Category Archives: वेद मंत्र

अजेयता के तप लिए आवश्यक

ओउम
अजेयता के तप लिए आवश्यक

डा. अशोक आर्य ,
यह तप ही है जो मानव को अजेय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को अघर्श्नीय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को सब सुखों की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो ज्ञान आदि की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो सब प्रकार की सफलता का साधन है | इस तथ्य को ऋग्वेद के अध्याय १० मंडल १५४ के मन्त्र संख्या २ मैं इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : तपसा ये अनाध्रिश्यास्तपसा ये स्वर्ययु: |
तपो ये चक्रिरे महास्तान्श्चिदेवापी गच्छतात || ऋग. १०.१५४.२ ||
हे (मर्त्य ) मनुष्य (ये ) जो (तपसा) तपस्या से (अनाध्रिश्या:) अघर्शनीय हैं ( ये) जो (तपसा) तपस्या से (स्व: ) सुख को (ययु:)प्राप्त हुए हैं (ये) जिन्होंने (माह: ) महान (तप: ) तपस्या ( चक्रिरे) की है ( तान चिद एव ) उनके पास ही (अपि गच्छतात) जाओ |
भावार्थ : –
हे मनुष्य इस संसार मे जो अघर्श्नीय हैं , जो तप से सुखों को प्राप्त कर चुके हैं , जिन मनुष्यों ने महान तप किया है , ज्ञान आदि प्राप्त करने के लिए उनके ही समीप जाओ |
मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफल हो | वह जानता है कि सफलता से ही यश मिलता है ,सफलता से ही कीर्ति मिलती है तथा सफलता से ही उस की ख्याति दूर दूर तक जा पाती है , जो कभी सफलता के दर्शन ही नहीं करता , उस को कोंन याद करेगा, उसका उदहारण कोंन अपने बच्चों को देगा | उस का कोंन अनुगामी बनेगा , कोई भी तो नहीं | इस लिए मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा रहती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करे ताकि उसका यश व कीर्ति दूर दूर तक जा पावे | लोग उसके अनुगामी बन उसके पद – चिन्हों पर चलें | इस सब के लिए जीवन की सफलता का रहस्य का ज्ञान होना आवश्यक है | जिसे सफलता के रहस्य का ज्ञान ही नहीं , वह कहाँ से सफलता प्राप्त कर सकेगा | अत: हमें यह जानना आवश्यक है कि हम सफलता के रहस्य को समझें |
जीवन की सफलता का रहस्य : –
जीवन कि सफलता का रहस्य है तप और साधना |
साधना किसे कहते हैं :
जब व्यक्ति अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लेता है तथा उस लक्ष्य को पाने के लिए एकाग्रचित हो निरंतर लग जाता है तो इसे साधना कहते हैं | तप भी इसे ही कहा जाता है |
इससे एक बात सपष्ट है कि मनुष्य को किसी भी प्रकार की साधना के लिए , किसी भी प्रकार का तप करने के लिए सर्व प्रथम एक लक्ष्य निर्धारित करना आवश्यक है | यह लक्ष्य ही है जो हमें निरंतर अपनी और खिंचता रहता है | यदि लक्ष्य ही हमने नहीं निश्चित किया तो किसे पाने के लिए हम प्रयास करेंगे ? जब हमें पता है कि हमने पांच किलोमीटर चलना है तो इस मंजल को पाने के लिए आगे बढ़ते चले जावेंगे तथा कुच्छ दूरी पर ही हमें आभास होगा कि अब हमारा लक्ष्य समीप चला आ रहा है किन्तु यदि हमें अपने लक्ष्य का पता ही नहीं कि हमने कितने किलोमीटर जाना है , तो हम किस लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढेंगे | इससे यह तथ्य सपष्ट होता है कि किसी भी सफलता को पाने के लिए प्रयास आरम्भ करने से पूर्व हमें एक लक्ष्य निश्चित करना होगा |
दृढ संकल्प : –
जब हमने कोई कार्य करने के लिए लक्ष्य निर्धारित कर लिया तो उस लक्ष कि प्राप्ति के लिए दृढ संकल्प का होना भी आवश्यक है , अन्यथा हमारा लक्ष्य केवल हवाई किला ही सिद्ध होगा |
अनुष्ठान : –
जब एक लक्ष्य निर्धारित हो गया तथा इसे पूर्ण करने का दृढ संकल्प भी हो गया तो इसे अनुष्ठान कहते है | दृढ निश्चय से यह एक अनुष्ठान बन जाता है | इस अनुष्ठान या व्रत को विधि पूर्वक संपन्न करने का प्रयास ही या इसे पूर्णता पर पहुंचाना ही साधना है | इस प्रयास को तप भी कहा जाता है | साधना ही तप का वास्तविक रूप होता है |
लक्ष्य तो प्रत्येक व्यक्ति का ही बड़ा उंचा होता है किन्तु वह इसे पाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , मेहनत नहीं करता , साधना नहीं करता, तप नहीं करता तो यह लक्ष्य उसे कैसे मिलेगा | यह द्रढ संकल्प ही है , जो मनुष्य को साधना करने की प्रेरणा देता है , जो हमें तप करने की प्रेरणा देता है , जो हमें पुरुषार्थ के मार्ग पर ले जाता है | दृढ निश्चय व कतिवद्धता के बिना लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता |
दृढ निश्चय तथा कतिबधता ; –
लक्ष्य की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति में दृढ निश्चय तथा उसे पूर्ण करने के लिए कटिबद्धता का होना भी आवश्यक है | अन्यथा यदि हम ने बहुत ही उंचा लक्ष्य निर्धारित कर लिया किन्तु उसे प्राप्त करने के लिए हम दृढ संकल्प नहीं कर पाए , अन्यमनसक से हो कर कभी प्रयास किया कभी छोड़ दिया तो उसे कैसे पावेंगे ? और यदि संकल्प भी दृढ कर लिया किन्तु कटिबद्ध होकर कार्य में जुटे ही नहीं तो भी कार्य की सम्पान्नता संभव नहीं | लक्ष्य से भटक कर लक्ष्य को नहीं प्राप्त किया जा सकता | अत: लक्ष्य चाहे छोटा हो यहा बड़ा , उसे पाने के लिए निश्चय का दृढ होना तथा उसे पाने के लिए प्रयास करना या कटिबद्ध होना भी आवश्यक है |
जब मनुष्य दृढ निश्चय से कार्य में जुट जाता है तो वह शनै: शनै: सफलता प्राप्त करते हुए अंत में उन्नति कि पराकाष्ठा तक जा पहुंचेगा | तभी तो कहा है कि जब अभ्यास सत्य ह्रदय से होता है तो उसे करने वाला व्यक्ति सिद्ध तपोनिष्ठ हो कर अजेय व अघर्शनीय बन जाता है अर्थात वह अपने कार्यमें इतना सिद्ध हस्त हो जाता है कि कभी कोई उसका प्रतिस्पर्धी हो ही नहीं पाता | वह अजेय हो जाता है | अब उसे जय करने की क्षमता किसी अन्य में नहीं होती | सब प्रकार कि सीढियां उसे अपने कार्य में धीरे धीर मिलती ही चली जाती हैं | जिस कार्य को वह अपने हाथ में लेता है , उस कार्य में सफलता दौड़े हुए उसके पास चली आती है |
यह मन्त्र इस उपर्युक्त तथ्य पर ही प्रकाश डालता है कि जो व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित कर लेता है , उस लक्ष्य को पाने के लिए दृढ संकल्प होता है तथा वहां तक पहुँचने के लिए कटिबद्ध हो पुरुषार्थ करता है तो सब सिद्धियाँ उसे निश्चय ही प्राप्त होती हैं | अपने प्रत्येक कार्य में उसे सफलता मिलती है , मानो सफलता स्वागत के लिए उस के मार्ग पर खड़ी पहले से ही प्रतीक्षा – रत हो | इस तथ्य को ही मन्त्र में स्पष्ट किया है तथा कहा है कि किसी भी प्रकार की सफलता के लिए तप का होना आवश्यक है | बिना तप के कुछ भी मिल पाना संभव नहीं है | अत: हे मानव उठ ! अपना लक्ष्य निर्धारित कर , दृढ संकल्प हो उसे पाने के लिए प्रयास कर , तुझे सफलता निश्चित ही मिलेगी |

डा. अशोक आर्य
१०४- शिप्रा अपार्टमैंट , कौशाम्बी जिला गाजियाबाद उ. प्र चलभाष :०९७१८५२८०६८

हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

ओउम
हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

डा. अशोक आर्य ,
अग्नि तेज का प्रतीक है, अग्नि एश्वर्य का प्रतिक है, अग्नि जीवन्तता का प्रतिक है | अग्नि मैं ही जीवन है , अग्नि ही सब सुखों का आधार है | अग्नि की सहायता से हम उदय होते सूर्य की भांति खिल जाते हैं , प्रसन्नचित रहते हैं | जीवन को धन एश्वर्य व प्रेम व्यवहार लाने के लिए अग्नि एसा करे | इस तथ्य को ऋग्वेद के ६-५२-५ मन्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
विश्वदानीं सुमनस: स्याम
पश्येम नु सुर्यमुच्चरनतम |
तथा करद वसुपतिर्वसुना
देवां ओहानो$वसागमिष्ठ: || ऋग.६-५२-५ ||
शब्दार्थ : –
(विश्वदानीम) सदा (सुमनस:) सुन्द व पवित्र ह्रदय वाले प्रसन्नचित (स्याम) होवें (न ) निश्चय से (उच्चरंतम) उदय होते हुए (सूर्यम) सूर्य को (पश्येम) देखें (वसूनाम) घनों का (वसुपति: ) धनपति , अग्नि (देवां) देवों को (ओहान:) यहाँ लाता हुआ (अवसा) संरक्षण के साथ (आगमिष्ठा:) प्रेमपूर्वक आने वाला (तथा) वैसा (करत ) करें |
भावार्थ :-
हम सदा प्रसन्नचित रहते हए उदय होते सूर्य को देखें | जो धनादि का महास्वामी है , जो देवों को लाने वाला है तथा जो प्रेम पूर्वक आने वाला है , वह अग्नि हमारे लिए एसा करे |
यह मन्त्र मानव कल्याण के लिए मानव के हित के लिए परमपिता परमात्मा से दो प्रार्थनाएं करने के लिए प्रेरित करता है : –
१. हम प्रसन्नचित हों
२. हम दीर्घायु हों
मन्त्र कहता है की हम उदारचित ,प्रसन्नचित , पवित्र ह्रदय वाले तथा सुन्दर मन वाले हों | मन की सर्वोतम स्थिति हार्दिक प्रसन्नता को पाना ही माना गया है | यह मन्त्र इस प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए ही हमें प्रेरित करता है | मन की प्रसन्नता से ही मानव की सर्व इन्द्रियों में स्फूर्ति, शक्ति व ऊर्जा आती है |
मन प्रसन्न है तो वह किसी की भी सहायता के लिए प्रेरित करता है | मन प्रसन्न है तो हम अत्यंत उत्साहित हो कर इसे असाध्य कार्य को भी संपन्न करने के लिए जुट सकते है, जो हम साधारण अवस्था में करने का सोच भी नहीं सकते | हम दुरूह कार्यों को सम्पन्न करने के लिए भी अपना

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हाथ बढ़ा देते हैं | यह मन के प्रसन्नचित होने का ही परिणाम होता है | असाध्य कार्य को करने की भी शक्ति हमारे में आ जाती है | अत्यंत स्फूर्ति हमारे में आती है | यह स्फूर्ति ही हमारे में नयी ऊर्जा को पैदा करती है | इस ऊर्जा को पा कर हम स्वयं को धन्य मानते हुये साहस से भरपूर मन से ऐसे असाध्य कार्य भी संपन्न कर देते हैं , जिन्हें हम ने कभी अपने जीवन में कर पाने की क्षमता भी अपने अंदर अनुभव नहीं की थी |
मन को कभी भी अप्रसन्नता की स्थिति में नहीं आने देना चाहिए | मन की अप्रसन्नता से मानव में निराशा की अवस्था आ जाती है | वह हताश हो जाता है | यह निराशा व हताशा ही पराजय की सूचक होती है | यही कारण है की निराश व हताश व्यक्ति जिस कार्य को भी अपने हाथ में लेता है, उसे संपन्न नहीं कर पाता | जब बार बार असफल हो जाता है तो अनेक बार एसी अवस्था आती है कि वह स्वयं अपने प्राणांत तक भी करने को तत्पर हो जाता है | अत: हमें ऐसे कार्य करने चाहिए, ऐसे प्रयास करने चाहिए, एसा पुरुषार्थ करना चाहिए व एसा उपाय करना चाहिए , जिससे मन की प्रसन्नता में निरंतर अभिवृद्धि होती रहे |
मन की पवित्रता के लिए कुछ उपाय हमारे ऋषियों ने बताये हैं , जो इस प्रकार हैं : –
१. ह्रदय शुद्ध हो : –
हम अपने ह्रदय को सदा शुद्ध रखें | शुद्ध ह्रदय ही मन को प्रसन्नता की और ला सकता है | जब हम किसी प्रकार का छल , कपट दुराचार ,आदि का व्यवहार नहीं करें गे तो हमें किसी से भी कोई भय नहीं होगा | कटु सत्य को भी किसी के सामने रखने में भय नहीं अनुभव करेंगे तो निश्चय ही हमारी प्रसन्नता में वृद्धि होगी |
२. पवित्र विचारों से भरपूर मन : –
जब हम छल कपट से दूर रहते हैं तो हमारा मन पवित्र हो जाता है | पवित्र मन में सदा पवित्र विचार ही आते है | अपवित्रता के लिए तो इस में स्थान ही नहीं होता | पवित्रता हमें किसी से भय को भी नहीं आने देती | बस यह ही प्रसन्नता का रहस्य है | अत; चित की प्रसन्नता के लिए पवित्र विचारों से युक्त होना भी आवश्यक है |
३. सद्भावना से भरपूर मन : –
हमारे मन में सद्भावना भी भरपूर होनी चाहिए | जब हम किसी के कष्ट में उसकी सहायता करते है , सहयोग करते हैं अथवा विचारों से सद्भाव प्रकट करते हैं तो उसके कष्टों में कुछ कमीं आती है | जिसके कष्ट हमारे दो शब्दों से दूर हो जावेंगे तो वह निश्चित ही हमें शुभ आशीष देगा | वह हमारे गुणों की चर्चा भी अनेक लोगों के पास करेगा | लोग हमें सत्कार देने लगेंगे | इससे भी हमारी चित की प्रसन्नता अपार हो जाती है | अत: चित की प्रसन्नता के लिए सद्भावना भी एक आवश्यक तत्व है |
इस प्रकार जब हम अपने मन में पवित्र विचारों को स्थान देंगे , सद्भावना पैदा करेंगे तथा ह्रदय को शुद्ध रखेंगे तो हम विश्वदानिम अर्थात प्रत्येक अवस्था में प्रसन्नचित रहने वाले बन जावेंगे | हमारे प्राय:
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सब धर्म ग्रन्थ इस तथ्य का ही तो गुणगान करते है | गीता के अध्याय २ श्लोक संख्या ६४ व ६५ में भी इस तथ्य पर ही चर्चा करते हुए प्रश्न किया है कि
मनुष्य प्रसन्नचित कब रहता है ?
इस प्रश्न का गीता ने ही उतर दिया है कि मनुष्य प्रसन्नचित तब ही रहता है जब उसका मन राग , द्वेष रहित हो कर इन्द्रिय संयम कर लेता है |
फिर प्रश्न किया गया है कि प्रसन्नचित होने के लाभ क्या हैं ?
इस का भी उतर गीता ने दिया है कि प्रसन्नचित होने से सब दु:खों का विनाश हो कर बुद्धि स्थिर हो जाती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित है उसके सारे दु:ख व सारे क्लेश दूर हो जाते हैं | जब किसी प्रकार का कष्ट ही नहीं है तो बुद्धि तो स्वयमेव ही स्थिरता को प्राप्त कराती है |
जब मन प्रसन्नचित हो गया तो मन्त्र की जो दूसरी बात पर भी विचार करना सरल हो जाता है | मन्त्र में जो दूसरी प्रार्थना प्रभु से की गयी है , वह है दीर्घायु | इस प्रार्थना के अंतर्गत परमपिता से हम मांग रहे हैं कि हे प्रभु ! हम दीर्घायु हों, हमारी इन्द्रियाँ हृष्ट – पुष्ट हों ताकि हम आजीवन सूर्योदय की अवस्था को देख सकें | सूर्योदय की अवस्था उतम अवस्था का प्रतीक है | उगता सूर्य अंत:करण को उमंगों से भर देता है | सांसारिक सुख की प्राप्ति की अभिलाषा उगता सूर्य ही पैदा करता है | यदि हम स्वस्थ हैं तो सब प्रकार के सुखों के हम स्वामी हैं | जीव को सुखमय बनाने के लिए होना तथा स्वस्थ होना आवश्यक है | अत: हम एसा पुरुषार्थ करें कि हमें उत्तम स्वास्थ्य व प्रसन्नचित जीवन प्रन्नचित मिले |

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
१०४-शिप्रा अपार्टमेन्ट, कौशाम्बी
जिला गाजियाबाद उ. प्र.
चलभाष ०९३५४८४५४२६

मन का व्यापक कार्यक्षेत्र

मन का व्यापक कार्यक्षेत्र
.. ऋग्वेद १०.१६४.१ अथर्ववेद २०.९६.२४
मन्त्र पाठ : –
अपेहि मंसस्पते$म काम परश्चर |
पारो निर्रित्या आचक्ष्व बहुधा जीवतो मन: ||
ऋग्वेद १०.१६४.१ अथर्ववेद २०.९६.२४
इस मन्त्र में मन के व्यापक कार्यक्षेत्र की चर्चा कि गयी है | मन जागृत अवस्था में नहीं , अपितु स्वप्न आवस्था में भी क्रियाशील रहता है | मन्त्र में दुस्वप्न के नाशन का विधान है |
स्वप्न के भेद : –
स्वप्न के दो भेद हैं — एक- सुखद और दूसरा – दू:खद | दू:खाद स्वप्नों को दू:स्वप्न कहते हैं | दू:स्वप्न के कारण पाप, दुर्विचार, कम, क्रोध आदि हैं | जागृत अवस्था मैं मनोनिग्रह के द्वारा पाप आदि का निरोध होता है , परन्तु स्वप्न अवस्था में बुरे स्वप्न मनुष्य को दू:खित और चिंतित करते हैं | अत: मन्त्र में बुरे स्वप्नों को दूर करने के लिए पाप के देवता को भगाने का उल्लेख है |
पाप का देवता कौन है : –
पाप का देवता भी मन है , अत: उसे मंसस्पति कहा गया है | दुर्विचार, दुर्भाव ,अनिष्ट – चिंतन , कम क्रोध आदि के भावों के निग्रह का कम भी मन करता है , अत: उसके पवित्रीकरण पर बल दिया गया है |
मन्त्र के अंतिम पद में यही बात स्पष्ट की गयी है कि मनुष्य का मन अनेक प्रकार का है | वह कभी बुराई की ओर जाता है , कभी अच्छाई कि ओर | दुर्गुणों के कारण बुरे स्वप्न आ कर मनुष्य को दू:खित करते हैं | उनकी चिकित्सा है कि सद्गुणों को अपना कर सुखी हों और स्वप्न में भी सुख की अनुभूति करें |

आभार  अशोक  आर्य

तप से सब प्रकार के दुर्भावों का नाश होता है : डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली

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ओउम
तप से सब प्रकार के दुर्भावों का नाश होता है
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है ,किन्तु काम एसे करता है कि वह अपनी करनी के कारण सुखी हो नहीं पाता | वास्तव में आज के प्राणी दुर्भावनाओं से भरे हैं | प्रत्येक व्यक्ति अन्यों से किसी न किसी बहाने द्वेष रखता है | वह चाहता है कि उसे स्वयं को कोई सुख चाहे न मिले किन्तु किसी दुसरे को सुख नहीं मिलना चाहिए | इस प्रयास में वह अपने आप को ही भूल जाता है | अपने दु:ख से इतना दु:खी नहीं है , जितना दुसरे के सुख से | इस के दु:ख का मुख्य कारण है किसी दुसरे का सुखी होना | उस को स्वयं को सर्दी से बचने के लिए बिजली के हीटर की आवश्यकता है | वह इस हीटर को खरीदने के स्थान पर इस बात से अधिक दु:खी है कि उसके पडौसी के पास हीटर क्यों है ? बस इस का नाम ही दुर्भाव है | मनुष्य को सुखी रहने के लिए सब प्रकार के दुर्भावों से हटाने की आवश्यकता होती है | इस के लिए तप की आवश्यकता है | यह तप ही है ,जो मनुष्य को दुर्भावों से दूर कर सकता है | मानव को चाहिए की वह दुर्भावों से बचने के लिए तप की ओर लगे | अथर्ववेद के मन्त्र संख्या ८.३.१३ तथा १०. ५.४९ में भी इस भावना पर ही बल दिया गया है | मन्त्र इस प्रकार है : – परा श्रनिही तपसा यातुधानान
पराग्ने रक्षो हरसा श्रीनिही |
परार्चिषा मूरदेवान श्रीनिही
परासुत्रिपा: शोशुचत: श्रीनिही ||
शब्दार्थ : –
( हे अग्ने) हे अग्नि (यातुधानान) राक्षसों अथवा कपट व्यवहार करने वालों को ( तपसा) तप से (परा श्रीनिही ) दूर से ही नाशत करो ( रक्ष: ) राक्षसों या कुकर्मियों को (हरसा) अपनी शक्ति से (परा श्रीनिही) नष्ट करो (मूरदेवान) मूढ़ देवों को अथवा जड़ देवों के उपासकों को (अर्चिषा )अपने तेज से (परा श्रीनिही) नष्ट करो (असुत्रिषा:) दूसरों के प्राणों से अपनी तृप्ति करने वाले ( शोशुचत:) शोकग्रस्त दुर्जनों को (परा श्रीनिही ) नष्ट करो |
भावार्थ :
– हे अग्निरूप प्रभो ! तुम कपट व्यवहार करने वालों को अपने तप से, राक्षसों तथा कुकर्मियों को अपनी शक्ति से , जड़ देवों के उपासकों को अपने तेज से तथा जीव हत्या करने वाले और सदा शोकग्रस्त दुष्टों को नष्ट कर दो |
अथर्ववेद के इस मन्त्र में चार प्रकार के पापियों को नष्ट करने के लिए चार ही प्रकार से नष्ट ल्कराने की व्यवस्था की गयी है | ये चारों इस प्रकार हैं : –
१. यातुधानों को तप से :-
यातुधानों को तप से नष्ट करने का विधान दिया है | जब तक हम यातुधान का अर्थ ही नहीं जानते तब तक इसे समझ नहीं सकते | अत:पहले हम इस के अर्थ को समझाने का प्रयास करते हैं | जो माया , छल , कपट आदि कुटिल व्यवहारों से अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं , उन्हें ” यातु ” कहते हैं ,धान का अर्थ है – रखने वाले | अत: जो छल. कपट,माया आदि कुटिल व्यवहार रखते हैं , उन्हें यातुधान कहते हैं | मन्त्र में उपदेश किया गया है कि हे तपस्वी मानव ! छल , कपट व मायावी व्यवहार रखने वालों को कठोर से कठोर दंड द्वारा संताप दे कर उन्हें नष्ट कर दें | इस में ही भला है |
२. राक्षसों को हरस से :-
जो राक्षस वृति वाले हैं , उन्हें हरस अथवा अपने तेज से नष्ट कर दो , क्योंकि तेज के सम्मुख कभी राक्षस ठहर ही नहीं सकते | प्रश्न यह उठाता है कि राक्षस है कौन , जिसे यहाँ तेज से नष्ट करने को कहा गया है | राक्षस उसे कहते हैं जो सदैव दुसरे का अहित करने वाले तथा उन्हें दू:ख व संताप देने वाले होते हैं | यह लोग दूसरों को संताप देने में ही आनंद का अनुभव करते हैं | ऐसे लोग तेज से ही नष्ट हो जाते हैं | दूसरों को यातना देकर अपना हित साधने वालों को क्रोध कि अग्नि में जला देना चाहिए |
३. मूरदेवों को अर्चिष से :
इस का वर्णन करने से पूर्व मुरदेव का अर्थ भी समझना आवश्यक है | मुर कहते हैं जड़ को | अत: जो जड़ पदार्थों को अपना देवता मानते हैं, उन्हें मुर्देव कहते हैं | इस प्रकार के लोग जड़ कि पूजा करते हैं, अन्धविश्वासी होते हैं, विद्या रहित होने के कारण यह लोग विवेक से भी बहुत दूर होते हैं | होते हैं बुद्धि नाम कि वास्तु इन के पास नहीं होती | ऐसे लोगों को लापत अर्थात तेज से नष्ट करने का इस मन्त्र में विधान किया गया है |
४. असूत्रिप को शोक से :-
असुत्रिप का अभिप्राय: समझाने से पता चलता है कि इस श्रेणी में कौन लोग आते हैं | असू का अर्थ होता है प्राण तथा त्रिप का अर्थ है पिने वाले या हरण करने वाले या मारने वाले | इस से स्पष्ट है जो लोग दूसरों को मार कर खा जाते हैं, उनका खून पि जाते हैं अथवा दूसरों कि जान लेने में जिन्हें आनंद आता है , ऐसे लोग इस श्रेणी में आते हैं | वेड कहता है कि यह लोग सदा भयभीत रहनते हैं, शोक व क्लेश कभी इन का पीछा नहीं छोड़ते , सदा चिंता में ही रहते हैं | न स्वयं सुखी होते हैं न दूसरों को सुल्ही देख सकते हैं | उन कि यह भावना अंत में पर ह्त्या, आत्महनन या आत्म हिंसा के रूप में परिणित होती है | यह सदा दूसरों के मार्ग में कांटे ही पैदा करने का प्रयास करते हैं , इस करना इन्हें समाज के शत्रु कि श्रेणी में रखा जाता है | अत: वेड मन्त्र एइसे लोगों को नष्ट करने का आदेश देता है |
इस प्रकार प्रस्तुत मन्त्र में यह सन्देश दिया गया है कि दुष्ट, छल, कपट व माया से अन्यों को दू:ख देने वाले तथा दूसरों को मार देने कि इच्छा रखने वाले राक्षसी प्रवृति के लोग समाज के शत्रु होते हैं | जब तक यह लोग जीवित रहते हैं, तब तक समाज के मार्ग को काँटों से भारटा रहते हैं, दू:ख , क्लेश खड़े करने के मार्ग खोजते रहते हैं , इन से सुपथगामी लोगों को सदा ही भय बना रहता है | एइसे लोगों का विनाश ही समाज को सुखी
बना सकता है | इओस लिए ओप्रानी को अकारण वह दू:ख न दे सकें | यह सब केवल तप से ही संभव है | अत: यह तप सी है जो दुर्भावों को नष्ट क्रोध से, तेज से एइसे लोगों को नष्ट कर देना चाहिए , उन्हें मार देना चाहिए | जिससे समाज के किसी भी करने कि क्षमता रखता है | ताप से ही सुखों कि वृष्टि होती है | यदि विनाश से बचना है तो हमें तप करना चाहिए |

डा. अशोक आर्य,मण्डी डबवाली
१०४ – शिप्रा अपार्टमेंट ,कौशाम्बी
जिला गाजिया बाद ,उ. प्र.भारत
चल्वार्ता : 09718528068

सभी इन्द्रियां शक्तिशाली हों ..

सभी इन्द्रियां शक्तिशाली हों ..
मन्त्र पाठ : –
वाणम आसन नसों: प्राणश्च्क्शुरक्ष्नो: श्रोत्रं कर्णयो: |
अपलिता: केशा अशोना दंता बहु बाह्वोर्बलम ||१|| || अथर्ववेद १९. ६०, १ ||
ऊर्वोरोजो जन्घ्योर्जव: पादयो: प्रतिष्ठा |
अरिश्तानी में सर्वात्मानिभ्रिष्ट: || || अथर्ववेद १९
व्याख्यान : –
संस्कृत में सुभाषित है कि ” धर्मार्थकामोक्षानामारोग्यम मुलामुत्त्मम “| धर्म ,अर्थ ,काम ,मोक्ष इस चतुर्वर्गारुपी पुरुषार्थ का मूल आरोग्य है | जहाँ निरोगता है, वहां धर्म है , धन है , सांसारिक सुख है और मुक्ति है | मनुष्य का शरीर स्वस्थ होगा तो सभी कार्य सरलता से हो सकेंगे | यदि मनुष्य रोगी या अस्वस्थ है तो न वह यज्ञ , पूजा – पाठ , वेदाध्ययन आदि धर्म कर सकेगा , न वह धन कमा सकेगा , न सुखों का भोग कर सकेगा और न योगसाधना कर सकेगा , जिससे मुक्ति प्राप्त हो | इस लिए शारीरिक स्वास्थ्य कि और ध्यान देना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है | मन्त्र में इसकी और ही ध्यान दिलाया गया है कि वाणी में शक्ति हो, नाक मैं सूंघने कि शक्ति हो, आँखों में देखने की शक्ति हो , बाल सफ़ेद न हों, दन्त दूषित न हों , भुजाओं में बल हो , जंघा पिंडली और पैरों में गति शक्ति और सफुर्ती हो | इस प्रकार शरीर के सारे अवयव सुपुष्ट हों | साथ ही मनुष्य की आत्मा में उत्साह का पूर्ण संचार हो , निराशा का नाम न हो | ह्रदय में कोई दूषित विचार न आवें , जिससे कभी भी पतन हो |

आभार

अशोक आर्य

हे प्रभु हमारे मन में प्रकाश बढ़ा दो


हे प्रभु हमारे मन में प्रकाश बढ़ा दो
डा . अशोक आर्य
परम पिता परमात्मा ने जीव को कर्म करने की स्वतंत्रता दी है जबकि किये गए कर्म का फल अपने हाथ रखा है । जीव सदा सुखों की कामना करता है । उसकी यह कामना होती है कि संसार के जो भी सुख हैं , तत्काल उसे मिल जावें किन्तु कुछ भी न करना पड़े । मानव पूरा समय ऐसे काम करते जाता हैं ,जिसका फल केवल और केवल अन्धकार ही होता है , फिर कैसे मानव अपने जीवन में सुखों की , प्रकाश की अभिलाषा रखता है । जब बीज ही मिरची के डाल रहे हैं तो गुड कैसे मिलेगा ? जब कि अनथक प्रयास , मेहनत मानव को सुख प्रदान कर देते हैं, अपार अन्धकार हो, तो भी प्रकाश की रश्मियाँ सब और फैलती हैं । सामवेद का मन्त्र भी इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुए कह रहा है :
अग्न : आयाही वीतये ,
गृणानो हव्यदातये ,
नि होता सत्सि बर्हिषि ।। सामवेद 1 ||
संक्षेप में हमें मन्त्र यह सदेश दे रहा है कि जब मानव ह्रदय में प्रभु का प्रकाश हो जाता है तो उसके अन्दर से अन्धकार स्वयमेव ही भाग जाता है , दूर हो जाता है , निकल जाता है । इस प्रकार प्रकाशित ह्रदय को सन्मार्ग की प्रेरणा देते हुए प्रभु अपने सेवकों के बंधनों को कर्मों के फल को देते हुए , कर्म के बंधनों से मुक्त करते हुए , सब बंधनों को काट देते हैं । जब ह्रदय वासना से शून्य हो जाता है , वासना से शुन्य हो जाता है , तब ही विश्व के उस महा उपदेशक अर्थात परमपिता परमात्मा की प्रेरणा के शब्द कानों में आते हैं ।
मन्त्र में कहा गया है कि हे प्रभु ! आप अग्नि होने के नाते अपने भक्तों को आगे ले जाते हैं, मोक्ष की और ले जाने वाले हैं । यही कारण है कि आपको अधिकांशतया अग्नि के नामसे ही पुकारा गया है । जिस प्रकार अग्नि सबको प्रकाशित कर आगे ले जाती है , उस प्रकार ही आप भी जीव को उसके कर्मों के अनुरूप फल देकर उसे आगे ले जातें हो , प्रकाश देते हो । मानव जीवन का यह लक्ष्य है कि वह आगे बढे , प्रगति को प्राप्त हो । अतः मानव जीवन में निरंतर प्रगति पाने के लिए, उन्नति के लिए , प्रकाश प्राप्त करने के लिए निरंतर कर्म कर रहा है तथा प्रभु भी मानव से निरंतर कह रहा है कि ” हे मानव ! तूने मोक्ष को पाना है किन्तु यह तब ही मिलेगा जब तेरे पर मेरी कृपा होगी ” । प्रभु की कृपा को पाने के लिए हम ने प्रयत्न करते हुए अच्छे कर्म करते , दूसरों की सहायता करते हुए उस प्रभु से हमारे ह्रदय के अन्धकार को दूर कर प्रकाश देने, ज्ञान देने की प्रार्थना करते है । जब हमारे में प्रभु के प्रकाश की ज्योति जग उठेगी तो वहां अन्धकार कैसे रह सकेगा ? प्रकाश में तो अन्धकार किसी भी अवस्था में रह ही नहीं सकता । प्रभु से प्राप्त ज्योति में, प्रकाश में सब प्रकार के अन्धकार, सब प्रकार के दोष दूर प्रकार के हो जाते हैं ।
जब मानव के जीवन से अन्धकार नष्ट हो जाता है , प्रकाश की ज्योति जग जाती है तो मानव को एक अन्य इच्छा होती है , इस इछा को कल्याण के नाम से जाना जाता है । अब मानव कल्याण चाहता है । इस निमित मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे प्रभु ! आप भक्तों के बन्धन को काटने का कार्य भी करें । वह जीव ही हव्य कहे जा सकते हैं , जो प्रभु में शरद्धा तथा विश्वास रखते हैं । जब तक प्रभु में विश्वास ही नहीं तब तक उसकी उपासना नहीं की जा सकती तथा बिना उपासना के प्रभु का आशीर्वाद नहीं मिल सकता । इसलिये प्रभु में पूर्ण विश्वास रख कर उसकी उपासना करने से प्रभु उसके आह्वान को सुनेंगे तथा उसके कृपा पात्र बनकर उसे कु छ देंगे । पारम्पिता परमात्मा उसके ही बंधनों को काटते हैं,जो सच्छे ह्रदय से उस का भक्त हो अन्य के नहीं । अत: उस प्रभु की कृपा को पाने के लिए सच्चे मन से उस का भक्त बनना होगा, उस प्रभु को स्मरण करना होगा,उस प्रभु के समीप जाना होगा,उसे अपना बनाना होगा, तब ही उसके आशीर्वाद से हमारा कलयाण होगा ।
मन्त्र जिस तीसरे तथ्य की और इंगित कर रहा है ,वह है कि हमें यह सब देकर प्रभु हमारे ह्रदय पर शासन करे, ह्रदय में निवास करे, ह्रदय में विराज हो । अत: हम परमपिता से प्रार्थना करते हैं कि हे सृष्टि के महान उपदेशक प्रभो ! जिस मानव ने आप का सानिध्य प्राप्त कर , जिस मानव ने आपकी उपासना कर, जिस मानव ने सद्कर्म कर आप का विश्वास प्राप्त किया है तथा अपनी वासनाओं को, अपने अज्ञान को, अपने अन्धकार को नष्ट कर लिया है , उस के ह्रदय रूपी अंतरिक्ष में अर्थात यह सब दूषण निकल जाने के पश्चात उन के ह्रदय में जो आकाश रूपी खाली स्थान बना है , उसमें आप निरंतर तथा सदा के लिए विराजमान हों, वहां आप अपना निवास बनावें। आप इस स्थान पर ही सदा अपना आसन रखें । अत: आप इस स्थान पर निवास करें, विराजमान होवें । हम सब जानते हैं कि वह प्रभु पवित्रता को ही पसंद करते है । जहाँ पवित्रता होती है, प्रभु स्वयमेव्व ही  डेरा वहां डाल लेता है । जब हमारे हृदय से सब प्रकार के कलुष, सब प्रकार की कुवृतिया, सब प्रकार के क्लेश तथा सब प्रकार के अन्धकार नष्ट हो जावेंगे तो वह प्रभु निश्चय ही वहां अपना आसन जमा कर हमें प्रकाश देते हुए दर्शन देगा । इस प्रकार उस प्रभु के संपर्क में आकर हमें अनेकविध शक्ति प्रदान करता है । अत: यह शक्ति प्राप्त करने के लिए हमें अपने अन्दर को धोना है, सब क्लेशों से रहित करना है , कल्याण के मार्ग्ग पर आना है तथा प्रभु का हमारे अन्दर निवास हो सके अपने आप को इस योग्य बनाना है , तब ही हम आगे बढ़ सकेंगे ।
डा . अशोक आर्य
104 ..शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी ,
201010 जिला गाजियाबाद
चल्वार्ता : 09718528068

सोमपान से हमारा जीवन स्वादिष्ट होता है

ओउम
सोमपान से हमारा जीवन स्वादिष्ट होता है
डा अशोक आर्य
ऋगवेद का नवं मण्डल का ऋषि ” मधुच्छन्दा विश्वामित्र:” है ,जबकि इस वेड का प्रारम्भ भी इसी ऋषि के सूक्त से ही हुआ है । इस में सोम के रक्षण की कामना की गयी है । सोम से अभिप्राय शक्ति से होता है । अत: यश पुर का पूरा सूक्त सोम से ही सम्बन्ध रखते हुए सोम के विभिन्न कार्यों व शक्तियों का उल्लेख करते हुए सोम की रक्षा करने का आह्वान करता है । यह सूक्त बताता है कि सोम मधुर होता है तथा इस का संग्रह करने वाला भी सदा मधुर ही होता है , मधुर ही बनाता है । मधुर भाषी तथा मधुर व्यवहारी होने के कारण वह सदा दूसरों के हित की ही सोचता है अहित की कभी कामना नहीं करता । इस प्रकार की इच्छा रखते हुए वह इस सूक्त के प्रथम मन्त्रके माध्यम से प्रार्थना करता है कि सोम हमारे जीवन को मधुर, स्वादिष्ट तथा मदिष्ट बनाता है । इसलिए हम जितेन्द्रिय बनें तथा सोम को अपने शारीर में ही संभालें ,व्याप्त रखें ।इस सूक्त में कुल दस मन्त्र हैं , जिनके माध्यम से इसे प्रकाशित किया गया है । प्रथम मन्त्र में इस तथ्य को इस प्रकार प्रकात्किया गया है : –
1. स्वादिष्ठया मदिष्ठ्या पवस्व सोम धारया ।
इन्द्राय पातवे सूत : ।। ऋगवेद 9.1.1. ।।
2. सोम रोगनाशक ,ज्ञानवर्धक है तथा शारीर मेंलोह्कण व् रुधिर को बढ़ता है
रक्षोहा विशवचर्श्निरभी योनिमयोहतम ।
दृणउनां सधस्थमासदत ।। साम 9.1.2 ।।
3. रक्षित सोम हमें उदार्वृति वाला बनाता है जिससे हम सुपथ पर चलते हैं
वरिवोधातमो भव मन्हीश्ठो वृत्रहन्तम: ।
पर्षि सधो मघोनाम ।। साम 9.1.3 ।।
4. सोम्रक्षण से ज्ञान व पवित्रता से हम देव बनते हैं,शक्ति व यश मिलता है
अभ्यर्श महानां देवानां वीतिमन्धसा ।
अभि वाजमुत श्राव: ।। सैम 9.1.4 ।।
5. सोमारक्षण से सब कामनाएं पूर्ण होती है
त्वामच्छा चरामज्सि तदिदर्थं दिवे दिवे ।
इन्दो तवे न आशस:।। सोम 9.1.5 ।।
6. श्रद्धा से सोम पवित्र होकर हमें बल तथा स्फुर्तियुक्त शक्ति देता है
पुनाति ते परिस्त्रत्न सोमं सूर्यस्य दुहिता ।
वारेण शश्वता ताना ।। साम 9.1.6 ।।
7. बुद्धि इन्द्रियों से सोम रक्षण कर विषयों से उठ उचक ज्ञान पावें
तमोमन्वी: समर्य आ ग्रभ्नन्ति योषनो दश ।
स्वसार: पार्ये दिवि ।। साम 9.1.7 ।।
8. सोम त्रिधातु वारण मध्य है ,उन्नतिपथ पर चलने से रक्षण होता है
तमीं हिन्वन्त्यग्रुवो धमन्ति बाकुर्ण द्रतिम ।
त्रिधातु वारण मधु ।। साम 9.1.8 ।।
9. स्वाद्याय से सोमारक्षण तथा बुद्धि तीव्र होती है
अभी3ममध्न्या उत श्रीनंती धेनव: शिशुम ।
सोममिन्द्राय पातवे ।। साम 9.1.9 ।
10. हम जितेन्द्रिय व दानी बनें
अस्येदिन्द्रो मदेष्वा विश्वा वृत्रानी जिघ्रते ।
शूरो मघा च महते ।। साम 9.1.10 ।।
इस प्रकार इस सूक्त के कल दस के दस मन्त्रों में सोम रक्षण पर बल दिया है यह्सोम हमारी शक्ति को बढ़ा कर हमें मधुर भाषी व बलशाली बनाता है । मधुर भाषी व बलाशाली बनने से हम अत्यधिक महानता से धनोपार्जन कारते हैं । इसा धन से हमारी सब आवश्यकताएं पूर्ण होती हैं तथा हम शेष धन से दूसरों की सहायता करते है तथा खूब स्वाध्याय कर अपने ज्ञान को भी बढाते हैं । इससे हमारे धन एशवर्य के साथ ही साथ यस व् कीर्ति भी दूर दूर तक जाते हैं । हमारे सब रोग भी छुट जाते है तथा हम सदा स्वस्थ रहते हैं । स्वस्थ होने से हमारे कार्य की गति भी बढाती है ।
उपार हमने मूल मन्त्र दिए हैं । इनकी अलग अलग व्याख्या नहीं कर पाए । केवल भाव ही दिया है ।

डा अशोक आर्य
104 -शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी 201010 गाजियाबाद
चलावार्ता : 09718528068
E MAIL ashokarya1944@rediffmail.com

अच्छे काम करने से आयु लम्बी होती है

ओउम
अच्छे काम करने से आयु लम्बी होती है
डा. अशोक आर्य
प्रत्येक प्राणी की अभिलाषा होती है कि वह लम्बी, अत्यंत लम्बी आयु प्राप्त करे | आयु लम्बी ही नहीं सुखमय भी हो | दु:खों से भरी छोटी सी आयु भी जीवन को जीने का आनंद प्राप्त करने नहीं देती | दु:खों से भरा प्राणी सदा इस संसार से छुटकारा पाना चाहता है | जब आयु सुखों से भरी हो तो कितनी भी लम्बी हो , इस में प्राणी प्रसन्न ही रहता है | इस लिए ही वह सुखों से भरपूर दीर्घ आयु की कामना करता है | दीर्घ आयु के अभिलाषी को कर्म भी ऐसे ही करने होते हैं , जिस से वह प्रसन्न चित रह सके , द्रश्य भी ऐसे देखने होते हैं , जो उस की प्रसन्नता को बढ़ा सके | संवाद भी ऐसे सुनने होते हैं , जो उस की खुशियों को बढ़ा सकें | बोलना भी एसा होता है, जो अच्छा हो ताकि प्रतिफल में उसके कानों में संवाद भी अच्छे ही पड़ें | इस निमित ऋग्वेद के मन्त्र १.८९.८ तथा यजुर्वेद के मन्त्र २५.२१ ; सामवेद के मन्त्र १८२४ ; तैतिरीय ; आर. १.१.१ में बड़ा सुन्दर उपदेश किया गया है : –
भद्रं कर्णेभी: श्रुणुयाम देवा ,
भद्रं पश्येमाक्श्भिर्यजत्रा |
स्थिरैरंगेर्स्तुश्तूवान्सस्तानुभी –
व्यशेमही देवहितं यदायु: || ऋग्वेद १.८९.८ ; यजुर्वेद २५.२१;
सामवेद १८२४ ;तैतिरीय ;आर.१.१.१ .||
शब्दार्थ : –
(यजत्रा:) हे पूजनीय ( देवा: ) देवो ! ( कर्नेभी:) हमारे कानों में (भद्रं) मंगल (स्रुनुयाम) सुनें (अक्षभि:) आँखों से (भद्रं) अच्छा (पश्येम) देखें (स्थिरे) पुष्ट (अन्गई) अंगों से (तुश्तुवान्सा) स्तुति कर्ता (तनुभी:) अपने शरीरों से (देवहितं) देवों के हितकर (यात आयु:) जो आयु है उसे (व्यशेमही ) पावें |
भावार्थ : –
यह मन्त्र दो बातों पर विशेष बल देता है | यह दो बातें ही मानव जीवन का आधार है | यह दो अंग ही मानव का कल्याण कर सकते हैं तथा यह दो अंग ही मानव को विनाश के मार्ग पर ले जा सकते हैं | यदि हम इन दोनों को अच्छे मार्ग पर ले जावेंगे , सुमार्ग पर लेजावेंगे , अच्छे कार्यों के लिए प्रयोग करेंगे तो हम जीवन का उद्देश्य पाने में सफल होंगे | अन्यथा हम जीवन भर भटकते ही रहेंगे , कुछ भी प्राप्त न कर सकेंगे | यह दो विषय क्या हैं , जिन पर इस मन्त्र में प्रकाश डाला गया है , यह हैं : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छा ही सुनें
२. हम अपोअनी आँखों से सदैव अच्छा ही देखें
विश्व का प्रत्येक सुख इन दो विषयों से ही मिलता है | हमारी शारीरिक पुष्टि भी इन दो कर्मों से ही होती है | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सुख की खोज मैं भटक रहा है किन्तु वह जानता नहीं की सुख उसे कैसे मिलेगा ? | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सदा प्रसन्न रहना चाहता है किन्तु वह यह नहीं जानता की प्रसन्न रहने का उपाय क्या है ? जीवन पर्यंत वह इधर से उधर तथा उधर से इधर भटकता रहता है किन्तु न तो उसे सुख के ही दर्शन हो पाते हैं तथा न ही प्रसन्नता के | हों भी कैसे ? जहाँ पर सुख से रहने का , प्रसन्नता से रहने का साधन बताया गया है , वहां तो जा कर खोजने का उस ने उपाय ही नहीं किया | वेदों के अन्दर यह सब उपाय बताये गए हैं किन्तु इस जीव ने वेद का स्वाध्याय तो दूर उसके दर्शन भी नहीं किये | किसी वेदोपदेशक के पास बैठ कर शिक्षा भी न पा सका | फिर उसे यह सब कैसे प्राप्त हो ? वेद कहता है कि हे मानव ! यदि तू सुखों की कामना करता है , यदि तू जीवन में प्रसन्नचित रहना चाहता है , यदि तू हृष्ट पुष्ट रहना चाहता है , यदि तू दीर्घ आयु का अभिलाषी है तो वेद की शरण में आ | वेद तुझे तेरी इच्छाएं पूर्ण करने का उपाय बताएगा | प्रस्तुत मन्त्र में भी मानव को सुखमय , संपन्न व प्रसन्न – चित रहने के उपाय बताये हैं |
यदि मानव आजीवन सुखी रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन प्रसन्न रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन निरोग व स्वस्थ रहना चाहता है तो उसे अपने आप को कुछ सिद्धांतों के साथ जुड़ना ही होगा , कुछ नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | बिना नियम बध हुए कोई भी कार्य सफल नहीं होता , संपन्न नहीं होता | कर्तव्य परायण व्यक्ति , दृढ प्रतिज्ञ व्यक्ति के लिए यह नियम अत्यंत ही सरल होते हैं किन्तु कर्म से जी चुराने वाले के लिए , पुरुषार्थ से भागने वाले आलसी के लिए यही नियम ही कठोर बन जाते हैं , जिन्हें करने से वह जी को चुराता है | किसी को चाहे यह नियम कठोर लगें या किसी को सरल किन्तु सुख की कामना के लिए,, प्रसन्नता पूर्ण जीवन की प्राप्ति के लिए , निरोग शरीर को पाने के लिए तथा लम्बी आयु के लिए इन नियमों का पालन आवश्यक है | इसके बिना कोई अन्य मार्ग उसके पास नहीं है | बस इस के लिए अपने पास अच्छे व सुलझे हुए विचारों का स्वामी होकर मन को अपने वश में रखना होगा ,इन्द्रियों को वश में करना होगा तथा अपने में सात्विक भाव जगा कर कर्मशील होना आवश्यक है | यदि हम स्वयं को इस प्रकार चला पाने में सफल होते हैं तो मन्त्र में वर्णित नियम हमें सरल ही लगेंगे | यदि हमारा मन ही हमारे वश में नहीं है , यदि हमारे विचार ही विश्रन्खल हैं , यदि हमारा अपनी इन्द्रियों पर ही अधिकार नहीं है तथा हम में कोई सात्विक भाव ही नहीं है तो सुखों की आराधना के लिए जो नियम बनाए गए हैं, वह अत्यंत कठोर लगेंगे | जो इन नियमों को अपने जीवन में अंगीकार कर लेगा , वह सुखी व प्रसन्न होगा, धन ऐश्वर्यों का स्वामी होगा तथा लम्बी आयु पाने का अधिकारी होगा अन्यथा भटकता ही रहेगा |
कठोर अनुशासन के बंधन में बंधे बिना कभी कोई उपलब्धि नहीं मिला करती | सफलता सदा उसी को ही मिलती है जो कठोरता से नियमों के पालन का व्रत लेता है | अत- स्पष्ट है की जीवन में कठोर अनुशासन लाये बिना , नियमों का कठोरता से पालन किये बिना न तो सुख मिल सकता है न ही समृद्धि | यदि सुख , समृद्धि ही नहीं पा सके तो प्रसन्नता कहाँ से होगी | फिर प्रसन्नता के बिना लम्बी आयु भी संभव नहीं | अत: लम्बी आयु की कामना करने वालों को कठोर नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | प्रस्तुत मन्त्र भी इन दो बातों पर ही प्रकाश डालता है | मन्त्र कहता है कि : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छी बातें ही सुनें | अच्छी चर्चा से मन प्रसन्न होता है | प्रत्येक मानव जो भी कार्य करना चाहता है , वह अपनी प्रसन्नता के लिए ही करता है | अत: अपनी प्रसन्नता के लिए अच्छी चर्चाओं को ही सुनना चाहिए | अच्छी चर्चा को सुनकर मन को प्रसन्नता मिलेगी | प्रसन्न मन सदा राग – द्वेष से दूर रहता है | अत: राग – द्वेष के रोग से भी छुटकारा मिलेगा | ह्रदय के शांत बनने से जीवन में पवित्रता आवेगी | जिस का जीवन पवित्र है उसको सदा अच्छे मित्र अथवा सहयोगी मिलते हैं , जिससे उसकी ख्याति सर्व दिशा में फ़ैल जाती है |
२. मन्त्र कहता है कि हम यदि सुखी, संपन्न व प्रसन्न और स्वस्थ रह कर लम्बी आयु पाना चाहते हैं तो आँखों से सदा अच्छे दृश्य ही देखें | अच्छे दृश्य देखने की अभिलाषा रखने वाले की आँख कभी कुवासना , दूषित मनोवृति के दृश्य देखना पसंद ही नहीं करेगी | दूसरे शब्दों में एसा व्यक्ति स्वयमेव ही कुवासना तथा दूषित मनोवृति को अपने पास आने ही नहीं देगा | जब हम कुवासना से रहित होंगे | गंदे व दूषित वातावरण से दूर रहेंगे तो हमें मित्र , सहयोगी व प्रिय लोगों के ही दर्शन होंगे | ऐसे सहयोगी मिलेंगे , ऐसे मित्र मिलेंगे जो इन दु:खो क्लेशों से दूर रहते हुए शुद्ध मन के निर्माण के लिए शद्ध भावना रखते होंगे | जब हमारा अनुगमन व मार्ग दर्शन ऐसे स्वच्छ साथियों के हाथ में होगा तो हमारे में घृणा व कटुता की कोई भावना आ ही नहीं सकेगी | मात्सर्य तथा मनोमालिन्य के अवसर कभी आवेंगे ही नहीं | उत्तम मित्रों में बैठ कर प्रत्येक क्षण उत्तम चर्चाएँ होने से कानों में सदैव मधुर स्वर ही पडेंगे ऐसे मित्रों के साथ यात्रा भी करेंगे तो आँखें भी सदा सुन्दर दृश्य ही देख पावेंगी क्योंकि सद्मित्र कभी बुरा नहीं देखते |
स्पष्ट है की इन दोनों नियमों के पालन से हमारे संयम को पुष्टि मिलेगी | संयम पुष्ट होने से शरीर स्वस्थ रहेगा | जब शारीर स्वस्थ व निरोग होगा तो मन प्रसन्न रहेगा | स्वस्थ शरीर व प्रसन्न मन ही दीर्घ आयु का आधार होते हैं | इस प्रकार इन दो नियमों के पालन का परिणाम ही दीर्घ आयु की प्राप्ति है | जब मात्र दो नियमों के पालन से हमें सुख , समृद्धि , पुष्टि , संयम , स्वास्थ्य , निरोगता , प्रसन्नता व दीर्घायु के साथ ही साथ अच्छे मित्र व सहयोगी भी मिलेंगे , यश व कीर्ति भी मिलेगी तो इन्हें अपनाने से कौन इंकार करेगा | जब एक साथ इतना कुछ मिलेगा तो इस नियम पालन से हम परहेज कैसे कर सकते हैं ? निश्चय ही पालन करेंगे

डा. अशोक आर्य १०४ – शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१० गाजियाबाद उ.प्र.
चलभाष : ०९७१८५२८०६८

पृथ्वी के समान माता पिता भी दानी व मृदुभाषी हों

ओउम

पृथ्वी के समान माता पिता भी दानी व मृदुभाषी हों
डा. अशोक आर्य ,
माता पिता सदा संतान का सुख चाहते हैं | संतान का पालन करते हुए कोई भी माता या पिता प्रतिफल की इच्छा नहीं रखता | इतना ही नहीं प्राय: सब माता पिता अपने बच्चों का हट चाहते है तथा उन्स म्र्दुभाषा में ही बात करते हैं | यह माता पिता का यूँ कहा जा सकता है की संतान के लिए एक महान दान है | दुसरे सब्दों में हम कह सकते हैं कि यह माता पिता कि दान कि प्रवृति है | एक प्रकार से बच्चों का पालन अराते हुए जब बिना किसी प्रतिफल कि भावना से बच्चों का भरण पोषण करते हैं , उनकी सब आवस्यकताओं को पूरा करते हैं , उनको सुशिक्षा देने कि न केवल व्यवस्था जी करते हैं अपितु उनकी से ऊँची शिक्षा दिलाने का भी प्रयास करते हैं | सदा उनसे मीठा ही बोलते हैं | इस प्रकार माता पिता के सम्बन्ध में ऋग्वेद के अध्याय ५ मंडल ४३ के मन्त्र २ में इस प्रकार कहा गया है : –
आ सुष्टुति नमसा वर्तायध्ये ,
द्यावा वाजाय पृथ्वी अम्रिघ्रे |
पिता माता मधुवचा: सुहस्ता
भरेभरे नो यशासावविष्टाम || ऋग्वेद ५.४३.२ ||
शब्दार्थ : –
( अहं } मैं (सुष्टुति } उत्तम स्तुति से (नमसा) नमस्ते से (अम्रिध्रे )अजेय (द्यावा पृथ्वी) द्युलोक ओर पृथ्वी (वाजाय) बल या शक्ति हेतु (आ वर्त्यध्ये इच्छामि ) अपनी ओऊ लाने कि इच्छा से (यशसौ } यशस्वी (पिता माता ) पिता माता सम (म्रिधुवचा:) मीठा बोलने वाले (सुहस्ता ) सुन्दर हाथ वाले (भरे भरे ) प्रत्येक संकट मैं (न:) हमारी (अविष्टाम) रक्षा करें |
इस मन्त्र में माता पिता के कर्तव्यों का बड़े ही सुन्दर व सरल ढंग से उल्लेख किया गया है | मन्त्र कहता है कि माता पिता सदा मधुर बोलें , बड़े ही सुन्दर ढंग के दानी बनें, वह यशस्वी हों तथा संकट में पड़े अपनी सन्तान की रक्षा करें | यह माता पिता के मुख्य कर्तव्य इस मन्त्र में बताये गए हैं | |

मन्त्र कहता है कि माता पिता मधुर भाषी हों | मधुर भाषण से हमें अनेक विशेषताओं का ज्ञान होता है | जैसे मधुर भाषण करने वाला सदैव प्रसन्न रहता है | यह मीठा बोलने की विशेषता है कि जो मीठा बोलता है , उसे किसी के विरोध का सामना नहीं करना पड़ता| इसलिए उसे कोई कष्ट होता ही नहीं | जब कष्ट नहीं होता तो वह सदा प्रसन्न ही तो रहेगा | न तो उसे कोई दु:ख होगा तथा न ही उसे कोई तंग करेगा जिससे उसकी प्रसन्नता निरंतर बढती चली जाती है | अत: स्पष्ट है की म्रदुभाशी सदा प्रसन्न रहता है | जब वह मीठा बोलता है तो उसके वचनों से किसी को भी कष्ट नहीं होता अपितु उसके वचनों से सुख ही मिलता है | जिस के द्वारा किसी को सुख मिलता है तो वह निश्चित रूप से उसकी अच्छई कि चर्चा अनेक स्थानों पर करता है | इस प्रकार उसकी ख्याति भी दूर दूर तक फैलाती है | इस का नाम है वशीकरण | अर्थात मीठा बोलने से सब लोग स्वयं ही उस कि और खींचे चले आते हैं | इसा के अतिरिक्त मीठा बोलकर जीतनी सरलता से दुसरे को जीता जा सकता है, जीतनी सरलता से दुसरे को अपने बश में किया जा सकता है , उतनी सरलाता से दुसरे को वश में करने का कोई एनी उपाय नहीं | अत: मीठा बोलने को वशीकरण मन्त्र भी कहा जा सकता है और मीठा बोलने से संतान सुसंतान बनाकर माता पिता का अनुगमन करते हुए माता पिता के सामान ही मृदुभाषी बनेगी |

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
१०४ – शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कोशाम्बी
जिला गाजियाबाद ,उ.प्र.
चल्वार्ता :: ०९७१८५२८०६८

देशभक्त और यशस्वी हों ..

ओउम
देशभक्त और यशस्वी हों ..
देशभक्ति किसी भी देश के नागरिकों की प्रथम तथा महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है | जब तक देश के नागरिक देशभक्त नहीं, तब तक देश का उत्थान संभव नहीं, देश की उन्नति संभव नहीं , नागरिकों में चरित्र संभव नहीं , यहाँ तक कि किसी का उत्तम भविष्य भी संभव नहीं | एक सफल राष्ट्र की यह प्रथम आवश्यकता होती है कि उस देश के नागरिक देश भक्त हों | जिस देश के नागरिक देशभक्ति में पूर्णतया अनुरक्त हों, वह देश सब प्रकार की उन्नति करते हुए विश्व में एक अग्रणी देश के रूप में उभरता है | प्रत्येक उन्नत देश का अनुगामी बनाने का प्रयास अन्य देश भी करते हैं | ठीक वैसी ही देश भक्ति, वैसे ही उत्पादन, वैसी ही सरकार तथा वैसे ही नागरिक पैदा करने के उदहारण अन्य देशों में दिए जाते हैं | इस प्रकार उस देश की ख्याति भी विश्व भर में बढ़ जाती है | उस के इस यश व कीर्ति को देख कर उस जैसा बनने की प्रेरणा सब देशों में आती है , बस इस का नाम ही यश है, यशस्विता है | अथर्ववेद मैं भी इस तथ्य को स्पस्ट करते हुए कहा है कि : –
ब्रह्म च क्षत्रं च राष्ट्रं च विशश्च,
त्विविश्च यशश्च वर्च्श्च द्रविणम च || अथर्ववेद १२.५.८ ||
हम ब्रह्म शक्ति अर्थात विद्या , क्षात्र शक्ति अर्थात शौर्य देश की उन्नति , उत्तम प्रजा अर्थात वनिक वर्ग, यश, तेज , कांति और धन प्राप्त करें |
इस मन्त्र में प्रभु से समाज व परिवार की उन्नति के लिए आठ वस्तुएं मांगी गयी हैं , ये हैं – ब्रह्म शक्ति ,क्षात्र शक्ति राष्ट्रीय ,विष ,त्विथी ,यश ,वर्चस और द्रविण .माँगा गया है |
इस मन्त्र में देशभक्ति के तथा यश प्राप्ति के लिए जो आठ वस्तुएं मांगी गयी हैं, उन में से कुछ साधन हैं और कुछ साध्य हैं | . राष्ट्र और प्रजा की उन्नति साध्य है . जहाँ विष अर्थात प्रजावर्ग संतुष्ट है ,सुखी है ,कष्ट क्लेश से रहित है , कोई संकट प्रजा को नहीं सता रहा , वहां का राष्ट्र भी प्रसन्न है | हम जानते हैं कि राष्ट्र के साथ प्रजा का अभिन्न सम्बन्ध होता I. प्रजा अंग है तो राष्ट्र अंगी होता है | प्रजा की समृधि से राष्ट्र की समृद्धि संभव हो पाती है | प्रजा और राष्ट्र की उन्नति के साधन हैं – ब्रह्मशक्ति और क्षत्र शक्ति | . जहाँ ज्ञान और शौर्य प्रबल होंगे , जहन विद्वान तथा शक्तिशाली लोग होंगे वहां सब प्रकार की उन्नति होगी | इसलिए मन्त्र के प्रारम्भ में ही इन ब्रह्म और क्षात्र सब्दों को अथवा शक्तियों को रखा गया है . ब्रह्म और अर्थात ब्राह्मण अर्थात विद्वान् लोग अर्थात शिक्षा का प्रसार करने वाले लोग तथा क्षात्र अर्थात देशा के रक्षक अथवा सैनिक व सरकार उन्नत है तो वह राष्ट्र और प्रजा को भी उन्नत करेंगे | यदि यह सुस्त हैं, उन्नति की और बढने के अभिलाषी नहीं है , निष्क्रिय है , लालची व स्वार्थी हैं तो देश का डूबना भी निश्छित ही होता है |.
जब ब्रह्म और क्षात्र के आधार पर ही देश ,राष्ट्र व इस के सब समुदाय सुख , वैभव, धन एश्वर्य के स्वामी बन पाते हैं | यदि यह दोनों शक्तियां उन्नत होगी तो ही तो प्रजा में धन की समृधि होगी तथा व धन धन्य से भरपूर हो सब प्रकार के धन एशवर्य की स्वामी बनेगी | समृधि का आधार ब्रह्म और क्षात्रशक्ति का समन्वय ही तो ह्होता है | इन दोनों शक्तियोंका एक ही उद्देश्य होता है, प्रजा को सुखी बनाना | जब प्रजा की समृधि होगी , धन धान्य से भरपूर होगी , सब प्रकार के क्लेशों से मुक्त होगी तब राष्ट्र का भी यश होगा . इस बात की विशव भर में चर्चा होगी कि अमुक देश के लोग कितने संपन्न व कष्ट रहित हैं , हम भी उनके अनुगामी बनें | जब प्रजा के सब व्यक्ति इस प्रकार के यशस्वी होंगे .तो इस यशस्विता का फल होगा कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति में वर्चस और त्विथी उत्पन्न होंगे . त्विथी दे एप्ती या काँटी है . इससे स्फूर्ति आती है . ओजस और वर्चस को इस काँटी का कर्ण बताया है |.
ऋग्वेद में भी कहा है …
तिथ्ती दधान ओजसा | ऋग्वेद . ९ .३९ .३
इस सब से स्पस्ट होता है कि प्रत्येक राष्ट्र की उन्नति, समृद्धि , सुरक्षा का आधार उस देश कि ब्रह्म शक्ति तथा उस देश कि \क्षात्र शक्ति होती है | ब्रह्म शक्ति देश को शिक्षित करने वाले लोगों से बनती है | इन लोगों की अवस्था जैसी होगी , भाविष्य भी उस प्रकार का ही बनेगा | यह लोग सुखी व क्लेश रहित हैं तो इस से शिक्षा पाने वाले समुदायों को यह लोग अच्छी शिक्षा दे पावेंगे , जिस से सब वर्ग सुखी व धन ऐश्वर्यों के स्वामी बनेंगे | यदि यह समुदाय निर्धन है, बेसहारा है, दु:खी है तो अन्यों को क्या ख़ाक शिक्षा दे पावेगा | जब स्वयं ही अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संघर्ष में लगा रहेगा तो अन्यों को शिक्षित करने के लिए उसके पास समय ही कहाँ बचेगा | इस लिए ब्रह्मशक्ति का दुःख, कष्ट से रहित होना आवश्यक है |
देश की उन्नति का आधार जो दूसरी शक्ति है उसे क्षात्र शक्ति कहा गया है | इस शक्ति का कार्य देश की व्यवस्था व सुरक्षा का होता है | ईस शक्ति को हम देश की सेना के रूप में जानते हैं | सरकार को भी हम इस श्रेणी में रख सकते हैं | इस का कार्य होता है देश के लोगों के जान व माल की रक्षा न केवल चोर डाकुओं व लुटेरों से करना ही होता है अपितु विदेशी आक्रमण कारियों से भी बचाना होता है | यह कार्य भी वह व्यक्ति ही कर सकता है जो ब्राह्मण के समान ही सुखी व संपन्न होने के साथ ही साथ सब प्रकार की शक्तियों का स्वामी है | यह सब कुछ भी एक सुखी व संपन्न व्यक्ति ही कर सकता है अन्यथा वह स्वयं के परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए संघर्ष करता रहेगा , कई बार तो इन आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए देश में ही लूट आदि के कार्य करने लगेगा , फिर अन्यों का रक्षक, अन्यों का सहयोगी कैसे बन पावेगा ? इस लिए इस समुदाय का भी सुखी व संपन्न होना आवश्यक है ताकि यह अपने कर्तव्यों को आदर सहित संपन्न कर सके |संक्षेप में हम कह सकते हैं कि वह देश, वह राष्ट्र ही सुख संपन्न व धन ऐश्वर्यों का स्वामी बन सकता है जिस के नागरिक सुखी हों तथा उस देश के नागरिक ही सुखी व धन ऐश्वर्यों के स्वामी बन सकते है ,जिस के विद्या देने वाले तथा रक्षा करने वाले सुखी व धन ऐश्वर्यों के स्वामी हों | इस ल्लिये देश को सुखों व सम्पति से भरपूर बनाने के लिए हमें ऐसे साधन अपनाने होंगे, जिस से ब्रह्मशक्ति व क्षात्र शक्ति सुखी व संपन्न हो ताकि वह अपना पूरा समय प्रजा के सुखों को बढाने व प्रजा की रक्षा करने में ही लगा सके | इस से ही लोग देशभक्त होंगे | देशभक्त ही यश पाते हैं |
डा , अशोक आर्य्य
१०४ – शिप्रा ,अपार्टमेंट, koushaambi ,गाजियाबाद