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  सूर्य नमस्कार- एक विवेचन -विद्यासागर वर्मा, पूर्व राजदूत

सूर्य नमस्कार आसन के विषय में सपूर्ण भारत में एक विवाद खड़ा हो गया है, जिसका देश के हित में समाधान ढूंढना आवश्यक है। अन्तरिम् रूप से भारत सरकार ने सूर्य नमस्कार आसन को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर भव्य सामूहिक कार्यक्रम से हटा दिया है।

सर्वप्रथम यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि केवल योग-आसन, योग नहीं। योग एक विस्तृत आध्यात्मिक पद्धति है जिसका ध्येय आत्मा और परमात्मा का मिलन है। पतंजलि ऋषि के योगदर्शन में आसन सबन्धी केवल चार (4) सूत्र हैं। आसन की परिभाषा है ‘स्थिरसुखमासनम्’ अर्थात् सुख पूर्वक स्थिरता से, बिना हिले-डुले, एक स्थिति में बैठना आसन है ताकि अधिक समय तक ध्यान की अवस्था में  बैठा जा सके। प्रचलित योग-आसन हठयोग की क्रियाएँ हैं। हठयोग के ग्रन्थों में पशु-पक्षी के आकार के 84 आसनों का वर्णन है, जैसे मयूरासन, भुजंगासन आदि। ये आसन स्वास्थ्य की दृष्टि से लााप्रद हैं परन्तु ध्यान लगाने के लिए उपयुक्त नहीं।

Rev. Albert Mohler Jr. Prsident South Baptist Theosophical Society ने कितने स्पष्ट शदों में योग को परिभाषित किया है, यह सराहने योग्य है You may twidting yourself into pretzels or grasshoppers, but if there is no meditation or direction of consciousness, you are not practising Yoga.”   अर्थात् चाहे आप कितनी तरह से अपने शरीर को मरोड़कर एक वक्राकार की टिड्डा तरह बैठकर (गर्भासन) या एक शलभ के समान बनाकर बैठ जायें (शलभासन), यदि उस स्थिति में ध्यान की अवस्था नहीं है, चेतना की एकाग्रता नहीं है, उसे योग नहीं कह सकते।

सारांश में हम कह सकते हैं कि योग ध्यान की उस स्थिति का नाम है जहाँ आत्मा का परमात्मा से तादात्य हो जाता है। इस स्थिति का वर्णन सभी धर्मों के ग्रन्थों में पाया जाता है। उदाहरणार्थ कुरान शरीफ में कहा गया है- ‘‘व फि अन्फुसेकुम अ-फ-ल तुबसेरुन’’ अर्थात् मैं तुहारी आत्मा में हूँ, तुम मुझे क्यों नहीं देखते? मैं तुहारी हर श्वास में हूँ परन्तु तुम पवित्र नेत्र से विहीन हो, इसलिए देख नहीं पाते। यही तो योग विद्या का संदेश है। अहिंसा, सत्याचरण, चोरी न करना, दूसरों का हक न मारना, सभी शुभ कर्म ईश्वर की इबादत (ईश्वर प्रणिधान) भाव से करने से आत्मा पवित्र दृष्टि प्राप्त करता है और अपने अन्दर ईश्वर का साक्षात्कार करता है। अथर्ववेद (12.1.45)का कथन है ‘जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम्’ अर्थात् पृथ्वी भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाले तथा देशकाल के अनुसार भिन्न-ािन्न विश्वासों ´ (Nation of Religion)  का अनुसरण करने वाले जन-समुदाय का भरण (पोषण) करती है। विश्व के सभी धर्म सत्य, अहिंसा, भातृभाव, सदाचार की शिक्षा देते हैं ताकि मनुष्य का जीवन उत्कृष्ट बन सके और वे अन्ततः उस परमशक्ति से जुड़ सकें। मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर सभी धर्मस्थलों पर ईश्वर है क्योंकि वह सर्वव्यापक है परन्तु तुहारी आत्मा केवल तुहारे शरीर में हैं, वहाँ नहीं है। मिलन तो किसी दो का तभी हो सकता है जहाँ दोनों मौजूद हों। वह स्थान केवल आपका शरीर है, वहीं आत्मा और परमात्मा का मिलन हो सकता है तभी तो पवित्र बाईबल में लिखा है “ Your Body is the Temple of God”  अर्थात् आपका शरीर ही परमात्मा का पूजा स्थल है। यही योग विद्या का सार है।

आसन और प्राणायाम योग के बहिरंग ((Outer Shell)) माने गये हैं। ये योग साधना में सहायक होते हैं जैसे आसन शरीर को निरोग रखते हैं और प्राणायाम मन की एकाग्रता को बढ़ाते हैं। योग का सबन्ध शरीर, मन और आत्मा से है। प्रकृति ने मानवमात्र को एक जैसा पैदा किया है, सभी को शरीर, मन और आत्मा दी है। मनुष्य चाहे साईबीरिया में पैदा हो जहाँ तापमान (-) 50डिग्री सैल्सियस होता है चाहे सहारा के मरुस्थल में पैदा हो जहाँ तापमान (+)50 डिग्री सैल्सियस होता है, मानव शरीर का तापमान सभी स्थानों पर (+)37 डिग्री सैल्सियस ही होता है। इसी प्रकार मनुष्य चाहे अमेरिका का रहने वाला हो या अफ्रीका का, क्रोध के आवेश में उसका रक्तचाप बढ़ जाता है, हृदयगति तेज हो जाती है, नजाी तेजी से चलने लगती है और चेहरा लाल हो जाता है। जैसे कोई भी दवाई या बीमारी किसी के शरीर पर असर करने से पहले उसकी नागरिकता या धार्मिक आस्थाओं की जानकारी नहीं लेती, इसी प्रकार योग की क्रियाएँ मानवमात्र पर एक सा प्रभाव छोड़ती हैं। हाँ, जो अधिक निष्ठा से इन्हें करेगा, उसे अधिक लाभ होगा, जो टूटे मन से करेगा, उसे कम लाभ होगा । यह व्यवस्था सभी विद्याओं पर एक सी लागू होती है।

योग-पद्धति एक धर्म निरपेक्ष, मानवमात्र हितकारी पद्धति है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। यह बात इसी से सिद्ध हो जाती  है कि संयुक्त राष्ट्र की जनरल एसेबली में 21जून को अन्तर्राष्ट्रीय येाग दिवस घोषित करने सबन्धी प्रस्ताव न केवल सर्वसमति से पारित हुआ बल्कि 177 देशों द्वारा अनुमोदित किया गया जिसमें मुस्लिम देश संगठन (ह्रढ्ढष्ट) के भी अधिकतर देश समिलित थे। इससे पूर्व कैलीफोर्निया की एक अपील अदालत ने न्याय व्यवस्था दी कि सैनडीएगो काऊँटी के स्कूलों में सिखाए जा रहे योग से धार्मिक स्वतन्त्रता का उल्लंघन नहीं हो रहा। दैनिक हिन्दी समाचार ‘हिन्दुस्तान’ दिनांक 5 अप्रैल, 2015 एवं अंग्रेजी समाचार पत्र ‘टाइस ऑफ इंडिया’ दिनांक 5 अप्रैल, 2015 में छपे समाचार के अनुसार तीन सदस्यीय अपील अदालत ने योग के कार्यक्रम को धर्मनिरपेक्ष्य घोषित किया । इससे भी पूर्व अमेरिका के एक राज्य ‘इलिनॉइस की संसद ने 24 मई, 1972 के दिन एक प्रस्ताव (संया-677) पारित किया जिसमें योग की ध्यान पद्धति का गुणगान करते हुए इसे राज्य की सभी शिक्षा संस्थाओं में सिखाने के लिए अनुरोध किया गया एवं इसकी परियोजनाओं के लिए हर सभव योगदान देने का निर्देश दिया गया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि अनुसंधानों से पाया गया कि ध्यान से मानसिक तनाव का कम होना, उच्च रक्तचाप का नीचे आना, श्वास रोग का ठीक होना, ध्यान लगाने वाले छात्रों का अध्ययन में प्रगति करना, अनगिनत रोगों में रोगियों का ध्यान लगाने से अन्यों की अपेक्षा शीघ्र ठीक होना, अफीम आदि के व्यसनियों (Drug Addicts) का ध्यान लगाने से व्यसन से छुटाकारा पाना आदि लाभ प्राप्त होते हैं।

योग पद्धति साधकों एवं सांसारिकों दोनों के लिए लाभप्रद है। योग दो प्रकार का है- लौकिक ((Worldly) और आध्यात्मिक (Spiritual))। जो लौकिक विषय पर ध्यान लगाते हैं उन्हें लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, जैसे न्यूटन ने गिरते हुए सेब पर ध्यान लगाया, विश्व को गुरुत्वाकर्षण का ज्ञान दिया। इसी प्रकार जो आध्यात्मिक विषय पर ध्यान लगाते हैं उनहें आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य नमस्कार को लेकर समस्त योग विद्या को त्याज्य समझना उचित नहीं। वस्तुतः सभी मुस्लिम भाई ऐसा समझते भी नहीं हैं। हाँ, जो सूर्य नमस्कार आसन को आपत्तिपूर्ण मानते हैं, उनकी आपत्ति वाजिब हो सकती है, उचित हो सकती है। इस्लाम में जड़ की उपासना एवं ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना धर्म-विरुद्ध है। इस विचारधारा का सभी को समान करना चाहिए। इसी के साथ-साथ समस्या का समाधान ढूंढ़ना चाहिए। भारत सरकार ने जो समाधान ढूंढ़ा है कि सूर्य नमस्कार को ही योगासनों से हटा दिया जाए, केवल क्षणिक, अल्पकालीन उपाय है, चिरस्थायी नहीं।

योग आसनों में तीन आसन स्वास्थ्य की दृष्टि से अतीव महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। वे हैं- शीर्षासन, सूर्य नमस्कार आसन और सर्वांगासन। इन तीनों से शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंग सुचारु रूप से कार्य करते हैं और सुदृढ़ होते हैं। अतः सूर्य नमस्कार आसन को सदा के लिए बहिष्कृत करना उचित नहीं होगा।

सूर्य नमस्कार आसन पर विवाद इसलिए है कि इसमें जड़ पदार्थ सूर्य के सामने सिर झुकाया जाता है। मेरा मत है कि यहाँ सूर्य का अर्थ सूर्य है ही नहीं, यहाँ सूर्य का अर्थ ईश्वर है। वेद में, संस्कृत भाषा में एवं अन्य भाषाओं में एक शद के एक से अधिक अर्थ होते हैं। वेदों में ईश्वर को सूर्य, अग्नि, इन्द्र, विष्णु आदि क ई नामों से वर्णित किया गया है। इसकी पुष्टि वेदों का जर्मन भाषा में अनुवाद करने वाले विश्ववियात दार्शनिक प्रो. एफ. मैक्समूलर भी करते हैं। अपनी पुस्तक India what It Can Teach Us? में वे कहते हैं “They ( the Names of Deities like Indra, Varuna, Surya) were all meant to express the Beyond, the Invisible behind the Visible, the Infinite within the Finite, the Supernatural above the Natural, the Divine, Omnipresent, Omnipotent.” अर्थात् वे (इन्द्र, वरुण, सूर्य आदि देवता वाचक शद) सभी परोक्ष के द्योतक थे, दृश्य के पीछे अदृश्य, सान्त के पीछे अनन्त, अपरा के पीछे परा, दिव्य, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् के द्योतक थे।

प्रो. एफ. मैक्समूलर की उपरोक्त घोषणा वेद के अन्तः साक्ष्य से भी सिद्ध होती है। यजुर्वेद (7.42) का कथन है सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च अर्थात् सूर्य इस चेतन जगत् एवं जंगम (स्थावर) जगत् की आत्मा है। सूर्य तो स्वयं जड़ है और इस समस्त स्थावर जगत् का एक तुच्छााग है। वह जड़ एवं चेतन जगत की आत्मा (चेतन सत्ता) कैसे हो सकता है? नक्षत्र विज्ञान बतलाता है कि सूर्य हमारी आकाश गंगा (Milky Way Galaxy) का एक सामान्य तारा ((Star) है, जिसमें अरबों तारे हैं। इतना ही नहीं, सारे ब्रह्माण्ड (Universe) में अरबों ऐसी और इससे भी कई गुना बड़ी आकाश गंगाएँ हैं। इतने विशाल ब्रह्माण्ड की आत्मा एक अधना-सा सूर्य नहीं हो सकता। इससे सुस्पष्ट हो जाता है कि यहाँ सूर्य का अर्थ ईश्वर है। इसके अतिरिक्त हमारे धर्म ग्रन्थों में यह भी कहा गया है कि वे सूर्य, तारे, अग्नि आदि सभी उसी ईश्वर के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं – ‘‘तस्यभासा सर्वमिदं विभाति’’ कठोपनिषद् (2.2.15) अर्थात् उस ईश्वर के  प्रकाश से यह सब कुछ प्रकाशित होरहा है।

ईश्वर ही ब्रह्माण्ड की आत्मा है, केवल वेद ही नहीं कहता, अन्य सभी धर्म भी ऐसा ही मानते हैं, बड़े-बड़े दार्शनिक एवं वैज्ञानिक भी ऐसा ही मानते हैं। उदाहरणार्थ-

(1) हक जाने जहान अस्त व जहान जुमला बदन।

– सूफी शायर

ईश्वर विश्व की आत्मा है और यह समस्त विश्व उसका शरीर।

(2)  The Universe is one stuperndous Whole

Whose Body Nature is, and God the Soul.

-Alexander Pop

यह ब्रह्माण्ड एक विशाल पूर्ण-कृति है।

प्रकृति जिसका शरीर है और ईश्वर आत्मा।

– एलेक्जेंडर पोप

(3) अल्लाहो बे कुल्ले शमीन मुहित

अल्लाहो नूर उस समावाति वल अर्द। – कुरान शरीफ

अल्लाह समस्त संसार को घेरे हुए है और उसमें व्याप्त है।

उसका नूर द्यौलोक एवं पृथ्वी को प्रकाशित करता है।

(4) God said let there be light and there was light.                                       – The Holy Bible

ईश्वर ने कहा कि प्रकाश हो जाए और प्रकाश हो गया।         – पवित्र बाईबल

(5) सरब जोतिमहिं जाकी जोत।

– गुरु ग्रन्थ साहब

सारांश में, सूर्य नमस्कार आसन में सूर्य शद ईश्वर का द्योतक है। अथर्ववेद (2.2.1) की आज्ञा है। ‘एक एव नमस्योऽवीक्ष्वीड्यः’ अर्थात् सभी लोगों द्वारा केवल एक ईश्वर नमन और स्तुति के योग्य है। क्योंकि सूर्य शद के लाक्षणिक-अर्थ ईश्वर न लेकर रुढ़ि-अर्थ-तारा ले लिया गया है, इसलिए यह भ्रम की स्थिति पैदा हुई है। सूर्य को एक प्राकृतिक शक्ति के रूप में देवता कहा गया है यहाँ यह स्पष्ट कर देनााी प्रासंगिक है कि देव या देवता वह है जो देता है या चमकता है। प्रकृति पदार्थ जो हमें लाभ पहुंचाते हैं या चमकते हैं देवता कहलाते हैं। वे केवल उस ईश्वर की शक्तियों को परिलक्षित करते हैं। तभी वेद में कहा गया है ‘‘अस्मिन् सर्वेः देवाः एकवृत्तो भवन्ति’’ अर्थात् सभी देवता (प्राकृतिक शक्तियाँ) उसी ईश्वर में समा जाते हैं। कुरान शरीफ में भी कहा गया है ‘‘हे परवर दिगार। ये सूरज, चाँद, सितारे हमारे लिये (तुहारी खिलकत के लिए) तुहारे हुक्म में काम कर रहे हैं। कुदरत की इन निशानियों को देख कर, तुहारी ताकत, हिकमत और कारीगरी का अन्दाजा लगा सकते हैं।’’ यही यजुर्वेद (33.31) में कहा है : देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्। अर्थात् सूर्य, चन्द्र आदि मानो परमदेव की पताकाएँ (केतवः= झण्डे, पताका) हैं उसके यश को संसार में फैलाती है और विश्व के लोगों को सूर्य के समान प्रकाशवान् ईश्वर को दर्शाती हैं। यहाँ भी सूर्य का अर्थ ईश्वर है।

अतः मेरा विनम्र सुझाव है कि सूर्य नमस्कार आसन का नाम ईश-नमस्कार आसन रख दिया जाए। मुझे आशा है कि हमारे मुस्लिम भाइयों को इसमें आपत्ति नहीं होगी क्योंकि ईश नमस्कार का अर्थ है अल्लाह को सजदा (Salutation to God) वैसे तो इसके साथ किसी प्रकर की प्रार्थना की आवश्यकता नहीं, अगर कोई करना भी चाहे तो निम्न प्रार्थना पर गौर किया जा सकता है- हे परमपिता। हमें शक्ति दो कि हम सूर्य और चाँद की भांति निरन्तर अपने कर्त्तव्य एवं परोपकार के कल्याणकारी मार्ग पर चलते रहें। (सूर्य नमस्कार का नाम बदलकर ईश-नमस्कार आसन करने से हम सहमत नहीं है। यह तो सीधा-सीधा मजहबी तुष्टिकरण होगा यह आसन उनके हित के लिए है। इसमें योग का प्रचार करने वालों का कोई स्वार्थ नहीं है-

सम्पादक ) लेखक भारतीय विदेश सेवा के सेवा निवृत्त सदस्य हैं। इन्होंने योगदर्शन पर काव्य व्याया लिखी है जिसका विमोचन मा. उपराष्ट्रपति श्री कृष्णकान्त ने अप्रैल, 2002 में किया था। इन्होंने कजाखस्तान में भारतीय दूतावास में कजाख लोगों को एवं वहाँ के राजनयिकों को योग की निःशुल्क शिक्षा दी। योग पर दिये प्रपाठकों को द्विभाषी पुस्तक (अंग्रेजी, रूसी भाषा में) के रूप में छापा गया।

पता– 109, आई.एफ.एस. विल्लाज, पी-6, बिल्डरज एरिया, ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश- 201310 चलभाषः 9871724733

सूर्य नमस्कारः सर्वोत्तम व्यायाम भी, धर्म भी : डॉ धर्मवीर

प्रधानमन्त्री मोदी के प्रयासों से इक्कीस जून का दिन योग दिवस के रूप में मनाने की घोषणा हुई। कुछ लोगों को क्योंकि मोदी के नाम से ही चिड़ है, अतः मोदी का नाम आते ही उनका मुंह कड़वा हो जाता है। फिर योग दिवस का सबन्ध मोदी के नाम से जुड़ गया तो योग भी उनके लिए कड़वा हो गया और वे थूकने के लिये मजबूर हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि योग हिन्दुओं का है। योग साप्रदायिक है। सूर्य नमस्कार नहीं करेंगे क्योंकि मुसलमान खुदा के अतिरिक्त किसी के सामने सिर नहीं झुकाता। उनको …….. और स्पष्टीकरण देने वालों की भी कमी नहीं। लोग कहते हैं योग धार्मिक नहीं। सूर्य नमस्कार व्यायाम है, धर्म नहीं। ये बेचारे जानते नहीं कि हमारे सब किये जाने वाले काम धर्म ही होते हैं। जिस-जिस बात को हम धर्म मानते हैं, क्या ईसाई और मुसलमान उनको करना छोड़ देंगे या उनको मानना छोड़ देंगे? हम सत्य बोलना धर्म समझते हैं, आप सत्य बोलना-छोड़ना पसन्द करेंगे या झूठ बोलना स्वीकार करना चाहेंगे? हमारे यहाँ कौन-सा भला काम है जिसकी धर्म में गणना नहीं की गई। हमारे यहाँ माता-पिता की, गुरुजनों की, पीड़ितों की, असमर्थों की सेवा और रक्षा करना धर्म है। इनसे पूछो, ये क्या अपने बड़ों को, महापुरुषों को, देवी-देवताओं को, भगवानों को जूते मारने का विधान करेंगे। हमारे यहाँ जीवन की हर क्रिया श्रेष्ठ रूप में की जा सके, अतः धर्म के साथ जोड़ा गया है, फिर तो आपको हमारा धर्म स्वीकार करना पड़ेगा या मृत्यु को अपनाना पड़ेगा। इच्छा आपकी है, आप कौन सा विकल्प स्वीकार करेंगे? अतः यह तर्क कि योग, सूर्य नमस्कार, व्यायाम करना हिन्दू धर्म है, अतः हम ऐसा नहीं करेंगे। हमारे यहाँ जीना धर्म है, तो क्या आप मरोगे। यह सब आपकी अज्ञानता और राजनीतिक धूर्तता है।

सूर्य नमस्कार एक सर्वांगीण व्यायाम है। इससे न केवल शरीर स्वस्थ होता है अपितु मानसिक, बौद्धिक विकास भी होता है। पशु-पक्षी और प्राणी, जो वनों में स्वतन्त्रता से विचरते हैं, उन्हें भोजन और सुरक्षा के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है, अतः पृथक् से व्यायाम की आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य बहुत कम परिश्रम से या बिना परिश्रम के ही भोजन सामग्री और सुविधायें प्राप्त कर लेता है। अतः उसका परिश्रम भी कम हो गया। परिश्रम कम होने से शरीर की क्रियायें प्रभावित होती हैं। इससे मनुष्य का जीवन चक्र प्रभावित होता है। उसका शरीर रोग, दुर्बलतादि से प्रभावित होने लगता है। जैसे व्यय और संचय में सन्तुलन बिगड़ जाये या प्राप्ति अधिक हो जाये तो संग्रह बढ़ता जाता है, उसकी प्रकार मनुष्य बिना श्रम के भोजन करता रहता है तो मनुष्य के शरीर में भोजन का संग्रह होने लगता है। शरीर में चर्बी जमा होने लगती है। अधिक खाने से पाचन तन्त्र पर अधिक भार पड़ने से वह बिगड़ने लगता है, मनुष्य रोगी हो जाता है, उसके अन्दर आलस्य, प्रमाद के कारण शिथिलता आती है। जीवन रोगयुक्त भार बन कर दुःख का कारण बन जाता है। जीवन व्यर्थ लगने लगता है। अतः आज की परिस्थिति में शुद्ध अन्न, जल, हवा की आवश्यकता है, उसी प्रकार व्यायाम के द्वारा शरीर सक्रिय व स्वस्थ रखने की आवश्यकता है।

इस तथ्य को ध्यान में रखकर विद्यालयों-महाविद्यालयों में छात्रों के लिये व्यायाम और खेलों की व्यवस्था की जाती है। ये व्यायाम और खेल बहुत साधन, स्थान और समय माँगते हैं। ये सब उपाय समाज में सबको सुलभ नहीं होते, अतः शरीर को स्वस्थ रखने के लिए ऐसा विकल्प चाहिए जो सबको सदा सभी स्थानों पर सुलभ हो। सूर्य नमस्कार इस प्रकार का व्यायाम है, जो सबके लिए सब स्थानों पर सुलभ है। अन्य व्यायाम जैसे कोई खेल खेलने के लिए मैदान या खेल के स्थान की आवश्यकता होती है। कुश्ती के लिए साथी और अखाड़े की जरूरत होती है। तैरने के लिए तालाब, पानी की आवश्यकता होती है। दण्ड-बैठक करने के लिए एकान्त स्थान या व्यायामशाला की सुविधा अपेक्षित है। घूमने के लिए शुद्ध हवा का लबा-चौड़ा स्थान चाहिए। क्रिकेट, फुटबाल, हॉकी, कबड्डी आदि सभी खेलों की सुविधा सबको प्राप्त नहीं होती। ये सभी व्यायाम शरीर की मांसपेशियों को पुष्ट करते हैं, शरीर को बलवान बनाते हैं परन्तु आन्तरिक भाग पर बहुत प्रभावशाली नहीं होते।

सूर्य नमस्कार इन सब प्रश्नों का एक मात्र समाधान है। व्यायाम करने से शरीर के विशेष अंगों पर प्रभाव पड़ता है, वहाँ सूर्य नमस्कार करने से पाँच संस्थान पर पूरा प्रभाव पड़ता है, आँतें-यकृत-प्लीहा (जिगर, तिल्ली) आदि। इनसे अग्निमान्ध, अजीर्ण, मलावरोध आदि उदर रोग के निवारण में सहायता मिलती है। सूर्य नमस्कार में श्वास-प्रश्वास की विशेष क्रिया होती है जिससे हृदय तथा फेफड़ों का व्यायाम होता है तथा खाँसी, दमा जैसे रोगों में लाभ होता है। इसके अतिरिक्त नाड़ी संस्थान, कमर, रीड की हड्डी का भी व्यायाम सूर्य नमस्कार करने से ठीक हो जाता है। इस प्रकार सभी देशी-विदेशी व्यायामों में सूर्य नमस्कार सबसे श्रेष्ठ व्यायाम है। यह व्यायाम बालक-वृद्ध-युवा-स्त्री सभी वर्ग के व्यक्तियों को करना सभव है। सभी को इससे लाभ प्राप्त होता है। आयु और सामर्थ्य के अनुसार इसे कम अधिक कर सकते हैं। इसे कहीं भी, किसी भी आयु का व्यक्ति प्रारभ कर सकता है और आजीवन इसे करता रह सकता है।

सूर्य नमस्कार में नमस्कार शद का ग्रहण इसलिये किया गया है क्योंकि इस आसन को करते हुए साष्टांग नमस्कार की मुद्रा बनती है। अष्टांग नमस्कार में मस्तक, छाती, दो हाथ, दो घुटने, दो पैर, इनके साथ दृष्टि, वाणी, मन भी इसी क्रिया में लगे होते हैं। इस नमस्कार मुद्रा को सूर्योदय के समय किया जाता है, इसलिये इसे सूर्य नमस्कार कहते हैं। इस आसन को सूर्योदय के समय करने से इस व्यायाम का समय निश्चित होता है तथा सूर्य की रश्मियों का लाभ व्यायामकर्त्ता को मिलता है। आजकल की जीवन पद्धति में नगरों में कार्य करने वाले और भीड़ भरे मकानों में रहने वाले और वातानुकूलित कक्षों में दिन का अधिक समय बिताने वाले लोग सूर्य के प्रकाश से वञ्चित हो जाते हैं। सूर्य के प्रकाश के सेवन के अभाव से चिकित्सकों का मानना है कि मनुष्य के शरीर में विटामिन डी की कमी हो जाती है, अतः प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन सूर्य की धूप का सेवन करना चाहिए। सूर्य नमस्कार करने से उदय होते हुए सूर्य की किरणें सूर्य नमस्कार करने वाले को सहज मिलती हैं। जिससे अतिरिक्त स्वास्थ्य लाभ होता है। भारतीय जीवन शैली में जिन वस्तुओं का मनुष्य उपयोग करता है, उनके प्रति समान प्रकाशन के लिए देवता का भाव दिया जाता है। इसलिये सूर्य को देव कहकर सूर्य के बारह नामों का उपयोग करके बारह बार उसका उच्चारण करते हैं। वेद के सूर्य विषयक मन्त्र के छोटे-छोटे खण्ड कर, उनके प्रारभ में ओम तथा अन्त में नमः जोड़कर मन्त्र बनाया गया है। ऐसा करने से एक कार्य उपासना में बदल जाता है। व्यायाम उपासना बन जाती है। किसी को मन्त्र से चिड़ है तो वह यह व्यायाम बिना मन्त्र के कर सकता है। इसमें आग्रह-दुराग्रह की कोई बात नहीं है।

सूर्य नमस्कार करने की पद्धति है, व्यक्ति को प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व व्यक्ति को हल्के, ढ़ीले कपड़े पहनने चाहिए, खाली पेट, सामान्य दिनचर्या के कार्य करके सूर्य नमस्कार की क्रिया करनी चाहिए। इस सूर्य नमस्कार में पहली स्थिति अवस्थान है, इस पहली मुद्रा में पहली स्थिति बनती है। दूसरी स्थिति जानु आसन, जिसमें सिर घुटनों पर लगता है। तीसरे आसन में दोनों हाथ आगे रखकर दृष्टि ऊपर होती है, इसे ऊर्ध्वेक्षण कहते हैं। चौथी स्थिति में पूरे शरीर का हाथ पैर पर सन्तुलन बनाया जाता है, इसे तुलितवपु आसन कहते हैं। पाँचवी स्थिति साष्टांग दण्डवत् की स्थिति होती है। छठे आसन में हाथों पर सिर ऊपरकर कमर को मोड़कर पीछे की ओर देखने का प्रयत्न होता है। कशेरूका संकोच का आसन है। सातवां आसन हाथ पैर के आधार पर ऊपर उठने से और सामने झुकने से रीढ की हड्डी के जोड़ खुलते हैं।

आठवें आसन के रूप में दोनों हाथों के मध्य पैर को लाकर ऊपर की ओर देखना पुनः ऊर्ध्वेक्षण है। नौवें आसन के रूप में खड़े होकर फिर जानु आसन की स्थिति बनती है। इसमें हथेलियाँ भूमि पर और सिर घुटनों पर होता है। दसवीं स्थिति पुनः हाथ जोड़ कर अंगूठे, हृदय के साथ लगाते हुए नमस्कार की मुद्रा बनती है। इन आसनों का एक चक्र एक सूर्य नमस्कार होता है।

इस प्रकार इन आसनों के करने से गर्दन, छाती, कमर, पैर, पेट, जांघे, पिण्डलियाँ, स्नायु, पाचन तन्त्र, पीठ, गला, गर्दन, यकृत, तिल्ली, फेफड़े, पृष्ठवंश, आदि मजबूत होते हैं। सूर्य नमस्कार करने से इच्छा शक्ति दृढ़ होती है, मनोबल बढ़ता है। दृष्टि शक्ति बढ़ती है। मन्त्रपाठ से वाणी की शक्ति बढ़ती है। इस प्रकार सूर्य नमस्कार एक सर्वांगीण व्यायाम है। सूर्य नमस्कार श्वास-प्रश्वास के साथ किया जाता है, इस तरह व्यायाम के साथ इसमें प्राणायाम की क्रिया भी होती है। पहले आसन में श्वास के अन्दर लेने से पूरक, दूसरे में रोककर रखने से कुभक होता है। तीसरे आसन में पूरक, कुभक तथा चौथे आसन में कुभक, फिर पाँचवें आसन में कुभक और रेचक प्राणायाम होता है। छठे आसन में फिर पूरक कुभक, सातवें में कुभक, आठवें में कुभक, नवम में कुभक के साथ एक किया जाता है। इस प्रकार पूरे सूर्य नमस्कार आसनों के साथ प्राणायाम की क्रिया जुड़ी होने से इसका लाभ अनेक गुणा बढ़ जाता है। सूर्य नमस्कार से जितना लाभ होता है, उतना लाभ किसी अन्य व्यायाम से नहीं होता।

भारतीय परपरा में एक अद्भुत विशेषता है, सामान्य से लगने वाले कामों से महत्त्वपूर्ण बातों का स्मरण करना तथा बड़े-बड़े लाभ के कामों को सिद्ध करना। इसलिये सूर्य नमस्कार में आसनों को सूर्य से जोड़ा है, सूर्य संसार का सबसे प्रथम और विशाल ऊर्जा का समुद्र है। मानव एवं प्राणी जगत् वनस्पतियों से ऊर्जा प्राप्त करता है और आज का वैज्ञानिक जानता है, सभी वनस्पति जगत् सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करता है। सभी प्राणी वनस्पतियों को खाकर ऊर्जावान् बनते हैं। अतः मनुष्यों को भी सूर्य से ऊर्जा लेनी चाहिए। इसी उद्देश्य से सूर्य की रचना की गई है। वैदिक साहित्य में सूर्य को औषधियों का राजा कहा गया है। विदेशी लोगों को सूर्य का पर्याप्त प्रकाश नहीं मिलता, वे सूर्य स्नान की योजना करते हैं। सूर्य का प्रकाश न मिलने से वनस्पतियाँ पीली पड़कर नष्ट हो जाती है। मनुष्य भी सूर्य के प्रकाश के अभाव में निस्तेज होता है। सूर्य के प्रकाश और गर्मी के न मिलने से मनुष्य के शरीर से पसीना नहीं निकलता, शरीर के छिद्र न खुलने से शरीर को पर्याप्त प्राण वायु नहीं मिल सकता। इसलिए मनुष्य को अपने दैनिक जीवन में सूर्य के प्रकाश का सेवन करना चाहिए तथा व्यायाम करके शरीर की त्वचा को प्राणवायु प्राप्त करने में सक्षम बनाना चाहिए। जो पशु, गाय आदि सूर्य के प्रकाश में विचरण करते हैं, घास खाते हैं, उनके शरीर में सूर्य-किरणों के प्रभाव से उनके दूध में स्वर्ण का प्रभाव उत्पन्न होता है। मनुष्यों को भी प्रातः-सायं खुले शरीर से सूर्य के प्रकाश में भ्रमण करना चाहिए। सूर्य से लाभ प्राप्त करने के लिये ये पद्धति बनाई गई है, उसमें मूर्ति पूजा या जड़ पूजा की भावना करना नितान्त अज्ञान है। इस व्यायाम से स्वास्थ्य की वृद्धि होती है, रोगों का निवारण होता है और सब व्यायामों में बहुत धन व्यय होता है परन्तु सूर्य नमस्कार एक ऐसा व्यायाम है जिसमें एक पैसा भी खर्च नहीं होता। इसे धनी-निर्धन सभी स्वेच्छा पूर्वक कर सकते हैं। सूर्य नमस्कार करने वाला कभी रोगी नहीं हो सकता, जिन लोगों ने सूर्य नमस्कार का अयास किया है, उन लोगों का अनुभव है, इसके करने से पीठ और कमर के दर्द से छुटकारा मिलता है। पेट के कष्ट नहीं होते, महिलाओं को भी उनके रोगों में अत्यन्त लाभ मिलता है। बालक इस व्यायाम को करते हैं तो उनके बल, बुद्धि के साथ, उनके शरीर की लबाई भी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती देखी गई है। सूर्य नमस्कार का विरोध धार्मिक स्तर पर अज्ञानमूलक है और राजनीतिक स्तर पर एक धूर्तता पूर्ण कार्य है। इसके विरोध से राष्ट्र की स्वास्थ्य रूपी सपत्ति का नाश होगा, अतः इसे बिलकुल मान्यता नहीं देनी चाहिए। शरीर के स्वस्थ रखने का मूलमन्त्र है- भोजन, विश्राम और संयम अर्थात् उचित मात्रा में सात्विक भोजन समय पर करना, यथा समय  सोना, जागना और व्यायाम, संयम करना। अतः आचार्य चरक ने ठीक ही कहा है-

आहारो निद्रा ब्रह्मचर्यम् त्रय उपस्तभा शरीरस्य।

– धर्मवीर