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स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर

 

वेद जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखने का सन्देश देता है। इस मन्त्र में महिला के द्वारा कहा जा रहा है। प्रतिदिन सूर्योदय के साथ ही प्राणियों का भाग्योदय होता है। प्रत्येक सूर्योदय नये जीवन का सन्देश लेकर आता है। मनुष्य को अपने जीवन से निराशा को समाप्त करना चाहिए। निराशा असफलता को स्वीकार करने का दूसरा नाम है। मनुष्य के सभी मनोरथ पूर्ण नहीं हो पाते। मनुष्य को असफलता मिलती है तो निराश होने की सभावना होती है, किन्तु यदि दूसरा-तीसरा अवसर उसके सामने होता है तो वह निराशा की ओर न जाकर फिर से प्रयत्न करने के लिये तैयार हो जाता है। वेद कहता है- मनुष्य को कितनी भी बार असफलता क्यों न मिले, हर नया दिन एक नई सफलता का अवसर लेकर आता है, इसीलिये मन्त्र में ऋषिवर ने कहा है- यह सूर्योदय मात्र सूर्योदय नहीं है, यह मेरे सौभाग्य का उदय है। प्रतिदिन सूर्योदय के साथ मनुष्य को निराशा छोड़कर नये उत्साह और विश्वास के साथ नये दिन का प्रारभ करना चाहिए।

एक महिला की सफलता उसके साथ जीवन बिताने वाले की योग्यता से जुड़ी होती है। मन्त्र कहता है- अहं तद् विद्वला– मैंने वर को प्राप्त कर लिया है। संस्कृत भाषा के शदों में अद्भुत शक्ति है- अर्थ को अपने अन्दर समाने की। होने वाले पति की विवाह संस्कार के समय वर संज्ञा होती है। वर शब्द  का मूल अर्थ चुना गया होता है। वर का एक अर्थ श्रेष्ठ भी होता है, व्यक्ति जब बहुतों में से चुनाव करता है, तो वह श्रेष्ठ का ही चुनाव करता है, इसी कारण विवाह के समय विवाह कर रहे युवक की संज्ञा वर होती है। जब विवाह में युवक को वर कहते हैं, तो उसी समय युवती की संज्ञा वधू होती है। वधू शब्द  का अर्थ है- इसे जीवन के लक्ष्य तक पहुँचाना है अथवा जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के साथ लेना है, जिसके साथ रखने का उत्तरदायित्व वर स्वीकार करता है। वधू को साथ रखने का जिसमें सामर्थ्य है, ऐसा चुने गये व्यक्ति की संज्ञा वर है। इससे भी रहस्य की बात है, वर शब्द  बताता है कि उसे किसी ने अपने लिए चुना है, स्वीकार किया है, अतः चुनने का अधिकार वर का नहीं, वधू का है। वर तो वधू का चयन स्वीकार करता है। चुनाव की प्रक्रिया को स्वयंवर कहते हैं। स्वयंवर में वर तो युवक है, परन्तु चुनने का अधिकार युवती का है, उस चुनाव से सहमत होना, न होना, युवक की स्वतन्त्रता है। जब अनेक युवक एक युवती को प्राप्त करने में इच्छुक होते हैं, तो चयन का अधिकार युवती का होता है। भारतीय इतिहास में अनेकशः स्वयंवर के उदाहरण मिलते हैं, द्रौपदी स्वयंवर है, सीता स्वयंवर है। कालिदास के प्रसिद्ध महाकाव्य में अज- इन्दुमति स्वयंवर का चित्रण बड़ा रोचक है। स्वयंवर के समय देश के विभिन्न भागों से इन्दुमति से विवाह करने के इच्छुक राजकुमार स्वयंवर स्थल पर उपस्थित होते हैं। स्वयंवर के समय इन्दुमति की दासी सुनन्दा राजकुमारी इन्दुमति के साथ चलती है और प्रत्येक राजकुमार के सामने खड़ी होकर, राजकुमार के गुण, वैभव, विद्या, वीर्य, पराक्रम का वर्णन करती है। राजकुमारी इन्दुमति द्वारा अस्वीकृत करने पर वह अगले राजकुमार के सामने पहुँच जाती है। इस चित्रण को कालिदास ने अपने काव्य में बहुत सुन्दर ढंग से बाँधा है। वे कहते हैं-

संचारिणी दीपशिखेव रार्त्रो ये ये व्यतीयाय पतिंवरासा

नरेन्द्र मार्गट्ट इव प्रपेदे विवर्ण भावं स स भूमिपालः।।

अर्थात् जब इन्दुमति राजकुमारों के समुख वरमाला लेकर उपस्थित होती थी, तब राजकुमार का मुख कान्ति से दैदीप्यमान हो जाता था, जैसे चलते हुए दीपक के किसी महल के समुख आने पर भवन की भव्यता प्रकाशित होती है, परन्तु जब राजकुमारी राजकुमार के सामने से बिना वरण किये आगे बढ़ जाती थी तो उस राजकुमार की कान्ति वैसी मलिन पड़ जाती थी, जैसे दीपक के भवन के सामने से निकल जाने पर, कितना भी विशाल भवन हो- अन्धकार में विलुप्त हो जाता है।

इस प्रकार महिला के अधिकारों पर एक सहज विचार इन शदों में प्रतिबिबित होता है। आज महिला के अधिकार और कर्त्तव्य का निश्चय पुरुष करना चाहता है, तब हमें वेद के इस सन्देश पर ध्यान देना चाहिये।

वेद प्रत्येक मनुष्य को ज्ञान का अधिकार देता है। ज्ञान प्राप्त करके ही मनुष्य अपने हित-अहित का विचार कर सकता है। यदि महिला शिक्षित नहीं होगी, तो निर्णय और विचार कैसे कर सकेगी? इन मन्त्रों में अपने अधिकार, अपने कर्त्तव्य, अपनी योग्यता के कारण जो आत्मविश्वास व्यक्ति के अन्दर आता है, उसका स्पष्ट पता चलता है। अतः तद् विद्वला पतिम् अर्थात् मैंने अपने योग्य पति को प्राप्त कर लिया है, यह कथन उचित ही है।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता: डॉ. धर्मवीर जी

उदसौ सूर्यों अगादुदयं मामको भगः।

अहं तद्विद्वला पतिमयसाक्षि विषासहिः।।

– ऋक्. 10/159/1

वैदिक धर्म और संस्कृतिश्रेष्ठतम विचार है। वैदिक धर्म और संस्कृति के सबन्ध में विचार करते हुए, यदि हम एक बात का स्मरण रखें तो हमारे चिन्तन में दोष आने की सभावना समाप्त हो जाती है। वैदिक धर्म का मूलवेद है। वेद में सिद्धान्त प्रतिपादित है और जानने-मानने वाले को, उस विचार को व्यवहार में लाना होता है, उसपर आचरण करना होता है। हम कितना भी अच्छा क्यों न सोचते हों, हमारी अल्पशक्ति, अल्पबुद्धि कुछ-न-कुछ अनुचित कर बैठती है। यदि मनुष्य के पास पूर्ण ज्ञान और सामर्थ्य होता तो संसार में न तो ईश्वर की आवश्यकता होती और न ही संसार की। मनुष्य की अल्पज्ञता ही संसार और ईश्वर की आवश्यकता की प्रतिपादक है। अल्प और सर्व एक सापेक्ष शद हैं, एक शद के अभाव में दूसरे शद की कोई उपयोगिता नहीं बचती। मनुष्य अल्पज्ञ है, अतः सिद्ध है कि कोई सर्वज्ञ है। इसी प्रकार यदि कोई सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान सर्वत्र है, तो वह एक ही होगा। इसमें विकल्प की कल्पना ही अनेकत्व का कारण बनेगी। ज्ञान का प्रवाह अधिक से कम की ओर होगा, अतः सर्वज्ञ परमेश्वर से अल्पज्ञ मनुष्य की ओर ज्ञान की गति स्वाभाविक है।

इस प्रकार ईश्वर एक है, सबको ज्ञान, सामर्थ्य, ऐश्वर्य का देने वाला है, तो उसके ज्ञान के देने में अन्याय या पक्षपात की बात कैसे सभव है। संसार में मनुष्यों को, प्राणियों को देखकर हमें ऐसा लगता है, जैसे परमेश्वर सबको अलग-अलग देकर अन्याय कर रहा है, परन्तु हम भूल जाते हैं कि देने वाला एक है, उसका देने का प्रकार भी एक ही होगा, अन्तर तो भिन्नता की ओर से होता है, प्राप्त करने वाले मनुष्य पृथक् हैं, अतः देने वाले के दृष्टि में सब एक हैं, परन्तु लेने वाले भिन्न और अनेक हैं, अतः ग्रहण करने के सामर्थ्य में भिन्नता दिखती है।

इतना मान लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि परमेश्वर द्वारा सबके साथ समान व्यवहार ही हो रहा है, फिर चाहे स्त्री हो, पुरुष हो या कुछ और भी हो, जैसे ईश्वर की सत्ता सर्वत्र है, उसका अनुाव जड़ को तो नहीं होता, चेतन को होता है, उसी प्रकार एक चेतन उसकी सत्ता को अपने ज्ञान और योग्यता के अनुसार ही देख पाता है, अनुभव कर सकता है, दूसरा ज्ञान के अभाव से ऐसा करने में समर्थ नहीं हो पाता। यह अन्तर संसार में देखने में आता है, संसार का सारा व्यापार  व्यक्तिपरक है, परमेश्वर सबको यथावत जानता है, अतः सबको उचित ज्ञान और सामर्थ्य देता है। आज इस मनुष्य संसार में स्त्री-पुरुष को लेकर जो जैसा व्यवहार दिखाई दे रहा है, वह सारा मनुष्य बुद्धि का परिणाम है। परमेश्वर सभी मनुष्यों का कल्याण चाहता है। और उनका उपकार करता है। जिस प्रकार एक माता-पिता अपने पुत्र और पुत्री का समान हित चाहते हैं। उसी प्रकार स्त्री पुरुष भी परमेश्वर की पुत्र-पुत्रियाँ हैं वह उनमें भेद और पक्षपात कैसे कर सकता है?

इस सूक्त के मन्त्रों से इस बात को भली प्रकार समझा जा सकता है। यह सूक्त शची पौलीमी कहलाता है, इसका देवता भी यही है, इसका ऋषि भी यही है। यदि कहने वाला किसी बात को कहता है तो कहने वाले को हम ऋषि कहते हैं और कही जाने वाली बात को देवता । ऋषि कभी स्वयं ईश्वर है कभी उसके ज्ञान का कोई प्रवक्ता। ये शद ईश्वर और उसके ज्ञान से सबन्ध रखते हैं अतः यदि मनुष्य के साथ इनको जोड़कर देोंगे तो अर्थ की संगति नहीं लग पायेगी अतः शद को उसके अर्थ की ओर इंगित करने देते हैं तो हमें अर्थ सरलता से समझ में आ जाता है तथा उसक ी संगति भी ठीक लग जाती है। इस सूक्त में एक स्त्री का व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए इस बात को समझाया गया है। इस विवरण को व्यक्ति विशेष का वक्तव्य न मानकर स्त्री सामन्य का वक्तव्य मानना उचित होगा। इस विचार से मन्त्र में बताया गया विचार समाज की सभी स्त्रियों का होगा।

वेद उत्साह और आशा की प्रेरणा देता है। वेद में निराशा, पराजय, उदासी की बात नहीं है, यही बात इस सूक्त के मन्त्रों में भी दिखाई देती है। मन्त्र में कहा गया उदसौ सूर्यो अगात् मनुष्य का उत्साह सूर्य के उदय के साथ आगे बढ़ता है, प्रकृति का वातावरण मनुष्य के लिये उत्साह और आनन्द प्राप्त कराता है। प्रत्येक मनुष्य संसार में अपनी भूमिका में स्वयं सुख का अनुभव करता है। और अपने साथ वालों को भी आनन्दित करता है।

स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर जी

 

देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायं प्रातः सौयसो वोस्त।

संज्ञान सूक्त के अन्तिम मन्त्र की दूसरी पंक्ति में दो बातों पर बल दिया गया है। एक में कहा है कि परिवार में प्रेम का वातावरण सदा ही रहना चाहिए। यहाँ दो पद पढ़े गये हैं, सायं प्रातः, अर्थात् हमारे परिवारिक वातावरण में प्रेम का प्रवाह प्रातः से सायं तक और सायं से प्रातः तक प्रवाहित होते रहना चाहिए। यह प्रेम सौमनस्य से प्रकाशित होता है। हमारे मन में सद्भाव का प्रवाह होगा, सद्विचारों की गति होगी तो सौमनस्य का भाव बनेगा। प्रेम के लिये शारीरिक पुरुषार्थ तो होता ही है। जब हम किसी की सहायता करते हैं, सेवा करते हैं, छोटों से स्नेह और बड़ों का आदर करते हैं, तब हमारे परिवार में सौमनस्य का स्वरूप दिखाई पड़ता है।

हम यदि सोचते हैं कि प्रेम हमारे परिवार के सदस्यों में स्वतः बना रहेगा, कोई हमारा भाई है, बेटा है, पिता या पुत्र है, इतने मात्र से परस्पर प्रेम उत्पन्न हो जायेगा, यह अनिवार्य नहीं है। हम पारिवारिक सबन्धों में प्रेम की सहज कल्पना करते हैं, परन्तु परिवार का प्राकृतिक सबन्ध प्रेम उत्पन्न करने की सहज परिस्थिति है। इसमें प्रेम के अंकुर निकलते हैं, जिन्हें विकसित किया जा सकता है।

प्रेम का अंकुरण विचारों से होता है, मनुष्य अपनी सेवा सहायता चाहता है, अपना आदर, समान चाहता है, अपनी प्रशंसा की इच्छा करता है। यह विचार हमें सुख देता है, कोई व्यक्ति दृष्टि सेवा सहायता करता है, समान देता है। ऐसे सुख की कामना सभी में होती है, अतः जो भी किसी के प्रति ऐसा करने का भाव रखेगा, उसके मन में इसी प्रकार आदर के भाव उत्पन्न होंगे। आप किसी का आदर करते हैं, दूसरा व्यक्ति भी आपका आदर करता है। आप किसी की सहायता करते हैं, दूसरे व्यक्ति के मन में भी आपके प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है। आवश्यकता पड़ने पर वह भी आपकी सेवा के लिये तत्पर रहता है।

मनुष्य के मन में स्वार्थ की पूर्ति की इच्छा स्वाभाविक होती है। स्वार्थ पूर्ण करने के लिये उपदेश करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। परोपकार, धर्म, सेवा, आदर आदि में कार्य बुद्धिपूर्वक सोच-विचार कर ही किये जा सकते हैं, अतः ये विचार हमारे हृदय में सदा बने रहें, इसका प्रयत्न करना पड़ता है। इसी के उपाय के रूप में कहा गया है कि हमें सौमनस्य की निरन्तर रक्षा करनी होती है, तभी सौमनस्य सपूर्ण समय बना रह सकता है।

सौमनस्य बनाना पड़ता है, उसके लिये बहुत सावधानी सतर्कता की आवश्यकता होती है। मनुष्य में स्वार्थ की वृत्तियाँ सदा सक्रिय रहती हैं। उनपर नियन्त्रण रखने के लिये सदा सजग रहने की आवश्यकता है। इसके लिये वेद में उदाहरण दिया गया है, जैसे देवता लोग अमृत की रक्षा में तत्पर रहते हैं, वैसे मनुष्य को भी अपने वातावरण में सदाव सौमनस्य की रक्षा करने के लिये तत्पर रहना चाहिए। पुराणों में कथा आती है- देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया और सोलह पदार्थ प्राप्त किये। जब समुद्र से अमृत निकला तो देवताओं ने उस पर अपना अधिकार कर लिया। इस बात का जैसे ही असुरों को ज्ञान हुआ, वे अमृत प्राप्त करने के लिये देवताओं से संघर्ष करने लगे। जहाँ-जहाँ इस संघर्ष के कारण अमृत के बिन्दु गिरे, वहाँ-वहाँ अच्छी-अच्छी चीजें बनीं, उत्पन्न हुईं उन पदार्थों में कोई न्यूनता है तो असुरों के स्पर्श के कारण, जैसे लशुन की अमृत से उत्पत्ति मानी गई है, परन्तु इसमें दुर्गन्ध का कारण इससे असुरों का स्पर्श कहा गया है।

प्रकृति में देवता निरन्तर नियमपूर्वक कार्य करते हैं, तभी संसार नियमित रूप से चल रहा है। यदि एक क्षण के लिये भी देवता अपना काम छोड़ दें तो संसार में प्रलय उत्पन्न हो जायेगी। हम सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, वायु आदि को देखकर इस बात का निश्चय भली प्रकार कर सकते हैं। इसी कारण व्रत धारण करते समय देवताओं के व्रत धारण को उदाहरण के रूप में स्मरण किया जाता है, ‘अग्ने व्रतपते’ हे अग्नि! तू व्रत पति है तेरा व्रत भी नहीं टूटता मैं भी तेरे समान व्रत पति बनूँ कहा गया है।

देवताओं का एक नाम अनिमेष है। वे कभी पलक भी नहीं झपकाते, सदा सतर्क, सावधान रहते हैं। वैसे भी परिवार समाज में सौमस्य बनाये रखने के लिये मनुष्य को सदा सावधान रहना चाहिए, सौमनस्य बना रह सकता है। देवताओं का देवत्व अमृत से ही है, अमृत नहीं है तो उनका देवत्व ही समाप्त हो जाता है। और अमरता है- व्रत न टूटना। व्रत टूटते ही मृत्यु है…….. हमें देवताओं के समान अपने सदविचारों की सदा रक्षा करनी चाहिये, तभी सौमनस्य की प्राप्ति सभव है।

स्तुता मया वरदा वेदमाता : डॉ धर्मवीर

सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोयेकश्नुष्टीन्त्संवनेन सर्वान्।

एक परिवार एक साथ सुखपूर्वक कैसे रह सकता है, यह इस सूक्त का केन्द्रीय विचार है। सामनस्य सूक्त का यह अन्तिम मन्त्र है। इस मन्त्र में परिवार को एक साथ सौमनस्यपूर्वक रहने के लिये उसको धार्मिक होने की प्रेरणा दी गई है। मन्त्र में एक शद है ‘सध्रीचीनान्’। परिवार के जो लोग एक साथ रह रहे हैं, वे ‘संमनसः’ समान मत वाले होने चाहिएँ। समान मन एक दूसरे के लिये अनुकूल सोचने वाले होते हैं। परस्पर हित की कामना करते हैं, तभी समान बनते हैं। वेद कहता है- समान हित सोचने के लिये ‘एकश्नुष्टीन्’- एक धर्म कार्य में प्रवृत्त होने वाला होना चाहिए। जो धार्मिक नहीं है, वे शान्त मन वाले, परोपकार की भावना वाले नहीं हो सकते। परिवार को सुखी और साथ रखने के लिये परिवार के सदस्यों का धार्मिक होना आवश्यक है। परिवार के सदस्य धार्मिक हैं, तो उनमें शान्ति और सहनशीलता का गुण होगा। धार्मिक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से उदार और सहनशील होता है।

आज समाज में जहाँ भी संघर्ष है, पारिवारिक विघटन है, वहाँ सहनशीलता का अभाव देखने में आता है। हम क्रोध करने को, विरोध करने को, असहमति को अपना सामर्थ्य मान बैठे हैं, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि जिस मनुष्य को जितनी शीघ्रता से क्रोध आता है, प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, वह उतना ही दुर्बल होता है। सामर्थ्यवान व्यक्ति का सहज गुण क्रोध न आना है, जिसे क्रोध नहीं आता, वही सहनशील होता है। परिवार के सदस्य धार्मिक होते हैं तो वे सहनशील और उदार होते हैं। परिवार के बड़े सदस्यों में उदारता तथा छोटे सदस्यों में नम्रता और बड़ों के प्रति आदर का भाव होता है। ये गुण धर्म की कसौटी है। परिवार में धार्मिकता होने से ईश्वर-भक्ति का भाव सभी सदस्यों में रहता है। अच्छे कार्यों में मन लगने से बुरे कार्यों और स्वार्थ भावना से मनुष्य दूर रहता है।

धार्मिक होना मनुष्य के लिये आवश्यक है, अधार्मिक व्यक्ति में स्वार्थ और अन्याय का भाव आता है। परिवार के किसी भी सदस्य में स्वार्थ का भाव उत्पन्न हो जाता है तो मनुष्य अन्याय करने में संकोच नहीं करता। एक गाँव में दो भाई एक साथ रहते थे। परिवार में सामञ्जस्य था, अच्छी प्रगति हो रही थी। दोनों भाई दुकान में बैठे थे। बच्चे बाहर से खेलते हुए आये। बड़े भाई के पास आम रख थे, बड़े भाई ने बच्चों में आम बाँट दिये। बच्चे आम लेकर खेलने चले गये। दो दिन बाद छोटे भाई ने बड़े भाई को प्रस्ताव दिया- भाई अब हमें अपना व्यवसाय, घर बाँट लेना चाहिए। बड़े भाई ने पूछा- तुहारे मन में ऐसा विचार क्यों आया, तो छोटे भाई ने बड़े भाई से कहा- भैया जब परसों बच्चे दुकान पर आये, आपने बच्चों को आम बाँटे, परन्तु आपने अपने बेटे को क्रम तोड़कर आम का बड़ा फल दिया, तभी मैंने निर्णय कर लिया था कि अब हमें अलग हो जाना चाहिए। बड़ा भाई कुछ नहीं बोल सका और दोनों भाई अलग हो गये।

इस प्रकार धर्म उचित व्यवहार का नाम है। जो लोग धर्म को अनावश्यक या वैकल्पिक समझते हैं, उन्हें जानने की आवश्यकता है कि धर्म विकल्प नहीं, जीवन का अनिवार्य अंग है।

मनुष्य को स्वार्थ, अन्याय से दूर रहने के लिये धार्मिक होना चाहिए। धार्मिक व्यक्ति परोपकार करने में प्रवृत्त होता है। जिस परिवार के सदस्य धार्मिक आचरण और परोपकार की भावना वाले होते हैं, वही परिवार सुखी और संगठित रह सकता है।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता-21

सपञ्चोऽग्नि सपर्यत

प्रसंग है परिवार को एक सूत्र में बांधकर रखने के क्या उपाय हैं। मन्त्र कहता है- परिवार के लोग कहीं तो मिलकर बैठे। मिलकर बैठने का एक मात्र स्थान है- यज्ञ वेदि। यज्ञ जब भी करेंगे तब मिलकर बैठेंगे। यज्ञ करते हुए दोनों लोग परस्पर मिलकर कार्य सपादित करते हैं। इस समय ऋत्विज यज्ञ कराने वाले तथा यजमान यज्ञ करने वाले दोनों एक मत होकर यज्ञ करते हैं। ऋत्विज् यजमान का मार्गदर्शन करते हैं और यजमान ऋत्विज् के निर्देशों का पालन करते हैं। मन्त्र में निर्देश है। परिवार के लोग अग्नि की उपासना करो और कैसे करने चाहिये तो कहा गया – सयञ्च अर्थात् भलीप्रकार मिलकर सब लोग अग्नि की उपासना करें।

यज्ञ का स्थान विद्वानों का, बड़ों के निर्देश का पालन प्राप्त करने का स्थान है, यज्ञ की सफलता यज्ञ को श्रद्धापूर्वक सपन्न करने में है। यजमान आदरपूर्वक निर्देशों का पालन करते हुए यज्ञ सपादित करते हैं। जिस परिवार में प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक यज्ञ किया जाता है, वहाँ परस्पर प्रेमभाव बना रहता है। बड़ों व विद्वानों के प्रति आदर का भाव रहता है। यज्ञ करने से मनुष्य में उदारता का भाव उत्पन्न होता है। यज्ञ में मनुष्य देने का दान करने का सहयोग करने का भाव रखता है। यज्ञ से मन की संकीर्णता और स्वार्थ की वृत्ति समाप्त होती है। मनुष्य जब यज्ञ करने का विचार करता है, उसी समय उसके अन्दर सात्विक भाव उत्पन्न होते हैं। सात्विक विचारों का लक्षण यही बताया गया है। मनुष्य दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, परोपकार करना आदि विचार करता है, उस समय उसके मन में सतोगुण का उदय होता है। यज्ञ करने से मनुष्य की सात्विक वृत्ति का विस्तार होता है। यज्ञ से मन का विस्तार होता है। विस्तार खुलेपन का प्रतिक है। बन्धन है परोपकार मुक्ति है।

इसीलिये यज्ञ की भावना से कार्य करने का निर्देश किया है, श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं- इस संसार में यज्ञ भावना से रहित होकर कोई व्यक्ति बन्धन से  मुक्ति नहीं हो सकता। इसलिये मनुष्य को कोई भी कार्य यज्ञ भावना से युक्त होकर करना चाहिए। यज्ञ में समर्पण है, साथ है, साथ से संग को लाभ मिलता है तथा संवाद का अवसर भी प्राप्त होता है। समर्पण भी होता है, यही भाव परिवार में सब को एक साथ रखने के लिये आवश्यक है, उपयोगी है। मन्त्र कहता है- परिवार के लोग मिलकर यज्ञ करें, आदरपूर्वक यज्ञीय भावना से करें, इससे परिवार के सदस्यों के मन पवित्र और आदर की भावना से युक्त होते हैं। इसका परिणाम सब  परस्पर जुड़े रहते हैं।

मन्त्र का अन्तिम वाक्य है- आरा नाभिभिवामितः। जैसे यज्ञ करने वाले यज्ञ रूप नाभि से सभी बन्धे रहते हैं, उसी प्रकार परिवार के सदस्य भी केन्द्र से जुड़े रहते हैं। मन्त्र में उपमा दी गई है। जिस प्रकार गाड़ी आरे अक्ष से जुड़े रहते हैं और अपना-अपना कार्य करते हुए केन्द्र से बंधे रहते हैं। उसी प्रकार परिवार के सदस्यों का भी एक केन्द्र होना चाहिए, जिससे सभी सदस्य जुड़े रहें। जहाँ एक व्यक्ति के निर्देशन में परिवार चलता है, वहाँ सभी कार्य व्यवस्थित होते हैं, सभी एक दूसरे का ध्यान रखते हैं। जहाँ यज्ञीय भावना नहीं होती, वहां सब अपने-अपने बारे में ही सोचते हैं, वहां स्वार्थ बुद्धि होती है। स्वार्थ से मन में द्वेष भाव और अन्याय उत्पन्न होता है। अतः मन्त्र में दो बातों को एक साथ बताया है, घर में यज्ञ होना चाहिए, सभी लोग मिलकर श्रद्धा से यज्ञ करेंगे तो परिवार के लोग परस्पर आरे की भांति केन्द्र से जुडेंगे, बड़ों से सबन्ध बनाकर रखेंगे तभी परिवार एक होकर रह सकता है, परिवार में सुख, शान्ति बनी रह सकती है।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-20 समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि।।

घर में सदस्यों के मध्य सौमनस्य कैसे बना रहे, इसके उपाय इस मन्त्र में बताये गये हैं, उनमें प्रथम है- सदस्यों का खानपान समान हो। भोजन आच्छादन के पश्चात् व्यवहार में आने वाले साधन और किये जाने वाले कार्य भी समान हों। इस मन्त्र में एक महत्त्वपूर्ण बात कही गई है, हमारे परिवार में सामान्य रूप से जिस प्रकार के कार्य होते हैं, उन्हें सपन्न करने के लिए उसी प्रकार के साधन भी अपनाये जाते हैं। आजकल साधन केवल सपन्नता के प्रतीक बनकर रह गये है। आपके घर में कैसे साधन हैं। वे कितने नये, कितने मूल्यवान हैं, यही बात महत्त्वपूर्ण हो गई है।

साधन आवश्यक तो हैं, साधनों की उपस्थिति मनुष्य को सपन्न बनाती है। साधन साध्य के लिये होते हैं। साध्य को सिद्ध करने के काम आते हैं। यदि ये साधन साध्य को सिद्ध करने में समर्थ नहीं हैं तो साधन व्यर्थ का बोझ बन जाते हैं। साधनों की जहाँ तक आवश्यकता होती है, उनका वहीं तक संग्रह उचित है परन्तु अधिक साधन मनुष्य को अपना सेवक बना लेते हैं। साधनों को संग्रह करने के लिये धन का संग्रह करना पड़ता है। यथाकथंचित् उतना धन संग्रह में लग जाता है। फिर उस संग्रह का उपयोग होने या न होने की दशा में उनके रख रखाव पर धन और समय का अपव्यय करना पड़ता है। हमारे जीवन में साध्य छूट जाता है। साधन ही साध्य का स्थान ले लेते हैं। कभी हमारे इन घर, वाहन, वस्त्र, आभूषण या धन आदि की जीवन को चलाने के लिये आवश्यकता होती है परन्तु जब साधन साध्य का स्थान लेने लगते हैं तो हमारी साधना व्यर्थ हो जाती है। हमारा साधनों के प्रति प्रेम इतना बढ़ जाता है कि हम इन वस्तुओं की सेवा में ही पूरा जीवन और सामर्थ्य समाप्त कर देते हैं, वेद कहता है- साधन आपके लिये हैं, आप साधनों के लिये नहीं। अतः मनुष्य को साधनों के आधीन नहीं होना चाहिए।

हमारे देश में साधन सपन्न दो ही वर्ण होते हैं- प्रथम क्षत्रिय और दूसरा वैश्य तथा आश्रम परपरा में तो केवल एक ही आश्रम साधनों की सपन्नता रखता है, शेष तीन तो इसी एक आश्रम पर नर्िार रहते हैं और इस परिस्थिति को ही आदर्श माना गया है। चार आश्रमों में केवल एक गृहस्थ को ही सपन्नता का अधिकार दिया गया है। शेष ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी व संन्यासी तीनों ही गृहस्थ पर सर्वथा निर्भर करते हैं। तो क्या शेष तीन आश्रमों के पास साधन नहीं होने चाहिएं। साधन तो चाहिए परन्तु इनके उपार्जन का सामर्थ्य उनके आश्रमवस्था में सिद्ध करने वाले प्रयोजनों को व्यर्थ कर देंगे। विद्यार्थी के पास न साधन हैं, न आवश्यकता है, उनकी चिन्ता तो माता-पिता को भी नहीं करनी। ब्रह्मचारियों की चिन्ता करना समाज और राज्य का विषय है। वानप्रस्थी और संन्यासी को साधनों की आवश्यकता अत्यन्त न्यून हो जाती है, उनका भार समाज पर है। इस प्रकार साधन सपन्न रहकर सभी आश्रमों की सेवा करना एक गृहाश्रमी का दायित्व है।

इसी प्रकार वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को साधनों के संग्रह का निर्देश नहीं  है, उसे अपना जीवन ज्ञान की खोज, संग्रह और उसके प्रचार-प्रसार में लगाना है, यदि इसमें साधनों की आवश्यकता पड़े तो उसका उत्तरदायित्व समाज और राज्य का है। यहाँ ध्यान रखने की बात है, ये लोग साधन जुटाने का सामर्थ्य नहीं रखते, ऐसा नहीं है। परन्तु साधनों के उपार्जन करने में समय, धन और परिश्रम लगता है, यह सब ज्ञान की तुलना में तुच्छ है, अतः मुय विषय पर समय लगाने की बात शास्त्र करता है। शूद्र के पास सामर्थ्य का अभाव है, अतः उसे किसी प्रकार बाध्य नहीं किया गया।

मन्त्र में साधन को साध्य के लिये लगाने की बात कही है। हमारे पास हमारे जीवन के प्रयोजन को सिद्ध करने योग्य साधन होने चाहिये और साधनों को पूरा उपयोग धर्मार्थ की सिद्धि के लिये किया जाना उचित होगा तभी परिवार में विरोध का भाव उत्पन्न नहीं होगा। मनुष्य के आराम, विलास, आलस्य, प्रमाद की स्थिति में साधन अपव्यय और संघर्ष का कारण बनते हैं। अतः कहा है- समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि तुहें समान साधन देकर सत्कर्मो में लगाता हूँ।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-17 समानी प्रपा सह वोऽन्नभागः समानेयोक्त्रे सह वो युनज्मि। सयञ्चोऽग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभितः।।

वेद में, परिवार में सुख से रहने और अन्य सदस्यों को सुखी रखने का उपाय बताया है, इस मन्त्र में बहुत सारी छोटी-छोटी प्रतिदिन उपयोग में आने वाली बातों की चर्चा है। मन्त्र के प्रथम भाग में परिवार के अन्दर खानपान कैसा हो, इसकी चर्चा है। भोजनपान में सभी सदस्यों में समानता का भाव रहना चाहिए। पक्षपात का प्रारभ घरों में भोजन और काम के विभाजन से होता है। मनुष्य का स्वभाव है वह कम से कम करना चाहता है और अधिक से अधिक पाना चाहता है। मनुष्य समूह में होता है तो उसकी इच्छा अधिक और अच्छा पाने की रहती है। सभी ऐसा चाहेंगे तो समाधान नहीं होगा, मन में चोरी का भाव आयेगा, छुपकर पाने की और छुपकर खाने की इच्छा होगी। इस प्रकार जो अकेला खाना चाहता है वह पाप करता है, इसी कारण वेद ने कहा है-

केवलाघो भवति केवलादी।

जो मनुष्य अपने आप अकेला खाता है, वह पाप ही खाता है। गीता में भी उपदेश दिया गया है-

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचनयत्म कारणात्।

जो लोग अपना ही पकाकर स्वयं अकेले ही खाना चाहते हैं, उनके लिए गीता में कहा गया है- ऐसे व्यक्ति पाप ही पकाते हैं और पाप ही खाते हैं।

वैदिक संस्कृति में भोजन के सबन्ध में बहुत सारे निर्देश मिलते हैं। एक गृहस्थ को भी भोजन अपने लिए नहीं, यज्ञ के लिये बनाने का विधान है। मनु महाराज कहते हैं- गृहस्थ को भोजन पाने की दो स्थितियाँ हैं। एक तो वह भुक्त शेष खा सकता है, दूसरा वह हुत शेष खा सकता है। दोनों ही परिस्थितियों में गृहस्थ का भोजन अपने लिये नहीं है। वह शेष भोजी है। शेष तो मुय के उपयोग करने के पश्चात् जो बचता है उसे शेष कहते हैं। ये दोनों बन्धन आजकल के व्यक्ति को बाधक लगते हैं, उसे अपने साथ बड़ा अन्याय लगता है। यथार्थ में विचार करने पर इसमें बड़ा रहस्य ज्ञात होता है। पहली बात मनुष्य अपने लिये पकाता है तो कुछ भी, कैसा भी बना कर खा लेता है, उसे बहुत चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती। विशेष रूप से परिवार में जब महिला अकेली रह जाती है, अन्य सदस्य घर पर नहीं होते तो उसे भोजन बनाना व्यर्थ लगता है, वैसे ही कुछ भी बनाकर कुछ भी खाकर काम चलाने की भावना रहती है। पति और बच्चों के रहने पर भोजन यथावत् अच्छा बनाने का प्रयास रहता है। इसी प्रकार घर में अतिथि आ जाये तो भोजन कुछ विशेष  बनता है, विशेष अतिथि के आने पर भोजन की विशेषता बढ़ जाती है। इसी प्रकार जब भगवान के लिए, मन्दिर के लिये यज्ञ के लिए कुछ बनेगा तो अच्छा बनेगा, विशेष बनेगा आपके घर में सदा विशेष और अच्छा भोजन ही बने इस कारण गृहस्थ के भोजन पर नियम बना दिया गृहस्थ को हुत शेष खाना चाहिये या भुक्त शेष।

मनुष्य के मन में खिलाने की भावना आ जाती है तो फिर उसके अन्दर से पक्षपात या चोरी का भाव निकल जाता है। मनुष्य जब अकेला खाता है तब छिपकर खाता है परन्तु जब खिलाने की इच्छा रखता है तो उसे सबके साथ खाने में आनन्द आता है। तब एक जैसा खाना होता है। भोजन को बांटकर खाता है। भोजन सबके साथ खाना और बांटकर खाना परस्पर प्रीति का कारण होता है परन्तु मुसलमानों की भांति जूठा एक ही पात्र में खाना स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं होता। प्रेम का आधार पक्षपात रहित होना है, भोजन का एक स्थान पर होना नहीं है। भोजन सौहार्द और प्रीति का प्रतीक होता है, श्रीकृष्ण जी महाराज जब सन्धि का प्रस्ताव लेकर गये थे, तब दुर्योधन ने कृष्ण की बात तो नहीं मानी परन्तु अतिथि के नाते उन्हें भोजन का प्रस्ताव अवश्य दिया, तब श्री कृष्ण ने दुर्योधन से कहा था- दुर्योधन दूसरे के यहाँ भोजन दो परिस्थितियों में किया जाता है या तो उससे अत्यन्त प्रीति हो या स्वयं विपदाग्रस्त हो। हमारे मध्य इन दोनों में से कुछ भी नहीं, अतः मैं तुहारा भोजन अस्वीकार करता हूँ।

सप्रीति भोज्यान्नानि, आपद् भोज्यानि वा पुनः।

न त्वं सप्रियसे राजन न चैवापद गता वयम्।

आचार्य सोमदेव जिज्ञासाः- निम्न लिखित वेद मन्त्रों से शंका और उपशंका उत्पन्न होता है। यजुर्वेद अ. 29 के मन्त्रों 40,41 और 42 संया वाले…. ‘‘छागमश्वियोस्वाहा। मेषं सरस्वत्ये स्वाहा, ऋषभमिन्द्राय….। 40’’ ‘‘छागस्य वषाया मेदसो…..मेषस्य वषाया मेदसो, ऋषभस्य वषाया मेदसो……41’’ छागैर्न मेषै, र्मृषमैःसुता…..42 इनमें से 41 और 42 मन्त्रों का अर्थ ‘‘दयानन्द संस्थान से प्रकाशित भाष्य में भी बकरे, भेड़ों और बैल किया गया है। ये सब पौराणिक के जैसा भाष्य देखने को आया शंका होता है इस शंका के समाधान कर के उत्तर भेजें।’’

समाधानमहर्षि दयानन्द आर्यावर्त की उन्नति, सुख, समृद्धि का एक कारण यज्ञ को कहतेहैं। महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में लिखते हैं- ‘‘आर्यवर शिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये।’’ महर्षि ने यहाँ यज्ञ की महत्ता को प्रकट किया है। यज्ञ से रोग कैसे दूर होंगे? जब हवन की अग्नि में रोगनाशक पदार्थ डालेंगे तब रोग दूर होगें। यज्ञ में माँस आदि पदार्थ डालने से रोग दूर होकर कैसे कभी सुख की वृद्धि हो सकती है? उलटे मांसादि द्रव्य अग्नि में होम करने से तो रोग उत्पन्न हो दुःख की वृद्धि होगी। महर्षि होम से रोग दूर होना और सुख का बढ़ना देख रहे हैं। यज्ञ में मांसादि का डालना कब और क्यों हुआ वह अन्य पाठकों को दृष्टि में रखकर आगे लिखेगें। पहले आपकी जिज्ञासा का समाधान करते हैं। आपने जो यजुर्वेद 21 वें अध्याय के 40-42 मन्त्र उद्धृत किये हैं वह जो उन मन्त्रों का महर्षि ने भाष्य किया है सो ठीक है। इस भाष्य को देखने पर पौराणिकों जैसा भाष्य न लगकर अपितु और दृढ़ता से आर्ष भाष्य दिखता है। यहाँ पाठकों को दृष्टि में रखकर मन्त्र व उसका ऋषि भाष्य लिखते हैं।

(1) होता यक्षदाग्नि ँ स्वाहाज्यस्य स्तोकानाथंस्वाहा मेदसां पृथक् स्वाहा

छागमश्वियाम् स्वाहा मेषं सरस्वत्यै स्वाहाऽऋषभमिन्द्राय

…..पयः सोमः परिस्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज।।

19.40

मन्त्रों को पूरा पदार्थ न लिखकर, जिन पर आपकी जिज्ञासा है उनका अर्थ व मन्त्रों का भावार्थ यहाँ लिखते हैं- (छागम्)  दुःख छेदन करने को (अश्वियाम्) राज्य के स्वामी और पशु के पालन करने वालो से (स्वाहा) उत्तम रीति से (मेषम्)सेचन करने हारे को (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणी के लिए (ऋषभम्) श्रेष्ठ पुरुषार्थ को (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिए।

भावार्थइस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोप्मालङ्कार है। जो मनुष्य विद्या, क्रियाकुशलता और प्रयत्न से अग्न्यादि विद्या को जान के गौ आदि पशुओं का अच्छे प्रकार पालन करके सबके उपकार को करते हैं वे वैद्य के समान प्रजा के दुःख के नाशक होते हैं।

(2) होता यक्षदश्विनौ छागस्य वपाया मेदसो जुषेताम्…

………मेषस्य वपाया मेदसो जुषताम् हविर्होतर्यज……..

….ऋषभस्य वपाया मेदसो जुषताम्……..   19.41

(छागस्य) बकरा, गौ, भैंस आदि पशु सबन्धी (वपाया) बीज बोने वा सूत के कपड़े आदि बनाने और (मेदसः) चिकने पदार्थ के (हविः) लेने देने योग्य व्यवहार का (जुषेताम्) सेवन करें…………(मेषस्य) मेढ़ा के (वपायाः) बीज को बढ़ाने वाली क्रिया और (मेदसः) चिकने पदार्थ सबन्धी (हविः) अग्नि में छोड़ने योग्य संस्कार किये हुए अन्न आदि पदार्थ (जुषताम्) सेवन करें…………(ऋषभस्य) बैल की (वपायाः) बढ़ाने वाली रीति और (मेदसः) चिकने पदार्थ सबन्धी (हविः) देने योग्य पदार्थ का (जुषताम्) सेवन करें।

भावार्थ जो मनुष्य पशुओं की संया और बल  को बढ़ाते हैं वे आपाी बलवान् होते और जो पशुओं से उत्पन्न हुए दूध और उससे उत्पन्न हुए  घी का सेवन करते वे कोमल स्वभाव वाले होते हैं और जो खेती करने आदि के लिए इन बैलों को युक्त करते हैं वे धनधान्य युक्त होते हैं।

(3)होता यक्षदश्विनौ सरस्वतीमिन्द्रम…छागैर्नमेषैर्ऋषभैः

सुता …………मधु पिवन्तु मदन्तु व्यन्तु होतर्यज।। 19.42

पदार्थ (छागैः) विनाश करने योग्य पदार्थों वा बकरा आदि पशुओं (न) जैसे तथा (मेषैः) देखने योग्य पदार्थों वा मेढ़ों (ऋषभैः) श्रेष्ठ पदार्थों वा बैलों (सुताः) जो अभिषेक को पाये हुए हों वे।

भावार्थजो संसार के पदार्थों की विद्या, सत्यवाणी और भली भांति रक्षा करने हारे राजा को पाकर पशुओं के दूध आदि पदार्थों से पुष्ट होते हैं वे अच्छे रसयुक्त अच्छे संस्कार किये हुए अन्न आदि जो सुपरीक्षित हों, उनको युक्ति के साथ खा और रसों को पी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के निमित्त अच्छा यत्न करते हैं, वे सदैव सुखी होते हैं।

यहाँ इन मन्त्रों के भाष्य और भावार्थ में कहीं भी पौराणिकता नहीं लग रही है। मन्त्रों में छाग, ऋ षभ, मेष आदि शद आये हैं, उनका महर्षि ने जो युक्त अर्थ था वह किया है। छाग का अर्थ लौकिक भाषा में बकरा होता है किन्तु महर्षि ने छाग का अर्थ दुःख छेदन किया है। मेष का अर्थ सामान्य भेड़ होता है, और महर्षि का अर्थ सेचन करने हारा है। ऐसे ही ऋषभ का सामान्य अर्थ बैल और महर्षि का अर्थ श्रेष्ठ पुरुषार्थ है। जब ऐसे पौराणिकता से परे होकर महर्षि ने वैदिक अर्थ किये हैं तब कै से कोई कह सकता है कि यह पौराणिकों जैसा भाष्य दिखता है। भेड़ बैल, बकरा आदि शद आने मात्र से पौराणिकों जैसा भाष्य नहीं हो जाता।

हाँ यदि महर्षि मन्त्र में आये हुए वपा और मेद का अर्थ चर्बी करके उसकी हवन में आहूति की बात कहते तो यह महर्षि का भाष्य अवश्य पौराणिकों वाला हो जाता किन्तु महर्षि ने ऐसा कहीं भी नहीं लिखा। अपितु वपा का अर्थ महर्षि बीज बढ़ाने वाली क्रिया करते हैं और मेद का अर्थ चिकना पदार्थ जो कि महर्षि ने मन्त्रों के भावार्थ में घी-दूध आदि पदार्थ लिखे हैं।

महर्षि का किया वेद भाष्य तो पौराणिकता से दूर वैदिक रीति का भाष्य है। जो पौराणिकों ने इन्हीं वेद मन्त्रों के अर्थ भेड़, बकरा, बैल आदि पशुओं के मांस को यज्ञ में डालना कर रखे थे, उनको महर्षि ने दूर कर शुद्ध भाष्य किया है। पौराणिक लोगों ने लोक प्रचलित अर्थ वेद के साथ जोड़कर भाष्य किया, जिससे इतना बड़ा अनर्थ हुआ कि संसार के जो सभी मनुष्य एक वेद मत को मानकर चल रहे थे, उसको छोड़ नये-नये मत बनाकर चलने लग गये। यह वही वेदमन्त्रों के अनर्थ करने का परिणाम था।

वपा और मेद का अर्थ चर्बी, वसा लोक में है जो कि यही अर्थ पौराणिकों ने लिया। पौराणिकों को ज्ञात नहीं की वेद में रूढ शद और अर्थों का प्रयोग नहीं है अपितु यौगिक शद और अर्थों का प्रयोग है जो कि महर्षि दयानन्द ने योगिक मानकर ही वेदमन्त्रों का अर्थ किया है।

यज्ञ में मांस आदि का डालना महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्रह्मणों के आलस्य प्रमाद के कारण हुआ। महर्षि दयानन्द इस  विषय में कहते हैं- ‘‘परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या संदेह?………….।’’

जब ब्राह्मण विद्याहीन हुये तब क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अविद्वान् होने में तो कथा ही क्या कहानी? जो परपरा से वेदादिशास्त्रों का अर्थ सहित पढ़ने का प्रचार था, वहाी छूट गया। केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे। सो पाठ मात्र भी क्षत्रियों आदि को न पढ़ाया। क्योंकि जब अविद्वान् हुए, गुरु बन गये, तब छल-कपट-अधर्म भी उनमें बढ़ता चला।…….’’ स.प्र.स. 11।।

यज्ञ में मांसादि का कारण ब्राह्मणों का आलस्य प्रमाद व विषयासक्ति रहा है, यह मान्यता महर्षि दयानन्द की है जो युक्त है।

जब यज्ञों में अथवा यज्ञों के नाम पर पशु हिंसा का प्रचलन हुआ तो अश्वमेघ, गोमेध, नरमेध आदि यज्ञों का यथार्थ स्वरूप न रखकर उल्टा कर दिया अर्थात् अश्वमेघ यज्ञ जो चक्रवर्ती राजा करता था, इसमें इन पोप ब्राह्मणों ने घोड़े के मांस की आहुति का विधान यज्ञ कर दिया। ऐसे गोमेध जो कि गो का अर्थ इन्द्रियाँ अथवा पृथिवी था, जिसमें इन्द्रिय संयमन किया जाता था उस गोमेध यज्ञ में गाय के मांस का विधान इन तथाकथित ब्राह्मणों ने कर दिया। इसके विधान के लिए सूत्रग्रन्थों में ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रक्षेप कर दिया। यज्ञों के यथार्थ अर्थ, स्वरूप को समझकर जो पशु यज्ञ व यजमान् के उपकारक थे, उन पशुओं को मार-मारकर यज्ञकुण्डों में उनकी आहुति देने लगे। धीरे-धीरे अनाचार इतना बढ़ा कि वैदिक मन्त्रों का विनियोग यज्ञों में और उनके माध्यम से पशुहिंसा में होने लगा। जिस प्रकार के मन्त्र ऊपर दिये हैं ऐसे मन्त्रों का विनियोग ब्राह्मण वर्ग यज्ञ में पशुहिंसा के लिए करने लगे थे।

वेदों में यज्ञ के पर्याय अथवा विशेषण रूप में ‘अध्वर’ शद का प्रयोग सैकड़ों स्थानों पर आया है। निघण्टु में ‘ध्वृ’ धातु हिंसार्थक है। अध्वर शद में हिंसा का निषेध है अर्थात् नञ् पूवर्क ध्वृ धातु से अध्वर शद बना है। इस अध्वर शद का निर्वचन करते हुए महर्षि यास्क ने लिखा है- अध्वर इति यज्ञनाम-ध्वरहिंसाकर्मा तत् प्रतिषेधः। (निरुक्त-1.8)

अध्वर यज्ञ का नाम है, जिसका अर्थ हिंसा रहित है। अर्थात् जहाँ हिंसा नहीं होती वह अध्वर=यज्ञ कहलाता है। ऐेसे हिंसा रहित कर्म को भी इन पोपों ने महाहिंसा कारक बना दिया था।

मेध शद ‘मेधृ’ धातु से बना है। मेधृ– मेधाहिंसनयोः संगमे च यह धातुपाठ का सूत्र है। मेधृ धातु के बुद्धि को बढ़ाना, लोगों में एकता या प्रेम को बढ़ाना और हिंसा ये तीन अर्थ हैं। इन तीनों अर्थों में से पोप जी को हिंसा अर्थ पसन्द आया और इससे यज्ञ को भी हिंसक बना दिया। जिस धर्म और समाज में अहिंसा को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था वहाँ यज्ञों हिंसा करना एक विडबना ही थी।

वेदों में अनेकत्र ऐसे वचन उपलध हैं जिसमें स्पष्ट ही पशु रक्षा का निर्देश है। यजुर्वेद के प्रारा में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म कहते हुए कहा है – ‘पशुन्पाहि’ पशु मात्र की रक्षा करो। इसी यजुर्वेद के मन्त्र 1.1 में गौ को ‘अघ्न्या’ न मारने योग्य कहा है। यजु. 6.11 में गृहस्थ को आदेश दिया है- ‘पशुंस्त्रायेथाम्’ पशुओं की रक्षा करो। 14.3 में कहा- ‘द्विपादवचतुष्पात् पाहि’ दो पैर वाले मनुष्य और चार पैर वाले पशुओं की रक्षा करो। वेद में ऐसे-ऐसे निर्देश अनेक स्थलों पर हैं। जो वेद पशुओं की रक्षा करने का निर्देश देता हो उसमें पशुओं की हिंसा का अर्थ निकालना भी पशुता ही है।

महर्षि दयानन्द वेदों के अनुयायी थे। वेदों को सर्वोपरि प्रमाण मानते थे। महर्षि की वेदों के प्रति दृढ़ आस्था थी। और महर्षि ने वेदों को यथार्थ में समझा था। यथार्थरूप में वेद को समझने वाले ऋषि के वेद भाष्य में पौराणिकता कैसे हो सकती है, ऐसा होना सर्वथा असभव है। अस्तु

-ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

स्तुता मया वरदा वेदमाता-16

परिवार में शान्ति और सुखपूर्वक कैसे रहा जा सकता है, इसके लिये इस वेद मन्त्र में उपाय बताये गये हैं। पहला है- अपने चित्त को उदार करना, दूसरा- परस्पर द्वेष भाव न रखना, तीसरा- परस्पर मिलकर कार्य करना, चौथा– परिवार को एक केन्द्र के साथ बांधकर रखना, पाँचवाँ- परिवार के सदस्यों और अन्य सभी से प्रेमपूर्वक बोलना। छठा– सध्रीचीनान् वः संमनसस्कृणोमि। इस मन्त्र का शद है सध्रीचीनान्, ऋषि दयानन्द इसका अर्थ करते हैं- समान लाभालाभ से एक दूसरे के सहायक हैं।

परिवार संस्था समाज में कार्य करने का सिद्धान्त है- कार्य के हानि-लाभ के लिए सभी को समान सहायक समझें। मनुष्य जब परिवार में कार्य करते हैं, वहाँ छोटों के प्रति सबका समान स्नेह आवश्यक है। सदस्यों में मेरे-तेरे के भाव नहीं होने चाहिए, सभी सदस्यों को समदृष्टि से देखना चाहिए। पक्षपात और स्वार्थ का भाव मनों में दूरी उत्पन्न करता है। यह भाव बहुत छोटी-छोटी बातों से परिलक्षित होता है। इस भाव को बुद्धि से विचारपूर्वक ही दूर किया जा सकता है। मनुष्य का स्वभाव मोह और लोभ का होता है। अपने स्नेहपात्र को देखकर मनुष्य के मन में पक्षपात का भाव आ जाता है। मन्दिर में प्रसाद बांटते हुए परिचित को देखकर मनुष्य प्रसाद की मात्रा बढ़ा देता है। भोजन की पंक्ति में अपने मित्र-सबन्धी को देखकर अच्छी वस्तु और अधिक मात्रा में देना स्वाभाविक है, जब भी ऐसा अवसर आये, उस समय बुद्धि से थोड़ा भी विचार करें तो बुराई से रुका जा सकता है। दूसरा विवाद का अवसर आता है जब हानि की परिस्थिति में हम दूसरे को दोषी ठहराने का प्रयत्न करते हैं तो परिवार में सामञ्जस्य नहीं रह सकता। लाभ को अपने पक्ष में और हानि को दूसरे के पक्ष में डालने का मनुष्य का स्वभाव है। यह बात घर या समाज सब स्थानों पर घटित होती है। इसलिये वेद कहता है- लाभ-अलाभ में समान सहयोगी बनें, यही सूत्र परिवार में सामञ्जस्य रखने का है।

इस मन्त्र में मनुष्य के मनोविज्ञान की ओर भी इंगित किया गया है, परिवार या समाज में विघटन या विभाजन का प्रमुख कारण है, अपनी भावनाओं पर बुद्धि का नियन्त्रण न होना। पशु भी वही व्यवहार करता है, मनुष्य भी वही व्यवहार करता है, जब वह भावनाओं में बहता है उस समय संवेगों से प्रेरित होकर कार्य करता है। इसी कारण इस आचरण को पाशविक वृत्ति कहा गया है। जब संवेग के वशीभूत होकर मनुष्य का मन स्वार्थ व पक्षपात की ओर झुक जाता है, उस समय उस पर बुद्धि का अंकुश रहना आवश्यक है। पशु तो दण्ड से ठीक मार्ग पर चलता है, मनुष्य पशु नहीं है, उसका सन्मार्ग पर चलना बुद्धि के अंकुश से ही सभव है। मनुष्य को साधु-संगति, सज्जनों का उपदेश, शास्त्र का चिन्तन, ईश्वर-भक्ति, स्वार्थ और पक्षपात छोड़ने में समर्थ बनाती है।

आदमी के मन में थोड़ी सी वस्तु या थोड़े से धन का लोभ विपरीत मार्ग पर चलने के लिए विवश करता है। हानि का भय उसे उल्टा चलने के लिये प्रेरित करता है। यदि मनुष्य इन परिस्थितियों पर भावनाओं में न बहकर बुद्धि से निर्णय करे तो वह अनुचित कार्य करने से बच जाता है। सभावित हानि से परिवार, समाज का हित जब उसे बड़ा लगेगा तब वह स्वार्थ के जाल में फंसने से बच जायेगा। हानि का भय तभी तक होता है, जब तक मनुष्य हानि को बड़ा समझता है। जैसे ही मनुष्य हानि को सहने के लिए अपने को तैयार कर लेता है, वह आत्मविश्वास से भर जाता है। उसे कोई भय नहीं लगता, उसकी उदारता से उसे संगठन या परिवार के सदस्यों का सबल मिल जाता है और बहुत बार मनुष्य पर ईश्वर की ऐसी कृपा होती है कि जिस विपत्ति से या सभावित हानि से वह भयभीत हो रहा था, वह विपत्ति उस पर आती ही नहीं है।

इस शद को समझने से व्यक्ति को दो लाभ होते हैं। यदि पक्षपात या स्वार्थ का अवसर आता है तो विचार से मनुष्य उससे अपने को रोक लेता है। जब हानि के भय से अनुचित करना चाहता है तब विचार उसके अन्दर आत्मविश्वास उत्पन्न कर देता है, वह ईश्वर की कृपा का पात्र बन जाता है। इसलिए मन्त्र में परिवार को सुखी और स्नेहसिक्त बनाने की भावना है- मनुष्य को हानि-लाभ में सबका भागीदार बनना चाहिए।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-15

इस मन्त्र के प्रथम तीन शदों में परिवार को साथ रखने के उपायों को बताया गया है। प्रथम हृदय की विशालता, दूसरा एक-दूसरे की निकटता और तीसरा एक साथ पुरुषार्थ करना। इसके लिए अन्तश्चित्तिनो, सधुराश्चरन्त तथा संदाधयन्तः पदों का प्रयोग किया गया। ऐसा करने से परिवार के सदस्य कभी पृथक् नहीं होंगे। उनके मनों में द्वेषभाव नहीं आयेगा। इसलिए मन्त्र में कहा गया ‘मावियौष्ट’ परस्पर द्वेषभाव मत रखो। हमारा हृदय विशाल होगा, हमारे अन्दर उदारता होगी। एक-साथ रहने का भाव मन में रहेगा। पुरुषार्थ करने में सभी तत्पर होंगे तो निश्चय ही परिवार के सदस्यों में द्वेषभाव उत्पन्न नहीं होगा।

इससे आगे मन्त्र में कहा गया है- ‘अन्योऽन्यस्मै वल्गुवदन्तः’ अर्थात् एक-दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक बोलते हुए परिवार में परस्पर प्रेम और आदर का प्रकाश वाणी द्वारा ही होता है। वाणी हमारे भावों को पूर्ण रूप से दूसरे को संप्रेषित  करती है। प्रायः समझा जाता है, क्या अन्तर पड़ता है। हम कुछ भी बोलें। हम चाहते हैं कुछ भी बोलने से सुनने वाले को वही समझ में आना चाहिए परन्तु ऐसा है नहीं, प्रत्येक शद, प्रत्येक ध्वनि अपना अर्थ और प्रभाव रखती है। हमारे शद और ध्वनियाँ ही हमारे अन्दर विद्यमान न्याय, दया, उदारता, शूरता आदि को प्रकाशित करती हैं। समाज में इसी को शिष्टाचार कहते हैं। सारे शिष्टाचार को परिभाषित करना हो तो, वह परिभाषा है दूसरे को मान्यता देना, उसकी उपस्थिति का अनुभव कराना, उसके अस्तित्व को स्वीकृति देना। शिष्टाचार थोड़े से शद और थोड़ी सी क्रिया से अनुभव हो जाता है।

एक व्यक्ति श्री और जी से प्रसन्न हो जाता है, अरे और अबे से रुष्ट हो जाता है। घर का बालक अच्छा है, यह अच्छापन शिक्षा, स्वास्थ्य, सुन्दरता आदि से नहीं आता, वह अच्छापन थोड़े से शदों के उपयोग से आता है। आजकल आधुनिक विद्यालयों के बालक अच्छे कहलाते हैं तो उनमें मुय बात शालीनता प्रकट करने वाले शदों का प्रयोग ही मुय है। जब कोई बच्चा आपको मिलता है। आप उसके घर के द्वार पर खड़े हैं और बालक पूछता है क्या है? आपको अच्छा नहीं लगता है परन्तु वही बालक अंकल आपको किससे मिलना है, सुनकर बड़ी प्रसन्नता होती है। ये शद हैं तो थोड़े से, परन्तु इनका प्रयोग प्रतिदिन अनेक बार करने का अवसर आता है। इसीलिए बच्चों को इन शदों का अयास कराने की आवश्यकता होती है। हमारे आचार्य जी ने एक घटना सुनाई थी, बहुत वर्ष पूर्व एक यात्रा के समय उन्होंने सन्तरे लिए, खाने लगे तो एक विदेशी महिला अपने बच्चे के साथ उसी डबे में यात्रा कर रही थी। बच्चा देखकर आचार्य जी ने माँ से पूछा- क्या वे बच्चे को सन्तरा दे सकते हैं? माँ ने कहा- दे दें। बालक सन्तरा लेकर जैसे ही खाने लगा, माँ ने बालक के गाल पर एक थप्पड़ मार दिया। आचार्य जी ने पूछा- मैंने आपसे पूछकर बालक को फल दिया है फिर आपने बालक को थप्पड़ क्यों मारा? उस माँ ने कहा- आपने मुझ से पूछकर दिया है, इसलिये नहीं मारा। थप्पड़ मारने का कारण बालक की अशिष्टता है। बालक को आपसे फल लेने के बाद आपका धन्यवाद करना चाहिए था, परन्तु बालक ने ऐसा नहीं किया, इसी कारण बालक को थप्पड़ मारा है।

छोटे शद हैं श्रीमान्, कृपया, क्षमा करें, धन्यवाद। इन शदों का उपयोग हिन्दी में, उर्दू में, अंग्रेजी में, किसी भी भाषा में करें, ये शद आपको अनुकूल प्रतिक्रिया देंगे। अंग्रेजी में प्लीज़, थैक्यू, सॉरी, सर जैसे शद बच्चे, बालक, युवा को सय बनने का प्रमाण-पत्र दे देते हैं। जब शद बोलने वाले के हृदय से निकलते हैं तो वे शद सुनकर अगले के मन में भी वे ही भाव जागते हैं, अतः यह एक सहज प्राकृतिक सबन्ध है, जो शदों से प्रकाशित होता है। पशु-पक्षियों को अपने भाव प्रकट करने के लिये शद तो नहीं है परन्तु इसके लिए उन्हें अपनी आकृति के भाव और शारीरिक चेष्टाओं से अपने भाव व्यक्त करने पड़ते हैं। परन्तु मनुष्य को यह विशेषता प्राप्त है कि वह शरीर के हाव-भाव के साथ अपने शदों से भी अपने भावों-विचारों को सप्रेषित कर सकता है। मनुष्य में अनुकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न करना, मनुष्य की इच्छा रहती है तो वेद का सन्देश है- जहाँ अन्य व्यवहार हम अनुकूलता से करते हैं, वहीं पर हमारी वाणी भी हमारे व्यवहार को अनुकूल बनाने वाली हो। अतः कहा गया है- अन्योऽन्यस्मै वल्गुवदन्तः। हमारा घर सदा एक-दूसरे से प्रेम करने वाला ही नहीं, प्रेम से बोलने वाला भी हो।