कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः वत्सः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।
प्रति पन्थामपद्महि स्वस्तिगामनेहसंम् ।। येन विश्वाः परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु ॥
-यजु० ४। २९
हे अग्नि! हे अग्रनायक जगदीश्वर ! हम (स्वस्तिगाम्) कल्याण प्राप्त करानेवाले, (अनेहसम्) निष्पाप (पन्थां प्रति) मार्ग पर (अपद्महि) चलें, (येन) जिससे, मनुष्य (विश्वाः द्विषः) सब द्वेषों या द्वेषियों को (परिवृणक्ति) दूर कर देता है और (विन्दते) पा लेता है (वसु) ऐश्वर्य। |
हम जीवन में न जाने कैसे-कैसे मार्गों पर चलते रहते हैं। कभी हम ऐसे बीहड़ मार्ग पर चल पड़ते हैं, जो एक तो बहुत ही कण्टकाकीर्ण होता है, दूसरे जिसके विषय में यही नहीं पता चलता कि यह हमें ले कहाँ जायेगा। कभी हम ऐसा मार्ग चुन लेते हैं, जो होता तो बहुत आकर्षक है, पर जिसका अन्त होता है खाई-खड्डे में। आओ, हमें किस मार्ग से चलना चाहिए यह हम ‘अग्नि’ नामवाले उस प्रभु से ही क्यों न पूछे, जो सदा हमारा अग्रनायक बनता है। प्रभु हमें सन्देश दे रहे हैं कि हम ऐसे मार्ग पर चलें, जो ‘स्वस्तिगा:’ हो तथा जो ‘अनेहा:’ भी हो। ‘स्वस्तिगा:’ का अर्थ है कल्याण की ओर ले जानेवाला या निर्धारित मञ्जिल पर पहुँचानेवाला।
एक बार हम छोटे विद्यार्थी पैदल पहाड़ी यात्रा पर थे। हममें से कुछ सीधे सड़क पर चलते जा रहे थे। यह नहीं मालूम था कि पाँच मील आगे यह सड़क बीच में टूटी हुई है, जिससे आगे नहीं जाया जा सकता। हमें एक पहाड़ी ने बताया कि इस सड़क को छोड़कर मेरे पीछे-पीछे चढ़ाई पर चढ़ते आओ। हम उसके पीछे-पीछे हो लिये । चढाई के बाद उतराई थी और उसके समीप ही डाक-बङ्गला था, जहाँ रुक कर हमें रात्रि व्यतीत करनी थी। सड़क से जानेवाले विद्यार्थी बहुत आगे पहुँच चुके थे। वे पाँच मील जाकर फिर वापिस पाँच मील लौट कर आये और फिर उन्होंने वही रास्ता पकड़ा, जिससे हम गये थे। दस मील का उन्हें व्यर्थ ही चक्कर पड़ गया। सड़कवाला रास्ता उनके लिए ‘स्वस्तिगा:’ सिद्ध नहीं हुआ। यह तो भौतिक मार्ग का दृष्टान्त है। परन्तु जीवन में धर्ममार्ग ही स्वस्ति प्राप्त करानेवाला मार्ग होता है। मार्ग ‘अनेहाः’ अर्थात् निष्पाप भी होना चाहिए। कभी-कभी ऐसा लगता है। कि हमने पाप-मार्ग से चलकर भी स्वस्ति या कल्याण को पा लिया है, परन्तु वस्तुतः वह कल्याण नहीं होता, उसके पीछे विनाश छिपा होता है। जब मनुष्य निष्पाप मार्ग से चलता है, तब उसका किसी के प्रति द्वेष नहीं रहता। परिणामतः उसके कोई द्वेषी भी नहीं होते, प्रत्युत उसके सहायक या मित्र ही अधिक होते हैं। उनकी सहायता से वह जीवन में ‘वसु या ऐश्वर्य पा लेता है। इस प्रकार भौतिक एवं आध्यात्मिक ऐश्वर्यों को प्राप्त करने का उपाय है सन्मार्ग से अर्थात् निष्पाप धर्ममार्ग से चलना। अतः आओ, हम सभी मिलकर कल्याणप्रापक निष्पाप धर्ममार्ग पर चलते हुए, द्वेषों का परित्याग कर, सबके प्रति प्रेमभाव रख कर आगे बढ़े और सांसारिक ऐश्वर्यों के साथ अहिंसा, सत्य, न्याय, भूतदया आदि नैतिक ऐश्वर्यों को भी प्राप्त करें।
कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार
पाद-टिप्पणियाँ
१. स्वस्ति सुखं गच्छति येन तम्-द० ।।
२. अविद्यामानानि एहांसि हननानि यस्मिंस्तम्-द० ।
३. पद गतौ, दिवादिः । श्यन् के स्थान पर शप् तथा उसका लोप होने पर लङ् लकार का रूप ।
४. वृजी वर्जने, रुधादिः ।।
५. विद्लु लाभे, तुदादिः ।
कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार