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स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-27

अहं केतुरहं मूर्धा अहमुग्राविवाचनी।।

इस सूक्त का यह दूसरा मन्त्र है। यह एक महिला की घोषणा है, जिसमें आत्मविश्वास और योग्यता का समन्वय है। विवेचन की योग्यता बिना ज्ञान के नहीं आती। आजकल का ज्ञान हमें अर्थोपार्जन की क्षमता देता है, परन्तु अपने आप पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं उत्पन्न करता। आजकल की शिक्षा उसे स्वार्थी बनाती है, उसका मूल कारण है- मनुष्य का सुविधाजीवी होना, दुःख सहने की इच्छा और सामर्थ्य का अभाव होना। हमारे छोटे-छोटे बच्चों को लगता है, हम साधनों के बिना कैसे जी सकते हैं? समाचार पत्र में पढ़ा- एक सातवीं कक्षा की बच्ची ने आत्महत्या कर ली। कारण ? उसने माता से चल दूरभाष (मोबाइल) माँगा। माँ ने कहा- बेटा, अभी तुम छोटी हो, तुम दसवीं उत्तीर्ण कर लो, तब ले देंगे। बस, लड़की को सहन नहीं हुआ, वह फाँसी लगा के मर गई। विचार करने की बात है, क्या मृत्यु के लिये यह कारण पर्याप्त है? मनुष्य क्या, कोई भी प्राणि मरने की इच्छा नहीं करता, मरने के नाम से भी डरता है, मृत्यु का अवसर आ जाये तो प्राणपण से संघर्ष करता है, संघर्ष में हराकर ही मृत्यु उसे जीतती है। यहाँ बिना लड़े ही हार मान ली है। मृत्यु की कामना वही करता है, जो जीवन में हार जाता है। छोटे-छोटे साधनों के बिना, सुविधाओं के बिना कैसे जीवित रहूँगा- यह भय ही मनुष्य को मारने के लिये आज पर्याप्त हो गया है।

मनुष्य को साधनों की अधिकता ने उतावला, असहिष्णु और भीरु बना दिया है। पुराने समय में छात्र को असुविधा में रहना सिखाया जाता था। ऐसा नहीं था कि छात्रों को सुविधायें दी नहीं जा सकती थीं, जब घर में, नगर में लोगों के पास सुविधाएँ हों, तो उन्हें क्यों नहीं दी जा सकतीं?  मनुष्य को सुविधा में जीने की शिक्षा नहीं देनी पड़ती। धन-सपत्ति साथ आते ही उनका सुख उठाना आ जाता है। सुविधा में जीना सिखाने से असुविधा में जीना नहीं आता, परन्तु असुविधा में जीना सिखाने से सुविधा न मिलने पर, सुविधा समाप्त होने पर भी वह सरलता से सहज ही जीवन यापन कर सकता है।

आज कल बड़ी कपनियाँ बहुत सारा वेतन, साधन एवं अनेक सुविधायें दे कर मनुष्य को भीरु बना देती हैं। उनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं करता। दुर्भाग्य से कभी साधन न मिले, नौकरी छूट जाये तो ऐसा व्यक्ति अनुचित-अनैतिक माध्यमों से धन कमाने में लग जाता है या आत्महत्या कर लेता है। इसी कारण ऋषि लोग तपस्या और कठिन जीवन की बात करते हैं। सुविधा-भोगी अपने साधनों का बँटवारा नहीं कर पाता, दूसरे को सहयोग करने में उसका विश्वास नहीं होता। सुविधा-भोगी मनुष्य को कभी साधनों से तृप्ति नहीं होती, वह सदा और अधिक के चक्र में उलझ जाता है। उसकी योग्यता उसे अधिक कमाने के लिये प्रेरित करती है। इस दुश्चक्र में वह पराजित हो जाता है, बीमार हो जाता है, अन्ततः मर जाता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं- शास्त्र मनुष्य को अपने पर नियन्त्रण करने की शिक्षा देता है। शास्त्र का अध्ययन करने से मनुष्य के अन्दर धैर्य उत्पन्न होता है। उसके अन्दर सहन शीलता बढ़ती है। चाहे जय मिले या पराजय, वे उसे विचलित नहीं करते। उसके अन्दर उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे, न्याय-अन्याय को समझने का सामर्थ्य आता है। ऐसे व्यक्ति को विचारों की स्पष्टता, निर्णय की क्षमता और कार्य को सपन्न करने की योग्यता प्राप्त होती है। ऐसा व्यक्ति आत्मविश्वास से भरा होता है। उसके अन्दर भय नहीं रहता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है- जिसके अन्दर भय नहीं रहता, उसके अन्दर उदारता, सहिष्णुता, परोपकार आदि गुण सहज ही आ जाते हैं। ऐसा मनुष्य दूसरों के कष्टों को देखकर अपना सुख छोड़ देता है। उसके अन्दर नेतृत्व का गुण पूर्णरूप से विकसित होता है, जो सब उत्तरदायित्व को स्वीकार करने के लिये तैयार रहता है वही घोषणा कर सकता है- मैं सबसे ऊँचा हूँ, मैं सबके लिये उत्तरदायी हूँ।

मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह किसी भी गलती, भूल या अपराध की जिमेदारी दूसरे पर डालने का यत्न करता है। ऐसा व्यक्ति कह नहीं सकता कि मैं सर्वोपरि हूँ। मैं सबका नेता हूँ। उत्तरदायित्व के गुण के बिना नेतृत्व का गुण नहीं आ सकता। स्वार्थी और असहिष्णु व्यक्ति कभी नेता नहीं बन सकता। आजकल की शिक्षा से इन गुणों की आशा नहीं की जा सकती। आज मनुष्य योग्यता के बिना ही अधिकार की आशा करता है। आशा तो की जा सकती है, परन्तु उसका निर्वाहन हीं हो सकता। ज्ञान के बिना योग्यता नहीं आती, परिश्रम के बिना ज्ञान नहीं आता। यही कारण है कि आजकल के युवाओं में सामान्य रूप से इन गुणों की कमी देखी जाती है। योग्यता के बिना विचार में,  वचन में एवं प्रामाणिकता का आभाव रहता है। जब आप किसी को कुछ कहते, बोलते, सुनते हैं, तो जब उससे उलट कर पूछा जाता है- क्या वास्तव में ऐसा है, आपके ऐसा कहने का आधार क्या है? सौ में नबे से अधिक व्यक्ति इधर-उधर झाँकने लगते हैं।

पुरानी शिक्षा जिसे अनुपयोगी समझते हैं, उसकी विशेषता है- वह शिक्षा मनुष्य को सहनशील, प्रामाणिक और उत्तरदायी बनाती है। आज किसी को कोई काम देकर आप निश्चिंत नहीं हो सकते, न तो कार्य होने का विश्वास है और न कार्य न हो पाने की सूचना। और यह कहा जाता है- तो क्या हो गया? हुआ तो कुछ नहीं, परन्तु उत्तरदायित्व का गुण समाप्त हो जाता है। इस मन्त्र के शबद घोषणा करके कह रहे हैं- घर की गृहिणी योग्य है, समर्थ है, उत्तरदायी है और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। ऐसी नारी की कल्पना करना आज कठिन है, परन्तु वेदों का आदर्श तो यही कहता है।

सृष्टि विज्ञान, वैदिक साहित्य और स्वामी दयानन्द

ओ३म्

सृष्टि विज्ञान, वैदिक साहित्य और स्वामी दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़े अनेक रहस्य हैं जिन्हें विज्ञान आज भी खोज नहीं पाया अथवा जिसका विज्ञान जगत व हमारे धार्मिक व सामाजिक लोगों का यथोचित ज्ञान नहीं है। महर्षि दयानंद सत्य-ज्ञान के जिसाज्ञु थे। उन्होंने धर्म-समाज-ज्ञान-विज्ञान किसी भी पक्ष की उपेक्षा न कर सभी विषयों का यथोचित ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से देश का भ्रमण कर उस समय उपलब्ध प्राचीन व प्राचीनतम ग्रन्थों सहित अधिकारी विद्वानों के उपलब्ध ग्रन्थों का भी अध्ययन कर उनमें उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त किया। ऐसा कर उनको अनेक नये तथ्यों व रहस्यों का ज्ञान हुआ जिसे वह अपने प्रवचनों में प्रस्तुत करते थे और जब उन्होंने साहित्य सृजन का कार्य किया तो सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों में उस ज्ञान का प्रसंगानुसार वर्णन किया। उनसे प्राप्त सृष्टि के रहस्य सम्बन्धी ज्ञान के लिए तो उनके सभी ग्रन्थों को पढ़ना आवश्यक है परन्तु आज के लेख में हम सत्यार्थप्रकाश से उनके कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे कुछ प्रमुख बातों का ज्ञान हो सके।

 

जगत की उत्पत्ति में कितना समय व्यतीत हुआ, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि एक अरब, छानवें करोड़, कई लाख और कई सहस्र वर्ष जगत् की उत्पत्ति और वेदों के प्रकाश होने में हुए हैं। इस का स्पष्ट व्याख्यान उन्होंने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में विस्तार से किया है, वहीं देखना उचित है। वह आगे बताते हैं कि सब से सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात् जो काटा नहीं जा सकता उसका नाम परमाणु है। साठ परमाणुओं के मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्वयणुक जो स्थूल वायु है, तीन द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अर्थात् तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उस का दोगुना होने से पृथिवी आदि दृश्य पदार्थ होते हैं। इसी प्रकार क्रम से मिला कर भूगोलादि परमात्मा ने बनाये हैं। यहां हम विचार करते हैं कि यदि स्वामी दयानन्द के जीवनकाल में कोई व्यक्ति उनसे परमाणु विषयक इस विवरण पर विस्तृत व्याख्या लिखने का अनुग्रह करता तो उत्तम होता जिससे हमें इस विषय के व्याख्या सहित उनके विस्तृत विचार ज्ञात हो सकते थे। उनसे इनका श्रोत व सन्दर्भ भी जाना जा सकता था। अब उनके न रहने पर हमें नहीं लगता की कोई ऐसा विद्वान है जो परमाणु विज्ञान उनके इन कथनों का आधुनिक विज्ञान से संगति लगाकर व समाधान कर सके।

 

अगला प्रश्न महर्षि दयानन्द यह लेते हैं कि इस सृष्टि का धारण कौन करता है। कोई कहता है शेष अर्थात् सहस्र फण वाले सप्र्प के शिर पर पृथिवी है। दूसरा कहता है कि बैल के सींग पर, तीसरा कहता है कि किसी पर नहीं, चैथा हता है कि वायु के आधार, पांचवां कहता है कि सूर्य के आकर्षण से खिंची वा खैंची हुई अपने स्थान पर स्थित, छठा कहता है कि पृथिवी भारी होने से नीचे-नीचे आकाश में चली जाती है इत्यादि। इनमें से किस बात को सत्य मानें? इसके उत्तर में वह कहते हैं कि जो शेष, सर्प्प और बैल के सींग पर धरी हुई पृथिवी स्थित बतलाता है उस को पूछना चाहिये कि सर्प्प और बैल के मां बाप के जन्म समय किस पर थी? तथा सर्प्प और बैल आदि किस पर हैं? बैल वाले मुसलमान तो चुप ही कर जायेंगे। परन्तु सप्र्प वाले कहेंगे कि सर्प्प कूर्म पर, कूर्म जल पर, जल अग्नि पर, अग्नि वायु पर तथा वायु आकाश में ठहरा है। उन से पूछना चाहिये कि सब किस पर हैं? तो अवश्य कहेंगे परमेश्वर पर। जब उन से कोई पूछेगा कि शेष और बैल किस का बच्चा है? शेष कश्यप-कद्रू और बैल गाय का। कश्यप मरीची, मरीची मनु, मनु विराट्, विराट् ब्रह्मा का पुत्र, ब्रह्मा आदि सृष्टि का था। जब शेष का जन्म ही नही हुआ था, उसके पहले पांच पीढ़ी हो चुकी है, तब किस ने धारण की थी? अर्थात् कश्यप के जन्म समय में पृथिवी किस पर थी? तो तेरी चुप मेरी भी चुप और लड़ने लग जायेंगे। इस का सच्चा अभिप्राय यह है कि जो बाकी रहता है उस को शेष कहते हैं। किसी कवि ने शेषाधारा पृथिवीत्युक्तम्  ऐसा कहा कि शेष के आधार पृथिवी है। दूसरे ने उसके अभिप्राय को न समझ कर सर्प्प की मिथ्याकल्पना कर ली। परन्तु जिसलिये परमेश्वर उत्पत्ति और प्रलय से बाकी अर्थात् पृथक रहता है इसी से उसको, परमेश्वर को, शेष कहते हैं और उसी के आधार पर पृथिवी है। सत्येनोत्तभिता भूमिःयह ऋग्वेद का वचन है। इसका अर्थ है कि जो त्रैकाल्याबाध्य है अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता उस परमेश्वर ने भूमि, सूर्य और सब लोकलोकान्तरों का धारण किया है। उक्षा दाधार पृथिवीमुत द्याम्, यह भी ऋग्वेद का वचन है। इसमें ‘‘उक्षा शब्द को देखकर किसी ने बैल का ग्रहण किया होगा क्योंकि उक्षा बैल का भी नाम है। परन्तु उस मूढ़ को यह विदित न हुआ कि इतने बड़े भूगोल के धारण करने का सामर्थ्य बैल में कहां से आयेगा? वैदिक साहित्य में उक्षा वर्षा द्वारा भूगोल के सेचन करने से सूर्य का नाम है। उस ने अपने आकर्षण से पृथिवी को धारण किया है। परन्तु सूर्यादि का धारण करने वाला बिना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं है। अतः महर्षि दयानन्द सभी उपलब्ध विवरणों की वैदिक साहित्य से तुलना कर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि इस सृष्टि को धारण करने वाला ईश्वर वा परमेश्वर ही है, और कोई नहीं। महर्षि दयानन्द समाधि सिद्ध अर्थात् ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार किये हुए अथवा ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति किये हुए मनुष्य वा विद्वान थे। वह वैज्ञानिकों के मत कि समस्त सौर्य मण्डल वा ब्रह्माण्ड को आकर्षण-अनुकर्षण, प्रत्येक पिण्ड की अपनी-अपनी धुरी व वृत्ताकार गति के कारण स्थित-स्थिर हैं वा गति कर रहे हैं, इनको स्वीकार करने के साथ परमेश्वर का इन सबका उत्पत्तिकर्ता व धारणकर्ता स्वीकार करते हैं।

 

इसी प्रसंग में एक अन्य प्रश्न महर्षि दयानन्द ने यह किया है कि इतने बड़े-बड़े  भूगोलों को परमेश्वर कैसे धारण कर सकता होगा? इसका उत्तर वह यह कहकर देते हैं कि जैसे अनन्त आकाश के सामने बड़े-बड़े भूगोल अर्थात् समुद्र के आगे जल के छोटे कण के तुल्य भी नहीं हैं, वैसे अनन्त परमेश्वर के सामने असंख्यात लोक एक परमाणु के तुल्य भी नहीं कह सकते। वह बाहर भीतर सर्वत्र व्यापक अर्थात् विभूः प्रजासु (यजुर्वेद वचन), वह परमात्मा सब प्रजाओं में व्यापक होकर सब का धारण कर रहा है। जो वह ईसाई, मुसलमान व पुराणियों के कथनानुसार विभू न होता तो इस सब सृष्टि का धारण कभी नहीं कर सकता था क्योंकि विना प्राप्ति (ईश्वर के सर्वव्यापक अर्थात् सबको सर्वत्र प्राप्त हुए बिना) के किसी को कोई धारण नहीं कर सकता। वह आगे कहते हैं कि यदि कोई कहे कि ये सब लोक-लोकान्तर परस्पर आकर्षण से धारित होंगे, पुनः परमेश्वर के धारण करने की क्या अपेक्षा है? उन को यह उत्तर देना चाहिये कि यह सृष्टि अनन्त है वा सान्त (अन्त वाली वा सीमित)? जो अनन्त कहें तो आकार वाली वस्तु अनन्त कभी नहीं हो सकती और जो सान्त कहें तो उनके पर भाग सीमा अर्थात् जिस के परे कोई भी दूसरा लोक नहीं है, वहां किस के आकर्षण से धारण होगा? जैसे समष्टि कहाता है और एक-एक वृक्षादि को भिन्न-भिन्न गणना करें तो व्यष्टि कहाता है, वैसे सब भूगोलों को समष्टि गिनकर जगत् कहें तो सब जगत् का धारण और आकर्षण का कर्ता विना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं। इसलिए जो सब जगत् को रचता है वही दाधार पृथिवीमुत द्याम्।।, यह यजुर्वेद का वचन है, इसमें कहा गया है कि जो पृथिव्यादि प्रकाशरहित लोक-लोकान्तर पदार्थ तथा सूर्यादि प्रकाश वाले लोक और पदार्थों का रचन व धारण परमात्मा ही करता है। जो सब में व्यापक हो रहा है वही सब जगत् का कर्ता और धारण करने वाला है।

 

महर्षि दयानन्द सौर मण्डल विषयक कुछ प्रश्नोत्तर प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पृथव्यादि लोग घूमते हैं वा स्थिर हैं? वह उत्तर में कहते हैं कि घूमते हैं। (प्रश्न) कितने ही लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता है और पृथिवी नहीं घूमती। दूसरे कहते हैं कि पृथिवी घूमती है सूर्य नहीं घूमता। इसमें सत्य क्या माना जाये? इसका उत्तर महर्षि दयानन्द वेदों के आधार पर देते हैं। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए। वेदों का ज्ञान और आधुनिक विज्ञान की खोजे परस्पर एक समान व पूरक हैं। पूर्व प्रश्न के उत्तर में महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के अध्याय 3 के मन्त्र 63 आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं प्रयन्त्स्वः।। को प्रस्तुत कर उसका अर्थ बताते हुए कहा है कि यह भूगोल समुद्र नदी के जल सहित सूर्य के चारों ओर घूमता जाता है इसलिए भूमि अर्थात् सम्पूर्ण पृथिवी घूमा करती है। एक अन्य वैज्ञानिक खोज को वेदों में दिखाने हेतु वह यजुर्वेद के 33/43 मन्त्र कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।। को प्रस्तुत कर कहते हैं कि जो सविता अर्थात् सूर्य वर्षादि का कर्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्तमान, सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप, वृष्टि वा किरण के साथ आकर्षण गुण से सह वर्तमान, अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। इसी प्रकार एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य प्रकाशक और दूसरे सब लोक-लोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे- दिवि सोमो अधि श्रितः।। यह अथर्ववेद का 14/1/1 मन्त्र है। इसका तात्पर्य बताते हुए दयानन्द जी कहते हैं कि यह चन्द्रलोक सूर्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्यान्ह, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देशदेशान्तरों में सदा वर्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्यावर्त में सूर्यादय होता है उस समय पाताल अर्थात् अमेरिका में अस्त होता है और जब आर्यावर्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्यावर्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है।

 

महर्षि दयानन्द ने सृष्टि रचना व इससे जुड़े विषयों पर जो तथ्य वैदिक साहित्य के आधार पर प्रस्तुत किये हैं वह अति विस्तृत एवं विज्ञानसम्मत हैं। इसके लिए उनके समस्त ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। महाभारत काल के बाद भारत के ब्राह्मण कहे जाने वाले विद्वानों ने वैदिक साहित्य की उपेक्षा कर अज्ञानयुक्त पुराणों आदि की रचना कर मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जाति आदि की मिथ्या परम्पराओं को प्रचलित किया। उन्होंने सांगोपांग वेदाध्ययन न कर इसका परिणाम सामाजिक व वैज्ञानिक उन्नति का कार्य बन्द कर दिया था जिसके कारण भारत का पतन हुआ। वहीं दूसरी ओर यूरोप के सुधीजनों ने वहां की विज्ञान विरूद्ध व विज्ञान रहित धार्मिक मान्यताओं की उपेक्षा कर विज्ञान की उन्नति पर अपना ध्यान व शक्ति को केन्द्रित किया जिसका परिणाम आज का आधुनिक विज्ञान है। हमारे पौराणिक विद्वान व संसार के अन्य मतवाले आज भी वहीं हैं जहां वह मध्यकाल में थे। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ऐसे पहले वैदिकधर्मी विद्वान उत्पन्न हुए जिन्होंने विज्ञान को धर्म को आवश्यक अंग स्वीकार किया और विज्ञान की उपेक्षा न कर उसका पोषण किया। महाभारत काल से पूर्व वैदिक धर्म विज्ञान का पूर्ण पोषक व आधार रहा है। इसी कारण महाभारत काल तक भारत में ज्ञान व विज्ञान सर्वोच्च रहा। ज्ञान व विज्ञान से युक्त धार्मिक मान्यतायें एवं इनके परस्पर समन्वय से धर्म, समाज व विज्ञान की उन्नति होकर मानवजाति को लाभ वा सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है। आज भी मध्यकालीन अज्ञानतापूर्ण मान्यतायें चाहे वह किसी भी मत व मतान्तर की हों, उचित नहीं कही जा सकती। सभी मतों व धर्मों को विज्ञान के आलोक में अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों का संशोधन कर अपने-अपने मत व धर्म को मनुष्यों के लिए अधिक उपयोगी, स्वीकार्य एवं परिणाम प्राप्ति में सहायक बनाना चाहिये। हम स्वामी दयानन्द के धर्म व विज्ञान के सन्तुलित सिद्धान्तों का अध्ययन करने व उसमें निहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति की प्ररेणा को आज के युग में सर्वाधिक प्रासंगिक व सभी मनुष्यों द्वारा ग्रहण किये जाने की आवश्यकता को अनुभव करते हैं क्योंकि इसी में मनुष्यजाति का कल्याण है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अथर्व – 6.26. -सूक्त-विष्णु देवता के मन्त्रों का वैज्ञानिक विवेचन

अथर्व – 6.26. -सूक्त-विष्णु देवता के मन्त्रों का वैज्ञानिक विवेचन

– आर.बी.एल. गुप्ता एवं डॉ. पुष्पागुप्ता

श्री आर.बी.एल. गुप्ता बैंक में अधिकारी रहे हैं। आपकी धर्मपत्नी डॉ. पुष्पागुप्ता अजमेर के राजकीय महाविद्यालय संस्कृत विभाग की अध्यक्ष रहीं हैं। उन्हीं की प्रेरणा और सहयोग से आपकी वैदिक साहित्य में रुचि हुई, आपने पूरा समय और परिश्रम वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगा दिया, परिणाम स्वरूप आज वैदिक साहित्य के सबन्ध में आप अधिकार पूर्वक अपने विचार रखते हैं।

आपकी इच्छा रहती है कि वैज्ञानिकों और विज्ञान में रुचि रखने वालों से इस विषय में वार्तालाप हो। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर इसवर्ष वेद गोष्ठी में एक सत्र वेद और विज्ञान के सबन्ध में रखा है। इस सत्र में विज्ञान में रुचि रखने वालों के साथ गुप्तजी अपने विचारों को बाँटेंगे। आशा है परोपकारी के पाठकों के लिए यह प्रयास प्रेरणादायी होगा।

 -सपादक

इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में विष्णु के वीर्य कर्मों को बताया गया है। विष्णु गुरुत्वाकर्षण शक्ति के अधिष्ठाता देव हैं। वेद के जिन मन्त्रों में अथवा ब्राह्मण ग्रन्थों में जहाँ पर भी विट्,विशः, विष्णु शबद आते हैं- वहाँ पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति से सबन्धित व्याखयान हैं- ऐसा निश्चित रूप से समझ लेना चाहिये। विष्णु का प्रथम वीर्य कर्म है-पार्थिव रजों को नापना अर्थात पिण्ड की मात्रा के अनुसार गुरुत्वाकर्षण शक्ति का होना। दूसरा वीर्य कर्म है- उत्तर सधस्थ (उत्तम स्थान पर स्थित पिण्ड) को त्रेधा विचक्रमण (तीन प्रकार से धारित शक्ति से पिण्ड को चक्रित करना) तथा उरुगमन (एक बिन्दु से विस्तृत होते हुए जाना) प्रक्रियाओं से स्कंभित करना।

पार्थिव रज का तात्पर्य हैगुरुत्वाकर्षण (g) ऋ. 1.35.4 में कृष्णा रजांसि पद, ऋ. 1.35.9 में कृष्णेन रजसा पद, ऋ. 1.12.5 में अन्तरिक्षे रजसो-विमानः इन मन्त्रों में-कृष्णरज-पार्थिवरज-शबदों में वैज्ञानिक अर्थ है- g (गुरुत्वाकर्षण)। कोई भी भौतिक कण चाहे कितना भी हल्का क्यों न हो, जब तक एक निश्चित आकृति (volume) एवं निश्चित मात्रा (m) का बनकर एक निश्चित कण का रूप ले लेता है, तब उसमें एक निश्चित घनत्व एवं निश्चित गुरुत्वाकर्षण (g) आ जाता हैं। एक निश्चित आकृति के कण को वेदमन्त्रों में मृग कहा गया हैं। ऋ. 1.154.2 (अथर्व 7.26.2) में-मृगःनभीमःकुचरःगिरिष्ठा पद में गिरि में स्थित कुत्सित गति वाला भयानक मृग- यह अर्थ एक निश्चित मात्रा में आये कण जिसमें गुरुत्वशक्ति आ गई है- के लिये कहा गया हैं।

त्रेधा विचक्रमण क्या है ? हमारी पृथ्वी एवं सूर्य का उदाहरण-

पृथ्वी अपनी धुरी (axis) पर एक अहोरात्रि में पूरी घूम जाती है, तथा साथ ही लगभग 25000 कि.मी. दूरी सूर्य की परिक्रमा करती हुई आगे बढ़ती है। यहाँ पृथ्वी में दो प्रकार की गति (चक्रमण) है- (1.) अपनी धुरी पर घूमना (2.) सूर्य के परिक्रमा पथ पर घूमते हुये ही आगे बढ़ना।

सूर्य पृथ्वी से कई लाख गुणा आकार में अधिक है, तथा 15 करोड़ किलो मीटर दूरी पर है, फिर भी सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति घूमती हुई पृथ्वी को सतत अपनी ओर आकर्षित करती है। सूर्य की इस शक्ति को निःशेष करने के लिये पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है तथा परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ती है। इस प्रकार पृथ्वी का जो विचक्रमण हो रहा है, उसका कारण यह तीन प्रकार से पृथ्वी पर धारित शक्तियों के कारण हैं। यदि ऐसा न हो तो पृथ्वी सूर्य में गिरकर सूर्य में समा जायेगी। ऐसी स्थिति प्रलय अवस्था में अवश्य आयेगी।

उरुगमनजंघाओं को फैलाकर जब हम खड़े होते हैं- जब जंघाओं की स्थिति इस प्रकार की होती है, इसे विज्ञान की भाषा में उरुगमन कहते हैं (divertion of rays)। गुरुत्व शक्ति की किरणें इसी नियम का पालन करती हैं।

विष्णु का 3 पदों में विचक्रमण क्या है?

ऋ. 1.164.2 में त्रिनाभि चक्रं अजरं अनर्वं पद आया है। वेद मन्त्रों में आया त्रिनाभि चक्र- अण्डाकार आकृति को बताता है- जिसमें तीन केन्द्रबिन्दु (नाभियाँ) होती हैं। पृथ्वी का सूर्य की परिक्रमा का मार्ग भी अण्डाकार है। इस अण्डाकार मार्ग का मूल सिद्धान्त है- केन्द्र में बड़ा पिण्ड जैसे सूर्य उसके दोनों तरफ दो और केन्द्र बिन्दु् A व B होते हैं। पृथ्वी (E) इस प्रकार घूमती है कि पृथ्वी का इन दोनों बिन्दुओं A व B से दूरी का योग हमेशा समान अर्थात् दूरी् AE + BE का योग हमेशा समान रहेगा तथा इस प्रकार पृथ्वी का परिभ्रमण मार्ग अण्डाकार बन जाता है।

यही उदाहरण सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करनेवाले अन्य ग्रह-बुध, शुक्र, मंगल, ब्रहस्पति, शनि आदि में भी दिया जा सकता है। यही नहीं, अति सूक्ष्म परमाणु में भी प्रोटोन एवं इलेक्ट्रोन भी इसी त्रिनाभि चक्रं-त्रेधा विक्रमण आदि नियमों का पालन करते हैं।

इन्द्रस्य युज्यसखाः इस सूक्त के मन्त्र संखया 6 में यह पद आया है। इन्द्र दिव्य रजः (emt) का अधिष्ठाता देव है, तथा विष्णु पार्थिव रजः (g) का। परमाणु के अन्दर प्रोटोन का उदाहरण- प्रोटोन के दो भाग हैं- (1.) पार्थिव भाग (matter) तथा (2.) दिव्य भाग (e.m.t)। इसी प्रकार इलेक्ट्रॉन भी है, पर उसमें विद्युत शक्ति – है जबकि प्रोटोन में + है। प्रोटोन तथा इलेक्ट्रोन के मध्य भी दो प्रकार की आकर्षण शक्ति (1) विद्युत शक्ति का आकर्षण (इन्द्र की शक्ति) एवं (2) गुरुत्वाकर्षण शक्ति (विष्णु की शक्ति)। अतःमन्त्र 6 में कहा है कि विष्णु के कर्मों को देखो जहाँ वह व्रतों को स्पर्श करता है तथा इन्द्र का योजित सखा है। प्रोटोन तथा इलेक्ट्रोन दोनों परामाणु के अन्दर अपने-अपने व्रत्तों में घूमते हैं- एक-दूसरे के व्रत्त (orbit) को स्पर्श करते हुए।

मन्त्र 7 में सूर्यःविष्णु के परम् पद को सदा देखते हैं। यहाँ परम पद से तात्पर्य है गुरुत्व शक्ति का केन्द्र बिन्दु (center of gravity )

मन्त्र 4 में समूढं अस्य पांसुरे।पांसुरे शबद (collective) अर्थ में है। छोटा पिण्ड हो या बड़ा, मात्रा अधिक या कम होने से पूरे पिण्डकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति कम या अधिक हो जायेगी, परन्तु समूह रूप में पूरे पिण्ड की गुरुत्वाकर्षण शक्ति केन्द्र बिन्दु (पांसुरे पद) में गुप्त रूप से निहित हो जाती है।

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ? मानव का प्रादुर्भाव कहाँ ? – 2

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ?

मानव का प्रादुर्भाव कहाँ ?

– आचार्य पं. उदयवीरजी शास्त्री

पिछले अंक का शेष भाग…………

उत्तर- प्रयोजन कामनामूलक होता है।ब्रह्म को ब्रह्मज्ञानियों ने पूर्णकाम व आप्तकाम बताया है, इसलिये सृष्टि रचना में ईश्वर का कामनामूलक कोई निजी प्रयोजन नहीं रहता। यह एक व्यवस्था है और ईश्वरीय व्यवस्था है, वह स्वयं अपनी व्यवस्था से बाहर नहीं जाता, उसके नियम सत्य हैं और पूर्ण हैं। उनके अनुसार ईश्वर सृष्टि रचना करता है- जीवात्माओं के भोग और अपवर्ग की सिद्धि के लिये। उसका यह कार्य उसकी एक स्वाभाविक विशेषता है, इसमें कभी कोई अन्तर या विपर्यास आने की संभावना नहीं की जा सकती। सृष्टि रचना के द्वारा ही परमात्मा का बोध होता है और इस मार्ग से जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त करता है। जब यह प्राप्त नहीं होता, तब कर्मों को करता और उनके अनुसार सुख-दुःख आदि फलों को भोगा करता है, सृष्टि-रचना का यही प्रयोजन है।

निराकार से साकार सृष्टि कैसे ?

प्रश्न- ईश्वर को निराकार माना जाता है, वह निराकार होता हुआ सृष्टि की रचना कैसे करता है? लोक में देखा जाता है कि कोई भीकर्त्ता देहादि साकार सहयोगी के बिना किसी प्रकार की रचना करने में असमर्थ रहता है, तब निराकार ईश्वर इस अनन्त विश्व की रचना करने में कैसे समर्थ होता है?

उत्तर – अनन्त विश्व की रचना करने वाला निराकार ही समर्थ हो सकता है। जहाँ ईश्वर को निराकार माना गया है, वहाँ उसे सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान भी कहा गया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ‘सर्वशक्तिमान्’ का यही तात्पर्य है कि वह जगद्रचना में अन्य किसी सहायक की अपेक्षा नहीं रखता, उसमें अनन्त शक्ति व पराक्रम है, उसका चैतन्यरूप सामर्थ्य असीम है, वह उसी सामर्थ्य द्वारा मूल उपादान जड़ प्रकृति को प्रेरित करता है, उसकी अनन्त सामर्थ्ययुक्त व्यवस्था सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों में सर्वत्र व्याप्त है। वह कण-कण में अपना कार्य किया करती है। जीवात्मा अल्पज्ञ, अल्प शक्ति एवं एकदेशी है। उसे अपने किसी कार्य को संपन्न करने के लिये अन्तरंग साधनकरण (बुद्धि मन आदि) तथा बाह्य साधन देह एवं देहावयवों की अपेक्षा रहती है, इसलिये लोक में देखी गई स्थूल व्यवस्था के अनुसार ऐश्वरीसृष्टि के विषय में ऊहा करना उपयुक्त न होगा।

यदि गभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो जीवात्मा द्वारा की जानेवाली प्रेरणाओं में उस स्थिति को पकड़ा जा सकता है, जहाँ किसी साकार सहयोगी की अपेक्षा नहीं जानी जाती। विचार कीजिये, आप कुर्सी पर बैठे हैं, मेज आपके सामने है, मेज पर आपका हाथ निश्चेष्ट रक्खा हुआ है, उससे कुछ दूर मेज के कोने पर कलम रक्खा है, आप उसे उठाकर कुछ लिखना चाहते हैं। आपकी इस इच्छा के साथ ही हाथ में हरकत होती है, वह ऊपर उठता और अँगुलियों में कलम पकड़ कर फिर पहली जगह आ टिकता है। अब विचारना यह है कि हाथ में उठने के लिये जो क्रिया हुई है, वह एक प्रेरणा का फल है, देह के अन्दर बैठा जो आपका चेतन आत्मा है, उसी से यह प्रेरणा प्राप्त होती है। प्रेरणा देने की सीमा में चैतन्य के अतिरिक्त किसी अन्य साकार सहयोगी का समावेश नहीं है। यहाँ केवल चेतन आत्मा प्रेरणा दे रहा है, जो निराकार है। उसके अन्य साधन बुद्धि, मन आदि प्रेर्यमाण सीमा में आते हैं, प्रेरक सीमा में नहीं। इससे यह परिणाम निकलता है कि चैतन्य एक ऐसा तत्त्व है, जो प्रेरणा का अन्य आधार व स्रोत है, जिसमें किसी अन्य साकार सहयोगी की अपेक्षा नहीं रहती। जीव-चेतन की शक्ति जैसे अति सीमित है, ऐसे ब्रह्म-चेतन की शक्ति असीमित है, जैसे जीव केवल देह में प्रेरणा प्रदान करता है, ऐसे परमेश्वर अनन्त सामर्थ्य युक्त होने से अनन्त विश्व को प्रेरित करता है। सृष्टि रचना के विचार में यदि साकार सहयोगी की कल्पना की जाय तो वस्तुतः यह रचना ही असम्भव हो जायेगी, क्योंकि वह सहयोगी भी बिना रचना के असंभव होगा। फलतः अनन्त विश्व की रचना के लिये निरपेक्ष निराकार चैतन्य ही समर्थ हो सकता है, यह निश्चित है।

 

बिना कारण क्यों नहीं?

प्रश्न– ईश्वर जब सर्वशक्तिमान् है , तो वह बिना कारण के ही जगत् को क्यों नहीं बना देता?

उत्तर – यह संभव नहीं। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता, कारण न होना ‘अभाव’ का स्वरूप है, जो अभाव है, वह कभी भाव रूप में परिणत नहीं हो सकता और न भाव रूप पदार्थ का कभी सर्वथा अभाव होता है। बिना कारण अथवा अभाव से जगत् की उत्पत्ति कहना बन्ध्या पुत्र के विवाह के समान मिथ्या है।

प्रश्नजब कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता, तो कारण का भी कोई कारण मानना होगा, और उसका भी कोई अन्य कारण, इस प्रकार तुमहारे इस कथन में अनवस्था दोष आता है कि कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता।

उत्तरहमने यह नहीं कहा कि कारण के बिना कुछ नहीं हो सकता। ऐसे भी पदार्थ हैं, जो किसी के कारण हैं, पर वे स्वयं किसी के कारण हैं, तो वे स्वयं किसी के कार्य भी हैं। ऐसे पदार्थों को ‘कारण-कार्य’ अथवा  ‘प्रकृति-विकृति’ कहा जाता है। जैसे घड़ा मिट्टी से बनता है, मिट्टी पृथ्वीरूप है, पृथ्वी घड़े मकान आदि का कारण होते हुए भी अपने कारणों का कार्य है, अर्थात जिन कारणों से पृथ्वी की रचना होती है, उनका कार्य है। परन्तु जो सब कार्य जगत् का मूलकारण है, उसका और कोई कारण नहीं होता, जगत् का  मूल उपादान कारण अनादि पदार्थ है, वह किसी से उत्पन्न या परिणत नहीं होता, यदि ऐसा होता तो वह मूलकारण नहीं हो सकता था। इस प्रकार जैसे जगत् का कर्त्ता निमित्त कारण ईश्वर अनादि है, वैसे ही जगत् का मूल उपादान कारण प्रकृति भी अनादि है। उसका अन्य कोई कारण संभव नहीं, क्योंकि वह कार्य नहीं, केवल कारण है, अतएव अनवस्था दोष की यहाँ संभावना नहीं हो सकती।

 

अन्यवादों का विवेचन

प्रश्न- आप प्रकृति उपादान से जगत् की सृष्टि कहते हैं, पर अन्य अनेक आचार्यों के सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विविध विचार हैं, क्या उनमें कोई सत्यता नहीं है? उन विचारों को निम्नलिखित वादों के रूप में उपस्थित किया जा सकता है-शून्यवाद, अभाववाद, आकस्मिकवाद, सर्वानित्यत्ववाद, भूतनित्यत्ववाद, पृथक्त्ववाद, इतरेतराभाववाद, स्वभाववाद, जगदनादिवाद, जीवेश्वरवाद आदि। क्या इनके अनुसार सृष्टि की यथार्थ व्याखया संभव नहीं?

उत्तर – इन वादों के आधार पर सृष्टि की सत्य एवं पूर्ण व्याखया होना समभव नहीं, ये सब एकदेशी, अवैदिकवाद हैं, जो किसी एक अंश पर धुँधला-सा प्रकाश डालते हैं, कहीं वह भी नहीं, प्रत्युत प्रकाश की जगह अन्धकार का ही विस्तार करते हैं। जगत् की यथार्थ विद्यमानता पहले दोनों वादों को ठुकरा देती है। किसी वस्तु का होना कहना अथवा उत्पन्न होना बताना और उसे अकस्मात् कहना परस्पर विरोधी हैं। जो वस्तु उत्पन्न होती है, वह निश्चित ही अपने कारणों से होगी, यह अलग बात है कि हम उन कारणों को जान सकें या न जान सकें। सब वस्तु अनित्य है, अथवा भूतनित्य हैं, इसलिए सब वस्तु नित्य हैं, ये कथन अपने ही में मिथ्या है। किसी वस्तु का नित्य या अनित्य होना विशिष्ट निमित्तों पर आधारित है, उत्पन्न होने वाली वस्तु अनित्य तथा उत्पादन-विनाश से रहित वस्तु नित्य कही जाती है, यह एक व्यवस्था है। प्रत्येक वस्तु न नित्य हो सकती है, न अनित्य।

पृथक्त्ववाद आधुनिक रसायन शास्त्र से पर्याप्त सीमा तक मेल रखता है। रसायन  शास्त्र के अनुसार आज तक ऐसे एक सौ दो पदार्थों का पता लग चुका है, जो मूल रूप में एक दूसरे से पृथक है, एक दूसरे में किसी का कोई अंश नहीं है, भविष्य में और भी ऐसे अनेक पदार्थों का पता लग जाने की संभावना है। सोना, चाँदी, लोहा, तांबा, पारा, गन्धक, जस्ता, सीसा, कैल्शियम, आक्सीजन, हाइड्रोजन, कॉर्बन, नाईट्रोजन, सिलिकन्, फास्फोरस, ऐल्युमिनिअम, आर्सनिक, प्लैटिनम्आदि सब ऐसे पदार्थ हैं, जो सर्वथा एक दूसरे से पृथक है। किसी में किसी का कोई अंश नहीं है, पर भौतिकी विज्ञान ने ही इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया है कि ये सब किन्हीं मूलतत्त्वों के समिश्रण से बने हैं। वे मूल तत्त्व प्रोटॉन, इलैक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन् हैं, भारतीय दार्शनिकविचार के अनुसार इन्हें यथाक्रम सत्व, रजस्, तमस् के  वर्ग में समझा जा सकता  है। वैसे भी उक्त पदार्थों में से प्रत्येक में आकाश, काल, सामान्य (जाति) एवं नियन्ता शक्ति परमात्मा आदि का विद्यमान रहना अनिवार्य है, इसलिये स्वरूप से इनके पृथक रहते भी इनमें अन्य पदार्थों का अस्तित्व रहता ही है।

पदार्थों के इतरेतराभाव से सब पदार्थों का अभाव बताना सर्वथा प्रत्यक्ष विरुद्ध है। गाय घोड़ा नहीं, घोड़ा गाय नहीं, इसलिये न गाय है न घोड़ा, ऐसा कहना नितान्त विचार शून्य है।यद्यपि गाय घोड़ा नहीं है, पर गाय गाय है, घोड़ा घोड़ा है, उनके अपने अस्तित्व को कैसे झुठलाया जा सकता है?

‘स्वभाव’ से जगत् की उत्पत्ति कहना, किस अर्थ को प्रकट करता है, यह विचारणीय है। स्वभाव में ‘स्व’ पद का अर्थ क्या है? यदि पद मूलकारण को कहता है, तो इस पद मात्र के अलग कहने से कोई अन्तर नहीं आता, अपने मूल कारण से जगत् उत्पन्न होता है, यही उसका तात्पर्य हुआ। इसी प्रकार वर्तमान रूप में जगत् को अनादि कहना प्रमाण विरुद्ध है। जागतिक वस्तुओं में परिणाम व परिवर्तन अथवा उत्पादन-विनाश बराबर देखा जाता है, जो इसके बने हुए होने को सिद्ध करता है, इसी रूप में जगत् को अनादि कहना अयुक्त है। पृथिव्यादि पदार्थ अवयव संयोग से बने परीक्षा द्वारा प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। यह कहना भी सर्वथा अयुक्त है कि जगत् का कर्त्ता ईश्वर कोई नहीं, जीवात्मा ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त होकर जगद्रचना कर सकते हैं। जीवात्मा को सिद्ध अवस्था तक पहुँचने के लिये भी संसार की आवश्यकता है, यह संसार किसने बनाया ? किसी जीवात्मा का अनादि सिद्ध होना सभव नहीं। यदि कोई चेतन आत्मतत्त्व सृष्टि रचना का सामर्थ्य रखने वाला अनादि सिद्ध माना जाता है, तो उसे ही परमात्मा कहा जा सकता है।

सृष्टि का क्रम प्रवाह से अनादि है, उत्पत्ति स्थिति और प्रलय जगत् के अनादिकाल से चले आते हैं, अनन्त काल तक इसी प्रकार चलते रहेंगे, यह ऐश्वरी व्यवस्था है। कल्प-कल्पान्तर में परमेश्वर ऐसी ही सृष्टि को बनाता, धारण करता एवं प्रलय करता रहता है। ईश्वर के कार्य में कभी भूल-चूक या विपर्यास नहीं होता।

दर्शनों में विरोध

प्रशन- सृष्टि विषय में क्या वेदादि शास्त्रों का एवं भारतीयदर्शनों का परस्पर विरोध नहीं है? कहीं आत्मा से, कहीं परमाणु से, कहीं प्रकृति से, कहीं ब्रह्म और काल एवं कर्म से सृष्टि कही है। इनमें स्पष्ट विरोध प्रतीत होता है ।

उत्तर– इनमें विरोध कोई नहीं, ये सब एक दूसरे के पूरक हैं। प्रत्येक कार्य अनेक कारणों से बनता है। यह कहा जा चुका है, कार्यमात्र के तीन कारण हुआ करते हैं, निमित्त, उपादान और साधारण। न्यायादिदर्शनों में जगत् के विभिन्न कारणों का वर्णन है और उसके लिये अन्य उपयोगी विधियों का। प्रत्येक वस्तु की सिद्धि के किसी भी स्वर पर हमें प्रमाणों का आश्रय लेना पड़ता है, इस स्थिति का कोई दर्शन विरोध नहीं करता। तत्त्व विषयक जिज्ञासा होने पर प्रारमभ में शिक्षा का उपक्रम वहीं से होता है, जिनका प्रतिपादन वैशेषिक दर्शन करता है। तत्त्वों के स्थूल-सूक्ष्म साधारण स्वरूप और उनके गुण-धर्मों की जानकारी पर ही आगे तत्त्वों की अतिसूक्ष्म अवस्थाओं को जानने-समझने की ओर प्रवृत्ति एवं क्षमता का होना समभव है। प्रमाण और बाह्य प्रमेय का विषय न्याय-वैशेषिक दर्शनों में प्रतिपादित किया गया है। तत्त्वों की उन अवस्थाओं और चेतन-अचेतन रूप में उनके विश्लेषण को सांय प्रस्तुत करता है। चेतन-अचेतन के भेद को साक्षात्कार करने की प्रक्रियाओं का वर्णन योग में है। इन प्रक्रियाओं के मुखय साधन भूत मन की जिन विविध अवस्थाओं के विश्लेषण का योग में वर्णन है, वह मनोविज्ञान की विभिन्न दिशाओं का केन्द्र भूत आधार है। समाज के कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का वर्णन मीमांसा एवं समस्त विश्व के संचालक व नियन्ता चेतन तत्त्व का वर्णन वेदान्त करता है। यह ज्ञान साधन कार्यक्रम भारतीय संस्कृति के अनुसार वर्णाश्रम धर्मों एवं कर्त्तव्यों के रूप में पूर्णतया व्यवस्थित है। इन उद्देश्यों के रूप में कहीं किसी का किसी के साथ विरोध का उद्भावन अकल्पनीय है। दर्शनों में जिन तत्त्वों का निरूपण किया है, सृष्टि रचना में एक दूसरे के पूरक होकर वे तत्त्व पहले कहे तीन कारणों में अन्तर्हित अथवा समाविष्ट हैं, इनमें विरोध का कहीं अवकाश नहीं।

प्राणी का प्रादुर्भाव कैसे ?

प्रश्न– पृथिव्यादि लोक-लोकान्तर तथा पृथिवी पर औषधि वनस्पति आदि उत्पन्न हो जाने पर संचरण शील प्राणी का प्रादुर्भव कैसे होता है? चालू सर्ग क्रम में ऐसे प्राणी का प्रजनन मिथुन मूलक देखा जाता है, यह स्थिति सर्वादिकाल में होनी संभव नहीं। यह एक उलझन भरी समस्या है कि सर्वप्रथम प्राणी का प्रादुर्भाव कैसे हुआ।

उत्तर-सर्वप्रथम प्राणी का प्रादुर्भाव बाह्य मिथुन मूलक नहीं होता। परमात्मा अपनी अचिन्त्य शक्ति एवं व्यवस्था के अनुसार स्त्री-पुरुषों के शरीर बनाकर उनमें जीवों का संयोग कर देता है। शरीर की रचना जिस प्रक्रिया के अनुसार चालू होती है, उसमें जीवात्मा का संचार प्रथमतः हो जाता है। प्राणी शरीर की रचना अत्यन्त जटिल है, शरीर-रचना की इस सुव्यवस्था को देखकर रचना करने वाले का अनुमान होता है। जो व्यवस्था जिस प्राणी वर्ग में निहित कर दी गई है, वह चालू संसार के मिथुन-मूलक प्रजनन में अब तक चली आ रही है और प्रलय पर्यन्त चलती रहेगी। इससे आदि शरीर की रचना बाह्य मैथुन रहित केवल परमात्मा की नित्य व्यवस्था के अनुसार होती है। यह अनुमान वर्तमान में देखी गई व्यवस्था के आधार पर किया जा सकता है।

प्रश्न– इतने कथन से आदि सर्ग में मानव शरीर रचना की प्रक्रिया का स्पष्टीकरण नहीं होता। इसका और स्पष्ट विवरण देना चाहिए।

उत्तरआदि सर्ग में प्राणी देह की रचना ऐश्वरी सृष्टि में गिनी जाती है। सर्वप्रथम जो प्राणी हुए, विशेषतः मानव प्राणी, उनका पालन-पोषण करने वाला माता-पिता आदि कोई न था, इसलिये यह निश्चित समभावना होती है कि वे मानव किशोर अवस्था में प्रादुर्भूत हुए, कतिपय आधुनिक वैज्ञानिक भी ऐसा मानने लगे हैं। बोस्टन नगर के स्मिथसोनियन इन्स्टीट्यूट के जीव विज्ञान शास्त्र के अध्यक्ष डॉ. क्लॉर्क का कथन है- मानव जब प्रादुर्भूत हुआ, वह विचार करने, चलने फिरने और अपनी रक्षा करने के योग्य था- Man appeared able to think walk and defend himself.

समस्या यह है कि मानव ऐसा विकसित देह सर्वप्रथम प्रादुर्भूत कैसे हुआ? उसकी रचना किस प्रकार हुई होगी? सचमुच यह समस्या अत्यन्त गमभीर है। ऐसी स्थिति में ऐसे शरीरों का प्रकट हो जाना अनायास बुद्धिगमय नहीं है। इसे समझने के लिये हमें चालू सर्ग काल के प्रजनन की स्थिति पर ध्यान देना चाहिये, समभव है वहाँ की कोई पकड़ इस समस्या को सुलझाने में सहयोग दे सके। साधारण रूप से प्रजनन की विधा चार वर्गों में विभक्त है- जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज और स्वेदज अथवा ऊष्मज। अन्तिम वर्ग अति सूक्ष्म, अदृश्य कृमि-कीटों से लगाकर दृश्य क्षुद्र जन्तुओं तक का है। इस वर्ग के प्राणी का देह नियत ऊष्मा पाकर अपने कारणों से उदभूत हो जाता है। उद्भिज्ज वर्ग वनस्पति का है। चालू सर्ग काल में देखा जाता है कि बीज से वृक्ष होता है, पर सबसे पहले वृक्ष का बीज कैसे हुआ, यह विचारणीय है। निश्चित है कि वह बीज वृक्ष पर नहीं लगा, तब यही अनुमान किया जा सकता है कि उसकी रचना प्रकृति गर्भ में होती रही होगी। बीज में प्रजनन शक्ति-अंश एक कोष (खोल) में सुरक्षित रहता है, यह स्पष्ट है। वृक्ष पर बीज के निर्माण की प्रक्रिया भी नियन्ता की व्यवस्था के अनुसार प्रकृति का एक चमत्कार है। वंश बीज-निर्माण की प्रक्रिया क्या है, प्रजनन-अंश किस प्रकार कोष में सुरक्षित हो जाते हैं, जड़ से बीज तक कैसे उसका निर्माण होता आता है, इसे आज तक किसने जाना है? इसी प्रकार अण्डज वर्ग में बीज एक अति सुरक्षित कोष में आहित रहता है, इस वर्ग में कीड़ी तथा उससेा भी अन्य कतिपय सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर अनेक सरीसृप जाति के प्राणी स्थलचर तथा  जलचर एवं नभचर पक्षी जाति का समावेश है। विभिन्न जातियों के देहों के अनुसार कोश की रचना छोटी-बड़ी देखी जाती है। इस वर्ग का भ्रूण एक विशेष प्रकार के खोल से सुरक्षित रहता है, मातृ-गर्भ र्में उपयुक्त पोषण प्राप्त कर गर्भ से बाहर भी नियत काल तक कोश युक्त रहता हुआ पोषण प्राप्त करता है। भ्रूण का यथायथ परिपाक होने पर खोल फटता है और बच्चा निकल आता है, यह प्रकृति का एक चमत्कार है। इस वर्ग में उत्पत्ति काल की दृष्टि से कुछ अधिक बड़े देह वाले प्राणियों का सामावेश है तथा यह एक विचारणीय बात है कि भ्रूण का गर्भ से बाहर भी परिपोषण होता है।

अण्डज वर्ग के आगे बड़ी देह वाला प्राणी-वर्ग जरायुज है, जिसमें मानव एवं समस्त पशु-मृग आदि का समावेश है। कोश में भ्रूण के परिपोषण की प्राकृत व्यवस्था इस वर्ग में भी समान है। मातृगर्भ भ्रूण पूर्णाङ्ग होने तक जरायु में परिवेष्टित रहता है। स्निग्ध सुदृढ़ चमड़े जैसे पदार्थ की थैली का नाम जरायु है, पूर्णाङ्ग होने पर बालक इसको भेदकर ही मातृगर्भ से बाहर आता है। इस प्रकार भ्रूण की सुरक्षा, उपयुक्त पुष्टि व वृद्धि तक के लिए उसका विशिष्ट कोश में परिवेष्टित होना सर्वत्र प्राणी-वर्ग में समान है। यह एक ऐसी नियत व्यवस्था है, जो प्राणी के प्रादुर्भाव की आद्य-स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। चालू सर्ग काल अथवा मैथुनी सृष्टि में नर-मादा का संयोग प्राणी के साजात्य प्रजनन की जिस स्थिति को प्रस्तुत करता है, वह स्थिति अमैथुनी सृष्टि में प्राकृत नियमों वव्यवस्थाओं के अनुसार प्रकृति गर्भ में प्रस्तुत हो जाती है। इस व्यवस्था से और अण्डज वर्ग के सामान मातृगर्भ से बाहर भ्रूण की परिपोषण प्रक्रिया से यह अनुमान होता है कि सर्व-प्रथम आदिकाल में मानव आदि बड़े की रचना प्रकृति पोषित सुरक्षित उपयुक्त कोशों द्वारा हुई होगी। चालू सर्ग काल में देहों के अनुसार कोषों के आकार में विभिन्नता देखी जाती है। यह समभव है, आदि काल में प्रकृति निर्मित उपयुक्त कोशों में सुरक्षित एवं परिपोषित मानव आदि के किशोरावस्थापन्न सजीव देह यथावसर प्रादुर्भूत हुए हों। आदिसर्ग में विविध प्राणियों का अनेक संखया में प्रादुर्भाव हो जाता है, यह मानने में कोई बाधा नहीं है। यह सब जीवों के कर्मानुसार ऐश्वरी व्यवस्था के सहयोग से हुआ करता है।

आदिमानव का मूलस्थान

प्रश्न– सर्व प्रथम मानव का प्रादुर्भा व पृथ्वी के किस प्रदेश पर हुआ?

उत्तर– भारतीय साहित्य के आधार पर अनेक दिशाओं से यह स्पष्ट होता है कि मानव का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव ‘त्रिविष्टप’ नामक प्रदेश में हुआ, जो वर्तमान तिबत के कैलाश, मानसरोवर प्रदेश तथा उससे सुदूर पश्चिम और कुछ दक्षिण-पश्चिम की ओर फैला हुआ था। कुछ समय पश्चात गंगा सरस्वती आदि नदी घाटियों के द्वारा आर्यों ने भारत प्रदेश में आकर निवास किया और इसका आर्यावर्त्त नाम रक्खा, सर्वप्रथम यहाँ आर्यों का निवास हुआ। उनसे पहले यहाँ अन्य किसी मानव का निवास नहीं था। आर्यों का मूलस्थान और यह भूभाग एक ही देश था। आर्य कहीं बाहर से यहाँ कभी नहीं आये। इक्ष्वाकु से लेकर कौरव-पाण्डव पर्यन्त पृथ्वी के इन समस्त भागों पर आर्यों का अखण्ड राज्य और वेदों का थोड़ा-थोड़ा सर्वत्र प्रचार रहा। अनन्तर आर्यों का आलस्य, प्रमाद और परस्पर का विरोध समस्त ऐश्वर्य एवं विभूतियों को ले बैठा। पृथिव्यादि लोकों की लगभग एक अरब सत्तानवें करोड़ वर्ष की आयु में अब तक आर्यों का अधिक काल अभयुदय का बीता है। वेद धर्म पर प्रज्ञा पूर्वक आचरण करने से अब भी उत्कृष्ट अभयुदय की सभावना की जा सकती है।

इस प्रकार सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ने अतिसूक्ष्म प्रकृति रूप उपादान कारण से जगत् को बनाया, जो असंखय पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। ये समस्त लोक अपनी गति एवं परस्पर के आकर्षण से ऐश्वरी व्यवस्था के अनुसार अनन्त आकाश में अवस्थित हैं। जैसे परमेश्वर इन सबका उत्पादक है, वैसे ही इनका धारक एवं संहारक भी रहता है। हमारी इस पृथ्वी के समान अन्य लोक-लोकान्तरों में भी प्राणी का होना संभव है। जीवात्माओं के कर्मानुष्ठान और सुख-दुःखादि फलों को भोगने तथा आत्म-ज्ञान होने पर अपवर्ग की प्राप्ति जगद्रचना का प्रयोजन है। असंखय लोकान्तरों की रचना का निष्प्रयोजन होना असभव है, अतःलोकान्तरों में भी प्राणी का होना समभव है। वेद का ज्ञान सबके लिए समान है। समस्त विश्व पर परमेश्वर का नियन्त्रण रहता है। उसी व्यवस्था के अनुसार सब तत्त्व अपना कार्य किया करते हैं।

अग्निहोत्र यज्ञ से अनेक लाभ व इसके कुछ पक्षों पर विचार

ओ३म्

अग्निहोत्र यज्ञ से अनेक लाभ इसके कुछ पक्षों पर विचार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्रतिदिन प्रातः व सायं अग्निहोत्र करने का विधान वेदों में है। वेद के इन मन्त्रों को महर्षि दयानन्द ने अपनी पंचमहायज्ञ  विधि में प्रस्तुत किया है। यहीं से यज्ञ व अग्निहोत्र परम्परा का आरम्भ हुआ। वेद के मन्त्र ओ३म् समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।। इदमग्नयेेइदन्न मम।। में कहा गया है कि विद्वान लोगों ! जिस प्रकार प्रेम और श्रद्धा से अतिथि की सेवा करते हो, वैसे ही तुम समिधाओं तथा घृतादि से व्यापनशील अग्नि का सेवन करो और चेताओ। इसमें हवन करने योग्य अच्छे द्रव्यों की यथाविधि आहुति दो। एक अन्य मन्त्र सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन। अग्नये जातवेदसे स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसेइदन्न मम।। में विधान है कि हे यज्ञकर्ता ! अग्नि में तपाये हुए शुद्ध घी की यज्ञ में आहुति दो, जिससे संसार का कल्याण हो। यह सुन्दर आहुति सम्पूर्ण पदार्थों में विद्यमान ज्ञानस्वरूप परमेश्वर के लिए है, मेरे लिए नहीं। अन्य अनेक मन्त्र हैं जो यज्ञ के प्रेरक व पोषक हैं तथा जिनका यथास्थान विधान यज्ञ की विधि में किया गया है। वेद के विधान व शिक्षाओं का पालन करना मनुष्य का धर्म कहलाता है और न करना अधर्म। धर्म सुख का कारण होता है व अधर्म दुःख का कारण। यह ध्यान रखना चाहिये कि मनुष्य के सभी कर्मों का फल साथ साथ नहीं मिलता। कुछ क्रियमाण कर्मों का मिल जाता है और कुछ कर्म कर्मों के संचित खातों में जमा हो जाते हैं जिनका फल कालान्तर व परजन्मों में मिलता है। ऋषियों ने स्वानुभूति के आधार पर घोषित किया है कि यज्ञ एक श्रेष्ठतम कर्म है। यज्ञ करने से अभीष्ट सुख की प्राप्ति होती है। निष्काम भावना से किए गये यज्ञ से भी मनुष्य को लाभ होता है। ऐसा साक्षात्कृतधर्मा ऋषि अर्थात् यज्ञ से सुख प्राप्ति का अनुभव किये हुए ऋषियों का कथन है। ऋषि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए वेदों के सत्य अर्थों के ज्ञानी व धर्म का आचरण करने वाले परोपकारी महात्माओं को कहते हैं। अतः इस प्रमाण के आधार पर संसार के सभी मनुष्यों को यज्ञ अवश्य करना चाहिये। इससे होने वाले सम्पूर्ण लाभों का तो पूर्ण ज्ञानर अभी तक नहीं है, परन्तु जितना ज्ञान है उसके अनुसार यज्ञ का परिणाम इस जन्म व परजन्म में निश्चय ही कल्याणकारी व शुभ होता है।

 

यज्ञ करने के अनेक कारण व इससे प्राप्त होने वाले अनेक लाभ है जो विचार करने पर ज्ञात होते हैं। पहला कारण तो यह है कि हम जहां रहते हैं वहां हमारे मल मूत्र, श्वास-प्रश्वास, भोजन निर्माण, वस्त्र प्रक्षालन आदि कार्यों से वायु, जल व पर्यावरण में अनेक विकार व प्रदुषण उत्पन्न होता है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम ऐसे उपाय करें कि जिससे हमसे जितनी मात्रा में प्रदुषण हुआ है, उतना व उससे कुछ अधिक प्रदुषण निवारण का कार्य हो। इसका समाधान व उपाय यज्ञ वा अग्निहोत्र करने से होता है। प्रदुषण को दूर करने का अन्य कोई उपाय आज भी विज्ञान द्वारा सुलभ नहीं कराया गया है। यज्ञ के अन्तर्गत पहला कार्य तो यह है कि हम अपने निवास को अधिकतम हर प्रकार से स्वच्छ रखें। दूसरा यह है कि आम्र आदि प्रदुषण न करने वा न्यूनतम कार्बन-डाइ-आक्साईड उत्पन्न करने वाली पूर्णतया सूखी व छोटे आकार मे कटी हुई समिधाओं से यज्ञ कुण्ड में अग्नि को प्रदीप्त कर उस अग्नि के तीव्र व प्रचण्ड होने पर उसमें शुद्ध गो घृत सहित वायु, जल, पर्यावरण व स्वास्थ्य की पोषक व उसके अनुकूल सामग्री व पदार्थों की आहुतियां दी जायें। इसके लिए चार प्रकार की सामग्री का विधान किया गया है जिसमें मुख्य गोघृत है। अन्य पदार्थों में मिष्ट पदार्थ जिसमें शक्कर आदि सम्मिलित हैं। तीसरे वर्ग में सुगन्धित पदार्थ आते हैं जिसके अन्तर्गत केसर, कस्तूरी आदि पदार्थों का प्रयोग किया जाता है। चतुर्थ प्रकार के पदार्थ आयुर्वेदिक ओषधियों सोमलता व गिलोय आदि सहित बादाम, काजू, नारीयल, छुआरे, किशमिस आदि पोषक पदार्थ सम्मिलित हैं। इनका यज्ञ में आहुति हेतु विधान किया गया है। इन पदार्थों की अग्नि में आहुति देने से यह पदार्थ अतिसूक्ष्म होकर वायुमण्डल में फैल जाते हैं जिनसे वायुमण्डल की शुद्धि सहित वायुस्थ वाष्पीय जल की शुद्धि होती है जो बाद में वर्षा के होने पर खेत खलिहानों के अन्न को शुद्ध व पवित्र बनाते हैं। यज्ञ करते समय यज्ञकर्ता में धर्मभाव अर्थात् स्वहित-परहित दोनों व अहित किसी का नहीं, का भाव होता है। इससे ईश्वर यज्ञकर्ता के इस शुभ व पुण्य कार्य के लिए उसे सुख व आनन्द की अनुभूति कराने सहित अभीष्ट पदार्थों को उपलब्ध कराता है। आरोग्य व स्वास्थ्य लाभ तो यज्ञ का एक मुख्य गुण है। गोघृत के गुण तो सभी को ज्ञात हैं। गोघृत का सेवन करने से मनुष्य निरोग रहने के साथ बलिष्ठ होता है। ईश्वर की प्राप्ति से पूर्व यह स्वास्थ्य व बल ही मनुष्य के लिए अभीष्ट होता है जिसकी प्राप्ति गोघृत आदि के सेवन करने से होती है। यज्ञ में इसका प्रयोग करने से इसका सूक्ष्म रूप वायुमण्डल में विद्यमान रहता है जो न केवल यज्ञकर्ता अपितु यज्ञ स्थान के चारों दिशाओं में दूर दूर तक लोगों व प्राणियों को लाभान्वित करता है। यज्ञ में दी गई घृत व सभी पदार्थों की आहुतियां सूर्य की किरणों के साथ हल्की होने के कारण आकाश में काफी ऊंचाई तक जाती है जिससे वायु में जो सूक्ष्म जीव, बैक्टीरिया आदि होते हैं उनसे होने वाले दुष्प्रभाव से भी मनुष्य बचा रहता है।

 

यज्ञ में हमारे ऋषियों ने वेद मन्त्रोच्चार का विधान भी किया है। वेद मन्त्रों का उच्चारण होने से ईश्वर से सम्पर्क जुड़ता है व उससे मित्रता उत्पन्न होने के साथ वेद मन्त्रों के कण्ठ=स्मरण होने से उनकी रक्षा होती है और साथ हि मन्त्रों में निर्दिष्ट लाभों का ज्ञान भी होता है। इन मन्त्रों के प्रयोग व उनके अर्थों को पढ़ने से यज्ञकत्र्ता संस्कृतनिष्ठ शुद्ध हिन्दी बोल पाते हैं। इससे अनेक वैदिक शब्दों का ज्ञान, उनके प्रति प्रेम व उनके प्रयोग की भावना को बल भी मिलता है। हम अपने अनुभव से यह समझते हैं कि वेदमन्त्रों का उच्चारण करना मनुष्य के परमार्थ की दृष्टि से भी अधिक लाभप्रद है। अन्य मानुष पद्य व गद्य वाक्यों का प्रयोग व उच्चारण इतना लाभप्रद नहीं है जितना वेदमन्त्रों के अर्थ के ज्ञान सहित उनका उच्चारण होता है। यज्ञों में प्रमुख मन्त्रों का उच्चारण करने से ईश्वर की कृपा व सहायता प्राप्त होती है और जीवन हर दृष्टि से उन्नत व सुखी होता है। इससे हमारा वर्तमान और परजन्म दोनो बनता है जबकि इससे इतर कार्यों से परजन्म की उन्नति में अधिक लाभ नहीं होता। घरों में यज्ञ करने से एक लाभ यह होता है कि यज्ञ करने से गृह वा निवास स्थान की दूषित वायु यज्ञाग्नि के सम्पर्क में गर्म होकर हल्की हो जाती है और वह दरवाजों, खिड़कियों व रोशनदानों से बाहर चली जाती है। हल्की होकर दूषित वायु के बाहर जाने से जो अवकाश बनता है उसमें बाहर की किंचित शुद्ध वायु स्वतः निवास के भीतर प्रविष्ट हो जाती है जो स्वास्थ्य के लिए हितकर व सुखदायक होती है। अग्निहोत्र में यज्ञीय पदार्थों की आहुतियों से वह जलकर सूक्ष्म हो जाते हैं और वायु से मिलकर वायु के दुर्गन्धादि अनेक दोषों को दूर करते हैं जिनमें हानिकारक बैक्टिरिया व सूक्ष्मजीव भी प्रभावित होकर उनका अनिष्टकारी प्रभाव यज्ञकर्ता व उसके परिवार के सदस्यों पर नहीं होता। गोघृत विषनाशक भी होता है। विषैले सांप के काटे हुए मनुष्य को गोघृत पिलाने से शरीर पर विष का प्रभाव समाप्त होता है। गोघृत के इसी गुण के कारण वायु में उपस्थित सूक्ष्म कीट व बैक्टिरियां नष्ट होते हैं। आर्यजगत के एक यज्ञप्रेमी विद्वान पण्डित वीरसेन वेदश्रमी जी, इन्दौर ने अनेक छोटे-बड़े यज्ञ कराये और परिक्षणों में उन्होंने पाया कि हृदय रोगियों, जन्म के बहिर व मूक व्यक्तियों तक को यज्ञ से पूर्ण लाभ हुआ। दैनिक यज्ञ करने वाले लोग यज्ञ न करने वाले परिवारों से अधिक स्वस्थ, निरोगी व दीघार्यु होते हैं ऐसा अनुमान व प्रत्यक्ष ज्ञान अध्ययन करने पर प्राप्त होता है। हमारा यह भी अनुभव है कि यज्ञ करने वाला व्यक्ति जीवन में अनेक छोटी-बड़ी दुर्घटनाओं के होने पर भी अनेक बार उसमें पूर्णतः सुरक्षित रहता है। यह वैदिक जीवन व्यतीत करने सहित यज्ञ करने का लाभ ही ज्ञात होता है। यह भी हमारा अनुभव है कि यज्ञ करने से मनुष्यों की बुद्धि सभी प्रकार के ज्ञान व विषयों को ग्रहण करने में तीव्रतम व महत् क्षमता वाली होती है तथा वह अपने जीवन का कोई भी लक्ष्य निर्धारित कर उसे प्राप्त कर सकता है।

 

यज्ञ के लाभ का एक उदाहरण प्रस्तुत कर इस लेख को विराम देंगे। आर्यसमाज में प्रभु आश्रित जी का यश व कीर्ति यज्ञों के प्रचारक के रूप में आज भी सर्वत्र विद्यमान है। उनके एक अनुगामी दम्पती ऐसे थे जो उनके सत्संग में सम्मिलित होते थे परन्तु उनके पास धन का नितान्त अभाव था। वह उन दिनों यज्ञ करने के लिए घृत व सामग्री तक का व्यय करने में समर्थ नहीं थे। महात्मा जी के सामने उन्होंने यज्ञ करने की अपनी इच्छा व्यक्त की और धनाभाव की यथार्थ स्थिति भी उन्हें बताई। महात्मा जी ने उन्हें संकल्प लेकर यज्ञ करने का परामर्श दिया और कहा कि ईश्वर की कृपा से धीरे-धीरे सभी साधन प्राप्त हो जायेंगे। इस परिवार ने दैनिक यज्ञ आरम्भ कर दिया। शनैः शनैः इनकी आर्थिक, शारीरिक व सामाजिक उन्नति होती गई। आर्थिक उन्नति इतनी हुई कि इन्होंने जीवन में लाखों वा करोड़ों रूपये शुभ कार्यों के लिए दान दिये। आज भी इनके पुत्र प्रातः व सायं यज्ञ करते हैं। अनेक संस्थाओं के अधिकारी हैं। उनका यश सर्वत्र व्याप्त है तथा वह सुखी व सम्पन्न हैं। हमारी यदा-कदा उनसे भेंट होती रहती है। आपने पिछली एक भेंट में बताया कि जब 1947 में वैदिक राष्ट्र भारत का विभाजन हुआ तो लोग अपनी धन-सम्पत्ति लेकर पाकिस्तान से भारत आये थे परन्तु यह परिवार अपनी सारी सम्पत्ति वहीं छोड़कर केवल यज्ञ कुण्ड अपने गले में टांग कर व उसमें विद्यमान अग्नि को सुरक्षित रखते हुए भारत पहुंचा था। इस परिवार ने उस अग्नि की रक्षा करते हुए उसे बुझने नहीं दिया। विगत लगभग 75 वर्षों से यह यज्ञाग्नि निरन्तर प्रज्जवलित है। वर्तमान में श्री दर्शनकुमार अग्निहोत्री जी सपत्नपीक व परिवार सहित इस अग्नि में ही प्रातः व सायं यज्ञ करते हैं। ऐसे व्यक्ति, परिवार व उनसे जुड़े लोग धन्य हैं। हम तो इनके दर्शन कर ही स्वयं को कृतकृत्य मानते हैं। हमने अपने जीवन में भी यज्ञ के अनेक चमत्कार अनुभव किये हैं। यह सब ईश्वर सच्चे विचारों वाले अपने अनुयायियों को उनकी पात्रता व योग्यता के अनुसार प्रदान करता है। महर्षि दयानन्द ने पंचमहायज्ञ विधि और संस्कार विधि ग्रन्थों में पंच महायज्ञों का विधान किया है। इसे जान व समझकर सभी मनुष्यों को इसका सेवन कर लाभ उठाना चाहिये। इसको करने से यज्ञकर्ता को अवश्य लाभ मिलेगा, ऐसा हमें पूर्ण विश्वास है जिसका आधार हमारा अध्ययन, ज्ञान व अनुभव है। हमने यज्ञ का भौतिक व व्यवहारिक स्वरूप प्रस्तुत किया है। इस विषय में और बहुत कुछ कहा जा सकता है। और अधिक विस्तार न कर लेख को यहीं विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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सृष्टिकर्त्ता ईश्वर प्रदत्त वैदिक धर्म सभी मनुष्यों का परमधर्म

ओ३म्

सृष्टिकर्त्ता ईश्वर प्रदत्त वैदिक धर्म सभी मनुष्यों का परमधर्म

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

अग्नि आदि किसी पदार्थ के जलना, प्रकाश व गर्मी देना आदि गुणों को उसका धर्म कहा जाता है। मनुष्यों में जिन श्रेष्ठ गुणों को होना चाहिये उनका मनुष्यों में संस्कार व उन गुणों की उन्नति सहित तदनुसार आचरण को ही मनुष्यों का धर्म कह सकते हैं। किसी आचार्य व विद्वान द्वारा सत्यासत्य व स्वहित के नियमों का निर्धारण जिसमें दूसरों के हितों की किंचित भी अनदेखी व उपेक्षा हो वह धर्म कदापि नहीं हो सकता। धर्म वह होता है जिसकी मान्यतायें व सिद्धान्त सर्वमान्य व अकाट्य होने सहित सभी विषयों के ज्ञान में पूर्णता रखती हों और जिन्हें मनुष्यों द्वारा धारण करने से उनका अभ्युदय व निःश्रेयस सुनिश्चित होता हो। असत्य, अहिंसा व स्वहित के नियम मनुष्यों को आपस में बांटतें हैं और साथ हि अशान्ति व दुःख उत्पन्न करते हैं। यदि यह किसी समाज, संगठन व संस्था में हों तो विचार कर उनका निराकरण किया जाना चाहिये जिससे उस संस्था व अन्य संस्थाओं के लोग परस्पर भाई चारे का व्यवहार कर परस्पर निजी व सामाजिक उन्नति कर सकें। वैदिक मान्यताओं के अनुसार यह सृष्टि लगभग 1.96 अरब वर्षों पूर्व अस्तित्व में आई थी। लगभग 5,200 वर्ष पूर्व भारत में एक महायुद्ध हुआ जिसे वर्तमान में महाभारत के नाम से जाना जाता है। युद्ध में मनुष्यों की भारी क्षति होती है। बड़ी संख्या में लोग मारे जाते हैं। परिवारों में व देश में उनकी मृत्यु से सर्वत्र दुःख का वातावरण छा जाता है। लोगों की सामान्य दिनचर्या अस्तव्यस्त हो जाती है। राज्य की आर्थिक स्थिति पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। राज्य से शिक्षा, चिकित्सा व अन्य विभागों का बजट कम करके उपलब्ध धनराशि को युद्ध में हुई क्षति की पूर्ति में लगाना पड़ता है। ऐसा ही कुछ कम या अधिक महाभारत के युद्ध के बाद हमारे देश में भी हुआ। उसके बाद देश की जो सामाजिक स्थिति निर्मित हुई उससे लगता है कि देश की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई थी। कहां तो महाभारत पूर्व हमारे देश में योगेश्वर श्री कृष्ण, महात्मा विदुर, युधिष्ठिर व अर्जुन जैसे विद्वान व वीर मनुष्य तथा द्रोपदी, कुन्ती व माद्री जैसी शिक्षित व वेदज्ञान सम्पन्न विदुषी महिलायें होती थी और कहा महाभारत के बाद यज्ञों में गाय, बकरी, भेड़ व अश्व आदि की हिंसा करते हुए हमारे यज्ञकर्त्ता विद्वान दृष्टिगोचर होते हैं। अज्ञान व अन्धविश्वास बढ़ने लगे और इसके साथ जन्मना जातिवाद, ऊंच-नीच, छुआछूत, अवतारवाद, मूर्तिपूजा, फलित-ज्योतिष जैसे अन्धविश्वास व कुरीतियां समाज में घर कर गये जिनसे आज तक भी पीछा नहीं छूटा है। पतन यहां तक हुआ कि सभी स्त्रियों व शूद्रों से वेदाध्ययन व शिक्षा का अधिकार ही छीन लिया गया। यह सब समाज की घोरतम पतनावस्था थी। इस अवस्था से जो सामाजिक स्थिति उत्पन्न होनी थी वह अविवेकपूर्ण ही होती, विवेकपूर्ण तो तब होती जब देश में लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपना अधिकांश समय विद्यार्जन, सत्योपदेश, अन्धविश्वास व अवैदिक मतों के खण्डन में लगाते। यह श्रेय किसी ने नहीं लिया। इसका श्रेय उन्नीसवीं सदी में आर्यसमाज के संस्थापक और वेदों के मर्मज्ञ विद्वान, सिद्ध योगी व परमदेशभक्त व वेदधर्मप्रेमी महर्षि दयानन्द सरस्वती को मिला।

 

सृष्टि का निर्माण मनुष्यों के द्वारा नहीं हो सकता। उनके लिए यह कार्य असम्भव है। हमारी यह सृष्टि वा भौतिक जगत जड़ प्रकृति के सूक्ष्म कणों वा परमाणुओं से मिलकर बना है। यह परमाणु भी नाना प्रकार के होते हैं। हाइड्रोजन, आक्सीजन, नाईट्रोजन, कार्बन, आयरन, कैल्शियम आदि अनेक तत्व हैं जिनके सूक्ष्म परमाणु संरचना की दृष्टि से भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। यह जिस सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति से बने वा बनायें गये हैं, उसके लिए एक अतिसूक्ष्मतम सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, सृष्टि निर्माण का पूर्व अनुभव रखनेवाली सत्ता की आवश्यकता होती है। बिना इसके सृष्टि का निर्माण नहीं हो सकता। सृष्टि का अस्तित्व यह घोषणा कर रहा है कि मुझे एक दिव्य सत्ता जो निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक व सर्वज्ञ होने सहित सच्चिदानन्द आदि गुणों से युक्त है, उसने इस समस्त सृष्टि वा ब्रह्माण्ड को बनाया है। बनाने वाले ईश्वर से भिन्न उपादान कारण के रूप में जिस जड़ पदार्थ का प्रयोग किया गया, उसे प्रकृति कहते हैं। उस ईश्वर ने पहले अति सूक्ष्म प्रकृति को भिन्न-भिन्न परमाणुओं में बदला वा बनाया, फिर उनसे अणुओं का निर्माण होकर यह समस्त स्थूल जगत बना है जिसमें सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, नक्षत्र आदि सम्मिलित हैं। यह ध्यातव्य है कि जड़ पदार्थों में स्वयं निर्मित होने की क्षमता नहीं होती। उसके लिए किसी बुद्धियुक्त चेतन, शक्तिसम्पन्न व प्रकृति से भी सूक्ष्म सत्ता की अपेक्षा होती है जिसे सृष्टिकर्ता कहते हैं। बिना कर्ता के कोई कार्य नहीं होता। आप आटे व उससे बनने वाली रोटी का सारा समान बनाकर अपने रसोईघर में रख दीजिए। जब तक कोई रोटी बनाने वाला मनुष्य रोटी नहीं बनायेगा, समस्त सामान उपलब्ध होने पर भी रोटी अपने आप कभी नहीं बनेगी। अतः ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना, उत्पत्ति  व पालन होना युक्ति व तर्क से सिद्ध है। यदि कोई इन तथ्यों को नहीं मानता तो वह अज्ञानी, हठी व दुराग्रही ही कहा जा सकता है। यह सृष्टि की उत्पत्ति का वैज्ञानिक सिद्धान्त है।

 

ईश्वर ने सृष्टि बनाई और मनुष्यों सहित समस्त प्राणी जगत को भी उसी ने इस सृष्टि के आदि काल में उत्पन्न किया, तब से अब तक और आगे भी निरन्तर उत्पन्न करता रहेगा। अन्य कोई यह कार्य नहीं कर सकता था और सृष्टि रचना और प्राणियों की उत्पत्ति अपने आप वा स्वतः हो नहीं सकती थी। अतः ईश्वर के ऊपर न केवल सृष्टि की रक्षा व पालन का उत्तरदायित्व है अपितु मनुष्यों सहित सभी प्राणियों के पालन-पोषण सहित उन्हें भाषा व ज्ञान देना भी उसी का कर्तव्य निश्चित होता है। अब इस प्रश्न पर विचार करना उचित है कि ईश्वर प्रदत्त वह भाषा कौन थी और उसका ज्ञान क्या व किस रूप में था? इसका उत्तर हमसे पूर्व ही हमारे प्राचीन शास्त्रों व बाद में महर्षि दयानन्द ने अनेक प्रमाणों, तर्कों व युक्तियों से दिया है जिसे सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में देखा जा सकता है। प्रबल युक्तियों से पोषित यह उत्तर बताता है कि ईश्वर ने मनुष्यों को बोलने के लिए उत्कृष्ट संस्कृत जिसे वैदिक संस्कृत कह सकते हैं, का ज्ञान आदि ऋषियों व मनुष्यों को दिया था। ज्ञान पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वर ने अपना वह ज्ञान चार वेद ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदअथर्ववेद के रूप में चार ऋषियों अग्निवायुआदित्यअंगिरा को उनकी आत्मा में प्रेरणा द्वारा प्रविष्ट किया था। ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी है अतः ऋषियों वा मनुष्यों की अन्तरात्मा में ज्ञान स्थापित करना व उसकी प्रेरणा करना उसके लिए सरल, सहज व स्वाभाविक है। ईश्वर के लिए यह कार्य यह सम्भव है असम्भव कदापि नहीं। चार वेदों का यह ज्ञान ईश्वर ने उनके अर्थों वा भावों सहित स्थापित किया था जिससे ऋषियों को वेदार्थ जानने में कोई कठिनता नहीं हुई। उन ऋषियों को ईश्वर की ओर से यह दायित्व भी दिया गया था कि वह वेदों के ज्ञान को अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न अन्य सभी युवा स्त्री-पुरुषों को उपदेश, अध्ययन व अध्यापन द्वारा करायें जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक किया भी। वही परम्परा महाभारतकाल तक अबाध रूप से चली और उसके बाद लुप्त व विश्रृंखलित होने पर महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने उसे पुनः प्रचलित किया और उनकी इस कृपा से आज चारों वेद पूर्ण सुरक्षित हैं व उनके हिन्दी व संस्कृति सहित अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में भाष्य भी उपलब्ध हैं जिससे साधारण हिन्दी पढ़ सकने वाला मनुष्य भी विद्वान हो सकता है। इसी से हमने भी लाभ उठाया, हम जो कुछ हैं, इसी का परिणाम हैं।

 

चार वेद सभी सत्य विद्याओं के सर्वांगपूर्ण ग्रन्थ हैं। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिसका उल्लेख मनुष्य के कर्तव्य की शिक्षा वेद में हो। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में घोषणा की थी कि वेद ईश्वर कृत हैं और सब सत्य विद्याओं के पुस्तक हैं। इनका पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना संसार के सभी मनुष्यों का परम धर्म (परम कर्तव्य) है। यदि किसी मनुष्य ने वेद नहीं पढ़े और उनका प्रचार नहीं किया तो इसका अर्थ है कि हमने मनुष्य के परम धर्म का पालन नहीं किया। वेद से इतर मत-मतान्तर व्यापक दृष्टि से देखने पर कुछ व अधिक मात्रा में धर्म हो सकते हैं परन्तु वेद परम-धर्म है। वेद विरुद्ध विचार, कार्य व आचरण अधर्म ही कहा जा सकता है। जो व्यक्ति वेद नहीं पढ़ता और उसके अनुसार आचरण नहीं करता वह इस जगदीश्वर सृष्टिकर्ता के नियम को तोड़ने का दोषी होता है। ईश्वर व वेद की ओर से मनुष्यकृत रचनाओं को पढ़ने की मनाही नहीं है, इनको भी पढ़ना चाहिये, परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि मनुष्य के अल्पज्ञ होने से मनुष्यकृत ग्रन्थों में सत्य व असत्य दोनों का मिश्रण होता है। अतः वेदों को जानकर वेदसम्मत कर्तव्यों व मान्यताओं का ही आचरण व प्रचार करना चाहिये। वेद में ही ईश्वर व जीवात्मा आदि पदार्थों के सत्य स्वरूप का वर्णन है। इनके अध्ययन से ही ईश्वर की स्तुतिप्रार्थनाउपासना, देवयज्ञ व अन्य यज्ञों के विधिपूर्वक करने का ज्ञान होता है। वेदों की इसी महत्ता के कारण सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारतकाल तक के एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख अड़तालीस हजार वर्षों तक भूमण्डल पर एक ही मत वैदिक मत वा धर्म का प्रचार प्रसार रहा। अन्य किसी महापुरूष ने कभी नये मत की स्थापना का विचार ही नहीं किया क्योंकि उनरकी न तो आवश्यकता थी और ऐसा करने पर भी वह वर्तमान की तरह प्रचलित नहीं हो सकते थे। वेदेतर सभी मत महाभारत काल के बाद अन्धकार व अज्ञान के समय में अस्तित्व में आयें हैं। क्यों आये? क्योंकि लोग वेदों के मार्ग को भूल बैठे थे। उन्हें मत-प्रवर्तकों द्वारा अपने ज्ञान व योग्यतानुसार व्यवस्थित करने का प्रयास किया जाता रहा। वेद की तुलना में सभी मत व उनकी पुस्तकें ज्ञान की दृष्टि से उच्च न होकर निम्नतर ही हैं। अतः सत्य के खोजी व पिपासुओं के लिए वेद ही अन्तिम लक्ष्य है। वेद सम्पूर्ण मानव धर्म है। वेदरिुद्ध मान्यतायें व सिद्धान्त धर्म नहीं अपितु अधर्म हैं जो सर्वत्र मत-मतान्तरों में समान रूप से पाये जाते हैं। वैदिक धर्म ईश्वर प्रदत्त होने से सबके लिए कर्तव्य एवं आचरणीय है। यदि इसका कोई पालन नहीं करेगा तो ईश्वर की व्यवस्था का पालन न करने का दोषी होगा और उसका परजन्म उसके इस जन्म में वेदाज्ञा का पालन न करने से दण्ड का कारण व आधार हो सकता है। हमने सत्य के स्वरूप के प्रकाशन के लिए कुछ विचार प्रस्तुत किये हैं। आशा है सत्यप्रेमी इससे लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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स्तुता मया वरदा वेदमाता: आचार्य धर्मवीर जी

स्तुता मया वरदा वेदमाता-25

अहं तद्विद्वला पतिमयसाक्षि विषासहिः।

एक महिला को अपने अनुकूल जीवन साथी चुनने का अधिकार है। निर्णय महिला का है। ऐसा करने के लिये उचित आधार है- पति को अनुकूल बनाने की क्षमता, पति को सहन करने का सामर्थ्य। परिवार की धुरी महिला होती है। जैसे धुरी में भार सहने और भार को खींचने की क्षमता होती है, उसी प्रकार महिला में परिवार के सब लोगों को साथ रखने का सामर्थ्य होना चाहिए। इसके लिये प्रथम योग्यता सहनशील होना है। घर में जितने भी सदस्य हैं, सबकी अपनी-अपनी इच्छायें होती हैं। सभी चाहते हैं, उनकी बात मानी जाये, उनके अनुकूल कार्य हो, परन्तु ऐसा सदा सभव नहीं है।

परिवार की विशेषता होती है, इसमें वृद्ध भी होते हैं, युवा भी, बालक-बालिकायें, स्त्री-पुरुष। इन सब विविधताओं में सामञ्जस्य बैठाने के लिये बुद्धिमत्ता, सद्भाव, सहनशीलता की आवश्यकता है। मनुष्य की जब इच्छा पूरी नहीं होती, तो उसे क्रोध आता है, उस समय यदि सामने वाला भी क्रोध कर बैठेगा, तो असहमति लड़ाई में बदल जायेगी। यदि कोई अपने क्रोध पर नियन्त्रण नहीं कर सकता, तो दूसरे को अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण करना चाहिए। एक बार सोनीपत में आर्य समाज बड़ा बाजार का कार्यक्रम था। प्रसंग से एक परिवार में जाने का अवसर मिला, स्वाभाविक रूप से परिवार के समायोजन की चर्चा चली, तो गृहिणी ने समस्या के समाधान का सरल उपयोगी उपाय सुझाया। वह कहने लगी- यदि मेरे पति को किसी कारण से क्रोध आता है और वे ऊँची आवाज में बोलने लगते हैं, तो मैं दूरदर्शन की आवाज को ऊँचा कर देती हूँ। मेरे पति कुछ भी बोलते रहते हैं, मुझे सुनाई नहीं देता। कुछ देर बाद वे शान्त हो जाते हैं और सब सामान्य हो जाता है। जब कभी मुझे क्रोध आता है, तो मेरे पति छड़ी लेकर बाहर घूमने निकल जाते हैं, जब वे लौटते हैं तो सब शान्त हो चुका होता है। इसलिये वेद कहता है- पतिमयसाक्षि। मैं पति को सहन कर सकती हूँ।

एक और बात मन्त्र में कही, यह सहनशक्ति सामान्य नहीं, विशेष सहनशक्ति है। हमारे समाज में महिला को सहनशील बनने की बात की जाती है, परन्तु अत्याचार और प्रताड़ना को सहन करने की शक्ति सहनशीलता नहीं है। अन्याय का प्रतिकार करने में जो बाधा और कष्ट आते हैं, उन्हें सहन करने की शक्ति होनी चाहिए। परिवार में अलग विचारों के बीच तालमेल बैठाना, यह कार्य सहनशीलता के बिना सभव नहीं। हमारी इच्छा रहती है कि हम जो सोचते हैं- उसी को सबको स्वीकार करना चाहिए। यह धारणा सभी की हो तो पूर्ण होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। ऐसी स्थिति में परिवार में विवाद की स्थिति बनी रहती है।

हमें मनुष्य स्वभाव का भी स्मरण रखना चाहिए कि परिवार में सब प्रेम से रहें, लड़ाई-झगड़ा न करें, यह उपदेश तो ठीक है, परन्तु ऐसा होना कठिन ही नहीं, असभव भी है। हम चाहते हैं कि दूसरा मेरे अनुसार चले, उसे अपने को बदलना चाहिए। यह उपाय कभी सफल नहीं होता। इसका उपाय है, जो सदस्य जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया जाय। उसको स्वीकार कर लिया जाय तो उपाय हमको करना पड़ता है। हम मार्ग से जा रहे हैं, मार्ग टूटा हुआ आता है, तब हम मार्ग सुधारने में नहीं लगते और न ही यात्रा स्थगित करते हैं। हम उस मार्ग से बचकर निकलने का उपाय करते हैं। उसी प्रकार परिवार में विवाद होने की दशा में बचने का उपाय सहनशीलता है। आवेश के समय को बीत जाने देते हैं, तो परिवार का वातावरण सहज होने में समय नहीं लगता। विवाद हो जाये, यह स्वाभाविक हैं, परन्तु इस विवाद को समाप्त करने के लिये संवाद का मार्ग सदा खुला रखना होता है। परिवार के सन्दर्भ में रुष्ट सदस्य को संवाद के द्वारा मनाया जा सकता है, सामान्य किया जा सकता है। मत-भिन्नता की दशा में समझाने के प्रयास निष्फल होने पर सहना ही एक उपाय शेष रहता है। इसी कारण इस मन्त्र में एक शद आया है- विषासहिः। इसका अर्थ है विशेष रूप से सहन करने की शक्ति। इसी उपाय से जो वस्तु प्राप्त है, उसे बचाया जा सकता है।

यहाँ सहन करने की बात स्त्री के सन्दर्भ में क्यों कही गई है, क्योंकि परिस्थितियों के चुनाव का अधिकार स्त्री को दिया गया है। उसकी घोषणा है- अपने सौभाग्य की निर्मात्री मैं स्वयं हूँ। मैंने श्रेष्ठ सिद्ध करने की घोषणा की, मैं सूर्य के समान तेजस्विनी हूँ। जब पति को मैंने प्राप्त किया है, मेरी इच्छा से मेरे चुनाव से मैंने पाया है, तो पति को और परिवार को अपनी सहनशीलता से जोड़कर रखने का उत्तरदायित्व भी मेरा ही है। यही घोषणा इस मन्त्र में की गई है।

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. क्या वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अलावा दूसरे धर्म शास्त्रों को मानने वाले को मुक्ति मिलेगी? : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा:- . क्या वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अलावा दूसरे धर्म शास्त्रों को मानने वाले को मुक्ति मिलेगी?

समाधान

हमने लिखा-मुक्ति ज्ञान से होती है और शुद्ध ज्ञान का भण्डार वेद व वेदानुकूल शास्त्र हैं। इनके अतिरिक्त जितने भी मतवादियों ने अपने-अपने ग्रन्थ बना रखे हैं, उनमें पूर्ण सत्य नहीं है और जो सत्य है भी, वह वेदादि का ही है। अन्य मतवादियों के ग्रन्थों में सृष्टि विरुद्ध बातें प्रचुर मात्रा में हैं, पाखण्ड और अन्धविश्वास से पूर्ण बातें उनके ग्रन्थों में हैं। इस प्रकार की बातों से युक्त ग्रन्थों को मानने वाली मुक्ति कैसे हो सकती है, यह आप भी विचार कर देखें।

इसलिए वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अतिरिक्त अन्य मतवादियों के ग्रन्थों को मानने वालों की मुक्ति सभव नहीं है। महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के पठन-पाठन विषय में स्पष्ट लिखा कि-

यो मनुष्यो वेदार्थान्न वेत्ति स नैव तं बृहन्तं

परमेश्वरं धर्मं विद्यासमूहं वा वेत्तुमर्हति।

कुतः सर्वासां विद्यानां वेद एवाधिकरणमस्त्यतः।

न हि तमविज्ञाय कस्यचित् सत्य विद्या प्राप्तिभवितुर्महति।।

यहाँ महर्षि का कहने का भाव है कि जो मनुष्य वेदार्थ को नहीं जानता, वह कभी उस महान् परमेश्वर, धर्म और विद्या समूह को जानने में समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि सभी सत्य विद्याओं का वेद ही आधार है, इसलिए उस वेद को जाने बिना  किसी को सत्यविद्या प्राप्त नहीं हो सकती।

Moksh

क्या यम-नियम का पालन करने वाले व धार्मिक सेवा कार्य में लगे हुए व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी?: आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा- 

क्या यम-नियम का पालन करने वाले व धार्मिक सेवा कार्य में लगे हुए व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी?

समाधान:-

मुक्ति के लिए मनुष्य यम-नियम का पालन करते हुए धार्मिक कार्य करे, इससे उसके अच्छे संस्कार बनेंगे। मुक्ति के लिए रास्ता तो खुलेगा, किन्तु केवल इतने मात्र से मुक्ति नहीं होगी। मुक्ति के लिए महर्षि ने कहा है, ‘‘पवित्र कर्म, पवित्रोपासना और पवित्र ज्ञान ही से मुक्ति…….’’। स.प्र. 9

यहाँ प्रमाण देने का तात्पर्य यह है कि केवल यम-नियम अनुष्ठान और धार्मिक सेवाकार्य से मुक्ति नहीं होगी। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि धार्मिक सेवा कार्य आदि मुक्ति में बाधक हैं।

यम-नियम के अनुष्ठान और धार्मिक सेवा कार्य से व्यक्ति के अन्तःकरण में श्रेष्ठ संस्कार पड़ते हैं, जिससे व्यक्ति का उपासना में मन लगता है और उससे ज्ञान ग्रहण करने की योग्यता बढ़ती है। जैसा जिसका जितना शुद्ध ज्ञान होगा, वह वैसा  उतना अपने अविद्या के संस्कारों को नष्ट करेगा। जब पूर्ण रूप से अविद्या के संस्कार नष्ट हो जाते हैं, तब मुक्ति की अवस्था आती है। मुक्ति न तो कर्म से होती और न ही उपासना से, मुक्ति तो ज्ञान से ही सभव है। महर्षि कपिल ने अपने शास्त्र में लिखा- ‘‘ज्ञानात् मुक्तिः।।’’ जीवात्मा की मुक्ति ज्ञान से होती है। ‘‘बन्धो विपर्ययात्।।’’ अज्ञान से बन्धन होता है। ‘‘नियतकारणत्वान्न समुच्चयविकल्पौ ’’ मुक्ति प्राप्ति में ज्ञान की नियतकारणता है, अनिवार्य कारणता है, अर्र्थात् मुक्ति प्राप्ति में ज्ञान ही निश्चित कारण है। इसलिए न तो ज्ञानके साथ अन्य साधन मिलकर मुक्ति देते हैं और न ही ऐसा है कि ज्ञान से भी मुक्ति हो सकती है अथवा शुद्ध कर्म व उपासना से भी। मुक्ति के लिए तो केवल ज्ञान ही साधन बनता है, अन्य नहीं।

इसका कोई यह अर्थ न निकाले कि कर्म और उपासना की कोई महत्ता ही नहीं है, क्योंकि मुक्ति के लिए तो ज्ञान की ही आवश्यकता है। कर्म और उपासना का अपना महत्त्व है। शुद्ध कर्म और शुद्ध उपासना के करने से व्यक्ति के अन्दर सात्विक भाव उत्पन्न होते हैं। इस सात्विक स्थिति में ही व्यक्ति शुद्ध ज्ञान को ग्रहण करता चला जाता है। शुद्ध ज्ञान के होने पर अविद्या के संस्कार ढीले होने लगते हैं। धीरे-धीरे शुद्ध ज्ञान से साधक अपने अविद्यादि क्लेशों को पूर्ण रूप से नष्ट कर देता है। जब अविद्यादि क्लेश पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं, तब साधककी मुक्ति सभव हो जाती है।

इसलिए केवल यम-नियम का पालन करने अथवा धार्मिक सेवा कार्य करने से मुक्ति मिल जायेगी-ऐसा नहीं है। यम-नियम का पालन और धार्मिक सेवा कार्य का अपना एक फल है और वह अच्छा ही फल होगा, किन्तु इनका फल मुक्ति नहीं है। ये सब करते हुए योगायास करें और ज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो जायें।

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क्या नाम व शब्द सृष्टि के साथ पैदा हुए हैं?:- आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा :

क्या नाम व शब्द  सृष्टि के साथ पैदा हुए हैं? (जैसे पृथ्वी, आकाश, पानी, इन्द्रियों के नाम या पदार्थों के व वनस्पतियों के नाम)

समाधान :

सृष्टि का रचने वाला परमेश्वर है, उसी ने संसार के समस्त पदार्थ रचे हैं। परमात्मा ने जितने भी पदार्थ रचे हैं, उनके नाम पहले से ही परमात्मा के ज्ञान में सदा बने रहते हैं। जब रचना करता है तो उनका नामकरण भी परमात्मा करता है, अर्थात् जो पदार्थ उत्पन्न होता है, उसका नाम भी साथ-साथ होता चला जाता है। सृष्टि में जो भी पदार्थ हैं, उन सबके नाम उनकी उत्पत्ति के साथ ही साथ हैं। इस विषय में महर्षि मनु लिखते हैं-

सर्वेषां तु नामानि कर्माणि च पृथक्-पृथक्।

वेदशदेय एवाऽऽदौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे।। 1.21

उस परमात्मा ने सब पदार्थों के नाम पृथिवी, सूर्य, गो, अश्व और मनुष्यादि और इनके भिन्न-भिन्न कर्म- जैसे ब्राह्मण का वेदाध्ययन, अध्यापनादि, क्षत्रिय का रक्षा करना आदि, वैश्य का व्यापारादि अथवा मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के हिंस्र, अहिंस्र आदि कर्म उसी परमात्मा ने निश्चित किये हैं। सबकी भिन्न-भिन्न व्यवस्था सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने वेदों के शद से ही बनायी, अर्थात् मन्त्रों के द्वारा यह ज्ञान दिया।

इसलिए जो भी संसार में है, उसका नाम व काम परमेश्वर द्वारा नियत किया हुआ है।

Creation of universe