स्तुता मया वरदा वेदमाता-15

इस मन्त्र के प्रथम तीन शदों में परिवार को साथ रखने के उपायों को बताया गया है। प्रथम हृदय की विशालता, दूसरा एक-दूसरे की निकटता और तीसरा एक साथ पुरुषार्थ करना। इसके लिए अन्तश्चित्तिनो, सधुराश्चरन्त तथा संदाधयन्तः पदों का प्रयोग किया गया। ऐसा करने से परिवार के सदस्य कभी पृथक् नहीं होंगे। उनके मनों में द्वेषभाव नहीं आयेगा। इसलिए मन्त्र में कहा गया ‘मावियौष्ट’ परस्पर द्वेषभाव मत रखो। हमारा हृदय विशाल होगा, हमारे अन्दर उदारता होगी। एक-साथ रहने का भाव मन में रहेगा। पुरुषार्थ करने में सभी तत्पर होंगे तो निश्चय ही परिवार के सदस्यों में द्वेषभाव उत्पन्न नहीं होगा।

इससे आगे मन्त्र में कहा गया है- ‘अन्योऽन्यस्मै वल्गुवदन्तः’ अर्थात् एक-दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक बोलते हुए परिवार में परस्पर प्रेम और आदर का प्रकाश वाणी द्वारा ही होता है। वाणी हमारे भावों को पूर्ण रूप से दूसरे को संप्रेषित  करती है। प्रायः समझा जाता है, क्या अन्तर पड़ता है। हम कुछ भी बोलें। हम चाहते हैं कुछ भी बोलने से सुनने वाले को वही समझ में आना चाहिए परन्तु ऐसा है नहीं, प्रत्येक शद, प्रत्येक ध्वनि अपना अर्थ और प्रभाव रखती है। हमारे शद और ध्वनियाँ ही हमारे अन्दर विद्यमान न्याय, दया, उदारता, शूरता आदि को प्रकाशित करती हैं। समाज में इसी को शिष्टाचार कहते हैं। सारे शिष्टाचार को परिभाषित करना हो तो, वह परिभाषा है दूसरे को मान्यता देना, उसकी उपस्थिति का अनुभव कराना, उसके अस्तित्व को स्वीकृति देना। शिष्टाचार थोड़े से शद और थोड़ी सी क्रिया से अनुभव हो जाता है।

एक व्यक्ति श्री और जी से प्रसन्न हो जाता है, अरे और अबे से रुष्ट हो जाता है। घर का बालक अच्छा है, यह अच्छापन शिक्षा, स्वास्थ्य, सुन्दरता आदि से नहीं आता, वह अच्छापन थोड़े से शदों के उपयोग से आता है। आजकल आधुनिक विद्यालयों के बालक अच्छे कहलाते हैं तो उनमें मुय बात शालीनता प्रकट करने वाले शदों का प्रयोग ही मुय है। जब कोई बच्चा आपको मिलता है। आप उसके घर के द्वार पर खड़े हैं और बालक पूछता है क्या है? आपको अच्छा नहीं लगता है परन्तु वही बालक अंकल आपको किससे मिलना है, सुनकर बड़ी प्रसन्नता होती है। ये शद हैं तो थोड़े से, परन्तु इनका प्रयोग प्रतिदिन अनेक बार करने का अवसर आता है। इसीलिए बच्चों को इन शदों का अयास कराने की आवश्यकता होती है। हमारे आचार्य जी ने एक घटना सुनाई थी, बहुत वर्ष पूर्व एक यात्रा के समय उन्होंने सन्तरे लिए, खाने लगे तो एक विदेशी महिला अपने बच्चे के साथ उसी डबे में यात्रा कर रही थी। बच्चा देखकर आचार्य जी ने माँ से पूछा- क्या वे बच्चे को सन्तरा दे सकते हैं? माँ ने कहा- दे दें। बालक सन्तरा लेकर जैसे ही खाने लगा, माँ ने बालक के गाल पर एक थप्पड़ मार दिया। आचार्य जी ने पूछा- मैंने आपसे पूछकर बालक को फल दिया है फिर आपने बालक को थप्पड़ क्यों मारा? उस माँ ने कहा- आपने मुझ से पूछकर दिया है, इसलिये नहीं मारा। थप्पड़ मारने का कारण बालक की अशिष्टता है। बालक को आपसे फल लेने के बाद आपका धन्यवाद करना चाहिए था, परन्तु बालक ने ऐसा नहीं किया, इसी कारण बालक को थप्पड़ मारा है।

छोटे शद हैं श्रीमान्, कृपया, क्षमा करें, धन्यवाद। इन शदों का उपयोग हिन्दी में, उर्दू में, अंग्रेजी में, किसी भी भाषा में करें, ये शद आपको अनुकूल प्रतिक्रिया देंगे। अंग्रेजी में प्लीज़, थैक्यू, सॉरी, सर जैसे शद बच्चे, बालक, युवा को सय बनने का प्रमाण-पत्र दे देते हैं। जब शद बोलने वाले के हृदय से निकलते हैं तो वे शद सुनकर अगले के मन में भी वे ही भाव जागते हैं, अतः यह एक सहज प्राकृतिक सबन्ध है, जो शदों से प्रकाशित होता है। पशु-पक्षियों को अपने भाव प्रकट करने के लिये शद तो नहीं है परन्तु इसके लिए उन्हें अपनी आकृति के भाव और शारीरिक चेष्टाओं से अपने भाव व्यक्त करने पड़ते हैं। परन्तु मनुष्य को यह विशेषता प्राप्त है कि वह शरीर के हाव-भाव के साथ अपने शदों से भी अपने भावों-विचारों को सप्रेषित कर सकता है। मनुष्य में अनुकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न करना, मनुष्य की इच्छा रहती है तो वेद का सन्देश है- जहाँ अन्य व्यवहार हम अनुकूलता से करते हैं, वहीं पर हमारी वाणी भी हमारे व्यवहार को अनुकूल बनाने वाली हो। अतः कहा गया है- अन्योऽन्यस्मै वल्गुवदन्तः। हमारा घर सदा एक-दूसरे से प्रेम करने वाला ही नहीं, प्रेम से बोलने वाला भी हो।

 

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