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महाभारत के उपाख्यानों में वर्णाश्रम व्यवस्था

 

महाभारत के उपाख्यानों में वर्णाश्रम व्यवस्था

डॉ. महेश चन्द्र ध्यानी…..

प्रकृति के नैसर्गिक गुणों के अनुसार मानव समाज में चार विभाग करके उनके कल्याण के लिए, उनकी रुचि, प्रकृति, योग्यता और अधिकार के अनुसार परमात्मा ने चारों वर्ण और आश्रमों के लिए धर्म एवं जीविकोपार्जन के मार्ग और प्रकार भिन्न-भिन्न तरह के बनाये हैं। इसी ईश्वर निर्मित व्यवस्था को ‘वर्णाश्रम व्यवस्था’ कहते हैं। तदनुसार ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं वर्णेतर जाति के भिन्न-भिन्न तरह के लोगों के कल्याण के लिए उनकी योग्यता के आधार पर धर्म तथा जीविका के उपार्जन के लिए जो-जो शास्त्रीय नियम बनाये गये हैं, उन्हीं का नाम है- वर्णाश्रम-धर्म। अर्थात् वर्ण-धर्म और आश्रम-धर्म।

वर्तमान समय में बेकारी, जनसंख्या की अत्यन्त वृद्धि और व्यवसायवाद संसार के विचारकों के सामने मूह बांये खड़ा है। कोई व्यक्ति जीवन का बड़ा भाग सम्पत्ति के पैदा करने में बीता देते हैं, और कोई व्यक्ति

बेकार घूमते रहते हैं। आश्रम मर्यादा के अनुसार यदि मनुष्य समाज नियतकाल तक ही सम्पत्ति कमायें और

सांसारिक कर्म किया करें। तत्तद् कर्मो का विधान धर्म और जीविका के उपार्जन करने के लिए किया गया है।

वर्णाश्रम-व्यवस्था के अनुसार मनुष्यों के कुछ कर्म तो धर्मोपार्जन के लिए विहित है और कुछ उनके जीविकोपार्जन के लिए।

कुछ ऐसे भी कर्तव्य हैं, जिनसे कि धर्म और जीविका दोनों का ही उपार्जन होता है। जैसे कि ब्राहमण के लिए अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन, और प्रतिग्रह, क्षत्रिय के लिए प्रजापालन,रास्त्र की सुरक्षा और शूद्र के लिए सेवा। इसी कारण ब्राहमण आदि चारों वर्ण तथा वर्णेतर जाति वाले लोग भिन्न-भिन्न प्रकार से धर्म का

संचय करते हैं। अर्थात् लक्ष्य एक होने पर भी अर्थोपार्जन की ही भाति, धर्म के उपार्जन करने का मार्ग भी सबके लिए भिन्न-भिन्न तरह का है। उसी भिन्न ढंग का नाम वर्ण-धर्म है। वर्ण-धर्म के अनुसार अपने कर्तव्य नियमों का अनुसरण करके, अपना-अपना कर्त्तव्य करता हुआ प्रत्येक मनुष्य अनायास ही आत्म-कल्याण सम्पादन कर सकता है।

मनु ने वर्ण और आश्रम की प्रस्थापना विभिन्न रूप से की है और उन्हें वर्णाश्रम-धर्म में रक्खा है गुण,

कर्म और स्वभाव के अनुसार समाज में मनुष्य का क्या स्थान और तदनुसार उसके क्या कर्त्तव्य हैं, ये मनु के अनुसार वर्ण-धर्म है। व्यक्ति को अपने जीवन में किस प्रकार अवस्थानुसार संस्कार एवं विकास करना चाहिए, इसे मनु ने आश्रम-धर्म के अन्तर्गत रखा है।

आपत्तिकाल में मनुष्य किस प्रकार आचरण करे, इसके लिए मनु ने कुछ सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं, और उन्हें आपद धर्म के अन्तर्गत रखा है। कभी-कभी मनुष्य के सामने ऐसी समस्या उत्पन्न हो जाती है, जब

उसका सामान्य और वर्णाश्रम धर्म के पालन से कार्य नहीं चलता, और वह किंकर्त्तव्य विमूढ़ हो जाता है। उन

परिस्थितियों में मनु ने आपद् धर्म पर आचरण करने का निर्देश दिया है, सामान्य परिस्थितियों में नहीं।

मनु ने वर्णाश्रम धर्म के अन्तर्गत क्रमशः वर्ण (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) और आश्रम (ब्रहमचर्य,

गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) के विशिष्ट धर्मों का परिगणन कराया है। वर्ण का वर्णन मनु से पूर्व, या कहा

जाय कि सर्वप्रथम ऋगवेद के पुरुष-सूक्त में मिलता है।

मनुस्मृति में चारों वर्णों के कर्त्तव्य का सविस्तार उल्लेख करते हुए बताया गया है कि पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ

करना-कराना, दान लेना, दान देना ये छः विशेष कर्म ब्राहमणों के हैं। प्रजा के रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना, और विषय से विरक्त होना क्षत्रियों के। पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना, वाणिज्य व्यापार तथा खेती करना वैश्यों का कर्त्तव्य है, और शूद्रों को भगवान ने केवल एक ही काम दिया और वह था स्वेच्छा से उपर के तीनों वर्णों की सेवा करना।

ब्रहमचर्य, महान् आश्रम गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और भैक्ष्यचर्य (संन्यास)- ये चार आश्रम हैं। चौथे आश्रम संन्यास का अवलम्बन प्रायः ब्राहमणों द्वारा ही किया गया है। (ब्रहमचर्याश्रम में) चूड़ाकरण संस्कार और उपनयन के अनन्तर द्विजत्व को प्राप्त हो वेदाध्ययन पूर्ण करके (समावर्तन के पश्चात विवाह करके) गार्हस्थ्यआश्रम में अग्निहोत्र आदि कर्म सम्पन्न करके इन्द्रियों कों संयम में रखते हुए मनस्वी पुरुष स्त्री को साथ लेकर अथवा

बिना स्त्री के ही गृहस्थाश्रम से कृतकृत्य हो वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करे। वहा धर्मज्ञ पुरूष आरण्यक शास्त्रों का

अध्ययन करके वानप्रस्थ-धर्म का पालन करे।तत्पश्चात ब्रहमचर्य-पालन पूर्वक उस आश्रम से निकल जाय और

विधि पूर्वक संन्यास ग्रहण कर ले। इस प्रकार संन्यास लेने वाला पुरूष अविनाशी ब्रहमभाव को प्राप्त हो जाता

है। राजन्! विद्वान् ब्राह्मण को ऊर्ध्वरेता मुनियों द्वारा आचरण में लाये हुये इन्हीं साधनों का सर्वप्रथम आश्रय

लेना चाहिये। प्रजानाथ! जिसने ब्रहमचर्य का पालन किया है, उस ब्रहमचारी ब्राहमण के मन में यदि मोक्ष की

अभिलाषा जाग उठे तो उसे ब्रहमचर्य-आश्रम से ही संन्यास ग्रहण करने का उत्तम अधिकार प्राप्त हो जाता है। संन्यासी को चाहिये कि वह मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए मुनिवृत्ति से रहे। किसी वस्तु की कामना न करे। अपने लिये मठ या कुटी न बनवावे। निरन्तर घूमता रहे और जहा सूर्यास्त हो वहीं ठहर जाये।

प्रारब्धवश जो कुछ मिल जाये, उसी से जीवन-निर्वाह करे। आशा-तृष्णा का सर्वथा त्याग करके सबके प्रति समान भाव रक्खे। भोगों से दूर रहे और हृदय में किसी प्रकार का विकार न आने दे। इन्हीं सब धर्मों के

कारण इस आश्रम को ‘क्षेमाश्रम’ (कल्याण प्राप्ति का स्थान) कहते हैं। इस आश्रम में आया हुआ ब्राहमण

अविनाशी ब्रहम के साथ एकता प्राप्त कर लेता है।

जीवन-निर्वाह के उद्देश्य से किये जाने वाले यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन तथा दान और प्रतिग्रह-इन छः कर्मों से अलग रहे और किसी भी असत् कर्म में वह कभी प्रवृत न हो। अपने अधिकार का प्रदर्शन करते हुए व्यवहार न करे, द्वेष रखनेवालों का संग न करे। ब्रहमचारी के लिये यही आश्रम-धर्म अभीष्ट है।

आश्रमजिसमें अत्यन्त परिश्रम करके उत्तम गुण ग्रहण और श्रेष्ठ कर्म किये जाये, उनको आश्रम कहते हैं।

सद्विद्यादि शुभगुणों का ग्रहण तथा जितेन्द्रियता से आत्मा और शरीर के बल को बढ़ाने के लिए ब्रहमचर्य,

सन्तानोत्पत्ति और विद्यादि सब व्यवहारों को सिद्ध करने के लिए गृहस्थाश्रम, सद्विचारों के लिए वानप्रस्थ तथा सर्वोपकार हेतु सन्यासाश्रम होता है। ये चार आश्रम भिन्न-भिन्न युगादि में तत्द्युगीन परिणामानुसार विभाजित होते हैं। मनुष्य की पूर्ण अवस्था के चौथाई भाग का एक आश्रम किया जा सकता है। वर्ण व गुण-कर्मों के योग से ग्रहण किया जाने वाला शब्दार्थ वर्ण का अभिहित करता है। ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रादि वर्ण कहलाते हैं।

जो मनुष्य ब्रहम अर्थात् परमेश्वर और वेद का जानने वाला है। वही ब्राहमण होने के योग्य है, इन्द्रियों को

जीतने वाला पण्डित शूरतादि गुणयुक्त, श्रेष्ठवीर पुरुष क्षत्रधर्म को स्वीकार करने वाला क्षत्रिय होने योग्य है।

ऐसे ब्राहमण और क्षत्रियों के साथ न्यायपालक राजा को अनेक प्रकार से लक्ष्मी प्राप्त होती है और उसके खजाने में कभी कमी नहीं आती।

‘मुखं किमस्यासीत्किं बाहू किमूरू पाद उच्यते’

(मुखं किमस्यासीत्) इस पुरुष के मुख अर्थात् मुख्यगुणों से इस संसार में क्या उत्पन्न हुआ है? (किं बाहू?)

बल, वीर्य, शूरता और युद्धआदि विद्या गुणों से सम्पन्न इस संसार में कौन पदार्थ उत्पन्न हुआ है? (किमूरु)

व्यापारादि मध्यम गुणों से किस गुण की उत्पत्ति होती है। इन सभी। प्रश्नों का उत्तर भी ये हैं कि –

‘‘ब्राहमणो स्य मुखमासीद् बाहूराजन्यः कृतः

ऊरूतदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो जायत।’’

अर्थाद इस पुरुष की आज्ञानुसार जो विद्या, सत्य, भाषणादि उत्तम गुण और श्रेष्ठ कर्मों से ब्राहमण वर्ण

उत्पन्न होता है, वह मुख्य कर्म और गुणों के सहित होने से मनुष्यों में ब्राहमण कहलाता है, और ईश्वर ने बल पराक्रम आदि पूर्वोक्त गुणों से युक्त क्षत्रिय वर्ण को उत्पन्न किया है। ऋषि, व्यापारादि तथा देशाटन, पशुपालन करना वैश्य वर्ण के कर्मों के अन्तर्गत आता है। सेवादि कर्म शूद्रकर्म को वेद पुरुष ने प्रदान किये।

सबसे उत्तम विद्या और श्रेष्ठ कर्म करनेवालों को ही ब्राहमण वर्ण का अधिकार दिया जाता है ।उससे विद्या का प्रचार-प्रसार कराना और उन लोगों को भी चाहिए कि विद्या के प्रचार में ही सदा तत्पर रहें। तथा सब कार्यों में चतुरता, शूरतापन, धीरज, वीर पुरुषों से युक्त सेना का रखना, दुष्टों को दण्ड देना और श्रेष्ठजनों का पालन करना इत्यादि गुणों को बढ़ानेवाले पुरुषों को क्षत्रिय वर्ण को अधिकार देना चाहिए । वैश्यादिवर्णों को व्यापारादि व्यवहारों में भूगोल के बीच में आने-जाने का प्रबन्ध करना और उनकी अच्छी रीति

से रक्षा करनी, जिससे धनादि पदार्थों की संसार में वृद्धि हो, मनुष्यों को सम्पूर्ण जीवन में सद्गुणों का ही प्रकाश करना चाहिए। उत्तम कर्मों से भूगोल में श्रेष्ठ कीर्ति को बढ़ाना उचित है। मनुस्मृति में भी ब्राहमणादि वर्णों के कर्म निर्धारित किये गये हैं –

‘अध्यापनमध्ययनं याजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रह९चैव ब्राहमणानामकल्पयत्।।

वर्ण विभाजन को मनु ने समाज-कल्याण का कारण माना है। डाँ राधाकृष्णन् ने अपनी पुस्तक ‘‘हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’’ में वर्ण-व्यवस्था के विषय में लिखा है कि ‘‘सामाजिक पक्ष से देखने पर वर्ण-व्यवस्था मानव संगठन

का परिणाम है, किसी दैवी-विधान का रहस्य नहीं । यह वास्तविक विभेद और आदर्श एकता को ध्यान में रखते हुए समाज सुसंगठन का एक प्रयत्न है।

आश्रम-धर्म के अन्तर्गत मनु ने सामान्य मनुष्य के जीवन को चार आश्रमों में बाटा है। ब्रहमचर्य, गृहस्थ,

वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम। वर्णों के समान ही चारों आश्रमों के भी विशिष्ट कर्त्तव्य हैं।

भारतीय दर्शनों में धर्म-अधर्म अथवा सदाचार का विश्लेषणात्मक अध्ययन हुआ हैं प्रायः सभी दर्शनों ने धर्म के अन्तर्गत कुछ नियमों का प्रतिपादन किया है। यथा वैशेषिक दर्शन पर लिखे अपने भाष्य में प्रशस्तपाद ने धर्म को सामान्य और विशेष दो पदार्थो की भाति ही सामान्य और विशेष दो वर्गों में विभाजित किया है।

महाभारत के मतंगोपाख्यान में ब्राहमणत्व प्राप्त करने के उपायों तथा ब्राहमणत्व के परिचयात्मक प्रश्न विषयक भीष्म पितामह जी के उपदेश इस प्रकार हैं।

तपसा वा सुमहता कर्मणा वा श्रुतेन वा।

ब्राहमण्यमथ चेदिच्छेत् तन्मे ब्रूहि पितामह।।

अर्थात् यदि कोई मनुष्य ब्राहमणत्व प्राप्त करने की इच्छा रखता हो तो वह उसे तपस्या, कर्म अथवा वेदों के स्वाध्यायादि किस उपाय से प्राप्त कर सकता है? युधिष्ठिर के इस प्रश्न के उत्तर में भीष्म ने कहा कि क्षत्रिय आदि तीनों वर्णों के लिए ब्राहमणत्व प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि यह समस्त प्राणियों के लिए सर्वोत्तम स्थान है। बहुत सी योनियों में बार-बार जन्म लेते कभी किसी योनि में संसारी जीव ब्राहमण योनि में जन्म लेता है।

मनुष्यत्वं दुर्लभं लोके ब्राहमणत्वं तत्र सुदुर्लभम्।

प्राचीनकाल में किसी ब्राहमण के घर में मतंग नामक पुत्र हुआ, जो अन्य वर्ण के पुरुष से उत्पन्न होने पर भी ब्राहमणोचित संस्कारों के प्रभाव से उनके समान वर्ण का ही समझा जाता था।

एक दिन पिता के भेजने पर मतंग किसी यजमान का यज्ञ कराने के लिए गधों से जुते हुए शीघ्रगामी रथ पर

बैठकर चला, रथ का बोझ ढ़ोते हुए एक छोटी अवस्था के गधे को उसकी माता के निकट ही मतंग ने बार-बार

चाबुक से मारकर उसकी नाक में घाव कर दिया, पर गधी ने अपने पुत्र को सान्त्वना देते हुए कहा, बेटा! शोक

न करो, तुम्हारे ऊपर ब्राहमण नहीं, चाण्डाल सवार है, क्योंकि ब्राहमण सबके प्रति मैत्री भाव रखने वाला समस्त प्राणियों को उपदेश देनेवाला आचार्य होता है, वह कैसे किसी पर प्रहार कर सकता है।

जो स्वभाव से ही पापात्मा हो, दूसरों के पुत्रों पर दया न करता हो, वह अपने इन कुकृत्यों द्वारा अपनी चाण्डाल योनि को ही सम्मान दे रहा, क्योंकि जातिगत स्वभाव ही मनोभाव पर नियन्त्रण रखता है।जो मनुष्य

वरुण, वायु, आदित्य, पर्जन्य, अग्नि, रुद्र, स्वामी कार्तिकेय, लक्ष्मी, विष्णु, ब्रहमा, वृहस्पति, चन्द्रमा, जल,

पृथ्वी और सरस्वती को सदा प्रणाम करते हैं, तपस्या ही जिनका धन है, जो वेदों के ज्ञाता तथा वेदोक्त धर्म का ही अनुसरण करते हैं, जो भोजन से पहले देवताओं की पूजा करते हैं। उन लोगों में ब्राहमणत्व स्वयं आ

जाता है, और वे सभी भद्रजन नमस्कार के योग्य हैं।

जो ब्राहमण वेद-शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न, धर्म, अर्थ और काम का सेवन करने वाले, लोलुपता से रहित और स्वभावतः पुण्यात्मा हैं।जो ब्रहमचर्य का पालन करते हैं, अग्निहोत्र स्वीकार कर वेदों को धारण करते हैं। संतप्त प्राणियों में आत्मस्वरूप परमात्मा को ही सबका कारण मानने वाले हैं वे सभी ब्राहमण वन्दनीय, पूजनीय

और श्लाघनीय हैं।

प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियों ने मनुष्य-जीवन को सुख और शान्तिपूर्वक व्यतीत करने के लिए एक योजना का निर्माण किया था और जिस योजना को उन्होंने शाश्वत माना है। उस योजना का उद्देश्य मनुष्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति का एवं उस समाज का अत्यन्तिक विकास एवं उत्थान था। मनुष्य जीवन की उस योजना

को वर्णाश्रम धर्म अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था के नाम से अभिहित किया जाने लगा। उस व्यवस्था को अक्षुण्य

रूप में स्थिर रखना राजा का परम कर्तव्य होता है। राज्य में व्यक्ति या व्यक्ति समूहों के निर्धारित जो-जो विशेष कर्तव्य अथवा आचरण उस योजना के अनुसार निर्धारित किये गए थे उनको उनका पालन उसी विधि से करना चाहिए। इस व्यवस्था में अस्त-व्यस्तता का होना वर्ण संकर तथा धर्म संकर कहलाता था। वर्ण संकर या धर्म संकर का रोकना राजा का परम-धर्म माना जाता है।

वर्णाश्रम धर्म की रक्षा करना राजा का प्रधान कर्त्तव्य था इस विषय में कौटिल्य ने भी व्यवस्था दी है। इस विषय पर वह अर्थशास्त्र में इस प्रकार लिखते हैं- अपने-अपने धर्म (कर्त्तव्यों) का पालन स्वर्ग और मोक्ष

के लिए होता है। यदि कर्मो का लोप किया गया तो वर्ण संकरता होकर संसार में उथल-पुथल मच जायेगी।

प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए। इसलिए राजा को चाहिए कि वह अपने राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्त्तव्य पालन के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता की स्थापना करे। राजा को अपने राज्य में

वर्ण संकरता कभी भी नहीं होने देनी चाहिए। जो मनुष्य अपने कर्तव्यों का पालन करते रहता है, वह इस लोक

और परलोक दोनों में सुख प्राप्त करता है।

राजा द्वारा जब वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था कर दी जाती है तो इस प्रकार सुरक्षित हो कर जगत प्रसन्न रहता है, कभी पीड़ित नहीं होता है। दण्ड द्वारा राजा से सुरक्षित हुए चारों वर्ण और आश्रम अपने-अपने धर्म और कर्म में संलग्न रहते हैं और अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर रह सज्जीवन व्यतीत कर अन्त में परमपद को

प्राप्त करते हैं।

मनु ने भी राजा के लिए यह एक महान् कर्तव्य निर्धारित किया है कि उसको अपने राज्य में वर्णाश्रम धर्म

की व्यवस्था को विधिवत् स्थापित करे। उन्होंने राजा को वर्णाश्रम धर्म का रक्षक माना है। इस विषय में उन्होंने मानवधर्मशास्त्र में अपना मत इस प्रकार प्रकट किया है- अपने-अपने धर्म में चलने वाले आनुपूर्व से सब वर्णों और आश्रमों की रक्षा करने वाले राजा का निर्माण ईश्वर ने किया है।

वर्णाश्रम धर्म की समुचित व्यवस्था तब तक नहीं हो सकती जब तक कि राज्य में ब्राह्य और आन्तरिक

विघ्न वाधाओं का भय बना रहता है। अतः भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि राजा को अपने राज्य में प्राणिमात्र की रक्षा करनी चाहिए। जो राजा अपने राज्य पर दीर्घकाल तक राज्य करने की अभिलाषा रखता हो उसके लिए प्रजा की वास्तविक रक्षा के अतिरिक्त अन्य मार्ग नहीं है, क्योंकि प्रजा की रक्षा ही प्रजा को प्रसन्न करने का मूलमन्त्र है। आन्तरिक और ब्राह्य आपत्तियों से प्रजा को निर्भय रखना राजा का प्रधान कर्तव्य समझा जाता है। इसीलिए भीष्म उस राजा को श्रेष्ठ मानते हैं जिसके राज्य में समस्तजन (मानव) निर्भय होकर इस प्रकार विचरण करते हैं, जिस प्रकार पुत्र अपने पिता के घर में निर्भयतापूर्वक विचरते हैं।

अपने राज्य की प्रजा के रक्षण सम्बन्धी राजा के कर्तव्य की ओर संकेत करते हुए भीष्म पितामह जी

कहते हैं कि प्राणिमात्र की रक्षा करना ही परम धर्म और परम दया बतलाया गया है तो राजा को अपनी समस्त प्रजा की रक्षा करनी चाहिए यही उसका सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य (धर्म) है। ऋषि, गोरक्षा और वाणिज्य से इस लोक में प्राणियों की जीविका चलती है, त्रयी विद्या से प्राणियों को ऊर्ध्व गति प्राप्त होती है, इसीलिए इस संसार में जो परिपंथी उसका विरोध करते हैं उनके नाश के निमित्त ब्रहमा ने क्षात्र की रचना की। इसलिए हे कुरुनन्दन! शत्रुओं को विजय कीजिए, प्रजापालन, अनेक दक्षिणा वाले यज्ञ और युद्ध कीजिए। जो प्रतिपालन योग्य प्राणियों का सदैव परिपालन करते है वह राजा उत्तम है और जो राजा उनकी रक्षा नहीं करते है उनसे कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ।लोक रक्षा हेतु राजा को सदैव युद्ध करते रहना चाहिए।

राजा जो प्राणियों पर दया करके उनकी रक्षा में नित्य उद्यत रहता है, धर्म जानने वाले पण्डित लोग उस

राजा (स्वामी) का परम धर्म कहते हैं। जो राजा, भय के कारण प्रजा की रक्षा न करता हुआ एक दिन में पाप

का संचय करता है, उसका भोग सहस्रो वर्षो तक भोगने पर भी बड़ी कठिनाई से पूर्ण हो पाता है। परन्तु जो राजा धर्म पूर्वक प्रजा पालन करने से एक दिन में धर्म का संचय करता है अर्थात् प्रजापालन से जो एक दिन में धर्म की धर्म की प्राप्ति होती है, उसका फल राजा स्वर्ग में दस सहस्र वर्ष तक भोगता रहता है। उत्तम प्रकार से यज्ञ करने वाला, विधिवत् वेदाध्ययन करनेवाला और उत्तम तपस्वी मनुष्य जिन उत्तम लोकों को प्राप्त करता है उन लोकों को धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करनेवाला राजा क्षण में प्राप्त कर लेता है। हे कौन्तेय! इस प्रकार समझ कर तुमको धर्म के साथ प्रयत्नपूर्वक प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। इस कार्य के करने में बड़े पुण्य की प्राप्ति होती है।

दूसरे प्रसंग में इसी विषय में इस प्रकार कहते हुए अपना मत प्रकट करते हैं- राजा के प्रजापालन से विमुख होते ही सारे अन्याय टूट पड़ते हैं, वर्ण संकरता फैल जाती है और सारे राष्ट पर दुर्भिक्ष का प्रकोप होने लगता है। भीष्म के मतानुसार राष्ट का योग-क्षेम राजा के अधीन होता है। राजा को यमराज की शंती शत्रुओं के विरुद्ध सदैव दण्ड ग्रहण करके सन्नद्ध रहना चाहिए और हर प्रकार से दस्युओं का नाश करना चाहिए । जिस राज्य में पुरोहित ब्रहमतेज से प्रजा के अदृष्ट और राजा बाहुबल से दृष्ट भय निवारण करता है उसी राज्य में सुख की प्राप्ति होती है। हे भरतनन्दन! यदि राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता है तो राज्य में जो अधर्म उपस्थित हो जाता है, राजा उस पाप में पी चतुर्थांश का भोगी होता है।

जो मानव प्रजा रक्षण सम्बन्धी अपने कर्तव्य से च्युत होता है उसकी निन्दा करते हुए भीष्म राजा युधिष्ठिर से कहते हैं- जो बैल परिवहन में असमर्थ, जो गाय दूध नहीं देती है, जो स्त्री सन्तानोत्पत्ति में समर्थ नहीं

हो सकती, इन सबकी रक्षा करना व्यर्थ होता है, इसी प्रकार जो राजा प्रजा पालन कार्य में असमर्थ होता है,

उससे कोई अर्थ सिद्धि नहीं हो सकती है। जैसे काठ का हाथी, चमड़े का मृग, षण्डपुरुष और ऊसर क्षेत्र निष्फल

समझने चाहिए।

गीता में भी जाति और वर्ण के जो उल्लेख हैं, उनमें जन्मानुसार एवं वंशानुक्रमिक वर्ण भेद एवं जातिभेद ही देखा जाता है। गुण एवं कर्मानुसार जाति वर्ण भेद का और कोई भी प्रमाण नहीं मिलता। संकर एवं अस्पृश्य

जाति का भी उल्लेख है ही।

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राहमणे गवि हस्तिनि।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।

इस लोक में समाज के उच्चस्तर में स्थित ब्राहमण एवं निम्नस्तर के चाण्डाल और विभिन्न जाति के पशु-सबके प्रति ही ब्रहमविद् समदृष्टि होते हैं, यह कहा गया है।

मां हि पार्थ व्यापाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।

स्त्रियो वैश्यास्तथा र्शुद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।

किं पुनर्बाहमणः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।।

यहा पर श्री भगवान् ने ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, पापयोनि (अन्त्यज)- सभी का उल्लेख किया है। पापयोनि शब्द से जन्मगत अस्पृश्यता ज्ञात होती है, इस पर लक्ष्य करना चाहिए। ‘चातुर्वर्ण्यम्’ के अर्थ चार वर्ण नहीं, चार वर्णों से विशिष्ट वर्णाश्रमी समाज है। इस श्लोक के बाद ही-

ब्राहमणक्षत्रियविशां र्शुद्राणां च परन्तम्।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।

एवं उसके बाद सात लोकों को पढ़ जाने पर तो इस विषय में कुछ भी सन्देह नहीं रहना चाहिये। चारों

वर्णो में प्रत्येक वर्ण (लक्ष्य करना चाहिये कि किसी एक व्यक्ति विशेष की बात नहीं हो रही है) स्वभाव (पूर्वजन्म संस्कार) –

तत्र तं बुह्सिंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

पूर्वाभ्यासेन तैनैव हियते ह्यवशोऽपि सः।।

-जात गुण के अनुसार एक-एक कर्मनिर्दिष्ट है। श्रीभगवान् के गीता प्रवचन का उपदेश्य ही था- उनके प्रतिरूप (नर-अवतार) नरोत्तम अर्जुन को ब्राहमण के कर्मभैक्ष्य (श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके) ग्रहण करने की इच्छा से निवृतकर क्षत्रिय के कर्म धर्मयुद्ध में प्रवृत्त कराना एवं इस उपदेशच्छल से जगत् को निष्काम कर्म योग

की महान शिक्षा देना।

श्रेयान् स्वधर्मों विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।

श्रेयान् स्वधर्मों विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

क्षत्रिय-कुलतिलक अर्जुन का स्वधर्म क्या था? युद्ध।

‘न योत्स्य इति मन्यसे ’, ‘स्वभावजेन

(स्वभावः  क्षत्रियत्वे हेतुःपूर्वकर्मसंस्कारस्तस्मात् जातेन)

निबह्ः स्वेन कर्मणा।

मोह नष्ट होने पर अर्जुन बोले-

‘स्थितःअस्मि (युद्धाय उत्थितः अस्मि)।

करिष्ये वचनं तव।

‘सहज’ (सज्-जन्+ड) शब्द को भी लक्ष्य करना चाहिए।

भगवान् ने गीता में सांकर्य की निन्दा की है-

संकरस्य (वर्ण एवं कर्मसंकर का) च कर्ता स्याम्

उपहन्यामिमाः प्रजाः। (३/२४)

अर्जुन ने पूर्व में कहा था-

संकरो नरकायैव कुलध्नानां कुलस्य च।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।

यदि वर्ण और जातिभेद जन्मगत एवं वंशानुक्रमिक नहीं था तो कुल के धर्म अथवा जाति धर्म की बात कहा

से आती है? एक ही पिता के विभिन्न वर्ण के पुत्र-कन्या होने पर कौन उसे पिण्डआदि देगा? फिर तो समाज , जाति , वंश , संस्कार, विवाह, अशौच, श्राद्धआदि सभी असम्भव हो जायेगा।

संक्षिप्त आलोचना से यह निःसंदेह प्रमाणिता किया गया कि भारत में सदा से वर्ण और जाति जन्मगत थी,

कभी भी कर्मगत नहीं थी। असवर्ण विवाह (विशेषतः प्रतिलोम) निन्दित था। इसका ऐतिहासिक प्रमाण है।

प्रागैतिहासिक एवं प्राचीनतम काल से ही जन्मगत वर्णभेद प्रथा चली आ रही है। वेदों में भी जातिभेद की बहुत

प्रमाण मिलते हैं। गुण-कर्म-भेद से जाति एवं इच्छानुसार वर्ण-परिवर्तन के उदाहरण नहीं हैं, ऐस कहना अनुचित नहीं होगा।

जो पुरुष सदैव साधुओं की रक्षा करते हैं और दुष्टों का दमन करते हैं उनको राजा बनना उचित है, क्योंकि ऐसे पुरुष ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी को धारण करने में समर्थ होते हैं।

सेना का संघटन कर उसकी उचित व्यवस्था करना राजा का प्रथम कर्त्तव्य हो जाता है। भीष्म ने सेना के आठ अंग बतलाते हुए इस प्रकार राजा युधिष्ठिर से कथन किया है कि रथ, हाथी, अश्व, पैदल, भारवाहक,

नौका, चर और शिक्षक (देशिका) यह सेना के आठ भेद प्रकाश-दण्ड के भेद है। इसलिए इस आठ अंग

वाली सेना का संगठन उचित रीति से होना चाहिए। इस प्रकार उचित दण्ड विधान के द्वारा राज्य की रक्षा राजा को करनी चाहिए।  जिससे शत्रु राज्य पर आक्रमण करने का साहस न कर सके और आन्तरिक विघ्न-

बाधाए उपस्थित न हो सके।

नकुलोपाख्यान में चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन तथा धर्म की वृद्धि और पापक्षय होने के उपाय बतलाते हुए वैशम्पायन कहते हैं- कि जो ब्राहमण शिखा और यज्ञोपवीत धारण करते हैं, सन्ध्योपासना करते

हैं, पूर्णाहुति देते हैं, विधिवत् अग्निहोत्र करते हैं, बलिवैश्वदेव और अतिथियों का पूजन करते हैं, नित्य स्वाध्याय करते हैं, तथा जप-यश के परायण होते हैं, जो प्रातः-काल और सांय-काल होम करने के बाद ही अन्न ग्रहण करते है, शूद्र का अन्न नहीं खाते हैं, दम्भ और मिथ्या भाषण से दूर रहते हैं, अपनी ही स्त्री से प्रेम रखते हैं तथा पणचयज्ञ और अग्निहोत्र करते रहते हैं, जिनके सब पापों को हवन की जानेवाली तीनों अग्नि या भस्म कर देती हैं। वे ब्राहमण पापरहित होकर ब्रहमलोक को प्राप्त करते हैं।

क्षत्रियोऽपि स्थितो राज्ये स्वधर्मपरिपालकः।

सम्यक् प्रजापालयिता षड्भागनिरतः सदा।।

यज्ञदानरतो धीरः स्वदारनिरतः सदा।

शास्त्रानुसारो तत्त्वज्ञः प्रजाकार्यपरायणः।

विप्रेभ्यः कामदो नित्यं भृत्यानां भरणे रतः।

सत्यसन्धः शुचिर्नित्यं लोभदम्भविवर्जितः।

क्षत्रियोऽप्युत्तमां याति गतिं देवनिषेविताम्।।

जो वैश्य कृषि और गोपालन में लगा रहता है, धर्म का अनुसंधान करता है, दान, धर्म और ब्राहमणों की सेवा में संलग्न रहता है, तथा सत्यप्रतिज्ञ, नित्य पवित्र, लोभ और दम्भ से रहित, सरल, अपनी ही स्त्री से प्रेम

रखने वाला और हिंसा-द्रोह से दूर रहनेवाला है, जो कभी भी वैश्य-धर्म का त्याग नहीं करता और देवता तथा ब्राहमणों की पूजा में लगा रहता है, वह अप्सराओं से सम्मानित होकर स्वर्गलोक के धाम को जाता है।

कृषिगोपालनिरतो धर्मान्वेषणतत्परः।

दानधर्मेऽपि निरतो विप्रशुश्रूषकस्तथा।

सत्यसंधः शुचिर्नित्यं लोभदम्भविवर्जितः।

ऋजुः स्वदारनिरतो हिंसाद्राहविवर्जितः।

वणिग्धर्माक्क मुञचन् वै देवब्राहमणपूजकः।

वैश्यः स्वर्गतिमाप्नोति पूज्यमानोऽप्सरोगणैः।।

शुद्रों में से जो सदा तीनों वर्णों की सेवा करता और विशेषतः ब्राहमणों की सेवा में दास की भाति खड़ा रहता है, जो बिना मागे ही दान देता है, सत्य और शौच का पालन करता है। गुरु और देवताओं की पूजा में प्रेम

रखता है। पर स्त्री के संसर्ग से दूर रहता है, दूसरों को कष्ट न पहुचाकर अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करता

है और सब जीवों को अभय-दान कर देता है, उस शूद्र को भी स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है।

जिस प्रकार थोड़े से शीत जल को बहुत गर्म जल में मिला दिया जाता है तो वह तत्क्षण गरम हो जाता है और उसका ठण्ड़ापन दूर हो जाता है। जब थोड़ा सा गरम जल बहुत शीतल जल में डाला जाता है तो तब वह

सबका सब तत्क्षण शैत्य को प्राप्त कर लेता है। ठीक उसी प्रकार जो पुण्य और पाप दोनों समान होते हैं, वह

थोड़े पाप-पुण्य को शीघ्र नष्ट कर देते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। जब ये दोनों समान होते हैं, तब जिसको

गुप्त रखा जाता है, उसकी वृद्धि होती है और जिसका वर्णन किया जाता है, उसका क्षय हो जाता है। पाप को

दूसरों से कहने और उसके लिए पश्चाताप करने से प्रायः उसका नाश हो जाता है। उसी प्रकार धर्म भी अपने मुह से दूसरों के सम्मुख प्रकट करने पर नष्ट हो जाता है। छिपाने पर निःसंदेह ये दोनों ही अधिक बढ़ते हैं। इसलिए समझदार मनुष्य को चाहिए कि सर्वथा उद्योग करके अपने पाप के प्रकट कर दे, उसे छिपाने की कोशिश न करे। पाप का कीर्तन पाप के नाश का कारण होता है, इसलिए हमेशा पाप को प्रकट करना और धर्म को गुप्त रखना चाहिए। नकुलोपाख्यान में ही वैशम्पायन ब्राहमण धर्म का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सारे प्राणियों के धर्म रूपी खजाने की रक्षा करने के लिए साधारण ब्राहमण भी समर्थ हैं, फिर जो नित्य सन्ध्योपासना करते हैं, उनके विषय में तो कहना ही क्या? जिसके मुख से स्वर्गवासी देवगण हविष्य का और पितर कव्य का भक्षण करते हैं, उससे बढ़कर कौन प्राणी हो सकता है? ब्राहमण जन्म से ही धर्म की सनातन मूर्ति होती है। वह धर्म के ही लिए उत्पन्न होता है और ब्रहम भाव को प्राप्त होने में समर्थ है। ब्राहमण अपना ही खाता, अपना ही पहनता और अपना ही देता है। दूसरे मनुष्य ब्राहमण की दया से ही भोजन पाते हैं, अतः ब्राहमणों का कभी अपमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे सदा ही मुझमें भक्ति रखते हैं। जो ब्राहमण बृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णित मेरे गूढ़ और निष्कल स्वरूप का ज्ञान रखते हैं, उनका यत्न पूर्वक पूजन करना चाहिए। घर पर या विदेश में, दिन में या रात में मेरे भक्त ब्राहमणों की निरन्तर श्रद्धाभाव के साथ पूजा करनी चाहिए। क्योंकि ब्राहमण के समान कोई देवता नहीं है। ब्राहमण के समान कोई गुरु नहीं है, ब्राहमण से बढ़कर बन्धु नहीं है और ब्राहमण से बढ़कर कोई खजाना नहीं है। कोई तीर्थ और पुण्य भी ब्राहमण से श्रेष्ठ नहीं है। ब्राहमण से बढ़कर पवित्र कोई नहीं है, और ब्राहमण से बढ़कर पवित्र करने वाला भी कोई नहीं है। ब्राहमण से श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं और ब्राहमण से उत्तम कोई गति नहीं है।

पापकर्म के कारण नरक में गिरते हुए मनुष्य का एक सुपात्र ब्राहमण भी उत्तर कर सकता है। सुपात्र ब्राहमणों में भी जो बाल्यकाल से ही अग्निहोत्र करने वाले, शूद्र के अन्न का त्याग करने वाले तथा शान्त और ईश्वर भक्त हैं और सदा भगवन् भक्ति में ही संलग्न रहते हैं तो उनको दिया हुआ दान अक्षय रहता है। मेरे भक्त

ब्राहमण को दान देकर उसकी पूजा करने, सिर झुकाने, सत्कार करने, बातचीत करने अथवा दर्शन करने से वह

मनुष्य दिव्यलोक को पहुच जाता है।

मनुष्य ब्रहमचर्य के पालन से आयु, तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, लक्ष्मी, महान् यश, पुण्य और प्रेम को प्राप्त करता

है। जो गृहस्थ आश्रम में स्थित होकर अखण्ड ब्रहमचर्य का पालन करते हुए पनचयज्ञों के अनुष्ठान में

तत्पर रहते हैं, वे पृथ्वीतल पर धर्म की स्थापना करते हैं। जो मनुष्य प्रतिदिन सवेरे और शाम को विधिवत्

सन्ध्योपासना करते हैं, व वेदमयी नौका का सहारा लेकर इस संसार समुद्र से स्वयं भीतर जाते हैं और दूसरों को भी सहारा देते हैं। जो ब्राहमण सबको पवित्र बनाने वाली वेदमाता गायत्री देवी का जपकरता है, वह समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का दान लेने पर भी प्रतिग्रह के दोष से दुःखी नहीं होता, तथा सूर्यआदि ग्रहों में से जो उसके लिए अशुभ स्थान में रहकर अनिष्टकारक होते हैं, वे भी गायत्री जप के प्रभाव से शान्त, शुभ और कल्याणकारी फल देने वाले हो जाते हैं। जहा कहीं भी क्रुर कर्म करने वाले भयंकर विशालकाय पिशाच रहते हैं, वहा जाने पर भी वे उस ब्राहमण का अनिष्ट नहीं कर सकते हैं। वैदिक व्रतों का आचरण करने वाले पुरुष पृथ्वी पर दूसरों को पवित्र करने वाले होते हैं। राजन्! चारों वेदों में वह गायत्री श्रेष्ठ है। जो ब्राहमण न तो ब्रहमचर्य का पालन करते हैं, और न ही वेदाध्ययन करते हैं, जो बुरे फलवाले कर्मों का आश्रय लेते हैं, वे नाम मात्र के ब्राहमण भी गायत्री के जप से पूज्य हो जाते हैं। फिर जो ब्राहमण प्रातः-सांय दोनों समय सन्ध्या वन्दन करते हैं, उनके लिए तो कहना ही क्या है? प्रजापति मनु का कहना है कि-

शीलमध्ययनं दानं शौचं मार्दवमार्जवम्।

तस्माद् वेदाद् विशिष्टानि मनुराह प्रजापतिः।।

अर्थात् शील, स्वाध्याय, दान, शौच, कोमलता और सरलता – ये सद्गुण ब्राहमण के लिए वेद से भी बढ़कर हैं। वर्णाश्रम धर्म का वर्णन एवं राजधर्म की श्रेष्ठता बतलाने वाले राजधर्मानुशासनपर्व में भीष्म के वचन इस प्रकार हैं-

हे राजन्! धनुष की डोरी खींचना, शत्रुओं को उजाड़ फेंकना, खेती, व्यापार और पशुपालन करना अथवा उद्देश्य से दूसरों की सेवा करना- ये ब्राहमण के लिए अत्यन्त निषिद्ध कर्म हैं। मनीषी ब्राहमण यदि गृहस्थ हो तो उसके लिए वेदों का अभ्यास और यजन-याजन आदि छः कर्म ही सेवन करने के योग्य हैं। गृहस्थ आश्रम का

उद्देश्य पूर्ण कर लेने पर ब्राहमण के लिए (वानप्रस्थी होकर) वन में निवास उत्तम माना गया है। गृहस्थ ब्राहमण दुश्चरित्र, धर्महीन, शूद्र जातीय कुलटा स्त्री से सम्बन्ध रखनेवाला, चुगलखोर, नाचनेवाला, राजसेवक तथा दूसरे-दूसरे विपरीत कर्म करने वाला होता है, वह ब्राहमणत्व से गिर कर शूद्र हो जाता है।ंउपर्युक्त दुर्गुणों से युक्त ब्राहमण वेदों का स्वाध्याय करता हो या नहीं करता हो तो शूद्रों के समान ही होता है। उसे दास की भाति पंक्ति से बाहर भोजन कराना चाहिए। ये राजसेवक आदि सभी अधम ब्राहमण शूद्र के समान ही हैं। जो ब्राहमण मर्यादा शून्य, अपवित्र, क्रूर स्वभाववाला, हिंसापरायण तथा अपने धर्म और सदाचार का परित्याग करने वाला है, उसे हव्य-कव्य तथा दूसरे दान देना न देने के बराबर ही है। जों मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाला, सोमयाग करके सोमरस पीने वाला, सदाचारी, दयालु सब कुछ सहन करने वाला, निष्काम, सरल, मृदु, क्रूरता रहित और क्षमा शील होता है, वहीं ब्राहमण कहलाने के योग्य है। धर्मपालन की इच्छा रखने वाले सभी लोग सहायता के लिए शूद्र, वैश्य तथा क्षत्रिय की शरण लेते हैं। वैश्य के लिए ब्याज लेने की वृत्ति, खेती और वाणिज्य के समान तथा क्षत्रिय के प्रजापालन रूपकर्म के समान ब्राहमणों के लिए वेदाभ्यासरूपी कर्म है। जो शूद्र तीनों वर्णों की सेवा करके कृतार्थ हो गया हो, जिसने पुत्र उत्पन्न कर लिया हो, शौच और सदाचार की दृष्टि से जिसमें अन्य त्रैवर्णिकों की अपेक्षा बहुत कम अन्तर रह गया हो, अथवा जो मनुप्रोक्त दस धर्मों के पालन में तत्पर रहता हो, वह शूद्र यदि राजा की अनुमति प्राप्त कर ले तो उसके लिए संन्यास को छोड़कर शेष सभी आश्रम विहित हैं। पूर्वोक्त धर्मों का आचरण करने वाले शूद्र के लिए तथा वैश्य और क्षत्रिय के लिए भी भिक्षा मांगकर जीवन निर्वाह करने का भी विधान है।

गृहस्थधर्मों का त्याग कर देने पर भी क्षत्रिय को ऋषिभाव से वेदान्तश्रवण आदि संन्यास धर्मकापालन करते

हुए जीवन रक्षा के लिए ही भिक्षा का आश्रय लेना चाहिए, सेवा कराने के लिए नहीं। राजधर्म बाहुबल के

अधीन होता है। वह क्षत्रिय के लिए जगत् का श्रेष्ठतम धर्म है, उसका सेवन करनेवाले क्षत्रिय मानव मात्र की

रक्षा करते हैं। अतः तीनों वर्णों के उप-धर्मों सहित जो अन्यान्य समस्त धर्म हैं। वह राजधर्म से ही सुरक्षित रह सकते हैं। जैसे हाथी के पदचिह्नों में सभी प्राणियों के पदचिह्न विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सब धर्मों को सभी अवस्थाओं में राजधर्म के भीतर ही समाविष्ट किया जा सकता है।

 

-शोध अधिकारी

उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय,

हरिद्वार (उ.ख.) 

 

मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था

मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था

ब्र. शिवदेव आर्य…..

वर्णाश्रम व्यवस्था वैदिक समाज को संगठित करने का अमूल्य रत्न है। प्राचीनकाल में हमारे पूर्वजों ने समाज को सुसंगठित, सुव्यवस्थित बनाने तथा व्यक्ति के जीवन को संयमित, नियमित एवं गतिशील बनाने के लिए चार वर्णों एवं चार आश्रमों का निर्माण किया। वर्णाश्रम विभाग मनुष्य मात्र के लिए है, और कोई भी वर्णी

अनाश्रमी नहीं रह सकता। यह वर्णाश्रम का अटल नियम है।

भारतीय शास्त्रों में व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याणपरक कर्मों का अपूर्व समन्वय दृष्टिगोचर होता है।प्रत्येक वर्ण के सामाजिक कर्त्तव्य अलग-अलग रूप में निर्धारित किए हुए हैं। वर्णाश्रम धर्म है। प्रत्येक वर्ण के प्रत्येक आश्रम में भिन्न-भिन्न कर्त्तव्या कर्त्तव्य वर्णित किये हुए हैं।

भारतीय संस्कृति का मूलाधार है अध्यात्मवाद। अध्यात्मवाद के परिप्रेक्ष्य में जीवन का चरम लक्ष्य है मोक्ष। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार लक्ष्य भारतीय जीवन की धरोहर रूप होते हैं। हिन्दू धर्म के अन्तर्गत

आने वाले सभी धर्मों ने उपदेश रूप में अपना लक्ष्य मोक्ष को ही रखा है। यद्यपि उसे अलग-अलग नाम दिये गये हैं। जैसे बौद्ध, जैन इसे निर्वाण कहते हैं। शैव तथा वैष्णव को मोक्ष कहते हैं। उद्देश्य और आदर्श सभी के

एक हैं। सभी धर्मों ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए समाज की क्रीयाओं को एक मार्ग प्रदान किया है। इस हेतु व्यवस्था की गई वर्णधर्म और आश्रम धर्म की। दोनों का अत्यन्त गूढ़ संबंध होने से इन दोनों को समाज-शास्त्रियों ने एक नाम दिया-वर्णाश्रमधर्म।

प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। जिस प्रकार से सिर, हाथ, पैर, उदर आदि विभिन्न अंगों से शरीर बना है और ये सब अंग पूरे शरीर की रक्षा के लिए

निरन्तर सचेष्ट रहते हैं उसी प्रकार आर्यों ने पूरी सृष्टि को, सब प्रकार के जड़-चेतन पदार्थों को उनके गुण

कर्म और स्वभाव के अनुसार उन्हें चार भाग या चार वर्णों में विभक्त कर दिया गया।

संसार संरचना के बाद इस प्रकार की व्यवस्था से गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार मानव समाज की चार मुख्य आवश्यकताएँ मान ली गईं- बौद्धिक, शारीरिक, आर्थिक और सेवात्मक। आरम्भ में अवश्य ही मानव जाति असभ्य रही होगी जिससे कुछ में आवश्यकतानुसार स्वतः बौद्धिक चेतना जागृत हुई होगी। उन्होंने बौद्धिकता परक कार्य पढ़ना-पढ़ाना आदि अपनाया होगा, जिससे उन्हें ब्राहमण कहा गया। फिर धीरे-धीरे सभ्यता का

विस्तार होने से सुरक्षा, भोजन, धन सेवा आदि की आवश्यकता अनुभव होने पर तदनुसार अपने गुण-स्वभाव

के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उसी मानव जाति से बने होगें।

मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के अन्तर्गत यह मान्यता स्वीकार की गई है कि मन के मुख्य तीन कार्य हैं, जिसमें

से कोई एक प्रत्येक जाति के अन्दर मुख्य भूमिका का निर्वाह करता है। द्विजत्व तीन वर्गों में आते हैं ज्ञान प्रधान व्यक्ति, लिया प्रधान व्यक्ति, और इच्छा प्रधान व्यक्ति। इन तीनों से अतिरिक्त एक चौथे प्रकार का व्यक्तित्व भी होता है जो अकुशल या अल्पकुशल श्रमिक कहा जा सकता है।

वैदिक काल से ही समाज में चार वर्गों का उत्पन्न होना स्पष्ट है। इस का संकेत पुरुष सूक्त के प्रसिद्ध मन्त्र

से मिलता है।

ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत।।

पदार्थःहे जिज्ञासु लोगो! तुम (अस्य) इस ईश्वर की सृष्टि में (ब्राहमणः) वेद ईश्वर का ज्ञाता इनका सेवक वा

उपासक (मुखम् )मुख के तुल्य उत्तम ब्राहमण (आसीत्) है (बाहू) भुजाओं के तुल्य बल पराक्रमयुक्त (राजन्यः)

राजपूत (कृतः) किया (यत्) जो (ऊरू) जांघों के तुल्य वेगादि काम करने वाला (तत्)वह (अस्य) इसका (वैश्यः) सर्वत्र प्रवेश करनेहारा वैश्य है (पद्भ्याम्) सेवा और अभिमान रहित होने से (शूद्रः) मूर्खपन आदि गुणों से युक्त शूद्र (अजायत्) उत्पन्न हुआ, ये उत्तर क्रम से जानो |||

भावार्थःजो मनुष्य विद्या और शम दमादि उत्तम गुणों में मुख के तुल्य उत्तम हो वे ब्राहमण, जो अधिक पराक्रमवाले भुजा के तुल्य कार्य्यो को सिद्ध करनेहारे हों वे क्षत्रिय, जो व्यवहार विद्या में प्रवीण हों वे वैश्य

और जो सेवा में प्रवीण, विद्याहीन, पगों के समान मूर्खपन आदि नीच गुणों से युक्त हैं वे शूद्र करने और मानने चाहियें ||

उपनिषद् आदि में तो स्पष्ट रूप से वर्ण व्यवस्था की परिपाटी चल पड़ी थी। जैसे ऐतरेय ब्राहमणग्रन्थ में ब्राहमणों का सोम भोजन कहा है और क्षत्रियों का न्यग्रोध, वृक्ष के तन्तुओं, उदुम्बर, अश्वत्थ एवं लक्ष के फलों को कूटकर उनके रस को पीना पड़ता था। लेकिन आनुवंशिक होने से भोजन एवं विवाह

संबंधी पृथक्त्व उत्पन्न होने का निश्चित रूप से कुछ पता नहीं चलता। धर्मसूत्रों में स्पष्ट रूप से चारों वर्णों

का अलग-अलग होना स्पष्ट हो गया था।

वर्णव्यवस्था जन्म से नहीं अपितु कर्म से मानी गयी है। निम्नलिखित आख्यान इसकी यथार्थता को स्पष्ट

करता है। ‘जाबाला का पुत्र सत्यकाम अपनी माता के पास जाकर बोला, हे माता! मैं ब्रहमचारी बनना चाहता हूँ। मैं किस वंश का हूँ। माता ने उत्तर दिया कि हे मेरे पुत्र! सत्यकाम! मैं अपनी युवावस्था में जब मुझे दासी के रूप में बहुत अधिक बाहर आना-जाना होता था तो मेरे गर्भ में तू आया था। इसलिए मैं नही जानती कि तू किस वंश का है। मेरा नाम जाबाला है। तू सत्यकाम है। तू कह सकता है कि मैं सत्यकाम जाबाल हूँ।

हरिद्रुमत् के पुत्र गौतम के पास जाकर उसने कहा भगवन्! मैं आपका ब्रहमचारी बनना चाहता हूँ। क्या

मैं आपके यहाँ आ सकता हूँ ? उसने सत्यकाम से कहा हे मेरे बन्धु! तू किस वंश का है? उसने कहा भगवन् मैं नहीं जानता किस वंश का हूँ। मैंने अपनी माता से पूछा था और उसने यह उत्तर दिया था कि ‘मैं अपनी युवावस्था में जब दासी का काम करते समय मुझे बहुत बाहर आना-जाना होता था तो तू गर्भ में आया। मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है।मेरा नाम जाबाला है और तू सत्यकाम है।’इसलिए मैं सत्यकाम जाबाल हूँ।

गौतम ने सत्यकाम से कहा एक सच्चे ब्राहमण के अतिरिक्त अन्य कोई इतना स्पष्टवादी नहीं हो सकता

। जा और समिधा ले आ। मैं तुझे दीक्षा दूँगा। तू सत्य के मार्ग से च्युत नहीं हुआ है।

वैदिक काल में वर्णव्यवस्था (आज के सनदर्भ में) थी अथवा नहीं यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, लेकिन कर्मानुसार वर्णव्यवस्था थी यह निश्चित है। ऋगवेद के पुरुष सूक्त के मन्त्र ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् से प्रतीति होती है कि अंग गुण के कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था थी। शरीर में मुख का स्थान श्रेष्ठ है जो कि बौद्धिक कर्मों को ही मुख्य रूप से घोषित करता है। अतः ब्राहमण उपदेश कार्य, समाजोत्थान आदि के कार्यों

को करनेवाले हुए। बाहुओं का काम रक्षा करना गौरव, विजय एवं शक्ति संबन्धी कार्य करना है। अतः क्षत्रियों

का बाहुओं से उत्पन्न होना कहा है। उदर का कार्य शरीर को शक्ति देना, भोजन को प्राप्त करना है।अतः उदर से उत्पन्न वैश्यों को व्यापारिक कार्य करने वाला कहा गया है। पैरों का गुण आज्ञानुकरण है। अत पैरों से उद्धृत शूद्रों का कार्यश्रम है। जिस गुण के अनुसार व्यक्ति कर्म करता है वही उसका वर्ण आधार होता है। अन्यथा एक गुण दूसरे गुणों में मिल जाता है और कर्म भी इसी प्रकार बदल जाता है। अतः वर्ण भी बदला हुआ माना जाता है, यही गुणकर्म का आधार होता है।

ब्राहमण कर्म-वर्णव्यवस्था

मनु महाराज जी ब्राहमणों के लिए कर्त्तव्यों का नियमन करते हुए लिखते है कि-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्रा२णानामकल्पयत्।।

अर्थात् अध्ययन करना-कराना, यज्ञ करना-कराना तथा दान लेना तथा देना ये छः कर्म प्रमुख रूप से ब्राहमणों के लिए उपदिष्ट किये गये हैं।

यहाँ अध्ययन से तात्पर्य अक्षर ज्ञान से लेकर वेद ज्ञान तक है।

ब्राहमणों के कर्म के विषय में गीता में इस प्रकार कहा गया है-

क्षमो दमस्तपः शौचं क्षान्ति….

क्षमा मन से भी किसी बुरी प्रवृत्ति की इच्छा न करना।

दम सभी इन्द्रियों को अधर्म मार्ग में जाने से रोकना।

तप सदाब्रहमचारी व जितेन्द्रिय होकर धर्मानुष्ठान करते रहना चाहिए।

शौच शरीर, वस्त्र, घर, मन, बुद्धि और आत्मा को शुद्ध, पवित्र तथा निर्विकार रहना चाहिए।

शान्ति निन्दा, स्तुति, सुख-दुःख, हानि-लाभ, शीत-उष्ण, क्षुधा-तृषा, मान-अपमान, हर्ष-शोक का विचार

न करके शान्ति पूर्वक धर्म पथ पर ही दृढ़ रहना चाहिए।

आर्जवम् कोमलता, सरलता व निरभिमानता को ग्रहण करना तथा कुटिलता व वक्रता को छोड़ देना।

ज्ञान सभी वेदों को सम्पूर्ण अन्गो सहित पढ़कर सत्यासत्य का विवेक जागृत करना।

विज्ञान तृण से लेकर ब्रहम पर्यन्त सब पदार्थों की विशेषता को यथावत् जानना और उनसे यथायोग्य उपयोग लेना।

आस्तिकता वेद, ईश्वर, मुक्ति, पुर्नजन्म, धर्म, विद्या, माता-पिता, आचार्य व अतिथि पर विश्वास रखना,

उनकी सेवा को न छोड़ना और इनकी कभी भी निन्दा न करना।

गीता के इन्हीं विचारों को ध्यान में रखते हुए महाभाष्यकार कहते है कि-

ब्राहमणेन निष्कारणो धर्मः षडोगो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च

अर्थात् ब्रह्मण के द्वारा बिना किसी कारण के ही यह धर्म अवश्य पालनीय है कि चारों वेदों को उनके अंगो तथा उपान्गो आदि सहित पढ़ना चाहिए और भली-भॉति जानना चाहिए। और जो इन कर्मों को नहीं करता है, उसके लिए मनु महाराज कहते हैं कि –

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशुगच्छति सान्वयः।।

अर्थात् जो ब्राहमण वेद न पढ़कर अन्य कर्मों में श्रम करता है, वह अपने जीते जी शीघ्र ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है। इसलिए ब्राहमणों को अपने वर्णित कर्मों को अवश्य ही करना चाहिए।

क्षत्रिय कर्म-वर्णव्यवस्था

वर्ण विभाजन क्रम में द्वितीय स्थान क्षत्रिय का है। क्षत्रिय की भुजा से उत्पत्ति से तात्पर्य, क्षत्रिय को समाज का रक्षक कहने से है। जिस प्रकार से भुजाएँ शरीर की रक्षा करती है उसी प्रकार क्षत्रिय भी समाज की रक्षा करने वाला होता है।समाज जब बृहत रुप धारण करता है तो वहाँ कुछ दुष्ट, अत्याचारी भी हो जाते हैं, जिनका दमन आवश्यक होता है। अतः समाज के लिए यह आवश्यकता हुई कि कुछ व्यक्ति ऐसे हों, जो दुष्ट,

दमनकारी प्रवृत्ति के लोगों से समाज की रक्षा करना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझें।

मनु महाराज क्षत्रिय के कर्म लक्षण करते हुए लिखते हैं – अपनी प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, विषयों में अनासक्त रहना।

वैश्यकर्म-वर्णव्यवस्था

जिस प्रकार से जंघाएँ मनुष्य के शरीर का सम्पूर्ण वहन करती हैं उसी प्रकार समाज के भरण-पोषण आदि सम्पूर्ण कार्य वैश्य को करने होते हैं। समाज के आर्थिक तन्त्र का सम्पूर्ण विधान वैश्य के हाथ सौंपा गया

।पशुपालन, समाजकाभरणपोषण, कृषि, वाणिज्य, व्यापार के द्वारा प्राप्त धन को समाज के पोषण में लगा

देना वैश्य का कर्त्तव्य है। धन का अर्जन अपने लिए नहीं प्रत्युत ब्राहमण आदि की आवश्यकताओं को पूर्ण

करने के लिए होना चाहिए। जैसे- हे ज्ञानी, ब्राहमण नेता! जिस प्रकार अश्व को खाने के लिए घास-चारा दिया जाता है, उसी प्रकार हम नित्य प्रति ही तेरा पालन करते हैं। प्रतिकूल होकर हम कभी दुखी न हों। तात्पर्य यह है कि धन के मद से मस्त होकर जो पूज्य ब्राहमणों को तिरस्कार करते हैं, वे समाज में अधोपतन की ओर अग्रसरित होते चले जाते हैं।

शूद्रकर्म-वर्णव्यवस्था

समाज की सेवा का सम्पूर्ण भार शूद्रों पर रखा गया है। सेवा कार्य के कारण शूद्र को नीच नहीं समझा

जाता है, अपितु जो लोग पहले तीन वर्णों के काम करने में अयोग्य होते हैं अथवा निपुणता नहीं रखते हैं, वे लोग शूद्र वर्ण के होकर सेवा कार्य का काम करते हैं। पुरुष सूक्त के रूपक से यह बात बहुत स्पष्ट होती है कि उपर्युक्त चारों वर्णों का समाज में अपना-अपना महत्व है और उनमें कोई ऊँच-नीच का भाव नहीं होता।

युजर्वेद में ‘तपसे शूद्रम्’ कहकर श्रम के कार्य के लिए शूद्र को नियुक्त करो, यह आदेश दिया गया है। इसी अध्याय में कर्मार नाम से कारीगर, मणिकार नाम से जौहरी, हिरण्यकार नाम से सुनार, रजयिता नाम से रंगरेज, तक्षा नाम से शिल्पी, वप नाम से नाई, अपस्ताप नाम से लौहार, अजिनसन्ध नाम से चमार, परिवेष्टा नाम से परोसने वाले रसोइये का वर्णन है।

मनु महाराज कहते हैं कि यदि ब्राहमण की सेवा से शूद्र का पेट न भरे तो उसे चाहिए कि क्षत्रिय की सेवा करे, उससे भी यदि काम न चले तो किसी धनी वैश्य की सेवा से अपना जीवन निर्वाह करना चाहिए।

प्रत्येक मनुष्य की प्रकृति अलग-अलग होती है और उस वह अपनी विशिष्ट मनोवृत्तियों के आधार पर

रहने, खाने आदि में प्रवृत्त होता है। अतः कहा जा सकता है कि वर्णविभाग चार व्यवसाय ही नहीं अपितु ये मनुष्य की चार मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियां हैं। व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक को मोक्ष की ओर जाना है। और यह वर्ण व्यवस्था मनुष्य को सामूहिक रूप से शरीर से मोक्ष की तरफ ले जाने का सिद्धान्त है। वर्ण व्यवस्था में कार्यानुसार श्रम विभाग तो आ सकता है, लेकिन यदि केवल श्रम विभाग की बात की जाय तो उसमें वर्ण व्यवस्था नहीं आ सकती है। आज का श्रमविभाग मनुष्य की शारीरिक और आर्थिक आवश्यकताएँ तो पूरी करता है लेकिन आत्मिक, पारमात्मिक आवश्यकता नहीं। जबकि वर्णव्यवस्था का आधार ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रहा है।

प्राचीन भारतीय संस्कृति ने चारों प्रवृत्तियों के व्यक्तियों के लिए यह निर्देश किया था कि वे अपनी प्रवृत्ति के अनुसार समाज को चलाने में सहयोग करें, समाज की सेवा करें। ब्राहमण ज्ञान से, क्षत्रिय क्रीया से, वैश्य अन्नादि की पूर्ति करके और शूद्र शारीरिक सेवा से। यह उनका कर्त्तव्य निश्चित किया गया है। कर्त्तव्य से

यह तात्पर्य नहीं होता है कि मनुष्य कार्य करने के बदले अपनी शारीरिक पूर्ति कर ले। कर्त्तव्य भावना जब व्यक्ति के अन्दर आ जाती है तब वह समर्पित भावना से कार्य करता है। इससे समाज में यदि कोई व्यक्ति अधिक धन संपत्ति से युक्त हो भी जाए तो उसके मत में राज्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती।

भारतीय संस्कृति की यह अमूल्य विरासत केवल मात्र एक व्यवस्था ही नहीं है अपितु एक कर्म है, जिस

कर्म से कोई नहीं बच सकता है तभी चारों प्रकार के कर्मों को करते हुए मनुष्य अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकेगा।

आदिकाल से लेकर आजतक मात्र भारतीय संस्कृति ही अपनी कुछ-कुछ अक्षुण्णता बनाए है,जबकि इस बीच कितनी ही संस्कृतियाँ आयी और सभी-की-सभी धराशायी होती चली गई।वर्णव्यवस्था की परम्परा हमारे

भारतवर्ष में पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुई है यदि आज तथाकथित जातियों का समापन करके गुण-कर्म-स्वभाव

के अनुरूप वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया जाये तो निश्चित ही सामाजिक विसंगतियों का शमन (नाश) हो

सकेगा और भारतीय संस्कृति की पताका पुनः अपनी श्रेष्ठ पदवी को प्राप्त कर सकेगी तथा ‘कृण्वन्तो

विश्वमार्यम्‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की उक्ति चरितार्थ हो सकेगी।

किसी कवि की पंक्तिएँ यहाँ सम्यक्तया चरितार्थ होती दिखायी देती हैं-

ऋषि ने कहा वर्ण शारीरिक, बौह्कि क्षमता के प्रतिरूप।

गुण कर्माश्रित वर्णव्यवस्था, है ऋषियों की देन अनूप।।

बौह्कि बल द्विजत्व का सूचक, भौतिक बल है क्षात्र प्रतीक।

धन बल वैश्यवृत्ति का पोषक, क्षम बल शुद्र धर्म निर्भीक।।

चारों वर्ण समान रहे हैं, छोटा बड़ा न कोई एक।

चारों अपने गुण-विवेक से, करते धरती का अभिषेक।।

-कार्यकारी सम्पादक,

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

वर्णव्यवस्था में प्रयुक्त पदों का विश्लेषण

वर्णव्यवस्था में प्रयुक्त पदों का विश्लेषण

श्री रविन्द्र कुमार

वर्ण व्यवस्था हमारी भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनम संस्कृति

है। भारतीय संस्कृति का मूल स्रोत वेद है। इसीलिए अगर हम शुद्धतम भारतीय संस्कृति को समझना चाहते हैं तो हमें वेदादि शास्त्रों का पर्यालोचन अवश्य करना पडेगा। आज अनेक भारतीय संस्कृति के शत्रु लोग भारतीय संस्कृति की निन्दा करते हैं। क्योंकि वे इस परम्परा का विकास चाहते ही नहीं है। वे केवल इसे नष्ट करना ही चाहते हैं। ऐसी विषम परिस्थिति भारतीय संस्कृति और सभ्यता के परिपोषक व्यक्तियों का यह धर्म बनता है कि अपनी परम्परा से प्राप्त इस संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए। भारतीय संस्कृति का वर्ण और आश्रम ये

मुख्य स्तम्भ हैं। अगर हम इन दोनों को भारतीय संस्कृति से अलग कर देवें तो भारतीय संस्कृति की आत्मा नष्ट हो जायेगी।

आज समाज में चारों ओर वृद्धाश्रम, एवं वानप्रस्थाश्रमों की, भीड़ देखने को मिलती है। इसका प्रमुख कारण

समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था का विकृत होना ही है। अगर ये दोनों व्यवस्थायें सुचारु चलती रहती तो फिर ये समस्या नहीं आ सकती थी। वर्णाश्रम व्यवस्था का विकृत होने का एक ओर कारण लोगों में बढता पारिवारिक मोह है। इन दोनों विकारों का कारण वैदिक परम्परा का त्याग करना है। जब से हमने वेदों का पढ़ना-पढ़ाना छ़ोड़ दिया, तब से ही समस्त परम्पराओं में विकार का आगमन हुआ है। जो लोग वर्णाश्रम व्यवस्था का खण्डन करते हैं, वे वास्तव में इसके लाभों से अपरिचित हैं। क्योंकि शास्त्रों का स्वाध्याय तो हमनें करना छ़ोड

दिया, इसीलिए शास्त्रोक्त बातें अब हमें पता ही नहीं होती हैं। स्वाध्याय कि ये बिना हम अपने अन्दर सुविचार से युक्त और लोभ क्रोध मोहादि से मुक्त नहीं हो सकते हैं।इसीलिए ऋषियों ने प्रति व्यक्ति को कुछ समय निकाल कर स्वाध्याय करने का निर्देश दिया है।जो व्यक्ति स्वाध्यायशील नहीं होगा, वह कभी भी भारतीय संस्कृति को नहीं समझ सकता है। वर्णाश्रम व्यवस्था को समझने के लिए अत्यन्त गूढ़ रहस्यों के ज्ञान की आवश्यकता नहीं अपितु वर्णाश्रम में प्रयुक्त शब्दों के वास्तिविक अर्थ से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्णाश्रम व्यवस्था क्या है? वर्णाश्रम व्यवस्था में प्रयुक्त शब्दों पर क्रमशः शास्त्रीय विचार कर मन्थन करते है कि वास्तव में वर्णाश्रम पद्धति क्या है?

वर्ण– ‘‘वॄञ वरणे’’ (धातु, स्वादि) वॄ धातु से ‘‘कॄवॄञा’’ (उणादि. ३/१०) इस उणादि सूत्र से न प्रत्यय करने पर वर्ण शब्द बनता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती जीने उणादि कोष में वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है कि ‘‘वृणोति व्रियते वा स वर्णः’’ अर्थात् जिसका वरण किया जाता हो वह वर्ण है। यहाँ व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था में अपने गुण कर्मानुसार वरण अर्थात् चयन किया जाता है। उसे बलपूर्वक वर्ण प्रदान नहीं किया जाता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था जन्मना नहीं अपितु कर्मणा है। यह सरलता

से नहीं अपितु अहर्निश परिश्रम करके अर्जित की जाती है। इसी तात्पर्य की पुष्टि यास्काचार्य द्वारा लिखित निरुक्त शास्त्र की व्युत्पत्ति से होता है। उन्होनें लिखा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेः’’ (निरु. २/१/४)अर्थात् वर्ण वह है

जिसका अपने गुण कर्मानुसार वरण किया जाता हो। इसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती

जी ने ऋगवेदादि भाष्य भूमिका के वर्णाश्रम धर्म विषय में लिखा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेरिति निरुक्तप्रामाण्याद्

वरणीया वरीतुमर्हाः गुणकर्माणि च दृष्ट्वा यथायोग्यं व्रियन्ते ये ते वर्णाः।’’ (ऋ. भा. भू. वर्णाश्रम) अर्थात्

व्यक्ति के गुण और कर्मों को देखकर यथा योग्य जो अधिकार प्रदान किया जाता है। वह वर्ण है।जो व्यक्ति

जिस वर्ण के गुण कर्मों को अपनाता है वह उसी वर्ण का अधिकारी बन जाता है। यहाँ यह तथ्य विचारणीय है कि जो व्यक्ति अपने प्रमादवश अथवा गुणकर्मों के कारण शूद्र आदि निम्न वर्ण को प्राप्त हो जाता है। उसकी सन्तान को उस वर्ण का भार वहन करने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि उसकी सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर उच्च वर्ण को प्राप्त हो सकती है। वर्तमान व्यवस्था इसके विपरीत है। यदि कोई बालक वाल्मीकि परिवार में जन्म ले लेता है तो वह यदि कितना भी अच्छा कर्म करे और समाज में कितनी भी उन्नति कर

लेवे, परन्तु दुर्भाग्यवश उसे उसी शूद्र वर्ण में रहना पड़ता है। जिसके कारण उसको नरक सदृश वहीं जीवन जीना पड़ता है। उसी प्रकार यदि ब्राहमण का लड़का कितना भी नीच कर्म करें, परन्तु वह सदा ब्राहमण ही रहता है। इससे समाज में इतनी गम्भीर समस्या उत्पन्न हो रही है कि व्यक्ति भारतीय संस्कृति के प्रति विद्रोही हो रहा है। हिन्दू धर्म को छोड़कर व्यक्ति अन्य धर्मों को स्वीकार कर रहा हैं। जहाँ उच्च

या निम्न जैसी कोई भेदभाव की समस्या नहीं है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि बौद्ध और जैन धर्म की उत्पत्ति वर्णव्यवस्था के विकार का ही परिणाम है। अगर वर्तमान में यहीं परम्परा चलती रही और हमने अपने धर्म के उच्च या निम्न के भेदभाव को समाप्त नहीं किया तो भारतीय संस्कृति और सन्तान वैदिक धर्म का ह्रास होता चला जायेगा।

ब्राहमण

ब्राहमण शब्द ब्रहमन् शब्द से बना है। पाणिनि के व्याकरणानुसार ‘‘तदधीते तद्वेद’’ (अष्टा. ४/२/५९) सूत्र से ब्रहमन् शब्द से अण् करने पर ब्राहमण शब्द बनता है। ब्रहमन् शब्द के अनेक अर्थ है। ब्रहम शब्द वेद, बल,

परमेश्वर, ज्ञान इत्यादि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जिसके कारण ब्राहमण शब्द की व्युत्पत्ति विद्वान् लोग करते हैं कि‘‘ ब्रहमणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादि-उत्तमगुणयुक्तः पुरुषः’’ अर्थात् वेद और परमात्मा के अध्ययन और उपासना में सदा निरत रहते हुए विद्या आदि उत्तम गुणों को धारण करने से व्यक्ति ब्राहमण कहलाता है। ब्राहमण ग्रन्थों के वचनों में भी वर्णों के कर्मों का वर्णन प्रसनगवश पाया जाता है। ‘‘आग्नेयो ब्राहमणः ’’ (ताण्ड्य. १५/४/८), आग्नेयो हि ब्राहमणः (काठ. २९/१०) अर्थात् यज्ञ एवं अग्निहोत्र से सम्बन्ध रखने वाला अर्थात् यज्ञ को करने वाला व्यक्ति ब्राहमण होता है। ‘‘ब्राहमणो व्रतभृत्’’ (तै0 सं0 १/६/७/२), व्रतस्य रूपं यत् सत्यम् (शत. २/८/२/४) अर्थात् ब्राह्मण श्रेष्ठ संकल्पों को धारण करने वाला होता है। सत्य बोलना भी व्रत का ही एक रूप है।उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ब्राहमण वह जो वेदादिशास्त्रों का अध्ययन एवं अध्यापन तथा ईश्वर की उपासना में आसक्त रहता हो। वर्तमान में यह परम्परा विलुप्त हो चुकी है। आज जन्मना वर्ण व्यवस्था ने समाज को विनष्ट कर दिया है।

क्षत्रिय

‘‘क्षणु हिंसायाम्’’ (धातु., तादि.)से क्त प्रत्यय करने पर क्षत शब्द बनता है। क्षत शब्द के उप पद में रहते हुए ‘‘त्रैङ् पालने रक्षणे च’’ (भवादि., धातु) से क्षत्र शब्द बनता है। ‘क्षत्राद् घः’ (अष्टा. ४/१/१३८) सूत्र से घ प्रत्यय होने पर क्षत्रिय शब्द बनता है। जिसका अर्थ है कि जो हिंसा से प्रजा की रक्षा करता हो, उसे क्षत्रिय कहते हैं। आक्रमण आदि से जो समाज को बचाता हो, उसे क्षत्रिय कहते हैं। इस ऐतरेय ब्राहमण में कहा है कि ‘‘क्षत्रं राजन्यः’’ (८/२/व३/४)। शतपथ में कहा है कि ‘‘क्षत्रस्य वा एतद् रुप यद् राजन्यः’’ (१३/१/५/३) अर्थात् जो प्रजा का रक्षक होता है, वही क्षत्रिय है। कुछ विद्वान् यहाँ यह आशंका कर सकते है कि अपत्यार्थ में होती है। परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि वंश जन्म से तो माना जाता ही है, साथ ही वह विद्या से भी माना जाता है।

अष्टाध्यायी मेघ ‘‘संख्यावंश्येन’’ (२/१/१९) सूत्र में भी जन्म विद्या से माना है। अतः उपर्युक्त विश्लेषण से

यह स्पष्ट है कि क्षत्रिय प्रशासन सम्बन्धी कार्य कर समाज की सुरक्षा करता है।

वैश्य

‘‘विशः’’ यह शब्द निघण्टु (२/३) में मनुष्य का वाचक है। इस शब्द से भावार्थ में यत व स्वार्थ में अण् करने पर वैश्य शब्द बनता है। वैश्य शब्द की व्युत्पत्ति विद्वान् लोग इस प्रकार करते हैं। कि ‘‘यो यत्र तत्र व्यवहारविद्यासु प्रविशतिसः वैश्यः ’’ अर्थात् जो व्यापार आदि कार्यों के कारण अनेक स्थलों पर भ्रमण करता है। वह वैश्य कहलाता है। स्वामी दयानन्द जी यजुर्वेद (३१/१) में वैश्य शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं कि

व्यवहार विद्या में जो कुशल होता है, उसे वैश्य कहते हैं। यहाँ व्यवहार विद्या से तात्पर्य व्यापार से है। ब्राहमण ग्रन्थों में भी कहा है कि‘‘ एतद् वै वैश्यस्य समृद्धम यत् पशवः’’ (ताण्डय. १४/४/६) ‘‘तस्माद्

बहुपशुर्वैश्वदेवो हिजायते वैश्यः’’ (ताण्डय. ६/१/१०)अर्थात् पशुपालनादि से ही वैश्य की समृद्धि होती है।

इससे स्पष्ट है कि पशुपालन आदि वैश्य का कर्तव्य है।

शूद्र– ‘‘शुच शोके’’ (धातु. भ्वादि.) इस धातु से ‘‘शुचेर्दश्च’’ (उणा. २/१९) इस सूत्र से रक् प्रत्यय करने पर शुद्र शब्द बनता है। धातु के अर्थ से ही स्पष्ट है कि जिसकी स्थिति दयनीय अथवा शोचनीय हो उसे शूद्र कहते हैं। अथवा जिसके भरण पोषण की चिंता स्वामी के द्वारा की जाति हो उसे भी शूद्र कहते है। तैतिरीय ब्रहमण में भी कहा है कि असतो वा एष सम्भृतो यत् शूद्रः (३/२/३/९) अर्थात् अज्ञान या अविद्या के कारण जिसकी जीवन स्थिति निम्न हो, वह शूद्र कहलाता है। मनु ने शूद्रों के प्रति अत्यन्त आदर भाव व्यक्त किया है। मनु ने मनुस्मृति में अनेक स्थलों पर ‘‘शुचिः’’ एवं ‘‘उत्कृष्टशुश्रुषुः’’ अर्थात् पवित्र और उत्कृष्ट सेवक कहा है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि कोई भी सेवक अपवित्र कैसे हो सकता है? शूद्र जन्म से नहीं अपितु कर्म से माना जाता है द्विज शब्द का अर्थ है ‘‘द्विः जायते इति द्विजः’’ अर्थात् जो दो बार जन्म लेता हो वह द्विज

कहलाता है। ब्राहमण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विज कहलाते हैं। जबकि मनु शूद्र के लिए कहते हैं कि ‘‘चतुर्थ

एकजातिस्तु शूद्रः’’ (मनु. ९/३३५)अर्थात् शूद्र का एक ही जन्म होता है इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्ति जन्मना

नहीं कर्मणा शूद्र होता है।शूद्रों के लिए जैसी उत्तम व्यवस्था वैदिक परम्परा में है वैसी सुन्दर व्यवस्था अन्यत्र

नहीं मिल सकती है। क्योंकि यहाँ शूद्र को भी ब्राहमण तथा ब्राहमण को भी शूद्र बनने का निर्देश है।शतपथ में

स्पष्ट कहा है कि ‘‘ तपो वै शूद्रः’’ (१३/६/२/१०) अर्थात् जो श्रम से अपना जीवन निर्वाह करता हो, वह शूद्र है। वेद में शूद्रों को समान अधिकार प्रदान किया है।उन्हें हीन या निकृष्ट नहीं माना है। ‘‘यथेमां वाचं कल्याणीम्’’ (यजु. २६/२) मे स्पष्टतः निर्देश है कि वेदवाणी सुनने का अधिकार जहाँ द्विजों को है वहीं शूद्रों को भी प्राप्त है।

वर्तमान में अनेक मतावलम्बी शूद्रों को निकृष्ट मानते हुए उन्हें वेदादि पढ़ने का अधिकार नहीं देते हैं।उन्हें यह विचारना चाहिए कि ईश्वर के द्वारा प्रदान की गयी प्रत्येक वस्तु पर सबका समान अधिकार है।सूर्य की किरणें अथवा चन्द्रमा की रश्मियाँ, वायु का वेग अथवा वर्षा की बूँदे कभी भी यह नहीं देखती है कि यह ब्राहमण का घर है अथवा शूद्र का। वह हर जगह समान मात्रा में जाती है।इसीलिए वर्ण व्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को समझ उस पर आचरण करने की भी आवश्यकता है, अन्यथा, समाज अधोगति की ओर ही बढ़ता रहेगा।

-सहायकाचार्य,

श्रीभगवानदास आदर्श संस्कृत महाविद्यालय,

(भारत सरकार की आदर्श योजना के अन्तर्गत)

हरिद्वार (उ.ख.)

विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना आवश्यक

ओ३म्
विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना आवश्यक
डा.अशोक आर्य
शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं पर विचार करते हुए वेद कहता है कि प्रत्येक शिक्षार्थी , जिसे आज हम विद्यार्थी के नाम से जानते हैं , उसका चरित्र उच्च होना आवश्यक है | चरित्रवान होने से गुणों को ग्रहण करने की शक्ति बढ़ जाती है | कम समय में अधिक काम किया जा सकता है | एकाग्र बुद्धि होने से पढ़ा हुआ पाठ शीघ्र ही स्मरण हो जाता है | इस लिए वेद प्रत्येक ब्रह्मचारी के लिए उच्च चरित्र को उसका आवश्यक गुण मानता है | अथर्ववेद के अध्याय नो के सूक्त पांच के मन्त्र संख्या तीन में इस विषय पर ही चर्चा करते हुए बताया गया है कि :
प्र पदोउव नेनीग्धी दुश्चरितं यच्चचार शुद्ध: शफेरा क्रमता प्रजानन |
तीर्त्वा तमांसी बहुधा विपश्यन्न्जो नाकमा क्रमता त्रतियम || अथर्व.९.५.३||
इस मन्त्र के द्वारा परम पिता परमेश्वर मानव मात्र को उपदेश करते हुए कह रहा है कि हे मानव ! जिव होने के कारण गल्तियाँ करना तेरा स्वभाव है | इस सवभाव के कारण तु अपनेजीवन में अनेक ईएसआई गलतियां क र लेता है , जीना के कारन तेरे जीवन की उन्नति रुक जाती है | तेरा आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है , बंद हो जाता है | इसलिए तेरे लिए यह आवश्यक हो जाता है की तुन जो भी कार्य करे , बड़ी सावधानी से क र | अपनी किसी भी गतिविधि में किसी प्रकार की गलती न कर , कोई दोष , कोई न्यूनता न आने दे | कोटी सी गलती भी तेरी उन्नति में बाधक हो सकती है | इसलिए तुन जो भी कार्य हाथ में ले उसमें किसी प्रकार की कमिं न रहने दे , किसी प्रकार की गलती न आने दे |
हे मानव ! तूने अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुराचार किये होंगे , अनेक प्रकार के भ्रिष्ट आचरण किये होंगे , अनेक प्रकार की गल्तियां की होंगी किन्तु तेरे पास अवसर है | तु अपने उत्तम कर्मों से , उत्तम व्यवहारों से , सद्विचार से इन सब प्रकार के दुराचार , सब प्रकार के भृष्ट आचरण को धो कर साफ़ कर दे | इन सब को धो कर उज्ज्वल कर दे | इस प्रकार सब दुराचारों , भ्रिष्ट आचरणों को उज्ज्वल , शुद्ध व निर्मला करने के पश्चात अपने आप को सब प्रकार के उत्तम ज्ञान से सम्पन्न कर | इन उत्तम ज्ञानों का स्वामी बनकर उन्नति के मार्ग पर आगे को बढ़ , उन्नति को प्राप्त कर | सब जानते हैं कि सब दुराचारों से रहित व्यक्ति ही सुशिक्षा का उत्तम अधिकारी होता है |
जब किसी व्यक्ति में दुराचार होते हैं . किसी प्रकार का कपट व्यवहार करता है , किसी को अकारण ही कष्ट देता है तो दूसरे के ह्रदय को तो पीड़ा होती ही है , इसके साथ ही साथ जो अकारण कष्ट देता है , उसकी अपनी स्वयं की आत्मा भी उसे दुत्कारती है, उसे उपदेश करती है कि यह कार्य अच्छा नहीं है , इसे तु न कर किन्तु दुष्ट व्यक्ति अपनी आत्मा की आवाज जो इश्वर के आदेश पर आत्मा उसे देती है , को न सुनकर अपनी दुष्टता पर अटल रहता है तथा बुरा कार्य कर ही देता है तो उसकी अपनी शांति ही भंगा हो जाती है | यह तो वही बात हुयी कि कोई व्यक्ति अपने पडौसी को कष्ट देने के लिए स्वयम दो गुणा कष्ट भी सहने को तयार मिलता है | पडौसी की दो आँखें फुटवाने के लिए अपनी एक आँख का बलिदान करने को भी तैयार रहता है | ऐसे व्यक्ति को सदा यह चिंता सताती रहती है कि कहीं किसी को मेरी इस दुष्टता का पता न चल जावे | इस सोच में डूबा वह अपने भले के लिए भी कुछ नहीं कर पाता | इस चिंता में रहने वाला विद्यार्थी अपना पाठ याद करने के लिए भी समय नहीं निकाल पाता | यदि किसी प्रकार वह कुछ समय निकाल भी लेता है तो उसका शैतान मन पाठ में न लग कर जो बुरा आचरण किया है , उसमें ही उलझा रहता है | जब ध्यान अपनी पढाई में न होकर अपने गलत आचरण पर है तो पाठ कैसे याद हो सकता है ? अर्थात नहीं होता और वह ज्ञान प्राप्त करने में अन्यों सो पिछड़ जाता है | इसलिए ही मन्त्र ने उपदेश किया है कि हे मानव ! अपनी उन्नति के लिए अपने अन्दर के सब भृष्ट आचरण को धो कर साफ सुथरा बना ले | साफ़ मन ही कुछ ग्रहण करेगा | यदि वह मलिनता से भरा है तो जोक उछ भी अन्दर जावेगा ,वह मलिन के साथ मिलाकर मलिन ही होता जावेगा | कूड़े की कडाही में जितना चाहे घी डालो , वह कूड़ा ही बनता जाता है | इस लिए मन को मलिनता रहित करना आवश्यक है |
मानव जीवन अज्ञान के अंधकर से भरा रहता है | अपने जीवन के अन्दर विद्यमान सब प्रकार के अज्ञान के अँधेरे को दूर करने के लिए ज्ञान का दीपक अपने अंदर जलाना आवश्यक है | इसके लिए निरंतर ध्यान लगाना होगा | इस को शुद्ध करने के लिए एक लम्बे समय तक समाधि लगानि होगी, एकाग्रता पैदा करनी होगी | जब इस प्रकार तू अपने दुरितों को धोने का यत्न करेगा तो तुझे मोक्ष का मार्ग मिलेगा | मोक्ष का मार्ग उस जीव को ही मिलता है , जो अपने जीवन के कलुष धोकर सब प्रकार की उन्नतियों को पाने का यत्न करता है | बिना यतन के , बिना पुरुषार्थ के , बिना मेहनत के किसी को कभी कुछ नहीं मिला करता | इस लिए मन्त्र कहता है की हे जीव ! उठ , साहस कर , पुरुषार्थ कर , भरपूर मेहनत से अपने अंदर के सब दोषों को धो डाला | जब सब मलिनताएँ नष्ट हो जाने से तेरा अंदर खाली हो जावेगा तो इस खाली स्थान को भरने के लिए शुभ कर्म , उत्तम कर्म तेरे अन्दर प्रवेश करेंगे | जब तेरे अंदर सब शुभ ही शुभ होगा तो मोक्ष मार्ग की और तेरे कदम स्वयमेव ही चलेंगे |
इस सुंदर तथ्य पर प्रकाश डालते हुए पंडित धर्मदेव विद्यामार्तंड जी अपनी पुस्तक वेदों द्वारा समस्त समस्याओं का समाधान के पृष्ट १६ पर इस प्रकार लिखते हैं पुन: अनेक बार अज्ञानान्धकार को ज्ञान ,दयां, समाधि के द्वारा पार करता हुआ तेरा अजन्मा अमर आत्मा सुख दू:ख की सामान्य अवस्था से परे तथा दू:ख रहित मोक्ष को प्राप्त करे |
वैदिक शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण :
ऊपर वर्णित तथ्यों से यह बात स्पष्ट होती है की वेदों के अनुसार यदि हम शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं , यदि हम वेदानुसार शिक्षा पाना चाहते हैं तो हमारे लिए आवश्यक है कि हम उच्च चरित्र के स्वामी बनें | हमारी शिक्षा जो वेद आधारित होती है , उसका सबसे मुख्य उद्देश्य चरित्र का निर्माण ही है | चरित्र ही है जो एक व्यक्ति को बहुतु ऊँचा उठा सकता है तो इस का नाश होने पर यह उसे मिटटी में भी मिलाने की शक्ति रखता है | इसलिए चरित्र के उच्च अथवा स्वच्छ होने पर ही हम उन्नति के पथ पर बढ़ सकते हैं, मुक्ति के मार्ग पर चल सकते हैं |
सदाचार का पाठ पढ़ाने वाला ही आचार्य :
आज हम अपने स्कूलों में पढ़ने वालों को अध्यापक कहते हैं | यह अध्यापक लोग हमें पढ़ाते तो हैं किन्तु सिखाते नहीं | जो आचरण हमारे जीवन में होने आवश्यक हैं , जो आचरण हमारे जीवन में आवश्यक होते हैं , उन्हें पाने के लिए एक उत्तम, एक अच्छे आचार्य की शरण में जाना आवश्यक है | जिस प्रकार हम जानते हैं की धन सब सुखों का साधन है किन्तु वह धन ही सुख दे सकता है , जो पुरुषार्थ से कमाया जावे | जिस धन को लुट पाट कर प्राप्त किया गया हो , वह चिंता का कारण होता है ,सुख नहीं दे सकता | इस लिए किसी कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में कहा है की :
जागो रे , जागो रे , हे दौलत के दीवानों
धन से बिस्तर मिल सकता
पर नींद कहाँ से लाओगे |
दौलत स्त्री दे सकती
पर पत्नी नहीं दिला सकती |
इसलिए केवल धन के पीछे भागना भी उत्तम नहीं है | जीवन के वास्तविक सार को पाने के लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन को भय रहित बनावें| जीवन भय रहित तब ही बनेगा जब हम अपने जीवन के सब क्लुशों को , सब पापों को धोकर शुद्ध, साफ कर लेंगे | इन कलुशों को धोने के लिए ज्ञान पाने को लिए ही आचार्य की आवश्यकता होती है | हम इन सन्मार्ग पर ले जाने वालों को इस लिए ही तो आचार्य कहते हैं क्योंकि वह हम सदाचार का पाठ पढ़ाते हुए हमें सदाचार की और ले जाते हैं , सदाचारी बनाते हैं | उनका हमारे लिए किया गया यह कार्य ही उन्हें आचार्य बनाता है | आचरण शब्द से ही आचार्य शब्द सामने आता है | अत; हम कह सकते हैं जो हमें सदाचार के मार्ग पर लेकर जावे , वह आचार्य है |
चरित्र निर्माण ही शिक्षा :
जिस साधन से हमारे चरित्र का निर्माण हो , हम उसे शिक्षा के नाम से जानते हैं | इस से स्पष्ट है कि हम ने चाहे स्कूलों अथवा कालेजों में जा कर कितनी भी शिक्षा पा ली , कितने ही बड़े बड़े प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिए किन्तु हमारे अंदर सदाचार नहीं आया तो हमारी यह सब शिक्षा बेकार है | वास्तव में शिक्षा सदा चरित्र निर्माण का कार्य करती है तथा चरित्र निर्माण की और ही ध्यान देती है | ध्यान ही नहीं देती अपितु विशेष ध्यान देती है | इसलिए ही इसे शिक्षा की कोटि में रखा जाता है | इस कारण ही जब हम विश्व के मानचित्र पर अनेक प्रकार के शिक्षा शास्त्रियों का अवलोकन करते हैं तो हम पाते हैं कि समग्र विश्व का शिक्षाविद इस वैदिक धारणा के सामने नत है तथा एक मत से कह रहा है कि वह इस वेदोक्त शिक्षा के इस चरित्र निर्माण के उद्देश्य से पूर्णतया सहमत होने के साथ ही साथ इस के उद्देश्य का बड़ी प्रबलता से समर्थान करता हैं |
महर्षि दयानंद के अनुसार शिक्षा का लक्षण :
महर्षि दयानंद सरस्वती ने स्वमंत्व्यमंतव्य प्रकाश के अंतर्गत सत्यार्थ प्रकासा में शिक्षा के लिए बड़े सुंदर लक्षण दिए हैं जो इस प्रकार हैं :
जिससे विद्या ,सभ्यता ,धर्मात्मा ,जितेन्द्रियतादि की बढती होवे और अविद्यादी दोष छूटें , उसको शिक्षा कहते हैं |
इससे स्पष्ट होता है की स्वामी जी ने उसे ही शिक्षा सविक र किया है ,जिस से हमें उत्तम विद्या की प्राप्ति हो , जिस से हम सबी समाज के अंग होने के योग्य स्वयं मो बना सकें , जिसके ज्ञान से हम धर्म का पालन क रने वाले बनें , जिस से हम जितेन्द्रिय अर्थात अपने अंदर के सोम के रक्षण करने वाले बनें , वह सब ही विद्या अथवा शिक्षा क हलाने के योग्य है अन्य कुछ नहीं | कुछ इस प्रकार के उदगार ही देश विदेश के अन्य महापुरुषों ने भी दिए हैं |
इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री हर्बर्ट स्पेंसर ने तो पूर्णतया स्वामी जी की बात को ही शिक्षा के रूप में स्वीकार करते हुए इस प्रकार लिखा है एजुकेशन हस इट्स ऑब्जेक्ट्स ऑफ़ करैक्टर | जिस का भाव यह है की शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण है |

डा. अशोक आर्य

चिंत, मनन ही मन का कार्य

ओउम
चिंत, मनन ही मन का कार्य
डा. अशोक आर्य
मानव का मन ही उसके सब क्रिया कलापों का आधार है | शुद्ध व पवित्र मन से सब कार्य उतम होते हैं तथा जिसका मन अशुद्ध होता है , जिसका मन अपवित्र होता है उसके कार्य भी अशुद्ध व अपवित्र ही होते हैं | मानव का मुख्य उद्देश्य भगवद प्राप्ति है , जो शुद्ध मन से ही संभव है | सब प्रकार के ज्ञान प्राप्ति का स्रोत भी शुद्ध मन ही होता है | मानव में विवेक की जाग्रति का आधार भी मन की शुद्धता ही होती है | यह शुद्ध मन ही होता है, जिससे शुद्ध कार्य होता है तथा उसके द्वारा किये जा रहे शुद्ध कार्यों के कारण उसकी मित्र मंडली में उतामोतम लोग जुड़ते चले जाते हैं | यह सब मित्र ही उसकी ख्याति , उसकी कीर्ति, उसके यश को सर्वत्र पहुँचाने का कारण होते हैं | अथर्ववेद के प्रस्तुत मन्त्र में इस विषय पर ही चर्चा की गयी है : –
मनसा सं कल्पयति , तद देवां अपि गच्छति |
अथो ह ब्राह्माणों वशाम, उप्प्रयान्ति याचितुम ||
मन से ही मनुष्य संकल्प करता है | वह माह देवों अर्ह्थात ज्ञानेन्द्रियों तक जाता है | इसलिए विद्वान लोग बुद्धि को माँगने के लिए देवों अर्थात गुरु के पास जाते हैं |
इस मन्त्र में बताया गया है कि मन का मुख्य कार्य मनन है , चिंतन है , सोच – विचार है | जब मानव अपना कार्य पूर्ण चिंतन से ,पूर्ण मनन से , पूर्ण रूपेण सोच. विचार कर करता है तो उसे सब प्रकार की सफलताएं, सब प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है | इन सुखों को पा कर मनुष्य की प्रसन्नता में वृद्धि होती है तथा उसकी आयु भी लम्बी होती है | यह मनन व चिंतन मन का केवल कार्य ही नहीं है अपितु मन का धर्म भी है | जब हम कहते हैं कि यह तो हमारा कार्य था जो हम ने किया किन्तु कार्य में मानव कई बार उदासीन होकर उसे छोड़ भी बैठता है | इसलिए मन्त्र कहता है कि यह मन का केवल कार्य ही नहीं धर्म भी है तो यह निश्चित हो जाता है कि धर्म होने के कारण मन के लिए अपनी प्रत्येक गति विधि को आरम्भ करने से पूर्व उस पर मनन चिंतन आवश्यक भी होता है |
मनन चिंतन पूर्वक जो भी कार्य किया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह नहीं रह जाता | मनन चिंतन से उस कार्य में जो भी नयुन्तायें दिखाई देती हैं , उन सब का निवारण कर, उन्हें दूर कर लिया जाता है | इस प्रकार सब गतिविधियों व व्यवस्थाओं को परिमार्जित कर उन्हें शीशे की भाँती साफ़ बना कर उससे जो भी कार्य लिया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह शेष नहीं रह पाता | परिणाम स्वरूप प्रत्येक कार्य में सफलता निश्चित हो जाती है | अत: मन के प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व उसके मनन व चिंतन रूपी धर्म का पालन आवश्य ही करना चाहिए अन्यथा इस की सफलता में , इस के सुचारू रूपेण पूर्ति में संदेह ही होता है |
मन के कार्यों को संचालन के लिए जब धर्म को स्वीकार कर लिया गया है तो यह भी निश्चित है कि इस के संचालन का भी तो कोई साधन होगा ही | इस विषय पर विचार करने से पता चलता है कि इसके संचालन के लिए ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रमुख भूमिका निभाती है | ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन भी कहा जा सकता है | जब तक किसी कार्य को करने सम्बन्धी ज्ञान ही नहीं होगा तब तक उस कार्य की सम्पन्नता में, सफलता पूर्वक पूर्ति में संदेह ही बना रहेगा | जब तक मानव की क्षुधा ही शांत न होगी तब तक वह कोई भी कार्य करने को तैयार नहीं होता | अत: मन का भोजन ज्ञान है , जिसे पा कर ही वह उस कार्य को करने को अग्रसर होता है | इस लिए ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन कहा है | इन ज्ञानेन्द्रियों से मन दो प्रकार का सहयोग प्राप्त करता है | प्रथम तो ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से मन वह सब सामग्री एकत्रित करता है , जो उस कार्य की सम्पन्नता में सहायक होती है दूसरा इस सामग्री को एकत्र करने के पश्चात प्रस्तुत सामग्री को किस प्रकार संगठित करना है , किस प्रकार जोड़ना है तथा किस प्रकार उस कार्य की सपन्नता के लिए उस सामग्री का प्रयोग करना है , यह सब कुछ भी उसे मन ही बताता है | अत: बिना सोच विचार , चिन्तन ,मन व मार्ग दर्शन के मन कुछ भी नहीं कर पाता, चाहे इस निमित उपयुक्त सामग्री उसने प्राप्त कर ली हो | अत: किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए साधन स्वरूप सामग्री का एकत्र करना तथा उस सामग्री को संगठित कर उस कार्य को पूर्ण करना ज्ञानेन्द्रियों का कार्य है | इस लिए ही मनको प्रत्येक कार्य का धर्म व ज्ञानेन्द्रियों को प्रत्येक कार्य को करने का साधन अथवा भोजन कहा गया है कहा गया है |
इस जगत में परमपिता परमात्मा ने अनेक प्रकार के फल ,फूल, नदियाँ नाले, जीव जंतु ,स्त्री पुरुष को बनाया है, पैदा किया है , उत्पन्न किया है | इन सब के सम्बन्ध में मन जो कुछ भी देखता व सुनता है, वह सब देखने व सुनने के पश्चात ज्ञानेन्द्रियों के पास जाता है | मन द्वारा कुछ भी निर्णय लेने के लिए जब यह सब सामग्री, सब द्रश्य बुद्धि को दे दिये जाते हैं तो बुद्धि सब को जांच , परख कर जो भी निर्णय लेती है, वह उस निर्णय से मन को अवगत करा देती है तथा आदेश भी देती है कि अब यह कार्य करणीय है | अब मन पुन: ज्ञानेन्द्रियों को अपने निर्णय से अवगत कराते हुए आदेश देता है कि प्रस्तुत कार्य की परख हो चुकी है | यह कार्य उतम है , करने योग्य है , इस को तत्काल सम्पन्नं किया जावे | इस आदेश के साथ मन ज्ञानेन्द्रियों को यह भी बताता है कि इस कार्य को किस रूप में संपन्न करना है ? इस प्रकार मन अपने प्रत्येक कार्य को संपन्न करने के लिए ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग प्राप्त करता है तथा उनके सहयोग से ही सब कार्य संपन्न करता है | मन के संकल्प क्या हैं तथा उस कार्य के विकल्प क्या हैं यह सब ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ही निर्धारित किये जाते हैं , प्रस्तुत किये जाते है | अत: ज्ञानेन्द्रियों के साह्योग से ही मन के सब कार्यों को व्यवस्थित कर उनकी दिशा निर्धारित की जाती है तथा इन के द्वारा ही उन्हें सम्पन्नं किया जाता है |
इस सब से जो बात स्पष्ट होती है वह यह है कि प्रत्येक कार्य को करने के लिए मन चुन कर उस पर ज्ञानेन्द्रियाँ मनन व चिन्तन कर अपने सुझावों के साथ मन को लौटा देती हैं | मन उस पर निर्णय लेकर उसे करने के अनुमोदन के साथ पुन: करने का आदेश देते हुए पुन: ज्ञानेन्द्रियों को लौटा देता है तथा ज्ञानेन्द्रियाँ उस आदेश का पालन करते हुए उस कार्य को संपन्न ती है | अत: कोई भी कार्य करने से पूर्व उस पर मनन चिन्तन सुचारू रूप से होता है तब ही वह उतम प्रकार से सफल हो पाता है |
डा. अशोक आर्य

देवता पुरुषार्थी के सहायक

ओउम
देवता पुरुषार्थी के सहायक .. अथर्वेद २०.१८.३
डा.अशोक आर्य

विशव का प्रत्येक प्राणी आनंदमय रहना चाहता है , सुखी रहना चाहता है | प्रत्येक व्यक्ति विशव में ख्याति चाहता है | यह सब पाने के लिए अत्यधिक मेहनत कि आवश्यकता होती है , पुरुषार्थ कि आवश्यकता होती है,जिससे बच्जाने का वह प्रयास करता है |इलाता उसे ही है जो मेहनत करता है | बिना प्रयास किये कुछ किस्से मिल सकता है | इस तथ्य को अथर्ववेद में इस प्रकार बताया गया है : –

इच्छन्ति देवा: सुन्वनतम न स्वप्राया न स्प्रिहंती |
यन्ति प्रमादामातान्द्रा: || अथर्ववेद २०.१८.३ ||
देवता यज्ञकर्ता या कर्मठ को चाहते हैं , आलसी को नहीं चाहते हैं | पुरुषार्थी व्यक्ति ही श्रेष्ठ आनंद को प्राप्त करते हैं | :-
पुरुषार्थ मानव जीवन का एक आवश्यक अंग है | जो पुरुषार्थी है , उसकी सहायता परमात्मा करता है | देवता भी पुरुशारथी को ही चाहते हैं | संसार भी पुरुषार्थी को ही चाहता है | जिस पुरुषार्थी को सब चाहते हैं, वह पुरुषार्थ वास्तव में है क्या ? जब तक हम पुरुषार्थ शब्द को नहीं जान लेते तब तक इस सम्बन्ध में और कुछ नहीं कह सकते | अत: आओ पहले हम जानें की वास्तव में पुरुषार्थ से क्या अभीप्राय है :=
पुरुषार्थ से अभिप्राय से :-
पुरुषार्थ से अभिप्राय है मेहनत | जो व्यक्ति चिंतन करता है , मनन करता है, एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यत्न करता है , प्रयास करता है , वह व्यक्ति पुरुषार्थी होता है | इससे स्पष्ट होता है कि मेहनत करने वाला पुरुषार्थी है | जो किसी विषय पर मनन, चिंतन कर उसे भली प्रकार समझ कर उसे पाने का यत्न करता है वह पुरुषार्थी है | अत: हम कह सकते हैं की पुरुषार्थ से भाव मेहनत करने से है, यत्न करने से है , एक निर्शारित उद्देश्य को पाने के लिए जो भी यत्न किया जाता है , उसे पुरुषार्थ कहते हैं |
पुरुषार्थ के इस इतने उच्चकोटि के भाव से पुरुषार्थ का महत्व भी स्पष्ट हो जाता है | मेहनती व्यक्ति को पुरुषार्थी कहा गया है | जो अपाने लक्ष्य को पान्ने के लिए न्हारपुर यत्न करता है , उसे पुरुषार्थी कहा गया है | उसका उद्देश्य चाहे धन प्राप्ति का हो ,छह शारीर के गठन का, शिक्षा प्राप्ति का हो चाहे प्रभु प्राप्ति का | किसी भी क्षेत्र में वह उपलब्धियां पाना चाहता हो तथा इन उपलब्धियों को पाने के लिए जब वह सच्चे मन से यत्न करता है तो उसे पुरुषार्थी कहते हैं , मेहनती कहते हैं, लहं शील कहते हैं |
इस प्रकार का मेहनती व्यक्ति जब अपनी मेहनत के फलसवरूप कुछ उ[अलाब्धियाँ पा लेता है तो उसका अपना मन तो प्रफुल्लित होता ही है साथ में उसक्द परिजनों को भी अपार ख़ुशी प्राप्त होती है | ऐसे क्यक्ति को देवता ही नहीं प्रभु भी पसंद करते हैं | जिस व्यक्ति को परमात्मा का आशीर्वाद मिला जाता है, उस कि ख्याति समग्र संसार में फ़ैल जाती है | सब और उसकी चर्चा होने लगाती है, जिस से उसका ही नहीं उसके परिवार कि यश व कीर्ति भी दूर दूर तक चली जाती है | इस प्रकार वह अपने परिवार का नाम उंचा करने का कारण बनाता है |
जो पुरुषार्थ नहीं करता. उसे निष्क्रिय कहते हैं , उसे कर्महीन कहते हैं ,उसे आलसी कहते हैं, उसे अकर्मण्य कहते हैं | जो कुछ काम ही नहीं करता, उसे उपलब्धियां कहाँ से मिलेंगी ? , उसे ख्याति कहाँ से मिलेंगी , उसे यश कहाँ से मिलेगा ? उसकी कीर्ति कैसे फ़ैल सकती है ? उसकी कहीं भी पहचान कैसे बन सकती है ? अर्थात निष्क्रिय व्यक्ति को कोई पसंद नहीं करता | न तो इस संसार में तथा न ही देवताओं में और न ही ईश्वरीय शक्तियों में उसे कोई पसंद करता है | वह पशुओं कि भाँती इस संसार में आता है , खाता है तथा कीड़े मकोड़ों कि भाँती इस संसार से चला जाता है | न तो जीवन काल में ही उसे कोई चाहने वाला होता है तथा न ही जीवन के पश्चात भी |
अत: आलसी व कर्म हिन् व्यक्ति को कहीं भी भी सन्मान नहीं मिलता | वह अपने लिए भी भार है और परिवार के लिए भी | जिसे परिजन ही पसंद नहीं करेंगे , उसे अन्य क्या चाहेंगे | इस लिए मन्त्र में कहा गया है कि देवता पुरुशरथी को ही चाहते हैं | संस्कृत के एक सुभाषित में भी इस तथ्य का ही अनुमोदन करते हुए इस प्रकार कहा है :-
” उद्यम: साहसं धैर्यं बुद्धि: शक्ति: पराक्रम: |
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवा : सहायकृत ||
अर्थात उद्यम ,साहस, धैर्य , बुद्धि, शक्ति और पुरुषार्थ से गुण जहाँ रहते हैं , वहां परमात्मा भी सहायता करता है | पुरुषार्थी ही समाज और राष्ट्र का निर्माण करते हैं | वे संसार का कल्याण करते हैं और संसार उनका गुणगान करता है | पुरुषार्थ , आलस्य का त्याग तथा निरंतर अपने कर्तव्य में तत्पर रहना समृद्धि का मूल है , सफलता का रहस्य है | पुरुषार्थ और स्वावलंबन का महत्त्व बताते हुए अंग्रेजी में कहा गया है :-
” GOD HELPS THOSE WHO HELP THEMSELVES. ”
परमात्मा उनकी सहायता करता है , जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं | जो अपने सामने पड़ी थाली में परोसे भोजन को स्वयं अपने हाथ से उठा कर अपने ही मुंह में नहीं डालते तो उन्हें भोजन कारने कौन आवेगा ? उनकी तृप्ति कैसे हो सकती है ? अत: प्रभु का आशीर्वाद पाने के लिए हमें अपनी सहायता स्वयं करनी होगी | स्पष्ट है कि यहाँ भी पुरुषार्थ करने कि ही प्रेरणा कि गयी है |
मन्त्र के आरम्भ में ही इस सत्य को कहा गया है कि देवता पुरुषार्थी को ही चाहते हैं, मेहनत करने वालों को ही चाहते हैं, जिनका जीवन यज्ञमय होता है, उसे ही चाहते हैं अकर्मण्य अथवा आलसी को नहीं | अत: हे मानव ! यदि तुन देवताओं को प्रसन्न रखते हुए प्रभु का आशीर्वाद लेना चाहता हे , धनधान्य का स्वामी बन यश व कीर्ति को पाना चाहता है तो पुरुशारती बन |

डा.अशोक आर्य

हमारे सैनिक सब से श्रेष्ठ हों

ओउम
हमारे सैनिक सब से श्रेष्ठ हों
डा. अशोक आर्य
विशव में वही विजयी होते हैं ,जिनके पास अपार मनोबल हो ,जिससे वह असाध्य कार्य को भी बड़ी सरलता से कर सकें | विशव में वही सेनायें विजयी होती हैं , जिनके पासा अत्याधुनिक शस्त्र हों तथा विश्व में वही लोगविजयी होते हैं , वही देश विजयी होते हैं, वही सेनायें विजयी होती हैं, जिनके पास देवीय कृपा हो , देवताओं का आशीर्वाद हो | जिन देशों, जिन सेनाओं का मनोबल गिरा हुआ है , मायूस से हैं , उनको कभी विजय नहीं मिल सकती , जिस देश की सेनाओं के पास अत्याधुनिक तकनीक के शास्त्र नहीं हैं ,वह सेनायें भी युद्ध क्षेत्र में सदा भयभीत सी रहती हैं , उनका मनोबल गिरा सा होता है, इस कारण ऐसी सेनायें तो निराश सी, हताश सी हो कर युद्ध क्षेत्र में उतरती हैं , ऐसी सेनायें विजेता नहीं हो सकतीं तथा कर्म हीन सेनाओं के साथ देवता भी नहीं होते, इस कारण उन्हें देवताओं का आशीर्वाद भी नहीं होता, अत: वह भी विजयी नहीं होती | वेदों में ऐसे अनेक मन्त्र दिए हैं , जो हमें विजयी होने के साधन बताते हैं | जिन मन्त्रों के बताये मार्ग पर चलने से विजय निश्चित होती है | इस लिए विजयी होने के इच्छुक सैनिकों को वेद का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए तथा वेद में बताये विजय के उपायों को अवश्य ही अपनाना चाहिए | ऋग्वेद मन्त्र संख्या १०.१०३.११, अथर्व वेद मन्त्र संख्या १९.१३.११ यजुर्वेद मन्त्र संख्या १७.३ में विजय प्राप्त करने के बड़े सुन्दर साधन बताये गए हैं | मन्त्र इस प्रकार है : –
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्तु –
अस्मां उ देवा अवता हवेषु अस्माकं इंद्र; सम्रितेशु ध्वजेशु –
अस्माकं या इश्वस्ता | जयन्तु || ऋग.१०.१०३.११,अथर्व.१९.१३.११ ,यजु. १७.४३ ||
शब्दार्थ : –
(द्वजेषु) शत्रु सेनाओं के ध्वजों के (सम्रितेशु) एकत्र होने पर (इंद ) परमात्मा (अस्माकं रक्षिता भवतु) हमारा रक्षक हो (अस्माकं ) हमारे (या) जो (इशवा) बाण हैं ( ता:) वे (जयन्तु) विजयी हों (अस्माकं) हमारे (वीरा) वीर (उत्तरे) विजयी (भवन्तु) हों (उ) और (हे देवा:) हे देवो ! (हवेषु) आह्वान पर अथवा संग्रामों मैं (आस्मां) हमे (आवत:) रक्षा करो |
भावार्थ : –
शत्रु सेनाओं के ध्वजों के उद्यत होने पर परमात्मा हमारा रक्षक हो | हमारे बाण विजयी हों | हमारी सेनायें (वीर) सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हों | हे देवो ! हमारी पुकार पर तुम युद्धों में हमारी रक्षा करो |
इस मन्त्र में युद्ध सम्बन्धी तीन बातों की और ध्यान आकृष्ट किया गया है | ये तीन वातें हैं :-
(१)हमारी सेना के बाण ( शस्त्र ) शक्तिशाली, आधुनिक प्राद्योगिकी से भरपूर तथा विजेता हों :-
मन्त्र हमारा मार्ग दर्शन करते हुए बताता है कि हमारी सेनायें उच्चकोटि के शस्त्रों से सुसज्जित हो | आज शस्त्र प्रणाली विश्व में अति उत्तम, अति विकसित हो गयी है | वह समय गया, जब हम तीर, तलवार, गदा, लाठी, भाले या मुक्कों से युद्ध करते थे | युद्ध करते करते महीनों ही नहीं वर्षों बिताने पर भी कोई परिणाम सामने नहीं आता था | आज विज्ञान ने प्रत्येक क्षेत्र में क्रान्ति ला दी है | यही कारण है कि विश्व में अत्याधूनिक तकनीक के स्वामी अमरीका जैसे देश नहीं चाहते कि विश्व का कोई देश उनके समकक्ष बनकर उसे चुनौती दे , इसलिए उन्होंने युद्ध सामग्री की नवीनतम तकनीक पर एकाधिकार स्थापित रखने के लिए एक संगठन बना रखा है तथा एसा प्रयास करते रहते हैं कि कोई भी देश इस प्रकार के कार्य को अपने हाथ में न ले, यदि कोई इस पर कार्य करता है तो उसे परेशान करते हैं, ताकि वह इस कार्य से अपना हाथ हटा ले | इस बात को ही इस मन्त्र ने स्पष्ट किया है कि हमारी सेनाओं के पास उच्च तकनीक के नवीनतम शस्त्र हों | जिस सेना के पास जितने उच्च तकनीक के अत्याधुनिक शस्त्र होंगे ,वह उतनी ही सरलता से शत्रु को विजय करने का सामर्थ्य रखती है | अत: उच्च तकनीक से युक्त शस्त्रों से सुसज्जित सेनायें शत्रु पर शीघ्र ही विजयी होंगी | इस के लिए न केवल उच्चकोटि के शस्त्र ही चाहियें अपितु उन शस्त्रों को प्रयोग करने की तकनीक का भी महीन ज्ञान हमारे सैनिकों को होना आवश्यक है | अन्यथा उत्तम शस्त्र होने के पश्चात भी विजय हाथ नहीं लगेगी | कोई व्यक्ति हाथ में बन्दूक लिए है किन्तु उसे चलाना नहीं जानता तो वह उस बन्दुक का क्या करेगा ? जब कोई गुंडा उसे परेशान करेगा तो वह कैसे उसका प्रतिशोध लेगा | हो सकता है कि सामने का निहत्था व्यक्ति उसकी ही बन्दुक छीन कर उस पर उसी से ही गोली दाग दे | इससे स्पष्ट होता है कि विजय पाने के लिए अच्छे शस्त्रों के साथ ही साथ उनके प्रयोक्ता भी अच्छे ही होने चाहियें | विजय इन दोनों बातों पर ही निर्भर कराती है |
(२)युद्ध में हमारे वीर ( सैनिक सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हों : –
जिस देश के पास सैनिक सर्वोत्तम हैं , युद्ध भूमि में विजय उस देश को ही मिलती है | इन पंक्तियों से वेद मन्त्र ने हमारे वीर सैनिकों के लिए यह शिक्षा दी है कि वह युद्धभूमि में सर्वश्रेष्ठ हों | अब हम विचार करते हैं कि सर्वश्रेष्ठ कौन हो सकता | सेना में वह सेना ही सर्वश्रेष्ठ होती है , जिस की सैन्य शिक्षा अति उत्तम हो | अनुशासन भी सेना कीविजय का मुख्य आधार है | अनुशासन ही सेना की योग्यता का आधार है | यही सैनिक की योग्यता की कसौटी है | विश्व इस बात का साक्षी है कि जिस सेना में अनुशासन है वह सेना ही विजयी होती है | यदि सेना में अनुशासन नहीं है, अपने नेता का अनुगमन नहीं करती, सब सैनिक अपना अपना राग अलाप रहे हैं तो शत्रु के लिए विजय का मार्ग स्वयमेव ही प्रशस्त हो जाता है | अत: अनुशासन रहित सेना उत्तम शास्त्र रखते हुए भी विजय नहीं प्राप्त कर सकती | अत: विजय की कामना की पूर्ति के लिए सेना की सर्वश्रेष्ठता के लिए उस का उत्तम प्रशिक्षण तथा उसका अनुशासन बद्ध होना भी आवश्यक है |
(३)हमारे ऊपर देवों की ( प्रभु की) कृपा हो :-
परमपिता परमात्मा सदा उसके ही साथ रहता है , जो सत्य व न्याय के लिए कार्य करता है| जब एक सैनिक निष्पक्ष हो कर सत्य व न्याय का ध्यान रखते हुए युद्ध क्षेत्र में उतरता है तो परमपिता परमात्मा उसकेकरी में उसका सहायक होता है | उसके कार्य को सम्पन्न करने में उसका सहयोगी होता है | अन्यायी व असत्य पथ पर चलने वाले की परमात्मा भी कभी सहायक नहीं होता | तभी तो योगिराज क्रिशन ने कहा था की जहाँ धर्म है, में उसका ही साथ दूंगा क्योंकि जिधर धर्म होता है, विजय उधर ही होती है | इस तथ्य का आधार भी यह वेद मन्त्र ही है | अत: विजय के अभिलाषी सैनिक के लिए यह भी आवश्यक है की वह न्याय का साथ कभी न छोड़े तथा धर्म का आचरण करे | एसा करने पर वह निश्चय ही अपने आश्रयदाता को विजय दिलवाने में सफल होगा | विदुरनीति में भी इस तथ्य पर ही प्रकाश किया है | विदुर जी लिखते हैं कि : –
यतो धर्मस्ततो जय: | विदुरनीति ७.९
अर्थात जहाँ धर्म है , वहां विजय है | अत: विजय के अभिलाषी सैनिक के लिए यह आवश्यक है कि उसके पास अत्याधुनिक सहस्त्र हों, इन शास्त्रों का पोअर्चालन भी वह ठीक से जानता हो | उसकी सैन्य शिक्षा भी उत्त्तम हो तथा अनुसासन में रहे | सदा सत्य व न्याय का पक्ष ले तो इसी सेना विश्व कि महानतम सेना होगी तथा इसी सेना ही विजय श्री का आलिंगन करेगी | अत: एसा गुण सेना को धारण करना चाहिए |

डॉ. अशोक आर्य

संयमीव्यक्ति मृत्यु पर सदा विजयी होता है

संयमीव्यक्ति मृत्यु पर सदा विजयी होता है
डा. अशोक आर्य

इस सृष्टी का प्रत्येक व्यक्ति ही नहीं अपितु प्रत्येक जीव दीर्घ आयु की कामना करता है
| वह चाहता है कि कभी उसकी मृत्यु हो ही नहीं | विगत लेख में ऋग्वेद के मन्त्र संख्या १०.१८.२ तथा
अथर्व वेद के मन्त्र संख्या १२.२.३० के माध्यम से हमने बताया था कि मृत्यु पर विजय पाने के लिए
आवश्यक है कि म्रत्यु से भय न हो , यज्ञ आदि कर्मों से दीर्घ आयु के साधन जुटावें, धन धन्य से भरपूर
हों अर्थात समृद्ध हों तथा पवित्र हों | इन साधनों से संपन्न होने पर मृत्यु का भय चला जाता है तथा व्यक्ति प्रोपकारमय जीवन अपनाते हुए व प्रसन्नचित रहते हुए लम्बी आयु प्राप्त करता है | अथर्ववेद में भी म्रत्यु से निर्भय होने की प्रेरणा देते हुए इस प्रकार कहा है : –

मृत्योरहं ब्रह्मचारी यदास्मी
निर्याचन भूतात पुरुषं यमाय |
तमहं ब्रह्मणा तपसा श्रमेण –
अनायेनं मेखालाया सिनामी || अथर्ववेद ९.१३३.३ ||

मै म्रत्यु के लिए समर्पित ब्रह्मचारी हूँ , इस नाते मैं उपस्थित लोगों में से एक व्यक्ति को यम अर्थात संयम के लिए मांगता हूँ | मैं उसे ज्ञान , तप व परिश्रम के लिए, पुरुषार्थ के लिए इस मेखला से बांधता हूँ |

मेखला बंधन का ब्रह्मचारी के लिए विशेष महत्त्व होता है | इस मन्त्र में इस मेखला के बंधन के महत्त्व का वर्णन किया गया है | यह मेखला एक पतली सी रस्सी होती है , जो करधनी , तगड़ी अथवा धागे आदि से बनी होती है | जिस समय गुरुकुल के ब्रह्मचारी की अथवा गृह पर ही ब्रह्मचारी बालक को यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है , उस समय ही यह मेखला भी कटी स्थल पर पहनाई जाती है | यह कटिबद्धता का प्रतीक है | इस का भाव है कि आज से बालक ने जो वेद अध्ययन
का , शिक्षा प्राप्ति का जो संकल्प लिया है, उसकी पूर्णता के लिए वह बालक कटिबद्ध हो कर जुटा रहेगा
,तब तक जुटा रहेगा, जब तक कि वह पूर्ण निपुणता प्राप्त नहीं कर लेता | इससे स्पष्ट होता है कि यह एक संकल्प है , जिसे पूरा करने की स्मृति यह मेखला प्रत्येक क्षण उस ब्रह्मचारी को करवाती रहती
है| जिस के भी यह मेखला पहनी हुयी दिखाई देती है , आगंतुक तत्काल समझ जाता है कि यह बालक ब्रह्मचारी है , इस ने ज्ञान को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करने का संकल्प लिया है , इस निमित यह कटिबद्ध है, कृत संकल्प है |

इस मन्त्र में इस मेखला को बांधने के चार लाभ बताये गए हैं | यथा : –

१. मृत्यु पर विजय : –
२. ज्ञान प्राप्त
३. साधना का अथवा ताप का अभ्यास
४. कठोर परिश्रम की आदत डालना

मृत्यु पर प्रत्येक व्यक्ति विजय पाने की आकांक्षा अपने ह्रदय में रखता है किन्तु वह जानता नहीं की इस पर विजय कैसे पाई जावे ? वह प्रतिदिन इस विजय को पाने के लिए अनेक उपाय करता है किन्तु वह ज्यों ज्यों प्रयास करता है त्यों त्यों ही एक मकड़जाल में फंसता ही चला जाता है , क्योंकि वह जो मृत्यु पर विजय पाने के उपाय करता है, वह उपाय वास्तव में मृत्यु को बस में करने के नहीं होते अपितु मृत्यु की और धकेलने वाले होते हैं | मन्त्र बताता है की मृत्यु पर विजय पाने के लिए संयम का होना आवश्यक है | जो संयमी नहीं , वह मृत्यु पर विजय नहीं पा सकता | तभी तो मन्त्र कहता है की ” मैं संयमी व्यक्ति हूँ | मुझे मृत्यु से लड़ना है | मुझे अपने प्राणों की चिंता नहीं | मुझे समाज में से ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है , जो इस निमित अपने प्राण दे सकें | ”

इस प्रकार मन्त्र कहता है कि संयमी व्यक्ति ही मृत्यु विजयी हो सकता है | समाज को चाहिए कि ऐसे संयमी व्यक्तियों की खोज करे , ऐसे संयमी व्यक्तियों का निर्माण करे , जो म्रत्यु से भय- भीत न हों अपितु मृत्यु के भय से रहित होकर सदा पुरुषार्थ में लगे रहें , ज्ञान उपार्जन में लगे रहें | प्रयास करेंगे , परिश्रम करेंगे तो सफलता तो मलेगी ही क्योंकि सफलता सदा उस का ही वर्ण करती है, जो पुरुषार्थ करता है | अत: जो व्यक्ति संयम के द्वारा अथवा संयम के दूसरे नाम ब्रह्मचर्य के द्वारा समर्पण की भावना से लगा रहता है , नियमों का पालन करता रहता है , तो ऐसे पुरुषार्थी के ह्रदय में कभी मृत्यु आदि दु:खों का भय नहीं रहता | उस में निर्भीकता की भावना अत्यंत बलवती हो जाती है |

वेद में प्रत्येक संकल्प के लिए अनेक प्रतीक बनाए हुए हैं , हमें सदा हमारे संकल्प का स्मरण कराते रहते हैं | ऐसे प्रतीकों में से मेखला भी एक प्रतीक है , एक चिन्ह है , जो हमें प्रतिक्षण स्मरण दिलाती है कि हम ने ज्ञानार्जन करना है | ज्ञानार्जन के लिए अपने जीवन को एक साधना में , एक
नियम में बांधना है तथा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कठोर परिश्रम करना है | यह मेखला इस सबके प्रतीक स्वरूप ही कटी – स्थान पर धारण की जाती है | मृत्यु पर विजय पाने के लिए यह आवश्यक है कि हम ज्ञान में पूर्ण दक्ष हों , हमारा जीवन तप से भरपूर हो , हम निरंतर अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ध्येय – पथ पर तत्पर रहे | एसा करने से ही मानव मृत्यु पर विजयी होता है तथा एसा विजेता ही प्रगति के पथ पर , सफलता के पथ पर अग्रसर रहता है | यदि यह गुण नहीं हैं तो वह मार्ग में ही

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कहीं भटक जाता है , म्रत्यु को प्राप्त हो जाता है | अत: मृत्यु पर विजय पाने के अभिलाषी को ब्रह्मचर्य की मेखला धारण कर कटिबद्ध हो दृढ संकल्पी हो ज्ञान प्राप्ति में जुटना होगा | यही एकमेव उसकी सफलता का मार्ग है, यही एकमेव मृत्यु विजयी होने का मार्ग है , अन्य कोई मार्ग नहीं |

डा. अशोक आर्य

हमारी सेनायें शत्रु परविजयी हों

ओउम
हमारी सेनायें शत्रु परविजयी हों

डा अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
आज विश्व का प्रत्येक देश अपनी सेनाओं की विजय की कामना करता है | विश्व विजेता होने का गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त करना प्रत्येक की लालसा है | किन्तु यह सब कैसे संभव है ? इस स्वप्न को साकार करने के लिए प्रत्ये सैनिक का शूरवीर होना आवश्यक है | आज का युग तो है ही विशेषग्य का | जिस के पास युद्ध कला की विशेष योग्यता होगी, वह ही विजयी हो सकता है | विश्व तो क्या एक छोटेसे क्षेत्र को विजयी बनाने के लिए भी योग्यता की आवश्यकता है | अथर्ववेद राजनीति का वेड है | हम किस प्रकार की निति अपनावें, किस प्रकार का अभ्यास करें कि हमें अन्यों पर विजय मिल सके | इस का अथर्ववेद में विस्तार से विचार किया गया है | विश्व विजय का स्वप्न देखने वाले के लिए अथार्व्वेद का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए | आज कि राजनीति ही विजय व पराजय का मार्ग बतलाती है | इस मार्ग को जानने के लिए इसे अवश्य पढ़ें | योद्धा विजय प्राप्त करें, यह कामना अथार्व्वेद के मन्त्र १९.१३.२ मैं इस प्रकार कि गयी है : –
आशु : शिशानो वृषभो न भीमो ,
घनाघन: क्शोभानाश्चर्श्निनाम |
स्न्क्रन्दनो$निमिष एकवीर :,
शतं सेना अजयत साक्मिन्द्र: || अथर्ववेद १९.१३.२||
शब्दार्थ : –
आशु:) तीव्रगति (शिशान: )तीक्षण शस्त्रधारी, तेज बुद्धि ( वृषभ : न) सांड कि भाँती (घनाघन:) भयंकर शत्रुओं का नाशक (चर्श्निनाम)शत्रुओं को (क्षोभन:) भयभीत करने वाला (स्नक्र्न्दन:) शत्रुओं को युद्ध के निमित ललकारने वाला (अनिमिष:)अत्यंत
सावधान दृष्टि (एकवीर:) अद्वितीय वीर (इंद्र) इंद्र ने (शतं सेना) शत्रु कि असीमित या सैंकड़ों सेनाओं को (साकम) एक बार में ही (अजायत) जीतता है |
भावार्थ : –
तेज गति से तीक्षण अस्त्रों को धारण कर शत्रु का विनाश व् शत्रु पर भयानक बनाकर युद्ध में ललकारने वाले अत्यंत सावधान अद्वितीय वीर इंद्र ने शत्रुओं कि सैंकड़ों सेनाओं को एक साथ ही जीत लिया |
इस मन्त्र में एक महान योद्धा का बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्रण किया गया है | योद्धा को किस प्रकार से कार्य करना चाहिए , किस प्रकार के साधनों का युद्धक्षेत्र में प्रयोग करे तथा किस प्रकार से सफलता का वरण करे , इस सब की चर्चा इस मन्त्र का विषय है | इस निमित देवसेना के नायक इंद्र के शौर्य व वीरता का उल्लेख करते हुए कहा है कि इंद्र ने शत्रुओं कि सैंकड़ों सेनाओं पर एक साथ विजय प्राप्त की |
इंद्र ने शत्रुओं की सैंकड़ों सेनाओं को एक साथ जीत लिया | इंद्र की इस सफलता का रहस्य क्या है, जिसे हम भी अपना कर विश्व विजय के स्वप्न को साकार कर सकें ? मन्त्र विजय के इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देता है की इंद्र आत्मबल, निर्भीकता तथा साधन सम्पन्नता थी | यह तिन ऐसे तत्व है, जो ल्किसी भी सफलता के लिए आवश्यक होते हैं | बिना आत्मबल के विजय तो क्या किसी के ऊपर आक्रमण करने की सोचा भी नहीं जा सकता | एक व्यक्ति के पास आत्मबल तो है किन्तु न तो वह निर्भय है तथा न ही उसके पास साधन ही हैं की वह किसी पर आक्रमण कर सके , एसा व्यक्ति भी युद्ध मैं विजय श्री को नहीं पा सकता | अत: किसी भी प्रकार के युद्ध में सफलता के लिए इन तीनों तत्वों का स्वामी होना आवश्यक है | यह तिन तत्व ही विजय का मुख्या आधार हैं | इन के अतिरिक्त योद्धा मैं कुछ अन्य गुणों का होना भी आवश्यक है | यह गुण है : – : –
(१) तीव्रगति हो : –
युद्ध क्षेत्र में सदा तीव्रता से ही विजय प्राप्त की जा सकती है | जिसकी स्वयं की गति तीव्र है, जिस के घोड़े उत्तम कोटि के तेज गति वाले है, जिसके वाहन तेज चलते हैं , जिसके पास उच्चकोटि की प्रद्योगिकी से युक्त विमान आदि हैं की शत्रु को संभालने से पूर्व ही उसे दबोच ले, एसा योद्धा ही युद्ध क्षेत्र में सफलता पा सकता है |
(२) उत्तम शस्त्रों से संपन्न हो : –

योद्धा के पास केवल गति तीव्र होने से कुछ नहीं होने वाला | तीव्र गति से यदि आप ने शत्रु में घुस कर उसे चुनोती दे दी किन्तु आप शस्त्र विहीन हैं या उत्तम शस्त्रों से रहित है , शत्रु के मुकाबले अच्छे शस्त्र नहीं हैं तो विजयी नहीं होंगे अपितु शत्रु दल में घिर जाने से मारे जाओगे | आज वही विजेता होता है , जिसके पास न केवल तीव्र गति वाले साधन हों साथ ही उसके पास अत्याधुनिक व शत्रु से कहीं उत्तम शस्त्र हों |
(३) युद्ध विद्या मैं निपुण हो : –
गति तीव्र है , शस्त्र भी उत्तम हैं किन्तु युद्ध कला में निपुण नहीं हैं तो भी विजय संभव नहीं क्योंकि जो उत्तम शस्त्र हम लेकर तीव्र गति से शत्रु सेना में घुसेंगे, शस्त्र चलाने की कला में प्रवीण न होने के कारण हम शत्रु सेना पर प्रहार करने से पहले ही पकड़ लिए जावेंगे या मार दिए जावेंगे | अत: शत्रु पर विजय प्राप्त करने की अभिलाषा तब ही पूर्ण होगी जब हम उत्तम शस्त्र प्रयोग करने की विधा को भी अच्छे से जानते होंगे |
(४) निर्भीक हो : –
सैनिक में निर्भीकता का गुण होना भी अति आवश्यक है | वह चाहे कितना ही तीव्रगामी हो , कितने ही उत्तम शास्त्रों से सुसज्जित हो तथा कितना ही उत्तम ढंग से शस्त्रों का परिचालन कर सकता हो, किन्तु तब तक वह विजयी नहीं हो सकता , जब तक वह निर्भय होकर रणभूमि में नहीं खड़ा होता | यदि यह सब उत्तम सामग्री व इस के प्रयोग में प्रवीण होकर युद्ध क्षेत्र में पहुंच तो गया किन्तु युद्धभूमि में भयभीत सा हो कांपते
कांपते शत्रु से मुंह छुपाने का प्रयास कर रहा हो तो वह शत्रु का सामना नहीं कर पाता तथा या तो युद्ध भूमि से भाग खड़ा होता है या पकड़ा जाता है | एसा व्यक्ति कभी योद्धा होने के लायक नहीं तथा निश्चित ही पराजित होता है | अत: विजय के अभिलाषी योद्धा के लिय तीव्रगामी,उत्तम शास्त्रों से सुसज्जित तथा युद्ध कला में प्रवीण होने के साथ ही साथ निर्भीक होना भी आवश्यक है | एक निर्भीक योद्धा युद्ध कला में कुछ कम प्रवीण होते हुए भी अपनी सेनाओं को विजय दिलवा सकता है | अत: विजयी होने के लिए योद्धा के पास निर्भीकता का होना अति आवश्यक है |
(५) असाधारण शक्ति रखता हो : –

युद्ध तो खेल ही शक्ति का है | विजय उसको ही मिलती है जो असाधारण शक्ति का स्वामी हो | असाधारण शक्ति के लिए तीव्र गति से आक्रमण करने की क्षमता, उत्तम शस्त्रों का स्वामी व उनका परिचालन करने की जानकारी, निर्भीकता व aatmvisva से युक्त असाधारण शक्ति का स्वामी होने से शत्रु की सेनायें उस वीर का मुकाबला नहीं कर सकें गी | शत्रु सेनायें या तो भयभीत हो कर भाग जावेंगी, या मारी जावेंगी या फिर आत्म समर्पण कर देंगी | यह आत्मविश्वास की कमी का ही परिणाम था की १९७१ के भारत पाक युद्ध में हमारे से अच्छे शस्त्र व अच्छे सहयोगी होते हुए भी पाकिस्तान की एक लाख से अधिक सेना ने हमारी सेनाओं के सामने आत्म समर्पण कर दिया था | इससे स्पष्ट है की युद्ध क्षेत्र में योद्धा के पास असाधारण शक्ति का भी होना आवश्यक है |
(६) एकाग्रचित हो : –
ऊपर वर्णित सब गुणों के अतिरिक्त एक उत्तम योद्धा, जो विजय की कामना रखता है , युद्ध काल में उसका एकाग्रचित होना भी आवश्यक है | जो युद्ध भूमिं में शत्रु पर गोला फैंकते समय अपने परिजनों की समस्याओं में उलझा है अथवा किसी सुंदर द्रश्य का सपना ले रहा है या किसी अन्य विपति को स्मरण कर रहा है तो उसका ध्यान शत्रु की स्थिति पर न होने से उसका वार तो खाली जावे गा ही अपितु शत्रु का कोई गोला उसकी जान ही ले लेगा | जिस प्रकार अर्जुन को केवल चिड़िया की आँख ही दिखाई देती थी , ठीक उस प्रकार योधा को युद्ध भूमि में शत्रु का मर्म स्थल ही दिखाई देना चाहिए , तभी वह उसे समाप्त कर विजेता बन सकेगा | अत: विजय के अभिलाषी योद्धा के पास एकाग्रचितता का गुण होना भी आवश्यक है |
(७) अपने कार्य को सर्वतोभावेन की भावना से करने वाला हो : –
योद्धा केवल व्यक्तिगत सुख या अहं की पूर्ति के लिए युद्ध न करे | ऐसे योद्धा के साथ कभी भी जनता नहीं होती | जनता के विरोध के कारण उसे विजय की प्राप्ति संभव नहीं हो पाती | यदि वह सर्व जन के सुख को सम्मुख रख रणभूमि में खड़ा है तो जन सहयोग सदा उसके साथ होगा | जनसहयोग साथ होने से उसकी शक्ति बढ़ जावेगी तथा विजय दौड़ते हुए उसके पास आवेगी | इस भावना का युद्ध भूमि मे महत्वपूर्ण स्थान है |
इस सब चर्चा को समझने के लिए इंद्र का अभिप्राय: भी समझना आवश्यक है इंद्र कहते हैं विशेषज्ञ को | जो अपने विषय में पूरी प्रकार से पारंगत हो दुसरे शब्दों में जो अपने विषय का .एच.डी अथवा डी लिट हो , सर्वोच्च ज्ञान पा लिया हो, वह ही अपने विषय का इंद्र होता है | जो योद्धा युद्ध सम्बन्द्धि सब विद्याओं में प्रवीण होता है , उसे रणभूमि का इंद्र कहा जा सकता है | एसा योद्धा एक साथ अनेक सेनाओं का सामना करने और उन्हें पराजित करने की क्षमता रखता है | जब हमारे सैनिक युद्ध कला में इंद्र बन जावेंगे तो निश्चित ही हम सदा विजयी होंगे | मन्त्र में इस लिए ही कहा गया है की इंद्र ने एक साथ अनेक सेनाओं को पराजित कर दिया |
मनुष्य का जीवन भी एक रणभूमि है, जिसमें प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य को पाने के लिए अनेक युद्धों में उलझा रहता है | वह बड़ी सफलता के साथ रणभूमि में विजेता होकर संसार सागर को पार करना चाहता है , किन्तु माया , मोह, छल , कपट, अहंकार आदि उसे कुछ भी कर पाने में बाधक होते हैं | जो इन बाधाओं की और देखे बिना केवल अपने लक्ष्य पर ही अपनी दृष्टि गडाए रहता है , वह अपने विषय का इंद्र बन सफल होता है, शेष सब पराजित होते हैं | अत: इस संसार सागर के संग्राम मैं हम अपने विषय का इंद्र बन इसे विजय करने का प्रयास करें तो निश्चय ही सफलता मिलेगी |

डा. अशोक आर्य

व्रती व्यक्ति सदा निरोग व प्रसन्न रहता है

ओउम
व्रती व्यक्ति सदा निरोग व प्रसन्न रहता है
डा. अशोक आर्य
अग्नि को तेज का प्रतीक माना गया है | विश्व का प्रत्येक व्यक्ति तेज पाने की आकाक्षा रखता है | इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए वह सतत प्रयास भी करता है | यदि उस का यह प्रयास सही दिशा में है तो मन वांछित फल उसे मिलता है और यदि वह भटका हुआ है, उसे सही दिशा का ज्ञान नहीं तो उस के लिए सफलता भी संदिग्ध ही है | कहा भी है कि चल गया तो तीर नहीं तो तुक्का | प्रत्येक सफलता के लिए मानव को कई प्रकार के व्रत करने होते है | व्रत की सफलता से व्यक्ति को प्रसन्नता मिलती हैं तथा प्रसन्न व्यक्ति ही निरोग होता है | अथर्ववेद के मन्त्र ७.७४.४ में इस तथ्य पर ही प्रकाश डाला गया है | मन्त्र का अवलोकन करें : –
मन्त्र पाठ : –
व्रतें तवं व्रतपते समक्तो
विश्वाहा सुमना दीदिहिह |
तं त्वा वयं जातवेदा
प्रजावंत उप सदेम सर्वे || अथर्व .७.७४.४||
: समिद्धन
भावार्थ : –
हे व्रतों के स्वामी , हे व्रतों के पालक अग्नि देव ! तुम व्रत से सुसंस्कृत होने से यहाँ सदा प्रसन्नचित्त हो कर प्रकाशित होना ! हे अग्नि ! हम सब अपनी संतानों के साथ प्रदीप्त हो तेरे समीप बैठें |
व्रतों से हमें अनेक लाभ होते हैं | इन लाभों का वर्णन ही इस मन्त्र का मुख्य विषय है | व्रतों से मिलाने वाले लाभ इस प्रकार हैं : –
१) शुद्धता
२) निरोगता
३) पवित्रता
४) प्रसन्नचित्तत़ा
इस मन्त्र के अनुसार अग्नि ही व्रतपति है | व्रत से शुद्ध, पवित्र तथा तेजस्वी भी अग्नि ही है | स्पष्ट है कि यहाँ व्रत के उदहारण अग्नि को रखा गया है | जिस प्रकार अग्नि में डाला गया प्रत्येक पदार्थ या सामग्री जल कर नष्ट हो जाते हैं किन्तु जलते जलते भी यह तत्व अग्नि को तेजस्विता प्रदान करते हैं | अग्नि का धर्म है जलना | यदि ज्वाला नहीं तो हम उसे अग्नि कैसे कह सकते हैं ? तो भी अग्नि को जलने के लिए कुछ पदार्थों की , कुछ तत्वों की आवश्यकता होती है | बिना किसी वास्तु के तो अग्नि भी जल नहीं सकती | ज्वलन्शिलता अग्नि का गुण तो है किन्तु यह गुण तब ही गतिशील होता है , जब किसी पदार्थ के संपर्क में आता है | किसी पदार्थ के संपर्क के बिना अग्नि जल ही नहीं सकती तथा जों भी पदार्थ इस अग्नि के संपर्क में आता है , उसे भी यह अग्नि जला कर राख कर देती है | अग्नि के जलने से उस के आस पास जितने भी दूषित तत्व होते हैं , उन sab को भी जला कर अग्नि नष्ट कर देती है | इस प्रकार अग्नि के जलने मात्र से वायु मंडल शुद्ध हो जाता है , वातावरण में शुद्धता आ जाती है , पर्यावरण स्वच्छ हो जाता है | निर्दोषता का सर्वत्र साम्राज्य स्थापित हो जाता है |
जहाँ तक व्रत अथवा उपवास का सम्बन्ध है यह भी हमारे शरीर में अग्नि के समान ही कार्य करता है | जिस प्रकार अग्नि अपने आस पास व पड़ोस के दुर्गुणों को जला कर नष्ट कर देती है , उस प्रकार ही व्रत अथवा उपवास भी शरीर के अंदर विद्यमान सब प्रकार के दूषित तत्वों को नष्ट कर देते हैं | दूषित तत्वों के नष्ट होने से शरीर में शुद्धता आती है | शरीर के निर्दोष होने से शरीर चुस्त व दुरुस्त हो जाता है | निर्दोष, चुस्त व शुद्ध शरीर ही निरोगता की कुंजी है | अत: शरीर जितना शुद्ध व निर्दोष रहेगा , उतना ही शरीर निरोगी होगा | शरीर की इस निरोगता को पाने के लिए ही हम व्रत करते हैं | इस से स्पष्ट होता है की व्रत स्वस्थ व शुद्ध शरीर स्थापित करने का साधन होने से निरोगता की कुंजी होते हैं | यह ही निरोगता का साधन हैं |
व्रत को ही मानवीय प्रसंन्नचितता का आधार माना गया है | यह मन्त्र का दूसरा लाभ है | जो सदा प्रसन्न रहता है मन्त्र ने उसे विश्वाहा सुमना: कहा है | इस का भाव भी प्रसन्नचितता ही है | प्रसन्न कौन होता है ? इसका उत्तर मन्त्र ने ऊपर इस प्रकार दिया है कि जो शुद्ध, पवित्र, तेजस्वी है, वह प्रसन्नचित्त होता है | अत: ऊपर के उपाय करने के पश्चात जीव स्वयमेव ही प्रसन्न चित्त हो जाता है | व्रतों द्वारा शरीर के शुद्धि करण से शरीर सब प्रकार से स्वच्छ हो जाता है | दूषित शरीर में जो रोग , शोक , आलस्य, निद्रा, तन्द्रा प्रमाद आदि दुर्गुण थे , वह सब इन व्रतों से धुल कर स्वच्छ हो गए | इन सब दुर्गुणों के , दोषों के नाश से मन प्रसन्नता से प्रफुलित हो उठता है , उस में एक विचित्र सी उमंग ठाठें मारने लगती है | इस उमंग को ही प्रसन्नता कहते हैं | अत: दोष निवारण से मन पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है | अब मानवीय मन सदैव प्रसन्न रहता है | स्वास्थ्य के लिए वरदान प्रसन्नचितता के लिए योगीराज श्री कृषण जी ने गीता में भी बड़ी सुन्दर चर्चा की है | इस सम्बन्ध में गीता का श्लोक २-६५ दर्शनीय है | जो इस प्रकार है : –

प्रसादे सर्वदु:खानां , हानिरस्योपजायते |
प्रसन्नचेततो ह्याशु: ,बुद्धि: प्र्यवातिष्ठते || गीता २-६५ ||
प्रसन्नता दु:खों का विनाश करती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित्त होता है उसके सब दु:खों का नाश स्वयमेव ही हो जाता है | जिस प्रकार जल से भरे गिलास में वायु नहीं रह सकती , उस प्रकार ही प्रसन्न बदन में दु:ख , शोक , क्लेश इत्यादि दुर्गुण नहीं रह सकते | जब शरीर दु:ख रहित है तो मन शांत हो जाता है | शांत मन के साथ बुद्धि कभी आक्रोशित नहीं हो सकती , इस कारण उसकी बुद्धि भी शांत हो जाती है | शांत बुद्धि मानवीय शरीर की सुव्यवस्था का साधन है | अत: व्रती व्यक्ति का शरीर भी सुव्यवस्थित रहता है | सुव्यवस्थित शरीर में किसी भी प्रकार का शल्य प्रवेश नहीं कर सकता | जब मन प्रसन्न है , बुद्धि शांत है तथा पूरा शरीर सुव्यवस्थित कार्य कर रहा है तो इस के सदुपयोग से परिवार ऊपर उठता है | परिवार के उन्नत होने से समाज , देश व विश्व की भी उन्नति होती है | सब प्रकार से कल्याण का साम्राज्य छा जाता है | जब एक व्रत से ही विश्व का कल्याण संभव है तो हमें व्रती बनने से परहेज करने की क्या आवश्यकता है ? विश्व कल्याण के लिए हम व्रती बनें अपना भी कल्याण करें , समाज का भी उत्थान करें तथा विश्व का भी कल्याण करें |

डा. अशोक आर्य
१०४ – शिप्रा अपार्टमैंट ,कौशाम्बी (गाजियाबाद)
चल्वार्ता ०९७१८५२८०६८, 01202773400