार्येण |

भद्रा वधुभर्वति ……………………………………..जने चित || ऋग्वेद १०/२७/१२

भावार्थ : १. प्रथम, स्त्री-पुरुष का परिमाण यानी लम्बाई, चौड़ाई, बल, दृढ़ता आदि गुणों को देखना चाइये | २. स्त्री, पुरुष ऐसे हो जो एक दुसरे के गुणों को देककर परस्पर प्रीटी व अनुराग करनेवाले हो | ३. वधू कल्याण करनेवाली हो, भद्र देखनेवाली, भद्रा चरण करनेवाली, सुन्दर दृढ हो | ४. विवाह सब जनों के समक्ष होना चाइये और कन्या स्वयमेव उस जन समूह में से गुण-कर्म-स्वभाव देखकर वर को पसंद कर लेवे |

प्रमाण संख्या ३

१.      अपश्यं त्वा मनसा चेकितानम……………………..तपसो विभुतम |

इह प्रजमिह रयिं…………………………..प्रजया पुत्रकाम ||

२.      अपश्यं त्वा  मनसा दिध्यानाम ………………….ऋतव्ये नाधमानाम |

उप मामुच्चा युवति………………………………..प्रजया पुत्रकामे || ऋग्वेद १०/१८४/१-२

भावार्थ : कन्या कहती है कि हे वर ! मैंने तुमको परीक्षा पूर्वक अच्छी प्रकार देख लिया है कि तुम मुझसे विवाह के योग्य हो और मैंने यह भी जान लिया है की तुमने तपश्चर्या से विद्या, ज्ञान को प्राप्त किया है तथा रूप, लावण्य, बल, पराक्रम को बढाया है | इस संसार में प्रजा व धन की इच्छा करते हुए, हे पुत्र की कामना करने वाले ! विवाह करके मेरे साथ गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करो |

इन उपयुक्त दो मंत्रो से ये बाते स्पष्ट होती है —

१.      कन्या-वर-एक दुसरे की सबके समक्ष परीक्षा करे | जब उन दोनों को निश्चय हो कि हम दोनों के गुण-कर्म-स्वभाव परस्पर मिलते है तब वे परस्पर मिलते है तब वे परस्पर एक-दूसरे को जतलाकर वार्तालाप करके विवाह करे |

२.      विवाह से प्रथम कन्या तथा वर तपश्चर्या पूर्वक विद्याध्यन करनेवाले तथा बल, पराक्रम, रूप लावण्य को बढ़ानेवाले हो |

३.      कन्या-वर अत्यंत जवान हों | इससे बाल्यावस्था के विवाह का सर्वथा निषेध हो जाता है और उन दोनों का परस्पर ज्ञान हो किदोनों पुत्र की कामना करनेवाले और संतान-विज्ञानं के पंडित है |

प्रमाण संख्या ४

वांछ में तन्वं पादौ ……………………………..वांछ सकथ्यौ |

अक्षौ वृषन्यन्त्या केशा:…………………………..कामेन शुश्यन्तु || अथर्व वेद ६/९/१

भावार्थ : वर कहता है कि तू मेरे शरीर, पैरो, और आँखों को पसंद कर | मै तुम्हारे रूप-लावण्यादी बातों को पसंद करता हु |

इस मंत्र में यह बात स्पष्ट है कि वर-कन्या के अंग-प्रत्यंग की भी परीक्षा करनी चाइये | जब दोनों के अंग-प्रत्यंग निर्दोष हो तब उनका परस्पर विवाह होना चाइये |

इस मंत्र अनुसार कन्या-वर का एक दुसरे को परस्पर देखना, एक-दुसरे के पास एक-दुसरे का फोटो भेजना, अध्यापक व अध्यापिकाओ द्वारा परीक्षा करना आदि सब बाते आ जाती है | इन मंत्रो पर मनु का ने निम्नलिखित श्लोक में कहा है –

“जिसके सरल-सुधे अंग हो, विरुद्ध न हो, जिसका नाम सुन्दर अर्थात यशोदा, सुखदा, आदि हो, हंस और हथिनी के तुल्य जिसकी चाल हो, सुक्ष्म लोम केश और दन्त युक्त हो, सब अंग कोमल हो. ऐसी स्त्री के साथ विवाह होना चाइये | मनुस्मृति ३/१०

प्रमाण संख्या ६

एतैरेव गुनैर्युक्त: ……………………वर: |

यत्नात परीक्षित: …………………….धीमान जनप्रिय: || याज्ञवल्क स्मृति १/५५

भावार्थ : इन गुणों से युक्त, सवर्ण, वेद के जाननेवाला, बुध्दिमान, सब जनों से प्यार करनेवाला, जिसको पुरुषत्व की यत्न से परीक्षा की है वह वर विवाह के योग्य है |

कहो, विधर्मियो ! तुम जो ऋषि दयानंद की विवाह परीक्षा पर आक्षेप करते हो | उपहास करते हो, क्या कोई वर-वधु परीक्षा विधि पर आचरण करने को तयार है ? क्या कोई इस परीक्षा के अनुसार ब्रह्मचारी रहने को तयार है ? यह परीक्षा वेदों और अन्य शास्त्रों में रहते हुए ऋषि दयानंद पर शंका करते हो | इस पर इन्हें लज्जित होना चाइये |

प्रमाण संख्या ७

कुलं च शीलं च वपुर्वयश्च विद्याम…………………….च सनाथतं च |

एतान गुनान सप्त ……………………………………….शेषमचिन्तनीयम || – प० सं० आ० का० ३/२/१९

भावार्थ – कुल, शील, शरीर अवस्था. आयु, विद्या,धन, सनाथता – इन सात गुणों की परीक्षा करके फिर कन्या देवे |

इस स्मृति-वचन में विवाह के लिए जो बातें ऋषि दयानंद जी महाराज ने बतलाई है प्राय: वे सब आ गई है | यदि इन बातों को देककर विवाह किया जाये तो संसार के बहोत से दुःख स्वयमेव नष्ट हो जाये |

उपयुक्त लेख में हमने वेद-शास्त्र, स्मृति आदि प्रमाण देकर यह सिद्ध कर दिया है की ऋषि दयानंद महाराज ने विवाह सम्बन्ध में जो बातें लिखी है वे सब वैदिक, युक्तिसंगत तथा संसार के कष्ट को मिटानेवाली है |

पाठ्य ग्रन्थ :- मीरपुरी सर्वस्व – पंडित बुद्धदेव मीरपुरी 

मूर्तिपूजा-अवैदिक

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ओउम्

प्राक्कथन

यद्यपि प्रस्तुत पुस्तक छोटी है परन्तु लेखक ने इस विषय वस्तु से सम्बंधित अनुच्छेदों के संकलन में संभवतः सभी यूरोपीय आधिकारिक सूत्रों से विचार-विमर्श किया है और आशा है कि ध्यान आकर्षण करने वाले ये सभी अनुच्छेद पाठकगणों के विश्वास प्राप्त करेंगे।

प्रसिद्धआर्य समाज विद्वानों द्वारा पुनरावलोकन

(१) इस छोटी पुस्तिका में स्वामी मंगलानंद पूरी ने यूरोपीय और भारतीय संस्कृत विद्वानों और कुछ इतिहासकारों के भी विचारों का संकलन करके यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा वेद सम्मत नहीं है। जिन लोगों की ऐसी धारणा है कि मूर्तिपूजा वेद सम्मत है उनके लिए ये पुस्तिका विशेष लाभकारी है। वैदिक विचारधारा से अनभिज्ञ जनसामान्य में ये पुस्तिका निशुल्क वितरित की जानी चाहिए।

घासीदास, एम.ए. एल.एल.बी.

अधिष्ठातागुरुकुल ब्रिन्दाबन एवं अध्यक्ष आर्य प्रतिनिधि सभा उ.प्र.(मेरठ)

(२) स्वामी मंगलानंद पूरी द्वारा मूर्तिपूजा-अवैदिक पुस्तिका: लेखक ने शब्दों के  पक्के और विश्व के प्रसिद्ध यूरोपीय और एशियाई सूत्रों के अच्छे-खासे लेखोंका संकलन करके यह स्थापित किया है कि वेदों में मूर्तिपूजा का कोई समर्थन नहीं है और सफलतापूर्वक यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा का मूल इसाई मत में है ।

यह पुस्तिका निर्देशात्मक और रुचिपूर्ण है साथ ही दिए गए उद्धरण प्रेरणादायक और लाभकारी हैं। कम मूल्य में पुस्तिका उपलब्ध करा कर लेखक ने निश्चय ही असाधारण काम किया है।

बाबूश्याम सुन्दरलाल बी.ए. एल.एल.बी.

अधिवक्ता, अध्यक्ष आर्य समाज मैनपुरी

(३) लेखक धन्यवाद के अधिकारी हैं जिन्होंने इतनी अच्छी पुस्तिका बनाई जो सभाओं और समाजों द्वारा महाविद्यालयऔर विद्यालय के उच्च कक्षाओं के छात्रों को वितरित की जानी चाहिए। शुल्क यद्यपि कम है पर महत्व की दृष्टी से यह पुस्तिका अनमोल है और महाविद्यालय के नवजवान छात्रों की अध्यात्मिक उन्नति केलिए विशेष रूप से लाभदायक है जिससे उन्हें परमात्मा के निराकार स्वरुप की उपासना की शिक्षा मिलेगी ।

श्रीमान राव (मास्टर) आत्मा राम जी अमृतसरी

आर्य समाज के श्रेष्ठ नेताओ में से एक

 

                                                                                                                                    ओउम्

मूर्तिपूजा-अवैदिक

यूरोपीय व्याख्यानों में

आज के समय में एक हिन्दू सामान्यतःमूर्तिपूजक होता है परन्तु आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने पूरेविश्व को बताया कि ना तो पुरातन कालीन हिन्दू (आर्य) मूर्तिपूजक थे ना ही वेदादि सत्यशास्त्रों और आर्ष ग्रंथों में मूर्तिपूजा का लेशमात्र भी संकेत  हैं।

स्वामी जी की सत्यता इसी से प्रमाणित होती है कि अन्य पक्षपात रहित वेद विद्वान भी इसी निर्णय पर पहुंचे और मूर्तिपूजाका पुरजोर विरोध किया।अतः हम यहाँ यूरोपीय एवं अन्य संस्कृत विद्वानों को उद्धृत कर रहें हैं। हम पाठक को अपने विवेक के सहारे निर्णय पर पहुचने की स्वच्छंदता प्रदान करते हुए अनुरोध करेंगे कि यहाँ संकलित सभी मतों को यथोचित महत्व प्रदान करते हुए इनका लाभ एवं मार्गदर्शन लें  |

प्रथम अध्याय

यूरोपीय जन मूर्ति पूजा विषय पर

(१)  सरमोंलर विलियम्स (sir Monler Williams) लिखतें हैं :- “मनु स्मृति* के संकलन काल में मूर्तिपूजा के अस्तित्व के विषय में घोर संशय है”( इंडियन विजडम पृष्ट २२६)

(२)  जे.आई. वीलर(J.I. Wheeler) कहतें हैं :- “ऐसा प्रतीत होत्ता है जैसे कोई मंदिर नहीं थे और वे(आर्य या पुरातन कालीन हिन्दू)खुले वातावरण में या हर मकान के एक विशेष गृह में हवन किया करते थे” (वीलर्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया इंट्रोडक्शन पृष्ट ११)

(३)  प्रोफेसर डब्लू.डी. ब्राउन कहतें हैं :- “विचारवान छात्रों के लिए कई प्रबल प्रमाण यह सिद्ध करतें हैं कि पूर्व में हिन्दू मूर्तिपूजक ना थे और ना ही अशिक्षित, निर्दयी और असभ्य थे”

(४)  श्रीमान मिल कहतें हैं :- “मूर्तिपूजापूर्ण रूप से आगे विकसित हुई है। श्रेष्ठ निराकार मान्यताओं से समक्रमण ना स्थापित कर पाने वाली बुद्धि की यह उपज है। पतन अपनी व्याख्या स्वयं करता है। कपट ढोंग आदि मतान्धता और एकेश्वरवाद के पतन के प्रमुख कारण हुए। यह ढोंग स्वतंत्र देवीदेवताओं की विविधता नहीं थी वरन विशेष आयोजनों के मुख्य देव और आहावन था।“ (मिल्स ब्रिटिश इंडिया पृष्ट ११७ मई१९१८को वैदिक पत्रिका में प्रकाशित)

(५)  मक्स्मुलर लिखते हैं :- “कभी कभी यह भी कहा जाता है की वैदिक धर्म का लोप हो चुका है क्यूंकि तांत्रिकों एवं पुराणिकों द्वारा प्रतिपादित ब्राह्मणिक धर्मशिव, ब्रह्मा और विष्णु के विभिन्न रूपों के डरावने मूर्तियों की पूजा करते हैं” | (ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ़ रिलीजन्स पृष्ट १५४)

(६)  मक्स्मुलर आगे लिखते हैं :- “यदि हम वसिष्ठ या विश्वामित्र या अन्य किसी आर्य कवि से पूछ पातेकि क्या वे सूर्य, जो आग का गोला है,वह हाथ पैर ह्रदय स्नायु आदि युक्त देहधारी है? तो निसंदेह वे हमारे प्रश्न पर ठहाके लगाते हुए कहते की हमने उनकी भाषाएँ जान कर भी उनके मंतव्यों को नहीं जाना।“(ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ़ रिलीजन्स पृष्ट २७५)

(दूसरा अध्याय जो मक्स्मुलर के विचारों पर था वह अनुवादक को प्रयास करने पर भी प्राप्त नहीं हुआ अतः अनुवादक ने उनके कुछ प्राप्त अंशों को प्रथम अध्याय में ही जोड़ दिया है।)

द्वितीय अध्याय

मूर्तिपूजा पर आर.सि. दत्त

प्रसिद्ध भारतीय विद्वान रोमेशचन्द्रदत्त जो किसी भी रूप से आर्य समाजी भी नहीं हैं लखते हैं:

(१)ऋग्वेद में मूर्ति का कोई संकेत ही नहीं हैं, ना ही किसी पूजागृह और ना ही मंदिरों में।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएंट इंडिया कितब१ पृष्ट ६६)

(२)और रेखागणित के व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा का महत्व उस समय ख़तम हो गया जब पुराणिक काल में चित्र आदि जड़ पूजा प्रचलित हुई और भक्तों के घर से समिधाग्नि शांत हो गयी और लोगों ने वेदी बनाने की विद्या भुला दी।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएंट इंडिया किताब १ पृष्ट २६९ २७४)

(३) आगे वह लिखतें हैं :

“… और कोई मूर्तिपूजा का ज्ञान ना था”

(क)बौद्ध मत में मूर्तिपूजा इसाई कालके सदियों बाद आई इसलिए मूर्तिपूजा बौद्धों द्वारा शुरू हुई ऐसी शंका करना असंभव तो नहीं हैं।

(ख)ऐसा अनुमान है मनु स्मृति के संकलन काल में बौद्धों द्वारा पूजा का प्रचालन बढ़नेपर पुर्वग्रहियों द्वारा विरोध हुआ।

(ग)मूर्तियों की पूजा का विधान हिन्दुवों में बौद्ध आन्दोलन तक ना था और बौद्ध मत के प्रचार के साथ यह विकसित हुई।

(घ)मनु …क्रोधपूर्वक मूर्तिपूजकों को शराब और मांस बेचने वालो की श्रेणी में रखते हैं।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएँट इंडिया कितब२ पृष्ट १८९-१९५ )

(४)पुरातन काल में अग्न्याधानकी एक छोटी सि विधि सभी गृहस्तों के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग था, जब हर किसी द्वारा अपने हवनकुंड में ही ईश्वारुपसना की जाती थी और मंदिरों-मूर्तियों से सभी अनभिज्ञ थे।

(हिज सिविलाइज़ेशन किताब १ पृष्ट१८४)

(५)तीर्थों के विषय में आर.सि.दत्त लिखते हैं :

तीर्थभ्रमण, जो पुरातन काल में नगण्य या अनजाने थे, का मूर्खतापूर्ण तरीके से आयोजन होने लगा। नये-नये भगवान, नयी-नयी मूर्तियाँ-चित्र एवं मंदिरों भारत की भूमि एवं भोले-भालेश्रद्धालुओंके ह्रदय में जन्म लिया।“

(सिविलाइज़ेशनकिताब २ पृष्ट१९५)

(६)आगे श्री दत्त लिखते हैं :

“६२० ईस्वी में चीनीयात्री होव्न सॉंग के आगमन काल में जगन्नाथपुरी के विशाल मंदिर का लेश भीना था।“

(सिविलाइज़ेशन किताब २ पृष्ट १५१)

 

तृतीय अध्याय 

मूर्तिपूजा पर एल्फिन्स्तों

(१) श्री एम.एल्फिन्स्तों लिखतें हैं :

“दृश्यपदार्थ और चित्रों की पूजा का कोई विधान नहीं दिखाई पड़ता”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ४०)

(२)आगे श्री एल्फिन्स्तों लिखते हैं :

“…. औरसाथ ही, उन्होंने ना तो मंदिर ही खड़े किये ना ही सच्चेईश्वर के प्रतिक की पूजा करते थे”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ९३-९४)

(३)आगे जोड़ते हुए लिखतें हैं :

“श्रीमान कॉलेब्रोक स्वयं को पांच  प्रकार के पवित्र कर्मों(पञ्चमहायज्ञ) तक ही सिमित रखतें हैं जो मनु के काल से चली आ रही हैं परन्तु वर्तमान समय में एक विशेष प्रकार की पूजा का विधान है जो पहले भारतीय समाज में ना था, परन्तु अब ये विधान एक प्रधान कर्म हो चला हैं।

ये विधान हैं मूर्तियों की पूजा का, जिनके सामने अनेक प्रकार के नमन और स्तुतियों का रोज़ का विधान हैं।”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ११०)

 

 

चतुर्थ अध्याय 

मूर्तिपूजा पर विल्सन

(१)प्रोफेसर एस.एस.विल्सन लिखतें हैं :

“वेदों में मंदिरों का कहीं संकेत नहीं है ना ही किसी सामूहिक भवन का वर्णन ही मिलता हैं, साफ़ है कि पूजा पूर्णतः घरेलु थीं”

(विल्सन्स ऋग्वेद इंट्रोडक्शन किताब १ पृष्ट XV)

(२)पुनः लिखतें हैं :

“अब तक हमारी जितनी जानकारी हैं, शिव,महादेव,काली,दुर्गा,राम और कृष्ण के नाम वेदों में नहीं मिलते, एक रूद्र नाम आता है जिसे बाद में शिव ही मान लिया गया।“

(आइबीडपृष्टxxvi)

(३)आगे लिखते हैं :

“ औरआज जिस रूप में भारतवर्ष में पूजा होती हैं, अर्थात लिंग की पूजा, उसका नाम मात्र भी संकेत , कम से कम पिछली १० शताब्दियों में नहीं मिलता। ना ही कोई संकेत ब्रह्मा, विष्णु और महेश, त्रिमूर्ति का ही प्राप्त होता है।“                       आइबीड XXVII

(४)आगे श्रीमान लिखतें हैं :

“और फिर भी मनु ना किसी अवतार,ना राम और ना ही कृष्ण कोइंगितकरतेंहैं। अतः यही माननीय हैं कि वे रामायण और महाभारत काल के बाद विकसित हुई पूजा पद्दति के पूर्व कालीन हैं।“

(५)श्री मिल्स एच.एच.विल्सन के विचारों को इस प्रकार उद्धृत करते हैं:

“…. परन्तु वे(ब्राह्मण) पगान पादरियों की तरह या यहूदियों की तरह कभी भी सार्वजानिक पूजा का आयोजन, व्यक्ति विशेष के लिए पूजन, मंदिरों में पूजन यामूर्तियों का पूजन नहीं करते थे।

जोब्राह्मणमूर्तियों की पूजा करता उसेपतित और धार्मिकआयोजनों में ना बुलाया जाता”

(मनुII१५२,१८०)-(मिल्सहिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया कितब२पृष्ट १९२)

(७)  श्रीएच.एच.विल्सन पुनः बताते हैं-

“परन्तु पूजनीय महापुरुषों की पूजा उससमाज का हिस्सा नहीं हैं और ना ही देवताओंका अवतरण जैसा की अन्य ग्रंथों में निर्देशित हैं जो अबतक मैंने देखीं हैं यद्यपि कुछ भाष्यकारों द्वारा इसपर संकेत किया गया है।“

“यह भी सत्य है कि वैदिक पूजा के अधिकतर भाग निजी हैं, जिनमे स्तुति आदि अनुष्ठान,एक अदृश्य व्यापक अप्रमाणिक सत्ता को संबोधित करते हुए,स्वयं की उन्नति लिए संपन्न किये जाते हैं,किसी मंदिर में नहीं।“

“एकशब्द में, वैदिक मत मूर्तिपूजक नहीं हैं।“

(एच.एच.विल्सन विष्णुपुराण प्रकथन पृष्ट १११)

(८)  पुनः लिखतें हैं-

“कर्ता और क्रिया में भेद मूर्तिपूजा से ही विकसित हुई है।प्रतिमा ने मुख्य प्रति की जगह लेली, और ना ही वेदों में परिपूर्ण हो रहे रहस्यवाद और वाक्यरचना[**] की कोई व्यवस्था की गयी।“

(मिल्स हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया कितब१ पृष्ट ३९२)

(९)इसके अलावा वे लिखतें हैं :

“…. परन्तु पद्धति नयी है, जगन्नाथ स्वयं नवीन है और वैष्णवों के पुराणों में इनका कोई स्थान नहीं। यह असम्भाव्य है कि वर्त्तमान स्थल का महिमामंडन अधिक से अधिक एक शताब्दी से पूर्व हुआ हो।“

(मिल्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट४१६)

 

पंचम अध्याय 

मोहम्मदनविद्वानों के विचार मूर्तिपूजा विषय पर

अब हम मध्यकालीन भारत के दो सर्वाधिक पढ़े-लिखेमुसलमान सज्जनों केविचारों की ओर नज़र डालेंगे जो यह कहतेंहैंकिहिंदुत्व का मुर्तिपूजन से कोई नाता नहीं हैं।

(१) मौलाना अबुल फज़ल, अकबर के दरबार के प्रधानमंत्री लिखतें हैं :

“वे(हिन्दू) सभीएकेश्वरवाद में विश्वास रखतें हैं औरयद्यपि वे मूर्तियों को विशेष सम्मान से रखतें हैं फिर भी वे किसी प्रकार मूर्तिपूजक नहीं हैं जैसा की अज्ञानी जन समझतें हैं।“

(आयींने अकबरी,एफ़ गोडविनभाष्यकिताब६ पृष्ट २९४)

(२)मौलाना अलबेरुनी, अरबी और संस्कृत के विद्वान जो महमूद ग़ज़नी के साथ भारत आये थे लिखते हैं:

“… परन्तु हम ये घोषणा करते हैं कि मूर्तियाँ केवलअनपढ़लोगों द्वारा स्थापित की जातीं हैं।

स्वच्छंद विचारों के मार्ग पर चलने वाले यादर्शन शास्त्र पढने वाले जो सत्य का सार प्राप्त करना चाहतें हैं वे इश्वारुपसना को छोड़ अन्य सभी विचारों से मुक्त हैंऔर प्रतिक रूप में स्थापित की गयी चित्र आदि वस्तुवों की पूजा की कल्पना भी नहीं करते।“

(अल्बेरुनिस इंडिया डॉ. ई.सि.सोचोऊ भाष्य कितब१ अध्याय XI पृष्ट ११२-११३)

(२) अतः मौलाना अलबेरुनी आगे जोड़ते हैं :

“इन सभी मूढ़ प्रलापों को दर्शाने का  हमारा उद्देश्य पाठक को मूर्ति का विवरण देना है, अगर कोई कहीं मूर्ति देख ले  औरउसकी व्याख्या करे तो जैसा हमने पहले कहा कि मूर्तियाँ नासमझ अनपढ़निम्न दर्जे के लोगों द्वारा स्थापित की गयींऔर हिन्दुवों ने कभी इश्वर के मूर्तियों की स्थापना नहीं की।”

(ईबिड पृष्ट ११२)

षष्ट अध्याय

मूर्तिपूजा का मूलइसाई मत

हमारेमुसलमानऔरइसाई भाइयों की धारणा है कि मूर्तिपूजा का मूल हिन्दू मान्यताओं में हैं, निश्चित रूप से वे गलत हैं। पहले दर्शाये गए विचार अपनी व्याख्या खुद ही करतें हैं। स्वामी राम तीर्थ, जो यूरोप वासी तो नहीं थे परन्तु कई यूरोपीय और अमरीकियों के मार्गदर्शी हुए, पूछते हैं :

“…. भारत में मूर्तिपूजा कौन लाया?आज ये इसाई आपसे कहेंगे कि आप मूर्तिपूजक हो परन्तुभारतकी कविताओं, व्यक्रण, गणित, शिल्पकला, गायन और अन्य वृहद् वैदिक साहित्य में लेश मात्र भी मूर्तिपूजा के संकेत नहीं मिलते। यह मूर्तिपूजा आई कहाँ से? भारतीय धर्म के किसी भी रूप का ये हिस्सा नहीं है। मूर्तिपूजा भारत में ईसाईयों द्वारा आई। इतिहास का यह पृष्ट अब तक लोगों के नेत्रों से दूर रहा हैं परन्तु मेरा अनुसन्धान अबछपकरतैयार होगा।

“मैंने आतंरिक एवं बहारी दोनों साक्ष्यों द्वारा ये सिद्ध किया है कि ईसा के चौंथी और पाँचवी शताब्दीबाद भी कुछ रोमन कैथोलिकइसाई भारत में बसते हैं। दक्षिण भारत में वे संत थॉमस इसाई कहे जाते हैं। इन्होने ही मूर्तिपूजा की शुरुवात की। फिर आतंरिक साक्ष्य से, मैंने सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा के प्रबल समर्थक रामानुजकेनिर्देशकों में से एक ये संत थॉमस इसाई थे। जैसाहमें ज्ञात है, इन्होने पहले जिस मूर्ति को शीश नवाया वह पूर्वमुखी नहीं हैं।

“मेरे सौभाग्यावानो, यह दर्शाता है किमूर्तिपूजा का मूल उस मत में है जिसे आप इसाई मत कहतें हैं। येमिशनरी जोआज मूर्तिपूजा का खंडन करते हैं, एक ओर मुर्तिपूजा को निक्रिस्ट मानते हैं और दूसरी ओर मूर्तियों का व्यापार कर पैसे कमातें हैं। इस तरह तुम (मिशनरी) लोगोंका धर्मान्तरण करना चाहते हो। क्या यह मूर्तियाँ जिन्हें तुम बनाकर बेचते हो वो तुम्हारे गोसपेल से ज्यादा शक्तिशाली हैं? अब ये तुम ही निर्णय करो।“

(इन वुड्स ऑफ़ गॉड-रेलिज़ेशनकिताब ३ पृष्ट ३११-३१२)

इतने संस्कृत और यूरोपीय विद्वानों के साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद लिखने को कुछ और अधिक नहीं रह गया है। अब पाठक स्वयं ये निर्णय करे कि वेदों में मूर्तिपूजा की खोज कहाँ तक सफल होगी।

छोटे शब्दों में :

(क) …..ओल्ड टेस्टामेंट का इश्वर आदम और हव्वा से बातें करता है औरअब्राहम की रसोई से खाना खाता है औरमोसेस से वार्ता करने बादलों से प्रकट हो जाता है।

(ख) …ईसाईयों का इश्वर कुवांरी कन्याओं को गर्भवतीबना सकता है और इस तरह विश्वमें अपने “मात्र पुत्र” का जन्मदाता है।

(ग)  ….. कुरान का अल्लाह आदम, नोआह और अब्राहम के समक्ष प्रकट होने को हमेशा तैयार बैठा रहता है।

(घ)  …… परन्तु वैदिक इश्वर एक ऐसा है जो देहधारी नहीं है और किसी सीमा से बाधित नहीं है और निश्चित रूप से सभी देश, काल और वस्तु में वसता है।

हे सनातनी हिन्दू सज्जनों, आपने ऊपर दिए गए साक्ष्यों को पढ़ा और जाना कि सिर्फ दयानंद ही नहीं हैं जो मूर्तिपूजा त्यागने को कहतें हैं वरन वे सभी, जिन्होंने वेदों और अन्य प्राचीन शास्त्रों का अध्ययन किया है, यही मानते हैं। अतः आप सभी सत्य को स्वीकार करें, जैसा की आप जानते हैं:

“सत्यमेवजयते”

इति

 

सृष्टि का आदिकाल

universe 1

मेघ, इंद्र, परमेश्वर विद्या  (सृष्टि  का आदिकाल )

15 हिरण्यस्तूप आङ्गिरस: इन्द्र:। त्रिष्टुप्

Scientific Background Quoted thankfully from “the secret life of GERMS” by Philip M. Tierno)

(According to modern science during the period of formation of Earth’s History, intense volcanic activity was producing oxygen by releasing it from Earth’s interior. In the primordial soup, ancient blue green algae lived by photosynthesis, and also produced Oxygen. Over the course of perhaps three  billion years, the Oxygen produced by algae and the Oxygen spewed by the volcanoes changed the Earth’s atmosphere , creating an Oxygen blanket that allowed higher life forms to evolve from germs. Oxygen in upper atmosphere came in contact with UV (Ultra Violet) Rays and electrical discharges. This converted Oxygen in upper atmosphere in to ozone that can more strongly absorb UV rays. In this way Earth’s Ozone layer was formed.  If land dwelling organisms had to face the full force of Sun’s UV rays, all life on Earth would have eventually destroyed. This Ozone layer in the upper atmosphere prevents this by acting as a protective shield.)1

Earth’s Atmosphere

The total global environment consists of four major realms: a gaseous atmosphere, liquid hydrosphere, solid lithosphere, and living biosphere.

From space, Earth’s atmosphere looks like a blue sphere  with gaseous envelopes ..  This fragile, nearly transparent envelope of gases supplies the air that we breathe each day. It also regulates the global temperature and filters out dangerous levels of solar radiation. In recent years, scientific research has shown that the chemical composition of the atmosphere is changing because of both natural and human induced causes. There is growing concern over the impact of human activities. Mankind may be increasing levels of heat absorbing gases, thereby contributing to global warming and destroying ozone, the fragile atmospheric ingredient that shields the planet from ultraviolet (UV) radiation.

Ozone and the Atmosphere

Earth is an extraordinary planet. Complex interactions between the land, oceans, and atmosphere created conditions that are favorable for life. One species, man, has managed to alter the environment on a global scale. In order to fully comprehend the impact of our actions, we must view the planet as a whole and understand the relationship between its basic components; land, water, and air.

This web site discusses the chemical composition and evolution of Earth’s atmosphere, focusing on the protective layer of ozone in the stratosphere. The destructive properties of troposphere ozone are also presented. Diagrams and animation sequences are used to visually depict the delicate structure of the ozone molecule and the chemical reactions involved in its formation and destruction. Ozone destroying pollutants were first identified in 1973.Since that time there has been a considerable amount of controversy surrounding the subject of ozone depletion. More than 20 years of ozone-related scientific studies, international meetings, and global industrial agreements are summarized in the last section of this site.

Historical Atmosphere

Earth is believed to have formed about 5 billion years ago. In the first 500 million years a dense atmosphere emerged from the vapor and gases that were expelled during degassing of the planet’s interior. These gases may have consisted of hydrogen (H2), water vapor, methane (CH4), and carbon oxides. Prior to 3.5 billion years ago the atmosphere probably consisted of carbon dioxide (CO2), carbon monoxide (CO), water (H2O), nitrogen (N2), and hydrogen.

The hydrosphere was formed 4 billion years ago from the condensation of water vapour, resulting in oceans of water in which sedimentation occurred.

The most important feature of the ancient environment was the absence of free oxygen. Evidence of such an anaerobic reducing atmosphere is hidden in early rock formations that contain many elements, such as iron and uranium, in their reduced states. Elements in this state are not found in the rocks of mid-Precambrian and younger ages, less than 3 billion years old

Formation of the Ozone Layer

One billion years ago, early aquatic organisms called blue-green algae began using energy from the Sun to split molecules of H2O and CO2 and recombine them into organic compounds and molecular oxygen (O2).This solar energy conversion process is known as photosynthesis. Some of the photo synthetically created oxygen combined with organic carbon to recreate CO2 molecules. The remaining oxygen accumulated in the atmosphere, touching off a massive ecological disaster with respect to early existing anaerobic organisms.As oxygen in the atmosphere increased, CO2 decreased.

High in the atmosphere, some oxygen (O2) molecules absorbed energy from the Sun’s ultraviolet (UV) rays and split to form single oxygen atoms. These with remaining oxygen (O2) to form ozone (O3) molecules, are very effective at absorbing UV rays. The thin layer of ozone that surrounds Earth acts as a shield, protecting the planet from irradiation by UV light.

The amount of ozone required to shield Earth from biologically lethal UV radiation, wavelengths from 200 to 300 nanometers (nm), is believed to have been in existence 600 million years ago. At this time, the oxygen level was approximately 10% of its present atmospheric concentration. Prior to this period, life was restricted to the ocean. The presence of ozone enabled organisms to develop and live on the land. Ozone played a significant role in the evolution of life on Earth, and allows life as we presently know it to exist.

Present Day Atmosphere

The atmosphere we breathe is a relatively stable mixture of several hundred types of gases from different origins. This gaseous envelope surrounds the planet and revolves with it. It has a mass of about 5.15 x 10E15 tons held to the planet by gravitational attraction. The proportions of gases, excluding water vapor, are nearly uniform up to approximately 80 kilometers (km) above Earth’s surface. The major components of this region, by volume, are oxygen (21%), nitrogen (78%), and argon (0.93%).Small amounts of other gases are also present. These remaining trace gases exist in such small quantities that they are measured in terms of a mixing ratio. This ratio is defined as the number of molecules of the trace gas divided by the total number of molecules present in the volume sampled. For example, O3, CO2, and chlorofluorocarbons (CFCs) are measured in parts per million by volume (ppmv), parts per billion by volume (ppbv) or parts per trillion by volume (pptv).

Atmospheric temperature and chemistry are believed to be controlled by the trace gases. There is increasing evidence that the percentages of environmentally significant trace gases are changing because of both natural and human factors. Examples of man-made gases are the chlorofluorocarbons CFC-11 and CFC-12 and halons. Carbon dioxide, nitrous oxide, and methane (CH4) are produced by the burning of fossil fuels, expelled from living and dead biomass, and released by the metabolic processes of microorganisms in the soil, wetlands, and oceans of our planet.

  • Summing up:
  •  The Earth formed more than 4 billion years ago along with the other planets in our solar system.
  • The early Earth had no ozone layer and was probably very hot. The early Earth also had no free oxygen.
  • Without an oxygen atmosphere very few things could live on the early Earth. Anaerobic bacteria were probably the first living things on Earth. These are referred to as Marut gan मरुत गण  in Vedas.
  • The early Earth had no oceans and was frequently hit with meteorites and asteroids. There were also frequent volcanic eruptions. Volcanic eruptions released water vapor that eventually cooled to form the oceans.
  • The atmosphere slowly became more oxygen-rich as solar radiation split water molecules and cyanobacteria began the process of photosynthesis. Eventually the atmosphere became like it is today and rich in oxygen.
  • The first complex organisms on Earth first developed about 2 billion years ago.

RV1.32

ऋषि: -हिरण्यस्तूप  आङ्गिरस =

इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री

अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत् पर्वतानाम् ।। 1.32.1

-महर्षि दयानंद के अनुसार; हे विद्वान्‌ लोगो ! तुम लोग जैसे सूर्य के जिन प्रसिद्ध  पराक्रमों को कहो  उन को  मैं भी शीघ्र कहूं | वह सब पदार्थों का छेदन करने  वाली किरणों से -युक्त सूर्य मेघ का हनन कर के वर्षाता है, उस मेघ के अवयव रूप जलों को नीचे  ऊपर करता उसको पृथ्वी पर गिराता और उन मेघों के सकाश से नदियों को छिन्न  भिन्न करके  बहाता है |

अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष

वाश्रा  इव धेनव: स्यन्दमाना अंज: समुद्रमव जग्मुराप: ।। 1.32.2

-जैसे यह सूर्यलोक मेघमण्डल में रहने वाल गर्जन शील मेघ को मारता है, इस मेघ के लिए  काटने के स्वभाव वाले किरणों को तोड़ता है. इस कर्म से बछड़ों को प्रीति पूर्वक चाहती हुई गौओं के समान चलते हुए प्रकट जल से पूर्ण समुद्र को नदियों के द्वारा जाते हैं.

Life Begins

वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत् सुतस्य

सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् 1.32.3

-सशक्त वृषभ की तरह आचरण करता हुवा सूर्य्यलोक मेघ के समान इस उत्पन्न हुए जगत के व्यवहार में बर्ताने वाले पदार्थों की  तीन अवस्थाओं उत्पत्ति, स्थिरता और विनाश की व्यवस्था बनाता है.( पृथ्वी पर वनस्पति और जीव उत्पन्न हो जाते हैं)  और्र पृथ्वी पर सूर्य अपनी शस्त्ररूपी किरण समूह द्वारा और मेघों से वर्षा द्वारा पृथ्वी  पर अपार समृद्धि का साधन बनता है. ( यहां फोटोसिंथेसिस द्वारा वनस्पति और पर्यावरण उत्पत्ति का ज्ञान निहित है)

Ozone layer Formation

यदिन्द्राहन् प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिना: प्रोत माया:

आत् सूर्यं जनयन् द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं किला विवित्से ।। 1.32.4

-प्रथम सब भिन्न भिन्न पदार्थों को आस्तित्व प्रदान करने के लिए सूर्य्यलोक में छोटे  छोटे  मेघों के मध्य में सूर्य का  आवरण  करने वाली बड़ी घटा  उठती है. उन मेघों  की अंधकार  रूप घटाओं  को अच्छे  प्रकार  हरता है तब विशेष   किरण  समूह  से प्रात:काल और  प्रकाश को प्रकट करता है.

Dinosaur Period

अहन् वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन

स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाऽहि: शयत उपपृक् पृथिव्या: ।। 1.32.5

-यास्क /दयानंद के अनुसार ; बड़े  बड़े मेघों और बिजलियों के वज्र से बड़े बड़े वृक्षादि को काट कर पृथ्वी पर  धराशायी कर दिया और वे सूर्य के गुणों से मृतक वत पृथ्वी पर सोते हैं

Sedimentary Rock Formation

अयोध्देव दुर्मद हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम्

नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजाना: पिपिष इन्द्रशत्रु: ।। 1.32.6

-यास्क/  दयानंद के अनुसार; वे बड़े बड़े पदार्थ सूर्य के शत्रु मेघ से युद्ध न कर सकने वाले, सब पदार्थों के रस को लिए हुए  सूर्य से पिस कर पर्वतों,  पृथ्वी के  बड़े बड़े टीलों को काटती हुई नदियों में बह चले.

अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान

वृष्णर्वध्रि: प्रतिमानं बुभूषन् पुरुत्रा वृत्रो अशयद् व्यस्त: ।। 1.32.7

नदं भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्याप:

याश्चिद् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् तासामहि: पत्सुत:शीर्बभूव ।। 1.32.8

नीचावया अभवद् वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार

उत्तरा सूरधर: पुत्र आसीद् दानु: शये सहवत्सा धेनु: ।। 1.32.9

अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम्

वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम अशयदिन्द्रशत्रु: ।। 1.32.10

-यास्क के अनुसार ; कहीं न रुकने वाले अस्थावर जलों में मेघ निहित है.जब वे मेघ निम्नप्रदेश में विचरते हुए गाढ़  अंधकार  फैला देते हैं.

दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन् निरुध्दा आप: पणिनेव गाव:

अपां बिलमपिहितं यदासीद वृत्रं जघन्वाँ अप तद् ववार ।। 1.32.11

-यास्क के अनुसार; मेघ में  छिपाया हुवा रक्षक वृष्टि जल जो जल के निकलने का  द्वार जो ढका हुआ था उसे विद्युत ने खोल दिया,एवं वृष्ट होने लगी.

अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन् देव एक:

अजयो गा अजय: शूर सोममवासृज: सर्तवे सप्त सिन्धून् ।। 1.32.12

नास्मै विद्युन्न तन्यतु: सिषेध यां मिहमकिरद् ध्रादुनिं

इन्द्रश्च यद् युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ।। 1.32.13

अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत्

नव यन् नवतिं स्रवन्ती: श्येनो भीतो अतरो रजांसि ।। 1.32.14

इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य शृंंगिणो वज्रबाहु:

सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान् न नेमि: परि ता बभूव ।। 1.32.15

वेदों में प्रातः भ्रमण

morning walk

Morning Walk  in Veda 

14.2

स्योनाद्‌ योनेरधि बुध्यमानौ हसामुदौ महसा मोदमानौ ।

सुगू सुपुत्रौ सुगृहौ तराथो जीवावुषसो विभाती: ॥ AV 14.2.43

सुखप्रद शय्या से उठते हुए, आनंद चित्त से प्रेम मय हर्ष  मनाते हुए, सुंदर आचरण से युक्त, श्रेष्ठ पुत्रादि संतान,  उत्तम गौ,  सुख सामग्री से युक्त घर में निवास करते हुए सुंदर प्रकाश युक्त प्रभात वेला का दीर्घायु के लिए सेवन करो.

प्रात: भ्रमण के लाभ

नवं वसान: सुरभि: सुवासा उदागां जीव उषसो विभाती:  ।

आण्डात्‌ पतत्रीवामुक्षि विश्वस्मादेनसस्परि ॥ AV14.2.44

स्वच्छ नये जैसे आवास और परिधान कपड़े आदि के साथ स्वच्छ वायु में सांस लेने वाला मैं आलस्य जैसी बुरी आदतों से छुट कर, विशेष रूप से सुंदर लगने वाली  प्रात: उषा काल में उठ कर  अपने घर से निकल कर घूमने चल पड़ता हूं जैसे एक पक्षी अपने अण्डे में से निकल कर चल पड़ता है.

प्रात: भ्रमण के लाभ

शुम्भनी द्यावा पृथिवी अ न्तिसुम्ने महिव्रते ।

आप: सप्त सुस्रुवुदेवीस्ता नो मुञ्चन्त्वंहस: ॥  AV14.2.45

सुंदर प्रकृति ने मनुष्य को सुख देने का एक महाव्रत ले रखा है. उन जनों को जो जीवन में  प्राकृतिक वातावरण के समीप रहते हैं सुख देने के लिए मानव शरीर में  प्रवाहित  होने वाले सात दैवीय जल तत्व हमारे दु:ख रूपि रोगों से छुड़ाते हैं .

Elements of Nature have avowed to make life comfortable and healthy for the species. Particularly the seven fluids that move around the human anatomy are specifically helped by Nature. Modern science confirms that presence of naturally created ‘Schumann’ electromagnetic field and  negative ions  generated by Nature play very significant roles in maintaining  good physical and mental health of human beings.

(प्रात: कालीन उषा प्रकृति के सेवन द्वारा सुख देने वाले वे मानव शरीर के सात जल तत्व अथर्व वेद के निम्न मंत्र में बताए गए हैं .

( को आस्मिन्नापो व्यदधाद्‌ विषूवृत: सिन्धुसृत्याय जाता:।

तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा  अवांची: पुरुषे तिरश्ची: ॥ AV 10.2.11

(भावार्थ)  परमेश्वर ने मनुष्य में रस रक्तादि के रूप में (सप्तसिंधुओं) सात भिन्न  भिन्न जलों को मानवशरीर में  स्थापित किया है. वे अलग अलग प्रवाहित होते हैं . अतिशय रूप से – अलग अलग नदियों की तरह बहने के लिए उन का निर्माण  गहरे  लाल रंग के, ताम्बे के रंग के, धुएं  के रंग इत्यादि के ये जल (रक्तादि) शरीर में ऊपर नीचे और तिरछे सब ओर आते जाते हैं.

ये सात जल तत्व आधुनिक शरीर शास्त्र के अनुसार निम्न बताए जाते हैं.

1.  मस्तिष्क सुषुम्णा में प्रवाहित होने वाला रस (Cerebra –Spinal Fluid)

2.  मुख लाला (Saliva)

3.  पेट के पाचन रस (Digestive juices)

4.  क्लोम ग्रन्थि रस जो पाचन में सहायक होते हैं (Pancreatic juices)

5.  पित्त रस ( liver Bile)

6.  रक्त (Blood)

7.  (Lymph )

ये सात रस मिल कर सप्त आप:= सप्त प्राण: – 5 ज्ञानेन्द्रियों, 1 मन और 1 बुद्धि का संचालन करते हैं.)

भ्रमण में पारस्परिक नमस्कार

सूर्यायै देवेभ्यो मित्राय वरुणाय च ।

ये भूतस्य प्रचेतसस्तेभ्य इदमकरं नम: ॥ AV14.2.46

सूर्य इत्यादि प्राकृतिक देवताओं को,  सब मिलने वाले मित्रों जनों को  जो सम्पूर्ण भौतिक जगत को प्रस्तुत करते हैं हमारा नमन है. ( भारतीय संस्कृति में प्रात: काल भ्रमण में जितने लोग मिलते हैं उन सब को यथायोग्य नमन करने की परम्परा इसी वेद मंत्र पर आधारित है)

भगवा

swami dayanand saraswati 1

भगवा

हमारे भारतीय सन्यासियों के वस्त्र का रंग भगवा है|और भारत के सनातन वैदिक धर्म ध्वजा का रंग भी भगवा है पर प्रश्न है कि ये भगवा रंग कहाँ से लिया गया,  क्यूँ लिया गया,  इसकी क्या विशेषता है, इसके पिछे क्या प्रेरणा है , भारत के ऋषी मुनियों ने क्यूँ इसे चुना और ये किन बातों का प्रतीक है ?

ये भगवा रंग अग्नि से लिया गया है | अग्नि की तीन विशेषताएं हैं | वैसे तो अग्नि का गुण धर्म अर्थात स्वरुप उष्णता और प्रकाश है | पर इसमें विशेषता भी है वह बहुत खास है | १. विशेषता है अग्नि किसी भी पदार्थ के गुणों को कई गुना रूप से प्रगट करती है २.  जब इसमें कुछ जलाया जाता है तब ये दुर्गुणों को नष्ट करती है ३. ये जीवनदायिनी है सूर्य के रूप में | इसी अग्नि से ये रंग लिया गया है | जब अग्नि में शुद्ध पदार्थ हवन करते हुए डाले जाते हैं तब ये भगवा रंग प्रगट होता है | वैसे तो कचरा जला कर भी भी अग्नि प्रगट होती है पर उसका रंग भगवा नहीं होता और वह प्रदूषण भी फैलती है पर हवन करते जो अग्नि प्रगट होती है वह धुआं रहित और उसमे यह रंग निरंतर प्रगट होता है | अग्नि जिस पदार्थ को ग्रहण करती है वह कई गुना रूप में अंतरिक्ष में फ़ैला देती है अर्थात वह उसका त्याग करती है | अपने पास नहीं रखती | हवन करते हुए हम जिस पदार्थ को स्वाहा करते हैं अग्नि भी उस पदार्थ को स्वाहा कर देती है यही इसके तीसरे गुण का गहरा भाव है | यही इसका वैराग्य स्वाभाव है |

इधर ऋषीमुनी सन्यासी आदि ने भी यही तीन गुण होते हैं | अगर सन्यासी में ये तीन गुण न हों, तो वह कैसा सन्यासी ?

१. सन्यासी व्यक्तियों के दुर्गुणों को नष्ट करता है |

२. व्यक्तियों के सद्गुणों को प्रगट करता है |

३. दुःख भरे जीवन को नष्ट कर सुख रूप जीवन से दूसरों को भर देता है |

वह जो भी ग्रहण करता है वह उसका संग्रह न कर दूसरों को दे देता है, त्याग करता है। वह अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीता है | वह सुखों का ग्रहण कर्ता नहीं दाता है | ऐसे वैराग्य भाव को सन्यास कहते हैं | अग्नि का असर पदार्थों पर होता है और सन्यासी का असर व्यक्तियों पर अर्थात आत्माओं पर होता है | ऐसा सन्यासी अग्नि है | इसीलिए परमात्मा भी अग्नि है | अग्नि के इस रंग से ही सन्यासी के वस्त्र का रंग दिया गया है,” जो वैराग्य का प्रतीक है , त्याग का प्रतीक है और ज्ञान का प्रतीक है” |

ज्ञान अग्नि से भी अज्ञान भस्म होता है. अग्नि के और सन्यासी के इसी समानता के कारण ही सन्यासी के वस्त्र के लिए इस रंग को चुना गया है |

कभी किसी पूर्व प्रबल संस्कारों के कारण सन्यासी का विचार विचलित होने लगे राह से भटकने लगे तो यह भगवा रंग उसे जागृत कर उसे यह बताये कि यह तेरा धर्म नहीं है |

धर्म नाम है धारण करने का, धारण करने का प्रतीक है ध्वज इसीलिए ध्वज को भी वही रंग दिया गया। ध्वजा का निर्माण ही इसी लिए है कि वह जिस व्यक्ति की है, सम्प्रदाय की है,  देश की है धर्म की है उसके आतंरिक भाव को प्रगट करे | आतंरिक भावनाओं को हर किसी को समझाने की जरुरत नहीं पर यह धर्म ध्वज, गुण धारण ध्वज, यह कल्याण ध्वज, त्याग ध्वज, सुखकारक ध्वज सभी ध्वजों से ऊपर होता है | इस संसार में हजारों तरह के ध्वज हैं में नहीं जानता उनके अंतरंग भाव क्या हैं पर किसी व्यक्ति के विचार का, वैराग्य का धर्म का नीति का त्याग का भाव शायद ही ध्वज से प्रगट होता हो जो भगवा ध्वज से प्रगट होता है | आज भले ही इस भगवे की आड़ में ढोंगियों की भीड़ जमा हुई हो । पर ये भी सत्य है असल से ही नक़ल चलती है अन्यथा नकल का स्वतंत्र अस्तित्व ही कहाँ है ?

अग्नि से भगवा रंग तभी प्रगट होता है जब उसमें शुद्ध सामग्री डाली जाये ।  तभी उसमें धुंध रहित ज्वाला निकलेगी  अन्यथा कचरे से धुँआ भी बहुत निकलता है । ऐसे ही व्यक्ति के भीतर शुध्द विचारों से, कल्याणकारी विचारों से ही सन्यास प्रगट होता है। निरंतर त्याग भाव है तो वैराग्य है | वैराग्य है तो सन्यास है । जहाँ सन्यास वैराग्य है वह ह्रदय अग्नि है अर्थात भगवा है जहाँ धुँआँ नहीं ज्वालायें हें । वह तेजोमयी अग्नि भगवा है जहाँ सारे विषय भोग भस्म हो जाते हैं नष्ट हो जाते हैं अब ह्रदय “भगवा है ” | देना ही देना है |

भारतीय समाज में मन्यु (बोध जन्य क्रोध) का महत्व

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भारतीय समाज में मन्यु (बोध जन्य क्रोध)  का महत्व 

साधारण हिंदी में  मन्यु का अर्थ क्रोध लिया जाता है . यह इसी बात का परिचायक है हम मन्यु शब्द  का अर्थ तक भूल गये हैं भारत वर्ष  में महाभारत काल में ही समाज में मन्यु का अभाव  दिखायी  देने  लगा था. वास्तव  में कृष्ण द्वारा  अर्जुन को  गीता का उपदेश वैदिक  मन्यु  का  ज्ञान ही  तो है. दुष्टों  के अन्याय के विरुद्ध आक्रोश और  संग्राम  तो  मानव  का कर्तव्य  बनता है. भगवान  राम का लन्केश रावण के दुष्टाचार से समाज का उद्धार मन्यु ही तो था. मर्यादा पुरुषोत्तम  से  क्रोध  की तो अपेक्षा ही नहीं  की जा सकती . बोध जन्य क्रोध  को मन्यु  कहते  हैं .इसीलिए  वैदिक प्रार्थना है  –  “मन्युरसि मन्युं मयि धेहि, हे दुष्टों पर क्रोध करने वाले (परमेश्वर) ! आप दुष्ट कामों और दुष्ट जीवो पर क्रोध करने का स्वभाव मुझ में  भी  रखिये यजुर्वेद – 19.9”. मनन उपरांत  उग्रता  मन्यु है अन्याय दुष्ट आचरण से समझौता करना दुष्टाचरण को समाप्त नहीं  करता वरन्च दुष्टाचार को  बढावा ही देता है.   क्या यह भारत वर्ष का ही नहीं समस्त मानव इतिहास  बताता है. महाभारत  काल   के पश्चात ऐसा लगता है कि भारतीय समाज मन्यु  विहीन हो गया.  तभी तो हम सब दुष्टों के व्यवहार को परास्त न कर के , उन से समझौता करते चले  आ रहे  हैं हिंदु धर्म  में वैदिक काल से यम नियम द्वारा अहिंसा  मानव मात्र का  कर्तव्य  है. परन्तु  अहिंसा का अर्थ  मन्यु विहीन होना कदापि नहीं  है.  अहिंसा परमो  ध्रर्मः के  अर्थ का  बोध पूर्वक  संज्ञान होना चाहिये.

समाज, राष्ट्र, संस्कृति की सुरक्षा के लिए, मन्यु कितना मह्त्व का  विषय है यह इस बात से सिद्ध होता है कि ऋग्वेद मे पूरे दो सूक्त केवल मन्यु पर हैं. और इन्हीं दोनो सूक्तों का अथर्व वेद मे पुनः उपदेश मिलता है.

 अग्निरिव मन्यो तविषितः, विद्मा तमुत्सं आबभूथ, मन्युर्होता वरुणो जातवेदाः वेद यह भी निर्देश देते हैं कि मन्यु एक दीप्ति है जिस का प्रकाश यज्ञाग्नि द्वारा मानव हृदय में होता है. हृदय के रक्त के संचार मे मन्यु का उत्पन्न होना बताते है. मन्यु यज्ञाग्नि से ही उत्पन्न जातवेदस सर्वव्यापक वरुण रूप धारण करता है.

परन्तु वेदों मे इस बात की भी सम्भावना दिखायी है,कि कभी कभी समाज में , परिवार में विभ्रान्तियों, ग़लतफहमियों, मिथ्याप्रचार के कारण भी सामाजिक सौहार्द्र में आक्रोश हो सकता है. ऐसी परिस्थितियों में आपस में वार्ता, समझदारी से आपसी मनमुटाव का निवारण कर, प्रेम भाव सौहर्द्र पुनः स्थापित किया जाना चाहिये.

 Rig Veda Book 10 Hymn 83 same as AV 4.32

यस्ते मन्योSविधद्वज्र सायक सह ओजः पुष्यति विश्वमानुषक | 

साह्याम दासमार्यं त्वया युजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता || ऋ10/83/1

(वज्र सायक मन्यो)  Confidence is  born out of  being competently equipped and trained to perform a job.

हे मन्यु, जिस ने तेरा आश्रयण किया है, वह अपने शस्त्र सामर्थ्य को, समस्त बल और पराक्रम को निरन्तर पुष्ट करता है.साहस से उत्पन्न हुवे बल और परमेश्वर के साहस रूपि सहयोग से समाज का अहित करने वालों पर  बिना मोह माया ( स्वार्थ, दुख) के यथा योग्य कर्तव्य करता  है.

मन्युरिन्द्रो मन्युरेवास देवो मन्युर्होता वरुणो जातवेदाः |
मन्युं विश ईळते मानुषीर्याः पाहि नो मन्यो तपसा सजोषाः || ऋ10/83/2

मन्युदेव इंद्र जैसा सम्राट है. मन्युदेव ज्ञानी सब ओर से प्रचेत ,सचेत तथा धनी वरुण जैसे गुण वाला है  .वही यज्ञाग्नि द्वारा समस्त वातावरण और समाज मे कल्याण कारी तप के उत्साह से सारी मानव प्रजा का सहयोग प्राप्त करने मे समर्थ होता है. (सैनिकों और अधिकारियों के मनों में यदि मन्यु की उग्रता न हो तो युद्ध में सफलता नहीं हो सकती. इस प्रकार युद्ध में  मन्यु ही पालक तथा रक्षक होता है.)

अभीहि मन्यो तवसस्तवीयान् तपसा युजा वि जहि शत्रून् |
अमित्रहा वृत्र हा दस्युहा च विश्वा वसून्या भरा त्वं नः || ऋ10/83/3

हे वज्ररूप, शत्रुओं के लिए अन्तकारिन्‌ , परास्त करने की शक्ति के साथ उत्पन्न होने वाले, बोध युक्त क्रोध ! अपने कर्म के साथ प्रजा को स्नेह दे कर अनेक सैनिकों के बल द्वारा समाज को महाधन उपलब्ध करा.

त्वं हि मन्यो अभिभूत्योजाः सवयंभूर्भामो अभिमातिषाहः |
विश्वचर्षणिः सहुरिः सहावानस्मास्वोजः पर्तनासु धेहि || ऋ10/83/4

हे बोधयुक्त क्रोध मन्यु!  सब को परास्त कारी ओज वाला, स्वयं सत्ता वाला, अभिमानियों का  पराभव  करने वाला , तू विश्व का शीर्ष नेता है. शत्रुओं के आक्रमण को जीतने वाला विजयवान है. प्रजाजनों, अधिकारियों, सेना में अपना ओज स्थापित कर.

अभागः सन्नप परेतो अस्मि तव क्रत्वा तविषस्यप्रचेतः |
तं त्वा मन्यो अक्रतुर्जिहीळाहं स्वा तनूर्बलदेयाय मेहि ||ऋ10/83/5

हे त्रिकाल दर्शी मन्यु, तेरे वृद्धिकारक  कर्माचरण से विमुख हो कर मैने तेरा निरादर किया है ,मैं पराजित  हुवा हूँ. हमें अपना बल तथा ओज शाली स्वरूप दिला.

अयं ते अस्म्युप मेह्यर्वाङ्  प्रतीचीनः सहुरे विश्वधायः |
मन्यो वज्रिन्नभि मामा ववृत्स्व हनाव दस्यूंरुत बोध्यापेः || ऋ10/83/6

हे प्रभावकारी समग्र शक्ति प्रदान करने वाले मन्यु, हम तेरे अपने हैं .  बंधु अपने आयुध और बल के साथ हमारे पास लौट कर आ, जिस से हम तुम्हारे सहयोग से सब अहित करने वाले शत्रुओं पर सदैव विजय पाएं.

अभि प्रेहि दक्षिणतो भवा मे Sधा वृत्राणि जङ्घनाव भूरि |
जुहोमि ते धरुणं मध्वो अग्रमुभा उपांशु प्रथमा पिबाव ||ऋ10/83/7

हे मन्यु , मैं तेरे श्रेष्ठ भाग और पोषक, मधुररस की स्तुति करता हूं . हम दोनो युद्धारम्भ से पूर्व अप्रकट मंत्रणा करें ( जिस से हमारे शत्रु को हमारी योजना की पूर्व जानकारी न हो). हमारा दाहिना हाथ बन, जिस से हम राष्ट्र  का आवरण करने वाले शत्रुओं पर विजय पाएं.

Rig Veda Book 10 Hymn 84 same as AV 4.31

त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमाणासो धर्षिता मरुत्वः |
तिग्मेषव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु नरो अग्निरूपाः || ऋ10/84/1 अथव 4.31.1

हे  मरने  की अवस्था में भी उठने की प्रेरणा देने  वाले  मन्यु , उत्साह !  तेरी सहायता से रथ सहित शत्रु को विनष्ट करते हुए और स्वयं आनन्दित  और प्रसन्न चित्त हो कर  हमें उपयुक्त शस्त्रास्त्रों से अग्नि के समान तेजस्वी नेत्रित्व  प्राप्त हो.

अग्निरिव मन्यो तविषितः सहस्व सेनानीर्नः सहुरे हूत एधि

हत्वाय शत्रून् वि भजस्व वेद ओजो मिमानो वि मृधो नुदस्व ||ऋ10/84/2 अथर्व 4.31.2

हे उत्साह रूपि मन्यु तू अग्नि का तेज धारण कर, हमें समर्थ बना. घोष और  वाणी से आह्वान  करता हुवा  हमारी सेना  को नेत्रित्व प्रदान करने वाला हो. अपने शस्त्र बल को नापते  हुए  शत्रुओं को परास्त कर के हटा दें.

सहस्व मन्यो अभिमातिमस्मे रुजन् मृणन् प्रमृन् प्रेहि शत्रून्

उग्रं ते पाजो नन्वा रुरुध्रे वशी वशं नयस एकज त्वम् || ऋ10/84/3अथर्व 4.31.3

अभिमान करने वाले शत्रुओं को नष्ट करने का तुम अद्वितीय  सामर्थ्य रखते हो.

एको बहूनामसि मन्यवीळितो विशं-विशं युधये सं शिशाधि |
अकृत्तरुक त्वया युजा वयं द्युमन्तं घोषं विजयाय कर्ण्महे || ऋ10/84/4अथर्व 4.31.4

हे मन्यु बोधयुक्त क्रोध अकेले तुम ही सब सेनाओं और प्रजा जनों का उत्साह बढाने वाले हो. जयघोष और सिन्ह्नाद सेना और प्रजा के पशिक्षण में  दीप्ति का प्रकाश करते हैं वह  तुन्हारा ही प्रदान किया हुवा है.


विजेषकृदिन्द्र इवानवब्रवो Sस्माकं मन्यो अधिपा भवेह |
प्रियं ते नाम सहुरे गृणीमसि विद्मा तमुत्सं आबभूथ ||  ऋ10/84/5अथत्व 4.31.5

मन्यु द्वारा विजय कभी निंदनीय नहीं होती. हम उस प्रिय मन्यु के उत्पादक  रक्त के संचार करने वाले हृदय  के बारे में भी जानकारी प्राप्त करें.

आभूत्या सहजा वज्र सायक सहो बिभर्ष्यभिभूत उत्तरम |
क्रत्वा नो मन्यो सह मेद्येधि महाधनस्य पुरुहूतसंसृजि ||ऋ10/84/6  अथर्व 4.31.6

दिव्य सामर्थ्य उत्पन्न कर के उत्कृष्ट बलशाली मन्यु अपनी सम्पूर्ण शक्ति से अनेक स्थानों पर पुकारे जाने पर उपस्थित हो कर, हमे  महान ऐश्वर्य युद्ध मे  विजय प्रदान करवाये.

संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं दत्तां वरुणश्च मन्युः | 

भियं दधाना हर्दयेषु शत्रवः पराजितासो अप नि लयन्ताम् || ऋ10/84/7  AV4.31.7

हे मन्यु ,  बोधयुक्त क्रोध , समाज के शत्रुओं द्वारा (चोरी से) प्राप्त प्रजा के धन को तथा उन शत्रुओं  के द्वारा राष्ट्र से पूर्वतः एकत्रित किये  गये  दोनो प्रकार के धन को शत्रु के साथ युद्ध में जीत कर सब प्रजाजनों अधिकारियों को प्रदान कर (बांट). पराजित शत्रुओं के हृदय में इतना भय उत्पन्न कर दे कि वे निलीन हो जाएं.

( क्या यह स्विस बेंकों मे राष्ट्र के धन के बारे में उपदेश नहीं है)

Atharva 6/41

मनसे चेतसे धिय आकूतय उत चित्तये !

मत्यै श्रुताय चक्षसे विधेम हविषा वयम् !! अथर्व 6/41/1

(मनसे) सुख दु:ख आदि को प्रत्यक्ष कराने वाले मन के लिए (चेतसे) ज्ञान साधन चेतना के लिए (धिये) ध्यान साधन बुद्धिके लिए (आकूतये) संकल्प  के लिए (मत्यै) स्मृति साधन मति के लिए, (श्रुताय) वेद ज्ञान के लिए ( चक्षसे) दृष्टि शक्ति के लिए (वयम) हम लोग (हविषा विधेम) अग्नि मे हवि द्वारा यज्ञ करते हैं.

भावार्थ: यज्ञाग्नि के द्वारा उपासना से मनुष्य को सुमति, वेद ज्ञान,चैतन्य, शुभ संकल्प, जैसी उपलब्धियां होती हैं जिन की सहायता से जीवन सफल हो कर सदैव सुखमय बना रहता है.

अपानाय व्यानाय प्राणाय भूरिधायसे !

सरस्वत्या उरुवव्यचे विधेम हविषा वयम !! अथर्व 6/41/2

(अपानाय व्यानाय) शरीरस्थ प्राण वायु के लिए (भूरिधायसे)अनेक प्रकार से धारण करने वाले (प्राणाय) प्राणों के लिए (उरुव्यचे) विस्तृत गुणवान सत्कार युक्त (सरस्वत्यै) उत्तम ज्ञान की वृद्धि के लिए (वयम हविषा विधेम) हम अग्नि मे हवि द्वारा द्वारा होम करते हैं.

भावार्थ: प्राणापानादि शरीरस्थ प्राण वायु के विभिन्न व्यापार मानव शरीर को सुस्थिर रखते हैं. इन्हें कार्य क्षेम रखने के लिए युक्ताहार विहार के साथ प्राणायामादि के साथ यज्ञादि संध्योपासना प्राणों को ओजस्वी बनाने के सफल साधन बनते हैं

मा नो हासिषुरृषयो दैव्या ये तनूपा ये न तन्वस्व्तनूजा: !

अमर्त्या मर्तयां अभि न: सचध्वमायुर्धत्त प्रतरं जीवसे न: !! अथर्व 6/41/3

(ये) जो (दैव्या ऋषिय:) यह दिव्य सप्तऋषि(तनूपा) शरीर की रक्षा करने वाले हैं (ये न: तन्व: तनूजा) ये जो शरीर में इंद्रिय रूप में स्थापित हैं वे (न: मा हासिषु) हमें मत छोडें .(अमर्त्या:) अविनाशी देवगण (मर्त्यान् न) हम मरण्धर्मा लोगों को (अभिसचध्वं) अनुगृहीत करो, (न: प्रतरं आयु:) हमारी  दीर्घायु  को (जीवसेधत्त) जीवन के लिय समर्थ करें( इसी संदर्भ में “ शुक्रमुच्चरित ” द्वारा ऊर्ध्वरेता का भी महत्व बनता है  शरीरस्थ सप्तृषि: सात प्राण, दो कान (गौतम और भरद्वाज ज्ञान को भली भांति धारण करने से भरद्वाज) दो चक्षु (विश्वामित्र और जमदग्नि जिस से ज्योति चमकती है) दो नासिका (वसिष्ठ और कश्यप प्राण के संचार का मार्ग), और मुख (अत्रि:)

Resolve Misperceptions – भ्रांति निवारण

 Negotiations

अव ज्यामिव धन्वनो मन्युं तनोमि ते हृदः!

यथा संमनसौ भूत्वा सखायाविव सचावहै !! अथर्व 6.42.1

असह्य व्यवस्था के विवेकपूर्ण  चिन्तन  करने से ज्ञान दीप्ति द्वारा मित्रों की तरह सुसंगत होने का भी प्रयास करना चाहिए.

Possible misapprehensions leading to public unrest /family discords should be resolved by better understanding. Angry situations may thus be resolved to establish peace and harmony.

Bury the hatchet- शांति वार्ता

सखायाविव सचावहा अव मन्युं तनोमि ते !

अघस्ते अश्मनो मन्युमुपास्यामसि यो गुरुः !! अथर्व 6.42.2

परिवार में समाज में विभ्रान्ति

Anger caused by misunderstandings should be resolved to establish friendly atmosphere. Anger should be forgotten as if buried under a heavy stone.

Restore Amity-सौहार्द्र पुनः स्थापन

अभि तिष्ठामि ते मन्युं पार्ष्ण्या प्रपदेन च !

यथावशो न वादिषो मम चित्तमुपायसि !! अथर्व 6.42.3

Public Anger should be forgotten for the hearts to become one. This is as if the anger had been crushed under the heels

यज्ञाग्नि का हृदय में स्थापित्य से क्षत्रियत्व का प्रभाव

अथर्व 6.76

1.य एनं परिषीदन्ति समादधति चक्षसे ! संप्रेद्धो अग्निर्जिह्वाभिरुदेतु  हृदयादधि अथर्व 6.76.1

जो इस  यज्ञाग्नि के चारों ओर बैठते हैं , इस की उपासना करते हैं, और दिव्य दृष्टि के लिए इस का आधान करते हैं , उन के हृदय के ऊपर प्रदीप्त हुवा अग्नि अपनी ज्वालाओं से उदय हो कर क्षत्रिय गुण प्रेरित करता है.

2.अग्नेः सांत्पनस्याहमायुषे पदमा रभे ! अद्धातिर्यस्य पश्यति धूममुद्यन्तमास्यतः !!अथर्व 6.76.2

शत्रु को तपाने  वाली अग्नि के (पदम्‌) पैर को, चरण को  (आयुषे) स्वयं की, प्रजाजन की, राष्ट्र की दीर्घायु के लिए (अह्म्‌) मैं ग्रहण करता हूँ . इस अग्नि के धुंए को मेरे मुख से उठता हुवा सत्यान्वेषी मेधावी पुरुष देख पाता है.

3.यो अस्य समिधं वेद क्षत्रियेण समाहिताम्‌ ! नाभ्ह्वारे पदं नि दधाति स मृत्यवे !! अथर्व 6.76.3

जो प्रजाजन इस धर्मयुद्ध की  अग्नि को देख पाता है, जो क्षत्रिय धर्म सम्यक यज्ञाग्नि सब के लिए समान रूप से आधान की जाती है. उसे समझ कर प्रजाजन कुटिल छल कपट की नीति को त्याग कर मृत्यु के लिए पदन्यास नहीं करता.

4. नैनं घ्नन्ति पर्यायिणो न सन्नाँ अव गच्छति! अग्नेर्यः क्ष्त्रियो विद्वान्नम गृह्णात्यायुषे !! अथर्व 6.76.4

जो सब ओर से घेरने वाले शत्रु हैं वह इस आत्माग्नि  का सामना नहीं  कर पाते, और समीप रहने वाले भी इस को जानने में असमर्थ रहते हैं. परन्तु जो ज्ञानी क्षत्रिय   धर्म ग्रहण करते हैं वे हुतात्मा अमर हो जाते हैं .