Category Archives: वेद मंत्र

हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें

ओउम
हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें
डा.अशोक आर्य
परम पिता परमात्मा होता, कविक्रतु , सत्य तथा चित्रश्रवस्तम व देव हंत । उन्हें प्राप्त करने के लिये हमें दिव्यगुणों को ग्रहण करना होता है । जैसे जैसे तथा जितना जितना हम प्रभु को , उस पिता को धारण करने का यत्न करते हैं , उतना उतना ही हम दिव्यगुणों वाले होते चले जाते हैं । इस मन्त्र में इस बात पर ही प्रकाश डालते हुये इस प्रकार व्याख्यान किया है : –
अग्निर्होताकविक्रतु:सत्यश्चित्रश्रवस्तम: ।
देवोदेवेभिरागम ॥ ऋ0 १.१.५ ॥
१. प्रभु ही यज्ञ करता
गत मन्त्र की भावना अनुरूप ही यह मन्त्र भी कहता है कि संसार में जितने प्रकार के भी यज्ञ आदि कार्य होते हैं , उनको करने वाले वह देव ही होते हैं , जो सब को गति देने वाले हैं, जिन्हें हम प्रभु के नाम से जानते हैं । हम तो मात्र इन यज्ञों को करने के माध्यम मात्र ही होते हैं , वह भी तब जब हम पर उस प्रभु की कृपा हो जाती है, उस प्रभु का जब हमें आशीर्वाद मिल जाता है , तब ही तो हम इन सब यज्ञों को पूर्ण होता हुआ देख पाते है । यह सृष्टि भी एक प्रकार का यज्ञ ही तो है । इस यज्ञ के होता, इस यज्ञ को करने वाले तो स्वयं वह पिता ही हैं , इस तथ्य को तो हम सब लोग भली प्रकार से जानते हैं , इस सब से तो हम स्पष्ट रूप से तथा भली – भान्ति से परीचित हैं ।
२. पूर्ण प्रभु की पूर्ण कृति
यह मन्त्र जो दूसरा उपदेश हमें दे रहा है , वह है – वह पिता कविक्रितु हैं अर्थात वह पिता क्रान्तदर्शी हैं । क्रान्तदर्शी होने के कारण वह प्रभु सब कामों को करने वाले हैं । चाहे हम कविक्रितु कहें, चाहे हम क्रान्तदर्शी कहें , भाव यह ही है कि वह पिता सब प्रकार के कामों को करने वाले हैं , कारण हैं क्योंकि वह पिता ही सब कामों को करने वाले होते है , इस कारण ही सृष्टि आदि कार्य जिन्हें उस पिता ने किया है , उनमें कहीं कोई न्यूनता नहीं दिखाई देती , यह सब कार्य कहीं अपूर्ण नहीं होते , पूर्णतया पूर्ण ही होते है । जब हमारे वह पिता पूर्ण हैं तो उनके द्वारा ही किया गया यह कार्य , जिसे हम सृष्टि कहते हैं, वह अपूर्ण कैसे हो सकती है ? अत: यह सृष्टि रुपी यह यज्ञ भी पूर्ण है ।
अनेक बार हमें अपनी ही अज्ञानता के कारण इस सृष्टि में कुछ न्यूनतायें दिखाई देती हैं , एसा हम अनुभव करते हैं । जैसे अनेक बार जब हम भूकम्पों का प्रकोप देखते हैं , तो उस पिता को कोसने लगते हैं । हमारे शरीर में अनेक प्रकार की अनेक ग्रन्थियां हैं । उस पिता ने इन का निर्माण किसी विशेष प्रयोजन से किया होगा किन्तु हम अपने ज्ञान की कमी से इन में से कुछ ग्रन्थियों को निष्प्रयोजन मान लेते हैं । इस संसार में अनेक प्राणी एसे हैं , जिनके विषय में हमें कुछ भी जानकारी नहीं है , अनेक वनस्पतियां एसी हैं , जिनके उप्योग के सम्बन्ध में हम कुछ भी ज्ञान नहीं रखते । हम अपने बचपन में जो थोडा सा जानते थे, वह बढते बढते , आज हम काफ़ी आगे निकल गये हैं । आज हमे अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर हमारे अपने ही बाल्यकाल से कहीं अधिक ज्ञान है । अत: हम यह नहीं कह सकते कि जिसे हम नहीं जानते, वह है ही नहीं । जैसे जैसे हम इन सब को जानते जावेंगे, इनके उपयोग को समझते जावेंगे, त्यों त्यों ही हमारा ज्ञान भी बढता ही चला जावेगा । जितना हम जान लेंगे, उतना संसार हमें पूर्ण दिखायी देगा, शेष को हम जानने का यत्न करते रहेंगे ।
उस पिता द्वारा जब सृष्टि की उत्पति की जाती है तो आरम्भ मे प्राणी को ज्ञान की आवशकता होती है क्योंकि इस समय उसे ज्ञान देने वाला अन्य कोई नहीं होता । अत: उस परमपिता परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ मे प्राणी को वेद का ज्ञान दिया । जिस प्रकार हम आज स्कूल , कालेज अथवा गुरूकुल ,में जा कर ज्ञान प्राप्त करते हैं , प्रभु उस प्रकार से ज्ञान नहीं देता । उसका ज्ञान देने का ढंग भी अद्भुत ही है । हम जानते हैं कि वह सर्वव्यापक प्रभु सर्वव्यापक होने के कारण ही हमारे अन्दर ही नहीं हमारे हृदय में भी निवास करता है । इस प्रकार हृदयस्त होने से , बिना किसी अन्य यत्न के हमारे पवित्र हृदयों को प्रकाशित कर देते हैं । अपने ज्ञान के कारण वह प्रभू अत्यन्त कीर्तिमान से युक्त हैं । दूसरे श्ब्दों में वह प्रभु सर्वाधिक ज्ञान वाले हैं , ज्ञान के भण्डारी हैं । इस लिये ही तो उन्हें निरतिशय ज्ञान के अधिष्ठाता माना गया है ।
(क) पभु गुणों के साथ आते हैं :-
वह प्रभु सब देवताओं के,जो सब गुणों के पुन्ज रुप होते हैं , के साथ हमारे पास आते हैं । इसका भाव यह है कि उस प्रभु का निवास हमारे हृदयों में होता है । उस प्रभु का निवास होने के कारण हृदय में ही बैठे हुये वह प्रभु हमे सब प्रकार के दिव्यगुणों से स्वयमेव ही भरता चला जाता है । इस प्रकार यह दिव्य गुण हममें स्वय्मेव ही प्रादुर्भूत हो जाते हैं ।
(ख) प्रभु दिव्य गुणों वालों का साथी :-
हम यूं भी कह सकते हैं कि इन दिव्यगुणों के कारण ही वह पिता हम मे आते हैं । इस सब का भाव यह ही है कि उस पिता को पाने के लिये हम अपने आचरण को देवों के समान उत्तम बनावे , हमारे व्यवहार भी देवों के समान ही हों, आसुरी प्रवृति हमारे व्यवहार में किन्चित भी न हो । प्रभु दिव्य गुणों वालों के पास ही रहता है, निवास करता है । अत:हम जितना जितना दिव्यता को दिव्यगुणॊं को अपनायेंगे, उतना उतना ही उस पिता के समीप होते चले जावेंगे । दाश्वान का कल्याण ही प्रभु का सत्य व्रत है |

डा. अशोक आर्य

यग्य की अग्नि से घर की रक्षा होती है

ओउम
यग्य की अग्नि से घर की रक्षा होती है डा अशोक आर्य
हम प्रतिदिन दो काल यग्य करें । यग्य भी एसे करें कि इस के लिए आग को दो अरणियों से रगड़ कर पैदा किया जावे । इस प्रकार की अग्नि से किया गया यग्य , इस प्रकार की प्रशस्त अग्नि से किया गया यग्य घर की रक्षा करता है । इस तथ्य का वर्णन ऋग्वेद के सप्तम मंडल के प्रथम सूक्त के प्रथम मंत्र में इस प्रकार मिलता है :
अग्नि नरो दीधितिभिररण्योर्हस्तच्युती जनयन्त प्रशस्तं |
दूरेद्रशं गृह्पतिमथर्युम ।। ऋग्वेद ,,7.1.1 ||
मनुष्य सदा उन्नति को ही देखना चाहता है । अवन्ती को तो कभी देखना ही नहीं चाहता । मानव सदा आगे बढना चाह्ता है । पीछे लौटने की कभी उस की इच्छा ही नही होती । वह सदा ऊपर ही ऊपर उठना चाहता है नीचे देखना वह पसंद नहीं करता । इस लिए मन्त्र भी यह उपदेश करते हुए मानव को संबोधन कर रहा है कि हे उन्नति की इच्छा रखने वाले मानव ! तू अपने को आगे बढ़ने की चाहना के साथ अपनी अभिलाषा को पूरा करने के लिए , अपने हांथों को गति दे , इन्हें सदा गतिशील रख , कार्य में व्यस्त रख, इन्हें आराम मत करने दे , निरंतर कार्यशील रह । इस प्रकार अपने हांथों को गतिशील रखते हुए , क्रियाशील रखते हुए अपनी अंगुलियों से अरनियों अथवा काष्ठविशेषो में यग्य अग्नि को प्रदीप्त कर , यग्य को आरम्भ कर ।
यग्य की उस अग्नि को प्रदीप्त कर जो प्रशस्त हो , उन्नत हो अथवा उन्नति की और ले जाने वाली हो । । यह अग्नि इतनी तेजस्वी होती है कि इस के प्रकाश मात्र से , गर्मी मात्र से यह रोग के किटाणुओं के नाश का कारण बनती है अथवा युं कह सकते हैं कि यह अग्नि अपनी तेजस्विता से हानिकारक किटाणुओ का नाश कर देती है । यग्य की अग्नि से रोग के कीटो का अंत होता है । अत: यह यग्य रोग के कृमियों के संहार का कारण होता है ।
यह यग्य वर्षा आदि लाभ देने का भी कारण होता है । वर्षा से ही हमारी वनस्पतियां बडी होती हैं तथा हमें फल देती हैं । यदि वर्षा न हो तो हमारी खेतियां लहलहा नही सकती । जब खेती ही नही रहेगी तो हम खावेंगे क्या ? हमारे वस्त्र कहा से आवेंगे ? हमारे जीवन की आवश्यकता कैसे पुर्ण होगी ? इस लिए जब हम यग्य करते है तो वर्षा समय पर होती है । अत: वर्षा आदि का कारण होने से भी यग्य प्रशंसनीय होते हैं ।
जब कहीं पर यग्य हो रहा होता है तो इसे बडी दूर के लोग भी होता हुआ देख लेते हैं । क्यों ? क्योंकि इस की लपटें ऊपर को अच्छी उंचायिओ तक उठती हैं । इस कारण यग्य स्थान
से दूर निवास करने वाले लोग भी इस की अग्नि को देख सकते हैं । इस प्रकार दूर के लोग भी देखते हैं कि अमुक स्थान पर यग्य हो रहा है , जिससे उसे यह ज्ञान होता है कि इस स्थान पर
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निश्चित रूप से किसी का निवास है , निवास ही नही है , वहां निवास करने वाला व्यक्ति जागृत अवस्था में है , इस लिए ही यग्य की अग्नि जला रखी है ,। यह सब जानते हुए वह किसी दुर्भावाना से उस घर में प्रवेश करने का साहस नहीं करता ।
इस सब से स्पष्ट होता है कि यह यग्य घर की रक्षा करने का साधन है, जहां यग्य होता है वह स्थान सदा सुरक्षित रहता है । उस स्थान पर , उस घर में सदा निरोगता बनी रहती है , कोई बीमारी उस घर में नहीं आती , इससे भी वह घर सुरक्षित हो जाता है । इस सब के साथ ही साथ यह घर गति वाला भी होता है । इस घर में सदा उन्नति होती रहती है । सीधी सी बात है , जिस घर में सुरक्षित वातावरण के कारण चोर आदि आने का साहस नहीं करता, रोग का प्रवेश नहीं होता, उस घर में धन का बेकार के कार्यों में प्रयोग नहीं होता , इस कारण इस घर में जीवन रक्षा के उपाय अर्थात रोटी , कपडा आदि की आवश्यक्तायें थोड़े से धन से ही पूर्ण हो जाती हैं । शेष जो धन बच जाता है , वह परिवार की समृद्धि को बढाने का कार्य करता है । इससे परिजन उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, उत्तम वस्तुओ को खरीद सकते हैं तथा दान देकर अन्य साधन हीन लोगों की सहायता कर अपना यश व कीर्ति को बढा सकते हैं , सर्वत्र सम्मानित स्थान प्राप्त कर सकते हैं ।
अत: जिस यग्य के मानव जीवन में इतने लाभ हैं , उस यग्य को तो प्रत्येक मानव को अपने परिवार में प्रतिदिन दो काल अवश्य करना चाहिए तथा यश प्राप्त करना चाiiiहये ।
हवियों से यग्य अग्नि को बधावें कभी बुझने न दें
यग्य कर्ता जिस यग्य अग्नि को जलाते हैं ,जिस को अपनिअनेक प्रकार की आहुतियां देकर बधाते हैं, वह यग्य अग्नि हमारे परिवार से , हमारे घर से क्भी बुझने न पावे । यह तथ्य्ही इसके दुसरे मन्त्र का मुख्य विशय है , जो इस प्रकार है : –
तमग्निमस्ते वसवो न्य्रण्वन्त्सुप्रतिचक्शमवसे कुतश्चित ।
दक्शाय्यो यो दम आस नित्य: ॥ रिग्वेद ७.१.२ ॥
अपने निवास को जो लोग उत्तम बनाना चाहते हैं, श्रेश्थ बनाना चाहते हैं , वह लोग इस यग्य की अग्नि को अपने निवास पर , अपने घर में स्थापित करते हैं । यग्य की यह अग्नि हम सब का पूरा ध्यान रखती है । यग्य की यह अग्नि हमारे संकटों को दूर करने का सदा यत्न करती रहती है । यदि हमारे घर में कहीं रोग के कीटाणु छुपे हैं , निवास कर रहे हैं , तो यह अग्नि उन किटाणुओं को नश्ट करके बाहर निकालने का कार्य करती है, यदि हमारे घर में दुर्गन्ध है तो यह अग्नि उसे दूर कर पवित्रता लाती है तथा यदि घर का वातावरण अशुद्ध है
तो यह यग्य की अग्नि उसे शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध , पवित्र करती है । घर में होने वाले सब प्रकार के भय को दूर कर हमें निर्भय बनाती है ।

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यग्य की यह अग्नि हवियों से बधती है। हम जो आहुतियां इस आग मे देते हैं , वह आहुतियां इस अग्नि को तीव्र करती हैं । अग्नि की इस तीव्रता से हमारी रक्शा के कार्य, हमें निर्भय करने के कार्य, हमें रोगों से मुक्त करने के कार्य ओर भी तीव्रता से होते हैं ।
जिस यग्य अग्नि के इतने लाभ हैं , जो यग्य अग्नि हमें इतने लाभ देती है , वह यग्य अग्नि हमारे घरों में निरन्तर जलती रर्हे , हम, कभी भी इसे बुझने न दें |
हे यग्य अग्नि ! हम सद तुझे आहुति देते रहें
हम परमपिता से प्रार्थना करते हैं किहेप्रभु ! यह्यगय अग्नि हमारे घरों में सद जलती रहे तथा हम सदा इसे बधानेके लिये इस में आहुती देते रहेम । इस तथ्य प्र इस तीसरे मेन्त्र मेम इस प्रकार प्रकार प्रकाश्डालते हुये कह गया है कि : –
प्रेद्धो अग्ने दीदिह पुरो नो॓॓जस्रया सूम्यी यविश्थ ।
त्वां शश्वन्त उप यन्ति वाजा: ॥ तिग्वेद ७.१.३ ॥
हे अग्नि ॒ खुब प्रकार से दीप्त होकर , तेज होकर तु हमारे सामने प्रकत हो । हे अग्नि तु सब प्रकार के रोगों को दूर करने वाली है , तुं ही सब प्रकार की गन्दी वायु को शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध करने वालॊ है , हम एसी पवित्र अग्नि तु कभी न क्शीण होने वालि , कभी न दुर्बल होने वाली , कभीन बुझने वाली ज्वाला से निरन्तर दीप्त होतीरह्म निरन्तर तेज होती रह्, निरन्तर प्रचण्ड होती रह ।
हे अग्नि तुम्हेम अनेक प्रकार की भोज्न सामग्री मिलती है , अनेक प्रकार के अन्न हवि रुप में , आहुति रुप मे प्राप्त होते हैं । तेरे एं अनेक प्रकार के , विविध्प्रकार के अन्नों की आहुतियां डाली जाती हैं । यह जो अनेक प्रकार की वस्तुओं की आहुतियां तुझ में दाली जाती हैं , इन को ही तुणे बधाना है , इस वायु मण्डल में फ़ैलाना है ।
घरों में सब लोग मिलकर यग्य कर अपनी आहुति देते हैं
प्रत्येक घस्र में प्रति दिन यग्य होता ऐ तथा घर के सब लोग मिलकर इस यग्य में मिल कर बैथते हैं तथा मैलकर ही अपनी आहुति देते हैं । घ्गर की पवित्र अग्नि से यग्य अग्नि ओ प्रदीप्त कर , उस अग्नि में यथावश्यक आहुति दालते हैं । इस प्रकर के यग्यों ए द्वारा इस घर के लोग महान अग्निका पूजन करते हैं । इस तथ्य को इस चोथे मन्त्र में इस प्रकार व्युअक्त किया गया है : –
प्रते अग्नयो॓॓ग्निभ्योवरंनि: सुवीरस: शोशुचन्त द्युमन्त: ।
यत्रा नर: समासते सुजाता: ॥ रिग्वेद ७.१.४ ॥
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गार्हपत्य अग्नि अर्थात घर की अग्नि , सदा हम उस अग्नि को प्रणयन करते हैं, बुलाते हैं , जलाते हैं , जिसका हमने आह्वान करना होता है । इस लिये ही कहा जाता है कि हे गार्हपत्य अग्नियों ! तुझ से ही यगय की अग्नियां जला करें । यह अग्नियां अच्छे से ज्योतित हो कर , तेज को धारण कर, तीव्र होकर अच्छी प्रकार से , थीक से रोग के क्रिमियों को , रोग के कीटाणुओं को कम्पित करने वाली, भयभीत करने
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वाली हों, मारने वाली हों । इस प्रकार यह यग्य अग्नि सब प्रकार के भूत आदि को पीछे धकेल दे , भगा दे । किसी प्रकार के भय को रहने ही न दे ।
इस अग्नि अर्थात इस यग्य अग्नि के पास सदा ही उत्तम प्रक्रिति वाले अथवा कुलीन लोग ही रहते हैं, निवास करते हैं । यह सब लोग बडे प्रेम से इस अग्नि के समीप अपना आसन लगा कर रहते हैं । यह लोग ,जिस प्रकार नाभि के आरे होते हैं , वैसे ही इस यग्यग्नि के चारों ओर मिलकर गति करते हुये , कर्म करते हुये, यग्य व्यवहार करते हुये आसीन होते हैं । इस प्रकार यह लोग यग्य की इस अग्नि का पूजन करते हैं तथा इस में यथावश्यक घी तथा सामग्री की आहुति देते हैं ।
यग्यकर्ता को उत्तम सनतान, प्रशस्त जीवन तथा पवित्र धन दे
परमपिता प्रभु नित्य यग्य करने वालों को एसा पवित्र धन दे जो उसे वीर बनावे, उसे उत्तम सन्तान दे, उंचे जीवन वाला बनावे तथा यह धन चॊर आदि चुरा न सकें । इस तथ्य को वेद के इस पांचवें मन्त्र में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
दा नो अग्ने धिया रयिं सूवींर स्वपत्यं सहस्य प्रशस्तम ।
न यं यावा तरति यातुमावान ॥ रिग्वेद ७.१.५ ॥
विगत मन्त्र में यह प्रार्थना कि गयी थी कि हे प्रभो ! हम इस यग्य अग्नि के समीप बैथे परिजन यग्य की समाप्ति पर आप से प्रार्थना करते हैं कि आप हमें आगे ले चलो , उन्नत करो तथा हमने यह जो बुद्धि पूर्वक यग्य कर्म किया है , इसके माधयम से पवित्र कर्मों के कारण हमें अपार धन दीजिये । हमारे काम , क्रोध आदि दुश्ट शत्रुओं का नाश करने वाल प्रभो ! हमें वह धन दीजिये , जो उतम तथा वीर जनों को जन्म देता है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हे प्रभो हमें वह धन दीजिये , जो हमें वीर बनाता है , जो हमें उत्तम सन्तान वाला बनाता है , जिस धन की प्राप्ति हमने पवित्र साधनों से ही की है ।
इतना ही नहीं इस मन्त्र में एक ओर प्रार्थना भी की गयी है , जो इस मन्त्र का सब से मुख्य अंग कही जा सकती है , वह यह कि हे प्रभो ! हमें एसा पवित्र धन दीजिये जिसको हिन्सा की भावना से युक्त होकर हम पर आक्र्मण करने वाले शत्रु भी हमारे से छीन न सकें ।

डा अशोक आर्य

हम शरीर , मन व मस्तिश्क से प्रभु स्तवन करें

औ३म
हम शरीर , मन व मस्तिश्क से प्रभु स्तवन करें
डा. अशोक आर्य
मानव के शरीर रुपि घर के तीन निवासी होते हैं । इन तीन के द्वारा ही मानव अपने जीवन के सब कार्यों को पूर्ण करता है । वह अपने शरीर में सोम कणॊं की रकशा कर शक्ति सम्पन्न बनता है मस्तिश्क से ग्यान प्राप्त कर ग्यान का भण्डारी बनता है तथा मन से विभिन्न प्रकार का चिन्तन करता है किन्तु जब इन तीनों शक्तियों को प्रभु स्तवन में लगा देता है तो उसकी सब मनोकामनायें पूर्ण होती हैं । यह तथ्य ही इस सूक्त क मुख्य विशय है । आओ इस सूक्त के विभिन्न मन्त्रों को समझने का यत्न करें ।
सोम की रक्शा से हम इन्द्र व शक्त बनेंगे
हम शत्रुओं का वारण करने वाले संहार करने वाले बनें । इनका वारण करते हुये हम अपने अन्दर सोम की रक्शा करें । यह सोम का रक्शण ही उस परमपिता को पाने का साधन होता है । जब हम सोम का रक्शन करते हैं तो हम भी इन्द्र बनते हैं , सशक्त बनते हैं । इस तथ्य को ही रिग्वेद के मण्डल संख्या ८ के सुक्त संख्या ९१ के प्रथम मन्त्र में इस प्रकार बताया गया है : –
कन्या३ वारवायती सोममपि स्त्रुताविदत ।
अस्तं भरन्त्यब्रवीदिन्द्राय सुनवै त्वाश्क्राय सुन्वै त्वा॥रिग्वेद *.९१.१ ॥
मन्त्र कहता है कि शत्रुओं का वारण करने वाली , शत्रुओं का नाश करने वाली यह कन्या ( कन दीप्तो ) अर्थात कणों को दीप्त करने वाली अथवा सोम कणों को बटाने वाली अथवा दैदिप्यमान जीवन वाली यह बनती है । यह सोम से सुरक्शित होने के कारण काम क्रोध आदि से,( गति करती हुइ ) दूर होती चली जाती है । काम क्रोध से यह सदैव दूर ही रहती है । यह सोम शक्ति काम क्रोध के साथ तो निवास कर ही नहीं सकती । इस कारण इन शत्रुओं से सदा ही दूर रहती है । जहां काम क्रोध आदि शत्रु निवास करते हैं, वहां सोम का सदा नाश ही होता रहता है । शक्ति आ ही नहीं सकती । इस कारण ही यह एसे शत्रुओं से सदा दूर रहती है । यह शक्ति निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर रहती है । इस कारण ही यह सोम को भी प्राप्त करने में सफ़ल हो जाती है । सोम नामक कणों को यह शक्ति अपने अन्दर रक्शित करती है ।
यह शरीर इस शक्ति का निवास है , घर है । अत: यह अपने इस घर रुपि शरीर को सोम कणों से निरन्तर पुशट करती रहती है । सोमकणों से शरीर को निरन्तर पुश्ट करती रहती है । अपने शरीर को इन सोम कणॊं की सहयता से सदा शक्तिशाली बनाते हुये यह सम्बोधन करते हुये कहती है कि हे सोम ! मैं परमएशवर्यशाली को पाना चाहती हूं । उसे पाने के लिये ही मैं तुझे पैदा करती हुं , उत्पन्न करती हुं । जब मेरे में सोम कण रम जावेंगे तो मुझे उस प्रभु को पाने में सरलता होगी । इस लिये मैं तुझे अपने शरीर में अभिशूत करती हू ताकि मुझे (तेरे इस शरीर में रमे होने के कारण ) वह सर्वशक्तिमान प्रभु मिल जावे ।
सोम से मधुरता मिलेगी तथा प्रभु स्तवन करेंगे
जब भी कभी इस शरीर में प्रभु का प्रकाश होता है तो शरीर रूपी यह घर एक विचित्र सी आभा से दीप्त हो जाता है , चमक जाता है तथा जब इस चमक से युक्त शरीर में सोम की रक्षा होती है तो इस शरीर में एक स्थिर शक्ति आती है , विचित्र सा आनंद अनुभव होताहै , मधुरता से भरा हुआ यह शरीर प्रभु स्तवन की और जाता है तथा प्रभु चरणों में रहने की वृति इस शरीर की बनती है । इस तथ्य को ऋग्वेद के मंडल 8 की ऋचा 91 के मन्त्र संख्या 2 में इस प्रकार बताया गया है : –
असॉ य एषे वीरको गृहंगृहं विचाकशत ।
इमं जम्भ्सुतं पिब धा नावन्तं करम्भिणमपुवन्तमुक्थिनम ।।ऋग्वेद8.91.1 ।।
मन्त्र कहता है कि हे परमपिता प्रभु ! आप शत्रुओ को अति शीघ्रता से कम्पित कर देते हो, भयभीत करने वाले हो । आप के सहयोग से हमारे सब शत्रु शीघ्र ही हमारे से दूर भाग जाते हैं , पराजित हो जाते हैं । इस प्रकार आप के सहयोग से यह पराजित शत्रु पुन: हमारे पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं करते । इस प्रकार आप जब हमें प्राप्त होते हैं तो हमारे इस शरीर रूपी गृह का प्रत्येक भाग , प्रत्येक घर आप ही के कारण दीप्त होता है , चमकता है , प्रकाशित होता है । जब हमारे अंत: करण मे , हमारे हृदयों में आप का प्रकाश होता है तब तब हे प्रभु ! हमारा यह् शारीरिक घर दीप्त हो जाता है , चमकने लगता है , सब और से प्रकाशित हो जाता है ।
मन्त्र आगे उपदेश कर रहा है कि हे प्रभु हमारे जबड़े सोम के निर्माण का काम करते हैं । जब हम जबडों से भोजन चबा चबा कर करते हैं तो इन में से सोम पैदा होता है । इस पैदा हुए सोम को यह शरीर ही पी ले एसा अनुग्रह हम पर करिये , एसी कृपा हम पर करें प्रभु । वास्तव में यह सोम ही तो है जो हमारे शरीर को धारण करता है , यह सोम ही है जो आनंद से वशीभूत हो हमारा आलिंगन करता है , यह सोम ही हमारे जीवन को आनंदमय बना कर आनंद से भरता है । यह सोम ही हमारे शरीर में मधु के छत्ते का कार्य करते हुए हमारी वाणी को हमारे व्यवहार को मधु के ही समान मधुर व मीठा बना देता है । यह सोम ही स्तोत्रो वाला होता है । यह सोम ही हमारे शरीर में सुरक्षित होने पर इस की रक्षा करने वाले शरीर अथवा व्यक्ति को प्रभु चरणों में बैठने का प्रभु स्मरण का, प्रभु स्तवन का अधिकारी बना देता है । हमारी वृति इस सोम के ही कारण प्रभु की और लगती है ।
प्रभु को जानने की कामना से सोम रक्षण करें
विषयों में उलझा मानव साधारण रुप में प्रभु को स्मरण नहीं करता । हम सदा प्रभु को जानने की इच्छा करते हुए इस उद्देश्य को पाने के लिए अपने शरीर में सदा सोम की रक्षा करें । इस तथ्य को ऋग्वेद के अष्टम मंडल की ऋचा संख्या 91 के मन्त्र संख्या तीन में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
आ चन त्वा चिकित्सामो$धि चन त्वा नेमसी ।
शनैरिव शनकैरिवेन्द्रायेन्दो परी स्रव ।। ऋग्वेद ८.91.3 ।।
मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे प्रभो ! हम सदा आपको ही जानने की इच्छा करते हैं , आप को ही जानने की कामना करते हैं , आपको ही जानने की अभिलाषा राखते हैं । साधारणतया मानव इस संसार में आकर विषयों में एसा उलझता है कि वह आपको भुल जाता है । उसे स्मरण ही नहीं रहता की वह संसार में किस लिए आया था । इस कारण सांसारिक विषयों में फ़ंसा यह मानव आपको स्मरण नहीं करता, याद नहीं करता । यह सत्य भी है कि जब विषयों का पर्दा पड जाता है तो कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता । जब कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता तो सर्व श्रेष्ठ होने के कारण विषयों के इस परदे के कारण आप भी दिखायी नहीं देते । आप भी हमारी द्रष्टि से ओझल हो जाते हैं ।
मन्त्र के दूसरे भाग को स्पष्ट करते हुए मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे सोम ! तू उस परमपिता को प्राप्त कराने का मुख्य साधन है तथा हम प्रभु को पाने के अभिलाषी हैं । इसलिए तुम हमारे शरीर में धीरे धीरे रमण करो , आवो । अत: प्रभु की प्राप्ति के लिए धीरे धीरे ही हमारे शरीर में अपना स्थान बना कर स्थित होवो । इस प्रकार धीरे धीरे विस्तारित होते हुए हमारे सब अंग प्रत्यंगों में व्याप्त हो जावो । जब आप धीरे धीरे शान्ति पूर्वक हमारे शरीर में व्यापत होते हैं तो हमारा जीवन प्रकाश से भर जाता है , सब और प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है , यह शरीर प्रकाशमय बन जाता है, प्रकाश पुञ्ज बन जाता है । तब ही हम उस पिता के दर्शन करने में समर्थ होते हैं ।
इन्द्रियों को विषयों से विमुख करें
जब मानव सोमरस की रक्षा कर लेता है तो उस की शक्ति बढ जाती है । जब मानव सोम का पान करता है तो उसकी वासनायें भी नष्ट हो जाती हीं , वासनाओं को उसके पास आने का साहस ही नहीं होता । इससे उसे प्रशस्त वसुओ की प्राप्ति होती है । मानव को चाहिए की वह विषयों की और आमुख इन्द्रियों को इन्द्रियों से विमुख कर इन्हें प्रभुप्रवण करने का , प्रभु की और लगाने का यत्न करें ।इस तथ्य को इस ऋका के चोथे मन्त्र में बडे सुन्दर धंग से इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
कुविच्छकत्कुवित्करत्कुविन्नो वस्यसस्करत ।
कुवित्पतिद्विषो यतिरिन्द्रेण संगमामहै ।।ऋग्वेद 8.91. 4 ।।
मन्त्र कहता है कि जब हम अपने शरीर में सोम की रक्षा कर लेते हैं , सोम का रक्षण कर लेते हम तो वे प्रभु हमें शक्तिशाली बना देते हैं , शक्ति का भंडार हम में भर देते हैं । इस प्रकार हमें शक्तिशाली बना कर हमारे शत्रुओं को खूब वोषिप्त काटे हैं , परेशान करते हैं तथा इस प्रकार हमारी ख्याति खूब बढाते हैं , हमारी प्रशस्तीकराते हैं व हमें प्रशस्त कर हमें वसुओ से युक्त करते हैं , वसुओ वाला बनात हैं ।
मन्त्र आगे बता रहा है कि हमारी यह जो इन्द्रियां हैं , वह उस पिता की एसी पत्नी के सामान हैं , जो अपने पति के वश में नहीं होती । यह विषयों के अंतर्गत, विषयों के अभिभूत हो इधर उधर भटकती रह्ती हैं । हम अपने शरीर में व्याप्त इस सोम की सहायता से इन से जब युद्ध करते हैं तो यह निश्चय ही पराजित होती हैं । इस प्रकार पराजित हुई इन इन्द्रियों को हम प्रभु की प्रार्थना में लगा दें , प्रार्थना में अर्पित कर दें , प्रभु की संगत में लगा दें । मानव जीवन की यह ही सब से उत्कृष्ट साधना है कि वह अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करे , इन्हें विषयों से विमुक्त कर परमपिता प्रभु की और प्रेरित करे , प्रभु के चरणो में लगाने का यत्न करे , प्रभु प्रवण बनाए ।
त्रिलोक उत्कृष्ट हो,ज्ञान का प्रकाश,प्रेम भावना तथा शक्ति का आधार हो:-
हे प्रभु मेरा यह शरीर त्रिलोक पूरी है । आप इसे उत्कृष्ट बनावें । मेरा यह मस्तिष्क द्युलोक के समान है । आप दया करके इसे ज्ञान के प्रकाश से भर दीजिये । इसे इस प्रकाश का मूल बनावें । ह्रदय प्रेम की कृषि भूमि है । इसे प्रेम की भावना से उर्वरक बनाइये । मेरा यह शरीर शक्ति का केंद्र है । इसलिए इस शरीर को शक्ति का आधार बनाईये । इस तथ्य को ऋग्वेद के मंडल आठ के सूक्त 91 के अंतर्गत मन्त्र संख्या पांच में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
इमाणि त्रीणि विश्ट्या तानिन्द्र वि रोहय ।
शिरस्ततस्योर्वरामादिदं म उपोदारे ।।ऋ ग्वेद 8.91.5 ।।
मन्त्र इंगित कर रहा है कि हे प्रभो ! आप ने जो तीन लोक बनाए हैं , उनमें से यह शरीर हमारे लिए पृथ्वीलोक है । हमारे सब आचार व्यवहार ज्ञान का आधार व प्रेम का केंद्र तथा हमारी सब शक्तियो का केंद्र यह शरीर ही तो होता है । इस लिए हम इसे पृथ्वी रूप में ही मानते हैं ।
इस शरीर में जो ह्रदय है , इसे अन्त्रिक्षलोक स्वरूप माना जा सकता है ।जहां पृथ्वी होती है वहां अंतरिक्ष का होना भी आवश्यक ही होता है । प्रथ्वी के ऊपर अन्तरिक्ष में बहुत कुछ विचरण किया करता है । ठीक इस प्रकार ही इस शरीर रूप पृथ्वी पर जो भी हमारे व्यवहार विचरण करते हैं उन सब का केंद्र ह्रदय होने से यह ह्रदय ही हमारे लिए अन्तरिक्ष का कार्य करता है ।
आप ने तीन लोकों में जो तीसरा लोक बनाया है , उसे आपने द्युलोक का नाम दिया है । हमारे शरीर में भी एक द्युलोक है । इस द्युलोक का नाम मस्तिष्क है । द्युलोक में उच्च प्राणी निवास करते हैं , दानशील प्राणी रहते हैं , दुसरों का उपकार करने वाले प्राणी रहते हैं । हमारा यह मस्तिष्क ज्ञान का भंडार है, यह मस्तिष्क ज्ञान को बांटने का कार्य करता है , ज्ञान का दान करता है ,इसलिए हमारे शरीर में यह द्युलोक का ही प्रतिरूप है ।
इस लिए हे प्रभु ! मेरे शरीर के इन तीनो लोको को प्रशस्त करिए , उन्नत करिये, समृद्ध करिए ।
मन्त्र के दूसरे भाग में उपदेश इस प्रकार किया गया है कि मेरे शरीर का जो भाग ज्ञान का केंद्र माना गया है , उसे आप ने मस्तिष्क का नाम दिया है । हे प्रभु ! आप की व्यवस्था के अनुसार सब प्रकार के ज्ञान का केंद्र मस्तिष्क होता ई । इस में उत्तम ज्ञान की सरितायें भी बह सकती हैं तथा हानिप्रद ज्ञान भी इस में भर सकता है । किन्तु प्रभु हमें किसी प्रकार की हांनि न हो , हम किसी की हांनि भी न करें । इस लिए हमारे मस्तिष्क में अत्यंत विस्तृत तथा उत्तम प्रकार के ज्ञान का भण्डार भर दो ।
हे प्रभु ! मेरे ह्रदय रुपि भूमि को आप् भरपूर उर्वरक शक्ति दें । इसे इतना उर्वरक बना दो कि इस में निरसता तो कभी दिखाई ही न दे । यह क्षेत्र स्नेह की भावनाओं से भरपूर उर्वरक कर दो । इस में सदा स्नेह की नदियां बहती रहें ।
प्रभो ! शरीर की शक्ति का सम्बन्ध वीर्य से होता है । इस शरीर को इतना वीर्यवान बना दीजिये कि इस शरीर में यह वीर्य शक्ति समीपता बनाए रखे । इस वीर्य शक्ति का , इस सोम शक्ति का मेरे अन्दर रक्षण करें ।
इस प्रकार मेरे शरीर के तीनों लोक (1) मस्तिष्क ज्ञान का केंद्र हो, (2) ह्रदय में स्नेह भरा हो तथा (3) शरीर वीर्य का ,शक्ति का, सोम का उत्पति स्थल बना रहे ।
हम अपने शरीर के तीनों अंगो से अर्थात मस्तिष्क, हृदय तथा शरीर से सदा प्रभु के स्मरण में, प्रभु स्तुति में, प्रभु स्तवन में लगे रहें । इसलिए हमारा हृदय प्रभु के सच्चे प्रेम से, शरीर प्रभु की दी हुई शक्ति से तथा मस्तिष्क प्रभु के दिए ज्ञान से सदा भरा रहे । इस तथ्य को इस ऋचा के छ्ट्वें मन्त्र में इस प्रकार उपदेश किया गया है : –
असो च या न उर्वरादिमाम तन्वं 1 मामा ।
अथो तातस्य यच्छिर: सर्वा तारोमशा कृधि ।।ऋ ग्वेद 8.91.6।।
मन्त्र बता रहा है कि हे पिता ! हमारी यह जो हृदयस्थली है, यह भरपूर उर्वरक है । विगत मन्त्र में जो बताया गया था कि यह ह्रदय स्थली प्रेम के भावों के लिए अत्यधिक उपजाऊ है , इस में प्रेम का प्रवाह सदा बहता ही रहता है । इस उर्वरक ह्रदय को तथा सब प्रकार के विस्तृत ज्ञान के भण्डार मेरे शिर को अर्थात मेरी सब शक्तियों , ज्ञान, भूमि व शक्ति आदि को प्रभु स्मरण में निवास करने वाला, प्रभु की स्तुति रूप उपासना करने का केंद्र बनाये रखें । हमारे शरीर के प्रत्येक अंग से सदा प्रभु चिंतन हो प्रभु का स्मरण हो ।
प्रभु उपासक को दीप्त कर तेजस्वी बनाते हैं
परम पिता परमात्मा अपने उपासको पर सदा दया करता है । वह अपने उपासक को उसके शरिर ,उसकि इन्दियों तथा उसको मन से दोश्र्हित कर, निर्दोश्कर दिप्त जिवन्वाला, प्रकाशित जीवन से भरपूर बनाते हैं । इस से प्रभु क यह उपासक सुर्य के समान तेजस्वी हो जाता है । इस तथ्य को वेद की इस रिच के इस अन्तिम मन्त्र मे इसप्रकार उपदेश किया गया है : –
खे रथस्य खे॓ नस: खे युगस्य शःशतक्रतो ।
अपालामिन्द्र त्रिश्पूत्व्यक्रिणो: सूर्यत्वचम ॥ रिग्वेद ८.९१.७ ॥
यदि हम शरीर को एक रथ मानें तो इसके छिद्र में प्राणमय कोश के , इन्द्रियों के छिद्र में तथा जो इन्द्र्यों व आत्मा को मिलाने वाला जो मन है ( क्योंकि मन के द्वार ही आत्मा तथा इन्द्रियों क सम्पर्क होता है ) अत: हे अनेक प्रकार के ग्यनों से भर्पुर अर्थात कभी न समाप्त होने वाले प्रग्यान वाले तथा असीमित शक्ति से युक्त , सब प्रकार के एशवर्यों से युक्त , प्र्मैश्वर्य्से सम्पन्न पिता ! सब दोशों को सुदूर वारण करने वाली , दूर करने वाली शरीर , इन्द्रियों व मन से अर्थात तीन बार पवित्र करके तुने सुर्य की त्वचा वला अर्थात तेजस्वी व प्रकाशित कर दिया है तथा इन्हें मन के छिद्र में भर दिया है ।
यह मन्त्र इस सुक्त का अन्तिम मन्त्र होने के कारण पूर्ण सुक्त का निचोड अपने में समेटे है । इस पूर्ण सूक्त में यह बताया गया है कि हम शत्रुओं का वारण करते हुये सोम को अपने शरीर में स्थापित करते हैं , जो प्रभु प्राप्ति का साधन बनेगा तथा हमें भी इन्द्र के समान शक्तिशाली बनावेगा । प्रभु के प्रकाश से हमारा शरीर रुपि घर चमक जाता है , इस में सोम का निवास होने से जीवन स्थिर शक्तिवाला, आनन्दमय हो कर मधुर व प्रभु स्मरण वाला बनता है । विश्य़ी व्यक्ति सामान्यतया प्रभु स्मरण से दूर रहता है प्रभु को जानने की कामना से हम सोम को सुरक्शित करते हैं । सोम रक्शन से शक्ति बट कर वासना रर्हित होती है , जिससे प्रशस्त वसुओं की प्राप्ति होती है । मेरे त्रिलोकी इस शरीर को उत्क्रिश्ट बनावें मस्तिश्क विशाल ग्यान के प्रकाश का आधार,ह्रिदय प्रेम की भावना से उपजाउ तथा शरीर शक्ति का आधार हो । हम इन तीनों से प्रभु स्तवन करें । ह्रिदय प्रेम से, शरीर पिता की शक्ति से तथा मस्तिश्क उस पिता के ग्यान से भ्ररा रहे ।
डा अशोक आर्य

मानव प्रतिदिन दो काल प्रभु के समीप बैठने वाले बनें ।

डा.अशोक आर्य
मानव प्रतिदिन दो काल प्रभु के समीप बैठने वाले बनें । सम्पूर्ण दिन भर वृद्धि पूर्वक कर्मों को करते हुये , जो भी कार्य करें, उसे प्रभु चरणॊं में अर्पण करदें । प्रात:काल हम शक्ति की याचना करते हुये मांगें कि हम बुद्धि पूर्वक कर्मों को करने वाले बनें । इस बात को इस मन्त्र र्में इस प्रकार प्रकट किया गया है : –
उपत्वाग्नेदिवेदिवेदोषावस्तर्धियावयम्।
नमोभरन्तएमसि॥ ऋ01.1.7 ||
विगत मन्त्र में जो समर्पण का भाव प्रकट किया गया था , उसे ही यहां फिर से प्रकट किया गया है । मन्त्र कह रहा है कि हे अग्ने ! हे सब को आगे बढाने वाले प्रभो ! , सब कुछ प्राप्त कराने वाले प्रभो ! हम प्रतिदिन प्रात: व सायं के सन्धिकाल में आप के समीप बैठ कर आत्म निरीक्षण करते हैं । इस आत्म निरीक्षण में हम बुद्धि पूर्वक कर्मों के माध्यम से पूजा को प्राप्त होते हुये सर्वथा आपकी समीपता को प्राप्त होते हैं , आपकी समीपता प्राप्त करते हैं, आपके समीप आसन लगाते हैं अथवा आपके आसन के समीप बैठकर आप से दिशा निर्देश लेते हैं ।
मानव को प्रतिदिन प्रभु चरणों में जाना चाहिये । यह अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि : –
क ) प्रभु चरणों में जाने से मानव में पवित्रता की भावना का न केवल उदय ही होता है अपितु पवित्रता की भावना बनी भी रहती है ।
ख ) जब मानव प्रभु चरणॊं में बैठता है तो जहां उसमें पवित्रता की भावना का उदय होता है , वहां उसमें शक्ति का भी संचार होता है, शक्ति भी उसके अन्दर उद्वेलित होने लगती है ।
ग ) मानव जीवन में जिसने भी धन को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया, उसका जीवन लडाई , झगडा, कलह , कलेषादि से भर जाता है । जब हम प्रभु चरणों में बैठते हैं तो हमें धन की लालसा नहीं रहती । इस प्रकार हमारे जीवन का उद्देश्य धन नहीं निकट बन पाता । जब धन की इच्छा ही नहीं है तो हमारा पारस्परिक प्रेम भी नष्ट न हो कर बना रहता है ।
जिस प्रकार मानव को जीवन के लिए भोजन आवश्यक होता है , जिस प्रकार मस्तिष्क को बलिष्ट बनाए रखने के लिये नियमित स्वाध्याय आवश्यक होता है , उस प्रकार ही हृदय की शुद्धि के लिये दैनिक प्रभु के समीप जाना भी , दैनिक ध्यान भी , प्रभू प्रार्थना भी आवश्यक होते हैं । यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन प्रभु के निकट बैठकर उस का ध्यान करता है , उसकी आराधना करता है , उसका स्मरण करता है , प्रार्थना रूप उपासना करता है, उपासना करता है तो उसे कभी कोई कष्ट, कोई दुःख ,
कोई क्लेश आ ही नहिंसकता | वह धन धान्य से परिपूर्ण रहते हुए सब सुखों को प्राप्त होता है |
डा. अशोक आर्य

प्रभु को जानने की कामना से सोम रक्षण करें

ओउम
प्रभु को जानने की कामना से सोम रक्षण करें
डा अशोक आर्य
विषयों में उलझा मानव साधारण रुप में प्रभु को स्मरण नहीं करता । हम सदा प्रभु को जानने की इच्छा करते हुए इस उद्देश्य को पाने के लिए अपने शरीर में सदा सोम की रक्षा करें । इस तथ्य को ऋग्वेद के अष्टम मंडल की ऋचा संख्या 91 के मन्त्र संख्या तीन में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
आ चन त्वा चिकित्सामो$धि चन त्वा नेमसी ।
शनैरिव शनकैरिवेन्द्रायेन्दो परी स्रव।। ऋ ग्वेद .91.3 ।।
मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे प्रभो ! हम सदा आपको ही जानने की इच्छा करते हैं , आप को ही जानने की कामना करते हैं , आपको ही जानने की अभिलाषा राखते हैं । साधारणतया मानव इस संसार में आकर विषयों में एसा उलझता है कि वह आपको भुल जाता है । उसे स्मरण ही नहीं रहता की वह संसार में किस लिए आया था । इस कारण सांसारिक विषयों में फ़ंसा यह मानव आपको स्मरण नहीं करता, याद नहीं करता । यह सत्य भी है कि जब विषयों का पर्दा पड जाता है तो कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता । जब कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता तो सर्व श्रेष्ठ होने के कारण विषयों के इस परदे के कारण आप भी दिखायी नहीं देते । आप भी हमारी द्रष्टि से ओझल हो जाते हैं ।
मन्त्र के दूसरे भाग को स्पष्ट करते हुए मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे सोम ! तू उस परमपिता को प्राप्त कराने का मुख्य साधन है तथा हम प्रभु को पाने के अभिलाषी हैं । इसलिए तुम हमारे शरीर में धीरे धीरे रमण करो , आवो । अत: प्रभु की प्राप्ति के लिए धीरे धीरे ही हमारे शरीर में अपना स्थान बना कर स्थित होवो । इस प्रकार धीरे धीरे विस्तारित होते हुए हमारे सब अंग प्रत्यंगों में व्याप्त हो जावो । जब आप धीरे धीरे शान्ति पूर्वक हमारे शरीर में व्यापत होते हैं तो हमारा जीवन प्रकाश से भर जाता है , सब और प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है , यह शरीर प्रकाशमय बन जाता है, प्रकाश पुञ्ज बन जाता है । तब ही हम उस पिता के दर्शन करने में समर्थ होते हैं ।
इन्द्रियों को विषयों से विमुख करें
जब मानव सोमरस की रक्षा कर लेता है तो उस की शक्ति बढ जाती है । जब मानव सोम का पान करता है तो उसकी वासनायें भी नष्ट हो जाती हीं , वासनाओं को उसके पास आने का साहस ही नहीं होता । इससे उसे प्रशस्त वसुओ की प्राप्ति होती है । मानव को चाहिए की वह विषयों की और आमुख इन्द्रियों को इन्द्रियों से विमुख कर इन्हें प्रभुप्रवण करने का , प्रभु की और लगाने का यत्न करें ।इस तथ्य को इस ऋका के चोथे मन्त्र में बडे सुन्दर धंग से इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
कुविच्छकत्कुवित्करत्कुविन्नो वस्यसस्करत ।
कुवित्पतिद्विषो यतिरिन्द्रेण संगमामहै ।।ऋग्वेद 8.91. 4 ।।
मन्त्र कहता है कि जब हम अपने शरीर में सोम की रक्षा कर लेते हैं , सोम का रक्षण कर लेते हम तो वे प्रभु हमें शक्तिशाली बना देते हैं , शक्ति का भंडार हम में भर देते हैं । इस प्रकार हमें शक्तिशाली बना कर हमारे शत्रुओं को खूब वोषिप्त काटे हैं , परेशान करते हैं तथा इस प्रकार हमारी ख्याति खूब बढाते हैं , हमारी प्रशस्तीकराते हैं व हमें प्रशस्त कर हमें वसुओ से युक्त करते हैं , वसुओ वाला बनात हैं ।
मन्त्र आगे बता रहा है कि हमारी यह जो इन्द्रियां हैं , वह उस पिता की एसी पत्नी के सामान हैं , जो अपने पति के वश में नहीं होती । यह विषयों के अंतर्गत, विषयों के अभिभूत हो इधर उधर भटकती रह्ती हैं । हम अपने शरीर में व्याप्त इस सोम की सहायता से इन से जब युद्ध करते हैं तो यह निश्चय ही पराजित होती हैं । इस प्रकार पराजित हुई इन इन्द्रियों को हम प्रभु की प्रार्थना में लगा दें , प्रार्थना में अर्पित कर दें , प्रभु की संगत में लगा दें । मानव जीवन की यह ही सब से उत्कृष्ट साधना है कि वह अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करे , इन्हें विषयों से विमुक्त कर परमपिता प्रभु की और प्रेरित करे , प्रभु के चरणो में लगाने का यत्न करे , प्रभु प्रवण बनाए ।

डा अशोक आर्य

हम यज्ञमय बनें तथा उत्तम कर्म करें

ओउम
हम यज्ञमय बनें तथा उत्तम कर्म करें
हम अपने जीवन को यज्ञ के समान बनावें किन्तु यह सब यज्ञ उस परमपिता परमात्मा के द्वारा होते हुये समझे । हम सदा अच्छे कर्म करें किन्तु अपने द्वारा किये उत्तम कर्मों पर गर्व न करें । यह है देव बनने के सर्वोत्तम मार्ग । यह सब इस मन्त्र में इस प्रकार बताया गया है : -=
अग्नेयंयज्ञंध्वरंविश्वत:परिभूरसि ।
स इद्देवेषुगच्छ्ति॥ ऋग्वेद १.१.४ ॥
गत मन्त्र मे बताया गया था कि यज्ञकर्ता अनेक प्रकार के धनों को प्राप्त करता है तथा इस धन का प्रयोग, विनियोग भी यज्ञादि उत्तम कर्मों में करता है किन्तु कभी इस धन पर इन यज्ञ कार्यों पर उसे गर्व न हो जावे , इस लिये वह उस पिता से प्रार्थना करता है कि हे सर्व कर्म संचालक प्रभो ! हिंसा से रहित हो कर श्रेष्ठ कर्म को सब ओर से व्याप्त करने वाले , सब ओर से रक्षा करने वाले तथा सब ओर से व्यवस्थित करने वाले आप ही हो । इस प्रकार से किया गया यज्ञ ही देवताओं को प्राप्त होता है । हे प्रभो ! वास्तव में यज्ञ तो आप ही करते हो , बस देव तो उस यज्ञ को करने का माध्यम मात्र ही होते हैं ।
वास्तव में इस संसार के प्रत्येक कर्म को करने का जीव तो माध्यम मात्र ही है , सब उत्तम कर्म करने वाले तो परम पिता परमात्मा ही होते हैं । अनेक बार अज्ञानता के कारण हम समझते हैं कि यह उत्तम कर्म मैंने किया है , इस भ्रम में हम उस कर्म की उत्तमता के कारण , उस पर गर्व करने लगते हैं । इस गर्व के कारण ही किये गये उतम कर्म की उत्तमता समाप्त हो जाती है । इन शब्दों से यज्ञ को दैवीय सम्पति स्वीकार किया गया है । यह तथ्य भी है कि यज्ञ देवों में ही होता है । देव लोग ही यज्ञ करते हैं किन्तु जब इस यज्ञ को करने पर किंचित मात्र भी अभिमान हो जाता है तो इसे राक्षस तुल्य कर्म के रुप में स्वीकार कर लेते हैं । राक्षस लोग यज्ञ आदि कर्म सदा यश प्राप्त करने की इच्छा से करते हैं । राक्षस लोग बिना लाभ का कोइ भी कार्य नहीं करना चाहते । अत: यज्ञ का भी लाभ लेना चाहते हैं तथा गर्व से कहते हैं कि , यह यज्ञ किया था तो यह लाभ मिला है । इससे खूब यश चाहते हैं ,आनन्द चाहते हैं , खूब कीर्ति चाहते हैं । इस प्रकार असुर लोग अपने से किये गये किसी भी कार्य के अज्ञान से मूढ , मूर्ख बने रहते हैं ।
असुर लोग यज्ञादि कर्म मात्र ढ़ोंग के लिये करते हैं । वह लोग यह यज्ञादि कर्म लाभ पूर्ण अथवा अपने हित के लिये करते हैं , उनके यह कर्म अभिमान से भरे होते हैं , आत्म सम्मान की भावना से करते है तथा इन्हें करके वह इसे उस पिता को कभी नहीं सौंपते हैं, जब कि देव लोग इन उत्तम कर्मों को करके प्रभु के अर्पण इस लिये करते हैं ताकि वह अपने कर्तव्यों को पूर्ण करते हुये अहंकार आदि दोषों से बचे रहें । इस प्रकार देव लोग निर्मल व अहंकार से रहित होकर प्रभु को पाते हैं तथा शान्त जीवन वाले बनते हैं ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा वीरता बढाने वाला धन मिलता है ,

ओउम
प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा वीरता बढाने वाला धन मिलता है , जो मानव परमपिता के समीप बैठ कर उस प्रभु का स्मरण करता है , प्रभु उसे अनेक प्रकार के धनों को देता है । यह धन पोषण को बनाने वाला होता है , उसको यश दे कर यशस्वी बनाता है तथा उपासक में वीरता का संचार करता है । यह मन्त्र इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुये उपदेश करता है कि : –
अग्निनारयिमश्नवत्पोषमेवदिवेदिवे।
यशसंवीरवत्तमम्॥ ऋ01.1.3
यह मन्त्र अग्नि स्तवन पर बल देते हुये कहता है कि मनुष्य प्रभु की उपासना करने से कभी सांसारिक दृष्टि से असफ़ल नहीं होता । प्रभु स्तवन से ही वह निरन्तर आगे बढता है । वास्तव में प्रभु स्तवन से ही लक्षमी के दर्शन होते हैं । स्पष्ट है कि जहां प्रभु स्तवन है, वहां लक्ष्मी तो है ही, तब ही तो कहा जाता है कि मानव अग्नि से धन को प्राप्त करता है अर्थात जो प्रतिदिन यज्ञ करता है, उसे धन एश्वर्य के नियमित रुप से दर्शन होते रहते हैं ।
सामान्यत:; लोग इस बात को जानते हैं कि जिसके पास अपार धन सम्पदा होती है , उसके लिये अवनति का मार्ग खुला रहता है । इस धन की सहायता से वह अपनी इन्द्रियों को सुखी बनाने का यत्न करता है ,शराब, जुआ आदि अनेक प्रकार की बुराइयां उस में आ जाती हैं किन्तु जो धन प्रभु स्मरण से मिलता है,जो धन प्रभु स्तवन से मिलता है, जो धन अग्निहोत्र से मिलता है, जो धन यज्ञ से मिलता है, उस धन की एक विशेषता होती है , इस प्रकार से प्राप्त धन प्रतिदिन हमारे पोषण का कारण होता है । इससे हमारा किसी प्रकार का नाश, किसी प्रकार का ह्रास नहीं होता । इस प्रकार प्राप्त धन हमें कभी विनाश की ओर , मृत्यु की ओर नहीं ले जाता अपितु यह् तो हमें वृद्धि की ओर , उन्नति की ओर ले जाता है , जीवन को जीवन्त बनाने व उंचा उठाने की ओर ले जाता है ।
इस प्रकार यज्ञीय विधि से हमें जो धन मिलता है , यह धन हमें यश्स्वी बनाता है, यश से युक्त करता है । इस धन में परोपकार की भावना भरी होने से हम इसे दान में लगाते हैं , दूसरों की सहायता में लगाते हैं । इस कारण हम निरन्तर यशस्वी होते चले जाते हैं । हमारा यश व कीर्ति दूर दूर तक जाती है । मानव अनेक बार अपार धन सम्पदा पा कर इसके अभिमान में मस्त हो जाता है । इस मस्ती में वह अनेक बार एसे कार्य भी कर लेता है , जो उसे अपयश का कारण बनाते हैं । किन्तु यज्ञ आदि में धन का प्रयोग करने से उस का यश व कीर्ति बढते हैं ।
प्रभु उपासना से प्राप्त धन हमें अत्यधिक सशक्त करने वाला होता है, हमारी शक्ति बढाने वाला होता है । जब अत्यधिक धन के अभिमान में व्यक्ति अनेक नोकर – चाकरों को रख कर आलसी बन जाता है , कोइ कार्य नहीं करता, निठला हो जाता है तो स्वाभाविक रूप से शारीरिक कार्य वह स्वयं नहीं करता, इस कारण निर्बल हो जाता है । क्रिया अर्थात मेहनत ही सब प्रकार की शक्तियों का आधार होती है , जो व्यक्ति क्रियाशील रहता है , उसमें शक्ति की सदा वृद्धि होती रहती है, ह्रास नहीं होता । यह क्रियाशीलता ही शक्ति की जन्मदाता होती है । जब क्रिया का क्षय हो जाता है तो शक्ति का नाश होता है । हम अपने शरीर को ही देखे , हमारे दो हाथ हैं , एक दायां तथा दूसरा बायां । प्रत्येक व्यक्ति का बायां हाथ उसके अपने ही दायें हाथ से कमजोर होता है । एसा क्यों , क्योंकि मानव अपना सब काम दायें हाथ से ही करता है, बायें हाथ से वह बहुत कम कार्य करता है । इस कारण बायां हाथ दायें की अपेक्षा कमजोर रह जाता है । यही कारण है कि क्रियाशीलता के बिना तो प्रभु स्मरण भी नहीं होता । अत: प्रभु स्मरण हमें क्रियाशील बना कर बलवान बनाता है । क्रियाशील होने से हमारा शरीर पुष्ट होता है, पुष्टी से हम अधिक कार्य करने में सक्षम होते हैं, धनेश्वर्य के स्वामी बनते हैं। हमें यश व कीर्ति मिलतै हैं तथा हम में शक्ति का संचय होता है , जिससे हम वीर बनते हैं ।
डा. अशोक आर्य

प्रभु की समीपता से दिव्य गुणों की प्राप्ति

ओउम
प्रभु की समीपता से दिव्य गुणों की प्राप्ति
डा.अशोक आर्य
ज्ञानी, निरोग,निर्मल,मधुर्भाषी,क्रियाशील व्यक्ति प्रभु का स्मरण कर दिव्यगुण पाता है , ज्ञान प्राप्त करने का अभिलाषी ही पिता का सच्चा उपासक होता है, जो निर्मल रहते हुये निरोग रहता है, जो दूसरों की प्रशंसा करते हुये सदा मधुर ही बोलता है तथा सदैव क्रियमान रहता है । प्रभु के समीप रहने से दिव्यगुणों की वृद्धि होती है । इसे यह मन्त्र इस प्रकार स्पष्ट कर रहा है :-
अग्निःपूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्योनूतनैरुत।
सदेवाँएहवक्षति॥ ऋ01.1.2
विगत मन्त्र में बताया गया था कि तत्वदर्शी लोग ही प्रभु की समीपता पाते हैं । तत्वदृष्टा अपनी रक्षा स्वयं करते हैं । स्वयं को किसी प्रकार के रोग से आक्रान्त नहीं होने देते , रोगों का आक्रमण अपने आप पर नहीं होने देते । इस के साथ ही साथ अपने में जो कमियां हैं , जो न्यूनतायें हैं , उन्हें भी वह दूर करते ही रहते हैं । भाव यह है कि वह स्वयं को पूर्ण करने का यत्न सदा ही करते रहते हैं । वह जो भी शब्द बोलते हैं, वह प्रशंसात्मक ही होते हैं , दूसरे को प्रसन्न करने वाले ही होते है , एसे शब्द कभी नहीं बोलते, जिससे दूसरे को दु:ख हो । यह लोग दूसरों की निन्दा करने से सदा दूर रहते हैं , दूसरों की अच्छायियों का ही वर्णन करते हैं , उनकी कमियों का कभी वर्णन करना नहीं चाहते । यह लोग सदैव गतिशील ही रहते हैं । क्रियमान ही बने रहते हैं । आलस्य , प्रमाद से सदा दूर रहते हैं । इन का जीवन सदा क्रियाशील ही रहता है ।
इस सब का यदि संक्षेप में वर्णन करें तो हम कह सकते हैं कि जो परमपिता परमात्मा का स्तवन करते हैं, उसके उपासक बनकर स्तुति रुप प्रार्थना करते हैं वह सदा :-
( क ) तत्वदृष्टा होते हैं
( ख ) अपने शरीर में रोगों का प्रवेश नहीं होने देते ।
( ग ) अपने अन्दर जो कमियां है, जो नयूनतायें हैं , जो अभाव हैं , उन्हें दूर करने
का यत्न करते हैं ।
( घ ) जो कभी कटू, निन्दक,शब्द न बोल कर सदा प्रशंसा में ही शब्द प्रयोग करते
हैं ।
( ड ) जो लोग सदा अपना जीवन गतिमान रखते हैं ,क्रियात्मक रहते हैं ।
एसे लोग ही प्रभु के समीप रहने के बैठने के अधिकारी होते हैं ।
वह प्रभु एसे लोगों से उपासित हो कर , एसे लोगों की समीपता पा कर , इस मानव जीवन में इस प्रकार के लोगों को दिव्य गुण प्राप्त कराने का कार्य करते हैं । भाव यह है कि प्रभु प्राप्ति का सब से मुख्य तथा बडा लाभ यह ही है कि प्रभु की उपासना से, प्रभु के समीप आसन लगाने से, उसकी समीपता पाने से हममें दिव्यगुणों की बडी तेजी से वृद्धि होती है ।
डा. अशोक आर्य

सोम की रक्शा से हम इन्द्र व शक्त बनेंगे

औ३म
सोम की रक्शा से हम इन्द्र व शक्त बनेंगे
डा. अशोक आर्य
हम शत्रुओं का वारण करने वाले संहार करने वाले बनें । इनका वारण करते हुये हम अपने अन्दर सोम की रक्शा करें । यह सोम का रक्शण ही उस परमपिता को पाने का साधन होता है । जब हम सोम का रक्शन करते हैं तो हम भी इन्द्र बनते हैं , सशक्त बनते हैं । इस तथ्य को ही रिग्वेद के मण्डल संख्या ८ के सुक्त संख्या ९१ के प्रथम मन्त्र में इस प्रकार बताया गया है : –
कन्या३ वारवायती सोममपि स्त्रुताविदत ।
अस्तं भरन्त्यब्रवीदिन्द्राय सुनवै त्वाश्क्राय सुन्वै त्वा ॥ रिग्वेद *.९१.१ ॥
मन्त्र कहता है कि शत्रुओं का वारण करने वाली , शत्रुओं का नाश करने वाली यह कन्या ( कन दीप्तो ) अर्थात कणों को दीप्त करने वाली अथवा सोम कणों को बटाने वाली अथवा दैदिप्यमान जीवन वाली यह बनती है । यह सोम से सुरक्शित होने के कारण काम क्रोध आदि से,( गति करती हुइ ) दूर होती चली जाती है । काम क्रोध से यह सदैव दूर ही रहती है । यह सोम शक्ति काम क्रोध के साथ तो निवास कर ही नहीं सकती । इस कारण इन शत्रुओं से सदा ही दूर रहती है । जहां काम क्रोध आदि शत्रु निवास करते हैं, वहां सोम का सदा नाश ही होता रहता है । शक्ति आ ही नहीं सकती । इस कारण ही यह एसे शत्रुओं से सदा दूर रहती है । यह शक्ति निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर रहती है । इस कारण ही यह सोम को भी प्राप्त करने में सफ़ल हो जाती है । सोम नामक कणों को यह शक्ति अपने अन्दर रक्शित करती है ।
यह शरीर इस शक्ति का निवास है , घर है । अत: यह अपने इस घर रुपि शरीर को सोम कणों से निरन्तर पुशट करती रहती है । सोमकणों से शरीर को निरन्तर पुश्ट करती रहती है । अपने शरीर को इन सोम कणॊं की सहयता से सदा शक्तिशाली बनाते हुये यह सम्बोधन करते हुये कहती है कि हे सोम ! मैं परमएशवर्यशाली को पाना चाहती हूं । उसे पाने के लिये ही मैं तुझे पैदा करती हुं , उत्पन्न करती हुं । जब मेरे में सोम कण रम जावेंगे तो मुझे उस प्रभु को पाने में सरलता होगी । इस लिये मैं तुझे अपने शरीर में अभिशूत करती हू ताकि मुझे (तेरे इस शरीर में रमे होने के कारण ) वह सर्वशक्तिमान प्रभु मिल जावे ।

डा.अशोक आर्य

ऋग्वेद प्रथम अध्याय सूक्त सात के मुख्य आकर्षण

ऋग्वेद प्रथम अध्याय सूक्त सात के मुख्य आकर्षण
डा. अशोक आर्य
ऋग्वेद के प्रथम अध्याय के इस सप्तम सूक्त का आरम्भ प्रभु के स्तवन से , प्रभु की प्रार्थना से , उसकी स्तुति से आरम्भ होता है तथा यह स्तुति करते हुए यह सूक्त निम्न प्रकार से उपदेश कर रहा है :-
१. सूर्य व बादल प्रभु के अनुदान :-
परम पिता परमात्मा जो भी कर्य करता है वह अपने आप में अद्भुत ही होता है । उस प्रभु ने हमारे लिए बहुत से अनुदान दिए हैं । यह सब ही हमें अदभुत दिखाई देते हैं किन्तु इन में से दो अनुदान हमारे जीवन का आधार हैं । इन में से एक है सूर्य जिस की सहायता के बिना न तो हमारी आंख ही आंख कहलाने की अधिकारी है ओर न ही इस संसार का कोई काम ही हो सकता है । दूसरे हैं बादल । यह बादल भी हमरे जीवन का एक आवश्यक अंग हैं । इन के बिना हमारी वनस्पतियां , ऒषधियां उत्पन्न ही नहीं हो सकतीं , जलाश्य पूर्ण नहीं हो सकते । इस लिए हम मानते हैं कि यह दो तो उस पिता के दिए अनुदानों में सर्वश्रेष्ठ अनुदान हैं, अद्भुत विभुतियां हैं ।
२-३. प्रभु हमें विजयी कराते हैं :-
हम अपने जीवन में अनेक प्रकार के कार्य करते हैं किन्तु तब तक हम इन कार्यों में सफ़ल नहीं हो पाते , जब तक हमें उस प्रभु का आशीर्वाद न मिल जावे । इस लिए हम प्रति क्षण प्रभु की स्तुति करते हैं । प्रभु का आशिर्वाद मिलने के बाद ही हम सफ़लता पाते हैं । अत: स्पष्ट है कि हमें जो सफ़लताएं मिलती हैं , जीवन में जो विजयें मिलती है , उस का कारण भी वह प्रभु ही तो है ।
४. ज्ञान के दाता :-
वह प्रभु ज्ञान के देने वाले हैं । वह जानते हैं कि ज्ञान के बिना मानव कुछ भी नहीं कर सकता , उसकी सब उपलब्धियों का आधार ज्ञान ही होता है । इस लिए उन्होंने मानव मात्र के कल्याण के लिए वेद का ज्ञान उतारा, प्रकट किया , इस ज्ञान का अपावरण किया है ।
५-६. प्रभु के अनुदानों की गिनती सम्भव नहीं :-
प्रभु ने हमें अनन्त दान दिए हैं , असीमित अनुदान दिए हैं । हमारे अन्दर इतनी शक्ति नहीं कि हम प्रभु के सब अनुदानों की गिनती तक भी कर सकें । जब गिनती ही नहीं कर सकते तो उन सब अनुदानों की स्तुतियां कैसे कर सकते हैं ?, धन्यवाद कैसे कर सकते ? इससे स्पष्ट है कि हमारे लिए प्रभु ने असीमित अनुदान दिए हैं , यदि हम इन अनुदानों के लिए प्रभु को स्मरण करें , धन्यवाद करें तो भी हम सब अनुदानों का स्मरण मात्र भी इस जीवन में नहीं कर सकते । इस लिए प्रभु स्तुति कभी समाप्त ही नहीं होती ।
७. हम गॊवें ओर प्रभु गोपाल :-
इस सूक्त के अनुसार सत्य तो यह है कि हम तो प्रभु द्वारा जंगल में चराने को ले जा रही गऊएं हैं ओर वह प्रभु हमारा गोपाल है , चरवाहा है । वह जब तक चाहेगा हम अपना खाना खाते रहेंगे , ज्यों ही यह चरवाहा , यह प्रभु अपनी आंख फ़ेर लेगा , हमें लौटने का आदेश देगा, फ़िर हम एक क्षण के लिए भी इस जंगल में, इस चरागाह में , इस जगत में ठहर न पावेंगे ।
८. वह पालक ही हमारे दाता हैं :-
प्रभु हमारे पालक हैं । हमें विभिन्न प्रकार के अनुदान दे कर हमारा पालन करते हैं , हमारा लालन करते हैं तथा विभिन्न प्रकार कि वनस्पतियों , ऒषधियां एवं जीवनीय वस्तुएं हमें देने वाले हैं ।
९. प्रभु की प्रार्थना ही उत्तम है :-
जो प्रभु हमारे पालन करते हैं, लालन करते हैं तथा जीवन में विजयी करते हैं । इसलिए प्रभु की ही कामना , प्रार्थना , स्तुति ओर उपासना करना ही उतम है ।
१०. प्रभु ही सर्वोतम धनों के दाता हैं :-
जो प्रभु हमारी सब आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाले हैं , जो प्रभु हमारे लिए ज्ञान को बांटने वाले हैं । जो प्रभु हमें प्रत्येक संकट से निकाल कर अनेक प्रकार के अनुदानों से हमें लाभान्वित करते हैं , वह प्रभु ही हमें सब प्रकार के धनों को प्राप्त करावेंगे, इन धनों को प्राप्त कराने में हमें सहयोग देंगे , हमारा मार्ग दर्शन करेंगे ।
यही इस सूक्त का मुख्य उपदेश है, सार है ।

डा अशोक आर्य