स्तुता मया वरदा वेदमाता: आचार्य धर्मवीर जी

स्तुता मया वरदा वेदमाता-25

अहं तद्विद्वला पतिमयसाक्षि विषासहिः।

एक महिला को अपने अनुकूल जीवन साथी चुनने का अधिकार है। निर्णय महिला का है। ऐसा करने के लिये उचित आधार है- पति को अनुकूल बनाने की क्षमता, पति को सहन करने का सामर्थ्य। परिवार की धुरी महिला होती है। जैसे धुरी में भार सहने और भार को खींचने की क्षमता होती है, उसी प्रकार महिला में परिवार के सब लोगों को साथ रखने का सामर्थ्य होना चाहिए। इसके लिये प्रथम योग्यता सहनशील होना है। घर में जितने भी सदस्य हैं, सबकी अपनी-अपनी इच्छायें होती हैं। सभी चाहते हैं, उनकी बात मानी जाये, उनके अनुकूल कार्य हो, परन्तु ऐसा सदा सभव नहीं है।

परिवार की विशेषता होती है, इसमें वृद्ध भी होते हैं, युवा भी, बालक-बालिकायें, स्त्री-पुरुष। इन सब विविधताओं में सामञ्जस्य बैठाने के लिये बुद्धिमत्ता, सद्भाव, सहनशीलता की आवश्यकता है। मनुष्य की जब इच्छा पूरी नहीं होती, तो उसे क्रोध आता है, उस समय यदि सामने वाला भी क्रोध कर बैठेगा, तो असहमति लड़ाई में बदल जायेगी। यदि कोई अपने क्रोध पर नियन्त्रण नहीं कर सकता, तो दूसरे को अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण करना चाहिए। एक बार सोनीपत में आर्य समाज बड़ा बाजार का कार्यक्रम था। प्रसंग से एक परिवार में जाने का अवसर मिला, स्वाभाविक रूप से परिवार के समायोजन की चर्चा चली, तो गृहिणी ने समस्या के समाधान का सरल उपयोगी उपाय सुझाया। वह कहने लगी- यदि मेरे पति को किसी कारण से क्रोध आता है और वे ऊँची आवाज में बोलने लगते हैं, तो मैं दूरदर्शन की आवाज को ऊँचा कर देती हूँ। मेरे पति कुछ भी बोलते रहते हैं, मुझे सुनाई नहीं देता। कुछ देर बाद वे शान्त हो जाते हैं और सब सामान्य हो जाता है। जब कभी मुझे क्रोध आता है, तो मेरे पति छड़ी लेकर बाहर घूमने निकल जाते हैं, जब वे लौटते हैं तो सब शान्त हो चुका होता है। इसलिये वेद कहता है- पतिमयसाक्षि। मैं पति को सहन कर सकती हूँ।

एक और बात मन्त्र में कही, यह सहनशक्ति सामान्य नहीं, विशेष सहनशक्ति है। हमारे समाज में महिला को सहनशील बनने की बात की जाती है, परन्तु अत्याचार और प्रताड़ना को सहन करने की शक्ति सहनशीलता नहीं है। अन्याय का प्रतिकार करने में जो बाधा और कष्ट आते हैं, उन्हें सहन करने की शक्ति होनी चाहिए। परिवार में अलग विचारों के बीच तालमेल बैठाना, यह कार्य सहनशीलता के बिना सभव नहीं। हमारी इच्छा रहती है कि हम जो सोचते हैं- उसी को सबको स्वीकार करना चाहिए। यह धारणा सभी की हो तो पूर्ण होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। ऐसी स्थिति में परिवार में विवाद की स्थिति बनी रहती है।

हमें मनुष्य स्वभाव का भी स्मरण रखना चाहिए कि परिवार में सब प्रेम से रहें, लड़ाई-झगड़ा न करें, यह उपदेश तो ठीक है, परन्तु ऐसा होना कठिन ही नहीं, असभव भी है। हम चाहते हैं कि दूसरा मेरे अनुसार चले, उसे अपने को बदलना चाहिए। यह उपाय कभी सफल नहीं होता। इसका उपाय है, जो सदस्य जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया जाय। उसको स्वीकार कर लिया जाय तो उपाय हमको करना पड़ता है। हम मार्ग से जा रहे हैं, मार्ग टूटा हुआ आता है, तब हम मार्ग सुधारने में नहीं लगते और न ही यात्रा स्थगित करते हैं। हम उस मार्ग से बचकर निकलने का उपाय करते हैं। उसी प्रकार परिवार में विवाद होने की दशा में बचने का उपाय सहनशीलता है। आवेश के समय को बीत जाने देते हैं, तो परिवार का वातावरण सहज होने में समय नहीं लगता। विवाद हो जाये, यह स्वाभाविक हैं, परन्तु इस विवाद को समाप्त करने के लिये संवाद का मार्ग सदा खुला रखना होता है। परिवार के सन्दर्भ में रुष्ट सदस्य को संवाद के द्वारा मनाया जा सकता है, सामान्य किया जा सकता है। मत-भिन्नता की दशा में समझाने के प्रयास निष्फल होने पर सहना ही एक उपाय शेष रहता है। इसी कारण इस मन्त्र में एक शद आया है- विषासहिः। इसका अर्थ है विशेष रूप से सहन करने की शक्ति। इसी उपाय से जो वस्तु प्राप्त है, उसे बचाया जा सकता है।

यहाँ सहन करने की बात स्त्री के सन्दर्भ में क्यों कही गई है, क्योंकि परिस्थितियों के चुनाव का अधिकार स्त्री को दिया गया है। उसकी घोषणा है- अपने सौभाग्य की निर्मात्री मैं स्वयं हूँ। मैंने श्रेष्ठ सिद्ध करने की घोषणा की, मैं सूर्य के समान तेजस्विनी हूँ। जब पति को मैंने प्राप्त किया है, मेरी इच्छा से मेरे चुनाव से मैंने पाया है, तो पति को और परिवार को अपनी सहनशीलता से जोड़कर रखने का उत्तरदायित्व भी मेरा ही है। यही घोषणा इस मन्त्र में की गई है।

VED

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