स्तुता मया वरदा वेदमाता-21

सपञ्चोऽग्नि सपर्यत

प्रसंग है परिवार को एक सूत्र में बांधकर रखने के क्या उपाय हैं। मन्त्र कहता है- परिवार के लोग कहीं तो मिलकर बैठे। मिलकर बैठने का एक मात्र स्थान है- यज्ञ वेदि। यज्ञ जब भी करेंगे तब मिलकर बैठेंगे। यज्ञ करते हुए दोनों लोग परस्पर मिलकर कार्य सपादित करते हैं। इस समय ऋत्विज यज्ञ कराने वाले तथा यजमान यज्ञ करने वाले दोनों एक मत होकर यज्ञ करते हैं। ऋत्विज् यजमान का मार्गदर्शन करते हैं और यजमान ऋत्विज् के निर्देशों का पालन करते हैं। मन्त्र में निर्देश है। परिवार के लोग अग्नि की उपासना करो और कैसे करने चाहिये तो कहा गया – सयञ्च अर्थात् भलीप्रकार मिलकर सब लोग अग्नि की उपासना करें।

यज्ञ का स्थान विद्वानों का, बड़ों के निर्देश का पालन प्राप्त करने का स्थान है, यज्ञ की सफलता यज्ञ को श्रद्धापूर्वक सपन्न करने में है। यजमान आदरपूर्वक निर्देशों का पालन करते हुए यज्ञ सपादित करते हैं। जिस परिवार में प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक यज्ञ किया जाता है, वहाँ परस्पर प्रेमभाव बना रहता है। बड़ों व विद्वानों के प्रति आदर का भाव रहता है। यज्ञ करने से मनुष्य में उदारता का भाव उत्पन्न होता है। यज्ञ में मनुष्य देने का दान करने का सहयोग करने का भाव रखता है। यज्ञ से मन की संकीर्णता और स्वार्थ की वृत्ति समाप्त होती है। मनुष्य जब यज्ञ करने का विचार करता है, उसी समय उसके अन्दर सात्विक भाव उत्पन्न होते हैं। सात्विक विचारों का लक्षण यही बताया गया है। मनुष्य दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, परोपकार करना आदि विचार करता है, उस समय उसके मन में सतोगुण का उदय होता है। यज्ञ करने से मनुष्य की सात्विक वृत्ति का विस्तार होता है। यज्ञ से मन का विस्तार होता है। विस्तार खुलेपन का प्रतिक है। बन्धन है परोपकार मुक्ति है।

इसीलिये यज्ञ की भावना से कार्य करने का निर्देश किया है, श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं- इस संसार में यज्ञ भावना से रहित होकर कोई व्यक्ति बन्धन से  मुक्ति नहीं हो सकता। इसलिये मनुष्य को कोई भी कार्य यज्ञ भावना से युक्त होकर करना चाहिए। यज्ञ में समर्पण है, साथ है, साथ से संग को लाभ मिलता है तथा संवाद का अवसर भी प्राप्त होता है। समर्पण भी होता है, यही भाव परिवार में सब को एक साथ रखने के लिये आवश्यक है, उपयोगी है। मन्त्र कहता है- परिवार के लोग मिलकर यज्ञ करें, आदरपूर्वक यज्ञीय भावना से करें, इससे परिवार के सदस्यों के मन पवित्र और आदर की भावना से युक्त होते हैं। इसका परिणाम सब  परस्पर जुड़े रहते हैं।

मन्त्र का अन्तिम वाक्य है- आरा नाभिभिवामितः। जैसे यज्ञ करने वाले यज्ञ रूप नाभि से सभी बन्धे रहते हैं, उसी प्रकार परिवार के सदस्य भी केन्द्र से जुड़े रहते हैं। मन्त्र में उपमा दी गई है। जिस प्रकार गाड़ी आरे अक्ष से जुड़े रहते हैं और अपना-अपना कार्य करते हुए केन्द्र से बंधे रहते हैं। उसी प्रकार परिवार के सदस्यों का भी एक केन्द्र होना चाहिए, जिससे सभी सदस्य जुड़े रहें। जहाँ एक व्यक्ति के निर्देशन में परिवार चलता है, वहाँ सभी कार्य व्यवस्थित होते हैं, सभी एक दूसरे का ध्यान रखते हैं। जहाँ यज्ञीय भावना नहीं होती, वहां सब अपने-अपने बारे में ही सोचते हैं, वहां स्वार्थ बुद्धि होती है। स्वार्थ से मन में द्वेष भाव और अन्याय उत्पन्न होता है। अतः मन्त्र में दो बातों को एक साथ बताया है, घर में यज्ञ होना चाहिए, सभी लोग मिलकर श्रद्धा से यज्ञ करेंगे तो परिवार के लोग परस्पर आरे की भांति केन्द्र से जुडेंगे, बड़ों से सबन्ध बनाकर रखेंगे तभी परिवार एक होकर रह सकता है, परिवार में सुख, शान्ति बनी रह सकती है।

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