Category Archives: वेद विशेष

हमारा जीवन मधुरता से भरपूर हो

ओउम
हमारा जीवन मधुरता से भरपूर हो

डा. अशोक आर्य
यह युग विज्ञान का युग है | समय बड़ी गति से भाग रहा है और इसके साथ भाग रहा है जन सामान्य | इस कलयुग में कलपुर्जों को ही महत्त्व दिया जा रहा है | कलपुर्जों के इस युग में पुर्जों की सहायता से भागने वाली गाड़ियां आज चींटियों की संख्या में शेर की गति से भाग रही हैं | सब को जल्दी लगी हुई है | किसी के पास समय ही नहीं है किसी दूसरे की समस्या सुनने का किसी दूसरे की सहायता करने का | इस सब अवस्था में किसी के जीवन में भी मधुरता दिखाई नहीं देती , जबकि मधुरता के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता | जीवन में मधुरता ला कर हम बड़े बड़े कार्यों को सरलता से संपन्न कर सकते हैं | इस चर्चा पर ही ऋग्वेद में इस प्रकार विचार किया गया है : –
मधुमनमे परायणम मधुमत पुनरायनम |
ता नो देवा देवतया युवं मधुमतस्क्रितम || ऋग्वेद १०.२४.६ ||
एक दूसरे से मिलाने मिलने को अश्विनी कुमार कहा जाता है | अश्विनी कहते हैं वह साधन जिससे एक चैन बनती है | एक कुण्डी में दूसरी कुड़ी डालकर संकल बनती है , यह कुण्डी जोड़ने का कम ही अश्विनी कुमार का है | प्रस्तुत मन्त्र एक को दूसरे से जोड़ने का कार्य करता है | इसलिए यहाँ अश्विनी देव की स्तुति की गई है | मन्त्र में कहा गया है कि हमारा बाहर जाना तथा वापिस लौटकर आना दोनों ही मधुमय हों | प्रसन्नता से भरपूर हों, खुशियाँ लाने वाला हो | आनेजाने का कार्य अथवा एक दूसरे को जोड़ने का कार्य ही अश्विनी देव का होने के कारण यहाँ कहा गया है कि हे अश्विनी देवो तुम देवत्व के गुण से भरपूर हो | देवता के अर्थ के अनुरूप तुम संसार के प्रत्येक प्राणी को कुछ न कुछ देते रहते हो | आप के इस गुण के कारण ही आप से कुछ माँगने का यत्न करते रहते हैं तथा इस मन्त्र के माध्यम से आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें मधुरता दें , मधुरता से भर दें | ताकि हमारी सब दुर्भावनाएं दूर हो जावें, समाप्त हो जावें |
अपने निकटस्थ वातावरण को मधुर बनाना अथवा कटु बनाना मानवीय कर्मों पर ही निर्भर होता है | यदि वह अपने वातावरणको मधुरता से भरपूर बनाने की लालसा है तो उसे अश्विनी देव से प्रेरणा लेनी होती है | जिस प्रकार अश्विनी देव एक को दूसरे से जोड़ने का काम करते हैं ,उस प्रकार ही मानव को भी जोड़ने के साधन अपनाने होते हैं | इन साधनों से ही वह अश्विनी कुमारों की भाँती अपने कर्तव्यों को पूरा कर पावेगा | इस कार्य हेतु मनुष्य को परस्पर स्नेह , अनुराग तथा उदारता पूर्ण व्यवहार का प्रयोग करना होता है | यह वह व्यवहार है ,जिससे जोड़ने का कार्य किया जा सकता है | जब हम किसी के साथ सहानुभूति दिखाते हैं तो वह व्यक्ति भी हमारी और खींचता ही चला जाता है | जब हम किसी के साथ स्नेहिल व्यवहार बनाते हैं तो वह भी प्रत्युतर में स्नेह ही दिखाता है | हम यदि किसी के प्रति अनुराग प्रकट करते हैं , उसके स्नेहिल को अपना संकट समझाते हुए उसके सहयोगी बनते हैं तो वह भी उसी प्रकार का ही व्यवहार हमारे से करता है | जब हम किसी की गलती पर भी उदारता पूर्वक उसके समीप जाने का यत्न करते हैं तो उसके विचारों में भी परिवर्तन आता है तथा अपने व्यवहार को वह भी उदार कर लेता है | इस प्रकार हम अपने विरोधियों को अपने विचारों में , अपने रंग में रंगते चले जाते हैं | उनके मन से विरोध की भावना दूर होकर हमारे प्रति आकर्षण पैदा कर देती है | जिस प्रकार अश्विनी एक दूसरी कड़ी को जोड़ कर एक चैन बनाते हैं , उस प्रकार ही अपने स्नेहिल व मधुरता पूर्ण व्यवहार से , उदारता से हम अपने आस पास के वातावरण को मधुर बनाते चले जाते हैं , जिसमें आसपास के लोग भी जुड़ते चले जाते हैं | इस प्रकार हमारे साथियों की , हितैषियों की , शुभ चिंतकों की पंक्ति निरंतर लम्बी होती चली जाती है | इस प्रकार हमारे सहयोगियों की संख्या बढती ही चली जाती है |
प्रेमपूर्ण व्यवहार से सदा मधुरता बढती है तथा द्वेषपूर्ण व्यवहार से कटुता बढती है | कटुता के कारण एसे कटु व्यक्ति के प्रति उदासीनता भी पैदा होती है | वेद चाहता है कि मानवों में एक दूसरे के प्रति प्रेम पूर्वक व्यवहार हो | इसलिए वेद का यह मन्त्र आदेश देता है कि हम अपने जीवन को मधुर बनावें | जब हमारा जीवन मधुर होगा, दूसरों के प्रति भी मधुरता रखेंगे तो दूसरों की द्वेष भावना भी धुल जावेगी, नष्ट हो जावेगी तथा वह हमारे मित्रों की पंक्ति में आ जावेंगे | जब हम अपने चारों और मधुरता को पैदा कर लेंगे तो हम अपने इस मधुर व्यवहार से ही शत्रुओं को मित्र बनाने में सफल होंगे | जब हमारे निकट सब मित्र ही मित्र होंगे तो हम लड़ाई झगडा किस से करेंगे ? , यह संभव ही न होगा | इस प्रकार मन शांत होगा , समय की बचत होगी तथा इस बचे हुए समय को हम किसी अन्य निर्मात्मक दिशा में प्रयोग कर अपनी आय के साधन तथा जन सेवा के कार्य पहले से कहीं अधिक कर सकेंगे |
हम घर में ही मधुर व्यवहार न रखें अपितु घर से बाहर जाकर भी हम जहाँ भी हों वहां पर भी मधुर व्यवहार करें, मधुर वातावारण बनाने का यत्न करें तथा घर लौट कर भी मधुरता का ही दामन थामें रखें, सब से प्रीति पूर्वक, प्रेम पूर्ण व्यवहार करें | इस से हमें विशेष प्रकार की प्रसन्नता मिलेगी | हमारे शत्रु भी शत्रुता छोड़ मैत्री करने लगेंगे | हम परेशानियों से बच जावेंगे | जो समय हम परेशानियों को रोगों को दूर करने में लगाते थे वह समय हम अपार धन सम्पदा प्राप्त कारने में लगा सकेंगे , अपने मित्रों की मंडली बढाने में लगावेंगे , हमारी आय बढ़ सकती है, जिससे हम पहले से अधिक दान पुण्य करने में भी सक्षम होंगे | इससे हमारा नाम होगा तथा हमारा सम्मान भी बढेगा | इस प्रकार मन्त्र की भावना के अनुसार चलकर हम अपने घर के अन्दर का ही नहीं घर के बाहर का वातावरण भी मधुर, सुखद व सौहार्दपूर्ण बना सकते हैं , जीवन को सफल बना सकते हैं |
डा.अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी ,गाजियाबाद
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जिज्ञासा: जो मन्त्र ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ है, …..आचार्य सोमदेव

. जो मन्त्र ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ है, इसमें यजमान अलग से कहने की आवश्यकता क्या है? यह तो ठीक है कि यजमान के बिना यज्ञ कैसे होगा और उसका यज्ञ में विशेष महत्त्व भी है, परन्तु जब देव ही यज्ञ करने का अधिकार रखते हैं, मनुष्यों को यज्ञ करने का अधिकार ही नहीं है, फिर विश्वेदेवा में यजमान स्वतः ही आ जाता है। उसके लिए अलग से यजमान भी बैठ जाएँ-कहने का प्रयोजन क्या है? समझ नहीं आता है। हम तो यही सुनते थे कि शूद्रों को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। हम साधारण व्यक्ति तो यही समझे हैं कि उक्त मन्त्र में केवल सभी देव और यजमान के लिए बैठने का ही निर्देश नहीं है, बल्कि जलाई गई अग्नि को और अधिक प्रज्वलित करने के बारे में भी कहा गया होगा और इससे अन्य भी कोई महत्त्वपूर्ण बात है, इसलिए इस मन्त्र का क्रम इसी स्थान पर आता होगा, परन्तु सभी देवों और यजमान को इतने समय बाद बैठने का निर्देश देना समझ नहीं आता। यहाँ ‘‘सीदत’’ का कुछ अन्य भी अर्थ होगा। कृपया, समझाने का कष्ट करें।

(ग) इस तीसरे बिन्दु में भी आपकी वही समस्या है कि मनुष्यों को यज्ञ करने का अधिकार ही नहीं है, आपने यह बात कहाँ से कैसे निकाल डाली, ज्ञात नहीं हो रहा। जिस प्रकरण को लेकर आप यह बात कह रहे हैं, उस प्रकरण वा किसी अन्य स्थल से आप पहले यह प्रमाण दें कि मनुष्य यज्ञ करने का अधिकारी नहीं है। हाँ, इसके विपरीत मनुष्यों द्वारा यज्ञ करने के प्रमाण तो ऋषियों के अनेकत्र मिल जायेंगे। आप फिर उस बात को दोहरा रहे हैं कि देव ही यज्ञ करने के अधिकारी हैं, इस बात की भी सिद्धि नहीं होगी कि केवल देव ही यज्ञ कर सकते हैं।
अर्थात् मनुष्य यज्ञ करने का अधिकारी है, यह बात ऊपर शास्त्र से सिद्ध है। महर्षि दयानन्द लिखते हैं- ‘‘प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति-और छः छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिए।’’ स.प्र. ३। यहाँ महर्षि ने मनुष्य लिखा है और अन्यत्र भी मनुष्यों द्वारा यज्ञ विधान है, इसलिए मन्त्र में ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ दोनों को पढ़ा गया है। यजमान और सब देवों के स्थिर होने का प्रयोजन है। केवल देव अर्थात् विद्वान् अथवा केवल यजमान (मनुष्य) ही नहीं, अपितु ये दोनों उस यज्ञ रूपी श्रेष्ठ कर्म में स्थिर हों। इन दोनों को कहने रूप प्रयोजन से मन्त्र में दोनों को कहा है। अधिक जानने के लिए उपरोक्त महर्षि के अर्थ को देखें।
अन्त में आपसे निवेदन है कि इस प्रकार के प्रश्न प्रकरण को ठीक से समझने पर अपने-आप सुलझ जाते हैं। शतपथ में किस प्रकरण को लेकर कहा है और वेद का क्या प्रसंग है, यदि हम उस प्रकरण, प्रसंग को ठीक से देख लें तो बात उलझेगी नहीं, अपितु सुलझ जायेगी। उलझती तब है, जब हम दो प्रकरणों को मिलाकर देखते हैं। अस्तु। – ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर (राज.)

योग क्षेम से परिजन सुखी व सम्पन्न रहे

ओउम
योग क्षेम से परिजन सुखी व सम्पन्न रहे
डा. अशोक आर्य
संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुखी व सम्पन्न रहना चाहता है | यहाँ तक की प्रत्येक जिव जंतु भी अपने सुख को , अपनी सम्पन्नता को बढ़ने का यत्न करता है | सब तेजस्विता चाहते है, निरोगता चाहते है , यश चाहते हैं , सम्मान चाहते हैं | इस सब को पाने के लिए यत्न भी करते हैं | हम देखते हैं की एक साधारण सी चिन्ति भी दिन भर यत्न कर अन्न के कुछ कण एकत्र कर अपने गृह तक ले जाने का यत्न कराती है ताकि संकट कल में उसे कठिनाई न आवे | ऋग्वेद का मन्त्र संख्या ७.५४.३ भी इस और ही संकेत करता है | मन्त्र कहता है की :-
वास्तिश्पते अहगमया संसदा ते, सक्षिम्ही रंवया गातुमत्या |
पाहि क्षेम उत योगे वरं नो  यूयं पात स्वस्तिभि: सदा न: || ऋग्वेद ७.५४.३ ,तैति.३.४.१०.१ ||
हे ग्राहस्थग्य यग्य अग्नि ! हम तुम्हारी शक्ति युक्त ,मनोरम तथा आगे बढ़ने वाली अग्नि से युक्त हों | तुम हमारी योग व क्षेम में रक्षा करो | तुम हमारा सदा कल्याण कर रक्षा करो |
यह मन्त्र हमें पारिवारिक अग्नि की उपासना के सम्बन्ध में बताता है तथा इस मन्त्र के माध्यम से प्रार्थना की गयी है कि गृहस्थ की इस अग्नि से हमारा योग क्षेम हो तथा हमें सब प्रकार के सुख मिलें | पारिवारिक अग्नि को ही गार्हपत्य अग्नि कहा गया है |
गार्हपत्य अग्नि को सदा सुखद कहा जाता है | इस अग्नि को रमणीय भी कहा जाता है तथा यही अग्नि प्रगतिशील होती है | इस सब से स्पष्ट होता है कि यहाँ पर उस अग्नि से भाव नहीं है , जिस के द्वारा हम अपने गृह में प्रतिदिन दूध , चाय, भोजन आदि बनाते है | अपितु यहाँ उस अग्नि से अभिप्राय: है , जिस पवित्र अग्नि से गृह का पर्यावरण दूषण को दूर कर स्वच्छ व रोग रहित बनकर हमें पुष्टि देता है | एसी अग्नि कौन सी हो सकती है ? किंचित से चिंतन से यह स्पष्ट हो जाता है कि एसी अग्नि यज्ञ के अतिरिक्त कोई अन्य अग्नि नहीं हो सकती | यग्य की अग्नि ही परिवार में सुख लाने का कारण होती है , यज्ञीय अग्नि ही परिवार में रमणीयता लाती है, यह ही वह अग्नि है जो परिवार को प्रगति की और ले जाती है तथा प्रगति के शिखरों तक पहुंचाती है | अत: यहाँ पर मन्त्र स्पष्ट संकेत दे रहा है कि परिवार में प्रतिदिन दोनों काल यग्य की अग्नि जलाने से अथवा प्रतिदिन यग्य करने से परिवार के सब दु:ख , क्लेश समाप्त हो कर सर्वत्र सुख सम्रद्धि होती है तथा परिवार प्रगति की और अग्रसर होता है |
अग्नि अघर्श्नीय होती है | अग्नि की यह अघर्ष्नियता भी हमें एक संदेश देती है | यह हमें इंगित करती है कि हम अपने जीवन में सदा अघर्ष्य हों, सदा अजेय हों | जब हम पुरुषार्थ करते हैं तो हम सदा सर्वत्र जय को प्राप्त करते हैं | अत: अग्नि हमें पुरुषार्थी होने के लिए, मेहनती होने के किये , कुछ पाने के किये यत्न करने का संकेत इस माध्यम से देती है | अग्नि सदा उर्ध्वमुख होती है | अग्नि की ऊपर उठती ज्वालायें हमें शिक्षा दे रही है कि हम सदा उच्च से भी उच्च लक्ष्य को पाने के यत्न करें | अपनी दृष्टि को इस उच्च लक्ष्य पर ही टिकाते हुए यत्नशील रहे कभी पीछे अथवा नीचे न देखें | कभी भी निगम मार्ग की और न बढें , कभी भी गिरे हुए मार्ग पर न जावें , नीच कार्य न करें | इस प्रकार के यत्न से हम अपने उद्देश्य को पाने में निश्चित रूप से सफल होंगे |
अग्नि में सदा प्रकाश रहता है , तेजस्विता रहती है | अग्नि का यह प्रकाश , यह तेजस्विता हमें शिक्षा दे रही है कि हम न केवल स्वयं ज्ञान ( वेद ज्ञान ) से अपने आप को ही प्रकाशित करें अपितु सकल जगत में भी वेद का यह ईश्वरीय ज्ञान फैला कर विश्व को भी प्रकाशित करें | हम न केवल अपने स्वयं के जीवन को ही तेजस्विता से भरपूर न करें बल्कि अपने साथ ही साथ अन्य सब को भी तेजस्वी बनाने के लिए उन्हें भी एसी ही शिक्षा दें |
मन्त्र के दूसरे भाग में योगक्षेम की प्रार्थना करते हुए उपदेश किया गया है कि( योग का अर्थ है अप्राप्त धन की प्राप्ति अथवा जोड़ तथा क्षेम का अर्थ है प्राप्त धन की सुरक्षा अर्थात) हम पुरुषार्थ करते हुए, सतत मेहनत व यत्न करते हुए उस धन को पावें जो हमारे पास नहीं है तथा जो धन – धाम हमारे पास है , उसके हम स्वामी बने रहने के लिए उस कि रक्षा के भी समुचित उपाय करें | इस प्रकार पुरुषार्थ से लाभान्वित होने व प्राप्त की सुरक्षा को ही मन्त्र योगक्षेम के नाम से स्पष्ट करता है | यदि इसे हम सामान्य भाव से लें तो इस का भाव है कुशलता |
यह पारिवारिक यज्ञ ही है जो हमें सब प्रकार के रोग ,शौक से दूर कर कुशलता, स्वस्थता , पुष्टता देता है | अत: मन्त्र कहता है कि हम सदा प्रतिदिन दोनों काल अपने घर में यज्ञाग्नि को जलावें, प्रज्वलित करें , यज्ञ करें व कराएँ ताकि परिवार के सब कष्ट दूर हो कर हम पारिवारिक कुशलता को प्राप्त करें,, पारिवारिक सुखों मैं वृद्धि करें |
अथर्ववेद के एक अन्य मन्त्र में भी इस आशय को ही स्पस्ट करते हुए कहा है कि : –
उपोहश्च समुहश्च क्षतारो ते प्रजापते |
ताविहा वहतां स्फातिं ,बहु भूमानमक्शितम || अथर्ववेद ३.२४.७||
हे प्रभु | धन का संकलन तथा संवर्धन ये दोनों तेरे अग्रदूत हैं | ये दोनों यहाँ समृद्धि को लावें | यह अत्यधिक अक्षयपुर्नता को भी प्रदान करें |
इस मन्त्र में योगक्षेम के लिए उपोह तथा समूह शब्द दिए हैं | यह शब्द समृद्धि का अग्रदूत अथवा समृद्धि रूपी रथ का सारथि कहा गया है | यह दोनों शब्द विवेक की दो शक्तियां होती हैं :-
१) इन में से एक शक्ति का काम होता है ग्रहण अथवा लाभ यह शक्ति परिवार में कुछ नया (धन ) लाने का कार्य करती है | नया कहाँ से आवेगा, जब परिवार के लोग यत्न करेंगे | अत: यह शक्ति हमें पुरुषार्थ का आदेश देती है | ताकि इससे लाभान्वित हो ( परिवार के धन में) कुछ और भी धन जोड़ कर परिवार को लाभान्वित करें यह धन हम कैसे प्राप्त करें, कहाँ से लावें, किस प्रकार लावें , इन सब विषयों पर चिंतन , मनन व विचार का कार्य इस शक्ति के आधीन होता है | अत: किस प्रकार धनार्जन किया जावे , परिवार के धन की किस प्रकार वृद्धि हो , इस सब विचार करने को विवेक या विवेक की उपोह शक्ति के क्षेत्र में आता है |
२) विवेक की जिस दूसरी शक्ति की और मन्त्र इंगित करता है , वह है समूह | समूह उसे कहते हैं , जो प्राप्त धन की समुचित सुरक्षा अथवा संरक्षण करता है | उस धन का समुचित सदुपयोग किस प्रकार किया जावे तथा किस प्रकार उस धन का विनियोग किया जावे , यह सब इस दूसरी शक्ति के ही आधीन होता है | विवेक के इन दो पक्षों को प्रजापति तथा समृद्धि का अग्रदूत भी कहा गया है क्योंकि धन का उपार्जन, उसका रक्षण व उपयोग की विधि ही धन के लक्ष्य की प्राप्ति होती है |
यदि हम विचार करें तो हम पाते हैं कि विवेक के इन दो पक्षों को परिवार के मुखिया पति एवं पत्नी पर भी लागू किया जाना आवश्यक होता है | परिवार का मुखिया अर्थात पति का कार्य होता है धन प्राप्ति या धनार्जंन की चिंता करना, इसके उपाय खोजना व एतदर्थ यत्न करना | जबकि पत्नी प्राप्त धन को सुरक्षित करने , उसे संभालने , उसका परिवार की आवश्यकताओं के अनुरूप समुचित उपयोग, प्रयोग करने का कार्य करती है | इस प्रकार इन दो शक्तियों उपोह व समूह का संचित होने से जो नाम बनता है उसे ही योगक्षेम कहते हैं | जब यह दोनों शक्तियां समन्वित हो जाती हैं तो उसे दम्पति कहा गया है |
संक्षेप में यह दोनों मन्त्र हमें उपदेश देते हैं कि हम प्रतिदिन दोनों काल परिवार में यग्य करें | परिवार का वायुमंडल शुद्ध कर उसके पर्यावरण को शुद्ध कर परिवार को पुष्ट कर शद्ध धन की प्राप्ति करें तथा उस धन से हम न केवल परिवार की पुष्टि करें अपितु प्राप्त धन के सहयोग से इस धन की वृद्धि व संरक्षण का कार्य भी करें | एसा करने से ही गृहस्थ का उदेश्य संपन्न होकर हम योगक्षेम को प्राप्त करेंगे व सच्चे अर्थों में दम्पति कहलाने के अधिकारी बनेंगे |
डा. अशोक आर्य
१०४ – शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी,गाजियाबाद
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परिवार में दो काल यज्ञ कर बड़ों को अभिवादन करें

परिवार में दो काल यज्ञ कर बड़ों को अभिवादन करें
डा.अशोक आर्य
हम प्रतिदिन अपने परिवार में यज्ञ करें | यज्ञ में बड़ी शक्ति होती है | यह सब प्रकार के रोग ,शौक को हर लेता है | किसी प्रकार की व्याधि एसे परिवार में नहीं आती ,जहाँ प्रतिदिन यज्ञ होता है | जब यज्ञ के पश्चात बड़ों का अभिवादन किया जाता है तो बड़ों की आत्मा तृप्त हो जाती है | तृप्त आत्मा से आशीर्वादों की बौछाड़ निकलती है , जिस से परिवार में खुशियों की वृद्धि होती है तथा परिवार में सुख ,शांति तथा धन एशवर्य बढ़ता है तथा पारिवार की ख्याति दूर दूर तक चली जाती है | दुसरे लोग इस परिवार के अनुगामी बनते है | इस प्रकार परिवार के यश व कीर्ति में वृद्धि होती है | इस तथ्य को अथर्ववेद में बड़े सुन्दर ढंग से समझाया गया है : –
यदा गार्ह्पत्यमसपर्यैत, पुर्वमग्निं वधुरियम |
अधा सरस्वत्यै नारि. पित्रिभ्यश्च नमस्कुरु || अथर्ववेद १४.२..२० ||
यह मन्त्र घर में आई नव वधु को दो उपदेश देता है :_
(१) प्रतिदिन यज्ञ करना : –
प्रतिदिन यज्ञ करने से व्यक्तिगत शुद्धि तो होती ही है , इसके साथ ही साथ परिवार की शुद्धि भी होती है | यज्ञ कर्ता के मन से सब प्रकार के संताप दूर हो जाते हैं | परिवार में किसी के प्रति कटुता है तो वह दूर हो जाती है | परिवार में यदि कोई रोग है तो यज्ञ करने से उस रोग के कीटाणुओं का नाश हो जाता है तथा रोग उस परिवार में रह नहीं पाता है | परिजनों में सेवाभाव का उदय होता है, जो सुख शान्ति को बढ़ाने का कारण बनता है , जहाँ सुख शान्ति होती है,वहां धन एशवर्य की वर्षा होती है तथा जहाँ धन एशवर्य है वहां यश व कीर्ति भी होती है | इसलिए प्रत्येक परिवार में प्रतिदिन यज्ञ होना अनिवार्य है |
जहाँ प्रतिदिन यज्ञ होता है , वहां की वायु शुद्ध हो जाती है तथा सात्विक भाव का उस परिवार में उदय होता है | यह तो सब जानते हैं कि यज्ञ से वायु मंडल शुद्ध होता है | शुद्ध वायु में सांस लेने से आकसीजन विपुल मात्रा में अन्दर जाती है, जो जीवन दायिनी होती है | शुद्ध वायु में किसी रोग के रोगाणु रह ही नहीं सकते , इस कारण एसे परिवार में किसी प्रकार का रोग प्रवेश ही नहीं कर पाता | पूरा परिवार रोग , रहित स्वस्थ हो जाता है | स्वस्थ शरीर में कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है | जब कार्य करने कि क्षमता बढ़ जाती है तो अधिक मेहनत करने का परिणाम अधिक अर्जन से होता है | अत: एसे परिवार के पास धन की भी वृद्धि होती है , जहाँ धन अधिक होगा, वहां सुखों के साधन भी अधिक होंगे | जब परिवार में सुख अधिक होंगे तो दान की , गरीबों की सहयता की भी प्रवृति बनेगी | जिस परिवार में दान की परम्परा होगी , उस का आदर सत्कार सब लोग करेंगे , उस परिवार को सम्मान मिलने लगेगा | सम्मानित परिवार की यश व कीर्ति स्वयमेव ही दूर दूर तक फ़ैल जाती है | अत: परिवार में प्रतिदिन यज्ञ आवश्यक है |
जिस परिवार में प्रतिदिन यज्ञ होता है वहां सात्विक भाव का भी उदय होता है | सात्विक भाव के कारण किसी में भी झूठ बोलने , किसी के प्रति वैर की भावना रखने , इर्ष्या, द्वेष, वैर विरोध, शराब ,जुआ, मांस आदि के प्रयोग की भावना स्वयमेव ही नष्ट हो जाती है | यह सब व्यसन जहाँ परिवार के सदस्यों के शरीर में विकृतियाँ पैदा करने वाले होते है अपितु सब प्रकार के कलह क्लेश बढ़ाने वाले भी होते हैं | जब पारिवार में प्रतिदिन यज्ञ होता है तो परिवार से इस प्रकार के दोष स्वयमेव ही दूर हो कर सात्विक भावना का विस्तार होता है तथा परिवार उन्नति की ओर तेजी से बढ़ने लगता है | उन्नत परिवार की ख्याति के कारण लोग इस परिवार के अनुगामी बनने का यत्न करते है | इससे भी परिवार के यश व कीर्ति में वृद्धि होती है | इसलिए भी प्रतिदिन यज्ञ अवश्य करना वषयक है |
यज्ञ करने से ह्रदय शुद्ध हो जाता है , शुद्ध ह्रदय होने से मन को भी शान्ति मिलती है | जब मन शांत है तो परिवार में भी सौम्यता की भावना का उदय होता है | एसे परिवार में कभी भी किसी प्रकार का द्वेष नहीं होता, किसी प्रकार की कलह नहीं होती | जो समय अनेक परिवारों में लड़ाई झगड़े में निकलता है , एसे परिवार उस समय को बचा कर निर्माणात्मक कार्यों में लगाते हैं , जिस से इस परिवार की आय में वृद्धि होती है तथा जो धन रोग पर अपव्यय होना होता है, वह भी बच जाता है ,जिससे इस परिवार के धन में अपार वृद्धि होने से सुखों की वृद्धि तथा दान की प्रवृति बढ़ने से परिवार दूर दूर तक चार्चा का विषय बन जाता है तथा अनेक परिवारों को मार्गदर्शन करता है | इसलिए भी प्रतिदिन यज्ञ करना आवश्यक हो जाता है | अत: प्रतिदिन यज्ञ करने की परंपरा हमारे परिवारों में ठीक उस प्रकार आनी चाहिए जिस प्रकार प्रतिदिन दोनों समय भोजन करने की परम्परा है , आवश्यकता है | जिस दिन यज्ञ न हो , उस दिन एसा अनुभव हो कि जैसे हमने कुछ खो दिया है | जब इस प्रकार के विचार होंगे तो हम निश्चय ही प्रतिदीन दो काल यज्ञ किये बिना रह ही नहीं सकेंगे |
(२) यज्ञयोप्रांत बड़ों का अभिवादन करना : –
मन्त्र अपने दूसरे खंड में हमें आदेश दे रहा है कि हम यज्ञोपरांत अपने बड़ों को प्रणाम करें | जहाँ अपने बड़े लोगों को प्रणाम करना , ज्येष्ठ परिजनों का अभिवादन करने से परिवार में विनम्रता कि भावना आती है , वहां इससे सुशीलता का भी परिचय मिलता है | जब हम हाथ जोड़ कर किसी के सम्मुख नत होते हैं तो निश्चय ही हम उसके प्रति नम्र होते है | इस से सपष्ट होता है कि हम उसके प्रति आदर सत्कार की भावना रखते हैं | शिष्टता तथा विनय उन्नति का मार्ग है | अत: जिस परिवार में जितनी अधिक शिष्टता व विनम्रता होती है , वह परिवार उतना ही उन्नत होता है | इस का कारण है कि जिस परिवार में शिष्टाचार का ध्यान रखा जाता है , उस परिवार में कभी किसी भी प्रकार का लड़ाई झगडा, कलह क्लेश आ ही नहीं सकता , किसी परिजन के प्रति द्वेष कि भावना का प्रश्न ही नहीं होता ,| जहाँ यह सब दुर्भावनाएं नहीं होती , उस परिवार की सुख समृद्धि को कोई हस्तगत नहीं कर सकता | एसे स्थान पर धन एश्वर्य की वर्षा होना अनिवार्य है | जब सुखों के साधन बढ़ जाते हैं तो दान तथा दान से ख्याति का बढना भी अनिवार्य हो जाता है | अत: उन्नति व श्रीवृद्धि के साथ एसे परिवार का सम्मान भी बढ़ता है | इसलिए इस सार्वोतम वशीकरण मन्त्र को पाने के लिए भी परिवार में प्रतिदिन यज्ञ का होना आवश्यक है |
जब हम किसी व्यक्ति को प्रणाम करते हैं तो उस व्यक्ति का ह्रदय द्रवित हो उठता है | द्रवित ह्रदय से प्रणाम करने वाले व्यक्ति के लिए अनायास ही शुभ आशीर्वाद के वचन ह्रदय से निकालने आरम्भ हो जाते हैं | यदि कोई व्यक्ति अपने परिवार के किसी व्यक्ति के प्रति किंचित सा द्वेष भी मन में संजोये है तो प्रणाम मिलते ही वह धुल जाता है तथा उसका हाथ उसे आशीर्वाद देने के इए स्वयमेव ही आगे आता है | इस प्रकार परिवार के सदस्यों का मालिनी धुल जाता है तथाह्रिदय शुद्ध हो जाता है \ परिवार से द्वेष भावना भाग जाती है तथा मिलाप की भावना बढाती है | मनुस्मृति में भी कुछ इस प्रकार की भावना मिलाती है | मनुस्मृति में कहा है की :-
अभिवादानशिलस्य , नित्यं वृद्धोपसेदिन: |
चत्वारि तस्य वर्धन्ते , आयुर्विद्या य्शोबलम || मनुस्मृति २.१२१ ||
इस शलोक में बताया गया है कि प्रतिदिन अपने बड़ों को प्रणाम करने वाले के पास चार चीजें बढ़ जाती हैं :-
१) आयु –
जिस परिवार में प्रतिदिन एक दूसरे को प्रणाम करने की , नमस्ते करने की , अभिवादन करने की परम्परा है , उस परिवार के सदस्यों की आयु निश्चित रूप से लम्बी होती है क्योंकि वहां प्रतिदन बड़ों का आशीर्वाद , शुभकामनाएं उन्हें मिलती रहती है | बड़ों के आशीर्वाद में अत्यधिक शक्ति होती है | वह कभी निष्फल नहीं हो सकता | इस के साथ ही प्रणाम करने से जो विनम्रता की भावना आती है , उससे सुशीलता भी आती है तथा एक दूसरे के प्रति श्राद्ध भी बढती है | परिवार की खुशियाँ तथा यश बढ़ने से प्रसन्नता का वातावरण होता है , जहाँ प्रसन्नता होती है, वहां रोग नहीं आता, जहाँ रोग नहीं वहां के निवासियों की आयु का लम्बा होना अनिवार्य होता है | अत: एसे परिवार के सदस्यों कि आयु लम्बी होती है |
२) विद्या :-
जहाँ शान्ति का वातावरण होता है . लड़ाई झगडा आदि में समय नष्ट नहीं होता तथा प्रसन्नता होती है , वहां पढाई में भी मन लगता है | इस कारण एसे परिवार के लोग शीघ्र ही उच्च शिक्षा पाने में सक्षम हो जाते हैं | बेकार की बातों में उलाझने के स्थान पर एसे परिवारों में बचे हुए समय को स्वाध्याय में लगाया जाता है , जिससे एसे परिवारों में विद्या की भी वृद्धि होती है | इसलिए भी प्रतिदिन प्रत्येक परिवार में यज्ञ का होना आवश्यक है |
३) यश : –
जिस परिवार के सदस्यों की आयु लम्बी होती है तथा प्रतिदिन स्वाध्याय करने से विद्वान होते है, उस परिवार से मार्गदर्शन पाने वालों की पंक्ति निरंतर र्लम्बी होती चली जाती है | इस कारण एसे परिवार का यश भी बहुत दूर तक चला जाता है | उनकी कीर्ति की चर्चाएँ करते हुए लोग अपने परिजनों को भी इस परिवार का अनुगामी बनने के लिए प्रेरित करते हैं | इस प्रकार यह यश निरंतर बढ़ता चला जाता है | विद्वानों की सभा में उन्हें उतम स्थान मिलता है | यह यश पाने के लिए भी प्रतिदिन यज्ञ करना आवश्यक है |
४) बल : –
जिस परिवार के सदस्यों की आयु लम्बी होती है | जिस परिवार के सदस्य विद्वान होते है तथा जिस परिवार की यश व कीर्ति दूर दूर तक होती है , उस परिवार को आत्मिक व शारीरिक दोनों प्रकार का बल मिलता है | दोनों प्रकार के बालों की उस परिवार में वृद्धि होती है | जब एसे परिवार को सब लोग सम्मान के रूप में देखते हैं , सम्मान देते हैं तो उनका आत्मिक बल बढ़ता है तथा जब वह लम्बी आयु प्राप्त करते हैं तो इस का कारण भी उनका शारीरिक बल ही होता है | इस प्रकार जिस यज्ञ को करने से दोनों प्रकार के बलों में वृद्धि होती है , उस यज्ञ को करना प्रत्येक परिवार के लिए अनिवार्य होता है |
इस सब से जो तथ्य उभर कर सामने आता है वह यह है कि जहाँ पर प्रतिदिन यज्ञ होता है , वहां के निवासियों की आयु बढती है, विद्या बढती है , उन्हें यश मिलता है तथा बल भी मिलता है | हम जानते हैं कि श्री रामचंद्र जी के काल में सब परिवारों में प्रतिदिन यज्ञ होता था इस कारण किसी को कोई रोग नहीं था, किसी के पिता के रहते बालक की मृत्यु नहीं होती थी , कभी अकाल नहीं पड़ता था , समय पर वार्षा होती थी, समय पर वृक्ष फल देते थे , कोई भूखा नहीं था , सब की आयु लम्बी थी, सब बलवान थे | इस कारण ही श्री राम जी को इतना यश मिला की हम आज भी उन्हें न केवल याद करते हैं अपितु उनके जीवन की लीला भी प्रतिवर्ष खेलते हैं | जिस यज्ञ के करने से इतने लाभ हैं , उसे हम क्यों न अपने जीवन का अंग बनावें तथा हम क्यों न प्रतिदिन अपने परिवार में करें ? अत: हमें प्रतिदन दोनों समय यज्ञ अपने परिवार में अवश्य ही करना चाहिए |
डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट , कौशाम्बी ,गाजियाबाद
चलावार्ता : ०९७१८५२८०६८, ०९०१७३२३९४३
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१. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए? – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा- निम्नलिखित जिज्ञासाओं का समाधान करने का कष्ट करेंः-
१. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए?
मनुष्य बनेंगे तो ‘‘शतपथ’’ वाली बात बाधा डालती है, जिन्हें यज्ञ करने तक का अधिकार नहीं है। जब महर्षि दयानन्द द्वारा अनेक स्थलों पर दी गई ‘‘मनुष्य’’ की परिभाषा में सभी श्रेष्ठ गुण आ जाते हैं, तो फिर देव बनने की क्या आवश्यकता रह जाएगी और इस तरह मन्त्र में ‘‘मनुर्भव’’ वाली बात का औचित्य भी सिद्ध हो जाएगा।

समाधान-(क) वेद व ऋषियों के तात्पर्य को समझने के लिये वेद व ऋषियों की शैली को ही अपनाना पड़ता है। इस आर्ष शैली को अपनाकर जब हम वेद और ऋषि वाक्यों को देखते हैं, तब वे वाक्य हमें स्पष्ट समझ में आते चले जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने वक्ता अथवा लेखक का भाव, उद्देश्य समझने के लिए सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में चार बातें-आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य को जानने के लिए कहा है। प्रायः जब हम भाषा-शैली वा भाषा-विज्ञान को नहीं जान रहे होते, तब हम किसी बात के अर्थ को ठीक से नहीं जान पाते।
महर्षि दयानन्द ने मनुष्य की परिभाषा अनेक स्थानों पर दी है। वे परिभाषाएँ अपने-अपने स्थान पर उचित हैं। महर्षि मनुष्य के अन्दर जो मनुष्यता के भाव होने चाहिए उनको लेकर परिभाषित कर रहे हैं, जैसे स्वात्मवत्, सुख-दुःख में वर्तना, विचार पूर्वक कार्य करना आदि। यह मनुष्य बनने की प्रेरणा वेद भी ‘मनुर्भव’ वाक्य से कर रहा है। इसको देखकर आप तो शतपथ के वाक्य को देख रहे हैं और उसमें विरोधाभास दिख रहा है, सो है नहीं। यहाँ जो ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कहा है, वह एक सामान्य कथन है। इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि मनुष्य सदा झूठ ही बोलता है, सत्य बोलता ही नहीं। हाँ, इसका यह तात्पर्य तो अवश्य है कि मनुष्य अपने अज्ञान आदि के कारण झूठ बोल देता है, जबकि यह भाव देवताओं में नहीं होता, क्योंकि विद्वानों, ज्ञानियों को देवता कहा गया है, ‘‘विद्वांसो वै देवाः’’। विद्वान् ज्ञानी लोगों में अज्ञान स्वार्थ आदि के न होने के कारण वे सत्य बोलते हैं, सत्य का आचरण करते हैं। इसका यह भी तात्पर्य नहीं है कि कभी झूठ बोल ही नहीं सकते, नहीं बोलते। हाँ, देव और मनुष्य कोई अलग नहीं हैं। दोनों में एक ही अन्तर है कि देवों से त्रुटियाँ नहीं होती अथवा यूँ कहें कि अत्यल्प होती हैं। जो होती हैं, वे जीव की अल्पज्ञता के कारण होती हैं और इनसे इतर जो हैं, वे मनुष्य हैं। मनुष्यों से त्रुटियाँ अधिक हो सकती हैं, होने की सम्भावना अधिक रहती हैं।
‘‘अनृतं मनुष्याः’’ इस सामान्य कथन को लेकर ‘‘मनुर्भव’’ से विरोध देखना उचित नहीं हैं। ‘‘मनुर्भव’’ मनुष्यता से युक्त मनुष्य बनने की बात कह रहा है और ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कह रहा है कि मनुष्य से अज्ञान के कारण त्रुटि हो सकती है। इन दोनों में कोई विरोध नहीं है, दोनों वाक्य अपने-अपने स्थान पर अपनी बात कह रहे हैं।
हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव? तो हमें श्रेष्ठता की ओर बढ़ना चाहिए। मनुष्य बनना कोई हीन बात नहीं है। वेद ने मनुष्य बनने के लिए कहा है और इससे आगे अपने अन्दर देवत्व पैदा करने की बात कही, अर्थात् मनुष्य से आगे हम देव बनें।
आप शतपथ की इस बात को लेकर कह रहे हैं कि ‘‘इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है।’’
शतपथ के इस पूरे प्रसंग से कहीं भी ऐसी बात प्रतीत नहीं हो रही कि मनुष्य को यज्ञ से दूर रखा जा रहा हो और देवताओं के लिए यज्ञ करने का विघान हो। यहाँ तो केवल सामान्य परिभाषा की जा रही है कि जो असत्य बोल देता है (किन्हीं कारणों से) वह मनुष्य और जो सत्य बोलता है, देवता होता है। यहाँ मनुष्यों के यज्ञ न करने की बात कहाँ से आ गई? अपितु शास्त्र में यह कथन तो मिलता है- ‘‘मनुष्याणां वारम्भसामर्थ्यात्।।’’ का. श्रौ. पू. १.४ अर्थात् यज्ञ-याग आदि कर्म करने का अधिकर मनुष्यों का है, मनुष्य इस कार्य के लिए समर्थ हैं। इस शास्त्र वचन में मनुष्य ही यज्ञ का अधिकारी है और आप इसके विपरीत देख रहे हैं जो कि है ही नहीं।
अभी हमने पीछे कहा कि मनुष्य बनना कोई हीन काम नहीं है,मनुष्य बनना एक श्रेष्ठ स्थिति है। जिस स्थिति को महर्षि दयानन्द परिभाषित करते हैं, वहाँ यहाँ वाली स्थिति नहीं है। महर्षि की मनुष्य वाली परिभाषा में धर्म का बाहुल्य है, विचार का बाहुल्य है। किन्तु देव मनुष्यों से आगे धर्म और विचार का बाहुल्य रखते हुए विवेक विद्या का बाहुल्य भी रखते हैं, वे राग-द्वेष से ऊपर उठे हुए होते हैं। यह सब होते हुए देव बनने की आवश्यकता है, इसलिए वेद ने कहा ‘मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।’ इस आधार पर मनुष्य और देव दोनों बनने का औचित्य है।

मन का असीमित कार्यक्षेत्र होता है

ओउम
मन का असीमित कार्यक्षेत्र होता है
डा. अशोक आर्य
मन का कार्यक्षेत्र असीमित होता है | इसे किसी सीमा में बाँधा नहीं जा सकता | मन में इतनी क्षमता है कि यह एक समय में अनेक कार्य कर सकता है | व्यापक कार्यक्षेत्र वाला यह मन जब तक सही मार्ग पर है , तब तक तो निर्माण के कार्य करता है किन्तु ज्यों ही यह मार्ग से भटकता है त्यों ही विनाश का कारण बन जाता है | इस लिए मन को सदा वश में रखने के लिए प्रेरित किया  जाता है | दू:स्वपन वाला मन सदा हानि  का कारण बनता है | इस लिए मन की अवस्था दु:स्वप्न रहित बनाए रखने का सदा प्रयास करना आवश्यक है | मन को निर्माण की और लगाए रखना ही सफलता का मार्ग है | इस लिए ऋग्वेद में पाप देवता को दूर रखने की चर्चा आती है कुछ एसा ही भाव अथर्ववेद में भी प्रकट किया गया है , जो इस प्रकार है :-
अपेहि मनसस्पतेअप काम परश्चर |
परो नि र्र्त्या आचक्ष्व , बहुधा जीवतो मन: ||
हे मन के अधिपति ! तुम दूर हटो , दूर चले जाओ , दूर ही विचरण करो ! तुम पाप देवता को दूर से ही बोल दो कि जीवित मानव का मन विवध विषयों में जाता है |
यह मंत्र  मन के व्यापक कार्यक्षेत्र पर प्रकाश डालता है | मन जाग्रत अवस्था में तो क्रियाशील रहता ही है किन्तु सुप्त अवस्था , स्वप्न कल में भी क्रियाश्हिल रहता है | अनेक बार दु:स्वप्न से हम दु:खी होते हैं | वेद मानव मात्र को सुख के साधन उपलब्ध करता है | इस लिए मन्त्र में दुस्वपन के नाश का विधान किया गया है |
स्वपन दो प्रकार का होता है : –
१) सुखद स्वप्न : –
सुखद स्वप्न उन स्वप्नों को कहते हैं जो सुख का कारण हों | जिन स्वप्नों को देख कर मानव आनंद विभोर हो उठता है , उसे सुखद स्वप्न कहा  जाता है | एसे स्वप्नों की सब मानव अभिलाषा करते हैं | कौन है संसार में एसा प्राणी जो दुखों की कामना करता हो ? दु:ख के समय तो सब उस प्रभु को याद करते हुए प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! जितना शीघ्र हो सके हमें इन दु:खों से दूर कर दीजिये तथा जितने उतम कर्म हैं, वह सब हमारी झोली में भर दीजिये | किन्तु मानवीय आचरण एसा नहीं होता कि उसे सुख मिले | पूरा दिन छल ,कपट , पाप करने वाले मानव को प्रभु सुख कैसे दे सकता है ? प्रभु का कार्य तो किये गए कर्मों का फल देना है | अच्छे कर्मों का अच्छा फल देता है, जब कि बुरे किये कर्मों का फल भी दुखों को बढ़ा कर देता है | जब हम जानते हैं कि कर्मों का फल तो भोगना ही पडेगा तो हम क्यों न अच्छे कर्म करें जिनके सुखद फल से हम सुखी हों | स्वप्न में भी हम सुख पूर्ण वातावरण में निवास करें सदा उतम स्वप्न ही हम देखें |
२) दु:खद स्वप्न : –
दुखद स्वप्न को ही दु:स्वप्न भी कहते हैं | इस प्रकार के स्वप्न का कारण पापाचरण , क्रोध,पाप , दुर्विचार आदि होते हैं | दिन भर जो मानव दूसरों को कष्ट देने में लगा रहता है | अनैतिक रूप से ,दूसरों को कष्ट क्लेश देकर धन एकत्र करने में लगा रहता है | दूसरों पर अकारण ही क्रोध करता रहता है | सदा पाप मार्ग का ही आचरण करता है | एसे लोगों को सदा ही इस प्रकार के दु:स्वप्न का सामना करना होता है | स्वप्न अवस्था में यह बुरे स्वप्न मानव को चिंतित करने का , भयभीत करने का , उसके दु:खों को बढ़ाने का कारण बनते हैं | जबकि जाग्रत अवस्था में मनो निग्रह से पाप आदि को निरोध होता है | इस लिए मंत्र में मनो निग्रह को दूर करने का उपाय बताया गया है तथा प्रभु से प्रार्थना कि गयी है , वह हमारे से पापदेवता को दूर भगावे | जब पाप देवता ही हमारे पास न होगा तो हमें हमारे मार्ग से कौन भटका सकता है | हम स्वयं ही सुपथगामी बन जावेंगे | कभी बुरे विचार हमारे मन में नहीं आवेंगे , कभी पाप के मार्ग पर नहीं चलेंगे , कभी किसी का बुरा नहीं सोचेंगे , कभी किसी का बुरा नहीं करेंगे , बुरे विचार मन में भी नहीं आवेंगे | इस प्रकार स्वयं भी सुखी होंगे तथा दूसरों का जीवन भी सुखों से भरने का यत्न करेंगे | अत: पाप देवता को कभी पास न आने देंगे |
प्रश्न उठता है कि पाप का देवता कौन है ? :-
मंत्र बताता है कि जो मन सुखों का कारण है , वह मन ही पाप का देवता भी है | इस कारण इसे मनस्पति कहा  है | मन ही दुर्विचार को पैदा करता है , मन ही बुरे भावों का कारण होता है , मन ही अनिष्ट चिंतन का कारण है , मन ही सब कामों का कारण होता है तथा मन ही सब प्रकार के क्रोधों का स्वामी होता है | इस प्रकार के जितने भी दुर्भाव होते हैं , उन सब का कारण भी मन ही होता है | इस प्रकार के दुर्भावों को मन में उदय न होने दिया जावे , इसके लिए मन का पवित्रीकरण आवशयक होता है | अत: मंत्र मन के पवित्रीकरण पर भी बल देता है तथा कहता है कि पाप देवता को दूर भगा दो |
मंत्र का अंतिम भाग स्पष्ट करता है कि मानवीय मन अनेक प्रकार का होता है |कभी तो मन बुराई की और जाता है तो कभी अच्छई को पकड़ता है | जब जब बुरे स्वप्न आते हैं तो मनुष्य दु:खी होता है , जबकि अच्छे स्वप्न उसके सुखों को बढाते हैं | इसलिए प्रार्थना की गयी है कि हमें बुरे स्वप्नों से बचाते हुए अच्छे स्वप्न दो ताकि हम सुखी रह सकें |
डा. अशोक आर्य
१०४- शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी ,गाजियाबाद
चलावार्ता : ०९७१८५२८०६८,०९०१७३२३९४३

हमारे योद्धा अग्नि के समान तेज वाले तेजस्वी हों

ओउम
हमारे योद्धा अग्नि के समान तेज वाले तेजस्वी हों

डा.अशोक आर्य

सेना मैं योधा का , सैनिक का विशेष महत्त्व होता है | जो योधा विजय की कामना तो रखता है किन्तु उसमें वीरता नहीं है , तेज नहीं है , बल नहीं  , पराक्रम नहीं है , एसा व्यक्ति कभी वीर नहीं हो सकता , पराक्रमी नहीं हो सकता, तेजस्वी नहीं हो सकता | जो वीर नहीं है , बलवान नहीं है, तेजस्वी नहीं है , योधा नहीं है , एसा व्यक्ति किसी भी सेना का भाग नहीं होना चाहिए | यदि किसी सेना में इस प्रकार के भीरु लोग भर जावेंगे,वह सेना कभी शत्रु पर विजय प्राप्त नहीं कर सकती | इस समबन्ध में ऋग्वेद तथा अथर्ववेद के मन्त्र इस प्रकार आदेश दे रहे हैं :
त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमानासो ध्रिषिता मरुत्व: |
तिग्मेशव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु अग्निरूपा: || ऋग्वेद १०.८४.१, अथर्ववेद ४.३१.१ ||
किसी भी देश की , किसी भी राष्ट्र की , किसी भी समुदाय की सुरक्षा उसके सैनिकों पर ही निर्भर होती है | सैनिकों का चरित्र जैसा होता है उसके अनुरूप ही उस राष्ट्र का उस देश का परिचय समझा जाता है | यदि देश के सैनिक उदात्त चरित्र हैं तो वह राष्ट्र भी उदात्तता का परिचायक माना जाता है | यदि देश के सैनिक प्रसन्न हैं तो वह देश भी प्रान्नता से भर पूर होगा | अत: जैसे सैनिक होंगे वैसा ही देश होगा , वैसा ही राष्ट्र होगा | इस कारण ही यह मन्त्र सैनिक के गुणों को निर्धारित करते हुए कहता है कि एक देश के सैनिकों में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है : –
(१) सैनिक सदा प्रसन्नचित हों : –
किसी भी देश के , किसी भी राष्ट्र के सैनिक का प्रथम गुण होता है , उसकी प्रसन्नता | सैनिक का सदा प्रसन्न चित होना आवश्यक होता है | प्रसन्नचित व्यक्ति बड़े से बड़े संकट का भी हंसते हुए सामना करता है | कष्ट से प्रसन्नचित व्यक्ति कभी डरता नहीं है | संकट से वह कभी भयभीत नहीं होता | जो व्यक्ति प्रसन्न रहता है, यदि वह योधा है तो वह सेना में अन्य सैनिकों को भी उत्साहित करेगा तथा बड़ी बड़ी परेशानियां जो युद्ध काल में आती हैं , उन सब का सामना वह प्रसन्नता से करेगा | इसलिए प्रत्येक सैनिक की वृति प्रसन्नता की होनी चाहिए | सैनिक सदा प्रसन्नचित होना चाहिए |
(२) सैनिक सदा निर्भीक हों : –
सैनिक का दूसरा गुण होता है निर्भीकता | भय को कायरता का चिन्ह माना गया है तथा कायर व्यक्ति कभी किसी भी क्षेत्र में विजयी नहीं हो सकता , फिर सेना में तो कायर सैनिक हो तो वह सदा उस सेना कि पराजय का कारण बना रहता है | सेना में ही नहीं प्रत्येक क्षेत्र में यह सब होता है | इस लिए ही मन्त्र कहता है कि सैनिक को कभी भी किसी प्रकार से भी भयभीत नहीं होना चाहिए | वह सदा निर्भय होकर युद्ध में जाना चाहिए | यदि वह निर्भय हगा तो वह खुला कर अपने पराक्रम दिखा सकेगा तथा सेना को विजय दिलाने का कारण बनेगा | यदि उसे युद्ध क्षेत्र में भी अपने परिजनों कि चिंता लगी रहेगी तो वह युद्ध क्षेत्र में होकर भी एकाग्र हो युद्ध नहीं कर पावेगा | अत: सनिक का निर्भय होना युद्ध विजय के लिए आवश्यक है |
(३) सैनिक सदा तीक्षण हों : –
किसी भी सेना का सैनिक सदा द्रुत गति वाला होना चाहिए , तेज होना चाहिए | ताकि शत्रु के संभलने से पहले ही वह उसके ठिकाने पर पहुंच कर उस पर आक्रमण कर दे | उसे संभलने ही न दे , तो वह शीघ्र ही विजयी होता है |
(४) सैनिक सदा शस्त्रधारी हों : –
किसी भी देश के सैनिक सदा अत्याधुनिक अस्त्र – शस्त्र से सुसज्जित हों | यदि उनके पास अच्छे शस्त्र ही न होंगे तो वह युद्ध में विजयी कैसे होंगे , शत्रु के अत्याधुनिक शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा में क्या जौहर कर दिखा पावेंगे | विजेता होने के लिए सदा शत्रु सेना से उत्तम शस्त्रों का होना आवश्यक है तथा यह शस्त्र सदैव सैनिक के हाथों में होना आवश्यक है | इसलिए सैनिक के पास , योधा के पास उत्तम कोटि के शस्त्र होना आवश्यक होता है |
(५) सैनिक अपने शास्त्रों को तीक्षण करने वाले हों : –
सैनिक के पास जो भी शस्त्र हों, वह सदा तेज धार वाले होने चाहियें | एक सैनिक के पास शस्त्र तो उत्तम किस्म के हों किन्तु उनकी धार ही कुंद पड़ चुकी हो तो वह शत्रु को सरलता से काट ही नहीं पावेंगे | जो एक ही वार से शत्रु का नाश क़र सके, एसी तलवार सैनिक के हाथों में होनी चाहिए | यदि तलवार की धार कुंद है तो बार बार के वार के पश्चात भी शत्रु सैनिक के बच जाने की संभावना बनी रह सकती है | अत: यदि हमारा सैनिक प्रसन्न व निर्भय है तो भी वह शस्त्र की कुंद धार के कारण विजयी नहीं हो पाता | इसलिये सैनिक के पास शत्रु पर विजय पाने के लिए तीक्षण शस्त्र का होना आवश्यक है |
(६) सैनिक अग्नि के सामान तेजस्वी हों : –
सेना का प्रत्येक सैनिक अग्नि के सामान तेज का पुंज होना चाहिए | जिस प्रकार आग कि लपटें अध्रष्ट होती हैं , छुप नहीं सकती, उसमें गिरा पदार्थ जलने से बच नहीं सकता , अग्नि सदा आगे ही आगे बढाती है , उस प्रकार ही सैनिक शत्रु को मारते काटते, उस पर विजयी होते हुए निरंतर आगे ही आगे बढ़ाते चले जाने चाहियें , निरंतर शत्रु सेना पर प्रलयंकर आक्रमण करते रहे | एक क्षण के लिए भी शत्रु को सुख से न बैठने दें |
मन्त्र कहता है कि जिस देश के सैनिकों में यह गुण होते हैं , उस देश की सेनायें सदा विजयी होते हुए निरंतर आगे ही आगे बढती चली जाती हैं , कभी पीछे नहीं देखती, विजयी ही होती चली जाती हैं | अत: प्रत्येक राजा को अपनी सफलता के लिए देश का गौरव बढाने के लिए अपने सैनिकों में यह गुण बनाए रखने चाहियें |

डा. अशोक आर्य १०४  शिप्रा अपार्टमेंट, कौशाम्बी, गाजियाबाद चलावार्ता ; ०९७१८५२८०६८

हम ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ गुणों से संपन्न हों

ओउम
हम ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ गुणों से संपन्न हों
डॉ.अशोक आर्य
ज्ञान , तेजा , बल और वीर्य , यह कुछ शक्तियां हैं जी किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए आवश्यक होती हैं | ज्ञान मानव को कुपथ से निकाल कर सुपथ पर ले जाता है | तेज से मानव तेजस्वी होता है . बल से मानव अपने पराक्रम दिखा कर सर्वत्र विजयी होता है तथा वीर्य भी मानव को विजयी बनाने का एक सुन्दर साधन है | जहाँ यह चारों ही हों तो सोने पर सुहागा हो जाता है | जिस के पास यह सब शक्तियां होती हैं ,उसे किसी अन्य प्रकार की सहायता की आवश्यकता ही नहीं होती | यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में हमें इस प्रकार की ही शिक्षा देते हुए कहा है कि : –
यथा मक्षा इदं मधु ,न्यन्जन्ति मधावधि |
एवा में अश्विना वर्च्स्तेजो बलामोजश्च ध्रियाताम || ,अथर्व .९.१.१७ ||
यह मन्त्र हमें अच्छे गुणों का संग्रह करने का उपदेश देता है | मधुमखियाँ समय समय पर मधु एकत्र करती रहती हैं | जब जब वह मधु लेकर आती हैं , तब तब ही वह उस का अलग से संग्रह करने की व्यवस्था नहीं करती अपितु जो मधु का संग्रह उनहोंने पहले से हीजिन थैलियों में एकत्र कर रखा होता है , उसमें ही वह मिला देती हैं | इस प्रकार वह अपने भण्डार को निरंतर बढ़ाती ही चली जाती हैं | ठीक इस प्रकार ही मनुष्य भी अपने बल, ओज ,तेज व ज्ञान को निरंतर बढ़ाता रहता है | इन बढ़ी हुयी शक्तियों के संकलन के लिए उसे हर बार अलग से व्यवस्था नहीं करनी होती बल्कि पहले से ही एकत्र भण्डार में ही इन सब का समावेश करता चला जाता है |
इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए हम पाते हैं कि मधुमखियाँ जिस मधु को एकत्र करती हैं , वह इस मधु के निर्माण में दो तत्वों को मिलाती हैं , इन का समावेश करती हैं , यह दो तत्व हैं : –
(१) पराग : –
(२) मकरंद अथवा अमृत : –
मधुमखियाँ अपने निवास से उड़कर फूलों पर जा बैठती हैं | मखियों का फूलों पर बैठने का उद्देश्य न तो विश्राम करना होता है तथा न ही आनंद लेने का | यह तो उनका नित्य का व्यापार होता है , उनका नित्य का व्यवसाय होता है , जिसे वह करती हैं | आप चकित होंगे की मधुमखियाँ भी मानव की भाँती व्यापार करती हैं | जी हाँ ! मधुमक्खियाँ भी व्यापार करती हैं | मधुमक्खियाँ ही नहीं इस सृष्टि का प्रत्येक जीव जीवन व्यापार करता है | व्यापार क्या है ? वह साधन जिससे आजीविका , पेट की तृप्ति के साधन मिल सकें | बस पेट की तृप्ति के साधन ही मधुमखियाँ फूलों पर बैठकर प्राप्त करती हैं | इस लिए ही इस कार्य को व्यापार अथवा आजीविका प्राप्त करने के अर्थ में लिया गया है |हाँ तो मधु मखियाँ इन फूलों पर जा कर बैठती हैं | फूलों में जो पराग भरा रहता है , उसे वह धीरे धीरे एकत्र कर अपनी छोटी – छोटी थैलियों में भरती चली जाती हैं | इस प्रकार पराग का वह संकलन करती हैं |
जिस प्रकार मधुमखियाँ फूलों के पराग को एकत्र कर थैलियों में भरती हैं , उस प्रकार ही वह मकरंद जिसे अमृत भी कहा जाता है , को भी फूलों में से चूसने लगती हैं | इसे चूस चूस कर वह अपने मुंह में भर लेती हैं | यह दोनों तत्व लेकर मधुमक्खियाँ अपने उस स्थान पर चली जाती हैं , जहाँ शहद अथवा मधु बना कर संकलन करना होता है | इस स्थान का नाम छाता होता है | अत: वह यह दोनों पदार्थ लेकर अपने शहद के छत्ते में चली जाती हैं | यहाँ वह एक निश्चित अनुपात में इन दोनों तत्वों को मिला कर मधु का , शहद का निर्माण करती हैं | इस प्रकार पराग व मकरंद को मिला कर वह मधु के रूप में परिवर्तित कर देती हैं | इस से स्पष्ट होता है कि इन दो पदार्थों के मिश्रण का नाम ही मधु होता है | इस मधु को संभालने के लिए मधुमखियाँ छोटे छोटे कोष्ठक बनाती हैं | इन कोष्ठकों में अपने बनाए मधु को वह भर देती हैं | ज्योंही कोष्ठक मधू से भर जाते हैं त्यों ही इस की संरक्षा के लिए वह इन कोष्ठकों को ऊपर से बंद कर देती हैं | जब जब इन्हें और कोष्ठकों की आवश्यकता होती है तब तब वह यथावश्यकता छोटे अथवा बड़े आकार के यह कोष्ठक भी निर्माण करती चली जाती हैं | इसप्रकार उनका यह संकलन , यह संग्रह निरंतर बढ़ता व संरक्षित होता चला जाता है | मानव मस्तिष्क भी इस प्रकार के विभिन्न कोष्ठकों का ही केंद्र होता है, भण्डार होता है | इन कोष्ठकों में विभिन्न प्रकार के गुणों का द्रव्य संचित होता है , संग्रह किया हुआ होता है , रखा हुआ होता है | सद्गुण इन द्रव्यों में स्निग्धता पैदा करते व बढ़ाते व विक्सित करते रहते हैं | जब कि दुर्गुणों से इन द्रव्यों कि स्निग्धता निरंतर कम होती चली जाती है | ज्यों ज्यों स्निग्धता कम होती चली जाती है त्यों त्यों इन में रुक्षता आती जाती है |
हमारा यह मन्त्र हमें ज्ञान , बल ,तेज आदि गुणों के संकलन करने के लिए निरंतर प्रयत्न करने का उपदेश देता है | मन्त्र कहता है कि हम एसा व्यवसाय करें , एसा यत्न करें , इसे क्रियाकलाप करें कि जिस से हमारे मस्तिष्क के इस संकलन में ज्ञान , तेज, बल, वीर्य आदि उत्तम तत्वों की निरंतर वृद्धि होती चली जावे |
हम जानते हैं कि परम पिता परमात्मा जब कुछ जोड़ने का कम करता है तो हम, उसे अश्विनी के नाम से पुकारते हैं | अश्विनी का अर्थ होता है जोड़ने वाला | अत: जब हम निरंतर एसे यत्न करते हैं , जिससे हमारे ज्ञान , तेज,बल तथा वीर्य आदि अच्छे तत्वों की हमारे मस्तिष्क में वृद्धि होती चली जाती है , अच्छे तत्व निरंतर बढ़ते ही चले जाते हैं , इसलिए हम इस कार्य के लिए अश्विनी देव की शरण में जाते हैं | जब निरंतर गुण संग्रह का यत्न किया जाता है तो हमारे अन्दर ज्ञान आदि तत्व विक्सित होते चले जाते हैं | इससे ही हमारे अन्दर तेजस्विता, वर्चाविता आदि दिव्य गुणों का निरंतर विस्तार होता चला जाता है |
यह मन्त्र एक अन्य भाव के रूप में भी हमें उपदेश देता है | मन्त्र उपदेश करता है कि हमारा जीवन मधुमय बने , मधु के सामान ही मिठास हमारे जीवन से टपके , जीवन मधुर हो , यह आनंद से युक्त हो, आनंदमय हो | जब हमारा जीवन आनंदमय होगा, मधुरता से भरपूर होगा , मिठास से भरपूर होगा तो हमारे अन्दर से जो माधुर्य टपकेगा , उससे समाज पर भी मधुरता की वर्षा होगी | इस मधुरता से समाज में भी मधुरता ही आवेगी | इस का ही पाठ शतपथ ब्राहमण में करते हुए इस प्रकार उपदेश किया गया है : –
सर्वं वा इदं मधु, यदिदं किन च || शतपथ ब्रा. ३.७.१.११ ||
जो कुछ भी है सब मधु है | इस आशय से स्पष्ट होता है कि मधुरता पूर्ण व्यवहार मनुष्य की सब कामनाओं को पूर्ण करने में सहयोगी होता है , कारण होता है किन्तु दुष्टतापूर्ण व्यवहार से बने हुए काम भी बिगड़ जाते हैं | इस लिए जीवन में निरंतर मधुरता भरते चले जाना चाहिए | जीवन मधुर होगा तो हमारे प्रत्येक कार्य का परिणाम भी
मधुर ही होगा |………………
डा. अशोक आर्य
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वैदिक धर्म प्रचार की शैली क्या हो? : डॉ. धर्मवीर

वैदिक धर्म प्रचार की शैली क्या हो?
सम्पूर्ण समय में सब कुछ विकसित या सब कुछ अविकसित नहीं हो सकता। इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि सदा सब कुछ एक जैसा नहीं होता। ज्ञान-विज्ञान की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि समय को चलाने के लिये उसका थोड़ा होना भी बहुत होता है। हम उसे समाज का मुख भी कह सकते हैं। वह ही संसार में आगे चलता है। जैसे शरीर में मुख के अतिरिक्त बहुत कुछ है, परन्तु सब ज्ञानेन्द्रियाँ मुख पर ही आश्रित हैं, सारा शरीर उसी से चलता है। समाज को सभी वर्णों की आवश्यकता होती है, परन्तु समाज को विद्या और विज्ञान जानने वाला वर्ग ही चलाता है। पहले भी ऐसा ही था, आज भी ऐसा ही है और आगे भी ऐसा ही होगा। यदि विद्या वाला वर्ग सोचे कि वह कुछ नया नहीं जानेगा और समाज का संचालन करेगा, तो यह सोचना गलत होगा। तब तक समाज में उसका स्थान दूसरे ले चुके होंगे। ज्ञान ही मनुष्य को संचालित करेगा, चाहे वह किसी भी दिशा से आये या किसी भी भाषा से आये। जब कभी कोई संसार में प्रगति को अवरुद्ध करता है, तब गति की दिशा और स्थान बदल जाते हैं, परन्तु गति बनी रहती है। संसार में निरन्तर ऐसा ही होता रहता है।
इस बात को एक और तरह से भी समझ सकते हैं। इस जीवित शरीर में चेतना होने पर ही जीवन रहता है। चेतना के समाप्त होने पर शरीर तो रह सकता है, परन्तु उसमें जीवन नहीं हो सकता, इसी कारण मनुष्य शरीर के लिये सब कुछ करके भी अपने को अपूर्ण अनुभव करता है। यह अपूर्णता हमें पूर्णता के लिये कुछ करने को विवश करती है। यह विवशता धार्मिकता के बिना दूर नहीं हो सकती, इसे रूढ़िवादी धर्म कभी भी पूरा नहीं कर सकते। वैदिक धर्म की वैज्ञानिकता ही इस शरीर और आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ है।
जो लोग बिना ज्ञान के चलना चाहते हैं, उन्हें उनका आग्रह समाज में पीछे धकेल देता है। प्रायः हम धर्म के नाम पर अपने को एक स्थान पर बाँध लेते हैं और जब बँध जाते हैं तो हमारी गति रुक जाती है। संसार में सबसे अधिक ईसाई और मुसलमान हैं, उन्होंने धर्म और विज्ञान से अपने को विचित्र तरह से जोड़ा। इस्लाम की विचाराधारा ज्ञान-विज्ञान पर रोक लगाने वाली है, वहाँ प्रगति के लिये कोई स्थान नहीं। ईसाइयत ने इसे दो भागों में बाँट लिया है, गति के लिये विज्ञान का आश्रय लिया है, परन्तु धर्म के बन्धन को भी नहीं छोड़ा है, इसलिये वह विज्ञान को स्वीकार करने पर भी अपने धर्म को वैज्ञानिक नहीं बना सका। वैदिक धर्म ने जब तक अपने ज्ञान-विज्ञान को जीवित रखा, तब तक वह विज्ञान-सम्मत था, गति करता रहा। जब वह वैज्ञानिक सोच से वञ्चित हो गया, प्रगति से शून्य हो गया।
इस युग में ऋषि दयानन्द का आगमन वैदिक धर्म को विज्ञान-सम्मत बनाने का प्रयास था। धर्मों की लड़ाई में ऋषि दयानन्द की वैज्ञानिकता ने वैदिक धर्म को गति दी। उनके अनुयायियों ने धर्म को तो अपनाया, परन्तु वैज्ञानिक सोच को भूल गये या वह उनसे छूट गया, परिणाम स्वरूप उनकी लड़ाई अन्य धर्म वालों के साथ रह गई, वैज्ञानिकों के साथ छूट गई। दूसरे शब्दों में आर्य समाज शिक्षा, विद्या एवं विज्ञान के क्षेत्र में अपना स्थान नहीं बना सका। वह उन्हीं धार्मिक लोगों से लड़ता रहा और आज भी लड़ रहा है। हमारी लड़ाई विज्ञान के बिना और वैज्ञानिक लोगों से न होकर रूढ़िवादी धार्मिक लोगों के साथ रह गई है, जो वैज्ञानिक सोच बिल्कुल नहीं रखते। ऋषि दयानन्द के समय हमारी धार्मिक लड़ाई हमें आगे ले जा सकी थी, परन्तु आज हमारी धार्मिक लड़ाई हमें आगे क्यों नहीं ले जा पा रही है- इसके विषय में विचार करने की आवश्यकता है।
प्रगति के अवरुद्ध होने का जो कारण हमारी समझ में आता है, वह यह है कि ऋषि दयानन्द के समय संसार भर में धर्म का प्रभाव अधिक था, विज्ञान का विकास थोड़ा था, प्रभाव भी थोड़ा था, इसलिये धर्म के नाम पर कही गई वैज्ञानिक बातों को धार्मिक लोग आसानी से स्वीकार कर लेते थे, परन्तु आज विज्ञान का अनुयायी वर्ग संसार में बहुत बढ़ गया है और धार्मिक वर्ग प्रतिशत में अधिक होने पर भी पहले से बहुत घट गया है, ऐसी स्थिति में आर्य समाज या वैदिक धर्म की लड़ाई वर्तमान धार्मिक परिस्थितियों में पिछड़ गई है। इसका एक कारण है- इन धार्मिक संगठनों का प्रभाव क्षेत्र, उनका संगठन तथा प्रचार तन्त्र और उसके लिये प्राप्त उनके साधन हमारी तुलना में हजारों गुना अधिक हैं। हमारे पास वैज्ञानिक विचार तो हैं, परन्तु इन विचारों को गति देने वाला तन्त्र नहीं है। नये विचारक उत्पन्न करने के साधन नहीं हैं, प्रतिभाशाली लोगों तक पहुँचने के उपाय भी नहीं, व्यक्ति भी नहीं। इस स्थिति में हमारे किये जाने वाले प्रयास समुद्र के सम्मुख बिन्दु जैसे भी नहीं दीखते। ऐसी परिस्थिति में क्या किया जा सकता है और क्या किया जाना चाहिए?
प्रथम जिस परिवेश और समाज में हम लोग रह रहे हैं, उसमें दोनों प्रकार के लोग हैं, एक वे जो अपने को धार्मिक कहते हैं और दूसरे वे जो अपने को प्रगतिशील या वैज्ञानिक सोच का व्यक्ति मानते और समझते हैं। वैदिक विचारों के लिये जो अवसर पहले था, आज भी वही है। विज्ञान कितना भी आगे क्यों न बढ़ गया हो, कितना भी विकसित क्यों न हुआ हो, आज भी शरीर के स्तर से आगे नहीं बढ़ा है। मनुष्य के लिये शरीर ही अन्तिम नहीं है। यहाँ आकर व्यक्ति अपने को वैज्ञानिक विचारधारा वाला मान कर स्वयं को धर्म से- रूढ़िवादिता से दूर कर लेता है, परन्तु अपने-आपको विज्ञान की खोज से सन्तुष्ट नहीं कर पाता। ऐसे लोग अपने को वैज्ञानिक मानते हैं, परन्तु धार्मिकता की परम्पराओं से स्वयं को दूर रखते हुए विज्ञान के अन्दर जो अभाव है, उसे पूरा करने के लिये अपने को अध्यात्मवादी कहते हैं। उनका मानना है कि भले ही वे धर्म के नाम पर पाखण्ड को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हैं, परन्तु सोचते कुछ और हैं, जिसे विज्ञान से अभी तक समझा नहीं जा सका है। इसी कारण वे अपने को धार्मिक (रिलीजियस) न कहकर अध्यात्मवादी (स्प्रिच्युलिस्ट) कहते हैं।
ऋषि दयानन्द ने अपने विचार समाज के बुद्धिजीवी वर्ग में ही रखे थे। स्वामी दयानन्द ने अपने जीवन काल में जितना प्रचार किया, साहित्य लिखा, उसका सम्पर्क तत्कालीन बुद्धिजीवी लोगों से रहा, जिसके कारण उनके विचारों का प्रभाव समाज के बुद्धिजीवी वर्ग पर देखा जा सकता है। राजा-महाराजा हों, न्यायाधीश, पत्रकार, विद्वान्, लेखक हों। सभी उनके विचारों से परिचित थे, चाहे लोग स्वामी जी के विचारों से सहमत हों या असहमत हों। इसी चर्चा के कारण देश में ही नहीं, देश के बाहर भी उनके विचारों की चर्चा, उनके जीवन काल में हम देख सकते हैं।
धीरे-धीरे आर्य समाज की चर्चा समाज में तो रही, परन्तु उसके केन्द्र से बुद्धिजीवी वर्ग बाहर होता गया, उस वर्ग के लोगों को आर्य समाज के विचार और सिद्धान्तों से परिचित होने का अवसर कम होता गया। इसके दो कारण रहे- एक तो शिक्षा के क्षेत्र में पठन-पाठन क्रम का पाश्चात्य विचारधारा वाले लोगों के हाथ में जाना, सरकार द्वारा इसी को स्वीकार करना। इस प्रयास से शिक्षा का प्रचार-प्रसार तो हुआ, परन्तु पूरा समाज दो भागों में बंट गया। एक अंग्रेजी शिक्षा में दीक्षित वर्ग अभिजात्य श्रेणी में आ गया, देसी भाषा में शिक्षा लेने वाले बहुसंख्यक शेष लोग पीछे रह गये। आर्य समाज का क्षेत्र जनसामान्य का क्षेत्र रहा, उनमें प्रचार तो हुआ, परन्तु विचारों का प्रसार नहीं हो सका, क्योंकि नई पीढ़ी के लोग इस देश में सामान्य लोग श्रोता तो हो सकते हैं, समाज के संचालक नहीं हो सकते, अतः संचालक तथाकथित शिक्षित वर्ग रहा। किसी भाषा के बोलने वाले बहुत हैं, इसलिये उनकी आवाज सत्ता पर प्रभावकारी हो, यह अनिवार्य नहीं है। अंग्रेज तो एक प्रतिशत भी नहीं थे, परन्तु उनकी सत्ता अंग्रेजी से चलती थी, आज यह संख्या समाज में पाँच प्रतिशत से भी अधिक है, अतः सत्ता ही मजबूत हुई है, समाज नहीं। शिक्षा में जो लोग हैं, उनतक वैदिक विचारों की पहुँच शून्य स्तर पर है, अतः समाज पर हम अपना विशेष प्रभाव डाले, ऐसी सम्भावना कम है।
सामान्य वर्ग परम्परागत धर्म व रुढ़िवाद के साथ बंधा है। उसे मन्दिर, मस्जिद, चर्च ने अपने साथ बांध रखा है, जिसका विकल्प आर्य समाज के पास नहीं है। उनसे बहुत परिवर्तन की आशा नहीं की जा सकती। शिक्षित और बुद्धिजीवी लोग भी उसी प्रकार धार्मिक अन्धविश्वास और परम्पराओं से बंधे हुए हैं, परन्तु उनको वैज्ञानिक विचारों से परिचित कराने पर उनमें स्वीकृति की सम्भावना अधिक होती है और उनकी स्वीकृति समाज पर प्रभावकारी होती है।
महर्षि दयानन्द का धर्म-वेद का धर्म, अध्यात्म और विज्ञान को एक साथ देखता है। आत्मा की अनुभूति की ओर जाने वाले मार्ग को वह धर्म कहता है और ज्ञान की प्राप्ति के मार्ग को विज्ञान कहता है। हम धर्म को विज्ञान समझे बिना ग्राह्य नहीं बना सकते। हमारी समस्या है- हम जिन्हें धार्मिक कहते हैं, वे सब विज्ञान विरोधी हैं, चाहे वे इस्लाम या ईसाइयत के अनुयायी हों या रूढ़िवादी हिन्दू कहलाने वाले लोग। जो कोरे वैज्ञानिक हैं, उन्हें धर्म के नाम से भी चिढ़ है और जो कट्टर धार्मिक हैं, उन्हें विज्ञान से सम्बन्ध रखने की इच्छा भी नहीं है। अब वे शेष रहते हैं, जो धर्म को नहीं मानते, पर वैज्ञानिक दृष्टि रखते हैं तथा विज्ञान सम्मत धार्मिक विचारों को सुनने के लिये और स्वीकार करने के लिये तैयार हैं। वे ही हमारे कार्य के क्षेत्र में होने चाहिए। इन लोगों का कोई परिभाषित या चिह्नित वर्ग नहीं है। प्रत्येक स्थान पर जिनकी वैज्ञानिक बुद्धि में जिज्ञासा विद्यमान है, उनको इन विचारों से परिचित कराया जाये तो वे इन्हें सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। आज उनको केन्द्र में रखकर प्रचार करने की आवश्यकता है।
किसी भी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में व्यक्ति के विचारों में परिवर्तन लाना आवश्यक है। विज्ञापनों से प्रचार उन बातों का हो सकता है, जो मनुष्य की आवश्यकता है। चाहे फिर तेल, साबुन आदि या अन्य, उपभोग की वस्तु जिनके प्रति किसी भी मनुष्य का स्वाभाविक आकर्षण होता है। भाषणों से प्रचार तात्कालिक प्रभाव के लिये उपयोगी रहता है। आप कोई आन्दोलन चला रहे हैं, चुनाव लड़ रहे हैं, तब सार्वजनिक सभा, व्याख्यान अनिवार्य हो जाता है, केवल समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर या लेख देकर या पत्रक बाँटकर काम नहीं चलता, ये बातें सम्पर्क करने में सहायक अवश्य होती हैं, परन्तु इनसे प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती।
मत, सम्प्रदाय धार्मिक विचारों का प्रभाव तो व्यक्ति के साथ निकट सम्पर्क से ही पड़ता है। सार्वजनिक सभा वार्ता कथा सत्संग मनुष्य को निकट लाने के लिये साधन है। सत्संग, सभा, कथा, वार्ता से थोड़े समय के लिये मनुष्य के विचारों पर प्रभाव पड़ता है, परन्तु इसकी निरन्तरता के लिये कर्मकाण्ड की आवश्यकता होती है। कोई मनुष्य आपकी बात सुनके क्या करे? जिससे आप के द्वारा बताये गये लाभ उसे प्राप्त हो सके। इस कर्मकाण्ड में भी ऐसे आचार्य गुरुओं का भक्तों और शिष्यों से निरन्तर सम्पर्क रहना आवश्यक है। गुरु लोग यजमानों के घर पर जायें अथवा यजमान गुरुओं के आश्रम पर पहुँचकर अपने विचारों को पुष्ट करें। जहाँ आचार्य शिष्य या साधु, सन्त, भक्तों का सम्पर्क बनता है, वहाँ धार्मिक परम्परा चलती है। इसके स्थापित होने में बहुत समय लगता है और इसका क्षेत्र भी बहुत लम्बा नहीं हो पाता फिर आज के वातावरण में आर्य समाज या वैदिक विचारों को केवल प्रचार करने मात्र से नहीं फैलाया जा सकता। जिन लोगों की आजीविका, व्यापार या स्वार्थ पुरातन परम्परा से जुड़ा है, उनके द्वारा इन विचारों से परिचित होने पर उचित मानने पर भी स्वीकार करना कठिन होता है। ऐसी परिस्थिति में वैदिक धर्म या विचार के प्रचार-प्रसार करने का क्या उपाय हो?
हमें एक बात स्मरण रखनी चाहिए- समाज के तीन प्रतिशत लोग ही समाज को संचालित करते हैं, परन्तु इन तीन प्रतिशत लोगों का ज्ञानवान और समर्थ होना आवश्यक होता है। समाज में बुद्धिजीवी लोग यदि किसी बात को स्वीकार कर लेते हैं, तब शेष लोगों को उसे स्वीकार करने में संकोच या कठिनाई नहीं होती। जो स्थापित है, उनको समझाना सबसे कठिन है। विचारों के प्रचार के लिये सबसे सरल मार्ग है- बुद्धिजीवी युवकों को, जो अभी ऊँच शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, उनको इन विचारों से परिचित कराया जाय, वे बुद्धिजीवी होने के साथ युवा होने के कारण जो विचार उन्हें उचित लगते हैं, विचारों को अपनाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होती। यदि शिक्षा संस्थानों को विशेष रूप से महाविद्यालय विश्वविद्यालय को केन्द्र बना कर सर्वोच्च बुद्धि वाले युवकों को विचारों से जोड़ा जाय तो यह कार्य कुछ वर्षों में प्रभावकारी हो सकता है। पाँच से दस वर्षों में समाज पर प्रभाव परिलक्षित होने लगेगा तथा बीस वर्ष में आप इससे यथेच्छ परिणाम भी प्राप्त कर सकते हैं।
यह कार्य केवल कल्पना नहीं है अपितु महाराष्ट्र में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन के साठ वर्ष से अधिक समय इस पद्धति का प्रयोग कर इसकी सफलता का अनुभव किया है। किसी विचारधारा या संगठन के लिये दस-बीस वर्षों का समय बहुत नहीं होता। आवश्यकता है- योजना और निष्ठा से इस कार्य को करने की और धर्म का मूल वेद बुद्धिमानों के ही समझ में आ सकता है और उन्हीं के द्वारा इसका विस्तार भी हो सकता है।
हम कितने जिज्ञासुओं तक अपना समाधान पहुँचा सकते हैं, इस पर ही हमारी सफलता निर्भर करती है। ऋषि दयानन्द के विचार ही वैदिक धर्म को जीवित रख सकते हैं, ऐसा धर्म मनुष्यता को जीवित रख सकता है, जिससे वर्तमान और भविष्य दोनों का कल्याण हो। इसीलिये कहा है-
यतोऽभ्युदय निः श्रेयस् सिद्धिः स धर्मः।
– धर्मवीर

गीता महाभारत का नवनीत : बी.के. श्रीवास्तव

श्रीमद्भगवद्गाीता का भारतवर्ष के पौराणिक विद्वानों में बहुत मान्य है। भारत के प्रसिद्ध विद्वानों एवं सम्प्रदाय आचार्यो (द्वैत अद्वैत षुद्धाद्वैत विषिष्टाद्वैत ) ने अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार अनेक प्रकार के भाष्य गीता पर किये हैं। सभी पौराणिक टीकाकार जो गीता के समर्थक रहे हैं उनको गीता के कृष्ण ईष्वर के अवतार के रूप में मान रहे हैं। अतः उन्हें गीता के अन्दर कुछ भी प्रक्षिप्त या अस्वाभाविक दृष्टिगोचर नही हुआ। क्योंकि गीता उनके लिए वस्तुतः ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ (श्रीमान भगवान विष्णु यानी उनके अवतार कृष्ण के द्वारा गाई गयी – कही गई ही थी ) इस विषय में एक कथा भी प्रचलित है कि महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पहले अर्जुन अपने बन्धु-बान्धव के मोह मे फंसकर युद्ध से विमुख हो गया था। उसे समझाने के लिए ही कृष्ण ने जो उपदेष दिया वही गीता के रूप में प्रसिद्ध हुआ है। इसी आधार पर गीता को वेदादि षास्त्रों से अधिक मान्यता दी जाती है।
गीता के महत्त्व विषयक निम्न ष्लोक प्रसिद्ध भी हैः-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै षास्त्र विस्तरै।
या स्वयं पदमानाभस्य मुखपदमाह विनिःसृता।
अर्थ- गीता की ठीक से चर्चा करनी चाहिए, अन्य षास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन। गीता स्वयं विष्णु (कृष्ण)के मुख से निकली है।
इस ष्लोक का पद्मनाभ षब्द गीता को वेदो से उत्तम बताने का प्रयत्न करता है। विष्णु के नाभि से कमल निकला कमल से ब्रम्हा उत्पन्न हुए और ब्रम्हा के मुख से वेदो का जन्म हुआ। इस प्रकार वेदों का ब्रम्हा से परम्परा सम्बन्ध है जबकि गीता स्वयं उन्हीं के मुख से उच्चारित है। इस बात को इसी रूप मे मान लिया जाये तो गीता का रचना काल द्वापर सिद्ध होता है। आधुनिक विद्वान की भाषा मे कहा जाये तो गीता का रचना आज से पांच हजार वर्ष पहले हुई ।परन्तु यदि बुद्धि का थोड़ा सा प्रयोग करते हुए ध्यानपूर्वक महाभारत का अध्ययन किया जाये तो कोई भी इस निष्कर्ष मे पहुचे विना नही रहेगा कि गीता का न तो श्रीकृष्ण से कोई संबंध है, न ही व्यास मुनि महाभारत से , बल्कि यह सर्वथा काल्पनिक है- इसके कई कारण है।
गीता और श्री कृष्ण
(अ) ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाये तो किसी भी समय पद्यबद्ध बातचीत का चलन इतिहास मे सिद्ध नही होता। अतः गीता स्वयं पद्मनाभ विष्णु के मुख से निकली यह तो किसी प्रकार कहा ही नही जा सकता। हां यह हो सकता है कि किसी अन्य ने कृष्णार्जुन संवाद ही गीता का वर्तमान रूप दिया हो।
(आ) यदि यह भी मान लिया जाये कि गीतोक्त कृष्णार्जुन संवाद पद्यबद्ध न होकर गद्य मे ही हुआ था, बाद मे किसी अन्य ने गद्य मे व्यक्त भावों को पद्यबद्ध रूप दे दिया तो यह भी नही माना जा सकता क्योंकि युद्धभूमि मे इतना समय कहां था कि 700ष्लोको का वार्तालाप चलता रहता जिसमे कि कम से कम चार घण्टे यानी कि लगभग सवा प्रहर से कम का समय नही लग सकता था।
(इ) गीता का कथानक प्रारम्भ होता है महाभारत युद्ध के पूर्व से। अब यदि युद्ध के पहले दिन की घटनाओं पर ध्यान दे तो मालुम होता है कि गीता के इतने लम्बे और उबाऊ उपदेष के लिए समय बिल्कुल नही था क्योंकि दोनो सेनाओं ने संध्या हवन करके व्यूह रचना की। कौरव सेना की व्यूह रचना देखकर युधिष्ठिर घबरा गये। अर्जुन ने उन्हें भांति भांति के आष्वासन देकरषान्त किया। फिर अर्जुन व्यतमोह और गीता का लम्बा उपदेष चला । अर्जुन के तैयार हो जाने के बाद युधिष्ठिर युद्ध की अनुमति लेने के लिए पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य तथा षल्य नरेष के पास गये। बाद मे दोनो सेनाओ ने दो प्रहर तक युद्ध किया।
यहां ध्यान रखने योग्य तथ यह है कि महाभारत का युद्ध अगहन-पूष मे हुआ था जबकि दिन बहुत ही छोटा होता है- लगभग सवा तीन प्रहर का । इसमे से युद्ध के दो प्रहर निकाल दिए जाये तो सवा प्रहर ही बचता है। जो संध्या हवन जैसे आवष्यक कर्म करने, अपनी अपनी सेना के व्युह रचना करने , कौरवो की व्यूह रचना देखने युधिष्ठिर के घबरा जाने, अर्जुन द्वारा उन्हें भांति भांति के आष्वासन देकर उन्हें समझाने व षान्त करने पितामह भीष्म व अन्य आचार्य जनों के पास युद्ध के लिए अनुमति लेने हेतु जाने वहां से लौटकर आने आदि कर्मों के बाद षेष समय तो गीता जैसे लम्बे उपदेष के लिउ कतई पर्याप्त नहीं।
गीता और महर्षि व्यास
परन्तु निम्न तर्क और प्रमाण महर्षि व्यास को भी गीता का रचयिता नही मानने देते ।
(अ) गीता को गहराई से देखने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि गीता महर्षि व्यास की रचना नही है। क्योंकि जिस महर्षि व्यास के महाभारत का गीता नवनीत बतीई जाती है वह एैतिहासिक महाकाव्य है। जिसने कौरव पाण्डवों और उनके पूर्वजों, बन्धु-बान्धवों, इष्ट मित्रों, सम्बन्धियों आदि सभी के जीवन मरण यष अपयष, उत्थान पतन, कुषल अकुषल अच्छे बुरे सभी कामों का विसद वर्णन है, परन्तु गीता के 18 अध्यायों में प्रथम अध्याय के कुछ ष्लोकों को छोडकर सेष सम्पूर्ण गीता ऐतिहासिक घटनाक्रम से रहित दार्षनिक उहापोह से भरी पड़ी है जैसे आत्मा की अमरता, ज्ञानयोग, कर्म संन्यासयोग, योनियों की परिभाषा, यज्ञों का वर्णन, सकाम-निष्काम कर्मों का विवेचन, ध्यान योग प्रकार,योगभ्रष्ट लोगों की गति, देवता उपासना, देवी व आसुरी सम्प्रदाय वालों की विवेचन ,षुक्ल व कृष्ण मार्ग, जगत की उतपत्ति का वर्णन, सकाम निष्काम, उपासना का विष्लेपण, निष्काम कर्म की प्रषंसा, विष्वरूप दर्षन, साकार उपासना की प्रषंसा, प्रकृती पुरुष की व्याख्या, जीवात्मा की विवेचना, संसार वृक्ष का कथन, सत्त्व रज तम का विवेचन, श्री कृष्ण ही परमेष्वर है, वह ओमवाची हैं, यज्ञों से भी केवल वही प्राप्तव्य हैं, वेदों में भी उन्हीं की प्रषंसा है, वर्ण धर्मो का कथन, योग्याभ्यास करने का प्रकार, ब्रम्हाज्ञानी को अक्षय सुख की प्राप्ती, मुक्त जीवों का भिन्न भिन्न लोको से लौटना केवल कृष्ण लोक से न लौटना, कर्मफल त्याग की प्रषंसा, चार प्रकार के भक्तों का वर्णन, अन्य अन्य देवो की उपासना की निन्दा, क्षेत्र क्षेत्रिज्ञ के स्वरूप का कथन परमात्मा की एकता निरुपण, परमेष्वर का सगुण निर्गुण स्वरूप कथन, आत्मा को अकर्ता और गुणहीन जानने से भगवत् प्राप्ती आदि पचासों विषयों का उपदेष श्रीकृष्ण अर्जुन के वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसका कि इतिहासिकता से दूर का भी संबंध नहीं है।
जहां तक दार्षनिकता का प्रष्न है भरतीय वैदिक परम्परा में 6 दर्षन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। सांख्य, योग, वैषेसिक, पूर्वमीमांसा एवं उत्तरमीमांसा (जिसे ब्रह्मसूत्र या वेदांन्त दर्षन भी कहते है) इस वेदांत दर्षन के रचयिता भी महर्षि व्यास ही हैं। इसके साथ साथ योग दर्षन के भाष्यकार भी महर्षि व्यास ही हैं इतनी उच्च कोठि का विद्वान ऋषि ऋषि ही नही महर्षि गीता जैसी निम्न स्तर की पुस्तक की रचना करे। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति मानने को तैयार न होगा। गीता के अधिकांष दार्षनिक विचार वेद विरोधी है। जबकि वेदांत दर्षन सर्वथा वेदानुकूल है।
वेदों मं जिस परमेष्वर की व्याख्या की गई है। गीताकार उसके विपरीत भी श्रीकृअण को ईष्वर माना है। जीवात्मा भी विवेचना भी वेद विरुद्ध है, ईष्वरावतार की कल्पना भी गीता की सर्वथा अवैदिक तर्क एवं बुद्धि के विरुद्ध है, देवतावाद एवं स्वर्ग नर्क की मान्यता एवं मोक्ष के सिद्धान्त पर भी गीता का पक्ष वेद विरुद्ध है। वेदों के स्वरूप पर भी गीताकार का पक्ष प्रत्यक्ष के विरुद्ध है। गीताकार वेदों को ईष्वर एवं अध्यात्म विषय से रहित केवल भोतिक जगत की व्याख्या करने वाला स्वीकार करते हैं। गीता सब धर्म अधर्म के बखेड़ो को त्यागकर केवल श्रीकृष्ण जी की षरण मे जाने मात्र से पाप नाष व मोक्ष दिलाने की बात कहती है जो सर्वथा मिथ्या है। गीता को पढ़ने या सुनने मात्र से पाप नाष होना व सदगति गारण्टी देना गीता की मिथ्या प्रलोभन मात्र है जैसे की रामायण, भागवत, हनुमान चालीसा व गंगा आदि के महात्म्य लेखको ने अपने अपने ग्रन्थों के प्रचार के लिए लिखे हैं। ।
इस प्रकार गीता दर्षनकार व्यास की रचना न होकर किसी पौराणिक कालीन संस्कृति कवि की रचना प्रतीत होती है। जिसमें उस युग के सभी अंध विष्वास प्रविष्ट हैं। जैसे अवतारवाद, जातीवाद, साकारोपासना, बहुदेवतावाद, भाग्यवाद, आदि आदि। यहां तक कि गीता के कृष्ण अपने आप को जुआ बनाने मे भी नही लजाते।
(इ) इतिहास को ध्यान में रखकर विचार करें तो महर्षि व्यास महाभारतकालीन महापुरुष हैं जिसे आज लगभग 5000 से कुछ अधिक समय हो चुका है। जबकि गीता का रचनाकाल आठवी षताब्दी से पहले का नही ठहरता। गीता की प्राप्त टिकाओं में सबसे प्राचीन टीका श्री षंकराचार्य जी की है। श्री षंकराचार्य जी का काल भी विद्वानों द्वारा आठवी षताब्दी ही मान्य है। गीता की प्राप्त प्रतियों में भी कोई प्रति आठवीं षताब्दी से पूर्व प्राप्त नही होती इस प्रकार से गीता को महर्षि व्यास की रचना बताना यह सरासर उनके साथ अन्यान हां यह पौराणिक काल की रचना तो हो सकती है जैसा कि उपर दर्षाया जा चुका है और सह भी सम्भव हो सकता है कि इस प्रचारित करने की दृष्टि से उसके लेखक ने महर्षि व्यास के नाम का सहारा लिया हो जिससे कि खोटा सिक्का चलन में आ जाये
(ई) यदि दुर्जनतोष न्याय से मान भी लिया जाये कि गीता महर्षि व्यास की ही रचना है।तो प्रष्न उपस्थित होता कि आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व के जिन बौद्ध विद्वानों ने नाम ले लेकर ब्राम्हण धर्म के ग्रन्थों का खण्डन किया है उनमे से किसी मे भी गीता का नाम नही लिया इससे ज्ञात होता है। कि उस समय या तो गीता थी नही और यदी थी तो उसे कोई मान्यता प्राप्त नही थी ।
केवल बौद्ध साहित्य ही नहीं बल्कि संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध ग्रन्थ पंचतंत्र जिसमें कि सभी प्रसिद्ध एवं प्रचलित अच्छी अच्छी पुस्तकों के ष्लोक उद्धूत किये गये हैं।
उसमें भी गीता का एक भी ष्लोक नही है। आजकल जो पंचतंत्र प्रचलित है उसे पांचवी षताब्दी में संग्रहित किया गया है।
इससे सिद्ध होता है कि गीता कोई प्राचीन रचना न होकर आर्वाचीन रचना है। तथा महर्षि व्यास से इसका कोई संबंध नही है
गीता और महाभारत
अब हम यह देखने का प्रयास करेगे कि गीता महाभरत का भी अंग है या नही । आगे कुछ भी लिखने से पूर्व में अपने पाठको से निवेदन करना चाहूगां कि अब तक के तर्क और प्रमाणों के लिए तो महाराज श्रीकृष्ण और महर्षि व्यास को सक्षात् उपस्थित करना मेरे बष की बात न थी लेकिन अब बात महाभारत की है जो कि बाजार मे उपलब्ध होता है। गीता का सबसे बड़ा्र प्रचारक गीता प्रेस गोरखपुर है जिस गीता को महाभारत का नवनीत बताया जाता है वह महाभारत भी 6 खंड़ो में यही से प्रकाषित होता है। इसका तृतीय खण्ड हाथ में लेकर देखने का कष्ट करें कि इसमे दिये भीष्म पर्व को इस प्रतिज्ञा के साथ ‘ सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने मे सदा उद्यत रहेगे’ तो स्वयं पता लग जायेगा कि गीता की सही स्थिति क्या है।
अ. महाभारत के भीष्मवर्प के अध्याय 25 से लेकर अध्याय 42 तक वाला भाग गीता कहलाता है। 23 वे अध्याय दुर्गा स्त्रोत है। 24वे में संजय धृतराष्ट संवाद है।43 वे अध्याय के प्रथम 6 ष्लोको में गीता का महात्म्य है। अब यदि इन सबको निकालकर 22 वें अध्याय के साथ 43वे अध्याय के सातवें ष्लोक का पढ़ा जाये तो कथानक में कोई अन्तर नही आता । न कथानक का सूत्र टूटा हुआ लगता हैः- देखिए (भीष्मपर्व अ. 22 ष्लोक 14 से 16 तक ) उस समय सेना के मध्य में खढे हुए निद्राविजय राजकुमार दुर्जयवीर अर्जुन से कृष्ण ने कहा
ये जो अपनी सेना के मध्य में स्थित रोष से तप रहे हैं तथा हमारी सेना कि ओर सिंह की भांति देख रहे हैं जिन्होने 300 अष्वमेघ यज्ञ किये है। ये कौरव सेना महानुभाव भीष्म को इस प्रकार ढके हुए हैं जिस ्रपकार बादल सूर्य को ढक लेते हैं। हे नरवीर अर्जुन ! तुम इन सेनाओं को मारकर भीष्म के साथ युद्ध की अभिलाषा करो। (भीष्मपर्व अध्याय 43ष्लोक 6-7)
अर्जुन को धनुष बाण धारण किये देखकर पाण्डव महारथियों सैनिको तथा उनके अनुगामी सैनिको ने सिंहनाद किया, सभी वीरों ने प्रसन्नतापूर्वक षंख वजाये ।
यहां विचारणीय तथ्य यह है कि क्या किसी ऐतिहासिक लेखक की रचना में से एैसा होना संभव है कि उसके 20 अध्याय हटाने पर भी कथानक पर कोई प्रभाव न पड़े। मैं समझता हूं कि डा.सा.भी. ऐसा कोई उदाहरण न कर पायेगे जनसाधारण की तो बात ही क्या है। इसका सीधा अर्थ है कि गीता की रचना न तो श्रीकृष्ण ने की, न महर्षि व्यास ने बल्कि किसी अन्य ने इसे रचकर बाद में महाभारत घुसेड़ दिया है।
(आ) महाभारत के भीष्म पर्व मे गीता के कुल ष्लोक संख्या संबंधी निम्न ष्लोक प्राप्त होता है। :-
षट्षतानि सविंषानि ष्लोकानि प्राह केषवः
अजर्ुूनः सप्त पंचाषत सप्तषष्टिस्तु संजयः
धृतराष्टःष्लोकमेकं गीतायाः मानमुच्यते।
जिसके अनुसार 620ष्लोक कृष्ण ने कहे 57 अर्जृन ने कहे 67 संजय ने कहे और 1 धृतराष्ट ने कहा इस प्रकार गीता के ष्लोक की संख्या 745 बैठती है। जबकि वर्तमान मे प्राप्त गीता मे 700ष्लोक ही पाये जाते हैं जिनका विभाजन इस प्रकार है। कृष्ण ने 574 अर्जुन ने 86 संजय ने 39 और धृतराष्ट ने 1 ही कहा है।
इससे स्पष्ट है कि आजकल प्रचलित गीता महर्षि व्यास कृत नही है न महाभारत का अंग है क्योंकि इसमें पात्रो के बोलने के मात्रा मे भी परिवर्तन दिखाई देता है। यवगीता वास्तव मे इतना महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ होता तो इसकी मौलिकता सुरक्षित रखने के लिए अर्थात घटा बढी रोकने के लिए कढ़े कदम उठाये जाते। जैसे की वेदो की सुरक्षा के लिए स्वर ,पद , क्रम, घन, जटा, माला, आदि अनेक प्रकार के पाठ चलाये गये थे ।
(इ) जिस प्रकार गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन व्यामोह का वर्णन है उसी प्रकार महाभारत में अर्जुन से बहुत पहले युधिष्ठिर व्यामोह का वर्णन है जिसमे अर्जुन ने युधिष्ठिर को अनेक प्रकार से समझाया, तब कहीं वह षांत हुए। यदि गीता के रचयिता महर्षि व्यास ही होते या गीता महाभारत का ही अंग होती तो वह अर्जुन को समझाते समय कृष्ण द्वारा यह बात अवष्य कहलाते कि ” भले मानुष ! अभी तो तू अपने भाई को समझा रहा था अब स्वयं बहक गया। पर गीता मे इसका कोई संकेत नही है। इससे भी संकेत मिलता है कि गीता महाभारत का अंग नही है। न दोनों काले एक है।

(ई) अर्जुन ने युद्ध न करने के जो कारण बताए उनमे से एक यह भी है कि :7
हे मधुसूदन! मैं युद्ध मे भीष्म और द्रोण को बाणो से कैसे मारूंगा ये दोनो तो मेरे पूज्य हैं।
यदि गीता महाभारतकार महर्षि व्यास की ही रतचा होती तो वह पहले के उस युद्ध को न भूल जाते जहां विराट की गायें छिनने के प्रसंग मे अर्जुन ने इन्हीं पूज्योुं को मार मारकर बेहाल कर दिया था परन्तु गीता मे अर्जुन को समझाने के लिए ऐसा कोई संकेत इधर नही किया गया है। वस्तुतः अर्जुन को तों स्वयं ही यह बात करनी नही चाहिए था कि क्या उस दिन ये लोग पूज्य नही थे। पर दोनो ही इतनी बड़ी घटना भूले रहे जो सिद्ध करता है कि गीता महाभारत का अंष नही अन्यथा इसे पूर्व मे हुए युद्ध का ध्यान अवष्य रहा होता।

(उ) गीता के 11 वे अध्याय मे इस बात का वर्णन आता है कि जब श्रीकृष्ण ही बात नही मानी तो उन्होने अपना विराट रूप् दिखाया और बाद में श्रीकृष्ण ने अहसान जतातु हुए कहा कि ” हे अर्जुन! मैने प्रसन्न होकर आत्मयोग से यह रूप तुझे दिखाया है। मेरा यह आदि अन्त सीमा से रहित तेजोन्मय रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है।
अब विचारनीय बात यह है कि यहि गीता और महाभारत एक ही व्यक्ति की रचनाये होती तो वह उस प्रसंग को कैसे भूल जाता जब श्रीकृष्ण द्वारा विराट रूप् दिखाकर दुर्योधन को अभिभूत किया थौ इसका सीधा अर्थ यह है कि गीता महाभारत का अंग नही है। यदि गीता श्रीकृष्ण का उपरोक्त कथन कैसे संगत हो सकता है।
(ऊ) महाभारत मे छोटी बड़ी दर्जनों गीताय भरी पड़ी है।जिन्हे किसी न किसी बहाने घुसेड़ा गया है हम यहां केवल अनुगीता कीी बात करेंगे जो इस बात का प्रइल प्रमाण है कि महाभारत मे इस प्रकार की गीताओं को घुसेरने के लिए किस प्रकार से बयानवाजी से काम किया गया है। और ये गीताये महाभारत का अंग नही है।
महाभारत के अष्वमेघ पर्व मे (अ. 16ष्लोक 57 ) मे श्रीकृष्ण जब द्वारका चलने लगे तो उनसे अर्जुन ने कहा ”हे देवतीनन्दन महाबाहु ! महाभारत युद्ध के समय मुझे आपके महात्मय और ईष्वरीय रूप का ज्ञान हुआ था। आपने मित्रतावष जो भी ज्ञान मुझे उस समय दिया वह मै भूल गया उसको दोबारा सुनना चाहता हूं आपषीर्घ ही द्वारका जाने वाले हैं एक बार गीता का वह उपदेष फिर से सुनाते जाइये।

यह सुनकर पहले तो श्रीकृष्ण अर्जुन पर बहुत बिगड़े फिर असमर्थता जताते हुए बोले तो उसे तो मै भी भूल गया, वह ज्ञान तो तुम्हे योगयुक्त होकर तुम्हे सुनाया था। अब उसे फिर से दोहराना संभव नही लो तुम्हारा काम चलाने के लिए दूसरा इतिहास बताता हूं।
इसके बाद जो उपदेष हुआ उसका नाम अनुगीता है। वक्ता और श्रोता दोनो एक नम्बर के भुलक्कड़ निकले।
इस प्रकरण से स्पष्ट प्रतीत होता है कि अनुगीता के महाभारत मे मिलाने के लिए अर्जुन और श्रीकृष्ण के भुलक्कड़पन का बहाना करने वाला विद्वान यह भूल ही गया कि जब अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनो ही गीता को भूल गये थे तो बाद में इसका प्रचार कैसे हुआ क्योकि अर्जुन और श्रीकृष्ण की बात के समय कोई भी उपस्थित नही था, संजय की दिव्य दृष्टी भी वहां सहायता नही कर सकती थी। क्योकि दृष्टि से सुनने का काम नही लिया जा सकता । महाभारत के अनुसार दिव्यदृष्टि वाली बात गलत है क्योंकि उसमे संजय द्वारा धृतराष्ट को प्रत्यक्ष देखी बात का उल्लेख है।(देखिए भीष्म पर्व अ. 13ष्लोक 1-2) इससे सिद्ध होता है कि महाभारत का गीता से कोई संबंध है।
एक ओर भी बात विचारणीय है – और वह यह की महाभारत और गीता की पुष्पिकाओं मे भी अन्तर है। यदि गीता महाभारत की ही भाग होती तो इसकी पुष्पिकाये भी महाभारत की भांति होनी चाहिए। परन्तु ऐसा नही है महाभारत के अध्यायों के अन्त मे जो पुष्पिकाये दी गई हैं वे गीता के अध्यायों के अन्तवाली पुष्पिकाओ से भिन्न है। महाभारत में नाम केवल पर्वों के है – अध्यायों के नही जबकि गीता के प्रत्येक अध्याय का नाम अलग अलग दिया गया है। गीता के पुष्पिकाओं मे उसे स्पष्ट रूप् से उपनिषद या ब्रम्हाविद्या स्वीकार किया गया हैं इस प्रकार भी गीता महाभारत का अंग नही ठहरती एक नमूना देखिए :-
ठति श्रीमद्भगवदगीतासूपनिषत्सु ब्रम्हाविद्या योगषास्त्रं कृष्णार्जुन संवादे कर्मसंन्यासयोगानम् पंचमोध्यायः
अन्त में एक प्रमुख बात विचारणीय यह है कि कोई भी लेखक या कवि पुस्तक की समाप्ति पर ही प्रायः उसका महात्म्य लिखता है कि कोई भी पढ़ने या सुनने मा़त्र से अमुख अमुख लाभ है ऐसा नही है कि किसी एक भाग या प्रसंग की समाप्ति पर उसका महात्म्य अलग से लिखता फिरे । गीता के अन्त में उसका महात्म्य लिखा हुआ है जो उसको एक स्वतंत्र पुस्तक या रचना सिद्ध करता है और यह भी सिद्ध करता है कि यह महाभारत के लेखक महर्षि व्यास की रचना नही क्योंकि कोई भी लेखक या कवि यह नही भूल जाता कि यह मेरी दूसरी पुस्तक है या इसी का भाग है। गीता के 18 अध्यायों के बाद इसका महात्म्य इस प्रकार बताया गया हैः-
गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैःषास्त्र संग्रहैः
या स्वयं पद्मनामस्य मुखपदमाद विनिसृतः
सर्वषास्त्रमयीगीता सर्वषास्त्रमयी हरिः
सर्वतीर्थमयी गंगा च गायत्राी गोविन्दोती हृदिस्थिते।।
चतुर्मकार संयुक्ते पुनर्जन्म न विद्यते ।
महाभारत सर्वस्यं गीताया मथितस्य च।
सारमुदधृत्य कृष्णेन अर्जुनस्य मुखे हुतम्।।
इस प्रकार प्रमाण तर्क और ऐतिहासिक विवेचन के पष्चात यह अधिक विष्वास से कहा जा सकता है कि गीता का न तो कृष्ण से कोई संबंध है न महर्षि व्यास से न महाभारत से । इस रचना को बहुत बाद में महाभारत के चोखटे मे फिर कर दिया है
लेखकः श्री बी.के. श्रीवास्तव
सम्भागीय लेखाधिकारी (से.नि.)
रायपुर भारत