Category Archives: वेद मंत्र

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  वत्सः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

प्रति पन्थामपद्महि स्वस्तिगामनेहसंम् ।। येन विश्वाः परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु ॥

-यजु० ४। २९

हे अग्नि! हे अग्रनायक जगदीश्वर ! हम (स्वस्तिगाम्) कल्याण प्राप्त करानेवाले, (अनेहसम्) निष्पाप (पन्थां प्रति) मार्ग पर (अपद्महि) चलें, (येन) जिससे, मनुष्य (विश्वाः द्विषः) सब द्वेषों या द्वेषियों को (परिवृणक्ति) दूर कर देता है और (विन्दते) पा लेता है (वसु) ऐश्वर्य। |

हम जीवन में न जाने कैसे-कैसे मार्गों पर चलते रहते हैं। कभी हम ऐसे बीहड़ मार्ग पर चल पड़ते हैं, जो एक तो बहुत ही कण्टकाकीर्ण होता है, दूसरे जिसके विषय में यही नहीं पता चलता कि यह हमें ले कहाँ जायेगा। कभी हम ऐसा मार्ग चुन लेते हैं, जो होता तो बहुत आकर्षक है, पर जिसका अन्त होता है खाई-खड्डे में। आओ, हमें किस मार्ग से चलना चाहिए यह हम ‘अग्नि’ नामवाले उस प्रभु से ही क्यों न पूछे, जो सदा हमारा अग्रनायक बनता है। प्रभु हमें सन्देश दे रहे हैं कि हम ऐसे मार्ग पर चलें, जो ‘स्वस्तिगा:’ हो तथा जो ‘अनेहा:’ भी हो। ‘स्वस्तिगा:’ का अर्थ है कल्याण की ओर ले जानेवाला या निर्धारित मञ्जिल पर पहुँचानेवाला।

एक बार हम छोटे विद्यार्थी पैदल पहाड़ी यात्रा पर थे। हममें से कुछ सीधे सड़क पर चलते जा रहे थे। यह नहीं मालूम था कि पाँच मील आगे यह सड़क बीच में टूटी हुई है, जिससे आगे नहीं जाया जा सकता। हमें एक पहाड़ी ने बताया कि इस सड़क को छोड़कर मेरे पीछे-पीछे चढ़ाई पर चढ़ते आओ। हम उसके पीछे-पीछे हो लिये । चढाई के बाद उतराई थी और उसके समीप ही डाक-बङ्गला था, जहाँ रुक कर हमें रात्रि व्यतीत करनी थी। सड़क से जानेवाले विद्यार्थी बहुत आगे पहुँच चुके थे। वे पाँच मील जाकर फिर वापिस पाँच मील लौट कर आये और फिर उन्होंने वही रास्ता पकड़ा, जिससे हम गये थे। दस मील का उन्हें व्यर्थ ही चक्कर पड़ गया। सड़कवाला रास्ता उनके लिए ‘स्वस्तिगा:’ सिद्ध नहीं हुआ। यह तो भौतिक मार्ग का दृष्टान्त है। परन्तु जीवन में धर्ममार्ग ही स्वस्ति प्राप्त करानेवाला मार्ग होता है। मार्ग ‘अनेहाः’ अर्थात् निष्पाप भी होना चाहिए। कभी-कभी ऐसा लगता है। कि हमने पाप-मार्ग से चलकर भी स्वस्ति या कल्याण को पा लिया है, परन्तु वस्तुतः वह कल्याण नहीं होता, उसके पीछे विनाश छिपा होता है। जब मनुष्य निष्पाप मार्ग से चलता है, तब उसका किसी के प्रति द्वेष नहीं रहता। परिणामतः उसके कोई द्वेषी भी नहीं होते, प्रत्युत उसके सहायक या मित्र ही अधिक होते हैं। उनकी सहायता से वह जीवन में ‘वसु या ऐश्वर्य पा लेता है। इस प्रकार भौतिक एवं आध्यात्मिक ऐश्वर्यों को प्राप्त करने का उपाय है सन्मार्ग से अर्थात् निष्पाप धर्ममार्ग से चलना। अतः आओ, हम सभी मिलकर कल्याणप्रापक निष्पाप धर्ममार्ग पर चलते हुए, द्वेषों का परित्याग कर, सबके प्रति प्रेमभाव रख कर आगे बढ़े और सांसारिक ऐश्वर्यों के साथ अहिंसा, सत्य, न्याय, भूतदया आदि नैतिक ऐश्वर्यों को भी प्राप्त करें।

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. स्वस्ति सुखं गच्छति येन तम्-द० ।।

२. अविद्यामानानि एहांसि हननानि यस्मिंस्तम्-द० ।

३. पद गतौ, दिवादिः । श्यन् के स्थान पर शप् तथा उसका लोप होने पर लङ् लकार का रूप ।

४. वृजी वर्जने, रुधादिः ।।

५. विद्लु लाभे, तुदादिः ।

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  वत्सः ।  देवता  दम्पती ।  छन्दः  आस्तारपङ्किः।

समख्ये देव्या धिया से दक्षिणयोरुचक्षसा मा मुऽआयुः प्रमोषीर्मोऽअहं तवं वीरं विदेय तवे देवि सन्दृशिं॥

-यजु० ४।२३ |

हे पत्नी ! मैं (देव्या धिया) देदीप्यमान बुद्धि के साथ (समख्ये) कह रहा हूँ, (उरुचक्षसा) विशाल दृष्टिवाली (दक्षिणया) बलवती इच्छा के साथ (सम् अख्ये) कह रहा हूँ कि (मा मे आयुः प्रमोषी:४) न तू मेरी आयु की हिंसा कर (मो अहं तवे) न मैं तेरी आयु की हिंसा करूँ। (देवि) हे देवी! (तवे संदृशि) तेरे संदर्शन में, मार्गदर्शन में मैं (वीरं विदेय) वीर सन्तान को प्राप्त करूं।

वेदादि शास्त्रों ने और सन्त-महात्माओं ने ब्रह्मचर्य की बहुत महिमा वर्णित की है। अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में कहा है कि ‘ब्रह्मचर्य के ही तप से राजा राष्ट्र की रक्षा करता है। आचार्य स्वयं ब्रह्मचर्य का ही पालन करके शिक्षा देने के लिए ब्रह्मचारी को चाहता है। ब्रह्मचर्य का पालन करने के पश्चात् ही कन्या युवा पति को प्राप्त करती है। ब्रह्मचर्य के ही तप से विद्वान् लोग मृत्यु को दूर भगाते हैं।’ चार आश्रमों में से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास इन तीन आश्रमों में पूर्णत: ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। केवल गृहस्थ आश्रम में कुछ मर्यादाओं के साथ ब्रह्मचर्यव्रत-भङ्ग की छूट है। इसका मुख्य उद्देश्य राष्ट्र को उत्कृष्ट सन्तान प्रदान करना है। राष्ट्र के उत्कृष्ट ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ब्रह्मचारिणी रही हुई अपनी पत्नियों से जो पुत्र-पुत्रियाँ उत्पन्न करते हैं, वे राष्ट्र की अमूल्य सम्पदा होती हैं। कोई भी राष्ट्र अपने अपरा और परा विद्याओं के धार्मिक विद्वानों, रक्षक क्षत्रियों और धनी वैश्यों पर गर्व कर सकता है।

कोई दम्पती अध्यात्मवेत्ता हैं, कोई दार्शनिक हैं, कोई भूगर्भशास्त्री हैं, कोई खगोलवित् हैं, कोई वैज्ञानिक हैं, कोई रणचातुरी में दक्ष हैं, कोई व्यापारकला में निष्णात हैं, कोई कृषिकर्म के भूषण हैं, कोई पशुपालन में सिद्धि प्राप्त हैं, सबकी राष्ट्र को आवश्यकता होती है। और इनसे प्राप्त होनेवाली प्रत्येक क्षेत्र की गुणवती सन्तति की भी प्रत्येक देश को उत्कट चाह होती है। इस चाह को पूरा करता है गृहस्थाश्रम । परन्तु अति विषयासक्ति, अति भोगविलास नर और नारी दोनों की ही बर्बादी, हिंसा और विनाश का कारण बनता है। जीवन भर वे रोग और अशक्ति के शिकार रहते हैं। अब्रह्मचर्य के ही कारण वे जीवित होते हुए भी मृततुल्य होते हैं। इसीलिए मन्त्र में पुरुष पत्नी को कह रहा है कि गृहाश्रम में रहते हुए न तू मेरी आयु की हिंसा कर, न मैं तेरी आयु की हिंसा करूं। हम अति भोगविलास में पड़कर अपनी आयु को ही क्षीण न कर बैठे। पति पत्नी का मार्गदर्शन प्राप्त करे और पत्नी पति का मार्गदर्शन प्राप्त करे। दोनों मिलकर संयम से रहते हुए, गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन करते हुए, प्रेम-भरे मधुर व्यवहार से एक-दूसरे की आयु बढ़ाते हुए वीर पुत्र और वीरङ्गना पुत्री को जन्म दें, जिनसे उनका घर भी महके और राष्ट्र भी सौरभ-सम्पन्न हो।

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. (देव्या) देदीप्यमानया (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा-द० ।

२. ( सम्) सम्यगर्थे (अख्ये) प्रकथयानि। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं लडर्थे | लुङ् च-द०। ख्या प्रकथने, अदादिः ।।

३. उरु विशालं दीर्घ चक्षः दृष्टि: यस्यां तया दक्षिणया बलवत्या इच्छाशक्त्या।

४. प्र-मुष स्तेये। स्तेय से यहाँ खण्डन, हिंसा अभिप्रेत है।

५. विदेय=विन्देय । विदलु लाभे। ‘अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुमभावः-२० ।’

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार

नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार

नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  वत्सः ।  देवता  नारी ।  छन्दः  निवृद् ब्राह्मी पङ्किः।

चिदसि मुनासि धीरसि दक्षिणासि क्षत्रियासि युज्ञियास्यदितिरस्युभयतः शीष्र्णी सा नः सुप्राची सुप्रतीच्येधि मित्रस्त्वा पुदि बैनीतां पूषाऽध्वनस्पत्चिन्द्रायाध्यक्षाय

-यजु० ४ । १९

हे नारी! तू (चिद् असि) चेतनावाली है, ज्ञानवती है। (मना असि) मननशीला है, मनस्विनी है (धीः असि) बुद्धिमती है, ध्यान करनेवाली है। (दक्षिणा असि) बलवती है, त्यागमयी है। (क्षत्रिया असि) क्षत्रिया है। (यज्ञिया असि) यज्ञार्ह है, यज्ञ की अधिकारिणी है। (अदितिः असि) अदीना है, अखण्डिता है। (उभयतः शीष्ण) ज्ञान और कर्म दोनों ओर मस्तिष्क लगानेवाली है। (सा) वह तू (न ) हमारे लिए (सुप्राची) सुन्दरता से आगे बढ़नेवाली और (सुप्रतीची) सुन्दरता से पीछे हटनेवाली (एधि) हो। (मित्रः) तेरा वैवाहिक सप्तपदी विधि का सखा (त्वा पदि बच्चीताम्) तेरे साथ पैर से पैर मिलाये रखे। (पूषा) प्रकाशपोषक सूर्य (अध्वनः पातु) मार्ग से तेरी रक्षा करता रहे। (इन्द्राय अध्यक्षाय) सर्वाध्यक्ष जगदीश्वर के प्रति तू समर्पित रह। |

इस मन्त्र में वैदिक नारी का उज्ज्वल यशोगान किया गया है। नर और नारी गृह-यज्ञ एवं समाज-यज्ञ रूप रथ के दो आवश्यक पहिये हैं, जिनके सशक्त और सर्वगुणसम्पन्न होने से ही वह रथ अविच्छिन्न गति से चल सकता है। नारी को जड़ वस्तु की तरह निष्क्रिय एवं उदासीन नहीं, प्रत्युत चेतनामया, जागृतिसम्पन्न एवं ज्ञानवती होना चाहिए। वह मननशीला, मनस्विनी तथा शिवसङ्कल्पमयी हो। वह बुद्धि-वैभववाली तथा योग-ध्यान में मन लगानेवाली हो, वह शारीरिक एवं आत्मिक बल से अनुप्राणित तथा त्यागमयी हो, अपरिग्रह का जीवन व्यतीत करनेवाली हो, दुःखी-दरिद्रों को अपनी सम्पत्ति का दान करनेवाली हो। वह गुण-कर्म-स्वभाव से क्षत्रिया है। तो क्षात्रबल के कार्य करे, दुर्जन शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करे। यदि क्षत्रिया नहीं है, ब्राह्मण या वैश्य वर्ण की है, तो भी आत्मरक्षा तथा पररक्षा के लिए क्षात्रबल उसके अन्दर होना ही चाहिए। नारी धर्मशास्त्रों के अनुसार यज्ञार्ह है, यज्ञ करने कराने की अधिकारिणी है।

मध्यकाल में उससे वेदाध्ययन और यज्ञ का अधिकार छीन लिया गया, यह उसके प्रति अत्याचार ही था। आज उस अत्याचार का प्रतीकार हो रहा है। वह अदिति है, अदीना माता है, वह अखण्डनीया है, उसके अधिकारों का खण्डन नहीं, मण्डन होना चाहिए। वह ‘उभयतः शीष्र्णी’ है, उसका सिर या मस्तिष्क ज्ञान और कर्म दोनों में लगता है। वह सुप्राची और सुप्रतीची है, उसका आगे बढ़ना भी सुन्दर होता है और पीछे हटना भी। उसका पीछे हटना भी आगे बढ़ने का ही एक पैतरा होता है। विवाह में सप्तपदी विधि में वर के पग के साथ पग मिला कर सात पग रख कर उससे सख्य स्थापित करती है। वह जब तक पति के साथ रहती है पग से पग मिला कर ही चलती रहती है। प्रकाशमय सूर्य और आत्म-सूर्य कण्टकाकीर्ण मार्ग में कण्टकों से उसकी रक्षा करता है। वह मार्ग की विघ्न-बाधाओं को पार करती हुई लक्ष्य पर पहुँच कर ही रहती है।.सर्वाध्यक्ष जगदीश्वर को वह आत्म-सर्पण करके उसकी प्रेरणा के अनसार ही जीवन व्यतीत करती है। हे नारी ! हम तेरे सद्गुणों को स्मरण करते हए तुझे सम्मान देते हैं, तेरी पूजा करते हैं।

नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. चित्, चिती संज्ञाने। चेततीति चित् ।।

२. धी: बुद्धिमती, मतुप्-लुकू । अथवा ध्यै चित्तायाम् ध्यायतीति धीः ।

३. अदिति: अदीना देवमाता । निरु० ४.४९। दो अवखण्डने, न दितिः अदितिः अखण्डिता।

४. सुषु प्रकर्षेण अञ्चति अग्रे गच्छतीति सुप्राची।

५. सुष्टु प्रकर्षेण प्रत्यञ्चति प्रतिगच्छतीति सुप्रतीची ।

नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार

पुनः हमें मन, आयु, प्राण आदि प्राप्त हो – रामनाथ विद्यालंकार

पुनः हमें मन, आयु, प्राण आदि प्राप्त हो – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः  अङ्गिरसः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  भुरिग् ब्राह्मी बृहती।

पुनर्मनः पुनरायुर्मऽआगन्पुनः प्राणः पुनरात्मा मऽआगन्पुनश्चक्षुः पुनः क्षोत्रे मूऽआर्गन् वैश्वारोऽअदब्धस्तनूपाऽअग्निर्नः पातु दुरितार्दवद्यात् ॥

–यजु० ४। १५ |

(पुनः मनः) फिर मन, (पुनः आयुः) फिर आयु (मे आगन्) मुझे प्राप्त हो । (पुनः प्राणः) फिर प्राण, (पुनः आत्मा) फिर आत्मा (मे आगन्) मुझे प्राप्त हो। (पुनः चक्षुः) फिर चक्षु, (पुनः श्रोत्रम्) पुनः कान (मे आगन्) मुझे प्राप्त हो । (वैश्वानरः२) सब नरों का हितकर्ता, (अदब्धः) अपराजित, (तनूपा:) शरीर और आत्मा का रक्षक (अग्निः) अग्रनायक परमात्मा (नः पातु) हमें बचाये (दुरिताद्) पापजन्य दुःख से तथा दुष्कर्म से और (अवद्यात्) पापाचरण से तथा निन्दा से ।।

कोई समय था जब मेरे अन्दर मनोबल कूट-कूट कर भरा हुआ था, मेरी सङ्कल्प-शक्ति अदम्य थी। असम्भव से असम्भव प्रतीत होनेवाले कार्य हाथ में लेने में मुझे आनन्द आता था। गुरुजनों का आदेश होने पर मैं आकाश के तारे भी तोड़कर ला सकता था। मुझे आयु का बल भी प्राप्त था। पचास वर्ष का होने पर भी तीस वर्ष का युवक प्रतीत होता था। साथ ही पचास वर्ष का होने पर भी अनुभव में अस्सी वर्ष के वृद्ध को भी मात देता था। मेरे अन्दर प्राण-बल भी भरपूर था, जो शरीर के सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों को निखारे हुए था। मेरा आत्मबल भी ऐसा था कि प्रत्येक मनुष्य मुझसे प्रभावित होता था। काम, क्रोध आदि रिपु मेरे आत्मबल से कुचले जाने के भय से मुझसे दूर ही रहते थे। मेरी आँखें पवित्र थीं, दृष्टिशक्ति तीव्र थी। मेरे श्रोत्र पवित्र थे, श्रवणशक्ति तीव्र थी। शरीर की सब ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ सबल थीं।।

परन्तु अब मुझे यह क्या हो गया है? मेरा मन सामान्य कार्यों में भी नहीं लगता है। आयु में साठ वर्ष का होने पर भी नव्वे वर्ष का जर्जर बूढ़ा लगता हूँ। प्राण, अपान आदि की शक्ति भी लुप्त हो गयी है, जिससे शरीर के अङ्गों में परस्पर सामञ्जस्य नहीं रहा है। आत्मबल से तो मानो खाली ही हो गया हूँ। आँखें मन्द हो गयी हैं, श्रोत्र शक्तिहीन हो गये हैं। ऐसी हीन अवस्था में जहाँ भी जाता हूँ, दुत्कारा जाता हूँ। सम्मान और प्रतिष्ठा मुझसे कोसों दूर चले गये हैं। दुरित ने मेरे अन्दर डेरा डाल लिया है, जिससे मैं सर्वत्र निन्दा का ही पात्र बन रहा हूँ।

ऐसी स्थिति में मैं चाहता हूँ कि पुन: मेरे अन्दर पहले जैसा मनोबल जागृत हो जाए, पुनः मुझे स्वस्थ आयु प्राप्त हो जाए, पुनः मेरे अन्दर प्राणसञ्चार हो जाए, पुनः मेरे अन्दर आत्मबल आ जाए, पुनः मुझे खोये हुए चक्षु, श्रोत्र आदि प्राप्त हो जाएँ। सब नरों का हितकर्ता, अपराजेय, शरीर और आत्मा का रक्षक अग्रणी परमेश्वर मेरे पाप-जन्य दु:खों और दुष्कर्मों का विध्वंस कर दे, जिससे मैं पापाचरण तथा गर्हणीय स्थिति से उद्धार पाकर पुनः पूर्व के समान, बल्कि उससे भी अधिक मनस्वी, आयुष्मान्, यशस्वी बनें।

पुनः हमें मन, आयु, प्राण आदि प्राप्त हो – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. आ-अगन्, आङ्ग म्, लिङर्थ में लुङ्।

२. विश्वेषां नृणां हितः वैश्वानरः ।।

३. (तनूपाः) यः शरीरम् आत्मानं च रक्षति-द० ।

४. (दुरितात्) पापजन्यात् प्राप्तव्याद् दु:खाद् दुष्कर्मणो वा-द० ।।

५. (अवद्यात्) पापाचरणात्-द० । अवद्य=निन्दनीय कर्म, पा० ३.१.१०१ से  निपातित गर्छ अर्थ में ।

पुनः हमें मन, आयु, प्राण आदि प्राप्त हो – रामनाथ विद्यालंकार

हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार

हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः  अङ्गिरसः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  विराट् आर्षी अनुष्टुप् ।

अग्ने त्वः सु जागृहि वय सु मन्दिषीमहि। रक्षा णोऽअप्रयुच्छन् प्रबुधे नः पुनस्कृधि॥

-यजु० ४।१४

(अग्ने) हे विद्वन् ! (त्वं) आप (सु जागृहि) अच्छे प्रकार जागरूक रहें, (वयं) हम (सु मन्दिषीमहि) सम्यक् प्रकार आनन्दित रहें। (रक्ष नः) रक्षा करते रहिए हमारी (अप्रयुच्छन्) बिना प्रमाद के। (नः) हमें (पुनः) फिर फिर (प्रबुधे कृधि) प्रबोध के लिए पात्र बनाते रहिए।

हे विद्वन् ! आप अग्नि हैं, ज्ञान की ज्योति आपके अन्दर जल रही है, विविध विद्याओं की ज्वालाएँ आपके मानस में उठ रही हैं। आपसे हमारा निवेदन है कि जागरूक रहकर आप हमारे अन्दर भी ज्ञान-विज्ञानों की ऊँची ऊँची ज्वालाएँ उठा कर हमें उद्भट विद्वान् बना दीजिए, जिससे हम भी विद्या के प्रसार करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकें और अपने कर्तव्य का पालन कर प्रगाढ रूप से आनन्दित होते रहें। हे। ज्ञानाग्नि के सूर्य ! आप हमें अद्भुत विद्या की लपटों से प्रकाशित कर ऐसा पण्डित-प्रकाण्ड बना दीजिए कि किसी भी विषय पर ज्ञानचर्चा या शास्त्रार्थ होने पर हम किसी से पराजित न हो सकें, कोई पण्डितम्मन्य कहकर हमारा उपहास न कर सके, आपके शिष्य हम आपके पाण्डित्य की भी धाक रख सकें। ऐसा ज्ञानी बना कर निरन्तर आप हमारी रक्षा करते रहिए।

भगवन् ! ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, ज्ञानोदधि बहुत विशाल है। हम कितने भी विद्वान् हो जायेंगे, तो भी हमारा ज्ञान समुद्र में बिन्दुवत् ही रहेगा। जब-जब हमें और अधिक ज्ञान ग्रहण करने की इच्छा हो, तब-तब आप हमें अपनी शरण में लेकर ज्ञानवर्षा से आह्लादित-पुलकित करते रहिए। पुनः पुनः हमें प्रबोध देते रहिए, हमारी ज्ञानगङ्गा को ऐसा बना दीजिए कि वह सदा उफनती हुई प्रवाहित होती रहे तथा सत्पात्रों को अपनी ज्ञानधारा से तृप्त करती रहे और यदि कोई चट्टान बन कर उसके प्रवाह को रोकना चाहें, तो उन्हें चूर करती रहे।

हे विद्वद्वर! हम आपका अभिनन्दन करते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि आपकी कीर्तिकौमुदी को कभी मलिन नहीं होने देंगे। गुरुदक्षिणा में आपने जो विद्याप्रचार की दक्षिणा का आदेश दिया है, उसका सदा पालन करते रहेंगे। आपका चरणस्पर्श कर और आपका आशीर्वाद लेकर आपसे विदा लेते हैं।

हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु, भ्वादिः । आशीर्लिङ्।

२. रक्षा=रक्ष। ‘यचो ऽ तस्तिङ’ पा० ६.३.१३२ से संहिता में दीर्घ।।

३. प्र-युछ प्रमादे, भ्वादिः, शतृ, नञ्समास।

४. प्रबुधे कृधि=प्रबोधाय कुरु।

हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार

व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार

व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः  अङ्गिरसः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  क. स्वराड् ब्राह्मी अनुष्टुप्, | र. आर्षी उष्णिक्।।

व्रतं कृणुताग्निर्ब्रह्मग्निर्यज्ञो वनस्पतिय॒ज्ञियः। दैवीं धियं मनामहे सुमृडीकामूभिष्टये वर्षोधां यज्ञवाहससुतीर्था नोऽ असूद्वशे । ‘ये देवा मनोजाता मनोयुजो दक्षक्रतवस्ते नोऽवन्तु ते नः पान्तु तेभ्यः स्वाहा ॥

-यजु० ४।११

हे मनुष्यो! (व्रतं कृणुत) व्रत ग्रहण करो। (अग्निः ब्रह्म) अग्रनायक होने से ब्रह्म का नाम अग्नि है’, (अग्निः यज्ञः) वह अग्रणी ब्रह्म यज्ञरूप है, यज्ञमय है, वह (वनस्पति:२) वनों, रश्मियों और जलों का पालयिता और (यज्ञियः) उपासना-यज्ञ के योग्य है। हम (अभिष्टये) अभीष्ट प्राप्ति के लिए (दैवीं) दिव्यगुणसम्पन्न (धियं) बुद्धि की (मनामहे) याचना करते हैं, (सुमृडीको) जो अतिशय सुख देनेवाली हो, (वधां) विद्या, दीप्ति और ब्रह्मवर्चस को धारण करानेवाली हो, (यज्ञवाहसम्) और जो ईश्वरोपासनारूप, शिल्पविद्यारूप तथा अग्निहोत्ररूप यज्ञ की निर्वाहक हो। (सुतीर्था) जिससे दु:खों से तारनेवाले वेदाध्ययन, धर्माचरण आदि शुभ कर्म प्राप्त होते हैं, ऐसी वह बुद्धि (नः वशे असत्) हमारे वश में होवे । (ये देवाः) जो विद्वान् लोग (मनोजाताः) मनन-चिन्तन में प्रख्यात, (मनोयुजः) मनोबल का प्रयोग करनेवाले, (दक्षक़तव:) शारीरिक तथा आत्मिक बल और प्रज्ञावाले हैं (ते) वे (नः अवन्तु) हमारी रक्षा करें, (ते) वे (नः पान्तु) हमारा पालन करं । (तेभ्यः स्वाहा ) उनका हम सत्कार करते हैं।

मनुष्य को अपने जीवन में कोई व्रत ग्रहण करना होता है, कोई लक्ष्य निर्धारित करना होता है। उसी की पूर्ति में वह अहर्निश प्रयत्नशील रहता है। अत: वेद प्रेरणा कर रहा है कि हे मनुष्यो ! तुम व्रत ग्रहण करो। व्रतपति के आदर्श रूप में परमेश्वररूप ‘अग्नि’ का उदाहरण दिया गया है। उसने अग्रनायक होने का, पथप्रदर्शन करने का, यज्ञमय होने का, वनों, सूर्यादि की रश्मियों एवं जल आदियों की रक्षा का व्रत लिया हुआ है, जिसमें वह कभी आलस्य नहीं करता। ऐसे ही हम भी सत्कर्मों का व्रत ग्रहण करें और उससे कभी डिगे नहीं। परन्तु व्रत धारण करने के लिए सद्बुद्धि की आवश्यकता है, अन्यथा हम ऐसे व्रत भी ग्रहण कर सकते हैं, जो अपने तथा दूसरों के लिए अहितकर हों।

अतः हम दिव्यगुणयुक्त बुद्धि की प्रभु से याचना करते हैं। कैसी बुद्धि की? जो ‘सुमृडीका’ हो, अतिशय सुखदायिनी हो, ‘वर्षोधा’ हो, विद्या, दीप्ति और ब्रह्मवर्चस को धारण करानेवाली हो, ‘यज्ञवाहस्’ हो, ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासनारूप यज्ञ, शिल्पविद्यारूप यज्ञ और होमरूप यज्ञ की निर्वाहक हो। वह बुद्धि ‘सुतीर्था’ भी होनी चाहिए, अर्थात् वेदाध्ययन, धर्माचरण, ब्रह्मचर्यपालन, तपस्या आदि शुभ कर्मों में प्रेरित करके दुःखों से तरानेवाली हो। बुद्धि प्राप्त करने के लिए हमें मनीषी विद्वानों की शरण में जाना होगा, जो विद्वान् मनन-चिन्तन में निष्णात, मनोबल का प्रयोग करनेवाले तथा दैहिक एवं आत्मिक बल के धनी और प्रज्ञावान् हों। वे हमारे ज्ञान और बुद्धि को प्रदीप्त करेंगे, हमारा पालन करेंगे, हमें अपनी रक्षा में लेंगे। हमारा कर्तव्य है कि हम तन-मन-धन से उनकी सेवा करें, उनका सत्कार करें ।।

आइये, हम भी व्रत ग्रहण करें, बुद्धिपूर्वक व्रत ग्रहण करें, उनका पालन करें, विद्वानों का सत्सङ्ग करें और उनके अनुभवों से लाभ उठायें।

व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. तदेवाग्निस्तदादित्यः । य० ३२.१

२. वनानाम् अरण्याना रश्मीनां जलानां च पति: पालयिता। वन=रश्मि, जल, निघं० १.५, १.१२ ।।

३. अभि+इष्टि=अभिष्टि। एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वाच्यम्, पा० ६.१.९४, वार्तिक ।।

४. मनामहे-याचामहे । निघं० ३.१९

५. (वर्षोधाम्) या वर्चा विद्यां दीप्तिं दधाति ताम्-द०।।

६. (यज्ञवाहसम्) या यज्ञं परमेश्वरोपासनं शिल्पक्रियासिद्धं वा वहति प्रापयांत ताम्-द० ।।

७. (सुतीर्था) शोभनानि तीर्थानि वेदाध्ययनधर्माचरणादीनि आचरितानि यया सा-द० ।

८. (दक्षक्रतव:) दक्षाः शरीरात्मबलानि क्रतवः प्रज्ञाः कर्माणि वा येषां ते-द० । दक्ष बल, निघं० २.९

व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार

ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार

ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः   अङ्गिरसः ।  देवता   विद्वान्।  छन्दः आर्षी पङ्किः

ऋक्सामयोः शिल्पे स्थस्ते वामारंभेते मां पातुमास्य यज्ञस्योदृचः। शर्मीसि शर्म मे यच्छ नमस्तेऽअस्तु मा मा हिश्सीः ॥

-यजु० ४।९ |

तुम (ऋक्सामयोः) ऋक् और साम के (शिल्पे स्थः) शिल्प हो। (ते वाम्) उन तुमको (आरभे) ग्रहण करता हूँ। (ते) वे तुम दोनों (मा पातम्) मेरा पालन-रक्षण करो (आ अस्य यज्ञस्य उदृचः१) इस जीवन-यज्ञ की समाप्ति तक। हे। विद्वन्! आप (शर्म असि) सुखदायक हैं, (ते नमः अस्तु) आपको नमन हो। (मा मा हिंसीः) मेरी हिंसा मत करना।

‘ऋक्’ शब्द स्तुत्यर्थक ऋच् धातु से निष्पन्न हुआ है। किसी भी जड़-चेतन पदार्थ का यथार्थ वर्णन स्तुति कहलाता है। इन पदार्थों में परमेश्वर से लेकर तृणपर्यन्त बड़े-छोड़े सभी पदार्थ आ जाते हैं। परमेश्वर की जब हम स्तुति करते हैं कि वह अमुक-अमुक गुणों से युक्त है, तब हमारा आशय होता है कि जहाँ तक सम्भव हो हम भी वैसे ही बने । ऋक् यथार्थवर्णन की एक कला है। ऋग्वेद को यह नाम इसीलिए दिया गया है कि इस वेद में अग्नि, वायु, जल, सूर्य, ओषधियों आदि का तथा परमात्मा, जीवात्मा, मन, प्राण आदि का यथार्थ परिचय इस हेतु से दिया गया है कि हमें इनका यथार्थ ज्ञान हो और हम इनका ज्ञान पाकर इनसे यतोचित लाभ उठाएँ। ऋक् का यह शिल्प अज्ञानियों को ज्ञानी बनाता है, सोतों को जगाता है, अकर्मण्यों को कर्मण्य करता है, सङ्कल्पहीनों को सङ्कल्प कराता है, अनृत से सत्य की ओर ले जाता है, अशिव को शिव में परिणत करता है, असुन्दर को सुन्दर बनाता है।

‘साम’ के शिल्प में ज्ञान-कर्म-उपासना की चित्रकारी है। साम के शिल्प में सङ्गीत है, समस्वरता है, शान्ति की धारा है। कैसे एक-एक, दो-दो, तीन-तीन ऋचाएँ मिल कर सङ्गीत में परिणत होती हैं, यह साम के शिल्प का क्षेत्र है। ‘सा’ और ‘अम’ से मिल कर साम बनता है। ‘सा’ से वाक् अभिप्रेत है और ‘अम’ से प्राण । वाणी जब प्राण के आरोह-अवरोह से सङ्गीत का रूप धारण कर लेती है, तब वह ‘साम’ कहलाता है। उणादि कोष में ‘षो अन्तकर्मणि’ धातु से मनिन्=मन् प्रत्यय करके साम की सिद्धि की गयी है। साम। का शिल्प पाप-ताप आदि का अन्त करता है, इस कारण उसे साम कहते हैं। उणादि के एक वृत्तिकार श्वेतवनवासी ने ‘षो’ धातु को यहाँ गानार्थक माना है। ऋचा पर साम का गान होता है।

हे ऋक् और साम के शिल्पो ! मैं तुम्हें ग्रहण करता हूँ, अपने जीवन में उतारता हूँ। मेरे जीवनयज्ञ की समाप्ति तक तुम मेरी आघात-प्रतिघातों से रक्षा करते रहो । हे ऋक् और साम शिल्प के विद्वन् ! आप ‘शर्म’ हैं, शान्ति के गृह हैं, शान्तिधाम हैं । हम आपको नमन करते हैं, ऋक् और साम के शिल्प की विद्या में हमें भी पारङ्गत करने की कृपा कीजिए। हमें शिष्यत्व में न लेकर हमारी हिंसा मत कीजिए, अपितु अपना अन्तेवासी बना कर और ऋक्-साम का शिल्प सिखा कर हमें कृतकृत्य कर दीजिए। आपको पुन: नमस्कार है।

ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. उत्तमा ऋग् उदृक्, तस्या उदृचः आ पर्यन्तम् । एतयज्ञससमाप्ति पर्यन्तमत्यर्थ:-म०।।

२. ऋच्यध्यूढं साम गीयते ।

ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार

त्याग-यज्ञ का ग्रहण – रामनाथ विद्यालंकार

त्याग-यज्ञ का ग्रहण – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  प्रजापतिः ।  देवता  यज्ञः ।  छन्दः  निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

स्वाहा यज्ञं मनसः स्वाहोरोरन्तरिक्षात् स्वाहा द्यावापृथिवीभ्यास्वाहा वातदारंभे स्वाहा॥

-यजु० ४।६

(स्वाहा यज्ञम्) त्यागरूप यज्ञ को (मनसः) मन से, (स्वाहा) त्यागरूप यज्ञ को (उरोः अन्तरिक्षात्) विस्तीर्ण अन्तरिक्ष से, (स्वाहा) त्यागरूप यज्ञ को (द्यावापृथिवीभ्यां) द्यावापृथिवी से, (स्वाहा) त्यागरूप यज्ञ को (वातात्) वायु से (आरभे) ग्रहण करता हूँ। (स्वाहा) यह लो, मैं त्याग कर रहा हूँ।

कैसा सुरम्य शब्द है ‘स्वाहा’ ! स्वाहा=सु+आ+हा। सु=सुन्दर प्रकार से, आ=आगम्य, आकर, हा=त्याग करना। स्वाहा’ में प्रथम अक्षर ‘सु’ है, जिससे सूचित होता है कि त्याग या हविर्दान सौन्दर्य के साथ होना चाहिए। खीझते हुए, किसी के भय से, रोते-धोते त्याग करना त्याग नहीं कहलाता। ‘स्वाहा’ में अन्तिम अक्षर ‘हा’ है, जो त्यागार्धक हो (ओहाक्) धातु से लिया गया है, जिसका अर्थ है त्याग या हविर्दान। एवं श्रद्धापूर्वक प्रसन्नता के साथ स्वेच्छा से किया गया त्याग या हविर्दान ही ‘स्वाहा’ कहलाता है। ‘स्वाहा’ त्याग के लिए एक महाबरा ही बन गया है-‘उसने देशहित के लिए अपने तन मन-धन को स्वाहा कर दिया। श्रद्धापूर्वक किया गया त्याग एक यज्ञ है। इस त्यागरूप यज्ञ का पाठ हम अनेक पदार्थों से पढ़ सकते हैं।

सर्वप्रथम अपने मन को देखें। मन सभी ज्ञानेन्द्रियों से मिलनेवाले ज्ञान में जीवात्मा का सहायक होता है। यदि मन प्रवृत्त न हो, तो न आँख से दर्शन हो सकता है, न कान से श्रवण हो सकता है, न जिह्वा से स्वाद का ज्ञान हो सकता है, न नासिका से गन्ध का ग्रहण हो सकता है, न त्वचा से स्पर्श का अनुभव हो सकता है। मन प्रवृत्त न हो, तो मनुष्य कानों से सुनता हुआ भी वस्तुतः नहीं सुनता-‘अन्यत्रमनी अभूवं नाश्रौषम् ।’ जीवात्मा के सङ्कल्प-विकल्प में भी मन साधन बनता है। एवं मन की सारी क्रिया जीवात्मा के लिए होती है। इस प्रकार सर्वप्रथम मन से हम त्याग का पाठ पढ़ सकते हैं।

फिर प्रकृति के विस्तीर्ण अन्तरिक्ष, द्यावापृथिवी और वायु से भी हम त्याग की शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। विस्तीर्ण अन्तरिक्ष बादल में जो जल का संग्रह करता है, वह अपने लिए नहीं, किन्तु धरा को सरस करने के लिए करता है। सूर्य जो अपने अन्दर तीव्र ताप और प्रकाश को संजोये हुए है, वह परार्थ त्याग करने के लिए ही है। पृथिवी जो नाना ओषधि-वनस्पतियों को, जल-स्रोतों को, सोना-चाँदी आदि की खानों को, सीपियों में मोतियों को धारण करती है, वह अपने लिए नहीं, किन्तु दूसरों के लिए ही करती है। इसी प्रकार वायु के अन्दर जो अमृत की निधि रखी हुई है, उसका वह भी परार्थ हो वितरण करता है। इन सबसे शिक्षा लेकर मैं भी अपने जीवन में ‘स्वाहा’ का व्रत ग्रहण करता हूँ। यह लो, आज से मैं अपने जीवन के तिल-तिल को परार्थ स्वाहा करूंगा।

त्याग-यज्ञ का ग्रहण – रामनाथ विद्यालंकार

पवित्रता की पुकार – रामनाथ विद्यालंकार

पवित्रता की पुकार

ऋषिः  प्रजापतिः ।  देवता  परमात्मा।  छन्दः  निवृद् ब्राह्मी पङ्किः।।

चित्पतिर्मा पुनातु वाक्पर्तिर्मा पुनातु देवो मा सविता पुनात्वच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्॥

-यजु० ४।४

(चित्पतिः१) विज्ञान का पालक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे। (वाक्पतिः) वाणी का पालक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे। (सविता देवः) सन्मार्गप्रेरक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे (अच्छिद्रेण पवित्रेण) त्रुटिरहित पवित्र वेदमन्त्र से, और (सूर्यस्य रश्मिभिः) सूर्य की रश्मियों से। (तस्य ते) उस तेरे (पवित्रपूतस्य) वेदमन्त्रों से पवित्र हुए मेरा (पवित्रपते) हे पवित्र कर्म के अधिपति जगदीश्वर [कल्याण हो] (यत्कामः) जिस कामनावाला मैं (पुने) स्वयं को पवित्र करता हूँ (तत्) उस अपनी कामना को (शकेयम्) पूर्ण कर सकें।

मैंने पवित्रात्मा ऋषि, मुनि, संन्यासी प्रभुभक्तों के दर्शन किये हैं और उनकी पवित्रता से प्रभावित हुआ हूँ। उनके सम्पर्क में आने से ऐसा प्रतीत होता है कि पवित्रता की उज्ज्वल रश्मियाँ हमारे अन्दर भी प्रवेश कर रही हैं। जब प्रभु के भक्तों में यह पवित्र करने की शक्ति है, तब पवित्रता के स्रोत प्रभु के अन्दर तो इससे कोटिगुणा पवित्र करने की तथा अपवित्रता को छूमन्तर करने की असीम शक्ति विद्यमान होनी चाहिए। मैं पवित्रता की लालसा लिये हुए आज सविता परमेश्वर की शरण में आया हूँ। ‘सविता’ प्रेरणा का देव है, वह जिस गुण की तीव्र प्रेरणा मनुष्य के अन्दर कर देता है, वह गुण उसके जीवन का स्थायी अङ्ग बन जाता है । मन्त्र में परमेश्वर को ‘चित्पति’ और ‘वाक्पति’ विशेषणों से भी स्मरण किया गया है। चित्पति है विज्ञान का अधिष्ठाता परमेश्वर। वह मेरे अन्दर विज्ञान की धारा बहा कर मुझे पवित्र करे।

जब तक हमारा विज्ञान दूषित होता है, तब तक हमारे कर्म भी दूषित रहते हैं। इसलिए हम प्रार्थना करते हैं कि विज्ञान का अधिपति प्रभु हमें विज्ञान की पवित्र तरनतारिणी गङ्गा में स्नान करा कर पवित्र कर दे । वाक्पति है पवित्र वाणी का अधिपति परमेश्वर। अपवित्र, कटु और कलुष वाणी कलहों और युद्धों को जन्म देती है तथा पवित्र, मधुर और शान्त वाणी प्रीति और शान्ति को लाती है । अतः वाक्पति पवित्र प्रभु से हम प्रार्थना करते हैं कि वह हमें भी वाणी की उज्ज्वल पवित्रता प्रदान करे। चित्पति, वाक्पति सविता परमेश्वर हमें किस प्रकार पवित्र करेगा ? वह पवित्र करेगा अच्छिद्र पवित्र वेदमन्त्रों से। वेद के अनेक प्रेरणाप्रद मन्त्र प्रस्तुत मन्त्र के समान पवित्रता का सन्देश दे रहे हैं। उनका अध्ययन और मनन-चिन्तन हमारे कालुष्य को धोकर हमें पवित्र कर सकता है। पवित्र होने का दूसरा साधन प्रस्तुत मन्त्र में बताया गया है सूर्य-रश्मियाँ। ये हमारी भौतिक मलिनता को दग्ध करके या धोकर हमें भौतिक रूप से सबल, नीरोग, प्राणवान् और पवित्र कर सकती हैं।

सविता प्रभु जैसे पवित्र विज्ञान और वाणी के पति हैं, वैसे ही पवित्र कर्म के भी अधिपति हैं। हे पवित्र कर्म के अधिपति ! आपकी पवित्र कर्म-प्रेरणा से पवित्र हुए मेरा कल्याण हो। जिस कामना से आज मैं आपके सम्मुख पवित्रता की पुकार मचा रही हूँ और अपने तन-मन-धन को पवित्र कर रहा हूँ, हे देव! वह मेरी कामना पूर्ण हो। पवित्रता के पुजारी को सुख, शान्ति, महत्त्व, सत्य, शिव, सौन्दर्य प्राप्त होता है, वह मुझे भी प्राप्त हो।

पाद टिप्पणियाँ

१. (चित्पतिः) चेतयति येन विज्ञानेन तस्य पति: पालयिता ऽधिष्ठाता ईश्वर:-द० ।

२. सविता-यः सुवति प्रेरयति, सन्मार्गे सः । षु प्रेरणे तुदादिः ।

३. मन्त्र: पवित्रमुच्यते । निरु० ५.३४

पवित्रता की पुकार

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्।

भुद्राऽउते प्रशस्तयो भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासर्हः ।

-यजु० १५ । ३९

हे वीर! तू ( वृत्रतूर्ये ) पापी के वध में ( मनः) मन को ( भद्रं कृणुष्व ) भद्र रख, ( येन ) जिस मन से तू ( समत्सु ) युद्धों में ( सासहः ) अतिशय पराजयकर्ता [होता है] ।।

हे वीर! तू पापी का वध करने के लिए क्यों प्रवृत्त हुआ है? तेरा उद्देश्य तो पाप का वध करना है। यदि पापी का वध किये बिना पाप का वध हो सके, तो क्या यह मार्ग तुझे स्वीकार नहीं है? प्रेम से या साम, दान, भेद रूप उपायों से भी तो पापी के हृदय को शुद्ध और निष्पाप किया जा सकता है। हाँ यदि इस प्रकार के सभी उपाय निष्फल हो जाएँ तब पापी से संघर्ष करना, युद्ध करना, उसे पराजित करना, दण्डित करना या उसका समूल नाश कर देना भी अनिवार्य हो सकता है। याद रख, वृत्रतूर्य में भी, पापी के साथ संग्राम में भी अपने मन को भद्र ही रखना है, मन को क्रोध, विद्वेष आदि से अभद्र या मलिन करके उससे युद्ध नहीं करना है। युद्ध में यही भावना रखनी है कि यदि शत्रु पाप करना छोड़कर धर्ममार्ग पर आ जाता है, हम-जैसा भद्र बन जाता है, तो युद्ध बन्द करके उससे सन्धि करनी अधिक उचित है।

संग्राम में विजयी होने के अनन्तर जो तेरा स्वागत हो, कविजन तेरे लिए प्रशस्तिगीतियाँ रचें, वे भी भद्र ही होनी चाहिएँ। उनमें तेरी शूरता का, अग्रगामिता का, शत्रुदल के  छक्के छुड़ा देने का, शत्रुसेना को आगे बढ़ने देने से रोक कर पीछे खदेड़ देने आदि को ही वर्णन होना चाहिए। उसमें तेरी इस यद्धनीति की चर्चा होनी चाहिए कि शत्र ने जब अपनी हार मानकर शस्त्र नीचे रख दिये, तब तूने भी युद्ध बन्द करके उनके साथ भद्रता का व्यवहार किया। ऐसा प्रशस्तिगान नहीं होना चाहिए कि कुछ ही शत्रुओं को कैद करके या मारकर भी युद्ध जीता जा सकता था, फिर भी तूने समस्त शत्रुओं का उच्छेद कर डाला। यदि तेरी ऐसी प्रशस्ति होती है कि एक भी शत्रु का वध किये बिना तूने युद्ध जीत लिया, तो हमें तुझ पर गर्व होगा। यदि शत्रु भी तेरी जय बोलते हुए तेरे स्वागत में हमारे साथ सम्मिलित होंगे, तो हम तुझे राजनीतिविशारद कहकर तेरा अभिनन्दन करेंगे। | तेरा मन जहाँ उत्साही, शत्रुविजय के प्रति आशावादी होगा, वहाँ शत्रु के प्रति यदि भद्र और उदार भी होगा, तो तू शत्रुओं को भी अपना मित्र बना सकेगा। जा, युद्ध में अग्रसर हो, सफल संग्रामकर्ता के रूप में प्रशस्ति प्राप्त कर।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वृत्रतूर्य-संग्राम। निचं० २.१७

२. कृणुष्व, कृवि हिंसाकरणयोः, भ्वादिः ।

३. समत्=संग्राम। निघं० २.१७ ४. सासह: अतिशयेन सोढा-द० । षह अभिभवे, छान्दस।

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार