Category Archives: वेद विशेष

अथर्ववेद मे यथार्थ स्वर्ग का वर्णन’

ओ३म्

अथर्ववेद मे यथार्थ स्वर्ग का वर्णन

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

अथर्ववेद के मन्त्र 6/120/3 में यथार्थ स्वर्ग का वर्णन हुआ है। लोगों ने पुराणों के आधार पर मिथ्या स्वर्ग की कल्पना कर रखी है और उसी को मानते हैं। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि पुराण वर्णित स्वर्ग संसार व ब्रह्माण्ड में कहीं नहीं है। हम एकमात्र यथार्थ वैदिक स्वर्ग पर पहले आर्यजगत के एक महान संन्यासी स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का संक्षिप्त वेदव्याख्यान दे रहे हैं। इसके बाद वेदमन्त्र व उसके पदों वा शब्दों का अर्थ भी प्रस्तुत है।

 

यथार्थ स्वर्ग का व्याख्यान

 

स्वर्ग किसी देशविशेष (स्थान विशेष) या लोकविशेष का नाम नहीं है, वरन् उस अवस्था को स्वर्ग कहते हैं, जिस अवस्था मे मनुष्य को शारीरिक, आत्मिक, पारिवारिक आदि सब प्रकार के सुख प्राप्त हैं, जिस अवस्था में मनुष्य को कोई शारीरिक क्लेश, मानसिक पीड़ा नहीं सताती, मातापिता तथा सन्तान का सुख प्राप्त हो, शरीर सुन्दर तथा सुडौल हो, कोई त्रुटि हो, इसकी प्राप्ति का साधन सद्विचार तथा उत्तम सदाचार है। दूसरे शब्दों में रोग, दुःख, अंगभंग, कुरूप शरीर आदि पापों का फल है। संक्षेप मेंसुखविशेष भोग तथा उसकी सामग्री का नाम स्वर्ग है। (यह स्वर्ग मनुष्य के अपने भीतर, अपने निवास, परिवार, समाज देश में ही होता है माना जा सकता है। वाल्मिीकी रामायण में भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम लक्ष्मण जी से कहते हैं किजननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। पूरे श्लोक का भाव है कि मैं जानता हूं कि लंका सोने की है परन्तु फिर भी मुझे यह अच्छी नहीं लगती। क्योंकि अपनी माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। यह इसलिए कि जो सुख विशेष अपनी माता और अपनी जन्म देश भूमि में मनुष्य को प्राप्त होता हो सकता है, वह अन्यत्र नहीं मिल सकता।लेखक)

 

अथर्ववेद का मन्त्र संख्या 6/120/3

 

यात्रा सुहार्दः सुकृतो मदन्ति विहाय रोगं तन्वः स्वायाः।

अश्लोणा अंगैरह्रुताः स्वर्गे तत्र पश्येम पितरौ पुत्रान्।।

 

मन्त्र का पद वा शब्दार्थ

 

यत्र=जिस अवस्था में सुहार्दः=उत्तम हृदयवाले अपने तन्वः=शरीर के रोगम्=रोग को विहाय=छोड़कर, अर्थात् पूर्णतया नीरोग होकर अंगैः अश्लोणाः=अंग-भंगरहित, अर्थात् पूर्णांगवयवयुक्त शरीरवाले तथा अह्रुताः=शरीर, आत्मा तथा मन की कुटिलता से विरहित हुए मदन्ति=सुखी रहते हैं तत्र स्वर्गे=उस स्वर्ग में हम पितरौ=माता-पिता च=और पुत्रान्=पुत्रों-सन्तान को पश्येम=देखें, अर्थात् हमारे माता-पिता तथा सन्तान सदा सुखी रहे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

‘वैदिक प्राचीन पर्व नव संवत्सर’

ओ३म्

वैदिक प्राचीन पर्व नव संवत्सर

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य के जीवन में पर्वों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वर्ष या संवत्सर के रूप में पर्व को इस रूप में जान सकते हैं कि एक वर्ष की समाप्ती व उसके अगले दिन से दूसरे वर्ष का आरम्भ। मनुष्य जीवन में एक शिशु के रूप में जन्म लेता है और समय के साथ शिशु की अवस्था समाप्त होकर बाल व किशोरावस्था आ जाती है। इसके बाद युवावस्था, फिर प्रौढ़ावस्था और अन्त में वृद्धावस्था आती है। यह जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का आना व पिछली का पूरा होना एक प्रकार का पर्व ही होता है परन्तु हमें इसका पता ही नहीं चलता और न इसे मनाने की परम्परा ही हैं। हां, इसका एक अन्य रूप जन्म दिवस को मनाने की परम्परा को कह सकते हैं। मनुष्य की आयु एक-एक दिन, एक-एक माह और एक-एक वर्ष करके बढ़ती है। हर दिन और हर माह तो पर्व व उत्सव मना नहीं सकते, अतः वर्ष में एक दिन जन्मोत्सव मनाने की परम्परा कुछ समय से चल पड़ी है। लोगों को इस दिवस को मनाने का कोई ज्ञान भी नहीं है। लोग सोचते हैं कि मित्रों व सम्बन्धियों को एकत्रित कर केक आदि काटकर व प्रीतिभोज करा दिया जाये। वैदिक परम्परा के आधार पर दृष्टि डाले तो जन्म दिवस मनाने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु इसको मनाने के रूप में गुणवर्धन किया जा सकता है। यदि जन्म दिवस के दिन लोग वृहत यज्ञ करें तो यह जीवन में अनेक दृष्टियों से लाभप्रद व प्रेरणादायक हो सकता है। सुधी आर्य परिवारों में यज्ञ के द्वारा ही जन्म दिवस व अन्य पर्व मनाये आते हैं। यह अल्पव्यय साध्य तो हैं ही, साथ ही परिणाम में और अनुष्ठानों की तुलना में अधिक लाभदायक हैं। ऐसे ही अनेक पर्व हैं जिनमें से एक नव-संवत्सर का पर्व भी होता है। यह भारतीय परम्परा का पर्व है जो प्रत्येक वर्ष चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को मनाया जाता है। यह नवसंवत्सर एक प्रकार से इस सृष्टि ब्रह्माण्ड का जन्म दिवस है। इससे हमें यह लाभ होता है कि अनेक तथ्यों का स्मरण इस पर्व को मनाकर हो जाता है। मुख्य तथ्य तो यह है कि हमारी सृष्टि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन आज से 1,96,08,53,116 एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलह वर्ष पूर्व आरम्भ हुई थी। आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस सृष्टि में मानव उत्पत्ति का 1,96,08,53,117 हवां वर्ष आरम्भ हुआ है। यह तथ्य है और यह सारे विश्व के लिए मार्गदर्शक होना चाहिये। हमें ज्ञात है कि सृष्टि में मानव धर्म, सभ्यता व संस्कृति का सर्वप्रथम आविर्भाव व विकास भारत में ही हुआ। संसार के जितने भी देश हैं उनका इतिहास कुछ सौ या हजार वर्ष पुराना है जबकि भारत का इतिहास 1.96 अरब वर्ष पुराना है। सृष्टि के आरम्भिक काल में लिखी गई मनुस्मृति के एक श्लोक को भी स्मरण कर लेते हैं। एतददेशस्य प्रसुतस्य सकाशाद अग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्याम् सर्वमानवाः।। इस श्लोक में महर्षि व राजा मनु जी ने आर्यावर्त्त देश की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है कि प्राचीन काल से हमारा देश ही संसार के अग्रणीय मनुष्यों को जन्म देता, उत्पन्न करता अर्थात् शिक्षित कर अनका निर्माण करता आ रहा है। संसार के देशों के लोग हमारे देश में अपने-अपने योग्य चरित्र व ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा लेने हमारे देश में ही आते थे। इससे यह अनुमान होता है कि सृष्टिकाल के आरम्भ से लेकर कुछ हजार वर्ष पूर्व तक हमारा भारत वा आर्यावत्र्त देश ही संसार के लोगों को ज्ञान-विज्ञान सहित परा व अपरा विद्या एवं चरित्र आदि की शिक्षा दिया करता था और संसार के लोग अध्ययन के लिए भारत में ही आया करते थे। यह इस कारण से सम्भव हुआ था कि सृष्टि के आरम्भ में प्रथम दिन ही ईश्वर ने मनुष्यों को युवावस्था में अमैथुनी सृष्टि कर आर्यावत्र्त में जन्म दिया था और साथ हि उन्हें सभी सत्य विद्याओं से सम्पन्न कराने के लिए वेदों का ज्ञान भी दिया था।

 

हिमाद्रि ज्योतिष का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में एक श्लोक आता हैचैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि। शुक्लपक्षे समग्रन्तु, तदा सूर्योदये सति।। इसका अर्थ है कि चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा ने जगत की रचना की। प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य भास्करार्चा रचित ‘‘सिद्धान्त शिरोमणि का एक श्लोकलंकानगर्यामुदयाच्च भानोस्तस्यैव वारं प्रथमं बभूव। मघोः सितादेर्दिनमासवर्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृत्तिः।। है। इसका भावार्थ है कि लंका नगरी में सूर्य के उदय होने पर उसी सूर्य के वार अर्थात् आदित्यवार को चैत्र मास, शुक्ल पक्ष के आरम्भ में दिन, मास, वर्ष युग आदि (अर्थात् सृष्टि संवत्सर) एक साथ आरम्भ हुए। आज भी संसार के अधिकांश विद्वान इन तथ्यों से अपरिचित है। जिन को इसका ज्ञान भी होता है तो वह संस्कृत में होने के कारण इसे स्वीकार नहीं करते। हां, यदि इसी प्रकार का कोई लेख अंग्रेजी व अन्य किसी यूरोपीय भाषा के पुराने ग्रन्थ में होता तो सारा विश्व इसे कभी का एक मत से स्वीकार कर लेता। कोई स्वीकार करे या न करे परन्तु यह दोनों श्लोक व इसमें लिखी व कहीं बातें आप्त-प्रमाण, सृष्टि क्रम, युक्ति, तर्क व ज्ञान विज्ञान के आधार पर सत्य सिद्ध होती हैं। इन तथ्यों व पूर्व से चली आ रही परम्पराओं से यह ज्ञात होता है कि चैत्र शुक्ला प्रतिपदा के इस दिवस से ही ब्रह्म दिन, सृष्टि संवत्, वैवस्वतादि मन्वन्तर का आरम्भ, सतयुग आदि युगारम्भ, कलिसंवत्, विक्रम संवत् का आरम्भ होता है।

 

आर्यसमाज के विद्वान पं. भवानी प्रसाद लिखते हैं कि आदि सृष्टि से ही आर्य जाति में नवसंवत्सरारम्भ का वर्ष मानने की प्रथा प्रचलित है। मुसलमानी राज्य में आर्यों की सनातन संस्थाएं अस्तव्यस्त होने पर भी नवसंवत्सरोत्सव को समारोहपूर्वक मनाने की परिपाटी बराबर बनी हुई थी। इसका प्रमाण देते हुए उन्होंने दूसरे मतों के प्रति असहिष्णु, पक्षपाती अत्याचारी मुगल सम्राट् औरंगजेब के अपने ज्येष्ठ पुत्र युवराज मुहम्मद मोअज्जम के नाम लिखे एक पत्र से मिलता है। अपने पत्र में औरंगजेब ने धृणा के शब्दों में लिखा था किईरोज ऐयाद मजू सअ स्त, एकादकफ्फार नूद रोज जलूस विक्रमाजीत लाईन मबदाए तारीख हिंदू। अर्थात् यह दिन अग्निपूजक (पारसियों) का पर्व है, और काफिर (धर्मशून्य) हिन्दुओं के विश्वासानुसार धिक्कृत विक्रमाजीत की राज्याभिषेक तिथि है और भारतवर्ष का नव संवत्सरारम्भ दिवस है।

 

नवसंवत्सर-आरम्भ-उत्सव संसार की प्रायः सब सभ्य जातियों में मनाया जाता है। ईसाइयों के यहां उसको न्यू इयर्स डे (New Years Day) कहते हैं और वह पहली जनवरी को होता है। फारस देश के पारसियों के यहां वह जश्न नौरोज के नाम से प्रसिद्ध है। अन्य जातियों में जहां इस अवसर पर केवल प्रसन्नता प्रदर्शन और रंग-रेलियां मनाने की रीति है, वहां धर्मप्राण आर्य जाति में आनन्दानुभव के साथ-साथ यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानपूर्वक इस उत्सव को मनाने की परम्परा है। पं. भवानी प्रसाद जी ने आगे लिखा है कि प्रतीत होता है कि सृष्टि के आरम्भ के प्रथम दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन सौर मेष संक्रान्ति एक साथ ही पड़ी थी, किन्तु पीछे से सौर और चान्द्र वर्षों की दो प्रकार की गणना संसार में प्रचलित होने पर सौर और चान्द्र संवत्सरों का नवसंवत्सरारम्भ भी पृथक् पृथक् तिथियों पर होने लगा। चान्द्र संवत्सरारम्भ चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को और सौर संवत्सरारम्भ मेष संक्रान्ति के दिन होता है। अतः ऋतुओं की गणना सौर वर्ष के अनुसार ही होती है, इसलिए भूमण्डल की अधिकांश सभ्य जातियों में सौर संवत्सर प्रचलित है। भारतवर्ष के भी अधिकांश प्रांतों में सौर वर्ष का ही व्यवहार है। बंगाल प्रांत में बंगाब्द, दक्षिण में शालिवाहन शक और पंजाब में प्रविष्टा सौर वर्ष गणना पर ही चलते हैं। अतएव आर्य जाति में जहां चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को चान्द्र नव-संवत्सरारम्भ का समारोह होता है, वहां मेष संक्रांति के दिन सौर संवत्सरेष्टि भी की जाती है। अतएव जिन प्रांतों में चान्द्र संवत्सर का व्यवहार होता हो, वहां चैत्र सुदि प्रतिपदा को नवसंवत्सरारम्भोत्सव वा संवत्सरेष्टि पर्व मनाना चाहिए। इस दिवस को वृहत यज्ञ कर मनाने के साथ सामूहिक प्रीतिभोज वा लंगर तथा काव्य गोष्ठी सहित बालक-बालिकाओं एवं युवाओं की अनेक प्रतियोगितायें आयोजित कर मनाया जा सकता है। इस पर्व के महत्व को जानकर और इसे सामूहिक रूप से वृहत यज्ञ, सामूहिक प्रीतिभोज व अनेक प्रतियोगिताओं के आयोजन के साथ मनाने से समाज में अच्छी परम्पराओं के स्थापित होने से लाभ मिल सकता है।

 

समय के साथ नववर्षाभिनन्दन के इस दिन से अनेक ऐतिहासिक महत्वपूर्ण घटनायें जुडती व विस्मृत होती गई हैं। सम्प्रति सुप्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक भी इस नववर्षारम्भ के दिन से जुड़ा हुआ है जो अब से 2072 वर्ष पूर्व हुआ था। महाभारत युद्ध के बाद महाराज युधिष्ठिर जी ने भी इस नवसंवत्सराम्भ के दिवस पर ही राज्यारोहण किया था। ऐसी अन्य कई घटनायें हो सकती हैं परन्तु इस दिन मुख्य महत्व इस दिन से इस सृष्टि, मानवोत्पत्ति व ईश्वर से सब सत्य विद्याओं की पुस्तक वेदों का चार ऋषियों अग्नि, वायु,आदित्य व अंगिरा को ज्ञान प्राप्त होना है जो हमारे ऋषि व पूर्वजों की तपस्या से आज तक सुरक्षित है। यही वेद ज्ञान आज सभी परा व अपरा अर्थात् आध्यात्मिक व भौतिक विद्याओं का आधार है। इस नववर्ष को मनाते हुए यदि हम वेदाध्ययन का संकल्प लें और वेदों के संरक्षण की योजना बनायें, तो यह भी उचित होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

वैदिक मान्यतायें ही धर्म व इतर विचारधारायें मत-पन्थ-सम्प्रदाय

ओ३म्

वैदिक मान्यतायें ही धर्म इतर विचारधारायें मतपन्थसम्प्रदाय

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

धर्म शब्द की उत्पत्ति व इसका शब्द का आरम्भ वेद एवं वैदिक साहित्य से हुआ व अन्यत्र फैला है। संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद है। वेद ईश्वर प्रदत्त वह ज्ञान है जो सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में इस संसार के रचयिता परमेश्वर वा सृष्टिकर्त्ता से आदि चार ऋषियों वा मनुष्यों को मिला था। परमात्मा ने वेदों का ज्ञान क्यों दिया और इस बात का क्या प्रमाण है कि वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है? वेदों का ज्ञान परमात्मा ने दिया है, इसका प्रमाण यह है कि ज्ञान व विज्ञान का धारक व पालक संसार में एकमात्र ईश्वर है, अन्य कोई नहीं है। मनुष्यों को सिखना पड़ता है। यह उन्हीं से सीख सकता है जो पहले से कुछ सीखे हुए होते हैं। अब प्रश्न होता है कि सृष्टि के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए उनको सिखाने वाला कौन था? इसका उत्तर एक ही है कि वह इस सृष्टि की रचना करने वाला ईश्वर ही था। उसने ज्ञान, विज्ञान व अपनी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमतता से इस समस्त अनन्त संसार को पूर्व कल्प के अनुसार रचा है। मनुष्य को आंख, नाक, कान, जिह्वा व त्वचा आदि ज्ञानेन्द्रियां भी उसी ने अपने ज्ञान, विज्ञान, सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमतता के गुण से ही बनाकर मनुष्यों को प्रदान की हैं। मनुष्य सृष्टि के आरम्भ काल में अब प्रथम उत्पन्न हुआ तो उसका पालन करने के लिए माता व पिता तथा ज्ञान व शिक्षा देने के लिए गुरु, अध्यापक व आचार्य संसार में नहीं थे। उत्पन्न हुए सभी युवा स्त्री-पुरुष भाषा व ज्ञान से शून्य थे क्योंकि बिना पढ़े कोई ज्ञानी नहीं हो सकता अर्थात् जन्म से ही कोई भी मनुष्य भाषा व ज्ञान से युक्त नहीं होता। भाषा मनुष्यो को सीखनी पड़ती है। पहले माता-पिता व बाद में विद्यालय मे आचार्य व गुरु भाषा सिखाने के साथ ज्ञान व विज्ञान पढ़ाते हैं। संसार के आरम्भ में माता-पिता व आचार्यों के न होने के कारण एक ईश्वरीय सत्ता ही बचती है जिनसे मनुष्य को भाषा व ज्ञान प्राप्त होता व हो सकता है। यह इस कारण से आदि सृष्टि के मनुष्यों को भाषा व धर्माधर्म का ज्ञान ईश्वर से मिलना ही प्रमाणित तथ्य है। इसका अन्य कोई उत्तर नहीं है। ईश्वर से मनुष्यों को ज्ञान मिलना निर्दोष उत्तर है तथा अन्य सभी कल्पनायें व अनुमान दोषपूर्ण हैं जो परीक्षा करने पर असत्य व प्रमाणहीन सिद्ध होते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी व सर्वज्ञ सत्ता होने के कारण जीवात्मा की आत्मा में ही ज्ञान को भाषा सहित स्थापित करती है व देती है। ज्ञान भाषा में ही निहित होता है, अतः ज्ञान के साथ भाषा का मिलना भी सुनिश्चित है। आजकल भी सम्मोहन द्वारा प्रेरणा करके ज्ञान के उदाहरण मिलते हैं। बहुत से लोग इस विद्या को सीख लेते हैं और इसी से अपनी आजीविका चलाते हैं। ईश्वर तो जीवात्मा के भीतर भी विद्यमान और सर्वज्ञ है तो वह जीवात्मा को आत्मस्थ होने से प्रेरणा क्यों नहीं कर सकता? यह सर्वथा सम्भव है। हम जानते हैं कि माता का गर्भस्थ शिशु माता के व्यवहार के अनुरूप गुण-कर्म-स्वभाव वाला बनता है। इसका कारण है कि गर्भ में होते हुए जबकि उसका शरीर निर्माणाधीन होता है वह अपनी माता के आचार, विचार, भाषा व भोजन आदि से प्रभावित होता रहता है। जन्म के बाद माता की गोद में वह स्वयं सुरक्षित अनुभव करता है और शान्त रहता है जबकि अन्य किसी के लेने पर वह प्रायः रोना आरम्भ कर देता है। यह भी एक प्रकार का विज्ञान है जिससे पता चलता है कि माता के साथ बच्चे का तादात्मय अर्थात आत्मा का आत्मा के साथ वाला सम्बन्ध होता है। शरीर से पृथक होने पर भी दोनों आत्मा से आबद्ध रहते हैं। अतः सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर का वेदों का ज्ञान देना सत्य सिद्धान्त है।

 

वेदों की संहितायें, उनके संस्कृत व हिन्दी भाषा में भाष्य तथा वेदों के अनेक व्याख्या ग्रन्थ 4 ब्राह्मण ग्रन्थ, 6 दर्शन, 11 मुख्य उपनिषदें, मनुस्मृति आदि ग्रन्थ सम्प्रति उपलब्ध हैं। इनका अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि मनुष्य को जितना सत्य-सत्य ज्ञान आवश्यक है वह चार वेदों में सृष्टि के आदि काल से ही विद्यमान है। सभी प्राचीन ऋषियों से लेकर महर्षि दयानन्द तक ने वेदों को सब सत्य विद्याओं का कोष व ग्रन्थ स्वीकार किया है। वेद में आध्यात्म के साथ सभी भौतिक विद्याओं का भी सूत्र रूप में समावेश है। इसका सविस्तार उल्लेख महर्षि दयानन्द ने अपनी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ में किया है। अतः वेद ज्ञान-विज्ञान सहित कर्तव्याकर्तव्य वा धर्माधर्म के ग्रन्थ सिद्ध होते हैं। धर्म उस ज्ञान को ही कहते हैं जिससे मनुष्य को अपने कर्तव्य व अकर्तव्य का बोध होता है व जिसका पालन करने से अभ्युदय व निःश्रेयस की सिद्धि हो। क्या वेदों में व वैदिक साहित्य में कहीं किसी मान्यता व सिद्धान्त की कोई कमी थी जिसकी देश-देशान्तर के किसी मनुष्य ने अनुसंधान व खोज की हो जिसने अधूरे वेद ज्ञान को पूर्णता प्रदान की हो? जब ऐसा कोई सन्दर्भ व प्रमाण किसी मत व पन्थ में उपलब्ध नहीं होता और व वह इसका दावा ही करते हैं तो फिर विश्व के मनुष्यों के लिए किसी नवीन मत की आवश्यकता ही नहीं रहती। मनुष्य के सभी कर्तव्य व अकर्तव्य वेदों व महाभारत के पूर्व काल के वैदिक साहित्य में सर्वांगपूर्ण रूप से विद्यमान होने के कारण वेद अपने आप में पूर्ण मनुष्य जाति का धर्म है। वेदों की सर्तमान समय में विद्यमानता के कारण मनुष्यों के लिए किसी नये मत की आवश्यकता ही नहीं है। वेद धर्म ईश्वर द्वारा प्रादूर्भूत धर्म है और सभी मनुष्यों के लिए यही धर्म आचरणीय व कर्तव्य है। हमारे मनुस्मृति, उपनिषद्, दर्शन, रामायण, महाभारत व अन्य जितने भी ग्रन्थ हैं उनमें धर्म शब्द का प्रयोग वेद के सिद्धान्तों के आचरण करने से ही सम्बन्ध रखता है। वेदों का धर्म सर्वथा पूर्ण धर्म है। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक और महाभारत काल के भी बहुत बाद तक वैदिक धर्म ही भारत सहित विश्व का एकमात्र धर्म रहा है। महाभारत काल तक अन्य किसी धर्म के अस्तित्व का उल्लेख व विवरण विश्व के साहित्य में उपलब्ध नहीं है।

 

महाभारत काल के बाद संसार में अनेक मत-मतान्तर जिन्हें रिलीजन, मजहब, सम्प्रदाय व पन्थ भी कह सकते हैं, अस्तित्व में आये। कारणों पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि महाभारत के महायुद्ध के बाद आलस्य व प्रमाद के कारण वैदिक धर्म व वैदिक सामाजिक व्यवस्था विशृंखलित हो गई। समयानुसार जैमिनी ऋषि पर आकर ऋ़षियों की परम्परा भी समाप्त हो गई और वेदों के पारदर्शी विद्वानों की संख्या भी नगण्य हो गई। विश्व में वेदों का प्रचार बन्द हो गया। देश के अल्पज्ञानी विद्वान मनमानी करने लगे और सर्वत्र अल्पज्ञता से पूर्ण नये नये अवैदिक विधान दिखाई देने लगे। अन्धकार बढ़ता गया और कुछ अच्छे आशय वाले सज्जन पुरुषों ने देश व विदेश मं समाज के हित की दृष्टि से अपनी-अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार लोगों को अपने मत में संगठित व दीक्षित किया। यह सभी लोग वेदों के ज्ञान से परिचित नहीं थे। उन लोगों के सम्मुुख वेदों का पुराना आचार, विचार व व्यवहार ही अनेकों विकृतियों के साथ प्रचलित था। उन्हें जो उचित लगा उन्होंने प्रचलित किया और उन-उन के नये मत, पन्थ, सम्प्रदाय ही प्रचलित होकर विस्तार को प्राप्त हुए। अनेकों प्रकार के चमत्कार आदि भी इन वेदेतर नये मतों के अनुयायियों ने समय-समय पर अपने-अपने मत में मिला लिए। नये मतों की संख्या समय व स्थान के अनुसार वृद्धि को प्राप्त होती रही। यह मत व पन्थ धर्म न होकर मत, पन्थ, रिलीजन, मजहब व सम्प्रदाय आदि श्रेणी में आते हैं। भारत से इतर मत व पन्थ जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उन भाषाओं में धर्म नाम का शब्द भी नहीं है। धर्म वेद, वैदिक साहित्य व संस्कृत का शब्द है। अन्य मतों की अपनी-अपनी भाषायें होने से उनके अपने-अपने शब्द हैं, उन्हीं से उनको सम्बोधित किया जाना चाहिये। भारत में यह कुछ फैशन सा हो गया है कि देशी व विदेशी सभी मतों व पन्थों को धर्म मान लिया गया है जिससे यथार्थ व सदधर्म वैदिक धर्म के बारे में अनेक प्रकार की भ्रान्तियां फैल गई हैं। वैदिक धर्म जो कि वेद व वेदानुकूल वैदिक साहित्य पर आधारित है औरयुक्ति, तर्क व प्रमाणों पर आधारित जो सत्य मान्यतायें व सिद्धान्त है, वही वैदिक धर्म है। इससे इतर देश व विश्व में जितने भी मत व सम्प्रदाय हैं वह धर्म न होकर, मत-पन्थ-सम्प्रदाय-रिलीजन-मजहब आदि श्रेणी में ही आते हैं और उनके लिए उनकी भाषाओं के उपयुक्त शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिये।

 

हमारा इस लेख को लिखने का अभिप्राय यही है कि सत्य, सनातन, ईश्वर प्रदत्त वेद व इसकी शिक्षाओं, मान्यताओं, सिद्धान्तों व विधानों का पालन ही वैदिक धर्म है। इससे इतर, विपरीत, सत्यासत्य मिश्रित आध्यात्मिक व सामाजिक मान्यतायें धर्म नहीं हैं। जो सिद्धान्त व मान्यतायें वेद, ज्ञान व पूर्ण सत्य के अनुरूप व अनुकूल है, वह वैदिक धर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं। वैदिक मत से इतर मान्यता व सिद्धान्तों वाले सभी संगठन व समुदाय मत व पन्थ की ही श्रेणी में आते हैं। अतः सुधी व विज्ञ लोगों को वेद से इतर मत-पन्थों के लिए धर्म का प्रयोग न कर उनके लिए उचित व यथार्थ शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिये जिससे धर्म विषयक यथार्थ स्थिति का सबको ज्ञान रहे। धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है और इसका प्रयोग मनुस्मृति, दर्शन, उपनिषद, रामायण व महाभारत आदि ग्रन्थों में वेद मत व वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के लिए ही हुआ है। इस स्थिति को जान व समझ कर ही सभी मनुष्यों को धर्म शब्द का प्रयोग करना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘ईश्वर अनादि काल से अनन्त काल तक सबका एकमात्र साथी’

ओ३म्

ईश्वर अनादि काल से अनन्त काल तक सबका एकमात्र साथी

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

मनुष्य जन्म व मरण धर्मा है परन्तु मनुष्य शरीर में निवास करने वाला जीवात्मा अजन्मा व अमर है। जीवात्मा अनादि व  अनुत्पन्न  होने के अविनाशी व अमर भी है। हमारे इस इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर किसी जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता।  इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर किसी जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता।  जन्म के माता-पिता, भाई-बहिन, सगे-संबंधी व इष्ट-मित्र आदि जन्म व उसके बाद हमसे जुड़ते हैं तथा उनकी व हमारी मृत्यु होने पर यह सभी सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। यह हम सबका अनुभव है और हमें लगता है कि इस मान्यता व सिद्धान्त पर किसी को कोई आपत्ति व आक्षेप नहीं है। क्या हमारा कोई स्थाई साथी भी है जो हमारे इस जन्म से पहले भी हमारे साथ रहता आया हो और मृत्यु के बाद भी रहेगा? अध्ययन व विचार करने पर ऐसा एक ही साथी ज्ञात होता है और वह है परमात्मा वा ईश्वर। ईश्वर भी इस ब्रह्माण्ड में अनादि, अनुत्पन्न, अजन्मा, नित्य, अविनाशी, अमर धर्म गुणों वाली सत्ता है। यह सच्चिदानन्द (सत्य+चित्त+आनन्द) ईश्वर हर क्षण, हर पल, हर जन्म, हर युग में हमारा साथी, मित्र, मातापिता, आचार्य रक्षक रहा है भविष्य में भी रहेगा।

 

ईश्वरीय ज्ञान वेदों में इन दोनों मित्रों को द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यन्श्नन्नन्यो अभि चाकशीति। (ऋग्वेद 1/164/20)’ कहा है जिसका अर्थ है कि ईश्वर व जीवात्मा दो सुन्दर पंख वाले पक्षी के समान हैं जो कि प्रकृति रूपी एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हैं। जीवात्मा इस वृक्ष के फल खाकर इसमें फंसता है परन्तु ईश्वर फल नहीं खाता, वह जीवात्माओं के कर्मों का साक्षी और फल प्रदाता है।  ईश्वर अजन्मा होने से जन्म नहीं लेता। इस कारण उसका भौतिक शरीर भी नहीं होता। मनुष्य के जन्म-मरण धर्मा होने से इसे पंचभौतिक शरीर की आवश्यकता होती है। संसार में यह तीसरा भौतिक पदार्थ प्रकृति के गुणों की विषम अवस्था है जो कि चेतनशून्य वा जड़ तत्व है जबकि ईश्वर व जीवात्मा दोनों ही चेतन तत्व हैं। जीवात्मा संख्या में अनन्त और ईश्वर एक है। ईश्वर ही अपने सनातन सखा जीवात्मा को सुख प्रदान करने के लिए इस सृष्टि की रचना व पालन करता़ है और जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार सुख-दुःख रूपी फल सहित जन्म-जन्मान्तर में भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म देता है। ईश्वर इसका स्वरूप कैसा है? ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सर्वातिसूक्ष्म, सृष्टिकर्ता, जीवों के कर्मों का साक्षी फल प्रदाता है। जीवात्मा सत्य, चित्त, आनन्दरहित, अल्पशक्तिवान्, अनुत्पन्न, अनादि, ईश्वर से व्याप्य, सूक्ष्म, अजर, अमर, नित्य, ईश्वर की व्यवस्था से जन्म लेने मृत्यु को प्राप्त होने वाला, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में परतन्त्र, वेदादि साहित्य का अध्ययन कर ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानने वाला और योगादि साधना से ईश्वर का साक्षात्कार एवं मोक्ष की प्राप्ति करने आदि गुणों वाला है। 

 

जीवात्मा व ईश्वर अनादि व नित्य हैं, इसका उल्लेख किया जा चुका है। इन गुणों के कारण जीवात्मा के अनन्त बार जन्म व मृत्यु हो चुकी हैं। वह प्रायः निम्न, मध्यम व मनुष्य की उच्च सभी योनियों सहित अनेकानेक बार मोक्ष में भी जा चुका है। इन सभी जन्मों में उसका एकमात्र साथी व संगी ईश्वर ही रहा है जिसे वह वर्तमान भौतिक युग व मत-मतान्तरों के मिथ्या जाल में फंस कर उसको भुला हुआ है। जीवात्मा व ईश्वर के बीच जो आवरण है उसे काटने का एक ही उपाय है और वह है वेदाध्ययन और वेद व योग विधि से ईश्वरोपासना करना। योग की ईश्वरोपासना विधि में मनुष्य को पांच यम (अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), पांच नियम (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान), आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि का अभ्यास करना होता है जिससे ईश्वर का साक्षात्कार होकर विवेक की प्राप्ति होती है और जीवात्मा मृत्यु के होने पर जन्म-मरण के चक्र से 31 नील 10 खरब वर्षों की अवधि के लिए अवकाश पाकर ईश्वर के सान्निध्य में सुख व आनन्द का भोग करता है। इसके बाद पुनः मोक्ष के पूर्व के अवशिष्ट कर्मों के अनुसार मनुष्य जन्म होता है और वह पुनः अन्य जीवों की भांति कर्म-फलों में आबद्ध हो जाता है। किसी विद्वान का एतद् विषयक एक प्रसिद्ध श्लोक पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं। है जिसमें बताया गया है कि मैंने बार-बार जन्म लिया है, बार-बार मृत्यु को प्राप्त किया है, अनेक जन्मों में अनेक माताओं की कोख में शयन किया है, आदि। यही अवस्था हमारी व सभी जीवात्माओं की है।

 

मनुष्य को जन्म व मृत्यु ईश्वर की कृपा से प्राप्त होती है। जब हमारा शरीर पुराना व वृद्ध हो जाता है तो पुराने वस्त्रों का त्याग कराकर ईश्वर हमें नये वस्त्र के रूप में नया शरीर प्रदान करता है। हमारी आत्मा शस्त्रों से काटी नहीं जा सकती, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गिला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती। इन गुणों वाली जीवात्मा का ईश्वर हर जन्म, हर क्षण पल का साथी रहा है और आगे भी रहेगा। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर किसी जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता। अतः इस नाशवान भौतिक संसार में फंसकर हमें इस विवेक ज्ञान को अपनी जीवात्मा के दुःखों से मुक्ति वा मोक्ष का साधन मानकर हर पल क्षण वा अधिकाधिक ईश्वर का स्मरण उसका ध्यान कर समाधि लगा कर धन्यवाद करना चाहिये जिससे हम अपने प्रिय सनातन साथी ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव के अनुसार अपने को बनाकर उसकी मोक्ष रूपी कृपा के अधिकारी बन सकें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘मैं महानतम पुरुष ईश्वर को जानता हूं’

मैं महानतम पुरुष ईश्वर को जानता हूं

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

यदि किसी मनुष्य ने ईश्वर या सृष्टि आदि विषयों को जानना है तो उसे इन विषयों के जानकार विद्वान व ज्ञानी पुरुषों की शरण लेनी होगी। किसी एक ज्ञानी पुरुष को प्राप्त होकर हम उससे, जितना वह ईश्वर वा सृष्टि के बारे मे  जानता है, ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। अब यदि हम उससे पूछे कि आपको यह ज्ञान कहां से प्राप्त हुआ तो वह परम्परा का उल्लेख करेगा व कुछ अपने ऊहापोह, चिन्तन-मनन व अन्वेषण की बात कह सकता है। यह सृष्टि वैदिक मान्यताओं के अनुसार विगत 1.96 अरब वर्षों से अस्तित्व में है। इस अवधि में लगभग 49 करोड़ मनुष्यों की पीढि़यां उत्पन्न होकर कालकवलित हो चुकी हैं। मनुष्य का आत्मा सत्य का जानने वाला होता है परन्तु अविद्या आदि अनेक दोषों के कारण वह सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। इससे यह ज्ञात होता है कि यदि मनुष्य अपनी अविद्या को दूर कर दे तो वह सत्य व ईश्वर एवं सृष्टि का यथावत ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अविद्या को हटाने का एक ही मार्ग है कि हम विद्या प्राप्ति का संकल्प लेकर विद्या से युक्त विद्वानों की संगति करें और अपनी सभी शंकाओं को दूर करने सहित ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि के कारण व कार्य रुप को जानें। स्वयं को, सृष्टि व ईश्वर को जानने की इच्छा व आवश्यकता सृष्टि की प्रथम पीढ़ी में उत्पन्न स्त्री वा पुरूषों को भी अवश्य हुई होगी क्योंकि हम जानते हैं कि आत्मा चेतन तत्व वा पदार्थ है और ज्ञान व कर्म इसके दो स्वाभाविक धर्म वा गुण हैं। ज्ञान की पिपास व जिज्ञासु स्वभाव इसका शाश्वत् गुण वा स्वभाव है।

 

सृष्टि के आरम्भ में पहली पीढ़ी के लोगों के लिए आचार्य व गुरु कहां से आये थे? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है कि उन्हें भी अन्य सामान्य मनुष्यों की भांति ईश्वर ने ही उत्पन्न किया था। इन आचार्यों को ईश्वर ने चार वेदों का ज्ञान दिया और उन्हें इस वेदों के ज्ञान की अन्य मनुष्यों में प्रचार व उपदेश की प्रेरणा की। उन्होंने ऐसा ही किया। परम्परा से ज्ञात होता है कि ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को क्रमशः चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का शब्दार्थ वा वाक्य-पद-अर्थ सहित ज्ञान दिया था। इन चार ऋषियों में अन्य उत्पन्न मनुष्यों में सबसे योग्य ब्रह्मा नाम के ऋषि को क्रमशः एक-एक करके चारों वेदों का ज्ञान दिया। इस प्रकार अन्य मनुष्यों को शिक्षित करने के लिए पांच ऋषि, शिक्षक व आचार्य उपलब्ध हो गये थे जिनसे अध्ययन कर सृष्टि की पहली पीढ़ी के सभी मनुष्य ज्ञानी बने थे। तभी से वेदाध्ययन की परम्परा आरम्भ हुई जो अबाध रूप से महाभारतकाल व उससे कुछ समय पूर्व तक सुचारु रूप से चलती रही। महर्षि दयानन्द के अनुसार यह परम्परा ब्रह्मा से लेकर जैमिनी ऋषि पर्यन्त चली और उसके बाद अवरोध उत्पन्न हुआ। ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द ने अपने पुरुषार्थ और वैदुष्य से उस परम्परा का पुनरुद्धार किया और आज उनके मार्गदर्शन के अनुसार संस्कृत व्याकरण की अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति पर संचालित गुरुकुलों में उस वेदाध्ययन की परम्परा पुनः विद्यमान है। महर्षि दयानन्द को यह श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने वेदाध्ययन की प्राचीन विलुप्त असम्भव परम्परा को अपने पुरुषार्थ एवं वैदुष्य से पुनः प्रवर्तित व प्रचलित किया। महर्षि दयानन्द का यह ऋण संसार कभी चुका नहीं सकता।

 

वेद ईश्वर का ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर आदि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को देता है। वेद के मन्त्रों के सत्यार्थ का दर्शन पूर्ण योगी, ज्ञानी, विद्वान व व्याकरण के आचार्यों को होना ही सम्भव होता है। अतः हमारे सभी वेदाचार्य व ऋषि ब्रह्मचारी, ज्ञानी, विद्वान, योगी व व्याकरण ज्ञान से सर्वथा सम्पन्न हुआ करते थे और ऐसे ही महर्षि दयानन्द सरस्वती भी थे। महर्षि दयानन्द ने वेदों के बारे में, वेदों का तलस्पर्शी अध्ययन कर, घोषणा की कि वेद सर्वव्यापक, निराकार, सच्चिदानन्दस्वरुप आदि ईश्वर का ज्ञान हैं और यह चार वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। इस निष्कर्ष पर पहुंच कर उन्होंने संसार के लोगों के उपकारार्थ यह भी कहा है कि वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्यों का परम धर्म है। महर्षि दयानन्द जी ने यह नियम इस लिए बनाया है कि जिससे संसार से अज्ञान का नाश व ज्ञान की वृद्धि हो। इसी बात को उन्होंने एक अन्य नियम में भी कहा है। आर्यसमाज के इस आठवें नियम में कहा गया है कि सभी मनुष्यों को ‘‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। आईये ईश्वर, वेद और महर्षि दयानन्द विषयक उपर्युक्त विचारों के प्रकाश में वेदों के एक प्रसिद्ध मन्त्र पर विचार करते हैं जिसमें ईश्वर के सत्य स्वरुप का प्रकाशन किया गया है। यह ईश्वर का स्वरुप ऐसा है, जैसा कि अन्य किसी मत व सम्प्रदाय में नहीं पाया जाता। यह मन्त्र यजुर्वेद के अध्याय 31 का 18 हवां मन्त्र है जा निम्नवत् हैः

 

ओ३म् वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।। 

 

इस मन्त्र का भावार्थ यह है कि मैंने जान लिया है कि परमात्मा महान् है, सूर्यवत् प्रकशमान है, अन्धकार व अज्ञान से परे है। उसी को जानकर मनुष्य दुःखदायी मृत्यु से तर सकता है, बच सकता या पार हो सकता है। मृत्यु से बचने व उससे पार होने का संसार में अन्य कोई उपाय नहीं है। मृत्यु से बचने का अर्थ है कि जन्म-मरण से अवकाश अर्थात् जीवात्मा की मुक्ति वा मोक्ष। मृत्यु पर विजय व मोक्ष अर्थात् 43 नील वर्षों की दीर्घावधि तक ईश्वर के सान्निध्य में रहकर पूर्णानन्द की उपलब्धि करना।

 

हमें यह मन्त्र ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का आधार भी लगता है। मृत्यु से बचने के लिए स्वप्रकाशस्वरुप, ज्ञानस्वरुप, सब सृष्टि और विद्या का प्रकाश करने वाले परमेश्वर वा परमात्मा को जानकर ही हमारी अविद्या व अज्ञान का अन्धकार दूर होता है व हो सकता है। इसके लिए वेदाध्ययन अपरिहार्य है। वेदाध्ययन से ईश्वर का सत्य वा प्रमाणिक स्वरुप विदित होकर मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर लेता है अर्थात् उसे ईश्वर के सत्य स्वरुप का ज्ञान, प्रत्यक्ष व साक्षात्कार हो जाता है। महर्षि दयानन्द एवं अनेक ऋषि-मुनियों व योगियों के जीवनादर्श हमारे सामने हैं। सम्भवतः वेद की इसी शिक्षा को विस्तार देने के लिए महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन का प्रणयन किया था जिससे ध्याता योगी अपनी जीवात्मा में निभ्र्रान्त रूप से ईश्वर के प्रकाश व स्वरुप को अनुभव कर उसका प्रत्यक्ष व साक्षात्कार कर सके। योगदर्शन के अनुसार साधना करने व उसके आठवें अंग समाधि की सिद्धि होने पर ईश्वर का साक्षात्कार होता है। समािध अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार का वर्णन करते हुए मुण्डकोपनिषद के साक्षात्धर्मा ऋषि का निम्न वाक्य वा श्लोक उपलब्ध होता है जिसे प्रमाण मानकर महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में उद्धृत किया है।

 

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।

 

अर्थात् जब इस जीव के हृदय की अविद्या अज्ञानरूपी गांठ कट (खुल) जाती है, (तब) सब संशय छिन्न होते (हो जाते हैं) और दुष्ट (अशुभ वा पाप) कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी उस परमात्मा जो कि अपने (ध्याता, उपासक योगसाधक की) आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है, (जीवात्मा योगी) उस (परमात्मा) में (निभ्र्रान्त ज्ञान सहित) निवास करता है। इस स्थिति के प्राप्त होने पर मनुष्य को सत्य असत्य का विवेक प्राप्त हो जाता है जो कि मृत्यु से पार होने अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की अर्हता है। कालान्तर में म्ृत्यु आने पर मनुष्य जन्म मरण के, कर्मफलभोग के, चक्र से 43 नील वर्षों के लिए मुक्त हो जाता है।

 

आजकल मनुष्य जिस प्रकार अर्थ वा धन तथा सुख-सुविधाओं रूपी भोगों का जीवन व्यतीत कर रहा है उससे वह कर्म-फल बन्धन में फंसता जाता है जिससे मृत्योपरान्त उसकी उन्नति होने के स्थान पर अवनति होती है। किस प्रवृत्ति के मनुष्य का अगला जन्म किस-किस पशु-पक्षी आदि निम्न योनी में हो सकता सकता है इसका अनुमान मनुस्मृति एव दर्शन आदि ग्रन्थों सहित महर्षि दयानन्द के साहित्य को पढ़कर लगाया जा सकता है। इस लेख को लिखने का हमारा प्रयोजन पाठकों का ध्यान वेदों की बहुमूल्य शिक्षाओं की ओर आकर्षित करना है जिससे वह अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त कर सके। आशा है कि यह लेख सामान्य पाठको के लिए उपयोगी होगा। यह भी कहना है कि लेखक एक साधारण व्यक्ति है जिसने यह लेख अपने स्वाध्याय व उससे प्राप्त किेंचित विवेक के आधार पर लिखा है। इस विषय में पाठक महर्षि दयानन्द व वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय कर लाभान्वित हो सकते हैं। इति

 

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

वैदिक त्रैतवाद (वेद मन्त्र भावार्थ)

वेद मन्त्र भावार्थ

-लालचन्द आर्य

आप परोपकारी के सभी अंकों में अनेक स्थानों पर महर्षि दयानन्द जी के वेद मन्त्रों के भावार्थ प्रकाशित करते हो, जिनसे पाठकों को ऋषि की विशेष मान्यताओं का बार-बार बोध होता रहता है। यह वेद प्रचार की एक उत्तम क्रिया है। मैं महर्षि दयानन्द के पाँच वेद मन्त्रों के भावार्थ परोपकारी में प्रकाशन के लिये भेज रहा हूँ, जिनके अध्ययन से वैदिक त्रैतवाद अर्थात् जीव, प्रकृति और परमात्मा के विषय में मेरी सभी शंकाओं का समाधान हो गया है। इन मन्त्रों के भावार्थ में ऋषि की विशेष मान्यतायें हैं-

  1. भावार्थ- जो मनुष्य विद्या और अविद्या को उनके स्वरूप से जानकर, इनके जड़-चेतन साधक हैं, ऐसा निश्चय कर सब शरीरादि जड़पदार्थ और चेतन आत्मा को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये साथ ही प्रयोग करते हैं, वे लौकिक दुःख को छोड़कर परमार्थ के सुख को प्राप्त होते हैं जो जड़, प्रकृति आदि कारण वा शरीरादि कार्य न हो तो परमेश्वर जगत् की उत्पत्ति और जीव कर्म, उपासना और ज्ञान के करने को कैसे समर्थ हों? इससे न केवल जड़ और न केवल चेतन से अथवा न केवल कर्म से तथा न केवल ज्ञान से कोई धर्मादि पदार्थों की सिद्धि करने में समर्थ होता है। – महर्षि दयानन्द, यजुर्वेद, भावार्थ 40-14
  2. भावार्थ- इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे अग्नि के कारण सूक्ष्म और स्थूल रूप हैं, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी के भी हैं, वैसे सब उत्पन्न हुए पदार्थों के तीन स्वरूप हैं। हे विद्वन्! जैसे तुमहारा विद्या जन्म उत्तम है, वैसा मेरा भी हो। -महर्षि दयानन्द, ऋग्वेद, भावार्थ- मं. 1 सू. 163 म. 4
  3. भावार्थ-हे मनुष्यो! इस शरीर में दो चेतन नित्य हुए- जीवात्मा और परमात्मा वर्तमान है, उन दोनों में एक अल्प, अल्पज्ञ और अल्प देशस्य है। वह शरीर को धारण करके प्रकट होता, बुद्धि को प्राप्त होता और परिणाम को प्राप्त होता तथा हीन दशा को प्राप्त होता, पाप और पुण्य के फल का भोग करता है। द्वितीय परमेश्वर ध्रुव निश्चल, सर्वज्ञ, कर्म फल के समबन्ध से रहित है, तुम लोग निश्चय करो। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 6, सु. 9, म. 4 भावार्थ
  4. भावार्थ- हे मनुष्यो! इस शरीर में सच्चिदानन्द-स्वरूप अपने से प्रकाशित ब्रह्म-द्वितीय, तृतीय-मन, चौथी- इन्द्रियाँ, पाँचवें- प्राण, छठा- शरीर वर्तमान है। ऐसा होने पर समपूर्ण व्यवहार सिद्ध होता है, जिनके मध्य में सबका आधार ईश्वर, देह, अन्तरण, प्राण और इन्द्रियों का धारण करने वाला और जीवादिकों का अधिष्ठान शरीर है, यह जानो। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 6, सु. 9, म. 5 भावार्थ
  5. भावार्थ- जो ज्ञानी धर्मात्मा मनुष्य मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं, उनका उस समय ईश्वर ही आधार है। जो जन्म हो गया- वह पहला और जो मृत्यु वा मोक्ष हो के होगा- वह दूसरा, जो है वह तीसरा और जो विद्या वा आचार्य से होता है- वह चौथा जन्म है। यह चार जन्म मिलके एक जन्म, जो मोक्ष के पश्चात् होता है, वह दूसरा जन्म है। इन दोनों जन्मों के धारण करने के लिये सब जीव प्रवृत्त हो रहे हैं, यह व्यवस्था ईश्वर के अधीन है। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 1, सु. 31, म. 7
  6. भावार्थ- हे परमेश्वर और जीव! तुम दोनों में बल, विज्ञान तथा कर्मों की प्रेरणा एक साथ होते हैं। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 1, सु. 16, म. 4

– म.नं. 1223/34, शीतलनगर, बागवालीगली, झज्जररोड, रोहतक, हरि.-124001

‘होली और उसके पूर्व महाभारतकालीन स्वरुप पर विचार’

ओ३म्

होली और उसके पूर्व महाभारतकालीन स्वरुप पर विचार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत और भारत से इतर देशों में जहां भारतीय मूल के लोग रहते हैं, प्रत्येक वर्ष फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन रंगों का पर्व होली हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है। होली के अगले दिन लोग नाना रंगों को एक दूसरे के चेहरे पर लगाते हैं, मिठाई व पकवानों का वितरण आदि करते हैं और कुछ हुड़दंग भी करते हैं। क्या होली का प्राचीन स्वरुप भी वर्तमान जैसा था? इससे कुछ भिन्न था वा यह वर्तमान स्वरूप पूर्व की विकृति वा रूपान्तर है?

 

विचार करने पर ज्ञात होता है कि भारत की धर्म व संस्कृति 1.96 अरब पुरानी है। महाभारत काल, आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व, तक वैदिक संस्कृति अपने मूल स्वरूप में देश देशान्तर में विद्यमान रही। इसका प्रमाण है कि भारत में वेदों के साक्षात ज्ञानी, ऋषि, मुनि व योगी महाभारत काल तक बहुतायत में रहे हैं। दूसरा प्रमाण यह है कि न भारत में और न हि विश्व के किसी अन्य देश में आज से पांच हजार वर्ष पूर्व की किसी अन्य धर्म, संस्कृति का कोई प्रमाण मिलता है। महाभारत ग्रन्थ में ऐसे अनेक प्रमाण है कि प्राचीन काल में भारत के लोग विश्व वा यूरोप के प्रायः सभी देशों में आते जाते थे। मनुस्मृति ग्रन्थ सृष्टि के आदि में रचा गया जिसमें वर्णन है कि यह आर्यावर्त्त देश ही संसार का अग्रजन्मा देश है। संसार के सभी देशों के लोग यहां विद्यार्जन करने आते थे और अपने योग्य चरित्र आदि की शिक्षा लेते थे। यहां से वेदों आदि व सभी विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर अपने देश में उसका प्रचार व उपयोग करते कराते थे।

 

वेद मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने के लिए ईश्वरोपासना सहित पंचमहायज्ञों का विधान करते हैं। इन पंच महायज्ञों में मनुष्यों के अनेक व अधिकांश कर्तव्य आ जाते हैं। वैदिक धर्म व संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को मानने वाली संस्कृति है। यहां सभी लोग सृष्टि के आदि काल से सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।। की प्रार्थना करते आ रहे हैं। अतः आज जैसी होली महाभारतकाल तक भारत व विश्व में कहीं होने की कोई सम्भावना नहीं है। अनुमान है कि वर्तमान जैसी होली का प्रचलन मध्यकाल में पुराणों की रचना से कुछ समय पूर्व व रचना होने से प्रचलित हुआ। प्राचीन काल में तो प्रत्येक माह पूर्णमास पर बड़े-बड़े यज्ञों का प्रचलन होने का अनुमान होता है। वृहत यज्ञों के उस प्राचीन स्वरूप का अनुसरण ही मध्यकाल से प्रचलित होकर वर्तमान काल तक फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन रात्रि को होली जलाकर किया जा रहा है। यज्ञ से वायुमण्डल शुद्ध, पवित्र, सुगन्धित व स्वास्थ्यवर्धक होता है। यज्ञ से बादल बनते हैं, समय पर आवश्यकतानुसार वर्षा होती है, अतिवृष्टि वा अनावृष्टि नहीं होती, शुद्ध, पवित्र व स्वास्थ्यवर्धक अन्न उत्पन्न होता है व यज्ञ में देवपूजा, संगतिकरण व दान करने से ऐसे अनेक लाभों सहित हमारे अन्दर पाप की प्रवृत्ति का भी शमन होता है। इसके साथ अदृष्ट धर्म लाभ भी होता है जिससे हमारा वर्तमान, भविष्य, परजन्म सुधरता है व अच्छे कर्मों के सग्रंह से मोक्ष की प्राप्ति की ओर जीवात्मा प्रवृत्त होता है।

 

फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाये जाने का एक कारण यह भी है कि भारत में सृष्टि के आदि काल से प्रचलित चैत्र, बैसाख, ज्येष्ठ, आषाण आदि बारह हिन्दी महीने जो चैत्र से आरम्भ होकर फाल्गुन की पूर्णिमा को समाप्त होते हैं, उनमें फाल्गुन पूर्णिमा वर्ष का अन्तिम दिन होता है। आज हिन्दी के बारह महीनों का अन्तिम महिना फाल्गुन का अन्तिम दिन है। एक प्रकार से वर्ष का अन्त हो रहा है। कल से चैत्र का महीना आरम्भ होगा। यह वर्ष का पहला महीना होता है। अतः वर्ष के अन्त पर वृहत्त यज्ञ का आयोजन कर उसे विदाई दी जाती थी और हो सकता है कि नये वर्ष के प्रथम महीने चैत्र के प्रथम दिन को नये वर्ष के रूप में हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता रहा हो। इसका इतना अभिप्राय हो सकता है कि यदि किसी का किसी के प्रति कोई द्वेष भाव होता रहा होगा तो इस दिन उसे छोड़ने का संकल्प लिया जाता होगा व ऐसे लोग परस्पर मिलकर आपस में प्रेम व मैत्री पूर्ण संबंध पुनः स्थापित करने की प्रतिज्ञा करते होंगे। उसी का कुछ विकृत रूप आज एक दूसरे पर रंग लगाकर, गले मिलकर, स्वादिष्ट पदार्थों का परस्पर वितरण करके व रंग डालकर मनाने की परम्परा मध्यकाल व उसके बाद से चल पड़ी है।  ऐसा देखा जाता है कि इस दिन लोग हुड़दंग करते हैं, कुछ नशा करके गलत उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं तथा कहीं कहीं परस्पर लड़ाई झगड़े आदि भी हो जाते हैं। वर्तमान का समय शिक्षा व आधुनिकता का युग है अतः सभी को सभ्यता का अच्छा उदाहरण इस दिन प्रस्तुत करना चाहिये।

 

यह भी विचारणीय है कि होली से पूर्व शीत के महीने होते हैं। शीत ऋतु वृद्ध लोगों के लिए तो कष्टकर होती ही है परन्तु साथ हि युवा व बच्चों सहित निर्धन लोगों के लिए भी अति कष्टदायक होती है। अतः ऋतु परिवर्तन से शीत की निवृत्ति व सबके लिए सुखद ऋतु वसन्त के होने पर सबका हर्षित व प्रसन्न होना स्वाभाविक ही है। देश के कृषक लोग भी इस अवसर पर प्रसन्नता व सुख का अनुभव करते हैं क्योंकि उनकी गेहूं व अन्य फसलें पक कर तैयार होती हैं। सारा वातावरण नये नये फूलों की सुगन्ध से सुवासित होता है। सभी वृक्ष अपने पुराने पत्ते-पत्तियों का त्याग कर नये हरे पत्ते धारण करते हैं जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है। इससे सारा वातावरण व उसका परिदृश्य मनमोहक व लुभावना बन जाता है। ऐसे में सामान्य मनुष्य का मन कुछ आमोद प्रमोद की बातों में लगना स्वाभाविक होता है जिसकी अभिव्यक्ति होली के चैत्र कृष्ण प्रथमा के पर्व से होती है। इतना ही निवेदन है कि मनुष्य को जोश के साथ होश भी रखना चाहिये। कहीं किसी के द्वारा इस पर्व पर कोई अमर्यादित बात व कार्य नहीं होना चाहिये। वैदिक साहित्य का अध्ययन कर हमें लगता है कि सभी परिवारों में पूर्णिमा व अगले दिन प्रथमा को अनिवार्य रूप से अग्निहोत्र व हवन का प्रचलन होना चाहिये जिसमें किसान अपनी नई फसल वा गेहूं की बालियों की आहुतियां भी दे सकते हैं जिससे यह पर्व मनाना सार्थक होता है। इस प्रकार यज्ञ पूर्वक होली को मनाना होली का मुख्य प्रतीक बनना चाहिये। इससे लाभ ही लाभ होगा। समाज, पर्यावरण व देश सभी उन्नत होंगे और ईश्वर प्रदत्त प्राचीन वैदिक धर्म व संस्कृति उन्नति को प्राप्त होगी।

 

होली के दिन प्रायः सभी घरों में स्वादिष्ट भोजन व नाना प्रकार के पकवान बनते हैं और लोग परस्पर अपने पड़ेसियों व मित्रों में इसका वितरण व सेवन आदि करते हैं। यह अच्छी प्रथा है। लेख को विराम देने से पूर्व इतना और निवेदन है कि इस दिन सभी समर्थ व सम्पन्न लोगों को समाज क निर्धन व साधनहीन लोगों तक अपनी ओर से उनके उपयोग की कुछ वस्तुयें वितरित करने का प्रयास करना चाहिये और उनको आगे बढ़ाने का कुछ सहयोग किया जा सके तो इसका विचार करना चाहिए। आज होली के दिन हमने कुछ क्षण जो चिन्तन किया है, उसे आपको सादर भेंट करते हैं और सभी बन्धुओं व मित्रों को हमारी होली के पर्व की बहुत बहुत शुभकामनायें हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

यम-यमी का वैदिक स्वरूप -शिवदेव आर्य

प्रत्येक मनुष्य समाज को एक नई दिशा व दशा देने की पूर्णरूपेण योग्यता रखता है।अब दिशा व दशा कैसे हो, यह दिशा व दशा दिखाने वाले पर आश्रित है, वह अपने ज्ञान के आलोक से मार्गप्रशस्त करता है अथवा ज्ञान के आलोक के अभाव में सत्य मार्ग से हटा कर असत्य मार्ग का अनुसरण कराता है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल का दशवाॅं सूक्त यम-यमी सूक्त है। इसी सूक्त के मन्त्र कुछ वृध्दि सहित तथा कुछ परिवर्तनपरक अथर्ववेद (18/1/1-16)  में दृष्टिपथ होते हैं, अब विचारणीय है कि- यम-यमी क्या है? अर्थात् यम-यमी किसको कहा । इस प्रश्न का उदय उस समय हुआ जब आचार्य सायणादि भाष्यकारों ने यम-यमी को भाई-बहन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भाई-बहन का इतना अश्लीलता परक अर्थ करके पाश्चात्य विद्वानों तथा पाखण्डियों को वेदों पर आक्षेप करने का अवसर प्राप्त करा दिया। इस अश्लील परक अर्थ को कोई भी सभ्य समाज का नागरिक कदापि स्वीकार नहीं कर सकता है।

प्रो. मैक्समूलर के मत में यम-यमी कोई मानवीय सृष्टि के पुरुष न थे किन्तु दिन का नाम यम और रात्री का नाम यमी है इन्हीं दोनों से विवाह विषयक वार्तालाप है। इस कल्पना में दोष यह है कि जब यम और यमी दोनों दिन और रात हुए तो दोनों ही भिन्न-भिन्न कालों में होते हैं। इससे यहाॅं इनको रात्री तथा दिन रूप देना सर्वथा विरु( है।

अनेक भारतीय लेखकों ने भी इन मन्त्रों के व्याख्यान को अलंकार बनाकर यम-यमी को दिन-रात सिद्ध किया है, इनके मत में भी कथा सर्वथा निरर्थक ही प्रतीत होती है, क्योंकि न कभी दिन-रात को विवाह की इच्छा हुई और न कोई इनके विवाह के निषेध से अपूर्वभाव ही उत्पन्न होता है। आर्य समाज के उच्चकोटि के विद्वानों को भी इस विषय में भिन्न-भिन्न मत हैं।

आचार्य यास्क जी ने ‘यमी’ का निर्वचन लिंभेद मात्र से ‘यम’ से माना है। ‘यमो यच्छतीत सतः’ अर्थात् यम को यम इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह प्राणियों को नियन्त्रित करता है। पं. चन्द्रमणि जी के अनुसार ‘यम’ प्राण को कहते हैं, क्योंकि यह जीवन प्रदान करता है। (निरु.चन्द्रमणिभाष्य-10/12) निरुक्त भाष्यकर्ता स्कन्दस्वामी जी ने यम-यमी को आदित्य और रात्रि  मानकर (10/10/8) मन्त्र की व्याख्या की है। स्वामी ब्रह्ममुनि यम-यमी को पति-पत्नी, दिन-रात्री और वायु-विद्युत् का बोधक मानते हैं। पं. भगवद्दत्त जी ने यम को अग्नि, आदित्य, वायु, मध्यम तमोभाग तथा यमी से पृथिवी और माध्यमिका वाक् अर्थ ग्रहण किये हैं।

चन्द्रमणि विद्यालप्रार जी ने अपने निरुक्त परिशिष्ट में सम्पूर्ण यम-यमी सूक्त की व्याख्या की है, जो भाई-बहन परक है, किन्तु सहोदर भाई बहन न दिखा कर सगोत्र दिखाने का प्रयास किया है।

किन्तु विभिन्नतत्त्वविद्निष्णातों के भाव को शायद मैं ऋषिवर देव दयानन्द के विचारों से जोड़ने में असमर्थ हो रहा हूॅं, अतः मैं ऋषिवर के पथ का अनुसरण करता हूॅं ऋषि को समझने का प्रयास करता हूॅं यद्यपि ऋषिवर ने इस सूक्त का भाष्य नहीं किया है, पुनरपि सत्यार्थ-प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास के नियोग प्रकरण में इसी सूक्त के मन्त्र को प्रस्तुत किया है। ऋषिवर की उन पंक्तियों को प्रमाण रूप से यहाॅं उद्धृत करना अनिवार्य ही नहीं अपितु प्रसांिक भी होता है।

‘‘जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे तब अपनी स्त्री को आज्ञा देवे कि हे सुभगे! सौभाग्य की इच्छा कर क्योंकि अब मुझसे सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी।  (चतुर्थसमुल्लास, सत्यार्थ-प्रकाश)

ऋषिवर  की इन पक्तियों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस सूक्त में पति-पत्नि का संवाद है न कि भाई-बहन का। हम स्वामी दयानन्द  कि इन पक्तियों को इसलिए और भी प्रमाण रूप में स्वीकार करेंगे क्योंकि दयानन्द जी एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि थे। जिनके समान वेदों का भाष्य, मन्त्रों का यथार्थ स्वरूप किसी अन्य का प्रतीत नहीं होता।

अब हम व्याकरण कि दृष्टि से यम-यमी शब्द को जानने का यत्न करते हैं। महर्षि पाणिनि के व्याकरण के अनुसार ‘पुंयोगादाख्याम्(अष्टा.-4/1/48) इस सूक्त से यमी शब्द में ङीष् प्रत्यय हुआ है। इससे ही पत्नी का भाव द्योतित होता है। यदि यम-यमी का अर्थ भाई-बहन लिया जाता तब यम-यमा ऐसा प्रयोग होना चाहिए था, जबकि ऐसा प्रयोग नहीं है। जैसे हम लोकव्यवहार में देखते हैं कि आचार्य की स्त्री आचार्याणी, इन्द्र की स्त्री इन्द्राणी आदि प्रसिध्द है न कि आचार्याणी से आचार्य की बहन अथवा इन्द्राणी से इन्द्र की बहन स्वीकार की जाती है। ऐसे ही यमी शब्द से पत्नी और यम शब्द से पति स्वीकार करना चाहिए। अर्थात् यम की स्त्री यमी ही होगी।

सायण के यम-यमी संवाद भाई-बहन का संवाद कदापि नहीं हो सकता। ये तो सायण ने अपनी इच्छानुसार ही कल्पित अर्थ को जन्म दे दिया है। जिसको हम आज भी स्वीकार करते चले आ रहे हैं। इस अर्थ के कारण पाश्चात्य विद्वानों के आक्षेप तथा विधर्मियों के विवाद सदैव हम सबके समक्ष उपस्थित होते रहे हैं। आर्य विद्वान् जो सायण आदि से प्रभावित हुए हैं। वे भी वैसा ही अर्थ कर गए। भाई-बहन का ऐसा पशु तुल्य व्यवहार वैदिक कदापि नहीं हो सकता। मानव समाज में  शिष्टाचार और सभ्यतापूर्वक सम्बन्धों की परम आवश्यकता है। ऋषिवर देव दयानन्द ने जो तिरोहित वेद ज्ञान की ज्योति को पुनर्जीवित किया है। उसके प्रकाश में जो पथभ्रष्ट हो रहे हैं, वे निश्चित ही अंधकार से संलिप्त हैं।

इस सूक्त के ग्यारहवें मन्त्र में भ्राता तथा स्वसा नाम दिये गये हैं। जिसको पढ़ने से कोई भी जन पूर्वापर प्रसंग को समझ सकता है। इस पूर्वापर प्रकरण को देखकर मन्त्रार्थ पर विचार-विमर्श करें तो स्वतः ही भ्रान्ति का निवारण हो जाएगा।

आ घा तो गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि।

उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्।। (10/10/10)

इस मन्त्र के माध्यम से सन्तति उत्पत्ति में असमर्थ पति अपनी पत्नी को कहता है कि हे सौभाग्यशालिनी! तू अन्य वीर्यवान् पुरुष के बाहु का सहारा ले और इस प्रकार सन्तान उत्पन्न करने में असमर्थ मुझ पति से अतिरिक्त पति की इच्छा कर।

इस मन्त्र के भाव से यथार्थ स्पष्ट हो जाता है कि इन मन्त्रों में पति-पन्ति परक अर्थ का ही ज्ञान करना चाहिए। क्योंकि इससे अगले ही मन्त्र-

किं भ्रातासद्यदनायं भवाति किमुस्वसा किमुस्वसा यर्‍ॠनटी तिर्निगच्छात्‍।

काममूता बह्‍वे तद्रपामि मे तन्वं सं पिपृग्धि॥ ( 10/10/11)

इन मन्त्र की व्याख्या में पत्नी पति की भर्त्सना करती हुयी कहती है कि- क्या अब मै तुम्हारी पत्नी न होकर बहन हो गई हूॅं। क्या तुम मेरे पति न होकर भाई हो, जो मैं अन्यत्र चली जाऊॅं।

इससे अगले मन्त्र अर्थात् 12 वें मन्त्र में यम के उत्तर से सम्पूर्ण सूक्त की यर्थाथता समझी  जा सकती है। मन्त्र इस प्रकार है –

न वा उ ते तन्वा सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात्।

अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत्।। (10/10/12)

इस मन्त्र में पति कहता है कि – जब मैं असमर्थ हो तुझे दूसरे पति से नियोग की आज्ञा दे दी तो तू मेरी बहन समान हुयी और मैं तेरा भाई समान। अतः मैं तूझे आदेश देता हूॅं कि तू मुझ से अन्य श्रेष्ठ पुरुष का समागम कर।

जो सायण आदि ने भाई-बहन परक अर्थ किया है, शायद वह इस मन्त्र भाव को न समझ कर किया होगा।

इस सूक्त में अलंकारिक वर्णन किया गया है। यह सर्वथा ज्ञात रहे कि यम-यमी मानुषी सृष्टि के स्त्री या पुरुष नहीं हैं, यहॉं नियोग प्रकरण को समझाने के लिए यम-यमी को पति-पत्नी का रूप दिया गया है।

यह सम्पूर्ण कृत नियोग पध्दति का है। सामान्य स्थिति के लिए यह पध्दति नहीं है। नियोग के समस्त नियम-उपनियम व अधिकार स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ सम्मुल्लास को देखें।

पूर्वापर मन्त्रार्थ की संगति से स्पष्ट हो जाता है कि भ्राता तथा स्वसा इन दोनों शब्दों का वहॉं पर क्या भाव है और सम्पूर्ण सूक्त की संगति पति-पत्नी परक मन्त्रार्थ ही सत्य ही प्रतीत होता है अन्यार्थ तो बस लोगों की कल्पनामात्र ही प्रतीत होती है।

-शिवदेव आर्य

गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

मो.-08810005096

shivdevaryagurukul@gmail.com

 

To malign the Vedic scripture western writers as well as communist have always try their best by way of un authenticate articles and by using other means.

One  of the main topic out of that is ” Yam Yami Sukt” . They have used it as a tool to show adultery in vedas.  Lets read this article to know the what does :Yam Yami sukt  actually means

 

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उपदेश प्रारमभ होने से पूर्व आप एक वेदमन्त्र (ओं यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयम् कूरू…..) का उच्चारण करते हैं। मैं भी दैनिक यज्ञ में प्रतिदिन आहुति इस मन्त्र से डालती हूँ, परन्तु इसका मुझे भावार्थ पूर्ण रूप से समझ नहीं आ रहा है। कृपया, इसका भावार्थ समझाएँ।

जिज्ञासा- उपदेश प्रारमभ होने से पूर्व आप एक वेदमन्त्र (ओं यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयम् कूरू…..) का उच्चारण करते हैं। मैं भी दैनिक यज्ञ में प्रतिदिन आहुति इस मन्त्र से डालती हूँ, परन्तु इसका मुझे भावार्थ पूर्ण रूप से समझ नहीं आ रहा है। कृपया, इसका भावार्थ समझाएँ।

– सुमित्रा आर्या, 261/8, आदर्शनगर, सोनीपत, हरियाणा

समाधान- 

यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरू।

   शं नः कुरू प्रजायोऽभयं नः पशुभयः।।

-यजु. 36.22

इस मन्त्र का पदार्थ सहित भावार्थ ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में महर्षि लिखते हैं पदार्थ आर्याभिविनय पुस्तक से लिया है। (यतः+यतः) जिस-जिस देश से (समीहसे) समयक् चेष्टा करते हो (ततः) उस-उस देश से (नः) हम को (अभयम्) भय रहित (कुरू) करो (शम्) सुख (नः) हमको (कुरू) करो (प्रजायः) प्रजा से (अभयम्) भय रहित (नः) हमको (पशुयः) पशुओं से।

भावार्थ विस्तार से यह है- हे परमेश्वर! आप जिस-जिस देश से जगत् के रचना और पालन के अर्थ चेष्टा करते हैं, उस-उस देश से हमको भय से रहित करिए, अर्थात् किसी देश (स्थान) से हमको किञ्चित् भी भय न हो, वैसे ही सब दिशाओं में जो आपकी प्रजा और पशु हैं, उनसे भी हमको भयरहित करें तथा हमसे उनको सुख हो, और उनको भी हम से भय न हो तथा आपकी प्रजा में जो मनुष्य और पशुआदि हैं, उन सबसे जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पदार्थ हैं, उनको आपके अनुग्रह से हमलोग शीघ्र प्राप्त हों, जिससे मनुष्य जन्म के धर्मादि जो फल हैं, वे सुख से सिद्ध हों।। – ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका ई.प्रा.वि.

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

– शिवनारायण उपाध्याय

वैदिक वाङ्मय में इस विषय पर कई स्थानों पर विचार किया गया है। ऋग्वेद, मुण्डकउपनिषद्, तैत्तिरीयउपनिषद्, प्रश्नोपनिषद्, छान्दोग्यउपनिषद् तथा बृहदारण्यकउपनिषद् में इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर मैं भी इस विषय पर पूर्व में छः लेख लिख चुका हूँ। एक बार पुनः इसी विषय को लिखने का उपक्रम इसलिए करना पड़ रहा है कि आर्य समाज के ही प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती आन्ध्रप्रदेश ने माह जून 2015 में ‘वैदिकपथ’ पत्रिका में एक लेख प्रकाशित करवाया है, जिसमें सृष्टि की आयु के स्वामी दयानन्द सरस्वती के निर्णय का विरोध किया है।

सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विज्ञान का मानना तो यह है कि सृष्टि की उत्पत्ति Big Bang (भयंकर विस्फोट) के साथ ही प्रारमभ हुई और परिवर्तन के कई चरणों से गुजरती हुई वर्तमान स्थिति में पहुँची है। Big Bang के साथ ही आकाश और समय का कार्य प्रारमभ हुआ। सृष्टि उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार रहा- आकाश, ज्वलनशील वायु, अग्नि, जल और निहारिका का मण्डल। निहारिका मण्डल में ही सौर मण्डलों ने स्थान पाया। पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से छिटक कर अलग होने के बाद धीरे-धीरे परिवर्तित होकर वर्तमान रूप में हुई। श्वास लेने योग्य वायु के बनने, पानी के पीने योग्य होने पर पानी के अन्दर सर्वप्रथम जलचरों को जीवन मिला। फिर क्रमशः जल-स्थलचर, स्थलचर और आकाशचर प्राणियों की उत्पत्ति हुई। सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व क्या था? इस विषय में विज्ञान का कहना है कि Big Bang के बाद ही सृष्टि नियम विकसित हुए हैं और उनके आधार पर हम घोषित कर सकते हैं कि भविष्य में कब क्या होगा और वे घोषणाएँ सब सत्य सिद्ध हो रही हैं, अतः हमें Big Bang के पूर्व की स्थिति को जानने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अज्ञान से हमारे वैज्ञानिक कार्य पर कोई भी प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। अस्तु।

वैज्ञानिक विचार धारा पर संक्षेप में वर्णन कर देने के उपरान्त अब हम इस विषय पर वैदिक वाङ्मय के विचार पाठकों के सामने रखने का प्रयास कर रहे हैं। वैदिक वाङ्मय में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति का वर्णन भी किया गया है। पाठकों के लिए नासदीय सूक्त के मन्त्र दिये जा रहे हैं-

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमाऽपरोयत्।

किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नभः किमासीद्गहनं गभीरम्।।

-ऋग्वेद 10.129.1

अर्थ- (नासदासीत्) जब यह कार्य सृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण विद्यमान था। असत् शून्य नाम आकाश भी उस समय नहीं था क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। (ना सदासीत्तदानीम्) उस काल में सत् अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाकर जो प्रधान कहाता है, वह भी नहीं था। (नासीद्रजः) उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा (नो व्योमाऽपरोयत्) विराट अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के निवास का स्थान है, वह (आकाश) भी नहीं था। (किमावरीव…….गभीरम्) जो यह वर्तमान जगत् है, वह भी अत्यन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढँक सकता है और उससे अधिक वा अथाह भी नहीं हो सकता है, जैसे कोहरे का जल पृथ्वी को नहीं ढँक सकता है तथा उस जल से नदी में प्रवाह नहीं आ सकता है और न वह कभी गहरा अथवा उथला हो सकता है।

                        तम आसीत्तमसा गुलमग्रेऽप्रकेतं सलितं सर्वमा इदम्।

                        तुच्छ्येनावपिहितं यवासीत्तपसस्तन्माहिना जायतैकम्।।

– ऋ. 10.129.3

अर्थ- उस समय यह जगत् अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सममुख एकदेशी आच्छादित तथा पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से कारण रूप से कार्य रूप में कर दिया।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।

                       आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास।।

– ऋ. 10.129.2

सृष्टि के पूर्व प्रलयकाल में मृत्यु नहीं थी, मृत्यु के अभाव में अमरता भी नहीं थी। न मारक शक्ति के विपरीत अमृत अथवा सब जीव मुक्तावस्था में थे, ऐसा भी नहीं कह सकते। रात्रि एवं दिन का प्रज्ञान भी नहीं था। उस समय केवल वायु की अपेक्षा न रखने वाला सदा जाग्रत ब्रह्म ही था। उस समय उससे भिन्न, उसके समान अथवा उससे अधिक कुछ भी नहीं था। प्रकृति ऊर्जारूप में परिवर्तित होकर अव्यक्त थी।

फिर सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई, इस पर तैत्तिरीय उपनिषद् का कहना है-

‘सो कामयत। बहुस्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत। यदिद किञ्च। तत सृष्टावा तदेवानु प्राविशत्। तदनुप्रविश्य। सच्चत्यच्यामवत्। निरुक्तं चानिरुक्तं च। निलयन चानिलयन च। विज्ञानं चापिज्ञानं च। सत्यं चानृतं च। सत्यमभवत। यदिद किञ्च। तत्सत्यमित्या चक्षते।

-तै.उप. ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक 6

अर्थ- उसने कामना की कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ, तब उसने तप किया। क्रिया का प्रारमभ हो गया। जब यह क्रिया बढ़ते-बढ़ते उग्र रूप में पहुँची, तब उसे तप कहा गया। तप के प्रभाव से यह सब विश्व सृजा गया। सबकी सृष्टि करके वह ब्रह्म सृष्टि में अनुप्रविष्ट हो गया। आगे विपरीत कणों का वर्णन भी किया गया है-

सत्व रजस्तमसा सामयावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारोऽहंकारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूल भूतानि पुरुष इति पञ्च विंशतिर्गण।।

अर्थ- सत्व, रज और तम रूप शक्तियाँ हैं। इन शक्ति रूपों की समावस्था, निश्चेष्ठावस्था प्रकट रूपावस्था को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ तथा पञ्चतन्मात्राओं से पाँच स्थूलभूत, स्थूलभूतों से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन उत्पन्न होता है। पुरुष (चेतन सत्ता) इनसे भिन्न हैं। इन 25 पदार्थों को जानना, समझना विवेक में आवश्यक है।

ऋग्वेद में सृष्टि उत्पत्ति परमेश्वर ने इस प्रकार की है-

ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मारइवाधमत्।

देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सद जायत।।

– ऋ. 10.72.2

प्रकृति और ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर ने दिव्य पदार्थों के परमाणुओं को लोहार के समान धोंका, अर्थात ताप से तप्त किया है। वास्तव में इसी को वैज्ञानिकों ने भयंकर विस्फोट Big Bang कहा है। इन दिव्य पदार्थों के पूर्व युग, अर्थात् सृष्टि के प्रारमभ में अव्यक्त (असत्) प्रकृति से (सत्) व्यक्त जगत् उत्पन्न किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली के प्रथम अनुवाक में सृष्टि उत्पत्ति का क्रम भी बताया गया है-

तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः समभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी।      पृथिव्या ओषधय। ओषधीयोऽन्नम् अन्नाद् रेतः। रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।।

अर्थात् परम पुरुष परमात्मा से पहले आकाश, फिर वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी उत्पन्न हुई है। पृथ्वी से ओषधियाँ, (अन्न व फल फूल) ओषधियों से वीर्य और वीर्य से पुरुष उत्पन्न हुए, इसलिए पुरुष अन्न रसमय है।

पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य में से छिटक कर हुई है, इस पर कहा गया है-

                           भूर्जज्ञ उत्तानपदो भूव आशा अजायन्त |

अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि।।

– ऋ. 10.72.4

अर्थ- पृथ्वी सूर्य से उत्पन्न होती है। पृथ्वी से पृथ्वी की दशा को बताने वाले भेद उत्पन्न होते हैं। प्रातःकालीन उषा से आदित्य उत्पन्न होता है, अर्थात् दृष्टि गोचर होता है और सांय कालीन उषा आदित्य से उत्पन्न होती है।

सृष्टि उत्पत्ति पर विचार कर लेने पर अब सृष्टि की वर्तमान आयु पर विचार करते हैं। वर्तमान में सृष्टि का वर्णन Friedmann Model के अनुसार किया जाता है। इसमें Big Bang के साथ ही आकाश-समय निरन्तरता का जन्म हो जाता है, अर्थात् समय की गणना Big Bang के प्रारमभ होने के साथ ही शुरू हो जाती है। एक अमेरिकन वैज्ञानिक Edwin Hubble ने 9 विभिन्न आकाश गंगाओं (Galaxies) की दूरी जानने का प्रयत्न किया। उसने बताया कि हमारी आकाश गंगा तो अत्यन्त छोटी है, ऐसी तो करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं। साथ ही उसने यह भी बताया कि जो (Galaxy) हमसे जितना अधिक दूर है, उतनी ही अधिक तेजी से वह हम से दूर भागती जा रही है। उसने उनकी हमसे दूर होने की चाल की गति भी ज्ञात कर ली। फिर इस सिद्धान्त पर भी Big Bang के समय तो सब एक ही स्थान पर थे। उन्हें इतना दूर जाने में कितना समय लगा, उसका एक नियम भी खोज लिया।

नियम है- V=HR. यहाँ V आकाश गंगा की हमसे दूर भागने की गति है,  R आकाश गंगा की हमसे दूरी है और H Constant है। Edwin Hubble ने यह भी ज्ञात किया कि कोई भी आकाश गंगा जो हमसे d दश लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर है, उसकी दूर हटने की गति 19d मील प्रति सैकण्ड है। अतः अब समय R=106 d प्रकाश वर्ष, T =106×365×24×3600×186000d वर्ष

19d×3600×24×365

=186×109=9.7×109वर्ष

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Saint Augustine ने अपनी पुस्तक The City of God में बताया कि उत्पत्ति की पुस्तक के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 500 वर्ष पूर्व हुई है।

बिशप उशर का मानना है कि सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 4004 वर्ष पूर्व हुई है और केब्रीज विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. लाइटफुट ने सृष्टि उत्पत्ति का समय 23 अक्टूबर 4004 ईसा पूर्व प्रातः 9 बजे बताया है जो हास्यास्पद है। अब हम वैदिक वाङ्मय के आधार पर सृष्टि की आयु पर विचार करते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के दूसरे अध्याय अथ वेदोत्पत्ति विषय में इस पर विचार किया है कि वेद की उत्पत्ति कब हुई? इससे यह मानना चाहिए कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति कब हुई, क्योंकि मानव के उत्पन्न होने पर ही तो वेद का ज्ञान उसे प्राप्त हुआ है। इससे पूर्व की स्थिति अर्थात् सृष्टि उत्पन्न होने के प्रारमभ से मानव के उत्पन्न होने के समय पर उन्होंने अपने विचार देना उचित नहीं समझा। वास्तव में मनुष्य ने तो अपने उत्पन्न होने के बाद ही समय की गणना प्रारमभ की है। सृष्टि के उस समय की गणना वह कैसे करता, जब बन ही रही थी? वह कैसे जानता कि सृष्टि उत्पन्न होने की क्रिया के प्रारमभ होने से उसके पूर्ण होने तक सृष्टि निर्माण में कितना समय व्यतीत हुआ है? इस पर फिर चर्चा करेंगे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी गणना में मनुस्मृति के श्लोकों को ही मुखय रूप से काम में लिया है-

अत्वार्याहुः सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।

तस्य यावच्छतो सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथा विधः।।

-मनु. 1.69

उन दैवीयुग में (जिनमें दिन-रात का वर्णन है) चार हजार दिव्य वर्ष का एक सतयुग कहा है। इस सतयुग की जितने दिव्य वर्ष की अर्थात् 400 वर्ष की सन्ध्या होती है और उतने ही वर्षों की अर्थात् 400 वर्षों का सन्ध्यांश का समय होता है।

इतंरेषु ससन्ध्येषु ससध्यांशेषु च त्रिषु।

एकापायेन वर्त्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च।।

-मनु. 1.70

और अन्य तीन-त्रेता, द्वापर और कलियुग में सन्ध्या नामक कालों में तथा सन्ध्यांश नामक कालों में क्रमशः एक-एक हजार और एक-एक सौ कम कर ले तो उनका अपना-अपना काल परिणाम आ जाता है।

इस गणना के आधार पर सतयुग 4800 देव वर्ष, त्रेतायुग 3600 देव वर्ष, द्वापर 2400 वर्ष तथा कलियुग 1200 देव वर्ष के होते हैं। इस चारों का योग अर्थात् एक चतुर्युगी 12000 देव वर्ष का होता है।

दैविकानाम युगानां तु सहस्त्रं परि संखयया।

ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च।। – मनु. 1.72

देव युगों को 1000 से गुण करने पर जो काल परिणाम निकलता है, वह ब्रह्म का एक दिन और उतने ही वर्षों की एक रात समझना चाहिए। यह ध्यान रहे कि एक देव वर्ष 360 मानव वर्षों के बराबर होता है।

तद्वै युग सहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः।

रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदोजनाः।।मनु. 1.73

जो लोग उस एक हजार दिव्य युगों के परमात्मा के पवित्र दिन को और उतने की युगों की परमात्मा की रात्रि समझते हैं, वे ही वास्तव में दिन-रात = सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय काल के विज्ञान के वेत्ता लोग  हैं।

इस आधार की सृष्टि की आयु = 12000×1000 देव वर्ष = 12000000 देव वर्ष

12000000×360 = 4320000000 देव वर्ष

12000000 देव वर्ष = 4320000000 मानव वर्ष

यत् प्राग्द्वादशसाहस्त्रमुदितं दैविक युगम्।

तदेक सप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते।।   -मनु. 1.79

पहले श्लोकों में जो बारह हजार दिव्य वर्षों का एक दैव युग कहा है, इससे 71 (इकहत्तर) गुना समय अर्थात् 12000×71 = 852000 दिव्य वर्षों का अथवा 852000×360= 306720000 वर्षों का एक मन्वन्तर का काल परिणाम गिना गया है।

फिर अगले श्लोक में कहा गया है कि वह महान् परमात्मा असंखय मन्वन्तरों को, सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय को बार-बार करता रहता है, अर्थात् सृष्टी  प्रवाह से अनादि है।

फिर स्वामी दयानन्द सरस्वती संकल्प मन्त्र के आधार पर वेद का उत्पत्ति काल बताते हैं।

3म् तत्सत् श्री  ब्रह्मणः द्वितीये प्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वते मन्वन्तरेऽअष्टाविंशतितमे कलियुगे कलियुग प्रथम चरणेऽमुकसंवत्सरायमनर्तु मास पक्ष दिन नक्षत्र लग्न मुहूर्तेऽवेदं कृतं क्रियते च।

यह जो वर्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान है। इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं और सात मन्वन्तर आगे होवेंगे। ये सब मिलकर चौदह मन्वन्तर होते हैं।

इस आधार पर वेदोत्पत्ति की काल गणना इस प्रकार होगी-

छः मन्वन्तरों का समय = 4320000×71×6= 1840320000 वर्ष

वर्तमान मन्वन्तर की 27 चतुर्युगी का काल= 4320000×27= 116640000 वर्ष

अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के गत तीन युगों का काल= 3888000 वर्ष

कलियुग के प्रारभ से विक्रम सं. 2072 तक का काल= 3043 + 2072 वर्ष

= 5115 वर्ष

कुल योग = 1840320000 +116640000 + 3888000 +5115 वर्ष

= 1960853115 वर्ष। चूंकि विक्रम संवत् के प्रारमभ तक कलियुग के 3043 वर्ष व्यतीत हो चुके थे और 3044 वाँ वर्ष चल रहा था, इसलिए वर्तमान में 1960853116वाँ वर्ष चल रहा है।

अब कुछ विद्वान् कहते हैं कि सृष्टि की आयु जब मनु 1000 चतुर्युगी मानते हैं और दूसरी तरफ इसी आयु को 14 मन्वन्तर अर्थात् 994 चतुर्युगी कहा जाता है, तो दोनों के अन्तर 6 चतुर्युगों का समन्वय कैसे होगा? इसका उत्तर यह है कि 994 चतुर्युग तो मानव भोग काल है और 6 चतुर्युगों का समय सृष्टि उत्पत्ति के प्रारमभ से लेकर मानव अथवा वेदों की उत्पत्ति तक का है। सृष्टि उत्पत्ति में जो समय लगा है, वह सृष्टि की आयु में माना जावेगा। इसी प्रकार भोग काल 994 चतुर्युगों के अन्त में प्रलय काल प्रारमभ होगा और वह प्रलय की आयु में जोड़ा जायेगा।

ऋग्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि काल लगे बिना कोई कार्य नहीं होता-

त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्संपृञ्चानः सदने गोभिरद्भि।

                        कविबुध्नं परि मर्मृज्यते धीः सा देवताता समिति र्बभूवः।।

– ऋ. 1.95.8

अर्थ- मनुष्य को चाहिए कि (यत्) जो (संपृञ्चानः) अच्छा परिचय करता कराता हुआ (कविः) जिसका क्रम से दर्शन होता है, वह समय (सादने) सदन में (गोभिः) सूर्य की किरणों वा (अद्भिः) प्राण आदि पवनों से (उत्तरम्) उत्पन्न होने वाले (त्वेषम्) मनोहर (बुध्नम्) प्राण और बल सबन्धी विज्ञान और (रूपम्) स्वरूप को (कृणुते) करता है तथा जो (धीः) उत्पन्न बुद्धि वा क्रिया (परि) (मर्मृज्यते) सब प्रकार से शुद्ध होती है (सा) वह (देवताता) ईश्वर और विद्वानों के साथ (समितिः) विशेष ज्ञान की मर्यादा (बभूव) होती है, इस समस्त उक्त व्यवहार को जानकर बुद्धि को उत्पन्न करें।

भावार्थ- मनुष्यों को जानना चाहिये कि काल के बिना कार्य स्वरूप उत्पन्न होकर और नष्ट हो जाये- यह होता ही नहीं है और न ब्रह्मचर्य आदि उत्तम समय के सेवन के बिना शास्त्र बोध कराने वाली बुद्धि होती है, इस कारण काल के परम सूक्ष्म स्वरूप को जानकर थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ न खोवें, किन्तु आलस्य छोड़कर समय के अनुसार व्यवहार और परमार्थ के कामों का सदा अनुष्ठान करें।

यह भी ध्यान रखें कि जिस क्रिया में जो समय लगे, वह उसी का होगा। स्वामी जी ने इस प्रकरण में वेद का उत्पत्ति काल बताया है, सृष्टि की आयु नहीं बताई है। यदि सृष्टि की आयु जानना चाहें तो इसमें सृष्टि का उत्पत्ति काल जोड़ दें, तब सृष्टि की आयु होगी-

= 1960853116+25920000= 1986773116 वर्ष

साथ ही सृष्टि की शेष आयु होगी= 4320000000-1986773116= 2333226884 वर्ष सन्धि और सन्ध्यांश काल तो युगों की आयु में पहिले ही जोड़ लिए हैं, फिर मन्वन्तर के प्रारमभ और अन्त में एक सतयुग का जोड़ना व्यर्थ है। स्वामी जी ने ही नहीं, मनु ने भी इसका उल्लेख नहीं किया है। ज्ञान के अभाव में सृष्टि उत्पत्ति काल को न समझ कर 25920000 वर्षों को 15 भागों में व्यर्थ विभाजित कर क्षति पूर्ति करने का प्रयत्न किया गया है। इससे तो यहूदी ही अच्छे हैं, जो सृष्टि की उत्पत्ति 6 दिनों में स्वीकार करते हैं। यदि उनके दिन का मान एक चतुर्युगी मान लें तो उनकी सृष्टि उत्पत्ति की गणना ठीक वेदों के अनुरूप हो जाती है। इति।

 

– 73, शास्त्रीनगर, दादाबाड़ी, कोटा-324009 (राजस्थान)