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मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था

मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था

ब्र. शिवदेव आर्य…..

वर्णाश्रम व्यवस्था वैदिक समाज को संगठित करने का अमूल्य रत्न है। प्राचीनकाल में हमारे पूर्वजों ने समाज को सुसंगठित, सुव्यवस्थित बनाने तथा व्यक्ति के जीवन को संयमित, नियमित एवं गतिशील बनाने के लिए चार वर्णों एवं चार आश्रमों का निर्माण किया। वर्णाश्रम विभाग मनुष्य मात्र के लिए है, और कोई भी वर्णी

अनाश्रमी नहीं रह सकता। यह वर्णाश्रम का अटल नियम है।

भारतीय शास्त्रों में व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याणपरक कर्मों का अपूर्व समन्वय दृष्टिगोचर होता है।प्रत्येक वर्ण के सामाजिक कर्त्तव्य अलग-अलग रूप में निर्धारित किए हुए हैं। वर्णाश्रम धर्म है। प्रत्येक वर्ण के प्रत्येक आश्रम में भिन्न-भिन्न कर्त्तव्या कर्त्तव्य वर्णित किये हुए हैं।

भारतीय संस्कृति का मूलाधार है अध्यात्मवाद। अध्यात्मवाद के परिप्रेक्ष्य में जीवन का चरम लक्ष्य है मोक्ष। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार लक्ष्य भारतीय जीवन की धरोहर रूप होते हैं। हिन्दू धर्म के अन्तर्गत

आने वाले सभी धर्मों ने उपदेश रूप में अपना लक्ष्य मोक्ष को ही रखा है। यद्यपि उसे अलग-अलग नाम दिये गये हैं। जैसे बौद्ध, जैन इसे निर्वाण कहते हैं। शैव तथा वैष्णव को मोक्ष कहते हैं। उद्देश्य और आदर्श सभी के

एक हैं। सभी धर्मों ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए समाज की क्रीयाओं को एक मार्ग प्रदान किया है। इस हेतु व्यवस्था की गई वर्णधर्म और आश्रम धर्म की। दोनों का अत्यन्त गूढ़ संबंध होने से इन दोनों को समाज-शास्त्रियों ने एक नाम दिया-वर्णाश्रमधर्म।

प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। जिस प्रकार से सिर, हाथ, पैर, उदर आदि विभिन्न अंगों से शरीर बना है और ये सब अंग पूरे शरीर की रक्षा के लिए

निरन्तर सचेष्ट रहते हैं उसी प्रकार आर्यों ने पूरी सृष्टि को, सब प्रकार के जड़-चेतन पदार्थों को उनके गुण

कर्म और स्वभाव के अनुसार उन्हें चार भाग या चार वर्णों में विभक्त कर दिया गया।

संसार संरचना के बाद इस प्रकार की व्यवस्था से गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार मानव समाज की चार मुख्य आवश्यकताएँ मान ली गईं- बौद्धिक, शारीरिक, आर्थिक और सेवात्मक। आरम्भ में अवश्य ही मानव जाति असभ्य रही होगी जिससे कुछ में आवश्यकतानुसार स्वतः बौद्धिक चेतना जागृत हुई होगी। उन्होंने बौद्धिकता परक कार्य पढ़ना-पढ़ाना आदि अपनाया होगा, जिससे उन्हें ब्राहमण कहा गया। फिर धीरे-धीरे सभ्यता का

विस्तार होने से सुरक्षा, भोजन, धन सेवा आदि की आवश्यकता अनुभव होने पर तदनुसार अपने गुण-स्वभाव

के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उसी मानव जाति से बने होगें।

मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के अन्तर्गत यह मान्यता स्वीकार की गई है कि मन के मुख्य तीन कार्य हैं, जिसमें

से कोई एक प्रत्येक जाति के अन्दर मुख्य भूमिका का निर्वाह करता है। द्विजत्व तीन वर्गों में आते हैं ज्ञान प्रधान व्यक्ति, लिया प्रधान व्यक्ति, और इच्छा प्रधान व्यक्ति। इन तीनों से अतिरिक्त एक चौथे प्रकार का व्यक्तित्व भी होता है जो अकुशल या अल्पकुशल श्रमिक कहा जा सकता है।

वैदिक काल से ही समाज में चार वर्गों का उत्पन्न होना स्पष्ट है। इस का संकेत पुरुष सूक्त के प्रसिद्ध मन्त्र

से मिलता है।

ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत।।

पदार्थःहे जिज्ञासु लोगो! तुम (अस्य) इस ईश्वर की सृष्टि में (ब्राहमणः) वेद ईश्वर का ज्ञाता इनका सेवक वा

उपासक (मुखम् )मुख के तुल्य उत्तम ब्राहमण (आसीत्) है (बाहू) भुजाओं के तुल्य बल पराक्रमयुक्त (राजन्यः)

राजपूत (कृतः) किया (यत्) जो (ऊरू) जांघों के तुल्य वेगादि काम करने वाला (तत्)वह (अस्य) इसका (वैश्यः) सर्वत्र प्रवेश करनेहारा वैश्य है (पद्भ्याम्) सेवा और अभिमान रहित होने से (शूद्रः) मूर्खपन आदि गुणों से युक्त शूद्र (अजायत्) उत्पन्न हुआ, ये उत्तर क्रम से जानो |||

भावार्थःजो मनुष्य विद्या और शम दमादि उत्तम गुणों में मुख के तुल्य उत्तम हो वे ब्राहमण, जो अधिक पराक्रमवाले भुजा के तुल्य कार्य्यो को सिद्ध करनेहारे हों वे क्षत्रिय, जो व्यवहार विद्या में प्रवीण हों वे वैश्य

और जो सेवा में प्रवीण, विद्याहीन, पगों के समान मूर्खपन आदि नीच गुणों से युक्त हैं वे शूद्र करने और मानने चाहियें ||

उपनिषद् आदि में तो स्पष्ट रूप से वर्ण व्यवस्था की परिपाटी चल पड़ी थी। जैसे ऐतरेय ब्राहमणग्रन्थ में ब्राहमणों का सोम भोजन कहा है और क्षत्रियों का न्यग्रोध, वृक्ष के तन्तुओं, उदुम्बर, अश्वत्थ एवं लक्ष के फलों को कूटकर उनके रस को पीना पड़ता था। लेकिन आनुवंशिक होने से भोजन एवं विवाह

संबंधी पृथक्त्व उत्पन्न होने का निश्चित रूप से कुछ पता नहीं चलता। धर्मसूत्रों में स्पष्ट रूप से चारों वर्णों

का अलग-अलग होना स्पष्ट हो गया था।

वर्णव्यवस्था जन्म से नहीं अपितु कर्म से मानी गयी है। निम्नलिखित आख्यान इसकी यथार्थता को स्पष्ट

करता है। ‘जाबाला का पुत्र सत्यकाम अपनी माता के पास जाकर बोला, हे माता! मैं ब्रहमचारी बनना चाहता हूँ। मैं किस वंश का हूँ। माता ने उत्तर दिया कि हे मेरे पुत्र! सत्यकाम! मैं अपनी युवावस्था में जब मुझे दासी के रूप में बहुत अधिक बाहर आना-जाना होता था तो मेरे गर्भ में तू आया था। इसलिए मैं नही जानती कि तू किस वंश का है। मेरा नाम जाबाला है। तू सत्यकाम है। तू कह सकता है कि मैं सत्यकाम जाबाल हूँ।

हरिद्रुमत् के पुत्र गौतम के पास जाकर उसने कहा भगवन्! मैं आपका ब्रहमचारी बनना चाहता हूँ। क्या

मैं आपके यहाँ आ सकता हूँ ? उसने सत्यकाम से कहा हे मेरे बन्धु! तू किस वंश का है? उसने कहा भगवन् मैं नहीं जानता किस वंश का हूँ। मैंने अपनी माता से पूछा था और उसने यह उत्तर दिया था कि ‘मैं अपनी युवावस्था में जब दासी का काम करते समय मुझे बहुत बाहर आना-जाना होता था तो तू गर्भ में आया। मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है।मेरा नाम जाबाला है और तू सत्यकाम है।’इसलिए मैं सत्यकाम जाबाल हूँ।

गौतम ने सत्यकाम से कहा एक सच्चे ब्राहमण के अतिरिक्त अन्य कोई इतना स्पष्टवादी नहीं हो सकता

। जा और समिधा ले आ। मैं तुझे दीक्षा दूँगा। तू सत्य के मार्ग से च्युत नहीं हुआ है।

वैदिक काल में वर्णव्यवस्था (आज के सनदर्भ में) थी अथवा नहीं यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, लेकिन कर्मानुसार वर्णव्यवस्था थी यह निश्चित है। ऋगवेद के पुरुष सूक्त के मन्त्र ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् से प्रतीति होती है कि अंग गुण के कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था थी। शरीर में मुख का स्थान श्रेष्ठ है जो कि बौद्धिक कर्मों को ही मुख्य रूप से घोषित करता है। अतः ब्राहमण उपदेश कार्य, समाजोत्थान आदि के कार्यों

को करनेवाले हुए। बाहुओं का काम रक्षा करना गौरव, विजय एवं शक्ति संबन्धी कार्य करना है। अतः क्षत्रियों

का बाहुओं से उत्पन्न होना कहा है। उदर का कार्य शरीर को शक्ति देना, भोजन को प्राप्त करना है।अतः उदर से उत्पन्न वैश्यों को व्यापारिक कार्य करने वाला कहा गया है। पैरों का गुण आज्ञानुकरण है। अत पैरों से उद्धृत शूद्रों का कार्यश्रम है। जिस गुण के अनुसार व्यक्ति कर्म करता है वही उसका वर्ण आधार होता है। अन्यथा एक गुण दूसरे गुणों में मिल जाता है और कर्म भी इसी प्रकार बदल जाता है। अतः वर्ण भी बदला हुआ माना जाता है, यही गुणकर्म का आधार होता है।

ब्राहमण कर्म-वर्णव्यवस्था

मनु महाराज जी ब्राहमणों के लिए कर्त्तव्यों का नियमन करते हुए लिखते है कि-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्रा२णानामकल्पयत्।।

अर्थात् अध्ययन करना-कराना, यज्ञ करना-कराना तथा दान लेना तथा देना ये छः कर्म प्रमुख रूप से ब्राहमणों के लिए उपदिष्ट किये गये हैं।

यहाँ अध्ययन से तात्पर्य अक्षर ज्ञान से लेकर वेद ज्ञान तक है।

ब्राहमणों के कर्म के विषय में गीता में इस प्रकार कहा गया है-

क्षमो दमस्तपः शौचं क्षान्ति….

क्षमा मन से भी किसी बुरी प्रवृत्ति की इच्छा न करना।

दम सभी इन्द्रियों को अधर्म मार्ग में जाने से रोकना।

तप सदाब्रहमचारी व जितेन्द्रिय होकर धर्मानुष्ठान करते रहना चाहिए।

शौच शरीर, वस्त्र, घर, मन, बुद्धि और आत्मा को शुद्ध, पवित्र तथा निर्विकार रहना चाहिए।

शान्ति निन्दा, स्तुति, सुख-दुःख, हानि-लाभ, शीत-उष्ण, क्षुधा-तृषा, मान-अपमान, हर्ष-शोक का विचार

न करके शान्ति पूर्वक धर्म पथ पर ही दृढ़ रहना चाहिए।

आर्जवम् कोमलता, सरलता व निरभिमानता को ग्रहण करना तथा कुटिलता व वक्रता को छोड़ देना।

ज्ञान सभी वेदों को सम्पूर्ण अन्गो सहित पढ़कर सत्यासत्य का विवेक जागृत करना।

विज्ञान तृण से लेकर ब्रहम पर्यन्त सब पदार्थों की विशेषता को यथावत् जानना और उनसे यथायोग्य उपयोग लेना।

आस्तिकता वेद, ईश्वर, मुक्ति, पुर्नजन्म, धर्म, विद्या, माता-पिता, आचार्य व अतिथि पर विश्वास रखना,

उनकी सेवा को न छोड़ना और इनकी कभी भी निन्दा न करना।

गीता के इन्हीं विचारों को ध्यान में रखते हुए महाभाष्यकार कहते है कि-

ब्राहमणेन निष्कारणो धर्मः षडोगो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च

अर्थात् ब्रह्मण के द्वारा बिना किसी कारण के ही यह धर्म अवश्य पालनीय है कि चारों वेदों को उनके अंगो तथा उपान्गो आदि सहित पढ़ना चाहिए और भली-भॉति जानना चाहिए। और जो इन कर्मों को नहीं करता है, उसके लिए मनु महाराज कहते हैं कि –

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशुगच्छति सान्वयः।।

अर्थात् जो ब्राहमण वेद न पढ़कर अन्य कर्मों में श्रम करता है, वह अपने जीते जी शीघ्र ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है। इसलिए ब्राहमणों को अपने वर्णित कर्मों को अवश्य ही करना चाहिए।

क्षत्रिय कर्म-वर्णव्यवस्था

वर्ण विभाजन क्रम में द्वितीय स्थान क्षत्रिय का है। क्षत्रिय की भुजा से उत्पत्ति से तात्पर्य, क्षत्रिय को समाज का रक्षक कहने से है। जिस प्रकार से भुजाएँ शरीर की रक्षा करती है उसी प्रकार क्षत्रिय भी समाज की रक्षा करने वाला होता है।समाज जब बृहत रुप धारण करता है तो वहाँ कुछ दुष्ट, अत्याचारी भी हो जाते हैं, जिनका दमन आवश्यक होता है। अतः समाज के लिए यह आवश्यकता हुई कि कुछ व्यक्ति ऐसे हों, जो दुष्ट,

दमनकारी प्रवृत्ति के लोगों से समाज की रक्षा करना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझें।

मनु महाराज क्षत्रिय के कर्म लक्षण करते हुए लिखते हैं – अपनी प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, विषयों में अनासक्त रहना।

वैश्यकर्म-वर्णव्यवस्था

जिस प्रकार से जंघाएँ मनुष्य के शरीर का सम्पूर्ण वहन करती हैं उसी प्रकार समाज के भरण-पोषण आदि सम्पूर्ण कार्य वैश्य को करने होते हैं। समाज के आर्थिक तन्त्र का सम्पूर्ण विधान वैश्य के हाथ सौंपा गया

।पशुपालन, समाजकाभरणपोषण, कृषि, वाणिज्य, व्यापार के द्वारा प्राप्त धन को समाज के पोषण में लगा

देना वैश्य का कर्त्तव्य है। धन का अर्जन अपने लिए नहीं प्रत्युत ब्राहमण आदि की आवश्यकताओं को पूर्ण

करने के लिए होना चाहिए। जैसे- हे ज्ञानी, ब्राहमण नेता! जिस प्रकार अश्व को खाने के लिए घास-चारा दिया जाता है, उसी प्रकार हम नित्य प्रति ही तेरा पालन करते हैं। प्रतिकूल होकर हम कभी दुखी न हों। तात्पर्य यह है कि धन के मद से मस्त होकर जो पूज्य ब्राहमणों को तिरस्कार करते हैं, वे समाज में अधोपतन की ओर अग्रसरित होते चले जाते हैं।

शूद्रकर्म-वर्णव्यवस्था

समाज की सेवा का सम्पूर्ण भार शूद्रों पर रखा गया है। सेवा कार्य के कारण शूद्र को नीच नहीं समझा

जाता है, अपितु जो लोग पहले तीन वर्णों के काम करने में अयोग्य होते हैं अथवा निपुणता नहीं रखते हैं, वे लोग शूद्र वर्ण के होकर सेवा कार्य का काम करते हैं। पुरुष सूक्त के रूपक से यह बात बहुत स्पष्ट होती है कि उपर्युक्त चारों वर्णों का समाज में अपना-अपना महत्व है और उनमें कोई ऊँच-नीच का भाव नहीं होता।

युजर्वेद में ‘तपसे शूद्रम्’ कहकर श्रम के कार्य के लिए शूद्र को नियुक्त करो, यह आदेश दिया गया है। इसी अध्याय में कर्मार नाम से कारीगर, मणिकार नाम से जौहरी, हिरण्यकार नाम से सुनार, रजयिता नाम से रंगरेज, तक्षा नाम से शिल्पी, वप नाम से नाई, अपस्ताप नाम से लौहार, अजिनसन्ध नाम से चमार, परिवेष्टा नाम से परोसने वाले रसोइये का वर्णन है।

मनु महाराज कहते हैं कि यदि ब्राहमण की सेवा से शूद्र का पेट न भरे तो उसे चाहिए कि क्षत्रिय की सेवा करे, उससे भी यदि काम न चले तो किसी धनी वैश्य की सेवा से अपना जीवन निर्वाह करना चाहिए।

प्रत्येक मनुष्य की प्रकृति अलग-अलग होती है और उस वह अपनी विशिष्ट मनोवृत्तियों के आधार पर

रहने, खाने आदि में प्रवृत्त होता है। अतः कहा जा सकता है कि वर्णविभाग चार व्यवसाय ही नहीं अपितु ये मनुष्य की चार मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियां हैं। व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक को मोक्ष की ओर जाना है। और यह वर्ण व्यवस्था मनुष्य को सामूहिक रूप से शरीर से मोक्ष की तरफ ले जाने का सिद्धान्त है। वर्ण व्यवस्था में कार्यानुसार श्रम विभाग तो आ सकता है, लेकिन यदि केवल श्रम विभाग की बात की जाय तो उसमें वर्ण व्यवस्था नहीं आ सकती है। आज का श्रमविभाग मनुष्य की शारीरिक और आर्थिक आवश्यकताएँ तो पूरी करता है लेकिन आत्मिक, पारमात्मिक आवश्यकता नहीं। जबकि वर्णव्यवस्था का आधार ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रहा है।

प्राचीन भारतीय संस्कृति ने चारों प्रवृत्तियों के व्यक्तियों के लिए यह निर्देश किया था कि वे अपनी प्रवृत्ति के अनुसार समाज को चलाने में सहयोग करें, समाज की सेवा करें। ब्राहमण ज्ञान से, क्षत्रिय क्रीया से, वैश्य अन्नादि की पूर्ति करके और शूद्र शारीरिक सेवा से। यह उनका कर्त्तव्य निश्चित किया गया है। कर्त्तव्य से

यह तात्पर्य नहीं होता है कि मनुष्य कार्य करने के बदले अपनी शारीरिक पूर्ति कर ले। कर्त्तव्य भावना जब व्यक्ति के अन्दर आ जाती है तब वह समर्पित भावना से कार्य करता है। इससे समाज में यदि कोई व्यक्ति अधिक धन संपत्ति से युक्त हो भी जाए तो उसके मत में राज्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती।

भारतीय संस्कृति की यह अमूल्य विरासत केवल मात्र एक व्यवस्था ही नहीं है अपितु एक कर्म है, जिस

कर्म से कोई नहीं बच सकता है तभी चारों प्रकार के कर्मों को करते हुए मनुष्य अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकेगा।

आदिकाल से लेकर आजतक मात्र भारतीय संस्कृति ही अपनी कुछ-कुछ अक्षुण्णता बनाए है,जबकि इस बीच कितनी ही संस्कृतियाँ आयी और सभी-की-सभी धराशायी होती चली गई।वर्णव्यवस्था की परम्परा हमारे

भारतवर्ष में पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुई है यदि आज तथाकथित जातियों का समापन करके गुण-कर्म-स्वभाव

के अनुरूप वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया जाये तो निश्चित ही सामाजिक विसंगतियों का शमन (नाश) हो

सकेगा और भारतीय संस्कृति की पताका पुनः अपनी श्रेष्ठ पदवी को प्राप्त कर सकेगी तथा ‘कृण्वन्तो

विश्वमार्यम्‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की उक्ति चरितार्थ हो सकेगी।

किसी कवि की पंक्तिएँ यहाँ सम्यक्तया चरितार्थ होती दिखायी देती हैं-

ऋषि ने कहा वर्ण शारीरिक, बौह्कि क्षमता के प्रतिरूप।

गुण कर्माश्रित वर्णव्यवस्था, है ऋषियों की देन अनूप।।

बौह्कि बल द्विजत्व का सूचक, भौतिक बल है क्षात्र प्रतीक।

धन बल वैश्यवृत्ति का पोषक, क्षम बल शुद्र धर्म निर्भीक।।

चारों वर्ण समान रहे हैं, छोटा बड़ा न कोई एक।

चारों अपने गुण-विवेक से, करते धरती का अभिषेक।।

-कार्यकारी सम्पादक,

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)