वर्णव्यवस्था में प्रयुक्त पदों का विश्लेषण

वर्णव्यवस्था में प्रयुक्त पदों का विश्लेषण

श्री रविन्द्र कुमार

वर्ण व्यवस्था हमारी भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनम संस्कृति

है। भारतीय संस्कृति का मूल स्रोत वेद है। इसीलिए अगर हम शुद्धतम भारतीय संस्कृति को समझना चाहते हैं तो हमें वेदादि शास्त्रों का पर्यालोचन अवश्य करना पडेगा। आज अनेक भारतीय संस्कृति के शत्रु लोग भारतीय संस्कृति की निन्दा करते हैं। क्योंकि वे इस परम्परा का विकास चाहते ही नहीं है। वे केवल इसे नष्ट करना ही चाहते हैं। ऐसी विषम परिस्थिति भारतीय संस्कृति और सभ्यता के परिपोषक व्यक्तियों का यह धर्म बनता है कि अपनी परम्परा से प्राप्त इस संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए। भारतीय संस्कृति का वर्ण और आश्रम ये

मुख्य स्तम्भ हैं। अगर हम इन दोनों को भारतीय संस्कृति से अलग कर देवें तो भारतीय संस्कृति की आत्मा नष्ट हो जायेगी।

आज समाज में चारों ओर वृद्धाश्रम, एवं वानप्रस्थाश्रमों की, भीड़ देखने को मिलती है। इसका प्रमुख कारण

समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था का विकृत होना ही है। अगर ये दोनों व्यवस्थायें सुचारु चलती रहती तो फिर ये समस्या नहीं आ सकती थी। वर्णाश्रम व्यवस्था का विकृत होने का एक ओर कारण लोगों में बढता पारिवारिक मोह है। इन दोनों विकारों का कारण वैदिक परम्परा का त्याग करना है। जब से हमने वेदों का पढ़ना-पढ़ाना छ़ोड़ दिया, तब से ही समस्त परम्पराओं में विकार का आगमन हुआ है। जो लोग वर्णाश्रम व्यवस्था का खण्डन करते हैं, वे वास्तव में इसके लाभों से अपरिचित हैं। क्योंकि शास्त्रों का स्वाध्याय तो हमनें करना छ़ोड

दिया, इसीलिए शास्त्रोक्त बातें अब हमें पता ही नहीं होती हैं। स्वाध्याय कि ये बिना हम अपने अन्दर सुविचार से युक्त और लोभ क्रोध मोहादि से मुक्त नहीं हो सकते हैं।इसीलिए ऋषियों ने प्रति व्यक्ति को कुछ समय निकाल कर स्वाध्याय करने का निर्देश दिया है।जो व्यक्ति स्वाध्यायशील नहीं होगा, वह कभी भी भारतीय संस्कृति को नहीं समझ सकता है। वर्णाश्रम व्यवस्था को समझने के लिए अत्यन्त गूढ़ रहस्यों के ज्ञान की आवश्यकता नहीं अपितु वर्णाश्रम में प्रयुक्त शब्दों के वास्तिविक अर्थ से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्णाश्रम व्यवस्था क्या है? वर्णाश्रम व्यवस्था में प्रयुक्त शब्दों पर क्रमशः शास्त्रीय विचार कर मन्थन करते है कि वास्तव में वर्णाश्रम पद्धति क्या है?

वर्ण– ‘‘वॄञ वरणे’’ (धातु, स्वादि) वॄ धातु से ‘‘कॄवॄञा’’ (उणादि. ३/१०) इस उणादि सूत्र से न प्रत्यय करने पर वर्ण शब्द बनता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती जीने उणादि कोष में वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है कि ‘‘वृणोति व्रियते वा स वर्णः’’ अर्थात् जिसका वरण किया जाता हो वह वर्ण है। यहाँ व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था में अपने गुण कर्मानुसार वरण अर्थात् चयन किया जाता है। उसे बलपूर्वक वर्ण प्रदान नहीं किया जाता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था जन्मना नहीं अपितु कर्मणा है। यह सरलता

से नहीं अपितु अहर्निश परिश्रम करके अर्जित की जाती है। इसी तात्पर्य की पुष्टि यास्काचार्य द्वारा लिखित निरुक्त शास्त्र की व्युत्पत्ति से होता है। उन्होनें लिखा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेः’’ (निरु. २/१/४)अर्थात् वर्ण वह है

जिसका अपने गुण कर्मानुसार वरण किया जाता हो। इसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती

जी ने ऋगवेदादि भाष्य भूमिका के वर्णाश्रम धर्म विषय में लिखा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेरिति निरुक्तप्रामाण्याद्

वरणीया वरीतुमर्हाः गुणकर्माणि च दृष्ट्वा यथायोग्यं व्रियन्ते ये ते वर्णाः।’’ (ऋ. भा. भू. वर्णाश्रम) अर्थात्

व्यक्ति के गुण और कर्मों को देखकर यथा योग्य जो अधिकार प्रदान किया जाता है। वह वर्ण है।जो व्यक्ति

जिस वर्ण के गुण कर्मों को अपनाता है वह उसी वर्ण का अधिकारी बन जाता है। यहाँ यह तथ्य विचारणीय है कि जो व्यक्ति अपने प्रमादवश अथवा गुणकर्मों के कारण शूद्र आदि निम्न वर्ण को प्राप्त हो जाता है। उसकी सन्तान को उस वर्ण का भार वहन करने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि उसकी सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर उच्च वर्ण को प्राप्त हो सकती है। वर्तमान व्यवस्था इसके विपरीत है। यदि कोई बालक वाल्मीकि परिवार में जन्म ले लेता है तो वह यदि कितना भी अच्छा कर्म करे और समाज में कितनी भी उन्नति कर

लेवे, परन्तु दुर्भाग्यवश उसे उसी शूद्र वर्ण में रहना पड़ता है। जिसके कारण उसको नरक सदृश वहीं जीवन जीना पड़ता है। उसी प्रकार यदि ब्राहमण का लड़का कितना भी नीच कर्म करें, परन्तु वह सदा ब्राहमण ही रहता है। इससे समाज में इतनी गम्भीर समस्या उत्पन्न हो रही है कि व्यक्ति भारतीय संस्कृति के प्रति विद्रोही हो रहा है। हिन्दू धर्म को छोड़कर व्यक्ति अन्य धर्मों को स्वीकार कर रहा हैं। जहाँ उच्च

या निम्न जैसी कोई भेदभाव की समस्या नहीं है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि बौद्ध और जैन धर्म की उत्पत्ति वर्णव्यवस्था के विकार का ही परिणाम है। अगर वर्तमान में यहीं परम्परा चलती रही और हमने अपने धर्म के उच्च या निम्न के भेदभाव को समाप्त नहीं किया तो भारतीय संस्कृति और सन्तान वैदिक धर्म का ह्रास होता चला जायेगा।

ब्राहमण

ब्राहमण शब्द ब्रहमन् शब्द से बना है। पाणिनि के व्याकरणानुसार ‘‘तदधीते तद्वेद’’ (अष्टा. ४/२/५९) सूत्र से ब्रहमन् शब्द से अण् करने पर ब्राहमण शब्द बनता है। ब्रहमन् शब्द के अनेक अर्थ है। ब्रहम शब्द वेद, बल,

परमेश्वर, ज्ञान इत्यादि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जिसके कारण ब्राहमण शब्द की व्युत्पत्ति विद्वान् लोग करते हैं कि‘‘ ब्रहमणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादि-उत्तमगुणयुक्तः पुरुषः’’ अर्थात् वेद और परमात्मा के अध्ययन और उपासना में सदा निरत रहते हुए विद्या आदि उत्तम गुणों को धारण करने से व्यक्ति ब्राहमण कहलाता है। ब्राहमण ग्रन्थों के वचनों में भी वर्णों के कर्मों का वर्णन प्रसनगवश पाया जाता है। ‘‘आग्नेयो ब्राहमणः ’’ (ताण्ड्य. १५/४/८), आग्नेयो हि ब्राहमणः (काठ. २९/१०) अर्थात् यज्ञ एवं अग्निहोत्र से सम्बन्ध रखने वाला अर्थात् यज्ञ को करने वाला व्यक्ति ब्राहमण होता है। ‘‘ब्राहमणो व्रतभृत्’’ (तै0 सं0 १/६/७/२), व्रतस्य रूपं यत् सत्यम् (शत. २/८/२/४) अर्थात् ब्राह्मण श्रेष्ठ संकल्पों को धारण करने वाला होता है। सत्य बोलना भी व्रत का ही एक रूप है।उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ब्राहमण वह जो वेदादिशास्त्रों का अध्ययन एवं अध्यापन तथा ईश्वर की उपासना में आसक्त रहता हो। वर्तमान में यह परम्परा विलुप्त हो चुकी है। आज जन्मना वर्ण व्यवस्था ने समाज को विनष्ट कर दिया है।

क्षत्रिय

‘‘क्षणु हिंसायाम्’’ (धातु., तादि.)से क्त प्रत्यय करने पर क्षत शब्द बनता है। क्षत शब्द के उप पद में रहते हुए ‘‘त्रैङ् पालने रक्षणे च’’ (भवादि., धातु) से क्षत्र शब्द बनता है। ‘क्षत्राद् घः’ (अष्टा. ४/१/१३८) सूत्र से घ प्रत्यय होने पर क्षत्रिय शब्द बनता है। जिसका अर्थ है कि जो हिंसा से प्रजा की रक्षा करता हो, उसे क्षत्रिय कहते हैं। आक्रमण आदि से जो समाज को बचाता हो, उसे क्षत्रिय कहते हैं। इस ऐतरेय ब्राहमण में कहा है कि ‘‘क्षत्रं राजन्यः’’ (८/२/व३/४)। शतपथ में कहा है कि ‘‘क्षत्रस्य वा एतद् रुप यद् राजन्यः’’ (१३/१/५/३) अर्थात् जो प्रजा का रक्षक होता है, वही क्षत्रिय है। कुछ विद्वान् यहाँ यह आशंका कर सकते है कि अपत्यार्थ में होती है। परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि वंश जन्म से तो माना जाता ही है, साथ ही वह विद्या से भी माना जाता है।

अष्टाध्यायी मेघ ‘‘संख्यावंश्येन’’ (२/१/१९) सूत्र में भी जन्म विद्या से माना है। अतः उपर्युक्त विश्लेषण से

यह स्पष्ट है कि क्षत्रिय प्रशासन सम्बन्धी कार्य कर समाज की सुरक्षा करता है।

वैश्य

‘‘विशः’’ यह शब्द निघण्टु (२/३) में मनुष्य का वाचक है। इस शब्द से भावार्थ में यत व स्वार्थ में अण् करने पर वैश्य शब्द बनता है। वैश्य शब्द की व्युत्पत्ति विद्वान् लोग इस प्रकार करते हैं। कि ‘‘यो यत्र तत्र व्यवहारविद्यासु प्रविशतिसः वैश्यः ’’ अर्थात् जो व्यापार आदि कार्यों के कारण अनेक स्थलों पर भ्रमण करता है। वह वैश्य कहलाता है। स्वामी दयानन्द जी यजुर्वेद (३१/१) में वैश्य शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं कि

व्यवहार विद्या में जो कुशल होता है, उसे वैश्य कहते हैं। यहाँ व्यवहार विद्या से तात्पर्य व्यापार से है। ब्राहमण ग्रन्थों में भी कहा है कि‘‘ एतद् वै वैश्यस्य समृद्धम यत् पशवः’’ (ताण्डय. १४/४/६) ‘‘तस्माद्

बहुपशुर्वैश्वदेवो हिजायते वैश्यः’’ (ताण्डय. ६/१/१०)अर्थात् पशुपालनादि से ही वैश्य की समृद्धि होती है।

इससे स्पष्ट है कि पशुपालन आदि वैश्य का कर्तव्य है।

शूद्र– ‘‘शुच शोके’’ (धातु. भ्वादि.) इस धातु से ‘‘शुचेर्दश्च’’ (उणा. २/१९) इस सूत्र से रक् प्रत्यय करने पर शुद्र शब्द बनता है। धातु के अर्थ से ही स्पष्ट है कि जिसकी स्थिति दयनीय अथवा शोचनीय हो उसे शूद्र कहते हैं। अथवा जिसके भरण पोषण की चिंता स्वामी के द्वारा की जाति हो उसे भी शूद्र कहते है। तैतिरीय ब्रहमण में भी कहा है कि असतो वा एष सम्भृतो यत् शूद्रः (३/२/३/९) अर्थात् अज्ञान या अविद्या के कारण जिसकी जीवन स्थिति निम्न हो, वह शूद्र कहलाता है। मनु ने शूद्रों के प्रति अत्यन्त आदर भाव व्यक्त किया है। मनु ने मनुस्मृति में अनेक स्थलों पर ‘‘शुचिः’’ एवं ‘‘उत्कृष्टशुश्रुषुः’’ अर्थात् पवित्र और उत्कृष्ट सेवक कहा है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि कोई भी सेवक अपवित्र कैसे हो सकता है? शूद्र जन्म से नहीं अपितु कर्म से माना जाता है द्विज शब्द का अर्थ है ‘‘द्विः जायते इति द्विजः’’ अर्थात् जो दो बार जन्म लेता हो वह द्विज

कहलाता है। ब्राहमण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विज कहलाते हैं। जबकि मनु शूद्र के लिए कहते हैं कि ‘‘चतुर्थ

एकजातिस्तु शूद्रः’’ (मनु. ९/३३५)अर्थात् शूद्र का एक ही जन्म होता है इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्ति जन्मना

नहीं कर्मणा शूद्र होता है।शूद्रों के लिए जैसी उत्तम व्यवस्था वैदिक परम्परा में है वैसी सुन्दर व्यवस्था अन्यत्र

नहीं मिल सकती है। क्योंकि यहाँ शूद्र को भी ब्राहमण तथा ब्राहमण को भी शूद्र बनने का निर्देश है।शतपथ में

स्पष्ट कहा है कि ‘‘ तपो वै शूद्रः’’ (१३/६/२/१०) अर्थात् जो श्रम से अपना जीवन निर्वाह करता हो, वह शूद्र है। वेद में शूद्रों को समान अधिकार प्रदान किया है।उन्हें हीन या निकृष्ट नहीं माना है। ‘‘यथेमां वाचं कल्याणीम्’’ (यजु. २६/२) मे स्पष्टतः निर्देश है कि वेदवाणी सुनने का अधिकार जहाँ द्विजों को है वहीं शूद्रों को भी प्राप्त है।

वर्तमान में अनेक मतावलम्बी शूद्रों को निकृष्ट मानते हुए उन्हें वेदादि पढ़ने का अधिकार नहीं देते हैं।उन्हें यह विचारना चाहिए कि ईश्वर के द्वारा प्रदान की गयी प्रत्येक वस्तु पर सबका समान अधिकार है।सूर्य की किरणें अथवा चन्द्रमा की रश्मियाँ, वायु का वेग अथवा वर्षा की बूँदे कभी भी यह नहीं देखती है कि यह ब्राहमण का घर है अथवा शूद्र का। वह हर जगह समान मात्रा में जाती है।इसीलिए वर्ण व्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को समझ उस पर आचरण करने की भी आवश्यकता है, अन्यथा, समाज अधोगति की ओर ही बढ़ता रहेगा।

-सहायकाचार्य,

श्रीभगवानदास आदर्श संस्कृत महाविद्यालय,

(भारत सरकार की आदर्श योजना के अन्तर्गत)

हरिद्वार (उ.ख.)

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