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हे पितृ तुल्य प्रभु ! आप हमें पिता सम उपलब्ध हों

औ३म
हे पितृ तुल्य प्रभु ! आप हमें पिता सम उपलब्ध हों
(सम्पूर्ण सूक्त )
डा.अशोक आर्य

ऋग्वेद का आरम्भ इस सूक्त से होता है ! यह इस वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त के रुप में जाना जाता है । इस सूक्त के मुख्य विषय है कि जीव सदा परमपिता की उपासना चाहता है, समीपता चाहता है, निकटता चाहता है,अपना आसन प्रभु के समीप ही रखना चाहता है । जीव यह भी इच्छा रखता है कि वह पिता उस के लिये प्रतिक्षण उलब्ध रहे तथा वह ठीक उस प्रकार प्रभु से सम्पर्क कर सके , उसके समीप जा सके, जिस प्रकार वह अपने पिता के पास जा सकता है । वह प्रभु से पिता- पुत्र जैसा सम्बन्ध रखना चाहता है । इस सूक्त के ऋषि मधुछन्दा: , देवता अग्नि: ,छन्द गायत्री तथा स्वर:षड्ज्क्रि हैं । आओ इस आलोक में हम इस सूक्त का वाचन करें तथा इसे समझने का यत्न करें ।
सबसे बडे दाता प्रभु का हम सदा स्मरण करें
परमपिता परमात्मा ने इस संसार की रचना की है। उस के ही आदेश से यह संसार चल रहा है । उसकी ही प्रेरणा से यह सूर्य , चन्द्र, तारे आदि गतिशील होकर सब प्राणियों की रक्षा करने व उन्हें पुष्ट करने का कार्य कर रहे हैं । इस परमपिता परमात्मा के दानों का वर्णन ऋग्वेद के प्रथम मण्ड्ल के प्रथम सुक्त के दस मन्त्रों में बडे ही उतम ढंग से किया गया है । प्रभु को हम प्रभु क्यों कहते हैं ?, उस पिता को हम दाता क्यों कहते हैं? तथा उस पिता का स्मरण करने के लिये , उस की उपसना करने के लिये हमें उपदेश क्यों किया जाता है ? इस सब तथ्य को इस ऋचा में बडे विस्तार से प्रकाशित किया गया है । ऋचा का प्रथम मन्त्र हमें इस प्रकार उपदेश दे रहा है : –
अग्निमीळेपुरोहितंयज्ञस्यदेवमृत्विजम्।
होतारंरत्नधातमम्॥ ऋ01.1.1||
मन्त्र में बताया गया है कि अग्नि रुप यज्ञ के देव , जो होता है तथा विभिन्न प्रकार के रत्नों को देने वाला है ,एसे प्रभु की हम सदा स्तुति किया करें ।
प्रभु के निकट अपना आसन लगावें
मन्त्र प्राणी मात्र को उपदेश कर रहा है कि वह परमपिता परमात्मा इस जगत को , इस ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने वाला है , इसे गति देकर इसे जगत की श्रेणी में लाने वाला है । वह प्रभु ही सब प्राणियों को उपर उठाने का कार्य भी करता है सब प्राणियों को उन्नत भी करता है , सब प्राणियों को आगे भी बढाता है । एसे साधक , जो हम सब का अग्रणी भी है , की हम सदा उपासना किया करें , उस प्रभु के चरणों में बैठा करें, उस के समीप सदा अपना आसन लागावें तथा उस प्रभु का स्तवन करें , स्तुति रुप प्रार्थना करें ।
२. वेदादेशानुसार दिनचर्या बनावें
हम जिस प्रभु की प्रार्थना करने के लिये इस मन्त्र द्वारा प्रेरित किये गये हैं , उस प्रभु के सम्बन्ध में भी इस मन्त्र में प्रकाश डालते हुये बताया है कि जो पदार्थ कभी बने नहीं अपितु पहले से ही प्रभु ने अपने गर्भ में रखे हुये हैं । इस का भाव यह है कि इस जगत की रचना से पूर्व भी यह सब विद्यमान थे तथा जो स्वयं ही होने वाले थे । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उस प्रभु का कभी निर्माण नहीं हुआ । वह प्रभु इस जगत की रचना से पूर्व भी विद्यमान था । स्वयं होने के कारण उसे खुदा भी कहा गया है । इतना ही नहीं वह प्रभु हम प्राणियों के सामने एक आदर्श के रुप में विद्यमान है । उस प्रभु में जो गुण हैं , उन्हें ग्रहण कर हमने स्वयं को भी वैसा ही बनाने का यत्न करना है । उस परम पिता परमात्मा ने हमारे सब कार्यों का , हमारे सब कर्तव्यों का , हमारे सब वांछित क्रिया कलापों का वेद में वर्णन कर दिया है, वेद में आदेशित कर दिया गया है । हमें उन के अनुसार ही अपना जीवन व दिनचर्या बनानी चाहिये ।
३. वद का स्वाध्याय नित्य करें
उस प्रभु ने ही हमारे कल्याण के लिये हमें वेद वाणी दी है , वेदों के रुप में ज्ञान का अपार भण्डार दिया है । वह प्रभु ही वेद में सब प्रकार के यज्ञों का प्रकाश करने वाले हैं । अर्थात उन्होंने वेद में विभिन्न प्रकार के यज्ञों का प्रकाश कर दिया है , विभिन्न प्रकार से दान करने की प्रेरणा दे दी है । मानव के जितने भी कर्तव्य हैं , उन सब का प्रतिपादन , उन सब का वर्णन उस पिता ने वेद मे कर दिया है ।
४. प्रभु स्मरण से शक्ति मिलाती है
हमारा यह परमपिता परमात्मा स्मरण करने के योग्य है , सदा स्मरणीय है । परमात्मा के स्मरण के लिये कहा गया है कि कोई समय एसा नहीं , जब उसे स्मरण न किया जा सके , कोई काल एसा नहीं जब उसे स्मरण न किया जा सके । इतना ही नहीं प्रत्येक ऋतु में ही उसे स्मरण किया जा सकता है तथा किया जाना चहिये । अत: मन्त्र कहता है कि उस दाता को हमें सदा स्मरण करना चाहिये , उस प्रभु को हमें सदा स्मरण करना चाहिये ,जो हमें सदा शक्ति देता है, जिसके स्मरण मात्र से , जिसके समीप बैठने से तथा जिसकी स्तुति करने से हमें अपार शक्ति मिलती है। शक्ति का प्रवाह हमारे शरीर में ओत – प्रोत होता है ।
५. सोते जागते सदा प्रभु स्मरण करें
मानव सदा विभिन्न कार्यो में उलझा रहता है । कभी उसे अपने व्यवसाय के लिये कार्य करना होता है तो कभी उसे अपने परिजनों का ध्यान करना होता है , उनकी देख रेख करनी होती है । परिवार की इन चिन्ताओं के कारण उस के पास समय का अभाव हो जाता है । समय के इस अभाव को वह साधन बना कर प्रभु चिन्तन से दूर होने का यत्न करता है किन्तु मन्त्र ने इस का भी बडा ही सुन्दर समाधान दे दिया है । मन्त्र कह रहा है कि हे मानव ! यह ठीक है कि तेरा जीवन अत्यन्त व्यस्त है । इस मध्य तूं ने अनेक समस्याओं के समाधान में अपना समय लगाना है इस कारण सम्भव है कि दैनिक कार्यों को पूरा करने के कारण तेरे पास प्रभु स्मरण का समय ही न रहे , जब कि प्रतिपल प्रभु को स्मरण करने के लिये कहा गया है, एसी अवस्था मे भी एक समय तेरे पास एसा होता है , जब तुझे किसी प्रकार का कोई काम नहीं होता । इस काल में तूंने केवल आराम , केवल विश्राम ही करना होता है । इस काल का , इस समय का नाम है रात्रि । यह रात्रि का समय ही तो होता है जब हमें कुछ सोचने , विचारने व स्मरण करने का अवसर देता है । रात्रि काल में जब हम अपने शयन स्थान पर जावें तो कुछ समय स्वाध्याय स्वरुप वेद का अध्ययन करें तथा फ़िर इस स्थान पर ही कुछ काल प्रभु का स्मरण करें । रात्री को सोते समय प्रभु स्मरण से प्रभु हमारा सहयोगी हो जाता है , पथ प्रदर्शक हो जाता है , मित्र हो जाता है । जब प्रभु हमारा सहायक हो जाता है तो रात्रि को जब हम निद्रा अवस्था में होते हैं तो वह प्रभु ही हमारा रक्षक होता है , चौकीदार का काम करता है तथा हमें किसी प्रकार का बुरा, भ्यावह स्वप्न तक भी हमारे पास नहीं आने देता । स्वप्न में भी हमें प्रभु ही दिखाई देता है । प्रभु की गोद में रहते हुये इस प्रकार शान्त निद्रा मिलती है , जैसी माता की गोदी में ही मिला करती है । अत; एसी अवस्था में प्रभु के ही स्वप्न आते हैं । स्वपन अवस्था में प्रभु ने जो पाठ हमें दिया होता है , उस उतम पाठ को हम जागृत अवस्था में भी कभी न भुलें । यह यत्न ही हमें करना है ।
६. सब से बड़ा दानी
इस जगत में सबसे बडा दानी प्रभु को ही कहा गया है । हम अपने जीवन में जिन जिन वस्तुओं का उपभोग करते , जिन जिन पदार्थों का सेवन करते हैं ,वह सब उस प्रभु की ही देन है । परमपिता परमात्मा ने हमारे जीवन को उत्तमता से भरकर प्रसन्नता से भर पूर बनाने के लिये यह फ़ल, यह फ़ूल ,यह वन्सपतियां, यह सूर्य, यह चन्द्र , यह वायु, यह जल दिया है । यदि पिता यह सब कुछ न देता तो हमारे जीवन का एक पल भी चल पाना सम्भव नहीं था । यह सब कुछ उस पिता ने दिया है । तब ही तो हम उसे सब से बडा दाता, सबसे बडा दानी कहते हैं । उस प्रभु ने इस संसार के प्राणियों को तो अपने अन्दर समेट ही रखा है किन्तु जब संसार समाप्त हो जाता है, जब प्रलय आ जाती है , तब भी प्रभु ही इस जगत को सम्भालता है । प्रलय के समय इस पूरे बर्ह्माण्ड को हमारा वह परम पिता अपने अन्दर समेट कर इस की रक्षा करता है ।
७. दाता बाँट कर देता हैं
परमपिता प्रभु ने मानव मात्र के , प्राणि मात्र के हित के लिये जितने भी पदार्थ आवश्यक थे, उन सब की रचना की है । जितनी भी आनन्द देने वाली ,सुख देने वाली, रम्नीक वस्तुएं हैं , उन सब को धारण करने वाले वह सर्वोतम प्रभु हैं तथा यह सब हमें बांटने क कार्य भी करते हैं ।
८. सप्त धातुओं कि रचना
प्रभु अनुभवी संचालक भी है , जो इस शरीर रुपि कारखाने के अन्दर बडी ही उतम व्यवस्था है । इस शरीर में अन्न देता है । अन्न से हमारा यह रक्त बनता है । रक्त से शरीर में मांस बनता है , मोदस बनता है , अस्थि व मज्जा बनते हैं तथा फ़िर इससे ही वीर्य बनता है , जो शरीर को शक्ति देकर बलिष्ठ बनाता है । इन सात धातुओं का निर्माण क्रमानुसार इस शरीर में ही करता है । इस सात धातुओं को ही सात रत्न कहा जाता है । जब हम शरीर शास्त्र का अध्ययन करते हैं तो इन सात धातुओं के समबन्ध में तथा इन के महत्व के समबन्ध में हमें ज्ञान होता है । इन सप्त धातुओं ने ही इस शरीर को रमणीक बना दिया है । । बस इस कारण ही इन धातुओं को रत्न का नाम दिया गया है । इस शरीर को उस पिता ने एक निवास का , एक घर क रुप देते हुये इस में ही इन सात रत्नों की स्थापना कर दी है, इनका निवास बना दिया है । एसे दयालु प्रभु का, एसे दाता प्रभु का, एसे सब याचकों की याचना को पूरा करने वाले प्रभु का हमें सदा ध्यान करना चाहिये, उसके पास बैठ कर उसकी स्तुति करनी चाहिये, उसकी प्रार्थना करनी चाहिये ।

डा. अशोक आर्य

ज्ञान से मानव क्रियमान बनता है

ज्ञान से मानव क्रियमान बनता है
डा. अशोक आर्य
हम सदा अभय रहें , हमारे में किसी प्रकार का उद्वेग न हो, किसी प्रकार का भय न हो । हमारे यज्ञ में कभी रुकावट न आवे । हम सदा अपने ज्ञान, अपनी भक्ति तथा अपने
कर्म का सदा विस्तार करें । हम जो ज्ञान पूर्वक कर्म करते हैं , वह ही भक्ति है तथा ज्ञान हम उसे ही मानते हैं , जो हमें सदा किसी न किसी क्रिया में लगाये रखते है । यजुर्वेद के इस प्रथम अध्याय का २३ वां मन्त्र हमें यह सन्देश इन शब्दों में दे रहा है :-
मा भेर्मा सविक्थाऽअतमेरुर्यग्योऽतमेरुर्यजमानस्य प्रजा भूयात त्रिताय
त्वा द्विताय त्वॆक्ताय त्वा ॥ यजु.१.२३ ॥
पूर्व मन्त्र में यह बताया गया था कि जिस व्यक्ति का सविता देव के द्वारा अच्छी व भली प्रकार से परिपाक हो जाता है , एसा व्यक्ति सदा ही किसी प्रकार से भी भयभीत नहीं होता । वह सदा निर्भय ही रहता है । एसे व्यक्ति में दॆवीय सम्पति अर्थात देवीय गुणों का विकास होता है , विस्तार होता है । यह विकास अभय अर्थात भय रहित होने से ही होता है । इस लिये यह मन्त्र इस बात को ही आगे बढाते हुए तीन बिन्दुओं पर विचार देते हुए उपदेश कर रहा है कि :-
१. प्रभु भक्त को कभी भय नही होता :-
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे प्राणी ! तूं डर मत । तुझे किसी प्रकार का भय नहीं होना चाहिये । तूं प्रभु से डरने के कारण सदा प्रभु के आदेश का पालन करता है , प्रभु की शरण में रहता है । जो प्रभु की शरण में रहता है , प्रभु के आदेशों का पालन करता है , वह संसार में सदा भय रहित हो कर विचरण करता है । अन्य किसी भी सांसारिक प्राणी से कभी भयभीत नहीं होता ।
इसके उलट जो व्यक्ति उस परमपिता से कभी भय नही खाता , कभी भयभीत नहीं होता , एसा व्यक्ति संसार के सब प्राणियों से , सब अवस्था में भीरु ही बना रहता है , डरपोक ही बना रहता है , सदा सब से ही भयभीत रहता है , जबकि प्रभु से डरने वाला सदा निडर ही रहता है । इसलिए मन्त्र कह रहा है कि हे प्राणी ! प्रभु से लगन लगा ,किसी प्रकार के उद्वेग से तूं डर मत , कम्पित मत हो , भयभीत न हो । तूं ठीक मार्ग पर , सुपथ पर चलने वाला है । सुपथ पर जाने वाले को कभी किसी प्रकार का भय , कम्पन नहीं होता ।
२. अनवरत यज्ञ करें
हे प्राणी। तूं सच्चा प्रभु भक्त होने के कारण सदा यज्ञ करने में लगा रहता है किन्तु इस बात का स्मरण बनाये रखना कि तेरा यह यज्ञ कभी श्रान्त न हो , कभी बाधित न हो , कभी इस में रुकावट न आने पावे । इसे अनवरत ही करते रहना । इस सब का भाव यह है कि तूं सदा यज्ञ करने वाला है तथा तेरी यह यज्ञीय भावना सदा बनी रहे , निरन्तर यज्ञ करने की भावना तेरे में बनी रहे । तूं सदा एसा यत्न कर कि तेरी यह भावना कभी दूर न हो । इस सब का भाव यह ही है कि हम सदा यज्ञ करते रहें , परोपकार करते रहें , दूसरों की सहायता करते रहे । हमारी इस अभिरुचि में कोई कमीं न आवे । कभी कोई समय एसा न आवे कि हम इस यज्ञीय परम्परा को बाधित कर कुछ और ही करने लगें ।
३. प्रभु यग्यी व्यक्ति को चाहता है :-
हम यह जो यज्ञ करते हैं , इस कारण हम प्रभु की सच्ची सन्तान हैं । मन्त्र कह रहा है कि प्रभु यज्ञीय को ही पसन्द करते हैं । वह यज्ञीय व्यक्ति को पुत्रवत प्रेम करते हैं । वह नहीं चाहते कि उसकी सन्तान कभी उत्तम कर्म करते करते थक जावें । प्रभु अपनी सन्तान को सदा बिना थके कर्म करते हुए देखना चाहते हैं । निरन्तर कर्म में लिप्त रहना चाहते हैं । अकर्मा तो कभी होता देख ही नहीं सकते । इस के साथ ही मन्त्र यह भी कहता है कि जो व्यक्ति सदा कर्म करते हुए अपने सब यज्ञीय कार्यों को सम्पन्न करते हैं , एसे व्यक्तियों का समबन्ध परम पिता परमात्मा से सदा बना रहता है । वह कभी उस पिता से दूर नहीं होते । सदा प्रभु से जुडे रहते हैं । कभी थकते नहीं , कभी विचलित नहीं होते , कभी भयभीत नहीं होते । उनकी निरन्तरता कभी टूटती नहीं । जो लोग प्रभु के नहीं केवल प्रकृति के ही उपासक होते हैं , वह कुछ ही समय में थक जाते हैं , श्रान्त हो जाते हैं । एसे लोगों का जीवन विलासिता से भरा होता है । एसे लोग काम क्रोध , जूआ , नशा आदि के शिकार होने के कारण उनका शरीर जल्दी ही क्षीण हो जाता है , जल्दी ही कमजोर हो कर थक जाता है । अनेक प्रकार के रोग उन्हें घेर लेते हैं तथा अल्पायु हो जाते हैं ।
मन्त्र आगे कह रहा है कि मानव को ज्ञान का प्रधान होना चाहिये , वह कर्म मे भी कभी फीछे न रहे तथा प्रभु भक्ति से भी कभी मुख न मोडे । इस लिए ही मन्त्र उपदेश करते हुए कह रहा है कि प्रभु अपने भक्तों को , अपने पुत्रों को , अपनी उपासना करने वालॊं के ज्ञान , अपने कर्म तथा उनकी उपासना में कभी कमीं नहीं आने देते अपितु उन्हें अपने यह सब गुण बढाने के लिए प्ररित करते हैं । वह प्राणी के इन गुणों को बढाने के लिए सदा उसे उत्साहित करते रहते हैं । इस का कारण है कि जो भक्ति ज्ञान सहित की जावे , वह भक्ति ही भक्ति कहलाती है । इसे ही भक्ति कहते हैं । इसलिए मन्त्र यह ही उपदेश करता है कि तेरे ज्ञान तथा कर्म में निरन्तर विस्तार होता रहे , निरन्तर उन्नति होती रहे , निरन्तर आगे बढता रहे ।
मन्त्र यह भी कहता है कि हमारे जितने भी आवश्यक कर्म हैं , उन सब की प्रेरणा का स्रोत , उन सब की प्रेरणा का केन्द्र , उन सब की प्रेरणा का आधार ज्ञान ही होता है । इसलिए इस मन्त्र के माध्यम से परम पिता परमात्मा उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि मैं तुझे ज्ञान के बढाने की और प्रेरित करता हूं , मैं तुझे अपने ज्ञान को निरन्तर बढाने के लिए आह्वान करता हूं । यह तो सब जानते हैं कि ब्रह्मज्ञानियों में भी जो क्रियमान होता है , वह ही उत्तम माना जाता है , श्रेष्ट माना जाता है । इस लिए हे प्राणी ! तूं निरन्तर स्वाध्याय कर , निरन्तर एसे कर्म कर , निरन्तर एसे कार्य कर कि जिससे तेरे ज्ञान का विस्तार होता चला जावे , कि जिससे तेरे ज्ञान को बढावा मिले ।
डा. अशोक आर्य

प्रभु सब का कल्याण करते हैं

प्रभु सब का कल्याण करते हैं
डा. अशोक आर्य
परमात्मा श्रमशील व्यक्ति , जो मेहनत करके अपना व्यवसाय चलाता है , को ही पसन्द करते हैं , उसकी ही सदा सहायता करते हैं । इस प्रकार का उपदेश इस मन्त्र में इस प्रकार दिया गया है :-
यएकश्चर्षणीनांवसूनामिरज्यति।
इन्द्रःपञ्चक्षितीनाम्॥ ऋ01.7.9 ||
इस मन्त्र में पभु ने तीन बिन्दुओं के माध्यम से जीव को इस प्रकार उपदेश किया है :-
१. श्रम से धन प्राप्त करें :-
परम पिता प्ररमात्मा की सदा यह ही इच्छा रही है कि मानव अथवा जीव सदा श्रम शील हो । वह चाहे कृषि करे या कोई भी अन्य व्यवसाय किन्तु यह सब कुछ वह मेहनत से करे , उद्योग से करे , पुरुषार्थ से करे । मेहनत से किया कार्य निश्चित ही कोई उतम फ़ल लेकर आता है । प्रभु जीव को पुरुषार्थी ही देखना चाहता है । जो लोग आलसी होते हैं , प्रमादी होते हैं , अन्यों पर आश्रित होते हैं , एसे जीवों को वह पिता कभी भी पसन्द नहीं करते । इस कारण ही इस मन्त्र में कहा गया है कि वह प्रभु श्रमशील व्यक्तियों तथा उनके निवास के लिए सब प्रकार के आवश्यक धनों के ईश होने के कारण वह उन जीवों की सहायता करके उन्हें अपना निवास बनाने के लिए तथा दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन आदि की व्यवस्था करने में सहयोग करते हैं किन्तु करते उसके लिए ही हैं , जो मेहनत करता है , जो श्रम करता है , जो पुरुषार्थ करता है ।
परमपिता परमात्मा सर्वशक्तिमान हैं । सब प्रकार की शक्तियां प्रभु में विद्यमान हैं । इन शक्तियों का संचालन , इन शक्तियों का प्रयोग भी वह स्वयं ही करते हैं । अपने कार्य करने के लिए उन्हें किसी अन्य की सहायता नहीं लेनी पडती । वह अपना काम स्वयं ही करते हैं । मानव को , जीव को तो अपने कार्य करने के लिए , अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सदा ही दूसरों पर आश्रित होना पडता है , दूसरों की सहायता लेनी पड्ती है । चाहे कृषि का क्षेत्र हो चाहे कोई व्यवसाय , उसे दूसरे की सहायता लेनी ही होती है । वह अकेले से अपने किसी भी कार्य की पूर्ति नहीं कर सकता । इसलिए उसे प्रबन्धन करना होता है , कुछ लोगों में काम बांट कर करना पडता है , तब ही उसके काम की पूर्ति होती है किन्तु वह सर्वशक्तिमान परमात्मा एसा नहीं करता ,। वह अपने सब काम ओर उन कामों के सब भाग वह स्वयं ही पूर्ण करता है ।
२. प्रभु श्रमशील को ही पसन्द करता है :-
प्रभु को श्रमशील मनुष्य , मेहनती मनुष्य , पुरुषार्थी मनुष्य ही पसन्द हैं । एसे जीव को ही वह अपना आशीर्वाद देते हैं , जो निरन्तर परिश्रम करते हैं । आलसी – प्रमादी को वह कभी पसन्द नहीं करते । जो अपना काम स्वयं करता है , एसे को ही वह पसन्द करते हैं । मन्त्र में एक शब्द आया है चर्षणीय । इस शब्द का स्थानापन्न कर्षणीय भी कहा गया है अर्थात कृषि आदि , वह कार्य जिन को करने के लिए मेहनत करनी होती है , पुरुषार्थ करना होता है । जो लोग इस प्रकार के मेहनत से युक्त , पुरुषार्थ से युक्त कार्यों में लगे रहते हैं , एसे व्यक्ति ही प्रभु को पसन्द हैं तथा प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं । इन्हें ही प्रभु अपनी कृपा का पात्र समझते हुए , इन पर कृपा करता है । एसे लोगों को वह पिता सब प्रकार के आवश्यक धन प्राप्त करने में सहाय होते हैं , सब एश्वर्यों के स्वामी बनाने में पथ प्रदर्शक का कार्य करते हैं । इस मन्त्र में चर्षणीय तथा वसूनां शब्दों का प्रयोग किया गया है । इन शब्दों के द्वारा यह भावना ही प्रकट होती है कि प्रभु की दया उसे ही मिलती है जो पुरुषार्थी है । जो मेहनत नहीं करता, आलसी है , प्रमादी है , एसे लोगों को प्रभु न तो पसन्द ही करते हैं तथा न ही उनकी किसी प्रकार की सहयता करते हैं । प्रभु उन पर अपनी दया दृष्टि कभी नहीं डालते । अत: प्रभु की दया पाने के लिए पुरुषार्थी होना आवश्यक है ।
३. प्रभु सब का कल्याण करते हैं ;-
परमपिता परमात्मा पांचों प्रकार के मनुष्यों के ईश हैं । इस वाक्य से एक बात स्पष्ट होती है कि इस संसार में पांच प्रकार के मनुष्य होते हैं । हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रभु ने इस संसार के मानवों को पांच श्रेणियों में बांट रखा है । यह श्रेणियां उनकी योग्यता अथवा उनके गुणों के अनुसार बनायी गई हैं । जिस प्रकार एक विद्यालय में विभिन्न कक्षाएं होती हैं तथा प्रत्येक शिक्षार्थी को उसकी योग्यता के अनुसार कक्षा दी जाती है । जिस प्रकार हम देखते हैं कि इस विद्यालय में विभिन्न प्रकार के कर्मचारी होते हैं । प्रत्येक कर्मचारी को उसकी योग्यतानुसार चपरासी,लिपिक, अध्यापक अथवा मुख्याध्यापक का पद दिया जाता है। यह सब प्रभु की व्यवस्था की नकल मात्र ही है क्योंकि प्रभु ने इस जगत के मानवों को , उनकी योग्यता के अनुसार पांच श्रेणियों में बांट रखा है । यह पांच श्रेणियां इस प्रकार हैं :-
मानव – समाज =
(क) ब्राह्मण
(ख) क्षत्रिय
(ग) वैश्य
(घ) शूद्र
(ड.) निषाद ।
यह प्रभु की व्यवस्था है । जिस में जिस प्रकार के गुण हैं अथवा जिस में जिस प्रकार की योग्यता है , उसे उस प्रकार के वर्ग में ही प्रभु स्थान देते हैं । इस के साथ ही प्रभु उपदेश भी करते हैं कि हे मानव ! तेरी वर्तमान योग्यता को देखते हुए मैंने तुझे इस श्रेणी में रखा है , इस वर्ग में रखा है , यदि तूं पुरुषार्थ करके , मेहनत करके अपनी योग्यता को बढा लेगा तो तुझे सफ़ल मानकर उपर की श्रेणी में भेज दिया जावेगा ओर यदि तूं प्रमाद कर , आलसी होकर अपनी योग्यता को कम कर लेगा तो तुझे निरन्तर उस श्रेणी में ही रहना होगा जिस प्रकार एक असफ़ल बालक को अगले वर्ष भी उसी कक्षा में ही रहना होता है किन्तु तूंने फ़िर भी मेहनत न की तो तेरी श्रेणी नीचे भी की जा सकती है । इस प्रकार पांच श्रेणियां बना कर प्रभु ने मेहनत करने का मार्ग मानव मात्र के लिए खोल दिया है ।
वह परमात्मा तो सब मनुष्यों के ईश हैं । सब पर समान रूप से दया करते है । सब को समान रुप से धन देते हैं किन्तु देते उतना ही हैं जितना उसने पुरुषार्थ किया होता है । जिस प्रकार एक कपडे की मिल के सेवक को मालिक उतना ही धन प्रतिफ़ल में देता है , जितना उसने कपडा बनाया होता है , उससे अधिक नहीं देता । इस प्रकार ही वह प्रभु भी मानव को उतना ही धन देता है , जितना उस मानव ने मेहनत किया होता है , इस से अधिक कुछ भी नहीं देता । कपडे की मिल के मालिक से तो कई बार अग्रिम भी प्राप्त किया जा सकता है किन्तु परमात्मा किसी को अग्रिम धन नहीं देता । यह ही उस प्रभु की दया है , उस प्रभु की कृपा है । इस प्रकार प्रभु सब को धन देकर सब का कल्याण करते हैं क्योंकि वह ही क्ल्याणकारी हैं ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु हमारे एक मात्र ओर असाधारण मित्र हैं

प्रभु हमारे एक मात्र ओर असाधारण मित्र हैं
डा. अशोक आर्य
ज्यों ही प्रभु जीव का मित्र हो जाता है त्यो ही जीव को सब कुछ मिल जाता है । उस की सब अभिलाषाएं पूर्ण हो जाति हैं , सब इच्छाए पूर्ण हो जाती हैं , उसे किसी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं रह जाती । इस तथ्य पर यह मन्त्र इस प्रकार प्रकाश डाल रहा है :-
इन्द्रंवोविश्व्तस्परिहवामहेजनेभ्य: ।
अस्माकमस्तुकेवल: ॥ ऋ01.7.10 ॥
इस मन्त्र में दो बिन्दुओं पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया है :-
१. प्रभु सदा हमारा कल्याण चाहते हैं :-
इस चलायमान जगत में एक मनुष्य ही दूसरे मनुष्य की सहायता करता है । मानव में यद्यपि एक दूसरे से सदा ही प्रतिस्पर्द्धा रहती है । वह एक दूसरे से आगे निकलने का यत्न करता है , दूसरे से अधिक सुखी व सम्पन्न होने का प्रयास प्रत्येक मानव को इस दौड का प्रतिभागी बना लेता है । इतना होते हुए भी समय आने पर मानव ही मानव के काम आता है ।
हम इस जगत में अकेले नहीं हैं । हमारे बहुत से सम्बन्धी हैं । कोई हमारी माता है , कोई पिता है , कोई हमारा भाई है तो कोई चाचा , कोई मामा, कोई ताऊ या किसी अन्य सम्बन्ध में बन्धा है । यह सब लोग समय – समय पर हमारी अनेक प्रकार से सह्योग , सहायता व सुरक्षा करते हैं । इस कारण यह सब हमारे शुभ – चिन्तक हैं , हितैषी हैं , सहायक हैं अथवा मित्र हैं । जब भी हमारे पर कोई भी विपति आती है तो यह सहायक बन कर सामने खडे होते हैं तथा इस दु:ख के अवसर पर हमारा साथ देकर हमें इस से निकालने का यत्न करते हैं ।
यह हमारे मित्र ,यह हमारे सम्बन्धी क्या सदा सर्वदा हमारा सहयोग करेंगे ? , क्या सदा ही संकट काल में हमारे रक्षक बन कर सामने आवेंगे । नहीं यह एक सीमा तक ही हमारे मित्र , हमारे सहायक , हमारे रक्षक होते हैं । इस सीमा के पार यह लोग नहीं जा पाते । यह तब तक ही हमारे साथी हैं , जब तक हमारे कारण इन को कोई कष्ट नहीं अनुभव होता , यह तब तक ही हमारे साथी हैं , जब तक इन को कोई व्यक्तिगत हानि नहीं होती । ज्यों ही कभी हमारे कारण इन्हें कोई हानि होने की सम्भावना होती है तो यह हम से अलग हो जाते हैं | जब तक दोनों के हित – अहित एक से होते हैं तो सब साथ होते हैं किन्तु ज्यों ही एक दूसरे के हित अहित में अन्तर आता है तो यह अलग हो जाते हैं । जीवन में कई अफ़सर तो एसे आते हैं कि जिस समय निकट से निकटतम सम्बन्धी भी साथ छोड जाता है ।
जिस समय हमारे सब मित्र हमारा साथ छोड देते हैं, संकट के समय हमें मंझधार में डूबने के लिए छोडकर चले जाते हैं , एसी अवस्था में परम पिता पामात्मा हमारे सहायक बन कर आते हैं , हमारे असाधारण मित्र बन कर आते हैं , असाधारण सम्बन्धी बनकर आते हैं तथा हमारा हाथ पकड कर हमें संकट से निकाल कर ले आते हैं । यहां उस पिता को असाधारण मित्र तथा असाधारण सम्बन्धी कहा है । एसा क्यों ? क्या केवल मित्र या सम्बन्धी शब्द से काम नहीं चल सकता था ? जी नहीं ! केवल इस शब्द से काम कैसे चल सकता है ? यह शब्द तो हम पहले ही अपने व्यक्तिगत मित्रों व सम्बन्धियों के लिए प्रयोग कर चुके हैं , जो संकट काल में हमें छोड गये थे । जब हमारा कोई भी न था , एसे समय में उस पिता ने आकर हमें अपना मित्र , हमें अपना समन्धी मानकर हमारा हाथ पकडा | हमें उस संकट से निकाल कर लाए , फ़िर वह असाधारण क्यों नही हुआ ? इस कारण ही वेद के इस मन्त्र में उस प्रभु को असाधारण मित्र कहा गया है ।
मन्त्र कहता है कि जब हमारे मित्र हमारा साथ छोड जाते हैं , जब हमारे सब सम्बन्धी भी सब सम्बन्ध तोड कर चले जाते हैं , एसे समय हम उस प्रभु को ही अपने मित्र रुप में सामने खडा हुआ पाते हैं , उस प्रभु को ही हम अपने सम्बन्धी के रुप में सामने खडा हुआ पाते हैं । हम उसे सहायता के लिए पुकारते हैं । हम जानते हैं कि परम पिता सदा सब का कल्याण चाहते हैं , सदा सब को सुखी देखना चाहते हैं । इस लिए ही हम सहायता के लिए उसे पुकारते हैं । इस से स्पष्ट है कि जिस समय पूरे संसार में हमें अपना कोई भी सहायक दिखाई नहीं देता , उस समय यह प्रभु ही हमारा सहायक होता है , हमारा परम मित्र होता है , हमारा परम सम्बन्धी होता है ।
२. हम सदा प्रभु प्राप्ति की कामना करें :-
हम एसे कार्य करें कि जिससे हमारे रक्षक , हमारा कल्याण चाहने वाले वह प्रभु हमारे असाधारण मित्र बन जावें , हमारे असाधारण सम्बन्धी बन जावें । जब भी हम उसे पुकारें , वह दौडते हुए हमारी सहायता के लिए प्रकट हो जावें । इस लिए हम सदा ही अपने सांसारिक मित्रों से कहीं अधिक , हम अपने सांसारिक सम्बन्धियों से कहीं अधिक उस प्रभु को मित्र व सम्बन्धी के रुप मे देखें तथा उसे सर्वाधिक चाहें ।
यह प्रभु ही हमें आत्मतत्व के रुप में प्राप्त होते हैं । आत्म तत्व की प्राप्ति के लिए जीव सब कुछ त्यागने को तैयार हो जाता है , यहां तक कि वह इस पृथिवी , जो उसका निवास होती है , जिस के बिना वह एक क्षण भी इस संसार में रह नहीं सकता , इसे भी त्यागने को तैयार हो जाता है । यदि एक ओर इस जगत के , इस संसार के , इस ब्रह्माण्ड के सब पदार्थ हमें मिल रहे हों ओर एक ओर हमें केवल आत्म तत्व प्राप्त हो रहा हो तो हम सब कुछ को छोड कर आत्म तत्व को पाने का प्रयास करें । यही ही श्रेयस मार्ग है । जिस प्रकार कठोपनिष्द में बताया गया है कि नचिकेता ने संसार के सब प्रलोभनों को छोड दिया , उस ने इन प्रलोभनों की ओर देखा तक भी नहीं ओर आत्म तत्व पाने का यत्न किया । उस प्रकार ही हम भी इन सब भौतिक सुख सुविधाओं का त्याग करते हुए प्रभु को पाने का प्रयास करें , उसे वरण करने का यत्न करें ।
यह जितना कुछ हम जगत में देख रहे हैं , यह सब कुछ उस प्रभु के अन्दर ही विराजमान है । इसलिए जब वह पिता हमें मिल जावेंगे , हमें आशीर्वाद दे देवेंगे तो यह सब कुछ तो अपने आप ही हमें मिल जाने वाला है । फ़िर इस सब से अनुराग क्यों ?, इस सब से अनुराग हटा कर प्रभु से सम्बन्ध जोडने का यत्न करें ।
जब हम परम पिता विष्णु के अतिथि बन कर उसके द्वार पर जावेंगे तो वहां पर लक्ष्मी हमें भोजन कराने के लिए निश्चित रुप से प्रकट होगी । इस प्रकार विष्णु रुप प्रभु को पा कर , लक्ष्मी रुप प्रभु को पा कर हमें सब कुछ मिल जावेगा । इस लिए हमारे लिए यह प्रार्थाना , यह कामना , यह अभिलाषा करना ही सर्वश्रेष्ठ है कि हमें केवल ओर केवल वह पिता ,वह प्रभु , वह परम एश्वर्यशाली प्रभु हमें मिल जावें , प्राप्त हो जावें तथा उन्हें साक्षात करने का हम निरन्तर प्रयास करते रहें ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु के दरबार में सब प्रर्थनाएं स्वीकार होती हैं

प्रभु के दरबार में सब प्रर्थनाएं स्वीकार होती हैं
डा. अशोक आर्य
प्रभु सर्वशक्तिशाली है तथा हम सब का पालक है । वह हमारी सब प्रार्थनाओं को स्वीकार करता है । यह सब जानकारी इस मन्त्र के स्वाध्याय से मिलती है , जो इस प्रकार है :-
वृषायूथेववंसगःकृष्टीरियर्त्योजसा।
ईशानोअप्रतिष्कुतः॥ ऋ01.7.8 ||
इस मन्त्र में चार बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है ।:-
१. प्रभु प्रजाओं को सुख देता है :-
परम पिता परमात्मा सर्व शक्तिशाली है । उसकी अपार शक्ति है । संसार की सब शक्तियों का स्रोत वह प्रभु ही है । इस से ही प्रमाणित होता है कि प्रभु अत्यधिक शक्तिशाली है । अपरीमित शक्ति से परिपूर्ण होने के कारण ही वह सब को शक्ति देने का कार्य करता है । जब स्वयं के पास शक्ति न हो , धन न हो , वह किसी अन्य को कैसे शक्ति देगा , कैसे दान देगा । किसी अन्य को कुछ देने से पहले दाता के पास वह सामग्री होना आवश्यक है , जो वह दान करना चाहता हो । इस कारण ही प्रभु सर्व शक्तिशाली हैं तथा अपने दान से सब पर सुखों की वर्षा करते हैं ।
२. प्रभु सब को सुपथ पर ले जाते हैं :-
परम पिता परमात्मा हम सब को सुपथ पर चलाते हैं , जिस प्रकार गाडी के कोचवान के इशारे मात्र से , संकेत मात्र से गाडी के घोडे चलते हैं ,गति पकडते हैं , उस प्रकार ही हम प्रभु के आज्ञा में रहते हुए , उस के संकेत पर ही सब कार्य करते हैं । हम, जब भी कोई कार्य करते हैं तो हमारे अन्दर बैठा हुआ वह पिता हमें संकेत देता है कि इस कार्य का प्रतिफ़ल क्या होगा ?, यह हमारे लिए करणीय है या नहीं । जब हम इस संकेत को समझ कर इसे करते हैं तो निश्चय ही हमारे कार्य फ़लीभूत होते हैं । वेद के इस संन्देश को ही बाइबल ने ग्रहण करते हुए इसे बाइबल का अंग बना लिया । बाइबल में भी यह संकेत किया गया है कि भेडों के झुण्ड को सुन्दर गति वाला गडरिया प्राप्त होता है, उनका संचालन करता है , उन्हें चलाता है । भेड के लिए तो यह प्रसिद्ध है कि यह एक चाल का अनुवर्तत्व करती हैं । एक के ही पीछे चलती हैं । यदि उस का गडरिया तीव्रगामी न होगा तो भेडों की चाल भी धीमी पड जावेगी तथा गडरिया तेज गति से चलने वाला होगा तो यह भेडें उस की गति के साथ मिलने का यत्न करते हुए अपनी गती को भी तेज कर लेंगी । बाइबल ने प्रजाओं को भेड तथा प्रभु को चरवाहा शब्द दिया है , जो वेद में प्रजाओं तथा प्रभु का ही सूचक है ।
३. प्रभु से औज मिलता है : –
परम, पिता परमात्मा ओज अर्थात शक्ति देने वाले हैं । जो लोग कृषि अथवा उत्पादन के कार्यों में लगे होते हैं , उन्हें शक्ति की , उन्हें ओज की आवश्यकता होती है । यदि उनकी शक्ति का केवल ह्रास होता रहे तो भविष्य में वह बेकार हो जाते हैं , ओर काम नहीं कर सकते । शिथिल होने पर जब प्रजाएं कर्म – हीन हो जाती हैं तो उत्पादन में बाधा आती है । जब कुछ पैदा ही नहीं होगा तो हम अपना भरण – पोषण कैसे करेंगे ? इस लिए वह पिता उन लोगों की शक्ति की रक्षा करते हुए , उन्हें पहले से भी अधिक शक्तिशाली तथा ओज से भर देते हैं ताकि वह निरन्तर कार्य करता रहे । इस लिए ही मन्त्र कह रहा है कि जब हम प्रभु का सान्निध्य पा लेते हैं , प्रभु का आशीर्वाद पा लेते हैं , प्रभु की निकटता पा लेते हैं तो हम ( जीव ) ओजस्वी बन जाते है ।
४. प्रभु सबकी प्रार्थना स्वीकार करते हैं :
परमपिता परमात्मा को मन्त्र में इशान कहा गया है । इशान होने के कारण वह प्रभु सब प्रकार के ऐश्वर्यों के अधिष्ठाता हैं , मालिक हैं , संचालक हैं । प्रभु कभी प्रतिशब्द नहीं करते , इन्कार नहीं करते , अपने भक्त से कभी मुंह नहीं फ़ेरते । न करना , इन्कार करना तो मानो उन के बस में ही नहीं है । उन का कार्य देना ही है । इस कारण वह सबसे बडे दाता हैं । वह सब से बडे दाता इस कारण ही हैं क्योंकि जो भी उन की शरण में आता है , कुछ मांगता है तो वह द्वार पर आए अपने शरणागत को कभी भी इन्कार नहीं करते ,निराश नहीं करते । खाली हाथ द्वार से नहीं लौटाते । इस कारण हम कभी सोच भी नहीं सकते कि उस पिता के दरबार में जा कर हम कभी खाली हाथ लौट आवेंगे , हमारी प्रार्थना स्वीकार नहीं होगी । निश्चित रुप से प्रभु के द्वार से हम झोली भर कर ही लौटेंगे ।
डा. अशोक आर्य

प्रभु हमारे सब मनोरथ पूर्ण करते हैं

प्रभु हमारे सब मनोरथ पूर्ण करते हैं
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा दयालु हैं । हम सदा उन की दया पाने के लिए यत्न करते हैं । जब उनकी हम पर दया हो जाती है तो वह पिता हम पर अपना अपार स्नेह करते हुए , हमारा ज्ञान का कोष , ज्ञान का खजाना भर देते हैं । इस ज्ञान के खजाने के मिलते ही हमारे सब मनोरथ, सब कामनाएं पूर्ण हो जाते हैं । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार बता रहा है :-
सनोवृषन्नमुंचरुंसत्रादावन्नपावृधि।
अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः॥ ऋ01.7.6
इस मन्त्र में दो बिन्दुओं पर विचर किया गया है :-
१. ज्ञान के भण्डार को खोलो ;-
मन्त्र आरम्भ में ही कह रहा है कि हे प्रभु ! आप हमें वाज व सह्स्रधन अर्थात आप हमें भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विजयें , दोनों प्रकार की सफ़लताएं दिलाने का कारण हैं क्योंकि आप हमारे मित्र हो । मित्र सदा अपने मित्र के सुख दु:ख का ध्यान रखता है , उसे सब प्रकार की वह सुख – सुविधायें दिलाता है , जिन की उसे आवश्यकता होती है । यह आप ही हैं , जिसकी मित्रता के कारण हम यह सब प्राप्त कर पाते हैं । इसलिए हम सदा आप का साथ , सदा आप का सहयोग , सदा आप की मित्रता बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं ।
हे सब प्रकार के सुखों को देने वाले मित्र रुप प्रभो ! हे सदा , सर्वदा सब प्रकार के उतम फ़लों – प्रतिफ़लों के देने वाले प्रभो ! आप हमारे लिए उस ज्ञान के कोष को , उस ज्ञान के भण्डार को खोलिए ।
ब्रह्मचर्य का भाव होता है ज्ञान को चरना , ज्ञान में घूमना , ज्ञान में विचरण करना । इस ब्रह्मचारी को आचार्य लोग विविध विषयों का , अनेक प्रकार के विषयों का ज्ञान कराते हैं , ज्ञान का उपभोग कराते हैं , ज्ञान का भक्षण कराते हैं , ज्ञान में घुमाते हैं , इस ज्ञान की सैर कराते हैं । जिस भी वस्तू का भक्षण या चरण किया जाता है जीव उसका चरु बन जाता है । मानव मुख्य रुप से ज्ञान का भक्षण करने के लिए आचार्य के पास जाता है । जब वह इसे पुरी तरह से , समग्र रुप में चरण कर लेता है तो वह ज्ञानचरु हो जाता है , वहां से ज्ञानचरु बन कर निकलता है । जब हम इसे विशालता से देखते हैं , जब हम इसे बढा कर देखते हैं , जब हम इस का अपावरण करके देखते हैं तो इस का प्रकट करना ही वेद ज्ञान का कोश है , वेद ज्ञान का भण्डार है ।
प्रभु क्रपा ही इस ज्ञान के भण्डार को खोलने की चाबी है , कुंजी है । जब तक हमें उस पिता की दया नहीं मिलती , तब तक हम इस ज्ञान का ताला नहीं खोल सकते । इस लिए हम सदा ही उस पिता की दया रुपी वरद ह्स्त पाने का प्रयास करते रहते हैं । ज्यों ही हम उस प्रभु का आशीर्वाद पाने में सफ़ल होते हैं त्यों ही हम इस ज्ञान के भण्डार का ताला खोल कर इसे पाने में सफ़ल हो पाते हैं । हम इसे खोल कर ज्ञान का विस्तार कर पाते हैं ।
२. प्रभु कभी इन्कार नहीं करता ;_
परम पिता परमात्मा प्रतिशब्द से रहित है । वह अपने भक्त के लिए , अपने मित्र के लिए न नामक शब्द अपने पास रखता ही नहीं । उसके मुख से अपने मित्र के लिए , अपने उपासक के लिए , अपने निकट बैठने वाले के लिए सदा हां ही निकलता है , सहयोग ही देता है , मार्ग – दर्शन ही देता है , ज्ञान ही बांटता है , कभी भी नकारात्मक भाव प्रकट नहीं करता । भाव यह है कि जीव प्रभु की प्रार्थना करता है तथा चाहता है कि वह पिता सदा उसको सकारात्मक रुप से ही देखे , कभी नकारात्मक उतर न दे । वह प्रभु हमारी प्रार्थना को सदा ध्यान से सुने ।
परम पिता परमात्मा को सत्रादावन कहा गया है । इसका भाव है वह पिता सदा देने ही वाले हैं , सदा दिया ही करते हैं , बांटते ही रहते हैं किन्तु देते उसे हैं जो नि:स्वार्थ भाव से मांगता है , जो देने के लिए मांगता है । जो दूसरों की सहायता के लिए मांगता है , एसा व्यक्ति ही प्रभु के दान के लिए सुपात्र होता है , एसा व्यक्ति ही प्रभु से कुछ पाने के लिए अधिकारी होता है , एसा व्यक्ति ही उस पिता की सच्ची दया का अधिकारी होता है । यदि पिता की दया प्राप्त हो गयी तो उसे सब कुछ ही मिल गया । अत: मन्त्र के इस अन्तिम चरण में जीव प्रभु से याचना करता है कि हे प्रभो ! हम सदा आप से यह ज्ञान का कोष पाने के अधिकारी बने रहें ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु उपासना से शरीर दृढ व मस्तिष्क दीप्त होता है

प्रभु उपासना से शरीर दृढ व मस्तिष्क दीप्त होता है
डा. अशोक आर्य
जो जीव परमपिता परमात्मा की समीपता प्राप्त कर लेता है , उसके समीप बै़ठने का अधिकारी हो जाता है , वह जीव ज्ञानेन्द्रियो तथा कर्मेन्द्रियो का समन्वय कर ज्ञान के अनुसार कर्म करने लगता है । समाज के साथ सामन्जस्य स्थापित कर आपस मे मेलजोल बनाते हुए , विचार विमर्श करते हुए ज्ञान के आचरण से कर्म करता है । समाज के साथ सामन्जस्य स्थापित करते हुए कर्म करता है । उसका शरीर दृढ हो जाता है तथा उसका मस्तिष्क तेज हो जाता है , दीप्त हो जाता है । इस बात को ऋग्वेद के प्रथम अध्याय के सप्तम सूक्त के द्वितीय मन्त्र में इस प्रकार कहा गया है : –
इन्द्रइद्धर्योःसचासम्मिश्लआवचोयुजा।
इन्द्रोवज्रीहिरण्ययः॥ ऋ0 1.7.2 ||
ऋग्वेद का यह मन्त्र जीव को चार बातों के द्वारा उपदेश करते हुए बता रहा है कि :-
१. ग्यानेन्द्रियां तथ कर्मेन्द्रियों का समन्वय:-
प्रभु की उपासना से , पिता की समीपता पाने से , उस परमेश्वर के समीप आसन लगाने से जीव में शत्रु को रुलाने की शक्ति आ जाती है । एसा जीव निश्चय ही वेद के निर्देशों का , आदेशों का पालन करते हुए अपने कर्मों मे लग कर , व्यस्त हो कर अपनी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को समन्वित करने वाला होता है । वह कर्म व ज्ञान रुपि घोडों को साथ साथ लेकर चलता है । इस में से किसी एक को भी ढील नहीं देता , समान चलाता है , समान रुप से संचालन करता है ।
स्पष्ट है कि ज्ञानेन्द्रियां ज्ञान का स्रोत होने के कारण जीव की कर्मेन्द्रियों को समय समय पर विभिन्न प्रकार के आदेश देती रहती हैं तथा कर्मेन्द्रियां तदनुरुप कार्य करती हैं , कर्म करती हैं । यह ज्ञान इन्द्रियां तथा कर्मेन्द्रियां समन्वित रुप से , मिलजुल कर कार्य करती हैं । आपस में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करतीं । इस कारण जीव को एसा कभी कहने का अवसर ही नहीं मिलता कि मैं अपने धर्म को जानता तो हूं किन्तु उसे मानता नहीं , उस पर चलता नहीं अथवा उसमें मेरी प्रवृति नहीं है । उस के सारे के सारे कार्य, सम्पूर्ण क्रिया – क्लाप ज्ञान के आधार पर ही , ज्ञान ही के कारण होते हैं ।
२. समाज में मेल से चलना :-
इस प्रकार ज्ञान व कर्म का समन्वय करके चलने वाला जीव सदा मधुच्छ्न्दा को प्राप्त होता है , मधुरता वाला होता है , सब ओर माधुर्य की वर्षा करने वाला होता है । वह अपने जीवन में सर्वत्र मधुरता ही मधुरता फ़ैलाता है । उतमता से सराबोर मेल कराने का कारण बनता है । समाज में एसा मेल कराने वाले जीव का किसी से भी वैर अथवा विरोध नहीं होता ।
३. दृढ शरीर :-
इस प्रकार समाज को साथ ले कर चलने वाला जीव , सब के मेल जोल का कारण बनता है , किन्तु यह सब कुछ वह तब ही कर पाता है , जब उसका शरीर दृढ़ हो , शक्ति से भरपूर हो । अत: प्रभु की समीपता पाने से जीव का शरीर अनेक प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न हो कर दृढ़ता भी पाता है , कठोरता को पा कर अजेय हो जाता है ।
४. मस्तिष्क दीप्त :-
प्रभु की समीपता पाने से जहां जीव का शरीर कठोर हो जाता है , वहां उसका मस्तिष्क भी दीप्त हो जाता है , तेज हो जाता है । यह तीव्र मस्तिष्क जीव की बडी बडी समस्याओं को , जटिलताओं को बडी सरलता से सुलझाने में सक्षम हो जाता है, समर्थ हो जाता है । उसे कभी किसी ओर से भी किसी प्रकार की चुनौती का सामना नहीं करना होता । यह मस्तिष्क की दीप्ति ही है जो उसे सर्वत्र सफ़लता दिलाती है ।
इस प्रकार उस परमपिता की समीपता पा कर जीव का शरीर वज्र के समान कठोर होने से तथा मस्तिष्क मे दीप्तता आने से वह जीव एक आदर्श पुरुष बनने का यत्न करता है , इस ओर अग्रसर होता है ।

डा. अशोक आर्य

सूर्य तथा मेघ प्रभु की अदभुत विभूतियां हैं

सूर्य तथा मेघ प्रभु की अदभुत विभूतियां हैं
डा. अशोक आर्य
हम प्रतिदिन आकाश में चमकता हुआ सूर्य देखते हैं , यह सूर्य समस्त जगत को प्रकाशित करता है । यहां तक कि हमारी आंख भी इस सूर्य के कारण ही देख पाने की शक्ति प्राप्त करती है । यदि सूर्य न हो तो हमारी आंख का कुछ भी उपयोग नहीं हो सकता । इस प्रकार ही आकाश में मेघ छा जाते हैं । इन मेघों से होने वाली वर्षा से हम आनन्दित होते हैं । हम केवल आनन्दित ही नहीं होते अपितु हमारे उदर पूर्ति के लिए सब प्रकार की वनस्पतियां भी इन मेघों का ही परिणाम है । यदि यह बादल पृथिवी पर वर्षा न करें तो इस पर कोई भी वनस्पति उत्पन्न न होगी । जब कोई वनस्पति न होगी तो हम अपना उदर पूर्ति भी न कर सकेंगे । इस सब तथ्य को वेद का यह मन्त्र इस प्रकार बता रहा है :-
इन्द्रो दीर्घाय चक्शस आ सूर्य रोहयद दिवि ।
वि गोभिरद्रिमैरयत ॥ रिग्वेद १.७.३ ॥
इस मन्त्र में मुख्य रुप से तीन बातों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि :-
१. प्रभु ने हमारे देखने के लिए सूर्य को बनाया है :-
प्रभु का उपासक यह जीव उस प्रभु के समीप बैठकर उस प्रभु के उपकारों को स्मरण कर रहा है । वह इन उपकारों को स्मरण करते हुए कहता है कि हमारे वह प्रभु सब प्रकार की आसुरी वृतियों वालों का संहार करने वाले हैं , उनका नाश करने वाले हैं , उन्हें समाप्त करने वाले हैं । हमारा वह प्रभु अपने भक्तों की रक्षा करते हैं । फ़िर वह इन आसुरों से भक्तों की रक्षा तो करेगा ही । इस कारण जब जब भी इस भुमि पर आसुरि प्रवृतियां बढती हैं तो वह पिता उन असुरों का नाश करने का साधन भी हम को देते हैं , जिस की सहायता से हम उन असुरों का नाश करते हैं । यह सब उस पिता के सहयोग व मार्ग दर्शन का ही परिणाम होता है ।
इन असुरों का नाश हम आंख की सहायता से करते हैं । यह आंख ही है जो हमें दूर दूर तक देखने में सक्षम करती है , दूर तक देखने की शक्ति देती है । यदि आंख न होती तो हमें इन असुरों की स्थिति का पता ही न चल पाता । जब उनकी स्थिति का पता ही न होगा तो हम उन का संहार , उनका अन्त कैसे कर सकेंगे ? यह आंख भी अपना क्रिया क्लाप सूर्य की सहायता के बिना नहीं कर सकती । जब तक यह जगत प्रकाशित नहीं होता , तब तक इस आंख में देखने की शक्ति ही नहीं आ पाती । इस कारण परम पिता परमात्मा ने आंख बनाने से पहले इस संसार को सूर्य का उपहार भी दिया है । इसे द्युलोक में स्थापित किया है । यह ही कारण है कि द्युलोक की मुख्य देन यह सूर्य ही है । यह सूर्य समग्र संसार को प्रकाशित करता है । सूर्य के इस प्रकाश से ही हमारी आंख अपने सब व्यापार ,सब क्रिया – क्लाप करने में सक्षम हो पाती है । इस प्रकाश के बिना इस आंख का होना व न होना समान है। सूर्य ही इस आंख को देख पाने की शक्ति देता है , जिस का निर्माण भी इस सृष्टि के साथ ही साथ उस पिता ने ही किया है ।
२. प्रभु ने ही जल के साधन मेघों को बनाया है :-
परम पिता ने हमारे देखने के लिए आंख का निर्माण तो कर दिया किन्तु हमारी नित्य प्रति की क्रियाओं की पूर्णता जल के बिना नहीं हो पाती । जल से ही सब प्रकार की वनस्पतियों का जन्म व विकास होता है , जल से ही यह वन्सपतियां बढती हैं , फ़लती व फ़ूलती हैं और पक कर हमारे लिए अन्न देने का कारण बनती हैं । इतना ही नहीं हमें अपना भोजन पकाने के लिए भी जल की ही आवश्यकता होती है । हमें अपने शरीर की गर्मी को दूर करने , स्वच्छता रखने तथा प्यास को शान्त करने के लिए भी जल की ही आवश्यकता होती है । यदि जल न हो तो हम एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते । इस कारण ही उस पिता ने जलापूर्ति के लिए मेघों को प्रेरित किया है । मेघों का निर्माण किया है ।
यदि वह प्रभु मेघों की व्यवस्था न करता , वर्षा का साधन न बनाता तो निश्चय ही इस धरती का पूरे का पूरा जल बह कर समुद्र में जा मिलता । इस प्रकार यह जल मानव के लिए दुर्लभ हो जाता , अप्राप्य हो जाता । इससे मानव का जीवन ही असम्भव हो जाता । अत: यह मेघ ही हैं जो समुद्र आदि स्थानों का जल अपने में खेंच लेते हैं । इसे भाप के रूप में उडाकर अपने साथ ले जाकर पर्वतों की उंचाई पर जा कर वर्षा देते हैं , जिस से नदियां लबालब भर जाती हैं । नदियों में प्रवाहित यह जल हमारी वनस्पतियों की सिंचाई से इन का रक्षक बनता है , हमारी सफ़ाई करता है तथा हमारी प्यास को भी शान्त करने का कारण बनता है । इससे ही अन्न की उत्पति होती है । इस कारण ही प्रभु की यह अद्भुत कृति मेघ भी मानव निर्माण में विशेष महत्व रखती है ।
३.हम मस्तिष्क में ज्ञान का सूर्य ओर हृदय में प्रेम के मेघ पैदा करें :-
मानव को अध्यात्म क्षेत्र में पांव रखते हुए चाहिये कि वह अपने अन्दर ज्ञान रुपि सूर्य का उदय करे । हमारा वह पिता अनेक प्रकार की वस्तुओं का जन्म देकर अध्यात्मिक रुप से हमें उपदेश दे रहा है कि हे मानव ! जिस प्रकार मैंने सूर्य आदि की उत्पति करके तुझे प्रकाशित किया है , इस प्रकार ही तुं भी अपने अन्दर ज्ञान का प्रकाश करके स्वयं को भी प्रकाशित कर तथा अन्यों को भी प्रकाशित कर । ज्ञान मानव जीवन का निर्माता है । अपने जीवन को निर्माण करने के लिए स्वयं को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करना आवश्यक होता है । जब स्वयं हम कुछ भी ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तो इस ज्ञान के प्रकाश से अन्यों को भी प्रकाशित करें यह ही उस प्रभु का आदेश है , सन्देश है , उपदेश है ।
उस प्रभु ने हमें अपना सन्देश देते हुए , आदेश देते हुए आगे कहा है कि हे जीव ! तुझे प्रेम की आवश्यकता है , स्नेह की आवश्यकता है किन्तु इसे पाने के लिए तुझे अपने हृदय मन्दिर में प्रेम का दीप जलाना होगा , प्रेम के मेघ पैदा करने होंगे । जिस प्रकार मेघ सब ओर शान्ति का कारण होते हैं , उस प्रकार तेरे हृदय रूपी आकाश में पैदा हुए यह मेघ भी तुझे तथा तेरे साथियों , सम्बन्धियों , पडौसियों , क्षेत्र, देश सहित विदेश के निवासियों के अन्दर प्रेम का स्फ़ुरण कर शान्ति का कारण बनेगा । इस लिए तुं सदा अपने हृदय में प्रेम रुपि मेघों को पैदा करने तथा उन्हें बढाने का यत्न करता रह ।
ईश्वर हमें उपदेश कर रहे हैं कि हे जीव ! जिस प्रकार सूर्य की गर्मी से उडकर यह पार्थिव जल अन्तरिक्ष मे पहुंच जाता है । पहाडों की चोटियों को छू लेता है तथा उपर जाकर मेघों का रुप धारण कर लेता है तथा वर्षा करके इस धरती को सब ओर से स्वच्छ कर देता है , सब प्रकार की धूलि को धो देता है । सब ओर सब कुच्छ स्वच्छ व साफ़ सुथरा कर देता है , जिससे यह जगत सुन्दर व आकर्षक लगता है , उस प्रकार ही अध्यात्म मे ज्ञान का सूर्य चमकने से पार्थिव वस्तुओं के प्रति हमारा प्रेम हृदय रुपि अन्तरिक्ष में जा कर सब प्राणियों पर फ़िर से बरस कर सब प्राणियों तथा वनस्पतियों को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर उन्हें पवित्र करता है , शुद्ध करता है , स्वच्छ करता है तथा प्रसन्न करता है , सबके मनोमालिन्यों को धो डालता है ।

डा. अशोक आर्य

ईश्वरीय नववर्ष

ईश्वरीय नववर्ष
आज आर्य समाज गोर गाँव मुंबई के साप्ताहिक सत्संग में पंडित सत्यपाल पथिक जी के मधुर भजनों से वैदक वेदी में उपस्थित आर्य जनों में भारी आध्यात्मिक उत्साह देखने को मिला तत्पश्चात डा. अशोक आर्य ने अपने प्रवचन के माध्यम से बताया कि नव वर्ष का आरम्भ उस समय से होता है जिस समय इस सृष्टि के प्रथम जीव ने प्रथम बार आँख खोलते हुए वेद के इस मन्त्र का गायन किया :
ओउम प्रात: अग्नि प्रात: इन्द्रं ………
हम अपने परिवारों में साधारणतया अपने बच्चों को यह उपदेश करते हैं कि प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में उठो | वास्तव में यह ब्रह्म मुहूर्त क्या है ? साधारनतया प्रात: चार बजे के समय को ब्रह्म मुहूर्त कहा जाता है किन्तु क्यों क्योंकि यह वह समय है कि जब इस समय अर्थात सूर्य कि परहम किरण इस सृष्टि को अन्धकार से निकाल के लिए ही समय ही प्रथम जीव समूह उपरोक्त मन्त्र को बोलते हुए उठ खड़े हुए थे | इस कारण ही इस समय को ब्रह्म मुहूर्त कहा गया और आज भी इस समय को ब्रह्ममुहूर्त कहते हैं तथा यही वह दिन था जिस दिन से वर्ष का आरम्भ होता है |
जिस मन्त्र को गुनगुनाते हुए यह जिव उठाते उस के अनुसार प्रात: अग्निं अर्थात होतिकग्नी यज्ञ कि अग्नि जिस प्रकार स्वयं सहित अपने साथ उन सब पदार्थों को ही ऊपर को ले जात है जो कुछ इस में डाला जाता है | प्रभु भी अग्नि स्वरूप है जो जीव उस प्रभु का साथ जुड़ता है वह भी निरंतर आगे बढ़ता जाता है ऊपर उठाता जाता है उन्नत होता जाता है
इस प्रकार ही कोई विद्यार्थी , कोई व्यापारी , कोई कार्यालय कर्मचारी अथवा किसी भी क्षेत्र का व्यक्ति जब प्रभु बनने का प्रयास करते हुए आगे उठाने का यां अरता है तो उस के व्यापार , शिक्षा व जिस भी क्षेत्र में वह कार्य शील होता है उस में निरंतर उन्नति कि और बढ़ता है | आगे कहा है प्रातर इन्द्रं हवामहे अर्थात वह प्रभु सम्पूर्ण है अपने प्रत्येक गुण में वह सम्पूर्ण है | इस प्रकार का यत्न कोई विद्यार्थी करता है तो वह पी एच दी या दी लिट् जैसी उपाधि को प्राप्त कर अपने विषय का इंद्रan जाता है | वह प्रभु मित्रके रूप में भी जाना जाता है | इस लिए वह हमें डांटने व कष्ट देने कि भी शक्ति रखता है | इस प्रकार ही हमारे प्रत्येक प्रकार के कार्यों में हमारे मित्र लोग समय समय पर हमें सलाह देते हैं हमारा मार्ग दर्शन करते हैं मित्रों कि उतम सलाह को हम उस प्रकार ही मानते हैं जिस प्रकार उस पिटा कि सलाह को मानते हैं और इस प्रकार हम निरानर उन्नति के पथ पर आगे बढ़ाते हैं |
इस प्रकार कि चर्चा के साथ दा. अशोक आर्य ने आज का प्रवचन छोड़ते हुए कहा कि इस मन्त्र कि शेष व्याख्या अगले प्रवचन में करेंगे जो कि अगले रविवार प्रात: आठ से दस बजे तक आर्य समाज गोर गाँव में ही होगा |

सब प्रकार से विजयी हो नि:श्रेयस को पावें

सब प्रकार से विजयी हो नि:श्रेयस को पावें
डा. अशोक आर्य
हम परम पिता की अपार क्रिपा से वाजों में विजयी हों, एसे विजेता बनकर हम अभ्युदय को पावें तथा सहस्रप्रधनों में भी हम विजय पा कर नि:श्रेयस को पावें । इस बात को रिग्वेद का यह मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है :-
इन्द्र वाजेषु नोऽव सहस्रप्रधनेषु च । उग्र उग्राभिरुतिभि:॥रिग्वेद १.७.४॥
इस मन्त्र में तीन बातों पर प्रकाश डालते हुए पिता उपदएश कर रहे हैं कि :-
१.हम हमारे छोटे छोटे युद्धो में विजयी हों :-
वैदिक साहित्य में प्रत्येक शब्द क अर्थ कुछ विशेष ही होता है । हम अपने जीवन में सदा संघर्ष करते रहते हैं , हम सदा किसी न किसी प्रकार के युद्ध में लडाई में लगे रहते हैं किन्तु इस मन्त्र में जिस युद्ध को वाज कहा गया है , वह युद्ध कौन सा होता है ? इसे जाने बिना हम आगे नहीं बध सकते । वैदिक सहित्य में हम जो छोटे छोटे युद्ध लडते हैं , उन को वाज का नाम दिया गया है ।
जो लडाईयां , जो युद्ध , जो संघर्ष शक्ति की प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , धनादि कि प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , उन्हें हम वाज की श्रेणी में रखते हैं । इतिहास की जितनी भी लडाईयां हुई हैं , चाहे वह राम – रावण युद्ध हो अथवा महाराणा प्रताप तथा अकबर का युद्ध हो , यह सब वाज ही कहे जावेंगे । प्रभु भक्त इस मन्त्र के माध्यम से पिता से प्रार्थना करता है कि हे शत्रुओं को रुलाने वाले प्रभो !, हे शत्रुओं का नाश करने वाले , संहार करने वाले प्रभो ! आप हमें धन आदि की प्राप्ति के लिए हमारे जीवन के इन छोटे छोटे संग्रामों में हमें विजेता बनावें । आप ही की क्रिपा से हम धनों के स्वामी बन कर , विजेता बनकर अभ्युदय को , उन्नति को प्राप्त करें ।
२. हम अपने अन्दर के युद्ध में विजयी हों :-
ऊपर बताया गया है कि जो युद्ध धन एश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , वह वाज की श्रेणी में आते हैं । इससे स्पष्ट है कि यह युद्ध किसी अन्य प्रकार के भी होते हैं । इस मन्त्र में दूसरी प्रकार के युद्ध को सहस्रप्रधन का नाम दिया गया है । मन्त्र इस शब्द के अर्थ रुप में बता रहा है कि जीव अपने अध्यात्मिक जीवन को सुन्दर बनाने के लिए , आकर्षक बनाने के लिए अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ भी युद्ध करता रहता है । जब मानव अपने बाहर के शत्रुओं के साथ लडता है तो उसे वाज कहा जाता है किन्तु जब वह अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ लडता है तो इस लडाई का नाम सहस्रप्रधन होता है । सहस्रप्रधन नामक युद्ध में हम अपने अन्दर के काम , क्रोध, मद , लोभादि आदि शत्रुओं से लडाई करते हैं ।
प्रार्थना की गयी है कि हम अपने इन आध्यात्मिक युद्धों में भी विजयी होते हुए काम का नाश कर प्रेम रुपि धन को प्राप्त करें , क्रोध रुपि शत्रु को मार कर दया रुपि धन को पावें , हम लोभ रुपि शत्रु पर भी विजयी होवें तथा दान रुपि धन की प्राप्ति करें । इस प्रकार हम आनन्द रुप प्रक्रिष्ट धनों के स्वामी बनें । इस प्रकार हे प्रभो ! इन संसाधनों को पाने के लिए आप हमारे सहयोगी बनें, रक्शक बनें ।
३. प्रभो इन युद्धो में हमें विजयी बनावें :-
मानव का काम है यत्न करना , पुरुषार्थ करना । जब हम यत्न करते हैं , परिश्रम करते हैं , पुरुषार्थ करते हैं तो इस पुरुषार्थ का उतम फ़ल प्रभु हमें देता है क्योंकि उस ने जीव को कर्म करने में स्वतन्त्र किया है किन्तु किये गये कर्म का फ़ल वह प्रभु अपनी व्यवस्था के आधीन ही रखे हुए है । इस कारण हम कर्म करते हुए भी सदा उतम फ़ल की प्रार्थना उस पिता से करते रहते हैं । हम अपने पुरुषार्थ द्वारा जीवन में सब प्रकार से विजयी होने की कामना के साथ ही परमपिता परमात्मा से फ़िर प्रार्थना करते हैं कि हे तेजस्वी पिता ! आप तेज से परिपूर्ण हैं,आप प्रबल रक्शक हैं । अपने तेज व रक्शण से हमें हमारे जीवन में होने वाले सब प्रकार के युद्धों में विजेता बनावें । हम अकेले इन कामादि शत्रुओं को नहीं जीत सकते । इसलिए आप का सहयोग , आपकी सहायता हमारे लिए आवश्यक हो जाती है । अत: हमें एसी शक्ति दें कि हम इन युद्धों में सदा विजयी होते रहें तथा उन्नति की ओर सर्वदा अग्रसर रहें ।
डा. अशोक आर्य