भारतीय समाज में मन्यु (बोध जन्य क्रोध) का महत्व

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भारतीय समाज में मन्यु (बोध जन्य क्रोध)  का महत्व 

साधारण हिंदी में  मन्यु का अर्थ क्रोध लिया जाता है . यह इसी बात का परिचायक है हम मन्यु शब्द  का अर्थ तक भूल गये हैं भारत वर्ष  में महाभारत काल में ही समाज में मन्यु का अभाव  दिखायी  देने  लगा था. वास्तव  में कृष्ण द्वारा  अर्जुन को  गीता का उपदेश वैदिक  मन्यु  का  ज्ञान ही  तो है. दुष्टों  के अन्याय के विरुद्ध आक्रोश और  संग्राम  तो  मानव  का कर्तव्य  बनता है. भगवान  राम का लन्केश रावण के दुष्टाचार से समाज का उद्धार मन्यु ही तो था. मर्यादा पुरुषोत्तम  से  क्रोध  की तो अपेक्षा ही नहीं  की जा सकती . बोध जन्य क्रोध  को मन्यु  कहते  हैं .इसीलिए  वैदिक प्रार्थना है  –  “मन्युरसि मन्युं मयि धेहि, हे दुष्टों पर क्रोध करने वाले (परमेश्वर) ! आप दुष्ट कामों और दुष्ट जीवो पर क्रोध करने का स्वभाव मुझ में  भी  रखिये यजुर्वेद – 19.9”. मनन उपरांत  उग्रता  मन्यु है अन्याय दुष्ट आचरण से समझौता करना दुष्टाचरण को समाप्त नहीं  करता वरन्च दुष्टाचार को  बढावा ही देता है.   क्या यह भारत वर्ष का ही नहीं समस्त मानव इतिहास  बताता है. महाभारत  काल   के पश्चात ऐसा लगता है कि भारतीय समाज मन्यु  विहीन हो गया.  तभी तो हम सब दुष्टों के व्यवहार को परास्त न कर के , उन से समझौता करते चले  आ रहे  हैं हिंदु धर्म  में वैदिक काल से यम नियम द्वारा अहिंसा  मानव मात्र का  कर्तव्य  है. परन्तु  अहिंसा का अर्थ  मन्यु विहीन होना कदापि नहीं  है.  अहिंसा परमो  ध्रर्मः के  अर्थ का  बोध पूर्वक  संज्ञान होना चाहिये.

समाज, राष्ट्र, संस्कृति की सुरक्षा के लिए, मन्यु कितना मह्त्व का  विषय है यह इस बात से सिद्ध होता है कि ऋग्वेद मे पूरे दो सूक्त केवल मन्यु पर हैं. और इन्हीं दोनो सूक्तों का अथर्व वेद मे पुनः उपदेश मिलता है.

 अग्निरिव मन्यो तविषितः, विद्मा तमुत्सं आबभूथ, मन्युर्होता वरुणो जातवेदाः वेद यह भी निर्देश देते हैं कि मन्यु एक दीप्ति है जिस का प्रकाश यज्ञाग्नि द्वारा मानव हृदय में होता है. हृदय के रक्त के संचार मे मन्यु का उत्पन्न होना बताते है. मन्यु यज्ञाग्नि से ही उत्पन्न जातवेदस सर्वव्यापक वरुण रूप धारण करता है.

परन्तु वेदों मे इस बात की भी सम्भावना दिखायी है,कि कभी कभी समाज में , परिवार में विभ्रान्तियों, ग़लतफहमियों, मिथ्याप्रचार के कारण भी सामाजिक सौहार्द्र में आक्रोश हो सकता है. ऐसी परिस्थितियों में आपस में वार्ता, समझदारी से आपसी मनमुटाव का निवारण कर, प्रेम भाव सौहर्द्र पुनः स्थापित किया जाना चाहिये.

 Rig Veda Book 10 Hymn 83 same as AV 4.32

यस्ते मन्योSविधद्वज्र सायक सह ओजः पुष्यति विश्वमानुषक | 

साह्याम दासमार्यं त्वया युजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता || ऋ10/83/1

(वज्र सायक मन्यो)  Confidence is  born out of  being competently equipped and trained to perform a job.

हे मन्यु, जिस ने तेरा आश्रयण किया है, वह अपने शस्त्र सामर्थ्य को, समस्त बल और पराक्रम को निरन्तर पुष्ट करता है.साहस से उत्पन्न हुवे बल और परमेश्वर के साहस रूपि सहयोग से समाज का अहित करने वालों पर  बिना मोह माया ( स्वार्थ, दुख) के यथा योग्य कर्तव्य करता  है.

मन्युरिन्द्रो मन्युरेवास देवो मन्युर्होता वरुणो जातवेदाः |
मन्युं विश ईळते मानुषीर्याः पाहि नो मन्यो तपसा सजोषाः || ऋ10/83/2

मन्युदेव इंद्र जैसा सम्राट है. मन्युदेव ज्ञानी सब ओर से प्रचेत ,सचेत तथा धनी वरुण जैसे गुण वाला है  .वही यज्ञाग्नि द्वारा समस्त वातावरण और समाज मे कल्याण कारी तप के उत्साह से सारी मानव प्रजा का सहयोग प्राप्त करने मे समर्थ होता है. (सैनिकों और अधिकारियों के मनों में यदि मन्यु की उग्रता न हो तो युद्ध में सफलता नहीं हो सकती. इस प्रकार युद्ध में  मन्यु ही पालक तथा रक्षक होता है.)

अभीहि मन्यो तवसस्तवीयान् तपसा युजा वि जहि शत्रून् |
अमित्रहा वृत्र हा दस्युहा च विश्वा वसून्या भरा त्वं नः || ऋ10/83/3

हे वज्ररूप, शत्रुओं के लिए अन्तकारिन्‌ , परास्त करने की शक्ति के साथ उत्पन्न होने वाले, बोध युक्त क्रोध ! अपने कर्म के साथ प्रजा को स्नेह दे कर अनेक सैनिकों के बल द्वारा समाज को महाधन उपलब्ध करा.

त्वं हि मन्यो अभिभूत्योजाः सवयंभूर्भामो अभिमातिषाहः |
विश्वचर्षणिः सहुरिः सहावानस्मास्वोजः पर्तनासु धेहि || ऋ10/83/4

हे बोधयुक्त क्रोध मन्यु!  सब को परास्त कारी ओज वाला, स्वयं सत्ता वाला, अभिमानियों का  पराभव  करने वाला , तू विश्व का शीर्ष नेता है. शत्रुओं के आक्रमण को जीतने वाला विजयवान है. प्रजाजनों, अधिकारियों, सेना में अपना ओज स्थापित कर.

अभागः सन्नप परेतो अस्मि तव क्रत्वा तविषस्यप्रचेतः |
तं त्वा मन्यो अक्रतुर्जिहीळाहं स्वा तनूर्बलदेयाय मेहि ||ऋ10/83/5

हे त्रिकाल दर्शी मन्यु, तेरे वृद्धिकारक  कर्माचरण से विमुख हो कर मैने तेरा निरादर किया है ,मैं पराजित  हुवा हूँ. हमें अपना बल तथा ओज शाली स्वरूप दिला.

अयं ते अस्म्युप मेह्यर्वाङ्  प्रतीचीनः सहुरे विश्वधायः |
मन्यो वज्रिन्नभि मामा ववृत्स्व हनाव दस्यूंरुत बोध्यापेः || ऋ10/83/6

हे प्रभावकारी समग्र शक्ति प्रदान करने वाले मन्यु, हम तेरे अपने हैं .  बंधु अपने आयुध और बल के साथ हमारे पास लौट कर आ, जिस से हम तुम्हारे सहयोग से सब अहित करने वाले शत्रुओं पर सदैव विजय पाएं.

अभि प्रेहि दक्षिणतो भवा मे Sधा वृत्राणि जङ्घनाव भूरि |
जुहोमि ते धरुणं मध्वो अग्रमुभा उपांशु प्रथमा पिबाव ||ऋ10/83/7

हे मन्यु , मैं तेरे श्रेष्ठ भाग और पोषक, मधुररस की स्तुति करता हूं . हम दोनो युद्धारम्भ से पूर्व अप्रकट मंत्रणा करें ( जिस से हमारे शत्रु को हमारी योजना की पूर्व जानकारी न हो). हमारा दाहिना हाथ बन, जिस से हम राष्ट्र  का आवरण करने वाले शत्रुओं पर विजय पाएं.

Rig Veda Book 10 Hymn 84 same as AV 4.31

त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमाणासो धर्षिता मरुत्वः |
तिग्मेषव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु नरो अग्निरूपाः || ऋ10/84/1 अथव 4.31.1

हे  मरने  की अवस्था में भी उठने की प्रेरणा देने  वाले  मन्यु , उत्साह !  तेरी सहायता से रथ सहित शत्रु को विनष्ट करते हुए और स्वयं आनन्दित  और प्रसन्न चित्त हो कर  हमें उपयुक्त शस्त्रास्त्रों से अग्नि के समान तेजस्वी नेत्रित्व  प्राप्त हो.

अग्निरिव मन्यो तविषितः सहस्व सेनानीर्नः सहुरे हूत एधि

हत्वाय शत्रून् वि भजस्व वेद ओजो मिमानो वि मृधो नुदस्व ||ऋ10/84/2 अथर्व 4.31.2

हे उत्साह रूपि मन्यु तू अग्नि का तेज धारण कर, हमें समर्थ बना. घोष और  वाणी से आह्वान  करता हुवा  हमारी सेना  को नेत्रित्व प्रदान करने वाला हो. अपने शस्त्र बल को नापते  हुए  शत्रुओं को परास्त कर के हटा दें.

सहस्व मन्यो अभिमातिमस्मे रुजन् मृणन् प्रमृन् प्रेहि शत्रून्

उग्रं ते पाजो नन्वा रुरुध्रे वशी वशं नयस एकज त्वम् || ऋ10/84/3अथर्व 4.31.3

अभिमान करने वाले शत्रुओं को नष्ट करने का तुम अद्वितीय  सामर्थ्य रखते हो.

एको बहूनामसि मन्यवीळितो विशं-विशं युधये सं शिशाधि |
अकृत्तरुक त्वया युजा वयं द्युमन्तं घोषं विजयाय कर्ण्महे || ऋ10/84/4अथर्व 4.31.4

हे मन्यु बोधयुक्त क्रोध अकेले तुम ही सब सेनाओं और प्रजा जनों का उत्साह बढाने वाले हो. जयघोष और सिन्ह्नाद सेना और प्रजा के पशिक्षण में  दीप्ति का प्रकाश करते हैं वह  तुन्हारा ही प्रदान किया हुवा है.


विजेषकृदिन्द्र इवानवब्रवो Sस्माकं मन्यो अधिपा भवेह |
प्रियं ते नाम सहुरे गृणीमसि विद्मा तमुत्सं आबभूथ ||  ऋ10/84/5अथत्व 4.31.5

मन्यु द्वारा विजय कभी निंदनीय नहीं होती. हम उस प्रिय मन्यु के उत्पादक  रक्त के संचार करने वाले हृदय  के बारे में भी जानकारी प्राप्त करें.

आभूत्या सहजा वज्र सायक सहो बिभर्ष्यभिभूत उत्तरम |
क्रत्वा नो मन्यो सह मेद्येधि महाधनस्य पुरुहूतसंसृजि ||ऋ10/84/6  अथर्व 4.31.6

दिव्य सामर्थ्य उत्पन्न कर के उत्कृष्ट बलशाली मन्यु अपनी सम्पूर्ण शक्ति से अनेक स्थानों पर पुकारे जाने पर उपस्थित हो कर, हमे  महान ऐश्वर्य युद्ध मे  विजय प्रदान करवाये.

संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं दत्तां वरुणश्च मन्युः | 

भियं दधाना हर्दयेषु शत्रवः पराजितासो अप नि लयन्ताम् || ऋ10/84/7  AV4.31.7

हे मन्यु ,  बोधयुक्त क्रोध , समाज के शत्रुओं द्वारा (चोरी से) प्राप्त प्रजा के धन को तथा उन शत्रुओं  के द्वारा राष्ट्र से पूर्वतः एकत्रित किये  गये  दोनो प्रकार के धन को शत्रु के साथ युद्ध में जीत कर सब प्रजाजनों अधिकारियों को प्रदान कर (बांट). पराजित शत्रुओं के हृदय में इतना भय उत्पन्न कर दे कि वे निलीन हो जाएं.

( क्या यह स्विस बेंकों मे राष्ट्र के धन के बारे में उपदेश नहीं है)

Atharva 6/41

मनसे चेतसे धिय आकूतय उत चित्तये !

मत्यै श्रुताय चक्षसे विधेम हविषा वयम् !! अथर्व 6/41/1

(मनसे) सुख दु:ख आदि को प्रत्यक्ष कराने वाले मन के लिए (चेतसे) ज्ञान साधन चेतना के लिए (धिये) ध्यान साधन बुद्धिके लिए (आकूतये) संकल्प  के लिए (मत्यै) स्मृति साधन मति के लिए, (श्रुताय) वेद ज्ञान के लिए ( चक्षसे) दृष्टि शक्ति के लिए (वयम) हम लोग (हविषा विधेम) अग्नि मे हवि द्वारा यज्ञ करते हैं.

भावार्थ: यज्ञाग्नि के द्वारा उपासना से मनुष्य को सुमति, वेद ज्ञान,चैतन्य, शुभ संकल्प, जैसी उपलब्धियां होती हैं जिन की सहायता से जीवन सफल हो कर सदैव सुखमय बना रहता है.

अपानाय व्यानाय प्राणाय भूरिधायसे !

सरस्वत्या उरुवव्यचे विधेम हविषा वयम !! अथर्व 6/41/2

(अपानाय व्यानाय) शरीरस्थ प्राण वायु के लिए (भूरिधायसे)अनेक प्रकार से धारण करने वाले (प्राणाय) प्राणों के लिए (उरुव्यचे) विस्तृत गुणवान सत्कार युक्त (सरस्वत्यै) उत्तम ज्ञान की वृद्धि के लिए (वयम हविषा विधेम) हम अग्नि मे हवि द्वारा द्वारा होम करते हैं.

भावार्थ: प्राणापानादि शरीरस्थ प्राण वायु के विभिन्न व्यापार मानव शरीर को सुस्थिर रखते हैं. इन्हें कार्य क्षेम रखने के लिए युक्ताहार विहार के साथ प्राणायामादि के साथ यज्ञादि संध्योपासना प्राणों को ओजस्वी बनाने के सफल साधन बनते हैं

मा नो हासिषुरृषयो दैव्या ये तनूपा ये न तन्वस्व्तनूजा: !

अमर्त्या मर्तयां अभि न: सचध्वमायुर्धत्त प्रतरं जीवसे न: !! अथर्व 6/41/3

(ये) जो (दैव्या ऋषिय:) यह दिव्य सप्तऋषि(तनूपा) शरीर की रक्षा करने वाले हैं (ये न: तन्व: तनूजा) ये जो शरीर में इंद्रिय रूप में स्थापित हैं वे (न: मा हासिषु) हमें मत छोडें .(अमर्त्या:) अविनाशी देवगण (मर्त्यान् न) हम मरण्धर्मा लोगों को (अभिसचध्वं) अनुगृहीत करो, (न: प्रतरं आयु:) हमारी  दीर्घायु  को (जीवसेधत्त) जीवन के लिय समर्थ करें( इसी संदर्भ में “ शुक्रमुच्चरित ” द्वारा ऊर्ध्वरेता का भी महत्व बनता है  शरीरस्थ सप्तृषि: सात प्राण, दो कान (गौतम और भरद्वाज ज्ञान को भली भांति धारण करने से भरद्वाज) दो चक्षु (विश्वामित्र और जमदग्नि जिस से ज्योति चमकती है) दो नासिका (वसिष्ठ और कश्यप प्राण के संचार का मार्ग), और मुख (अत्रि:)

Resolve Misperceptions – भ्रांति निवारण

 Negotiations

अव ज्यामिव धन्वनो मन्युं तनोमि ते हृदः!

यथा संमनसौ भूत्वा सखायाविव सचावहै !! अथर्व 6.42.1

असह्य व्यवस्था के विवेकपूर्ण  चिन्तन  करने से ज्ञान दीप्ति द्वारा मित्रों की तरह सुसंगत होने का भी प्रयास करना चाहिए.

Possible misapprehensions leading to public unrest /family discords should be resolved by better understanding. Angry situations may thus be resolved to establish peace and harmony.

Bury the hatchet- शांति वार्ता

सखायाविव सचावहा अव मन्युं तनोमि ते !

अघस्ते अश्मनो मन्युमुपास्यामसि यो गुरुः !! अथर्व 6.42.2

परिवार में समाज में विभ्रान्ति

Anger caused by misunderstandings should be resolved to establish friendly atmosphere. Anger should be forgotten as if buried under a heavy stone.

Restore Amity-सौहार्द्र पुनः स्थापन

अभि तिष्ठामि ते मन्युं पार्ष्ण्या प्रपदेन च !

यथावशो न वादिषो मम चित्तमुपायसि !! अथर्व 6.42.3

Public Anger should be forgotten for the hearts to become one. This is as if the anger had been crushed under the heels

यज्ञाग्नि का हृदय में स्थापित्य से क्षत्रियत्व का प्रभाव

अथर्व 6.76

1.य एनं परिषीदन्ति समादधति चक्षसे ! संप्रेद्धो अग्निर्जिह्वाभिरुदेतु  हृदयादधि अथर्व 6.76.1

जो इस  यज्ञाग्नि के चारों ओर बैठते हैं , इस की उपासना करते हैं, और दिव्य दृष्टि के लिए इस का आधान करते हैं , उन के हृदय के ऊपर प्रदीप्त हुवा अग्नि अपनी ज्वालाओं से उदय हो कर क्षत्रिय गुण प्रेरित करता है.

2.अग्नेः सांत्पनस्याहमायुषे पदमा रभे ! अद्धातिर्यस्य पश्यति धूममुद्यन्तमास्यतः !!अथर्व 6.76.2

शत्रु को तपाने  वाली अग्नि के (पदम्‌) पैर को, चरण को  (आयुषे) स्वयं की, प्रजाजन की, राष्ट्र की दीर्घायु के लिए (अह्म्‌) मैं ग्रहण करता हूँ . इस अग्नि के धुंए को मेरे मुख से उठता हुवा सत्यान्वेषी मेधावी पुरुष देख पाता है.

3.यो अस्य समिधं वेद क्षत्रियेण समाहिताम्‌ ! नाभ्ह्वारे पदं नि दधाति स मृत्यवे !! अथर्व 6.76.3

जो प्रजाजन इस धर्मयुद्ध की  अग्नि को देख पाता है, जो क्षत्रिय धर्म सम्यक यज्ञाग्नि सब के लिए समान रूप से आधान की जाती है. उसे समझ कर प्रजाजन कुटिल छल कपट की नीति को त्याग कर मृत्यु के लिए पदन्यास नहीं करता.

4. नैनं घ्नन्ति पर्यायिणो न सन्नाँ अव गच्छति! अग्नेर्यः क्ष्त्रियो विद्वान्नम गृह्णात्यायुषे !! अथर्व 6.76.4

जो सब ओर से घेरने वाले शत्रु हैं वह इस आत्माग्नि  का सामना नहीं  कर पाते, और समीप रहने वाले भी इस को जानने में असमर्थ रहते हैं. परन्तु जो ज्ञानी क्षत्रिय   धर्म ग्रहण करते हैं वे हुतात्मा अमर हो जाते हैं .

 

2 thoughts on “भारतीय समाज में मन्यु (बोध जन्य क्रोध) का महत्व”

  1. krodh to narak ka dwar hota hain naa ? to uss hisab se manyu bhi narak ka daar hua ?? manyu aur kroes mein farak nahi samajh aaya ?

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