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इतिहास प्रदूषक विदुषि लेखिका बहन फरहाना ताज “पार्ट – २”

अंगिरा ऋषि के विषय में मत्स्य पुराण,  भागवत, वायु पुराण महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है।

मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है।

भागवत का कथन है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए।

महाभारत अनु पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है।

भार्गववंश की मान्यतानुसार महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का नाम
अंगिरा था।

ब्रह्मपुराण अध्याय – ३४ मे ऋषि अंगिरा को विषमबुद्धि से पढ़ाने वाला गुरु अर्थात शिष्यो मे भेदभाव कर पढ़ाने वाला बताया है

इसके अतिरिक्त अंगिरा ऋषि को शिवपुराण मे लोभी लालची आदि बताया है

आप सोच रहे होगे मै ये सब क्यो बता रहा हूं ?

इसलिए बता रहा हूं कि आर्यो के ऋषि सिद्धांतो को बदलने की गहरी साजिश चल रही है वेदो मे इतिहास सिद्ध करने का षडयंत्र रचा जा रहा है यकीन नही ?

फरहाना ताज जी जैसी विदुषि लेखिका का पोस्ट पढ़े वो ये साबित करने की फिराक मे नजर आती है कि कैलाश के राजा शंकर और हृदय मे वेद ज्ञान प्रकाश पाने वाले ऋषियो मे एक ऋषि अंगिरा एक ही है

इनकी लेखनी यही नही रुकी इसके आगे इन्होने और लिखते हुए जोर डाला कि शिव की पूजा करनी है मतलब सच्चे शिव की तो अंगिरा ऋषि को पूजो यही नही हमारी बहन फरहाना ताज जी लिखती है :
“अरे भोले लोगो देवो के देव आदि महादेव की ही पूजा करनी है तो अंगिरा की पूजा करो, शिवपुराण में भी शिव का आदि नाम अंगिरा ही है और अंगिरा के मुख से परमात्मा की वाणी अथर्ववेद प्रकट हुआ, इसलिए वेद पढ़ो।”

मतलब समझ आया ?

हम देवो के देव महादेव यानी ईश्वर की बात करते है क्योकि महादेव ईश्वर को ही संबोधन है हम उन्ही की उपासना करते है मगर हमारी बहन शायद हमारे सिद्धांतो पर चोट करके उन्हे बदल कर हमे ईश्वर के स्थान पर मनुष्य की पूजा करवाना सिखाना चाह रही है लेकिन भूल गई हिन्दू समाज मे भी मुर्दापूजा निकृष्ट है आप उन्हे सच्चाई बताने की जगह एक मुर्दापूजा से निकाल दूसरी मुर्दापूजा मे दाखिला दिलवा रही हो जैसे आर्य समाज मे अंगिरा ऋषि को शिव घोषित कर वेदो मे इतिहास साबित करना चाहती हो

ऋषि अंगिरा और शिव को एक बताने से पहले शिवपुराण पर ही सही से दृष्टि डाल ली होती है, क्योंकि शिवपुराण में ही शिव की शादी के चक्कर में अंगिरा ऋषि को लालची और लोभी बताया है,

क्या आप लोभी और लालची व्यक्ति को शिव या अंगिरा मान सकती हो ? ऊपर और भी प्रमाण दिए हैं की पुराणो में ऋषि अंगिरा का चरित्र कैसा दिखाया है – यदि आपने पुराण ही मानने हैं तो कृपया ऋषि सिद्धांतो पर चलने वाली स्वयं की उद्घोषणा न करे क्योंकि ऋषि ने महापुरषो के चरित्र पर दाग लगाने वाले पुराणो को त्याज्य बताया है और यहाँ ऋषि अंगिरा के चरित्र पर भी पुराण आक्षेप लगा रहे हैं, बेहतर है आप अपने लेख को ठीक करे।

मेरी बहन आर्य समाज सिद्धांत पर आधारित है कृपया अप्रमाणिक तथ्यहीन और मनगढंत बात लिखने से पूर्व एक बार ऋषि के सिद्धांत और उनके महान कर्मो पर दृष्टि जरूर डाले

हो सके तो सत्य को स्वीकार कर असत्य को त्याग दे

नमस्ते

स्तुता मया वरदा वेदमाता-14

मन्त्र में प्रथम गुण बताया था परिवार को साथ रखने के लिये मनुष्य को अपना दिल बड़ा रखना चाहिए। दूसरी बात मन्त्र में कही है परिवार के सभी सदस्य एक सूत्र में बंधे होने चाहिए अधूरी बात। एक सूत्र में बंधे होने का अभिप्राय एक केन्द्र से बन्धे होना है। सब सदस्यों का परिवार के मुखिया से जुड़ा होना अपेक्षित है। जहाँ भी दो या दो से अधिक मनुष्य एक साथ रहते हैं, उनका एक साथ रहना तभी सभव है जब वे किसी एक के निर्देशन में कार्य करते हों। एक व्यक्ति के आदेश का सभी पालन करते हों। जहाँ कोई नेता नहीं होता, वह परिवार या समाज नष्ट हो जाता है। जहाँ एक परिवार में अनेक नेता होते हैं, वह परिवार भी नष्ट हो जाता है। नेता एक हो, सभी उसका आदर करते हों, सभी उसका आदेश मानते हों, वही परिवार सुख से रह सकता है और उन्नति कर सकता है।

परिवार में एक मुखिया का होना आवश्यक है, वहीं पर मुखिया द्वारा सभी सदस्यों का ध्यान रखना, सब की चिन्ता करना, सबकी उन्नति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। हमारे परिवारों में असन्तोष के अनेक कारण होते हैं, उनमें एक कारण होता है किसी सदस्य के विचारों को न रखा जाना। जहाँ तक परिवार में जो छोटे सदस्य होते हैं, उनके विषय में सोच लिया जाता है, वे ठीक नहीं सोच सकते, उनके पास न ज्ञान होता है, न अनुभव। यह बात सामान्य रूप से ठीक है। परन्तु परिवार के सभी सदस्य सुख-दुःख का अनुभव करते हैं तथा उन्हें भी अच्छा-बुरा लगता है, अतः सभी सदस्यों के विचारों को अवश्य सुना जाना चाहिए।

छोटे सदस्यों को समझना कठिन होता है परन्तु उनके महत्त्व को समझने और उनके समान को बनाये रखने के लिए उन्हें भी समझाने का प्रयत्न करना चाहिए। परिवार की सामान्य चर्चा में सभी सदस्यों की भागीदारी होने से परिवार के सदस्य में उत्तरदायित्व की भावना विकसित होती है। बड़ों का कर्त्तव्य है कि वे परिवार के सदस्यों में आत्मविश्वास व योग्यता उत्पन्न करें। उनके अन्दर योग्यता उत्पन्न करेंगे और कार्य का उत्तरदायित्व सौपेंगे तो उनके अन्दर आत्मविश्वास उत्पन्न होगा। परिवार के किसी सदस्य से भूल या गलती होने पर उसे डराना-धमकाना नहीं चाहिए। दण्डित करने के स्थान पर उसे अवसर देना चाहिए कि उससे भूल हुई है। यदि मनुष्य को अनुभव हो कि उससे भूल हुई है तो उसके अन्दर प्रायश्चित्त और पश्चाताप की भावना उत्पन्न हो सकती है। यही भावना मनुष्य को सावधान करती है और उसे दुबारा गलती करने से रोकती है। जो बालक हठी बनते हैं, उनके लिए कठोर दण्ड उन्हें अधिक धृष्ट बना देता है। ऐसी परिस्थिति में बड़े लोग स्वयं को दण्डित करके उनके मन को कोमल बनाने का प्रयत्न करते हैं। परिवार में सदस्यों के  अन्दर सद्भाव उत्पन्न करने के लिय सदस्यों में संवाद का होना आवश्यक है। संवाद को बनाये रखने के लिए परिवार में यज्ञ, भोजन, मनोरञ्जन, विचार-विमर्श के कार्य किये जाते हैं। पृथक् संवाद करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, यदि घर में धार्मिक आयोजन नियमित होते रहते हैं, नित्य सन्ध्या-हवन होता है। विद्वान्, अतिथि, संन्यासी, महात्माओं का घर में आगमन होता रहता है तो परिवार के सदस्यों के मन में धार्मिक व्यक्तियों व धर्म के प्रति आदर भाव उत्पन्न होता है। सदस्यों को पृथक् शिष्टाचार का उपदेश देने की आवश्यकता नहीं रहती। बड़ों को वैसा करते देखते हैं, स्वयं भी करने लगते हैं। जो विचार माता-पिता नहीं दे सकते, वे विचार परिवार के सदस्य विद्वानों से वार्तालाप करके प्राप्त कर लेते हैं। अतः परिवार में श्रेष्ठ पुरुषों का आवागमन परिवार को संयुक्त रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

आज जब संयुक्त परिवार की प्रथा टूट रही है और एकल परिवार अपनी आजीविका व्यापार, मजदूरी, नौकरी से समय नहीं निकाल पाते तो घरों में धार्मिक कर्त्तव्यों की न्यूनता स्वाभाविक है परन्तु धार्मिक कर्त्तव्यों के अभाव में परिवार को साथ रखने में कठिनाई अवश्य होगी। परिवार में संवाद बनाये रखने का सहज उपाय है। दैनिक सन्ध्या-यज्ञ परिवार में संवाद और एकत्व बनाये रखने का सबसे आसान उपाय है। सन्ध्या के बाद ईश्वराक्ति के, धार्मिक विचारों के भजन गाये जा सकते हैं। दिनभर के क्रिया कलापों पर चर्चा की जा सकती है, यदि दिन में इस कार्य का समय न मिले तो यह कार्य सांयकाल या सोने से पूर्व किया जा सकता है। आज समाज में बहुत सारे लोग शिकायत करते हैं, परिवार के बच्चों में संस्कार नहीं है, संस्कार तो अच्छे काम करने से बनते हैं। अच्छे कार्य करने से परिवार के बालकों में अच्छे संस्कार आते हैं और बुरे कार्य से बच्चों पर बुरे संस्कार पड़ते हैं। घर में अच्छे कार्य न करके बालकों में अच्छे संस्कारों की आशा करना व्यर्थ है। धार्मिक कार्यों से परिवार में सन्तोष का भाव उत्पन्न होता है, दान देते रहने से सहयोग की प्रवृत्ति बनी रहती है। संसार में कभी भी, किसी की भी इच्छायें पूर्ण नहीं हो पाती। अतः इच्छाओं को रोककर अपने साधनों में से मनुष्य अन्यों की सहायता करता है, तब उसके इस कार्य से मनुष्य के मन में लोभ और असन्तोष की भावनाओं पर नियन्त्रण करना आता है। इस प्रकार परिवार को एक केन्द्र से बान्ध कर चलने से नई पीढ़ी का निर्माण करने का अवसर मिलता है, मन्त्र में सब सदस्यों के मिलकर प्रयत्न करने के लिये निर्देश दिया है।

कृपया शुक्ल और कृष्ण के बारे में स्पष्टिकरण देने की कृपा करें।

– आचार्य सोमदेव

समानीय आचार्य सोमदेव जी को मेरा सादर प्रणाम।

जिज्ञासाश्रद्धास्पद  आचार्य जी! मैं उदालगुरी आर्यसमाज का पुरोहित हूँ। मैं 2012 जून महीने में अनुष्ठित योग-साधना-शिविर में उपस्थित रहकर एक सप्ताह तक योग-साधना आप ही से सीखकर आया हूँ। उसी समय से परोपकारिणी सभा की ओर से नियमित रूप से परोपकारी पत्रिका उदालगुरी आर्यसमाज को निःशुल्क मिल रही हूँ। सभा को उदालगुरी आर्यसमाज की ओर से धन्यवाद ज्ञापन करते हैं।

आचार्य जी! मैं तीन साल से अन्य द्वारा पूछे गये जिज्ञासा-समाधान पढ़-पढ़ कर उपकृत होता आया हूँ। लेकिन आज मेरे मन में भी एक जिज्ञासा है, समाधान चाहता हूँ।

प्रश्न- महोदय! यजुर्वेद के बारे में जानना था- प्रायः यजुर्वेद के बारे में शुक्ल और कृष्ण शद व्यवहार होता है। किन्तु मेरे पास जो वेद हैं, उसमें सिर्फ ‘यजुर्वेद’ लिखा हुआ है। कृष्ण-शुक्ल कुछ भी नहीं लिखा है। कोई पौराणिक पण्डित संकल्प पढ़ते समय ‘शुक्ल यजुर्वेदाध्यायी’ ऐसााी  पढ़ लेते हैं। कृपया शुक्ल और कृष्ण के बारे में स्पष्टिकरण देने की कृपा करें।

– रुद्र शास्त्री, गाँव- गोलमागाँव, पो.जि.- उदालगुरी, आसाम

समाधान चारों वेदों में से यजुर्वेद दो प्रकार का मिलता है। शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद। इसके इन दोनों नामों का कारण है कि शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्र भाग है, अर्थात् इसमें मूल मन्त्र होने से शुक्ल (शुद्ध) वेद कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद विनियोग, मन्त्र व्याया आदि से मिश्रित होने के कारण मूल न होकर मिश्रित वा कृष्ण यजुर्वेद कहलाता है। मुय रूप से यही कारण शुक्ल और कृष्ण कहने का है।

शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएँ वर्तमान में मिलती हैं, वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता और काण्व संहिता। दोनों में चालीस अध्याय हैं, काण्व संहिता का चालीसवां अध्याय ईशोपनिषद् के रूप में प्रयात है। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएँ मिलती हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक और कठ कपिष्ठल शाखा।

महर्षि दयानन्द के अनुसार मूल वेद शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा है। इसी का महर्षि ने भाष्य किया है।

आपके प्रश्न का उत्तर तो इतने से ही है। इस विषय में पौराणिकों ने इन दोनों शुक्ल, कृष्ण को सिद्ध करने के लिए अपनी कथाएँ कल्पित कर रखी हैं। इन कत्थित कथाओं को छोड़ शुक्ल-कृष्ण का यथार्थ कारण उपरोक्त ही है।

अब यजुर्वेद के विषय में कुछ और लिखते हैं। वेदों की कुल शाखा 1127 होने का प्रमाण पातञ्जल महाभाष्य में मिलता है। वहाँ लिखा है- एकविंशतिधा वाह्वृच्यम्, एकशतम् अध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः, नवधाऽऽथर्वणो वेदः, अर्थात् इक्कीस शाखा ऋग्वेद की, एक सौ एक शाखा यजुर्वेद की, एक हजार शाखा सामवेद की और नौ शाखा अथर्ववेद की।

यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाओं में से छः शाखाएँ उपलध होती हैं। जो कि ऊपर कह दिया है। शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण है, जिसके रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं। कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण तैत्तिरीय ब्राह्मण है, जिसकी रचना तित्तिरि आचार्य ने की है। शुक्ल यजुर्वेद का श्रौतसूत्र कात्यायन कृत है जो कि कात्यायन श्रोतसूत्र कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद से सबन्धित आठ श्रौतसूत्र हैं- 1. बौधायन, 2. आपस्तब, 3. सत्यषाढ़ या हिरण्यकेशी, 4. वैखासन, 5. भारद्वाज, 6. वाधूल, 7. वाराह, 8. मानव श्रौतसूत्र।

महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के प्रतिपाद्य विषय के सबन्ध में अपने भाष्य के प्रारभिक प्रकरण में लिखते हैं कि ‘‘ईश्वर ने जीवों को गुण-गुणी के विज्ञान के उपदेश के लिए ऋग्वेद में सब पदार्थों की व्याया करके यजुर्वेद में यह उपदेश किया कि उन पदार्थों से यथायोग्य उपकार ग्रहण करने के लिए कर्म किस प्रकार करने चाहिए। उसके लिए जो-जो अङ्ग और जो-जो साधन उपेक्षित हैं, उन सबका प्रकाश यजुर्वेद में किया गया है। जब तक ज्ञान क्रियानिष्ठ नहीं होता, तब तक उससे श्रेष्ठ सुख कभी नहीं हो सकता। विज्ञान क्रिया में निमित्त बनता है, प्रकाशकारक होता है, अविद्या की निवृत्ति करता है, धर्म में प्रवृत्ति करता है और धर्म तथा पुरुषार्थ का मेल कराता है, जो-जो कर्म विज्ञाननिमित्तक होता है, वह-वह सुखजनक हो जाता है। अतः मनुष्यों को चाहिए कि विज्ञानपूर्वक ही नित्य कर्मानुष्ठान करें। जीव चेतन होने से बिना कर्म किये नहीं रह सकता। कोई भी मनुष्य आत्मा मन, प्राण और इन्द्रियों के संचालन के बिना क्षणभर भी नहीं रह सकता। ‘यजुर्भिः यजन्ति’ इस प्रमाण से यजुर्वेद के मन्त्रों से यजन किया जाता है। जिससे मनुष्य ईश्वर का और धार्मिक विद्वानों का पूजा सत्कार करते हैं, पदार्थों के संगतिकरण द्वारा शिल्पविद्या की सिद्धि किया करते हैं, शुभ विद्या और शुभ गुणों का दान किया करते हैं, यथायोग्य सबके उपकार में शुभ व्यवहार में और विद्वानों में धनादि का व्यय करते हैं वह यजुः है।’’ इस प्रकार यजुर्वेद में मुय करके कर्मकाण्ड का विषय है। महर्षि ने इसी बात को सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी कहा है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

सत्पात्र बन सकूँ – रामनिवास गुणग्राहक

3म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।

यद् भद्रं तन्नासुव।।

– यजु. 30/3

भावार्थ- हे सकल जगत् के उत्पत्ति कर्त्ता समग्र ऐश्वर्य युक्त, शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर। आप कृपा करके हमारे सपूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिये और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमें प्राप्त कराइये। (ऋषि भाष्य)

यह मंत्र ऋषि दयानन्द को बहुत प्रिय था, यजुर्वेद का भाष्य करते समय ऋषिवर ने इसे प्रत्येक अध्याय के प्रारभ में आवश्यक रूप से लिखा है। स्तुति प्रार्थनोपासना के मन्त्रों का प्रारभ भी इसी मन्त्र के साथ किया है। स्तुति प्रार्थनोपासना के मन्त्रों का शदार्थ करते समय महर्षि दयानन्द ने बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग किया है। भाषा सरल होने के साथ-साथ बड़ी रोचक, प्रवाहपूर्ण एवं मन्त्र के अर्थ को स्पष्ट कर देने वाली है। स्तुति प्रार्थनोपासना के इन आठ मन्त्रों पर कई आर्य विद्वानों ने कलम उठाई है, उनमें से कुछ एक के विचारों को मैंने पढ़ा है। मैं जब दैनिक यज्ञ समाज में या कभी घर में करता हूँ तो सदैव ऋषिवर के अर्थ सहित मन्त्र पाठ करता हूँ। पाठ करते समय औपचारिकता निभाना मुझे कभी ठीक नहीं लगा, मैं महर्षि पतंजलि के ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’  के पालन करने का प्रयास करता हूँ। ऐसा करते समय कई बार मेरे मन में आया कि महर्षि ने इन मन्त्रों का जो अर्थ किया है, उसे ऋषि के अर्थ ऋषि की भावना के अनुरूप थोड़ा भाव-विस्तारपूर्वक लिखा जाए ताकि भक्त हृदय आर्य जन उसका पूरा आनन्द ले सकें। मैं अपनी इस सदिच्छा को लबे समय से टालता आ रहा था, लेकिन आज   (4-1-2015) मेरे हृदय ने कहा कि किसी अच्छे विचार को कार्यरूप देने के समय बहानेबाजी करना ऐसा दोष है जो अपराध की कोटि में रखा जाता है। यह हमारे स्वभाव का पतनशील अंग है, जनहित की भावना को निर्बल बनाता है। मनुष्य को पुण्यों की पूँजी से वंचित करता है। हृदय में उठने वाले हर प्रकार के सद्भावों का पल्लवन उनके क्रियान्वयन पर टिका होता है। सद्भाव- सद्विचार व सद्गुण को व्यवहार के रास्ते विस्तृत धरातल पर विचरने की स्वतन्त्रता नहीं मिलती, तब वो व्यवहार में प्रकट होने के लिए हृदय में प्रतीक्षा करते-करते थक जाते हैं व्याकुल हो जाते हैं, उनका दम घुटता है और वे निर्बल और निर्जीव होकर निढ़ाल हो जाते हैं। व्यवहार में व्यक्त होने के लिए व्याकुल सद्भाव, सद्विचार व सदृगुण हमारी उपेक्षा व अनदेखी का शिकार होकर अन्दर ही दम तोड़ दें तो हमारा हृदय दुर्भावों, दुर्विचारों व दुर्गुणों के फूलने-फलने का उपजाऊ खेत बनकर रह जाता है और हम न चाहते हुए भी पतन के गर्त में गिरने लगते हैं। सुख शान्ति, समृद्धि चाहने वालों का पहला कर्त्तव्य है कि वे अपने हृदय में उठने वाले सद्भाव, सद्विचार, सत्सकंल्प एवं सद्गुण को व्यवहार का रूप देकर अपने स्वभाव का जीवन्त अंग बनाने में आलस्य न करें। ध्यान रहे जो व्यक्ति अपने स्वयं के हृदय में उठने वाले सद्विचारों, सद्भावों व सत्संकल्प का समान नहीं कर सकता, वह जगत् व्यवहार में किसी दूसरे के मानवीय सद्गुणों व सत्कर्मों के साथ कभी भी न्याय नहीं कर सकेगा। मुझे मेरी अच्छाई नहीं सुहाती तो किसी दूसरे की अच्छाई क्यों सुहाएगी?

चलो अब सीधे अपने विषय परआते हैं- महर्षि दयानन्द ने मन्त्रार्थ में जो कुछ कहा है हम स्तुति-प्रार्थना की शैली में ऋषि वाक्यों की अन्तर्यात्रा करने निकलें और अपने मन मस्तिष्क को इस पूरी यात्रा में साथ ही रखेंगे तो मन्त्रार्थ को आत्मसात करने में सुभीता रहेगा।

‘हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्त्ता’ ‘समग्र ऐश्वर्य युक्त’– ऋषि दयानन्द जी ने सविता का अर्थ जगत् निर्माता व सब ऐश्वर्य से युक्त किया है। ‘सविता वै प्रसविता भवति’ के अनुसार सविता का अर्थ बनाने-उत्पन्न करने वाला होता है और जिसने जो बनाया है, वह उसका स्वामी तो हो ही गया। जगत् में जो कुछ ऐश्वर्य है, अनमोल दिखने वाला धन है वह सब परमात्मा ने ही बनाया है तो वही उस सबका स्वामी ठहरा। इसके साथ ही जान लें कि सविता शद ‘षु प्रेरणे’ धातु से बनता है। निर्माण और प्रेरणा दोनों अर्थ सविता शद से लिये जा सकते हैं। परामात्मा सबका निर्माण करने और सबको प्रेरित-संचालित करने वाला है। स्तुति प्रार्थनोपासना के छठे मन्त्र में कहा है कि जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले होकर हम आपको पुकारें, आपका आश्रय लेवें, उस-उसकी कामना हमारी पूर्ण होवे। अर्थात् हमें जीवन में जो कुछ चाहिए उसे पाने के लिए हमें परमात्मा से ही पुरुषार्थपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए। इससे सिद्ध है कि परमात्मा इस संसार की हर वस्तु को बनाकर उसे अपनी अटल न्यायपूर्ण व्यवस्था के अनुरूप चलाता, प्रेरित करता है।

‘शुद्ध स्वरूप सब सुखों के  दाता परमेश्वर’। देव शद का यही अर्थ ऋषिवर ने यहाँ किया है। सामान्य भाषा में भी देने वाले को देव कहते हैं। क्या दुःख देने वालो को भी? नहीं सुख या सुखद वस्तु देने वाले को ही देव कहा जाता है। परमात्मा भी सबके लिए सब सुखों का देने वाला है। यहाँ एक व्यावहारिक बात समझ लेनी चाहिए कि परमात्मा अपनी ओर से कभी किसी को सुख या सुखद वस्तुएँ नहीं देता। संसार में ज्ञान से बड़ा कोई दान नहीं, ऐसा महर्षि मनु-‘सर्वेषामेवदानानां ब्रह्म दानं विशिष्यते’ कहते हैं। योगिराज श्री कृष्ण ज्ञान के बारे में लिखते हैं – नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। अर्थात् हमारे जीवन को ज्ञान ही सबसे अधिक पवित्र करने वाला है। जीवन की पवित्रता मानो सब सुखों व सुखद वस्तुओ को प्राप्त करने की पात्रता है। वह परमात्मा अपनी ओर से मनुष्य मात्र को ज्ञान-प्रेरणा निरन्तर देता रहता है। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम प्रभु प्रदत्त प्रेरणा (ज्ञान) के अनुसार कर्म-व्यवहार करते हुए सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करें। परमात्मा द्वारा सुख देना दूसरे प्रकार से भी सिद्ध होता है। हमारी कमाई हुई धन-सपत्ति को कोई दुष्ट व्यक्ति छीन या चुराकर ले जाए तो उस चोर को जितना दोषी मानते हैं उससे कहीं अधिक दोषी शासक व शासन की व्यवस्था को भी मानते हैं। शासक की न्याय व्यवस्था अगर हमारी चुराई व खोई चीज को हमें दुबारा दिला दे तो हम उसका धन्यवाद अवश्य करते हैं। ठीक इसी प्रकार से अगर हमारे शुभ कार्यों का यथायोग्य फल ईश्वर की अटल, न्याय व्यवस्था से मिलता है तो उसका दाता ईश्वर को ही मानना चाहिए।

मन्त्र में सविता और देव के अर्थ स्पष्ट हो जाने के बाद दो बातें शेष रह जाती हैं और वे दोनों बातें अत्यन्त स्पष्ट हैं- ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ अर्थात् सपूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और ‘यद् भद्रं तन्नासुव’ जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कराइये। मन्त्र को और सरलता से समझने के लिए ‘विश्वानि दुरितानि सपूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को-‘परासुव’ दूर करने या परे धकेलने की प्रार्थना को भली भाँति समझना होगा। यहाँ दुर्गुण हैं, जितने भी दुर्व्यसन से पूर्व सपूर्ण शद बहुत ही ध्यान देने योग्य है। हमारे जीवन में जितने भी दुर्गण हैं, जितने भी दुर्व्यसन हैं उन सब को दूर करने की प्रार्थना या पुकार यह सिद्ध करती है कि हमारा जीवन पूर्णतः निर्मल और पवित्र होना चाहिए। एक भी दुर्गुण व दुर्व्यसन मेरे जीवन में शेष न रहे। अगर हम थोड़ा सा भी दुख नहीं चाहते तो अपने अन्दर के सब दुर्गुणों को ढूँढ-ढूँढ कर निकाल फैंके। हमारे आन्तरिक दुर्गुणों के कारण हमारे व्यावहारिक जीवन में दुर्व्यसन उत्पन्न होते हैं और दोषों दुर्व्यसनों के परिणाम स्वरूप हमें दुःख भोगने पड़ते हैं। दुःख दूर करने की इच्छा है जिनकी वे दुर्व्यसनों को दूर भगाायें। जो दुर्व्यसनों से मुक्त होना चाहते हैं वे अपने दुर्गुणों को समाप्त करने का संकल्प लें। हमारे आन्तरिक  दुर्गुण ही हमारे दुर्व्यसनों अर्थात् दुराचरणों, दुष्प्रवृत्तियों और दुष्कर्मों के बीज हैं और इन्हीं दुर्व्यसनों का परिणाम दुःख है। यह मन्त्र हमारे दुःखों को दूर करने का वैदिक उपाय बताता है। आज हम अपने दुःखों को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के मनमाने उपाय करते रहते हैं या किसी गुरु घण्टाल के मायाजाल में फँस कर विविध प्रकार के पाखण्ड पूर्ण कृत्य करते-कराते हैं। हमारे मनमाने उपायों या गुरु घण्टालों के तन्त्र-मन्त्र से दुःा दूर हो जाते तो संसार में एक भी दुःखी नहीं होता।

मन्त्र में दूसरी प्रार्थना है – ‘यद् भद्रं तन्न आसुव’ अर्थात् जो कल्याण कारक गुण, र्का और स्वभाव हैं वह सब हम को प्राप्त कराइये। जब हम अपने जीवन के सब दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर करने का सशक्त संकल्प लेकर अपनी आन्तरिक बुराइयों के  विरुद्ध सफल संघर्ष छेड़ देते हैं, दुर्गुणों, दोषों व दुष्कर्मों के पतनशील प्रवाह में निर्जीव तिनके की तरह बहते रहने से आत्मबल पूर्वक मना कर देते हैं और बुराइयों के चक्रव्यूह से बच निकलते हैं तो हमारे सामने अपने हृदय को अच्छाइयों से भरते रहने का प्रश्न खड़ा होता है। यह तो सब जानते हैं कि संसार में ऐसा कुछ नहीं जो किसी प्रकार के गुणों से शून्य हो। ऐसे में हमारा हृदय-मन, बुद्धि और चित्त आदि भी गुणहीन स्थिति में नहीं रह सकते। दुर्गुणों को दूर करने के आन्तरिक अभियान के साथ-साथ हमें कल्याण कारक गुणों का आह्वान करना होगा। दुर्गुणों को दूर करके उनके स्थान पर कल्याण कारक गुणों अर्थात् सद्गुणों को बसाना जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रक्रिया है। किसी बर्तन में कोई अनावश्यक व अनुपयोगी चीज भरी हो तो जब तक उसमें किसी अच्छी व उपयोगी वस्तु को रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती तब तक हम उस अनुपयोगी चीज को निकाल फैंकने के बारे में प्रायः नहीं सोचते। जब हमें कोई मूल्यवान व उपयोगी वस्तु की आवश्यकता अनुभव होती है तो हम उसे पाने के प्रयास करते हैं। पाने के प्रयास करने से पूर्व बुद्धिमान व्यक्ति उसे सुरक्षित रखने के बारे में सोचता है तो उसे लगता है कि यह जो अनावश्यक चीज इस बर्तन मे ंरखी है उसे निकाल फैंको और इस बर्तन को स्वच्छ करके उपयोगी वस्तु को इसमें रख दो।

यही स्थिति मानव के जीवन की है। सांसारिक विषय वासना व परस्पर के राग-द्वेष पूर्ण जीवन जाने वाले को जब किसी सद्ग्रन्थ के स्वाध्याय या सत्संग से यह पता चलता है कि मेरा हृदय जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य का कबाड़ बनकर रह गया है, मेरे जीवन में आलस्य, प्रमाद, दीर्घसूत्रता आदि दोष निरन्तर बिगाड़ पैदा कर रहे हैं, ये मुझे सुख-शान्ति, समृद्धि और सन्तुष्टि नहीं दे सकते। ये मेरे जीवन को सफल और सार्थक बनाने में उपयोगी नहीं हैं। यह ज्ञान स्वाध्याय व सत्संग के बिना नहीं होता। अधिकांश लोगों को लबे समय तक सत्संग स्वाध्याय करते रहने पर भी यह ज्ञान नहीं होता, लेकिन जिन विवेकशील सज्जनों को यह ज्ञान हो जाता है तो उन्हें कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव की आवश्यकता अनुभव होने लगती है। जब उन्हें सद्गुणों की आवश्यकता अनुभव होती है तो उन्हें लगता है कि मेरे हृदय में तो दुर्गुण जड़ें जमाये बैठे हैं। जीवन को अच्छा,सुाी और सन्तुष्ट बनाने की प्रबल इच्छा जब तक हृदय में उठ खड़ी नहीं होती, तब तक हर मनुष्य को अपने हृदय में भरा पड़ा काम-क्रोध आदि दुर्गुणों का कूड़ा-कबाड़ भी काम चलाऊ अच्छा लगता है। जैसे ही उसके मन-मस्तिष्क में कल्याण कारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थों की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है, और वह उन्हें पाने के लिए लालायित होने लगता है, वेसे ही उसे अपने अन्दर के काम, क्रोध, मोह आदि अनुपयोगी और अनावश्यक ही नहीं लगते, बल्कि काँटे की तरह चुाने लगते हैं । इस अवस्था में आकर वह ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ और ‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’ की पुकार करने लगता है। इस अवस्था में सच्चे हृदय से की गई ऐसी प्रार्थना, पुकार ही लक्ष्य के निकट पहुँचाती है।

‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ का जो अर्थ ऋषि दयानन्द ने किया है, वह बहुत ही चमत्कार पूर्ण एवं जीवन-निर्माण की अन्तःक्रिया को सन्तुलित-सयक् ढंग से प्रकट करता है। ऋषि लिखते हैं- ‘जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं,वह सब हमें प्राप्त कराइये।’ कल्याण करने वाले गुण, कर्म और स्वभाव की क्रमबद्धता  पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। सुखी, शान्त व आनन्दपूर्ण जीवन के तीन घटक आन्तरिक हैं और पदार्थ बाहरी हैं। कल्याणकारक घटकों में गुण, कर्म और स्वभाव एक पात्रता है और पदार्थ उसमें रखी जाने वाली सामग्री। जिसने तप-साधना से अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याण कारक बना लिया परमात्मा उसके  लिए कल्याणकारक पदार्थों की प्राप्ति सरल और सहज बना देते हैं। जो अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारक बनाने के लिए तप नहीं करते, स्वयं को सद्गुण सपन्न सदाचारी एवं सुा का सत्पात्र बनाये बिना ही जो कल्याणकारक सुखद पदार्थों को छल-बल या कल से हथिया लेते हैं, ऐसे अभिशप्त लोगों के हाथ लगे कल्याण कारक पदार्थ कभी उनको सच्चा सुख नहीं दे पाते। सीधे शदों में कहें तो गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारी बनाये बिना हम कल्याणकारी पदार्थों का सच्चा सदुपयोग नहीं कर सकते। बुद्धिमान लोग काँटों का सदुपयोग बाड़ लगाकर फलों की सुरक्षा के रूप में करते हैं दूसरी ओर कुछ मूर्ख लोगों ने पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर के हत्यारे आतंकियों पर गुलाब के फूलों की वर्षा करके भी विश्व के मानवतावादी जन समुदाय के बीच स्वयं को कलंकित कर लिया।

‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ की अन्तिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय वस्तु को राना चाहते हैं। जो सच्चे अर्थों में सच्चे हृदय से अपना जीवन सुखी व श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, उनके लिए ऋषि दयानन्द के शदों –‘कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव’ को समझ लेना बहुत ही आवश्यक है। जब हमारे कल्याणकारक गुण हमारे कमरें के माध्यम से सजीव होकर हमारे स्वभाव का अंग बन जाते हैं, तब जाकर हमारा जीवन कल्याणकारक पदार्थों को पाने का पात्र बन पाता है। आज के मानव की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने अन्दर की ढेर सारी अच्छाइयों को अपने कर्मों-व्यवहार में उतारने से डरता है। जब तक यह डर हमारे जीवन में डेरा डाले रहेगा, तब तक हर सच्चाई और अच्छाई मानव के संकीर्ण स्वार्थ के भार तले दबकर दम तोड़ती रहेगी। पाठक ध्यान रखें कि परमात्मा ने हमारे कल्याण को सरल और सहज बनाने के लिए हमारे हृदय में सत्य के प्रति श्रद्धा और असत्य के प्रति अश्रद्धा स्वाभाविक रूप से प्रदान की है। प्रत्येक मानव का हृदय सदैव सत्य के प्रति श्रद्धालु रहता है, आकर्षित रहता है। असत्य मानव के हृदय को कभी अच्छा नहीं लगता। असत्य मानव के हृदय में सदैव काँटे की तरह खटकता रहता है। मानव-स्वभाव की विचित्रतााी बड़ी अनौखी है। यह सच है कि सरल चित्त के व्यक्ति के हृदय में असत्य काँटे की तरह ही खटकता है, लेकिन जब वो स्वार्थ के खूंटे से बँधकर सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं दिखा पाता और इस असत्य रूपी काँटे से हृदय को लहूलुहान करता रहता है तो कुछ काल ऐसा ही होते रहने के बाद स्वार्थ पूर्ति से मिलने वाले क्षणिक सुख के नशे में असत्य रूपी काँटे की इस तीखी चुभन को भी वह भाग्यहीन व्यक्ति ऐसे ही सहन करता रहता है जैसे एक शराबी मदके लिए उसकी कड़वाहट व तीखेपन को सहन करता रहता है।

कल्याण की कामना वाले व्यक्ति को सांसारिक स्वार्थ पूर्ति से ऊपर उठकर एक अक्षय सुख पर अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा। सुधी जन जानते हैं कि झूठ की जितनी शक्ति है, जितनी आयु है, उससे मिलने वाले सुख की शक्ति और आयु भी उतनी ही होगी उससे अधिक नहीं। झूठ सदैव सत्य से भयभीत रहता है, सत्य की एक किरण झूठ को धराशायी कर देती है ठीक इसी प्रकार से असत्य के बल पर सुा शान्ति पाने वाले व्यक्ति सत्य से भयभीत होकर जीवन जीते हैं, उनका सुख सत्य की सभावना देखकर ही भाग खड़ा होता है। क्या लाभ उस टूटे-फूटे, डरे-सहमे सुख का? सत्य से डरकर उल्लू की तरह अँधेरे में कब तक ऐेसे सुख को भोगकर सन्तुष्ट होते रहोगे?वह सुख ही क्या जो अपने इष्ट मित्रों व परिजनों के साथ मिलकर खुले में सार्वजनिक रूप से न भोगा जा सके? इसीलिए ऋषि दयानन्द कल्याणकारक गुणों को कर्मों में सजीव और साकार करके अपने स्वभाव का अंग बनाने की सांकेतिक प्रेरणा कर रहे हैं। गीता में श्री कृष्ण जी भी शदान्तर से यही सन्देश दे रहे हैं कि संसार में सब प्राण्ीा अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभाव के अनुसार ही अपनी समस्त चेष्टाएँ (कर्म) करते हैं इसलिए स्वभाव को ही अच्छा (श्रेष्ठ) बनाओ अपनी बुराइयों को छिपाकर अच्छा दिखने से क्या लाभ? स्वभाव को श्रेष्ठ बनाने -सुधारने का सच्चा और सरल रास्ता ऋषि दयानन्द बता रहे हैं कि अपने हृदय में सोये पड़े हुए अपने सद्गुणों को कर्मों में उतारिये। हम जब निरन्तर अपने सद्गुणों को कर्मों का सहारा देते रहेंगे तो एक दिन हमारे सद्गुण हमारे स्वभाव का अंग बन जाएँगे। जब तक अपने सद्गुणों को अपने कर्मों के द्वारा अपने स्वााव का अंग बना लेंगे तब इस संसार के समस्त कल्याण कारक पदाथरें को प्राप्त करने के अधिकारी-पात्र बन जाएँगे। दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुःखों से निकल कर कल्याणकारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थों को प्राप्त करने की अन्तर्यात्रा का मंत्रानुसार ऋषिवर ने जिस रूप में रखा और वह जैसी मेरी समझ में आई वैसी मैंने सच्चे हृदय से, सुधीजनों के कल्याण की कामना से प्रकट कर दी। आशा है अध्यात्म पथ के पथिक इससे लाभ उठाएँगे।    

– जोधपुर,राजस्थान

हम अपने शहंशाह – सुकामा आर्या

अपना जीवन जीते हुए हमारे मन में विभिन्न प्रकार की इच्छाएँ, तमन्नाएँ रहती हैं। हम अपने भावी जीवन के लिए उत्साहित रहते हैं, बड़े सपने सँजोए रखते हैं। कुछ सपने तो बहुत आसानी से साकार हो जाते हैं और कुछेक अथक प्रयास के बावजूद सत्य सिद्ध होने से कोसों दूर रहते हैं।

पहले तो हम बैठ कर यह विश्लेषण करें- कि हमने क्या खोया-क्या पाया? यह जीवन भर का, कुछ वर्षों का, कुछ महीनों का भी कर सकते हैं। अगर हानि अधिक हुई है, असफलताएँ अधिक आई हैं तो थोड़ी ज्यादा गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

अब हमें यह पकड़ना है कि हम चूकते कहाँ पर हैं? हमारे कमजोर स्थल कौन-से हैं? उन्हें जानकर-समझकर, उन पर कार्य करने की जरूरत होती है। मार्ग तो पता है हमें, पर उस पर तरह-तरह के काँटे, ईंट, पत्थर गंदगी आदि पड़े हैं। तीव्र गति से गमन करना है तो बस, बाधाओं को हटाएँ और मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।

बाहरी वातावरण, परिस्थितियाँ, लोग हमारे नियंत्रण में नहीं होते- और होने की अपेक्षा भी रखना गलत है, परन्तु हम अपने आंतरिक संसार के ताज सहित बादशाह हैं, शहंशाह हैं। हम जैसा चाहें, जिस प्रकार जहाँ चाहें, कार्य कर सकते हैं- वहाँ हमारा हरेक कानून लागू होता है, हर एक बात बाइज्जत सुनी जाती है, ज्यों-की-त्यों समझी जाती है, इसलिए बाहर की अपेक्षा पहले अपनी जरूरतों, सपनों, इच्छाओं को अंदर लागू करना होता है। अपने अंदर जितने हम स्पष्ट व साफ हो जाएँगे, उतनी ही बाहर की परिस्थितियाँ अनुकूल बनती जाएँगी। बाहर की बाधाओं के बादल स्वयं छटने लगेंगे।

सूक्ष्मता से देखें तो यह हमारे नियंत्रण में होता है कि हम किस विचार को अपने अंदर उठने दें, उसे अनुमति दें, किसको चाहें तो न दें। जिस विचार को जब चाहें हम रोक सक ते हैं। हमें हर नकारात्मक, विध्वन्सात्मक विचार के लिए अपने मन पर प्रयासपूर्वक ‘नो एंट्री’ का बोर्ड लगाना होता है। फिर भी कुछ लोग, परिस्थितियाँ यदि जबरदस्ती अंदर घुसने का प्रयास करें तो हमें ईश्वर ने श्वास रूपी चौकीदार, सुरक्षाकर्मी दे रखा है। इसकी सहायता से उस विचार को बाहर छिटक दें। जैसे अगर घर में कोई अतिथि आने वाला हो और उसके स्वागत के लिए हमने तैयारी कर रखी हो, सुन्दर व्यवस्था कर रखी हो, उसी समय कोई शरारती बच्चा आ कर ऊधम मचाए, इधर-उधर वस्तुओं को बिखेर दे- तो हम क्या करेंगे? उसे पकड़ेंगे व यथासंभव प्रयास करेंगे कि वह हमारी बनी बनाई व्यवस्था को खराब न करे। ठीक यही अवस्था मन के आँगन की भी है। हमें वहाँ भी अपनी स्थिति को बनाए रखने का प्रयास करना होता है- कोई भी अनचाहा विचार, व्यक्ति, परिस्थिति उसमें हमारी आज्ञा के बिना अंदर न घुस पाये। हम ईश्वर से भी यही प्रार्थना करते हैं कि हमारा हमारे मन पर राज्य हो-

मेरी इन्द्रियाँ हों सदा मेरे वश में,

मेरे मन पे मेरा ही अधिकार कर दो।

मेरा सर झुके तो झुके तेरे दर पर,

मुझे ऐसा दुनियाँ में सरदार कर दो।

पाँचों इन्द्रियों के विषयों व मन पर अपना नियंत्रण करने के  लिए अपने श्वास रूपी सुरक्षाकर्मी को हमेशा सचेत रखें। जहाँ भी इसमें थोड़ी-सी ढ़ील हुई, वहीं पर विध्न, बाधाएँ उत्पन्न हो जाएँगी। हम ताी तो ईश्वर को, उसकी सत्ता को नमन करते हैं। उसकी सहायता से ही हम अपने विचारों को रोक सकते हैं- यह कहते भी है और करते भी हैं-

हमारा नियंत्रण चूँकि हमारे अपने हाथ में हैं, यूँ कहें कि हमारा रिमोट कंट्रोल जब हमारे हाथ में है तो दूरदर्शन पर चैनल भी तो हम ही बदलेंगे न। हम बाहर के दूरदर्शन को छोड़कर चित्त के दूरदर्शन पर कार्य प्रारभ करें। वहाँ जो चैनल हम चलाएंगे, वही हमारे बाहर भी प्रदर्शित होगा। वस्तुतः बाहरी संसार हमारे आन्तरिक संसार का ही प्रतिबिब है। जो भी परिस्थिति, इच्छा आप बाहर साकार हुई देखना चाहते हैं, उसे पहले अपने अंदर सफल होता हुआ चित्रित करें। अपने मन को शांत कर, श्वास से नियंत्रित कर तथा वह दृश्य अपने सामने लाकर उसे यथार्थ में परिवर्तित होता हुआ महसूस करें-अनुभूति के स्तर पर ले आएँ। यह ध्यानावस्था में करने योग्य कार्य है। इच्छा व स्वप्न के प्रति अपनी भावना, गहराई भी इसमें अहम रोल अदा करती है। जितनी अधिक एकाग्रता से यह कार्य होगा, उतनी ही शीघ्रता व कुशलता से कम समय में बाहर की परिस्थितियाँ बिना आपके ज्यादा हस्तक्षेप के अनुकूलता में बदलती जाएँगी।

इसके लिए आवश्यक है कि पहले अन्दर की सफाई की जाए। एक बार गलती से काँटों भरे खेत में चले गए- तो कितने ही काँटें कुछ मिनटों में कपड़ों पर चिपक जाएँगे। वापिस आकर निकालने लगेंगे तो घण्टों लगेंगे। गंदगी डालनी, बुराई करनी, द्वेष करना बहुत आसान है, क्षण भर में क्षोभ पैदा हो जाता है, पर जब सफाई करने बैठते हैं तो उफ, क्या परिश्रम करना पड़ता है! बस हथियार छूट जाते हैं- यही महसूस होता है कि ‘‘लहों नेाता की थी, सदियों ने सजा पाई।’’

हमें प्रयास पूर्वक सजग रहना है कि अगर मैं बुरा विचार करुँगा तो इसका परिणाम भी मुझे ही भुगतना पड़ेगा। दूसरे पर यह प्रभाव जाए न जाए, मेरी हानि अवश्य ही होगी। अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी चलाने वाली बात है। बीज तो छोटा-सा ही होता है, पर जब पेड़ बन के सामने खड़ा होता है तो काटना मुश्किल हो जाता है- हाथ थक जाते हैं, कुल्हाड़ी चलाते-चलाते। इसलिए जब भी बुरी भावनाएँ, विचार उठें, उन्हें तुरन्त ही हटा दें- एक तरफ कर दें। ईश्वर को उसी क्षण अपने समीप महसूस करते हुए कोई जप प्रारभ कर देवें, याद क रें कि प्रातःकाल जो प्रार्थना की थी-

सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः,

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्।

क्या जिससे मैं द्वेष कर रहा हूँ, वह ‘सर्वे’ में नहीं आता है? उस प्रार्थना के विपरीत अगर बाकी के 17 घंटे हम व्यवहार करेंगे तो उस प्रार्थना का कोई औचित्य नहीं हैं। प्रार्थना का विधान है तो यह मानना पड़ेगा कि द्वेष, घृणा, क्षोभ के लिए मनाही है। प्रयासपूर्वक ईश्वर प्रणिधान की सहायता से हमें उस विचार को क्षोभ को मन से निकाल देना है। धीरे-धीरे द्वेष होगा ही नहीं, होगा तो क्षीण-सा बहुत कम समय के लिए होगा, क्योंकि हम सजग हैं। हमें पता है कि जितनी गंदगी हम फैलाएँगे-सफाई भी तो हमें उतनी ही करनी पड़ेगी।

जब हम चाहते हैं कि हमारे शुभ संकल्प पूर्ण हों, सिद्ध हों तो हमें उसके लिए यथासंभव अपना पुरुषार्थ अपने आन्तरिक वातावरण को साफ, सुंदर व व्यवस्थित करने के लिए करना चाहिए, क्योंकि यहीं पर हमारा नियंत्रण है और यह परम आवश्यक है अपने जीवन में शांति व सफलता को प्राप्त करने के  लिए। तभी हम कह सकते हैं कि-

तेरे पूजन को भगवान, बना मन-मन्दिर आलीशान।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

सन्ध्या-रहस्य का यह संस्करण – राजेन्द्र जिज्ञासु

पं. चमूपति रचित सन्ध्या रहस्य पुस्तक के विषय में कुछ लिखना, लेखक के लिये एक गौरव की बात है। क्यों? इसका उत्तर मैं साधु ट.ल. वास्वानी के शदों में देना अधिक उपयुक्त मानता हॅूँ। अर्थात् मेरा जितना ज्ञान है आचार्य चमपति उससेाी कहीं अधिक गहराई से लिखते हैं। इससे भी बढ़कर तो यह बात है कि वे जो कुछ भी लिखते हैं वह अत्यन्त सुन्दर, भक्तिभाव में डूबकर लिखते हैं और जब लिखना ही भक्ति पर, सन्ध्या उपासना पर हो तो उन्होंने कितना भक्ति विलीन होकर लिखा होगा, यह बताया नहीं जा सकता।

योगनिष्ठ लेखक द्वारा लिखितः आज का युग विज्ञापन का युग है। लोकैषणा को तजने की घोषणा व प्रतिज्ञा करने वाले साधु महात्मा भी आज विज्ञापन के संसार में किसी से पीछे नहीं। अपनी योग साधना व समाधि तक का ढोल बजाने वाले साधुओं पर गृहस्थों को आश्चर्य होना स्वाभाविक है। अपने जीवन-परिचय में आज समाधि लगाने का उल्लेख होता है। पं. चमूपति एक योगनिष्ठ विद्वान् थे, यह उस काल के सब जन जानते थे परन्तु, पं. चमूपति जी ने अपनी योग साधना का कभी भी, कहीं भी कोई संकेत नहीं दिया। हाँ! उनके निधन पर महाशय खुशहाल चन्द जी (महात्मा आनन्द स्वामी) ने एक शोक सभा में श्रद्धाञ्जलि देते हुए उनके जीवन के इस पक्ष की चर्चा की थी। फिर मैंने उनको निकट से देखने वाले कई पुराने आर्यों यथा पं. शान्तिप्रकाश जी, स्वामी सर्वानन्द जी तथा पं. ज्ञानचन्द आर्य सेवक आदि से भी इसके बारे में सुना।

वेदशास्त्र मर्मज्ञ द्वारा लिखितः आचार्य चमूपति वेदशास्त्र मर्मज्ञ थे। ये तो विधर्मी भी स्वीकार करते हैं। इस सन्ध्या रहस्य पुस्तक-रत्न की विशेषता यह भी तो है कि इसमें ईश्वर की सत्ता, उसके स्वरूप, उसकी रचना, उसकी स्तुति, प्रार्थना और उपासना पर इस शैली से लिखा गया है कि उनकी यह कृति जन साधारण तथा विचारकों विद्वानों दोनों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। पुस्तक का एक-एक पैरा व एक-एक वाक्य हृदय स्पर्शी व मार्मिक है।

सन्ध्या गीतः सन्ध्या रहस्य के कई प्रकाशकों ने कई संस्करण प्रकाशित किये हैं। परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित किये जा रहे इस संस्करण की एक विशेषता यह है कि इसके साथ पण्डित जी के सन्ध्या गीत का शुद्धतम पाठ पहली बार छप रहा है। हमें इस सन्ध्या गीत की जानकारी बीकानेर के वयोवृद्ध आर्य और पुस्तक संग्रही श्रीमान् ठाकुरदास जी से प्राप्त हुई। उन्होंने इसकी प्रतिलिपि (जो उनके पास थी) हमें प्रदान की परन्तु, वह दोषयुक्त थी फिर भी हमने कुछ सुधार कर छपवा दी। अधिक छेडछाड़ का हमें क्या अधिकार था?

अब की बार सन्ध्या गीत की पं. चमूपति जी की अनुाूमिका भी खोज कर दे दी है। सन्ध्या का पद्यानुवाद तो मुंशी केवल कृष्ण जी, पं. वासुदेव जी, श्री धर्मवीर जी (पंजाबी में), स्वामी आत्मानन्द जी महाराज, स्वामी अमृतानन्द जी, महाकवि ‘शान्त’ लेखराम नगर कादियाँ आदि अनेक आर्य कवियों व विद्वानों ने किया परन्तु एक संगीत मर्मज्ञ ने इस लेखक को बताया कि साहित्यिक तथा संगीत शास्त्र की दृष्टि से पं. चमूपति जी का यह पद्यानुवाद बेजोड़ है। मेरा यह मत है कि स्वामी आत्मानन्द जी का पद्यानुवाद भी अत्यन्त साहित्यिक है। काव्य शास्त्र व संगीत शास्त्र की दृष्टि से वह भी अत्युत्तम है।

पिता पुत्र ने पद्यानुवाद कियाः पं. चमूपति जी के सन्ध्या रहस्य व सन्ध्या गीत की तो सभी प्रशंसा करते ही हैं, हम पाठकों को यह भी बताना चाहते हैं कि पंडित जी के ज्येष्ठ पुत्र डॉ. लाजपतराय डी.लिट. ने भी सन्ध्या का पद्यानुवाद किया था जिसे स्वामी वेदानन्द जी महाराज जैसे शास्त्र मर्मज्ञ साहित्यकार ने छापा था। वह भी अदुत था।

गुत्थियों को सुलझाया हैः पण्डित जी की इस व्याया पर पाठकों की सेवा में क्या-क्या विशेषतायें गिनाई बताई जायें। मनसा परिक्रमा को पण्डित जी ईश्वर की रचना का मन से परिभ्रमण कहा करते थे। एक बार कहा कि ईश्वर की सर्वव्यापकता, उसकी कला व महानता के बोध कराने वाले मन्त्र मनसा परिक्रमा क्या हैं, ¤्नह्म्शह्वठ्ठस्र ह्लद्धद्ग ख्शह्म्द्यस्र ख्द्बह्लद्ध ञ्जद्धद्ग रुशह्म्स्र.¤ अर्थात् यह तो प्रभु का ध्यान करके, प्रभु संग सृष्टि का परिभ्रमण है। उनके पुत्र डॉ. लाजपत का कहना था मनसा परिक्रमा से तो मन की दशा व दिशा का बोध होता है।

जीवन बीमाः पं. चमूपति सन्ध्या को जीवन बीमा बताते हैं। यह भूमिका उनकी एक मौलिक देन है। जप तप सचमुच जीवन बीमा हैं। कोई भी व्यक्ति और जाति तप शून्य होकर संसार में नहीं जी सकती। सन्ध्या रहस्य के आरभ में बहुरूपी सन्ध्या आदि जिन आठ बिन्दुओं पर पण्डित जी ने लिखा है, वे सब पठनीय व मनन करने योग्य है। सच तो यह है कि वैदिक अध्यात्मवाद का यह एक अनूठा दस्तावेज है।

सब शंकाओं का समाधानः वैदिक आस्तिकवाद, त्रैतवाद व अध्यात्मवाद पर की जाने वाली सब शंकाओं का समाधान बहुत उत्तमता से इसमें किया गया है। ऋत क्या? सत्य क्या है? इस विषय में पं. चमूपति जी तथा पूज्य उपाध्याय जी का चिन्तन अत्यन्त मौलिक व तार्किक है।

अघमर्षण मन्त्र का रहस्यः ‘अघमर्षण’ शद  का अर्थ है पाप को दूर करना या पाप को मसलना। इन मन्त्रों में न तो पाप शद आया है और न ही मसलने व दूर करने की कोई बात कही गई है। इस प्रश्न को उपाध्याय जी ने भी उठाया है। हमारे प्रबुद्ध पाठक पं. चमूपति जी का समाधान पढ़कर वाह! वाह!! करने लगेंगे। पाप का मुय कारण तो अहंकार व हीन भावना ही हैं। अमरीका के एक प्रयात डाक्टर ने तो आज के युग के भयानक रोगों यथा रक्तचाप, हृदय रोग व तनाव का कारण अहंकार व हीन भावों की विकृति को बताया है। आत्महत्या का घृणित पाप हीन भावना से ही मनुष्य करता है। पं. चमूपति जी की अघमर्षण मन्त्रों की व्याया का प्रचार यदि आन्दोलन का रूप ले ले तो विश्व का बहुत कल्याण हो। उपाध्याय जी ने भी अपनी पुस्तक सरल सन्ध्या विधि में लिखा है, ‘‘जो पुरुष ब्रह्माण्ड में ईश्वर के अस्तित्व को अनुभव करता है वह पाप से बचा रहता है।’’

यहाँ दोनों मनीषियों का चिन्तन एक जैसा है। वैदिक सन्ध्या में महर्षि दयानन्द जी ने वैदिक धर्म व दर्शन की अनूठी झांकी दी है। आज देश की गली-गली में गुरुडम वाले यह रागिनी सुना रहे हैं, ‘भक्तों के वश में भगवान्’ सन्ध्या मन्त्रों में आया है, ‘विश्वस्य मिषतो वशी’ अर्थात् सारा विश्व उस प्रभु के वश में है। ‘अदीनः स्याम शरदः शतम्’ की व्याया जो आचार्य पं. चमूपति जी ने की है, वह संसार के किसी भी वृद्ध मतावलबी को सुनाकर पूछिये क्या ऐसी प्रार्थना संसार की किसी पूजा पद्धति में है? सबका हृदय बुढ़ापे में यही साक्षी देगा कि इस वैदिक सन्ध्या का मर्म व महत्ता एवं उपयोगिता कोई शदों में नहीं बता सकता।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब

गृहस्थाश्रम को स्वर्ग का साधन समझें – कन्हैयालाल आर्य

गृहस्थ और सुख? यह तो कुछ अनोाी बात है। इसमें इतने दुःख हैं कि आरभ से ही इसे दुःखों का घर समझा जाता है। आधुनिक काल में जबकि हमने अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को बहुत बढ़ा रखा है तो कुछ बात यथार्थ प्रतीत होने लगती है, परन्तु यदि गभीरता पूर्वक इस पर विचार किया जाये तो महर्षि मनु की यह बात सही है कि गृहस्थ आश्रम व्यवस्था की दृष्टि से ज्येष्ठ तथा श्रेष्ठ सिद्ध है।

गृहस्थाश्रम तो लोक और परलोक दोनों को सुधारने का एक माध्यम है। इस माध्यम को मानव ने अपने स्वार्थ, आलस्य, प्रमाद, अतिवासना तथा लोभ और मर्ूाता से बिगाड़ रखा है। हम स्वयं ही जंजीरे गढ़ते हैं और अपने हाथ-पाँव में बाँध लेते हैं और फिर चिल्लाने लगते हैं कि हम बाँधे गये। गृहस्थाश्रम का तो इसलिए निर्माण किया गया ताकि लबी जीवन यात्रा में नर या नारी अकेला थक न जाये। लबी यात्रा में साथी साथ हो तो यात्रा सरल बन जाती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इन पाँचों को ठीक मर्यादा में रखने का सुन्दर साधन गृहस्थ है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसे आजीवन ब्रह्मचारी विरले ही होते हैं, उन्होंने भी गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ कहा है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में बताया है कि-

  1. यथा नदी नदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।

   तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।

-मनु. 6/90

जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं हो जाते। वैसे ही गृहस्थ के आश्रम में सब आश्रम स्थिर रहते हैं, बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।

  1. यथा वायुं समाश्रित्य, वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः।

   तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्व आश्रमाः।।

-मनु. 3/77

जैसे वायु के आश्रय पर सब प्राणी हैं वैसे गृहस्थाश्रम सब आश्रमों का आश्रय दाता है।

  1. यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्।

   गृहस्थेनैव धार्य्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही।

– मनु. 3/78

जिससे ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि देकर गृहस्थ ही धारण करता है इसीलिए गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है।

  1. स संधार्य्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता।

    सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः।

– मनु. 3/76

जो अक्षय, मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो, वह प्रयत्न से गृहाश्रम धारण करे। जो गृहाश्रम दुर्बल इन्द्रिय, भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने योग्य नहीं है, उसको अच्छे प्रकार धारण करे।

इसलिए जितना कुछ व्यवहार संसार में है, उसका आधार गृहाश्रम है, जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहाँ से हो सकते? जो कोई गृहस्थ आश्रम की निन्दा करता है, वही निन्दनीय है, जो प्रशंसा करता है, वह प्रशंसनीय है। परन्तु तभी गृहस्थाश्रम में सुख होता है, जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हो।

प्राचीन इतिहास बतलाता है कि ऋषि-मुनि गृहस्थाश्रम में रहकर सबका पथ प्रदर्शन करते थे और हमारे पूर्वज नारी जाति का अत्यधिक मान करते थे, तभी तो कहा हैः-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।

जहाँ नारियों का समान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। महर्षि मनु ने तो यहाँ तक कह दिया है कि नारी ही घर की शोभा है, जहाँ गृहिणी नहीं, वह घर ही नहीं। जहाँ पति और पत्नी का एक दूसरे से प्यार है, वही घर स्वर्ग समान है। जहाँ पुत्र-पुत्रियाँ आज्ञाकारी हों, वही घर स्वर्ग समान हैं। स्वर्ग किसी ऊपर या नीचे के लोकों का नाम नहीं है, यदि इसी गृहस्थ में आप सुखी हैं तो आप इस जीवन काल में भी ‘स्वर्गीय’ अर्थात् सुखी बन सकते हैं। स्वर्गीय का अर्थ है- स्वर्ग में रहना, जहाँ प्रत्येक प्रकार का सुख, समृद्धि, सन्तोष हो, उसी का नाम स्वर्ग है और ऐसे स्वर्ग की प्राप्ति गृहस्थाश्रम के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है। इसलिए यह धारणा कि गृहस्थी सुखी नहीं हो सकता और गृहस्थ तो दुःखों का घर है, यह गलत है। गृहस्थ ही एक ऐसा आश्रम है जिसके माध्यम से धर्म, अर्थ, काम और अन्ततः मोक्ष की प्राप्ति संभव है।

विवाह के समय वर-वधू का सात कदम एक साथ चलना भी इसी भाव का प्रतीक है। जहाँ अन्न शारीरिक बल, धन, सुख, सन्तान प्राप्ति, चारों तरफ की प्राकृतिक परिस्थिति का अनुकूल होना कहा है, वहाँ सातवाँ कदम रखते हुए वर कहता है-

3म् सखे सप्तपदी भव विष्णुस्त्वा नयतु

पुत्रान् विन्दावहै, बहूंस्ते सन्तु जरदष्टयः

अर्थात् हम सदा साथ रहें, हममें मैत्री भाव रहे, तेरा मन मेरे मन के अनुकूल हो, हम दोनों मिलकर पुत्र-पुत्रियों को प्राप्त करें और वे वृद्धावस्था तक जीने वाले हों।

शास्त्रों में गृहस्थ को एक आश्रम कहा गया है। यह एक मंजिल है। मंजिल तक पहुँचने के लिए खड़े रहने से काम नहीं चलता, मंजिल की तरफ चलना पड़ता है। सप्तपदी का अभिप्राय यही होता है कि वर-वधु को इस बात की प्रतीति कराई जाती है कि गृहस्थाश्रम आराम से बैठे रहने का नाम नहीं है। इस आश्रम के कुछ उद्देश्य हैं, प्रयोजन हैं। इन प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए अलग-अलग नहीं, एक साथ चलना होगा, कदम से कदम मिलाकर चलना होगा, तभी वे इस आश्रम के उद्देश्य को पा सकेंगे। तभी तो ऋग्वेद में कहा है-

3म् समञ्जन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानि नौ।

सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ।।

हम दोनों पति-पत्नी निश्चयपूर्वक तथा प्रसन्नतापूर्वक यह घोषणा करते हैं कि हम दोनों के हृदय जल के समान सदा शान्त रहें, जैसे प्राणवायु हमको प्रिय है, वैसे हम दोनों एक-दूसरे के साथ प्रसन्न रहेगें, जैसे धारण करने वाला परमात्मा सबमें मिला हुआ, सब जगत् को धारण करता है, वैसे हम दोनों एक-दूसरे को धारण करते रहेंगे।

गृह्यसूत्र में लिखा हैंः-

3म् यदेतद् हृदयं तव तदस्तु हृदयं मम्।

यदिदम् हृदयं मम तदस्तु हृदयं तव।।

जो तेरा हृदय है, वह मेरा हृदय हो जाये और जो मेरा हृदय है, वह तेरा हृदय हो जाये।

3म् मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु।

मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्।

हमारा एक-दूसरे के साथ श्रेष्ठ व्यवहार हो। हमारा चित्त एक-दूसरे के अनुकूल हो। प्रजापति ने हमें एक-दूसरे के साथ नियुक्त किया है। हमें इसका सफल निर्वाह करना है।

विवाह का उद्देश्य तो जीवन के आदर्श को पूर्ण करने के लिए एक साधन मात्र है। जीवन का आदर्श, सब प्राणियों में अपनापन अनुभव करना है। इसलिए विवाह में पति-पत्नी में मित्रता, सखा-भाव जरुरी है, नहीं तो विवाह का प्रधान उद्देश्य पूरा नहीं होता।

स्त्री-पुरुष में तो प्रेम स्वाभाविक है, इसे सीखने के लिए किसी विद्यालय में नहीं जाना पड़ता। स्त्री तथा पुरुष के इसी स्वाभाविक प्रेम को प्राणिमात्र तक ले जाने का एक कठिन काम को आसान बनाने का प्रयत्न गृहस्थाश्रम द्वारा किया जाता है। इसी प्रेम का, मैत्री भाव का आगे विस्तार करना है। विवाह में यही प्रेम, सखा भाव ही एक ऐसा तत्व है जिसे संकुचित क्षेत्र से निकालकर हम विस्तृत क्षेत्र में विकसित करना चाहते हैं।

गृहस्थाश्रम में अपनेपन का केन्द्र अपने से हटकर दूसरों में जाना प्रारभ हो जाता है, स्वार्थ का अंश पर्दे की ओट में चला जाता है और उसकी जगह परार्थ का भाव सामने आने लगता है। अतः यह बड़ी जिमेदारी का आश्रम है।

आत्मा के अपने आदर्श लक्ष्य तक पहुँचने का उसके पूर्ण रूप में विक सित होने का यही उपाय है। ब्रह्मचर्यावस्था ‘स्व’ की उन्नति से प्रारभ होती है। इस आश्रम में ‘स्व’ या ‘अपने’ आपका उत्थान प्रमुख होता है, ब्रह्मचारी अपने इर्द-गिर्द ही घूमता है परन्तु जब वह अपने ‘स्व’ को दृढ़ बना चुका होता है, तब उसे अपनी आत्मा को अधिक विकसित करने को कहा जाता है तो वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। ब्रह्मचर्य आश्रम अपने तक सीमित होता है परन्तु गृहस्थ आश्रम अपने से हटकर सन्तानों तक विस्तृत होता ही है। वह पूरे समाज में अपने आपको विस्तृत कर देता है। गृहस्थाश्रम आत्मिक विकास की एक सीढ़ी है यह सभी आश्रमों का पालक, पोषक एवं सहयोगी है। तभी तो इस आश्रम को स्वर्ग प्राप्ति का माध्यम माना गया है। महर्षि मनु की स्पष्ट घोषणा है-

अनेन विप्रो वृत्तेन वर्तयन् वेदशास्त्रवित्।

व्यपेत कल्मषो नित्यं ब्रह्मलोके महीयते।।

(4.260)

अर्थात् – जो वेद शास्त्रों को पढ़ने वाला गृहस्थ शास्त्रोक्त कर्त्तव्यों का पालन करता है वह पाप रहित जीवन स्वर्ग अथवा मोक्ष के आनन्द को प्राप्त करता है।

– 4/44, शिवाजी नगर, गुड़गाँव, हरियाणा

चलभाष-09911197073

स्तुता मया वरदा वेदमाता-12

ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः

अन्योऽन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोमि।।

– अथर्व. 3/30/5

परमेश्वर कहता है मनुष्यों इस घर में रहने के लिए रहने वालों के हृदय विशाल होने चाहिए। मनुष्य का दिल बड़ा होने पर ही सबका उसमें समायोजन  हो सकता है। मनुष्य शरीर से लबा-चौड़ा होने पर हृदय भी उसका विशाल हो यह अनिवार्य नहीं है। आकार प्रकार में छोटे लगने वाले मनुष्य का दिल बड़ा हो सकता है, बड़े शरीर का मन छोटा हो सकता है। मनुष्य को उसके पास विद्यमान सामग्री थोड़ी लगती है, तब उसका हृदय संकुचित होता है। उसे भय लगता है मेरी वस्तु समाप्त हो जायेगी। मैं दरिद्र या अभावग्रस्त हो जाऊँगा। मनुष्य संकुचित विचारों वाला होता है, तब स्वार्थी बन जाता है। उसका स्व का घेरा छोटा होता है। व्यक्ति का स्व जितना छोटा होगा, मनुष्य उतना ही अधिक अन्याय और पक्षपात करता है। जब वह अपने को केवल अपने तक सीमित करता है, तब वह अपने से अधिक नहीं सोच पाता। घर परिवार में रहता हुआ भी व्यक्ति केवल अपनी चिन्ता करता है, अपने परिवार के अन्य सदस्यों के विषय में नहीं सोचता। मनुष्य स्वार्थी होता है, तो वह अपनी वस्तुओं का उपयोग केवल स्वयं करता है। ऐसे में एक मानसिकता ऐसे लोगों में देखी जाती है। वह अकेले ही भोजन करता है। वह दूसरे से भयभीत होकर औरों से छिपकर भोजन करना पसन्द करते हैं। साधनों का अपने लिये ही संग्रह करता है। मनुष्य अपने संस्कारों से व्यवहार करता है। यह संस्कार उसके पहले विचारों का परिणाम होता है। इन संस्कारों को श्रेष्ठ बनाकर सुधारा जा सकता है। यह विद्या व ज्ञान के प्राप्त करने से किया जाता है। इसके साथ उदार लोगों के संसर्ग से साधु-सन्तों के उपदेश से चित्त के संस्कारों में अन्तर लाया जा सकता है। मनुष्य के मन में विचारों की उदारता से ही मनुष्य सबको साथ लेकर चल सकता है। सब मनुष्य एक से नहीं होते हैं। सब अच्छे नहीं होते तो सब बुरे नहीं होते। मनुष्य के अन्दर अच्छा बुरा बनने की अपार सभावना होती है। अतः मनुष्य को बुराई से बचाकर अच्छाई की ओर ले जाने का प्रयत्न करना चाहिए, इसका उपाय है जो अपने से कम है उसको साथ लेकर चलना इसके लिए मनुष्य को सहनशील होना पड़ता है। अपनी वस्तु उनको बांटनी पड़ती है, जिनके पास नहीं है। जो अभाव-ग्रस्त है, उसकी सेवा सहायता करना, हमारे द्वारा तभी सभव है जब हमारा हृदय विशाल हो।

मनुष्य के विस्तार की सीमा उसके विचारों के साथ घटती बढ़ती है। एक मनुष्य जो केवल अपने लिए सोचता था, उससे वह बड़ा है, जो अपने परिवार के लिए सोचता है। परिवार में कोई पति-पत्नी बच्चे को ही अपना परिवार समझता है, तो दूसरा माता-पिता को भी समिलित करता है। तीसरा अपने माता-पिता जी अपने भाई-बहन, उनके परिवार सगे सबन्धियों को भी अपने परिवार में मानता है। इसमें कितने बड़े रूप में अपने परिवार को स्वीकार करना चाहिए। उसका एक ही नियम है, विचारों की दृ`िष्टि से सभी मनुष्य और प्राणिमात्र मनुष्य के परिवार में आते हैं। साधनों के विचार से जितने अधिक साधन जिसके पास है, वह अपने परिवार केा उतना विस्तार दे सकता है, उतना बड़ा बना सकता है। कम साधन होने पर परिवार के कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व के साथ निश्चित होते हैं, परिवार में सदस्यों की आवश्यकता और साधनों की प्राप्ति और उनके वितरण में मनुष्य के हृदय की विशालता का पता चलता है। संकुचित हृदय बहुत साधन होने पर भी देने में भरोसा नहीं करता। विशाल हृदय कम साधन होने पर भी वितरण में कष्ट अनुभव नहीं करता। हृदय की विशालता का अभिप्राय अपना सब कुछ सब में बांट देना नहीं है। अपने परिवार के लिए साधन जुटाना अपने बच्चों को पढ़ाना-लिखाना व्यक्ति का कर्त्तव्य है। उनको छोड़कर अन्य को पढ़ाना ये हृदय की विशालता नहीं है। अपनों के प्रति उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए भी दूसरे का सहयोग करना, न कर पाने की स्थिति में सहयोग की भावना रखना, हृदय की विशालता का परिचायक है। सहयोग, सहानुभूति, समर्थन मनुष्य के विशाल हृदय का परिचायक है।

मन्त्र में परिवार को साथ लेकर चलने के लिये सन्देश दिया है। उपाय बताया है ज्यायस्व अन्तश्चित्तिनो बनना है। ज्यायस्व बनने का अर्थ है- समर्थ बनना। समर्थ कैसे बन सकते हैं, उसके लिए वेद कहता है- अन्तश्चित्तिनः बनना होगा। बड़े बनने का उपाय है, चित्त को अन्दर से विकसित करना है। चित्त को अन्दर से विकसित करने का उपाय चित्त को विद्या से युक्त करना, चित्त को सज्ञान करना-कराना। सामान्य प्रकृति के प्राणी में संकोच, स्वार्थ संकीर्णता होती है, विद्या, शास्त्र अध्ययन, उपदेश से ही इस संकीर्णता को स्वार्थ को दूर किया जा सकता है, इसीलिए वेद ने कहा परिवार में समझ को विकसित करके मनुष्य को हृदय बड़ा करना होगा, कहा गया है-

ज्यायस्वान्ताश्चित्तिनो।।

 

सूर्य नमस्कारः सर्वोत्तम व्यायाम भी, धर्म भी : डॉ धर्मवीर

प्रधानमन्त्री मोदी के प्रयासों से इक्कीस जून का दिन योग दिवस के रूप में मनाने की घोषणा हुई। कुछ लोगों को क्योंकि मोदी के नाम से ही चिड़ है, अतः मोदी का नाम आते ही उनका मुंह कड़वा हो जाता है। फिर योग दिवस का सबन्ध मोदी के नाम से जुड़ गया तो योग भी उनके लिए कड़वा हो गया और वे थूकने के लिये मजबूर हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि योग हिन्दुओं का है। योग साप्रदायिक है। सूर्य नमस्कार नहीं करेंगे क्योंकि मुसलमान खुदा के अतिरिक्त किसी के सामने सिर नहीं झुकाता। उनको …….. और स्पष्टीकरण देने वालों की भी कमी नहीं। लोग कहते हैं योग धार्मिक नहीं। सूर्य नमस्कार व्यायाम है, धर्म नहीं। ये बेचारे जानते नहीं कि हमारे सब किये जाने वाले काम धर्म ही होते हैं। जिस-जिस बात को हम धर्म मानते हैं, क्या ईसाई और मुसलमान उनको करना छोड़ देंगे या उनको मानना छोड़ देंगे? हम सत्य बोलना धर्म समझते हैं, आप सत्य बोलना-छोड़ना पसन्द करेंगे या झूठ बोलना स्वीकार करना चाहेंगे? हमारे यहाँ कौन-सा भला काम है जिसकी धर्म में गणना नहीं की गई। हमारे यहाँ माता-पिता की, गुरुजनों की, पीड़ितों की, असमर्थों की सेवा और रक्षा करना धर्म है। इनसे पूछो, ये क्या अपने बड़ों को, महापुरुषों को, देवी-देवताओं को, भगवानों को जूते मारने का विधान करेंगे। हमारे यहाँ जीवन की हर क्रिया श्रेष्ठ रूप में की जा सके, अतः धर्म के साथ जोड़ा गया है, फिर तो आपको हमारा धर्म स्वीकार करना पड़ेगा या मृत्यु को अपनाना पड़ेगा। इच्छा आपकी है, आप कौन सा विकल्प स्वीकार करेंगे? अतः यह तर्क कि योग, सूर्य नमस्कार, व्यायाम करना हिन्दू धर्म है, अतः हम ऐसा नहीं करेंगे। हमारे यहाँ जीना धर्म है, तो क्या आप मरोगे। यह सब आपकी अज्ञानता और राजनीतिक धूर्तता है।

सूर्य नमस्कार एक सर्वांगीण व्यायाम है। इससे न केवल शरीर स्वस्थ होता है अपितु मानसिक, बौद्धिक विकास भी होता है। पशु-पक्षी और प्राणी, जो वनों में स्वतन्त्रता से विचरते हैं, उन्हें भोजन और सुरक्षा के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है, अतः पृथक् से व्यायाम की आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य बहुत कम परिश्रम से या बिना परिश्रम के ही भोजन सामग्री और सुविधायें प्राप्त कर लेता है। अतः उसका परिश्रम भी कम हो गया। परिश्रम कम होने से शरीर की क्रियायें प्रभावित होती हैं। इससे मनुष्य का जीवन चक्र प्रभावित होता है। उसका शरीर रोग, दुर्बलतादि से प्रभावित होने लगता है। जैसे व्यय और संचय में सन्तुलन बिगड़ जाये या प्राप्ति अधिक हो जाये तो संग्रह बढ़ता जाता है, उसकी प्रकार मनुष्य बिना श्रम के भोजन करता रहता है तो मनुष्य के शरीर में भोजन का संग्रह होने लगता है। शरीर में चर्बी जमा होने लगती है। अधिक खाने से पाचन तन्त्र पर अधिक भार पड़ने से वह बिगड़ने लगता है, मनुष्य रोगी हो जाता है, उसके अन्दर आलस्य, प्रमाद के कारण शिथिलता आती है। जीवन रोगयुक्त भार बन कर दुःख का कारण बन जाता है। जीवन व्यर्थ लगने लगता है। अतः आज की परिस्थिति में शुद्ध अन्न, जल, हवा की आवश्यकता है, उसी प्रकार व्यायाम के द्वारा शरीर सक्रिय व स्वस्थ रखने की आवश्यकता है।

इस तथ्य को ध्यान में रखकर विद्यालयों-महाविद्यालयों में छात्रों के लिये व्यायाम और खेलों की व्यवस्था की जाती है। ये व्यायाम और खेल बहुत साधन, स्थान और समय माँगते हैं। ये सब उपाय समाज में सबको सुलभ नहीं होते, अतः शरीर को स्वस्थ रखने के लिए ऐसा विकल्प चाहिए जो सबको सदा सभी स्थानों पर सुलभ हो। सूर्य नमस्कार इस प्रकार का व्यायाम है, जो सबके लिए सब स्थानों पर सुलभ है। अन्य व्यायाम जैसे कोई खेल खेलने के लिए मैदान या खेल के स्थान की आवश्यकता होती है। कुश्ती के लिए साथी और अखाड़े की जरूरत होती है। तैरने के लिए तालाब, पानी की आवश्यकता होती है। दण्ड-बैठक करने के लिए एकान्त स्थान या व्यायामशाला की सुविधा अपेक्षित है। घूमने के लिए शुद्ध हवा का लबा-चौड़ा स्थान चाहिए। क्रिकेट, फुटबाल, हॉकी, कबड्डी आदि सभी खेलों की सुविधा सबको प्राप्त नहीं होती। ये सभी व्यायाम शरीर की मांसपेशियों को पुष्ट करते हैं, शरीर को बलवान बनाते हैं परन्तु आन्तरिक भाग पर बहुत प्रभावशाली नहीं होते।

सूर्य नमस्कार इन सब प्रश्नों का एक मात्र समाधान है। व्यायाम करने से शरीर के विशेष अंगों पर प्रभाव पड़ता है, वहाँ सूर्य नमस्कार करने से पाँच संस्थान पर पूरा प्रभाव पड़ता है, आँतें-यकृत-प्लीहा (जिगर, तिल्ली) आदि। इनसे अग्निमान्ध, अजीर्ण, मलावरोध आदि उदर रोग के निवारण में सहायता मिलती है। सूर्य नमस्कार में श्वास-प्रश्वास की विशेष क्रिया होती है जिससे हृदय तथा फेफड़ों का व्यायाम होता है तथा खाँसी, दमा जैसे रोगों में लाभ होता है। इसके अतिरिक्त नाड़ी संस्थान, कमर, रीड की हड्डी का भी व्यायाम सूर्य नमस्कार करने से ठीक हो जाता है। इस प्रकार सभी देशी-विदेशी व्यायामों में सूर्य नमस्कार सबसे श्रेष्ठ व्यायाम है। यह व्यायाम बालक-वृद्ध-युवा-स्त्री सभी वर्ग के व्यक्तियों को करना सभव है। सभी को इससे लाभ प्राप्त होता है। आयु और सामर्थ्य के अनुसार इसे कम अधिक कर सकते हैं। इसे कहीं भी, किसी भी आयु का व्यक्ति प्रारभ कर सकता है और आजीवन इसे करता रह सकता है।

सूर्य नमस्कार में नमस्कार शद का ग्रहण इसलिये किया गया है क्योंकि इस आसन को करते हुए साष्टांग नमस्कार की मुद्रा बनती है। अष्टांग नमस्कार में मस्तक, छाती, दो हाथ, दो घुटने, दो पैर, इनके साथ दृष्टि, वाणी, मन भी इसी क्रिया में लगे होते हैं। इस नमस्कार मुद्रा को सूर्योदय के समय किया जाता है, इसलिये इसे सूर्य नमस्कार कहते हैं। इस आसन को सूर्योदय के समय करने से इस व्यायाम का समय निश्चित होता है तथा सूर्य की रश्मियों का लाभ व्यायामकर्त्ता को मिलता है। आजकल की जीवन पद्धति में नगरों में कार्य करने वाले और भीड़ भरे मकानों में रहने वाले और वातानुकूलित कक्षों में दिन का अधिक समय बिताने वाले लोग सूर्य के प्रकाश से वञ्चित हो जाते हैं। सूर्य के प्रकाश के सेवन के अभाव से चिकित्सकों का मानना है कि मनुष्य के शरीर में विटामिन डी की कमी हो जाती है, अतः प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन सूर्य की धूप का सेवन करना चाहिए। सूर्य नमस्कार करने से उदय होते हुए सूर्य की किरणें सूर्य नमस्कार करने वाले को सहज मिलती हैं। जिससे अतिरिक्त स्वास्थ्य लाभ होता है। भारतीय जीवन शैली में जिन वस्तुओं का मनुष्य उपयोग करता है, उनके प्रति समान प्रकाशन के लिए देवता का भाव दिया जाता है। इसलिये सूर्य को देव कहकर सूर्य के बारह नामों का उपयोग करके बारह बार उसका उच्चारण करते हैं। वेद के सूर्य विषयक मन्त्र के छोटे-छोटे खण्ड कर, उनके प्रारभ में ओम तथा अन्त में नमः जोड़कर मन्त्र बनाया गया है। ऐसा करने से एक कार्य उपासना में बदल जाता है। व्यायाम उपासना बन जाती है। किसी को मन्त्र से चिड़ है तो वह यह व्यायाम बिना मन्त्र के कर सकता है। इसमें आग्रह-दुराग्रह की कोई बात नहीं है।

सूर्य नमस्कार करने की पद्धति है, व्यक्ति को प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व व्यक्ति को हल्के, ढ़ीले कपड़े पहनने चाहिए, खाली पेट, सामान्य दिनचर्या के कार्य करके सूर्य नमस्कार की क्रिया करनी चाहिए। इस सूर्य नमस्कार में पहली स्थिति अवस्थान है, इस पहली मुद्रा में पहली स्थिति बनती है। दूसरी स्थिति जानु आसन, जिसमें सिर घुटनों पर लगता है। तीसरे आसन में दोनों हाथ आगे रखकर दृष्टि ऊपर होती है, इसे ऊर्ध्वेक्षण कहते हैं। चौथी स्थिति में पूरे शरीर का हाथ पैर पर सन्तुलन बनाया जाता है, इसे तुलितवपु आसन कहते हैं। पाँचवी स्थिति साष्टांग दण्डवत् की स्थिति होती है। छठे आसन में हाथों पर सिर ऊपरकर कमर को मोड़कर पीछे की ओर देखने का प्रयत्न होता है। कशेरूका संकोच का आसन है। सातवां आसन हाथ पैर के आधार पर ऊपर उठने से और सामने झुकने से रीढ की हड्डी के जोड़ खुलते हैं।

आठवें आसन के रूप में दोनों हाथों के मध्य पैर को लाकर ऊपर की ओर देखना पुनः ऊर्ध्वेक्षण है। नौवें आसन के रूप में खड़े होकर फिर जानु आसन की स्थिति बनती है। इसमें हथेलियाँ भूमि पर और सिर घुटनों पर होता है। दसवीं स्थिति पुनः हाथ जोड़ कर अंगूठे, हृदय के साथ लगाते हुए नमस्कार की मुद्रा बनती है। इन आसनों का एक चक्र एक सूर्य नमस्कार होता है।

इस प्रकार इन आसनों के करने से गर्दन, छाती, कमर, पैर, पेट, जांघे, पिण्डलियाँ, स्नायु, पाचन तन्त्र, पीठ, गला, गर्दन, यकृत, तिल्ली, फेफड़े, पृष्ठवंश, आदि मजबूत होते हैं। सूर्य नमस्कार करने से इच्छा शक्ति दृढ़ होती है, मनोबल बढ़ता है। दृष्टि शक्ति बढ़ती है। मन्त्रपाठ से वाणी की शक्ति बढ़ती है। इस प्रकार सूर्य नमस्कार एक सर्वांगीण व्यायाम है। सूर्य नमस्कार श्वास-प्रश्वास के साथ किया जाता है, इस तरह व्यायाम के साथ इसमें प्राणायाम की क्रिया भी होती है। पहले आसन में श्वास के अन्दर लेने से पूरक, दूसरे में रोककर रखने से कुभक होता है। तीसरे आसन में पूरक, कुभक तथा चौथे आसन में कुभक, फिर पाँचवें आसन में कुभक और रेचक प्राणायाम होता है। छठे आसन में फिर पूरक कुभक, सातवें में कुभक, आठवें में कुभक, नवम में कुभक के साथ एक किया जाता है। इस प्रकार पूरे सूर्य नमस्कार आसनों के साथ प्राणायाम की क्रिया जुड़ी होने से इसका लाभ अनेक गुणा बढ़ जाता है। सूर्य नमस्कार से जितना लाभ होता है, उतना लाभ किसी अन्य व्यायाम से नहीं होता।

भारतीय परपरा में एक अद्भुत विशेषता है, सामान्य से लगने वाले कामों से महत्त्वपूर्ण बातों का स्मरण करना तथा बड़े-बड़े लाभ के कामों को सिद्ध करना। इसलिये सूर्य नमस्कार में आसनों को सूर्य से जोड़ा है, सूर्य संसार का सबसे प्रथम और विशाल ऊर्जा का समुद्र है। मानव एवं प्राणी जगत् वनस्पतियों से ऊर्जा प्राप्त करता है और आज का वैज्ञानिक जानता है, सभी वनस्पति जगत् सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करता है। सभी प्राणी वनस्पतियों को खाकर ऊर्जावान् बनते हैं। अतः मनुष्यों को भी सूर्य से ऊर्जा लेनी चाहिए। इसी उद्देश्य से सूर्य की रचना की गई है। वैदिक साहित्य में सूर्य को औषधियों का राजा कहा गया है। विदेशी लोगों को सूर्य का पर्याप्त प्रकाश नहीं मिलता, वे सूर्य स्नान की योजना करते हैं। सूर्य का प्रकाश न मिलने से वनस्पतियाँ पीली पड़कर नष्ट हो जाती है। मनुष्य भी सूर्य के प्रकाश के अभाव में निस्तेज होता है। सूर्य के प्रकाश और गर्मी के न मिलने से मनुष्य के शरीर से पसीना नहीं निकलता, शरीर के छिद्र न खुलने से शरीर को पर्याप्त प्राण वायु नहीं मिल सकता। इसलिए मनुष्य को अपने दैनिक जीवन में सूर्य के प्रकाश का सेवन करना चाहिए तथा व्यायाम करके शरीर की त्वचा को प्राणवायु प्राप्त करने में सक्षम बनाना चाहिए। जो पशु, गाय आदि सूर्य के प्रकाश में विचरण करते हैं, घास खाते हैं, उनके शरीर में सूर्य-किरणों के प्रभाव से उनके दूध में स्वर्ण का प्रभाव उत्पन्न होता है। मनुष्यों को भी प्रातः-सायं खुले शरीर से सूर्य के प्रकाश में भ्रमण करना चाहिए। सूर्य से लाभ प्राप्त करने के लिये ये पद्धति बनाई गई है, उसमें मूर्ति पूजा या जड़ पूजा की भावना करना नितान्त अज्ञान है। इस व्यायाम से स्वास्थ्य की वृद्धि होती है, रोगों का निवारण होता है और सब व्यायामों में बहुत धन व्यय होता है परन्तु सूर्य नमस्कार एक ऐसा व्यायाम है जिसमें एक पैसा भी खर्च नहीं होता। इसे धनी-निर्धन सभी स्वेच्छा पूर्वक कर सकते हैं। सूर्य नमस्कार करने वाला कभी रोगी नहीं हो सकता, जिन लोगों ने सूर्य नमस्कार का अयास किया है, उन लोगों का अनुभव है, इसके करने से पीठ और कमर के दर्द से छुटकारा मिलता है। पेट के कष्ट नहीं होते, महिलाओं को भी उनके रोगों में अत्यन्त लाभ मिलता है। बालक इस व्यायाम को करते हैं तो उनके बल, बुद्धि के साथ, उनके शरीर की लबाई भी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती देखी गई है। सूर्य नमस्कार का विरोध धार्मिक स्तर पर अज्ञानमूलक है और राजनीतिक स्तर पर एक धूर्तता पूर्ण कार्य है। इसके विरोध से राष्ट्र की स्वास्थ्य रूपी सपत्ति का नाश होगा, अतः इसे बिलकुल मान्यता नहीं देनी चाहिए। शरीर के स्वस्थ रखने का मूलमन्त्र है- भोजन, विश्राम और संयम अर्थात् उचित मात्रा में सात्विक भोजन समय पर करना, यथा समय  सोना, जागना और व्यायाम, संयम करना। अतः आचार्य चरक ने ठीक ही कहा है-

आहारो निद्रा ब्रह्मचर्यम् त्रय उपस्तभा शरीरस्य।

– धर्मवीर

अज्ञान से ज्ञान की ओर – आचार्य शिवकुमार आर्य

जो एकत्व भाव से सभी को देखता है, उसको मोह तथा शोक नहीं होता है-

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।

तत्र को मोहः कः शोकऽएकत्वमनुपश्यतः।।

यजु. 40-7

पदार्थ – (यस्मिन्) जिसमें-जिसके हृदय में। (सर्वाणि भूतानि) सभी प्राणी (आत्मा एव) आत्मा ही (अभूत) हैं (विजानतः) जानते हैं (तत्र) उसके हृदय में (कः मोहः) कैसा मोह (कः शोकः) कैसा शोक (एकत्वम्) एकता को (अनुपश्यतः) देखने वाले को।

अर्थ- जो सभी प्राणियों को आत्मा ही समझकर सब में एक जैसा अनुभव करता है, ऐसे व्यक्ति को कभी कोई मोह तथा शोक नहीं होता है। इन दोनों मन्त्रों में एक क्रम का वर्णन किया हैं। मनुष्य और अन्य प्राणियों में तीन प्रकार के रोग होते हैं। पहले का नाम है विचिकित्सा, दूसरे का नाम है मोह और तीसरे का नाम शोक है, परन्तु इन सभी दुःख निकायों का एक ही उपाय या समाधान है, जिसे कहते हैं समत्व। समत्व को व्यवहार के स्तर लाने के लिए प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार तथा यथायोग्य सभी के साथ व्यवहार करना चाहिए।

इन तीन प्रकार की व्यावहारिक भूलों के कारण मनुष्यों को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसी प्रकरण को योग शास्त्र में बड़े अच्छे प्रकार से स्पष्ट किया है-

‘‘मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां-

सुख-दुःख पुण्यापुण्यविषयाणाम् भावनातश्चित्तः प्रसादनम्’’

– योग. द. समाधिपाद-33

इस योगदर्शन के सूत्र में चित्त को प्रसन्न करने के चार उपाय बताये हैं। सुखी जनों को देखकर या मिलकर प्रसन्न होना तथा दीन-दुखियों को देखकर करुणा के भाव रखना चाहिये और इनको सहयोग प्रदान करना चाहिए। इसी प्रकार से सज्जन मनुष्य या पुण्यात्माओं में मुदिता (हर्ष) के भाव रखने चाहिये। चौथा है अपुण्यात्मा, अर्थात् दुष्ट, अधर्मी। उसके प्रति सज्जन जनों को सदैव उपेक्षा के भाव रखने चाहिये, क्योंकि दुष्ट व्यक्ति से दोस्ती तथा दुश्मनी-दोनों ही दुःखदायी होती हैं। इसी प्रकार से जो प्रतिपाद्य विषय है, उसमें एकता के स्थान पर अनेकता आती है, क्योंकि भिन्न-भिन्न वस्तु व व्यक्ति के स्वभाव अथवा गुणों को देखकर उसी प्रकार की वृत्ति बदलती है, तभी मानव सुखी व प्रसन्न चित्त रह सकता है, जब वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप को देखे। सभी को सम दृष्टि से देखना तो सदैव अशान्ति का कारण होगा। वस्तुतः वेदमन्त्र प्रतिपादित ‘‘एकत्व’’ किसी अन्य बात को ही कह रहा है। जिस एकत्व के भाव से लोग मोह, शोकादि सभी अन्तर विकारों से शान्त या संयत हो जाते हैं, वह एकत्व क्या है? यह सर्वाधिक विचारणीय बिन्दु है। जो भौतिकवाद तथा आध्यात्मवाद के विषय को समता में लाने तथा अनेकता में ही एकता को स्थिर करने का नाम एकत्व या समत्व है। जैसे एक सन्तरे के फल में विभिन्न प्रकार के तत्त्व अथवा रसों के होने पर भी समत्व है, इसी प्रकार अन्य पदार्थों में अनेकता में एकता है। मानव शरीर में दस इन्द्रियाँ तथा चार अन्तःकरण हैं। मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार ये सभी मिलकर आत्मिक शान्ति को एक रूप में प्रकट करते हैं। मन तथा इन्द्रियों की अनेक क्रियाएँ एक ही सुखानुाूति को जन्म देती हैं तथा भिन्न-भिन्न, क्षणिक सुख बड़े सुखों में परिणित हो जाते हैं। इसी तरह समस्त जीवन के कर्म एक फल में समाहित हो जाते हैं। आत्मवत्- जो देखने का दृष्टिकोण है, वह यह नहीं कहता कि अच्छी-बुरी वस्तु या व्यक्ति को यथार्थ में मत देखो। आत्मवत् दर्शन का अभिप्राय है कि सभी जड़-चेतन व आत्मा-परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानो तथा जानकर विषमता को हटाकर समता स्थापित करो। भिन्न-ािन्न पदार्थों का अपना-अपना एकत्व या समत्व है। उसी प्रकार से स्वयं आत्म तत्त्व की भी समसन्तुलन व एक अवस्था है। जो पदार्थ अपनी सच्ची शन्ति को भंग न कर सके और उस वस्तु के क्षणिक संसर्ग सुख के वशीभूत न हों, वह यथार्थ में एकत्व का स्वरूप है। समत्व को लाने के लिए इस आत्मा को न जाने कितने जन्म धारण करने पड़ेंगे। क्योंकि भौतिक वस्तुओं में तो सदैव एकत्व व समानता होती ही नहीं है, क्योंकि इन पदार्थों में एक रूपता सदैव रहती ही नहीं। ये सर्वदा बदलते रहते हैं। जैसे-शीत काल में वायु शीतल अनुभव होती है, परन्तु वही वायु ग्रीष्म ऋतु में गर्म प्रतीत होती है। जैसे व्यवहार में अभी एक व्यक्ति हमारा मित्र है, किन्तु वही व्यक्ति कुछ काल बाद हमारा दुश्मन बन जाता है। जिस भोजन से हमें जीवन मिल रहा है, वही भोजन अब विषम हो गया है और नाना प्रकार के रोग उत्पन्न कर रहा है। इस पंचभौतिक शरीर को कितने प्रयत्नों से पाला-पोषा था, किन्तु अब तो इसने जीवन जीने से स्पष्ट मना कर दिया। जो सभी सांसारिक सुखों का अधिकरण था, वही अंग-प्रत्यंग से शिथिल हो चुका है। वह अब नवीनीकरण चाहता है। वह सभी सुखों के स्थान पर दुःख देना प्रारभ कर देता है, अतः ध्यान देने योग्य बात यह है कि सुख-दुःख तथा शान्ति-अशान्ति कोई वस्तुनिष्ठ नहीं है। इनमें तो एकान्तिक नियम स्थापित किया ही नहीं जा सकता है, जिसके लिए वेद में उपदेश दिया जा रहा है। वस्तुतः कोई संशय तथा रोग व्यर्थ नहीं है, किन्तु उनका जो उत्पन्न होना है, उसका समुचित उपाय करना आवश्यक है। इसके आगे एक और समस्या है, उसे मोह कहते हैं। मोह और प्रेम के अन्तर को जानना भी बहुत जरूरी है, क्योंकि इनके मौलिक भेद को जाने बिना सन्देह दूर नहीं हो सकता है, प्रायः मोह के दीवाने लोग प्रेम को अन्यत्र स्थानों पर घसीटते हैं और मोह पिपासा को तृप्त करते हैं, किन्तु सच्चे प्रेम के अभाव में सच्ची शन्ति नहीं मिलती है। आधुनिक कवियों ने मोहमयी वासनाओं को प्रेम के रूप में प्रस्तुत किया है। यह सच्चे प्रेम के साथ घोर अन्याय है। मोह तथा प्रेम में मौलिक अन्तर है, प्रेम निःस्वार्थ विवेकपूर्वक होता है, किन्तु मोह किसी विशेष स्वार्थयुक्त तथा विवेकशून्य होता है। ‘‘मुह-वैचित्ये’’ इस धातु से मोह शद सिद्ध होता है। इसका अर्थ है चित्त का विचलित होना या विभ्रम होना। इसी प्रकार ‘‘प्रीञ्-तर्पणे’’ धातु से प्रेम शद सिद्ध होता है, जिसका अर्थ होगा- तृप्ति, तो इन दोनों शदों के पृथक्-पृथक् अर्थ हैं। जिसमें क्षणिक सुख है अपितु दुःख अधिक है, उसे मोह कहते हैं। दूसरा है प्रेम, जो स्थायी सुख तथा समत्व का कारण है। क्योंकि मोह का उत्पत्ति स्थान स्नेह है। शास्त्र कहता है कि ‘‘नास्ति मोहसमासवः’’ -महाभारत, अर्थात् मोह के समान कोईाी मादक द्रव्य नहीं है। जैसे अहंकार का मनुष्य के ऊपर प्रकोप होता है, तब वह विवेक शून्य हो जाता है, उसी प्रकार जब मनुष्य के ऊपर मोह का आक्रमण होता है, तब भी वह मोहान्धकार में अन्धा हो जाता है। एक माँ अपने अबोध बच्चे के दोषों को छिपाती है, क्यों? जिससे उसका पिता उसे दण्ड न दे सके। यह उस माँ का मोह संयुक्त अज्ञान है। उसी मोह के साथ अन्य दोष भी जुड़ जाते हैं। धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों के प्रति अत्यन्त मोह था। जिससे वह सत्यासत्य का निर्णय न कर सका और एकाीषण युद्ध का कारण बना। ‘‘मोहः पापीयान्’’ की उक्ति यहाँ सार्थक सिद्ध होती है। इस मोह की कई प्रकार की शाखाप्रशाखायें होती हैं। जैसे माता-पिता, पति-पत्नी भाई-बहन, पुत्र, पौत्र, धन, धान्य तथा भवन-भोजनादि। इसके अतिरिक्त शरीर तथा प्राणों का मोह अतीव प्रगाढ़ होता है। जिस शरीर में आत्मा ने लबे समय तक वास किया है, उसके प्रति अब अत्यधिक मोह जाग्रत हो जाता है, जबकि जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग भी अवश्यंभावी है, क्योंकि-

जरा मृत्यु हि भूतानां खादितारौ वृकाविव।

बलिनां दुर्बलानाञ्च हृस्वानां महतामपि।।

ये बुढ़ापा तथा मृत्युरूपी दो भेड़िये हैं, जो निरन्तर मानव शरीरों को खाये जा रहे हैं। बलवान, दुर्बल या छोटा-बड़ा कोई भी हो, सभी को ये खाने वाले हैं। मनुष्य की अति आसक्ति प्रायः पदलिप्सा होती है, जिसे शास्त्रों में लोकेषणा के रूप में उद्धृत किया है। मोह के लघु बन्धनों को छोड़ने के बाद यह लोक प्रतिष्ठा का मोह बाँध ही लेता है, जिससे बड़े-बड़े त्यागी तपस्वी लोग भी नहीं बच पाते हैं। विषय को विषाद करने के लिए एक कवि ने रूपक अलंकार के रूप में एक सुन्दर आयान दिया है। वह यहाँ प्रस्तुत है- आत्मा जब इस शरीर में आती है, तभी से पति-पत्नी सन्तान, चलाचल सपत्ति और पद के मोह में फँस जाता हैं उसकी स्थिति एक भँवरे के समान होती है, जो एक कमल की सुगन्ध के सुगन्घि पर मुग्ध हो जाता है और उसी फूल में अपना आवास बना लेता है। प्रतिदिन के गमनागमन की परेशानी को दूर करने के लिए उस फूल में बैठ जाता है, किन्तु रात्रि के समय पुष्प पराग के अन्दर बैठकर यहविचार करता है कि-

रात्रिगमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्।

भास्वानुदिष्यति हसिष्यति पंकज श्रीः।।

इत्थं विचिन्तयति शोकगते द्विरेफे।

हा हन्त, हन्त! नलिनीं गज उज्जहार।।

अर्थात् वह मनोरथ करता है कि रात्रि बीतेगी और सुन्दर प्रभात होगा, सूर्य उदित होगा, कमल खिलेंगे लेकिन उस भँवरे के मनोरथ पर जो तुषारापात हुआ, वह अत्यन्त दुःख भरा था। रात्रि के समय वहाँ एक जंगली हाथी आया और उसने जल पीकर जो उत्पात किया वह शदों में कहना कठिन है। उस मदान्ध गज ने सरोवर स्थित उस कमल वन को कुचल डाला और उन्हीं जिस कमल पुष्प में भौंरा बैठा हुआ था, वह भी कुचला गया। अतः इस मानव की दशा वैसी ही होती है, जैसे कि उस मूर्ख भौंरे की हुई। इसीलिए मोह के स्वार्थ रूपी अन्धकार से निकलकर ‘प्रेम’ प्रकाश में आना चाहिये, जिससे संसार के बन्धन छूट सकें। इति।

-महर्षि कपिल आर्ष गुरुकुल (वैदिक आश्रम), कोलायत, बीकानेर, राज. चलभाष- 9413144029, 9166323384