स्तुता मया वरदा वेदमाता-17 समानी प्रपा सह वोऽन्नभागः समानेयोक्त्रे सह वो युनज्मि। सयञ्चोऽग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभितः।।

वेद में, परिवार में सुख से रहने और अन्य सदस्यों को सुखी रखने का उपाय बताया है, इस मन्त्र में बहुत सारी छोटी-छोटी प्रतिदिन उपयोग में आने वाली बातों की चर्चा है। मन्त्र के प्रथम भाग में परिवार के अन्दर खानपान कैसा हो, इसकी चर्चा है। भोजनपान में सभी सदस्यों में समानता का भाव रहना चाहिए। पक्षपात का प्रारभ घरों में भोजन और काम के विभाजन से होता है। मनुष्य का स्वभाव है वह कम से कम करना चाहता है और अधिक से अधिक पाना चाहता है। मनुष्य समूह में होता है तो उसकी इच्छा अधिक और अच्छा पाने की रहती है। सभी ऐसा चाहेंगे तो समाधान नहीं होगा, मन में चोरी का भाव आयेगा, छुपकर पाने की और छुपकर खाने की इच्छा होगी। इस प्रकार जो अकेला खाना चाहता है वह पाप करता है, इसी कारण वेद ने कहा है-

केवलाघो भवति केवलादी।

जो मनुष्य अपने आप अकेला खाता है, वह पाप ही खाता है। गीता में भी उपदेश दिया गया है-

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचनयत्म कारणात्।

जो लोग अपना ही पकाकर स्वयं अकेले ही खाना चाहते हैं, उनके लिए गीता में कहा गया है- ऐसे व्यक्ति पाप ही पकाते हैं और पाप ही खाते हैं।

वैदिक संस्कृति में भोजन के सबन्ध में बहुत सारे निर्देश मिलते हैं। एक गृहस्थ को भी भोजन अपने लिए नहीं, यज्ञ के लिये बनाने का विधान है। मनु महाराज कहते हैं- गृहस्थ को भोजन पाने की दो स्थितियाँ हैं। एक तो वह भुक्त शेष खा सकता है, दूसरा वह हुत शेष खा सकता है। दोनों ही परिस्थितियों में गृहस्थ का भोजन अपने लिये नहीं है। वह शेष भोजी है। शेष तो मुय के उपयोग करने के पश्चात् जो बचता है उसे शेष कहते हैं। ये दोनों बन्धन आजकल के व्यक्ति को बाधक लगते हैं, उसे अपने साथ बड़ा अन्याय लगता है। यथार्थ में विचार करने पर इसमें बड़ा रहस्य ज्ञात होता है। पहली बात मनुष्य अपने लिये पकाता है तो कुछ भी, कैसा भी बना कर खा लेता है, उसे बहुत चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती। विशेष रूप से परिवार में जब महिला अकेली रह जाती है, अन्य सदस्य घर पर नहीं होते तो उसे भोजन बनाना व्यर्थ लगता है, वैसे ही कुछ भी बनाकर कुछ भी खाकर काम चलाने की भावना रहती है। पति और बच्चों के रहने पर भोजन यथावत् अच्छा बनाने का प्रयास रहता है। इसी प्रकार घर में अतिथि आ जाये तो भोजन कुछ विशेष  बनता है, विशेष अतिथि के आने पर भोजन की विशेषता बढ़ जाती है। इसी प्रकार जब भगवान के लिए, मन्दिर के लिये यज्ञ के लिए कुछ बनेगा तो अच्छा बनेगा, विशेष बनेगा आपके घर में सदा विशेष और अच्छा भोजन ही बने इस कारण गृहस्थ के भोजन पर नियम बना दिया गृहस्थ को हुत शेष खाना चाहिये या भुक्त शेष।

मनुष्य के मन में खिलाने की भावना आ जाती है तो फिर उसके अन्दर से पक्षपात या चोरी का भाव निकल जाता है। मनुष्य जब अकेला खाता है तब छिपकर खाता है परन्तु जब खिलाने की इच्छा रखता है तो उसे सबके साथ खाने में आनन्द आता है। तब एक जैसा खाना होता है। भोजन को बांटकर खाता है। भोजन सबके साथ खाना और बांटकर खाना परस्पर प्रीति का कारण होता है परन्तु मुसलमानों की भांति जूठा एक ही पात्र में खाना स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं होता। प्रेम का आधार पक्षपात रहित होना है, भोजन का एक स्थान पर होना नहीं है। भोजन सौहार्द और प्रीति का प्रतीक होता है, श्रीकृष्ण जी महाराज जब सन्धि का प्रस्ताव लेकर गये थे, तब दुर्योधन ने कृष्ण की बात तो नहीं मानी परन्तु अतिथि के नाते उन्हें भोजन का प्रस्ताव अवश्य दिया, तब श्री कृष्ण ने दुर्योधन से कहा था- दुर्योधन दूसरे के यहाँ भोजन दो परिस्थितियों में किया जाता है या तो उससे अत्यन्त प्रीति हो या स्वयं विपदाग्रस्त हो। हमारे मध्य इन दोनों में से कुछ भी नहीं, अतः मैं तुहारा भोजन अस्वीकार करता हूँ।

सप्रीति भोज्यान्नानि, आपद् भोज्यानि वा पुनः।

न त्वं सप्रियसे राजन न चैवापद गता वयम्।

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