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प्रभु स्मरण के सात लाभ होते हैं

ओउम
प्रभु स्मरण के सात लाभ होते हैं
डा अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा हम सब का ,जन्मदाता है वही हम सब का पालन करता है , वही हम सब का पौषण करता है तथा वह प्रभु ही हम सब का संहार अर्थात मोक्षदाता है । भाव यह है कि हमारे जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत हमारा सब कुछ करने वाला वह प्रभु ही है । हम उसके आदेश के एक कदम भी अलग से नहीं चल सकते । जब हम उस प्रभु के आदेशके बिना
चार साधन है मोक्ष पाने के लिए
संसार का प्रत्येक प्राणी मोक्ष पाने की इचछ रखता है । यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है कि प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है । परंम सुख है जन्म मरण के बंधन से मुक्ति । इस बंधन से छुटने पर ही परम सुख मिलता है । इसलिए सब प्राणी जन्म मरण के बंधन से छुट कर मुक्ति पाने की कामना करते है । कामना तो सब करते हैं किन्तु इस मुक्ति के मार्ग को पाने के लिए जो उपाय बताये गए हैं , उनको करने का यत्न नहीं करते , उन पर चलने की प्रेरणा भी उनमें नहीं होती । परमपिता परमात्मा ने जीव को कर्म करने की स्वतंत्रता दी है । अत: कुछ कर्म हैं जिन के किये बिना मुक्ति का मार्ग नहीं मिल सकता । यह कर्म कौन से हैं , इन का वर्णन सामवेद के मन्त्र संख्या 51 में विस्तार से किया गया है । जो इस प्रकार है : –
प्र दैवोदासो अग्निर्देव इन्द्रो न मज्मना ।
अनु मातरं पृथिवी वि वाव्रते तस्थो नाकस्य शर्मणि ।।सामवेद 51 ।।
मानव अथवा जीव इस धरती पर जन्म लेकर अनेक प्रकार के कर्म करता है । अपने कर्म करने के पश्चात वह मृत्यु को प्राप्त होकर यहाँ से लौट जाता है । यहं से लौटने के पश्चात वह मोक्ष में जा कर वहां के सुखमय जीवन को प्राप्त करता है ।
मन्त्र का अंतिम भाग अथवा उतरार्ध भाग ऊपर वर्णित के अनुरूप स्पष्ट करते हुए कहता है कि इस पृथ्वी पर जीव का निवास कभी भी स्थायी न हो कर सदा अस्थायी ही होता है । अत: यहाँ से उसे निश्चित रूप से लौटना ही होता है । जैसे कोई मनुष्य प्रात:काल उठकर स्कुल पढ़ने को जाता है , तो कोई पढाने को, कोई कार्यालय में काम करने को जाता है तो कोई कार्यालय से अपना काम निकलवाने को । इस प्रकार संसार के सब प्राणी अपने निश्चित कार्य के लिए घर से बाहर जाते है । यदि किसी को कोई अन्य कार्य नहीं है तो वह भ्रमण के लिए ही चला जाता है किन्तु अपने निर्धारित कार्य की पूर्ति के पश्चात वह अपने घर अथवा अपने निवास पर लौट आते हैं , बाहर ही नहीं रह जाते । ठीक इस प्रकार ही परमपिता परमात्मा ने हमें इस पृथ्वी पर भेजा है । यह हमारा अस्थायी निवास है । परमात्मा ने हमें यहाँ कुछ समय के लिए अस्थायी रूप से भेजा है । इस लिए यहाँ से हमारा लौटना निश्चित है । हमारा स्थायी निवास तो उस पिता के चरणों में है, जिसे ब्रह्मलोक कहते हैं । हम ने जो यात्रा की है , जो कर्म किये हैं , उनके परिणाम स्वरूप हम यात्रा के, कर्म के कष्टों को सहने के परिणाम स्वरूप मोक्ष पाते हैं तथा फिर पूर्ण सुख व आनंद से रहते हैं ।
यह जीवन एक यात्रा है तथा यात्रा के भी अपने कुछ नियम होते हैं, कुछ सिद्धांत होते हैं , यात्री को इन नियमों का , इन सिद्धांतों का यात्रा के समय ध्यान रखना होता है । यह नियम दो प्रकार के होते हैं : –
!) यात्रा पर निकलने वाले व्यक्ति को यह ध्यान रखना होता है कि किस प्रकार से वह निकले कि उसकी यात्रा सरल , सुगम व सफल हो । इस के लिए उसे देखना होता है कि वह किस प्रकार के साधन अपना कर यात्रा करे कि उसे मार्ग में कम से कम कष्ट हों तथा मार्ग सफलता से कट जावे । उसे पता होना चाहिए कि अत्यधिक बोझ उसे थका देगा , वह सरलता से नहीं चल पावेगा । यह भी हो सकता है कि अति बोझ के कारण उसे मार्ग से ही लौटना पड जावे अथवा मार्ग में रुक रुक कर यात्रा करनी पड़े , जिस से यथा समय वह अपने गंतव्य पर न पहुँच सकेगा । इसलिए वह अपनी यात्रा में कम से कम बोझ अथवा सामान रखने का यत्न करता है । हमारा जीवन भी एक यात्रा है । अत: यह यात्रा भी कर्म के ताने बाने में बंधी है । इस यात्रा के मार्ग में हमारी आसुरी प्रवृतिया , काम , क्रोध आदि दुरित वासनाएं आदि बोझ हैं जो हमें इस जीवन यात्रा पर सुगमता से आगे नहीं बढ़ने देते । इन सब प्रकार के बोझों को अपने कर्मों के द्वारा कम करते हुए हम तेजी से अपने गंतव्य अर्थात मोक्ष मार्ग पर बढें । यह मोक्ष ही हमारा स्थायी निवास है , जहाँ हमें लौटना है ।
2) यात्रा में सदा आराम नहीं होता, अनेक प्रकार के कष्ट भी इस यात्रा में सहन करने होते हैं । कहीं स्नान की व्यवस्था नहीं तो कहीं नाश्ता नहीं मिलता, कहीं भोजन नहीं तो कहीं जलपान के बिना ही रहना होता है । इस प्रकार यात्रा में कई प्रकार की कठिनाईयों का सामना यात्री को करना होता है । तो भी यात्री किसी प्रकार अपना गुजारा करते हुए अपनी यात्रा की पूर्ति करता है । इस प्रकार ही हमारी जीवन यात्रा में हमारा ध्येय आराम न हो कर कर्म होना चाहिए । वास्तव में ध्येय तो हमारा मोक्ष है , ध्येय के साधन हैं कर्म । अत: अपने जीवन में हम सदा निर्माणात्मक कर्म करते हुए निरंतर मोक्ष मार्ग पर चलते चलें , तब तक चलते चलें , जब तक कि हमें हमारे ध्येय अर्थात मोक्ष को न पा लें । हमारा मोक्ष स्थान तो ब्रह्मलोक ही है । यही हमारा अंतिम निवास है । इस स्थान पर पहुँचने के निर्धारित साधन निम्न हैं , जिन साधनों को अपना कर ही हम इस उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं : –
क ) प्रभु का सेवक बनकर : –
ख ) आगे ले जाने वाला बने : –
ग ) खेल भावना से कर्म करें : –

कुछ भी नहीं कर सकते तो हमारे भी उस प्रभु के प्रति कुछ कर्त्तव्य बनते हैं । उन कर्तव्यों का पालन करना हमारा पुनीत कर्तव्य होता है । यदि हम अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते तो हम प्रभु के पुत्र कहलाने का अधिकार भी नहीं रखते । इन कर्तव्यों में प्रभु की स्तुति करना, प्रभु की प्रार्थना करना तथा प्रभु की उपासना करना मुख्य हैं । प्रभु स्तुति के अनेक प्रकार हैं, जिन में से सात प्रकार की स्तुति अथवा स्तुर्ती से होने वाले सात प्रकार के लाभ का वर्णन सामवेद के मन्त्र संख्या 45 में इस प्रकार किया गया है । : –
एना वो अग्निं नमसोर्जो नपातमा हुवे ।
प्रियं सतिष्ठमरतिन स्वध्वरं विश्वस्य दुतममृतम ।। सामवेद 45 ।।
मन्त्र में कहा गया है कि हे प्रभो ! आप अग्नि के सामान सब को आगे ले जाने वाले
हैं ।मैं आप को नम्रता से पुकारता हूँ क्योंकि प्रभु की आराधना नम्रता से ही संभव है । ज्ञान , धन व बल का गर्व करने वाला व्यक्ति कभी भी उस परम्पिर्ता परमात्मा का सच्चा आराधक नहीं बन सकता । प्रभु का आराधक बनाने के लिए गरव् को छोड़कर
नम्रता को ग्रहण करना होगा । अन्याथा हम केवल भटकते रहेंगे , प्रभु से नहीं मिला
सकेंगे ।

जब हम परमपितापरमात्मा की इस प्रकार की आराधना करते हैं तो हमें प्रभु के कुछ विशेषणों के रूप में कुछ लाभ प्राप्त होते हैं । मन्त्र में इस प्रकार के लाभों की संख्या सात बतायी गयी है । जो इस प्रकार है : –
1) आराधक में शक्ति का प्रवाह निरंतर चलता है : –
जिस प्रभु ने हमें इस संसार में भेजा है , वह प्रभु शक्ति को कभी गिरने नहीं देता, नष्ट नहीं होने देता । जब मनुष्य उस प्रभु से संपर्क करता है , उसकी आराधना करता है , उसकी स्तुति , उपासना करता है तो मनुष्य का संपर्क शक्ति के स्रोत उस प्रभु से जुड़ जाता है , जुड़ता ही नहीं उससे यह संपर्क निरंतर बना रहता है । जिस से किसी का संपर्क होता है , उसमें जैसी शक्तियां होती हैं , वैसी ही शक्तियां ( जो बुरी भी हो सकती हैं तथा लाभकारी भी ) ,उपासक को मिलती हैं । इस प्रकार जब मानव प्रभु की आराधना करता है , उसके संपर्क में आता है तो जिस प्रकार की शक्तियां उस प्रभु में होती हैं , वैसी ही ईश्वरीय शक्तियों का प्रवाह मानव में हो जाता है ।
2) आराधक का मन सदा प्रसन्न रहता है :-
ऊपर बताया गया है की प्रभु आराधना से ईश्वरीय शक्तियां मिलाती है । ईश्वरीय शक्तियों को पा कर मानव अपने आप को धन्य समझता है तथा प्रसन्नता से भाव विभोर हो उठाता है । इससे स्पष्ट होता है की प्रभु आराधक सदा प्रसन्न रहता है । यह तो सब जानते ही हैं की प्रसन्न व्यक्ति सदा स्वस्थ रहता है तथा धन धान्य से उसके कोष सदा भरे रहते हैं । इससे उसकी प्रसन्नता और भी बढाती है ।
3) आराधक को उत्कृष्ट ज्ञान मिलता है : –
परमपिता परमात्मा सब प्रकार के ज्ञान का आदि स्रोत होता है । जब हम परमपिता की प्रार्थना, उपासना पूर्वक स्तुति करते हैं तो वह प्रभु हमें अपनी गोदी में स्थान देकर हमें उत्तम ज्ञान देता है । इस प्रकार प्रभु आराधक को उत्तम से उत्तम ज्ञान देता है ।
4) आराधक को ब्रह्मानंद मिलता है : –
प्रभु भक्ति से आराधक को ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है । जब प्रभु भक्त अपनी आराधना के बल से प्रभु के साथ साक्षात्कार कर लेता है , प्रभु का साथ उसे मिल जाता है तो उसे असीम आनंद की अनुभूति होती है । अब उसके लिए प्रभु भक्ति के आनंद के सामने अन्य सब प्रकार के आनंद फीके दिखाई देते हैं । यह ही कारण है कि अब वह विषयों की और आकर्षित नहीं होता । ब्रह्मानंद के सामने उसे अन्य सब आनंद तूचछ दिखाई देते हैं । अत: वह विषयों से मिलने वाले रस से प्रीति को समाप्त कर ब्रह्मानंद में लीन होने का यत्न करता है क्योंकि अब उसे विषयों से मिलने वाला आनंद ब्रह्मानंद की प्रतिस्पर्धा में कुछ भी दिखाई नहीं देता ।
5) आराधक सदा उत्तम कर्मों में लग जाता है : –
जब आराधक को ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है तो उसे किसी पर हिंसा करने की आवश्यकता नहीं रहती , सब कुछ उसे उस प्रभु की शरण मात्र से ही मिल जाता है । अत: वह हिसा रहित हो कर उत्तमोत्तम कर्मों में लीन हो जाता है । इससे संसार का उपकार होता है तथा उसे और भी अधिक प्रसन्नता तथा आनंद मिलता है ।
6) आराधक के पास असुर प्रवृतियां नहीं आतीं : –
मानव की शरीर रूपी देवनगरी में जब आराधक की तपशचर्या से देवगण इस नगरी के अन्दर घुस कर इसे सप्त -ऋषियों का आश्रम बना देते हैं तो असुर प्रवृतियाँ बलात रूप से इस में घुस नहीं सकतीं क्योंकि असुर प्रवृतियों का उत्पातक प्रभु उन्हें सदा इस देवग्रह से दूर भगाता है , उन्हें पास नहीं आने देता ,अन्दर घुसने देने का तो प्रशन ही नहीं उठता । तभी तो सातवें लाभ के रूप में प्रभु आराधक को सब से बड़ा विजेता कहा गया है।
7 आराधक सब से बड़ा विजेता होता है : –
परमपिता परमात्मा मोक्ष का साधक होता है । वह अपने भक्तों को जन्म मरण के बंधनों से मुक्त कर मोक्ष में ले जाता है । इस प्रकार यह आराधक मृत्यु के भय से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । यह जो मुक्ति का मार्ग है , यह प्रभु आराधना से ही प्राप्त होता है । हम ऊपर बता चुके हैं कि प्रभु की आराधना नम्रता से होती है , अभिमान से नहीं । नम्रता से अभिमानादि दुष्ट वृतियों को पूर्णतया अपने वश में कर लेने से प्राप्त होती है । हम मन्त्र की भावना को तब ही आत्मसात कर यह सात लाभ पा सकते हैं जब हम नम्रता को ग्रहण कर स्वयं पर विजेता बनकर प्रभु आराधना में नम्रता के साथ निराभिमान हो कर जुटे रहेंगे । शत्रुओं पर तो अनेक लोग विजय कर लेते हैं किन्तु अपने आप पर विजय कोई ही पा सकता है , जो अपने आप पर विजय पा लेता है , वह सब से बड़ा विजेता होता है । यह विजय प्रभु आराधना से ही संभव होती है ।
अत: आओ हम प्रभु भक्ति के इन सात लाभों से साक्षात्कार करने के लिए सप्तारिशियों को पाने के लिए तथा प्रभु शरण के अधिकारी बनने के लिए नम्रता पूर्वक प्रभु की आराधना करें ।
डा अशोक आर्य

किस प्रभु की उपासना करें हम

औ३म
किस प्रभु की उपासना करें हम
डा. अशोक आर्य
प्रभु हमारे गन्तव्य है , प्रभु की प्राप्ति ही हमारा अन्तिम लक्श्य है। इस गन्तव्य को , इस लक्शय को हम अपना ग्यान बदाकर तथा प्रजा का पालन करने से ही प्राप्त किया जा सकता है । मानवीय वीरता किस बात में है ? यह अन्यों के दु:ख दूर करने में है, उन्हें सुखी करने में है। मानव मात्र को अग्नि की भान्ति बन कर स्वयं भी आगे बदना चाहिये तथा दूसरों को भी , उन के पथ प्रदर्शक बनकर , मार्ग दर्शक बनकर उन्हें भी आगे बटाना चाहिए । यह सब तब ही सम्भव है , जब मानव त्याग की भावना से कार्य करता है । इस तथ्य को सामवेद के मन्त्र संख्या २६ में इस प्रकार स्पश्ट किया गया है : –
नि त्वा नक्श्य विश्पते द्युमन्तं धीमहे वयम ।
सुदीरमग्न आहुत ॥ साम. २६॥
मानव जीवन का अन्तिम लक्श्य परमपिता परमात्मा की प्राप्ति है । परमपिता परमात्मा को पाने के लिये हमें अपने में ही प्रमपिता परमात्मा के समान गुणों को पैदा करना होता है यथा सर्वकल्याण की भावना, दूसरों का सहयोग , मार्गदर्शन करना आदि । इस ल्क्शय को ही सम्मुख रख हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं की हे प्रभो ! हम आपका ध्यान करते हुये आपको धारण करते हैं । आप ही हमारे गन्तव्य हो, हमारे अन्तिम लक्शय हो । जिस प्रकार अपने लक्श्य को पाने के लिये प्राणी हजारों यत्न करता है , उस प्रकार ही हम भी आप तक पहुंचने के लिये निरन्तर यत्न करते रहते हैं ।
परमात्मा ही हमारा अन्तिम लक्श्य है । उसकी प्राप्ति के मार्ग पर चलने से मानव को सन्तो्ष नहीं मिलता । मानव शक्तियों को जीर्ण करने का कमजोर करने का कारण भी अपार सम्पति तथा त्याग योग्य अनेक प्रकार के भोग्य पदार्थ होते हैं । इस ओर जाने से मानव का कल्याण सम्भव नहीं ।
जब प्रक्रति में स्वयं में ही आनन्द नहीं तो वह दूसरों को आनन्दित कैसे कर सकती है ? अर्थात प्रकर्ति से कोयी भी आनन्दित नहीं हो सकता । जब मानव आनन्द प्राप्त करना चाहता है तथा प्रक्रति आनन्द दे नहीं सकती फ़िर एकमात्र प्रभु ही आनन्द का स्रोत है , तो ही तो हम प्रभु की ओर जाते हैं तथा उसे ही अपना लक्श्य , उसे ही अपना अन्तिम गन्तव्य बनाते हैं । वह प्रभु सब प्रजाओं क पालक है, पित्रवत सब का पालन करता है । इस चल संसार में भी जो व्यक्ति पालन का कार्य करता है , उसे सब दु:खी लोग सम्मान की द्रिश्टी से देखते हैं । जब बिना किसी स्वार्थ के वह दु:खियों की सहायता करता है तो दु:खी लोग तो उससे प्राप्त दया के लिये उसके उपासक बनते ही हैं , अन्य लोग भी उसे सम्मान देने लगते हैं ।
परमपिता परमात्मा को पालक कहा गया है । पिता पालक क्यों है ? कैसे है ? परमपिता पर्मात्मा ज्योतिर्मय है , सब को ज्योति देने वाला है , ग्यान बांटने वाला है , प्रकाश फ़ैलाने वाला है । इस कारण उसे पालक कहा गया है क्योंकि वह ग्यान का प्रकाश देकर हमारा पालन करता है । इस प्रकार ही जो प्राणि ग्यान के मार्ग पर सेवा के मार्ग पर , दान के मार्ग पर जितना ही अग्र्सर होगा , उतना ही वह स्वार्थ से दूर होता चला जावेगा । जब स्वार्थ से दूर होगा तो परार्थ के कार्य करेगा, परोपकार करेगा , दूसरों की सहायता करते हुये प्रभु के से ही कार्य करेगा ।
परमात्मा सुवीर है
परमपिता परमात्मा हमें शोभन गति को प्राप्त कराने वाला होने के कारण उत्तम वीर भी है । उत्तम वीर किसे कहते हैं ? जो सदा दूसरे का हित देखे , दूसरे का हित चाहे, दूसरे के हित की बात करे, उसे उत्तमवीर कहा जाता है । परम पिता परमात्मा सदा दूसरों का , प्राणी मात्र का हितचिन्तक होने के कारण उत्तम वीर कहा जाता है । उपर कहा गया है कि परमात्मा के गुणों को अपनाना ही जीव को उत्तम बनाता है । अत: दूसरों की सहायता करना, दूसरों का मार्गदर्शन आदि करना भी मानव को उस पिता की ओर ले जाता है । ओरों का हित करने से परमपिता परमात्मा सुवीर है तो हम भी उसका अनुकरण करते हुये सुवीर बनने का यत्न करें ।
परमात्मा सब को आगे की ओर ले जाता है
परमपिता परमात्मा सब प्राणियों को सदा आगे की ओर ले कर चलता है । सब की उन्नति चाहता है । सबकी प्रगति चाहता है । सबका कल्याण चाहता है । इसलिये वह परमात्मा आहुत कहलाता है । उस परमात्मा ने हमारे चारों ओर उत्तम पदार्थों को हमारे उपभोग के लिये निर्माण कर रखा है । इतना ही नहीं हमारे उत्कर्श के लिये, हमारे उत्थान के लिये जितने भी आवश्यक पदार्थ होते हैं ,उन सब को हमारे लिये जुटा कर दिया है । यदि हमारे में ग्यान है तो हम इन पदर्थों का उपयोग करते हैं, यदि हमारे में ग्यान का अभाव है , जिस कारण हम इन पदार्थों का सदुपयोग नहीं कर पाते, यह एक भिन्न बात है । परमपिता ने तो हमारे लिये सब साधन बना दिये । अब हमारे अन्दर इतनी बुद्धि होनी चाहिये कि हम इन पदार्थों को अपने जीवन को सुखी बनाने के लिये कैसे प्रयोग करें । यदि हमारे पास एसा ग्यान ही नहीं है कि हम इन वस्तुओं के प्रयोग को समझ कर इन्हें उपयोग में ला ही न सकें तो इस में परमात्मा का क्या दोश है ? हम अपने ग्यान को बदायें तथा इन सब साधनों का सदुपयोग करें ।
वास्तव में जो व्यक्ति प्रभु का ध्यान करता है , प्रभु के बताये मार्ग पर चलता है, उस के आदेश में रहता है वह कभी भी अपने आप को भोगवाद के मोह में नहीं जाने देता, कभी भोगवाद का शिकार नहीं होता । उस प्रभु की छाया में रहने वाला व्यक्ति सदा अपने को काबू में रखता है , अपने आप पर अंकुश लगाये रखता है । इस प्रकार वह अपने आप को साधारण नहीं विशिस्ट व्यक्तित्व का धनी बनाता है तथा संसार एसे व्यक्ति का आदर करता है , मान देता है, उसकी यश व कीर्ति को दूर दूर तक ले जाता है ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु के समीप बैठने का अधिकार केवल तीन प्रकार के लोगों को

ओउम
प्रभु के समीप बैठने का अधिकार केवल तीन प्रकार के लोगों को
डा अशोक आर्य
संसार का प्रत्येक प्राणी परमपिता परमात्मा की गोदी चाहता है । माता की गोदी से उत्तम स्थान बालक के लिए कोई अन्य हो भी नही सकता । परमा[पिता परमात्मा हम सब की माता है , इस कारण हम सब प्राणी उस की गोदी पाने के अधिकारी हैं । वह प्रभु हम सब का पिता भी है , इस कारण भी हम सब उस की गोदी में बैठने के अधिकारी हैं । अधिकारी होते हुए भी परमात्मा सब प्राणियों को समान रूप से अपनी गोदी में नहीं लेता अपितु कुछ विशेष प्रकार के गुणों से युक्त प्राणियों को ही अपनी समीपता प्रदान करता है । सामवेद के मन्त्र संख्या 18 में इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए बताया गया है कि केवल ती न प्रकार के ही प्राणी हैं, जिन्हें वह प्रभु अपने समीप आसन लगाने की अनुमति देता है , इन तीन प्रकार के प्राणियों को ही वह अपनी गोदी में स्थान देता है यथा : –
और्वभ्रिगुवचछूचिम्प्नवानवदा हुवे ।
अग्निं समुद्रवाससम ।। साम 18 ।।
इस मन्त्र में कहा गया है कि मैं अपने प्रभु को और्व के सदृश , भृगु की भांति तथा अपनावान की तरह शुचि , अग्नि तथा समुद्रवासस उस प्रभु को पुकारता हूँ , आह्वान करता हूँ , स्मरण करता हूँ । यह हमारी वैदिक संस्कृति का एक नियम है कि हम जिसे पुकारते हैं, जिस की उपासना करते हैं, स्तुति करते हैं, प्रार्थना करते हैं , हम उस जैसा बनने का प्रयास करते हैं , यह ही उपासना का ठीक व सही मार्ग है । यदि हम उस के गुणों को ग्रहण ही नहीं करना चाहते तो हम उसकी उपासना ही क्या करेंगे ? यदि हम विष्णु की उपासना करने की इच्चा रखते हैं तो हमें सर्वप्रथम विष्णु के गुणों को समझ कर धारण करना होगा, तब ही हम विष्णु की उपासना के अधिकारी बनते हैं ।
1) प्रभु की उपासना के लिए ह्रदय का निर्मल व विशाल होना आवश्यक : –
इस नियम के आलोक मैं मन्त्र में जिन तीन विषयों की चर्चा की गयी है , उनमें से प्रथम विषय है प्रभु के स्वरूप का । हमारे वह प्रभु निर्मल हैं । यदि हमुस निर्मल प्रभु की उपासना करने के अभिलाषी हैं तो हम स्वयं को भी निर्मल बनावें । हम उस और्व प्रभु की उपासना करना चाहते हैं तो हम स्वयं को भी और्व अर्थात उरु की संतान के सदृश्य विशाल बनावें । उदार हृदय बनावें । विशालता का सम्बन्ध पवित्रता से होता है जबकि संकोच में अपवित्रता आती है । उस शुची अर्थात विशाल प्रभु की उपासना का अधिकारी तो वह प्राणी ही हो सकता है जिसमें विशालता के गुण हों । यूँ भी कह सकते हैं की जो अपकारियों के लिए , हनी करने वालों के लिए भी विशाल ह्रदय रखता हो वह ही उस विशाल व शद्ध स्वरूप प्रभु की उपासना का अधिकारी है ।
मन्त्र के इस प्रथम विषय के आधार पर ही कहा जाता है कि प्रभु भक्त सदा निर्मल व विशाल ह्रदय होता है । प्रभु की उपासना के लिए बैठने से पूर्व इस कारण ही शाब्दिक आर्थ के अनुसार प्राणी स्नानादि करने के पश्चात ही आराधना पर बैठता है किन्तु मन्त्र इस शाब्दिक अर्थ को नहीं लेता । मन्त्र का भाव है कि हम अपने ह्रदय की शुद्ध , पवित्र व निर्मल कर विशालता को ग्रहण कर प्रभु की उपासना करें । प्रभु चिंतन के समय किसी प्रकार की चिंता, शौक हमारे अन्दर न हों , इस लिए जिसने हमारा अपकार भी किया हो , उसे भी अपने ह्रदय में न रखें । हमारा वह प्रभु पवित्र है, हम भी पवित्र हों , हमारा वह प्रभु क्षमाशील है , हम भी क्षमाशील बनें । प्रभु के गुणों को अपनाये बिना उसके समीप जाना तथा उसकी आराधना करने का कोई लाभ नहीं । इस लिए प्रभु की उपासना, आराधना करते समय हम भी उस प्रभु जैसा बनने का यतना करें । यही ही हमारी निर्मलता है , यही है हमारी विशालता है ।
2) प्रभु को पाने के लिए तप्श्कार्या से परिपाक करो : –
मन्त्र में जो दूसरी बात पर प्रकाश डाला गया है वह है कि प्रभु का जो उपासक है , वह भृगु है , जो अग्नि की उपासना करता है । अग्नि ज्ञान को भी कहते हैं । इस आलोक से स्पष्ट होता है कि हमारा वह पिटा ज्ञानाग्नि का पूंजा है , केंद्र है । उस प्रभु की उपासना किसी आचार्य के समीप रह कर ही की जा सकती है । इतना ही नहीं आचार्य के समीप रहते हुए तपश्चर्या की अग्नि में स्वयं को परिपाक कर कुंदन बनाकर ग्यानी बनाने का यत्न किया जाता है ।
मन्त्र के इस भाग के आलोक में ही हमारे संतों ने गुरुकुल परम्परा का आरम्भ किया था , जहाँ ज्ञान के अभिलाषी प्राणियों को एकत्र कर उन्हें तपश्चर्या पूर्ण जीवन बिताने का ढंग बताया जाता था । कठिन तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए उन्हें ज्ञान का दान दिया जाता था । आज जो ज्ञान हम स्कूलों , कालेजों में ले रहे हैं , उसमें किसी प्रकार की तपश्चर्या न होने से ही विद्यार्थी विकृत हो रहे हैं । हमारा उद्देश्य तो है उस ज्ञानस्वरूप प्रभु को पाने का किन्तु हम वासनाओं को छओड ही नहीं रहे उस ज्ञान स्वरूप प्रभु जैसा बनने का यत्न ही नहीं कर रहे तो ज्ञान कैसे पा सकते है ? अत: पहले हमें तपोमय जीवन बनाकर ही उपासना करनी होगी तब ही ज्ञान के अधिकारी बनेंगे ।
3) जीवन को कर्म के ताने बाने में बुनें : –
मन्त्र में जो तीसरी बात प्रकाशित की गयी है ,वह है उपासक ,प्रभु को पाने का अभिलाषी अप्नवान ।अप्नवान भी एसा,जो समु-द्रवासस को उपास्य बनाता है । अपन से भाव होता है कर्म तथा वान का भाव है जीवन । इससे स्पष्ट होता है जीवन को कर्मों से भरपूर बनाना तथा सदा किसी न किसी कर्म में लिप्त रहना ही इस अर्थ में आता है । अत: जो व्यक्ति सदा अपने जीवन में कर्म करता रहता है वह अप्नवान होने से प्रभु का प्यारा है । जो आलसी है, निठल्ला है , कभी कुछ करता ही नहीं , एसे व्यक्ति को प्रभु कभी पसंद नहीं करता । इस मैं भी वानं शब्द का अर्थ होता है बुनना । जिस प्रकार ताने बाने के बिना वस्त्र नहीं बुना जा साकारता , उस प्रकार ही जीवन भी किसी विशेष ताने बाने से बुने गए व वस्त्र के सामान ही है । कुछ विशेष नियमों के अंतर्गत ही चलता है ।
मन्त्र में एक अन्य बात की और ध्यान दिलाते हुए बताया गया है कि वह प्रभु समुद्रवासस होता है । वह अर्थात वह ही उस प्रभु का उपासक हो सकता है जो समुद्रवासस हो । का भाव है जिसका निवास आनंद के साथ है । प्रभु तो वास्तव में ही आन्दमय होता है । सदा क्रियाशील रहना प्रभु का स्वभाव होने से यही उसकी आनंदमयिता का रहस्य है । क्रियाशीलता के बिना तो आनंद मिल ही नहीं सकता । जो व्यक्ति पूरा दिन निठल्ला रहता है, पूरा दिन सोया ही रहेगा, उसे सांसारिक दू:ख , क्लेश घेर लेते हैं , वह शोक , कष्ट में ही रहता है । उसे कभी आनंद का आभास भी नहीं होता ।
अत; क्रियाशीलता के बिना आनंद मिल ही नहीं सकता । जब हम ग्यानी बनकर कर्म करते हैं , ज्ञानपूर्वक कर्म करते हैं तो हम आनंद प्राप्ति के साधन को अपना रहे होते हैं , परिणाम स्वरूप हमें आनंद मिलता है । यह ही आनंद प्राप्ति का साधन होता है । जब हम इस भावना से कर्म करते हैं तो हमारे सब कर्म पवित्र होते हैं , पवित्र भावना से जो किये जाते हैं । पवित्र व उदार कर्मों में ही शुचिता होती है , इन सब का परिणाम भी आनंद कारक व लाभदायक ही होता है ।
डा अशोक आर्य

अच्छे कम करने से आयु लम्बी होती है

ओउम
अच्छे कम करने से आयु लम्बी होती है
डा. अशोक आर्य
प्रत्येक प्राणी की अभिलाषा होती है कि वह लम्बी, अत्यंत लम्बी आयु प्राप्त करे | आयु लम्बी ही नहीं सुखमय भी हो | दु:खों से भरी छोटी सी आयु भी जीवन को जीने का आनंद प्राप्त करने नहीं देती | दु:खों से भरा प्राणी सदा इस संसार से छुटकारा पाना चाहता है | जब आयु सुखों से भरी हो तो कितनी भी लम्बी हो , इस में प्राणी प्रसन्न ही रहता है | इस लिए ही वह सुखों से भरपूर दीर्घ आयु की कामना करता है | दीर्घ आयु के अभिलाषी को कर्म भी ऐसे ही करने होते हैं , जिस से वह प्रसन्न चित रह सके , द्रश्य भी ऐसे देखने होते हैं , जो उस की प्रसन्नता को बढ़ा सके | संवाद भी ऐसे सुनने होते हैं , जो उस की खुशियों को बढ़ा सकें | बोलना भी एसा होता है, जो अच्छा हो ताकि प्रतिफल में उसके कानों में संवाद भी अच्छे ही पड़ें | इस निमित ऋग्वेद के मन्त्र १.८९.८ तथा यजुर्वेद के मन्त्र २५.२१ ; सामवेद के मन्त्र १८२४ ; तैतिरीय ; आर. १.१.१ में बड़ा सुन्दर उपदेश किया गया है : –
भद्रं कर्नेभी: श्रुणुयाम देवा ,
भद्रं पश्येमाक्श्भिर्यजत्रा |
स्थिरैरंगेर्स्तुश्तूवान्सस्तानुभी –
व्यशेमही देवहितं यदायु: || ऋग्वेद १.८९.८ ; यजुर्वेद २५.२१;
सामवेद १८२४ ;तैतिरीय ;आर.१.१.१ .||
शब्दार्थ : –
(यजत्रा:) हे पूजनीय ( देवा: ) देवो ! ( कर्नेभी:) हमारे कानों में (भद्रं) मंगल (स्रुनुयाम) सुनें (अक्षभि:) आँखों से (भद्रं) अच्छा (पश्येम) देखें (स्थिरे) पुष्ट (अन्गई) अंगों से (तुश्तुवान्सा) स्तुति कर्ता (तनुभी:) अपने शरीरों से (देवहितं) देवों के हितकर (यात आयु:) जो आयु है उसे (व्यशेमही ) पावें |
भावार्थ : –
यह मन्त्र दो बातों पर विशेष बल देता है | यह दो बातें ही मानव जीवन का आधार है | यह दो अंग ही मानव का कल्याण कर सकते हैं तथा यह दो अंग ही मानव को विनाश के मार्ग पर ले जा सकते हैं | यदि हम इन दोनों को अच्छे मार्ग पर ले जावेंगे , सुमार्ग पर लेजावेंगे , अच्छे कार्यों के लिए प्रयोग करेंगे तो हम जीवन का उद्देश्य पाने में सफल होंगे | अन्यथा हम जीवन भर भटकते ही रहेंगे , कुछ भी प्राप्त न कर सकेंगे | यह दो विषय क्या हैं , जिन पर इस मन्त्र में प्रकाश डाला गया है , यह हैं : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छा ही सुनें
२. हम अपनी आँखों से सदैव अच्छा ही देखें
विश्व का प्रत्येक सुख इन दो विषयों से ही मिलता है | हमारी शारीरिक पुष्टि भी इन दो कर्मों से ही होती है | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सुख की खोज मैं भटक रहा है किन्तु वह जानता नहीं की सुख उसे कैसे मिलेगा ? | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सदा प्रसन्न रहना चाहता है किन्तु वह यह नहीं जानता की प्रसन्न रहने का उपाय क्या है ? जीवन पर्यंत वह इधर से उधर तथा उधर से इधर भटकता रहता है किन्तु न तो उसे सुख के ही दर्शन हो पाते हैं तथा न ही प्रसन्नता के | हों भी कैसे ? जहाँ पर सुख से रहने का , प्रसन्नता से रहने का साधन बताया गया है , वहां तो जा कर खोजने का उस ने उपाय ही नहीं किया | वेदों के अन्दर यह सब उपाय बताये गए हैं किन्तु इस जीव ने वेद का स्वाध्याय तो दूर उसके दर्शन भी नहीं किये | किसी वेदोपदेशक के पास बैठ कर शिक्षा भी न पा सका | फिर उसे यह सब कैसे प्राप्त हो ? वेद कहता है कि हे मानव ! यदि तू सुखों की कामना करता है , यदि तू जीवन में प्रसन्नचित रहना चाहता है , यदि तू हृष्ट पुष्ट रहना चाहता है , यदि तू दीर्घ आयु का अभिलाषी है तो वेद की शरण में आ | वेद तुझे तेरी इच्छाएं पूर्ण करने का उपाय बताएगा | प्रस्तुत मन्त्र में भी मानव को सुखमय , संपन्न व प्रसन्न – चित रहने के उपाय बताये हैं |
यदि मानव आजीवन सुखी रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन प्रसन्न रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन निरोग व स्वस्थ रहना चाहता है तो उसे अपने आप को कुछ सिद्धांतों के साथ जुड़ना ही होगा , कुछ नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | बिना नियम बध हुए कोई भी कार्य सफल नहीं होता , संपन्न नहीं होता | कर्तव्य परायण व्यक्ति , दृढ प्रतिज्ञ व्यक्ति के लिए यह नियम अत्यंत ही सरल होते हैं किन्तु कर्म से जी चुराने वाले के लिए , पुरुषार्थ से भागने वाले आलसी के लिए यही नियम ही कठोर बन जाते हैं , जिन्हें करने से वह जी को चुराता है | किसी को चाहे यह नियम कठोर लगें या किसी को सरल किन्तु सुख की कामना के लिए,, प्रसन्नता पूर्ण जीवन की प्राप्ति के लिए , निरोग शरीर को पाने के लिए तथा लम्बी आयु के लिए इन नियमों का पालन आवश्यक है | इसके बिना कोई अन्य मार्ग उसके पास नहीं है | बस इस के लिए अपने पास अच्छे व सुलझे हुए विचारों का स्वामी होकर मन को अपने वश में रखना होगा ,इन्द्रियों को वश में करना होगा तथा अपने में सात्विक भाव जगा कर कर्मशील होना आवश्यक है | यदि हम स्वयं को इस प्रकार चला पाने में सफल होते हैं तो मन्त्र में वर्णित नियम हमें सरल ही लगेंगे | यदि हमारा मन ही हमारे वश में नहीं है , यदि हमारे विचार ही विश्रन्खल हैं , यदि हमारा अपनी इन्द्रियों पर ही अधिकार नहीं है तथा हम में कोई सात्विक भाव ही नहीं है तो सुखों की आराधना के लिए जो नियम बनाए गए हैं, वह अत्यंत कठोर लगेंगे | जो इन नियमों को अपने जीवन में अंगीकार कर लेगा , वह सुखी व प्रसन्न होगा, धन ऐश्वर्यों का स्वामी होगा तथा लम्बी आयु पाने का अधिकारी होगा अन्यथा भटकता ही रहेगा |
कठोर अनुशासन के बंधन में बंधे बिना कभी कोई उपलब्धि नहीं मिला करती | सफलता सदा उसी को ही मिलती है जो कठोरता से नियमों के पालन का व्रत लेता है | अत- स्पष्ट है की जीवन में कठोर अनुशासन लाये बिना , नियमों का कठोरता से पालन किये बिना न तो सुख मिल सकता है न ही समृद्धि | यदि सुख , समृद्धि ही नहीं पा सके तो प्रसन्नता कहाँ से होगी | फिर प्रसन्नता के बिना लम्बी आयु भी संभव नहीं | अत: लम्बी आयु की कामना करने वालों को कठोर नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | प्रस्तुत मन्त्र भी इन दो बातों पर ही प्रकाश डालता है | मन्त्र कहता है कि : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छी बातें ही सुनें | अच्छी चर्चा से मन प्रसन्न होता है | प्रत्येक मानव जो भी कार्य करना चाहता है , वह अपनी प्रसन्नता के लिए ही करता है | अत: अपनी प्रसन्नता के लिए अच्छी चर्चाओं को ही सुनना चाहिए | अच्छी चर्चा को सुनकर मन को प्रसन्नता मिलेगी | प्रसन्न मन सदा राग – द्वेष से दूर रहता है | अत: राग – द्वेष के रोग से भी छुटकारा मिलेगा | ह्रदय के शांत बनने से जीवन में पवित्रता आवेगी | जिस का जीवन पवित्र है उसको सदा अच्छे मित्र अथवा सहयोगी मिलते हैं , जिससे उसकी ख्याति सर्व दिशा में फ़ैल जाती है |
२. मन्त्र कहता है कि हम यदि सुखी, संपन्न व प्रसन्न और स्वस्थ रह कर लम्बी आयु पाना चाहते हैं तो आँखों से सदा अच्छे दृश्य ही देखें | अच्छे दृश्य देखने की अभिलाषा रखने वाले की आँख कभी कुवासना , दूषित मनोवृति के दृश्य देखना पसंद ही नहीं करेगी | दूसरे शब्दों में एसा व्यक्ति स्वयमेव ही कुवासना तथा दूषित मनोवृति को अपने पास आने ही नहीं देगा | जब हम कुवासना से रहित होंगे | गंदे व दूषित वातावरण से दूर रहेंगे तो हमें मित्र , सहयोगी व प्रिय लोगों के ही दर्शन होंगे | ऐसे सहयोगी मिलेंगे , ऐसे मित्र मिलेंगे जो इन दु:खो क्लेशों से दूर रहते हुए शुद्ध मन के निर्माण के लिए शद्ध भावना रखते होंगे | जब हमारा अनुगमन व मार्ग दर्शन ऐसे स्वच्छ साथियों के हाथ में होगा तो हमारे में घृणा व कटुता की कोई भावना आ ही नहीं सकेगी | मात्सर्य तथा मनोमालिन्य के अवसर कभी आवेंगे ही नहीं | उत्तम मित्रों में बैठ कर प्रत्येक क्षण उत्तम चर्चाएँ होने से कानों में सदैव मधुर स्वर ही पडेंगे ऐसे मित्रों के साथ यात्रा भी करेंगे तो आँखें भी सदा सुन्दर दृश्य ही देख पावेंगी क्योंकि सद्मित्र कभी बुरा नहीं देखते |
स्पष्ट है की इन दोनों नियमों के पालन से हमारे संयम को पुष्टि मिलेगी | संयम पुष्ट होने से शरीर स्वस्थ रहेगा | जब शारीर स्वस्थ व निरोग होगा तो मन प्रसन्न रहेगा | स्वस्थ शरीर व प्रसन्न मन ही दीर्घ आयु का आधार होते हैं | इस प्रकार इन दो नियमों के पालन का परिणाम ही दीर्घ आयु की प्राप्ति है | जब मात्र दो नियमों के पालन से हमें सुख , समृद्धि , पुष्टि , संयम , स्वास्थ्य , निरोगता , प्रसन्नता व दीर्घायु के साथ ही साथ अच्छे मित्र व सहयोगी भी मिलेंगे , यश व कीर्ति भी मिलेगी तो इन्हें अपनाने से कौन इंकार करेगा | जब एक साथ इतना कुछ मिलेगा तो इस नियम पालन से हम परहेज कैसे कर सकते हैं ? निश्चय ही पाल करेंगे | – डा. अशोक आर्य

सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें

ओउम
सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें
डा. अशोक आर्य
मानव प्रतिक्षण बुराईयों से घिरा रहता है . बुरा मार्ग जीवन का एक सरल मार्ग होता है , जिस प्र चलाकर वह शीघ्र ही धनपति बनाना चाहता है क्योंकि वह जानता है की सुखों की प्राप्ति धन से होती है . जब धन की प्राप्ति ताप से, पुरुषार्थ से होती है . ताप व पुरुषार्थ से उतना धन नहीं मिलता, जितना पाने की वह अभिलाषा रखता है , इसलिए उसे बुराई का मार्ग पकड़ना होता है . बुरे मार्ग से वह शीघ्र ही अपार धनो का स्वामी हो जाता है किन्तु यह अपार धन भी उसे सुखी नहीं होने देता . उसका मन उसे प्रत्येक समय धिक्कारता रहता है की तुने यह धन किसी से छिना है, किसी को दुःख देकर पाया है, यह किसी दुसरे का अधिकार था जिसे तुने ले लिया, इससे आशीर्वाद नहीं मिला सकता, यह धन कभी अपमान का , कभी तिरस्कार का कारण बन सकता है . इन विषयों को मन में ला कर वह सदा दुखी रहता है , रुग्न हो जाता है . चिकित्सक उसे दूध घी आदि पदार्थों के सेवन से ओकते हैं . इस प्रकार द्वार प्र कड़ी सैंकड़ों गाय धन के होते हुए भी वह दूध, घी, मक्कन आदि का उपभोग नहीं कर सकता . इसलिए ही कहा गया है की हम अपने अन्दर से बुराईयों को निकल बाहर करें. यजुर्वेद में भी इस विषय में ही चर्चा करते हुए इस प्रकार कहा गया है :-
माँ भेर्मा संचिक्या उर्ज घत्स्व ,
घिषने विड्वी सति विड्येथाम ,
उर्ज दधाथाम .
पाप्मा हटो न सोमा .. यजुर्वेद ६ .३५ ..
मन्त्र का भाव है कि : –
हे मानव ! तुम न तो डरो और न ही कांपो . अपने अंदर साहस ( शक्ति विशेष ) ग्रहण करो . हे द्युलोक और पृथ्वीलोक ! जिस प्रकार तुम दोनों दृढ हो, उस प्रकार हमें भी दृढ़ता दो .हमें शक्ति दो ताकि हमारे पाप नष्ट हों किन्तु सद्गुण नष्ट न हों .
यह मन्त्र हमें दो उत्तम शिक्षाएं देता है : –
१). हम कभी दरें नहीं : –
मन्त्र सर्वप्रथम यह उपदेश देता है कि हम कभी डरें नहीं तथा हम साहसी हों . स्प्सष्ट है कि जहाँ डर नहीं , वहां साहस ही काम करता है . जब तक डर है , जब तक भय है , तब तक साहस को ह्रदय मंदिर का प्रवेश द्वार बंद ही मिलता है, इस कारण वह मनुष्य के हृदयों में प्रवेश कर ही नहीं सकता . ज्यों ही भय बाहर आता है तो प्रवेश द्वार खुल जाता है तथा साहस तत्काल इसमें प्रवेश कर जाता है . इस लिए ही मानव को कहा गया है कि हे मानव ! तुम डरो नहीं सदा साहसी बने रहो. जिस प्रकार भयभीत व्यक्ति के अन्दर साहस प्रवेश नहीं कर सकता, उस प्रकार ही साहसी के अंदर भय भी प्रवेश नहीं कर सकता .
डरपोक व भीरु व्यक्ति तो प्रतिक्षण भय से ही भयभीत रहता है . जो दुःख आ गया, जो कष्ट आ गया, उस से तो प्रत्येक व्यक्ति ही डरता है, उसके भय से बचने का यत्न करता है किन्तु जो भयभीत व्यक्ति होता है, वह न आये कष्ट से ही भयभीत होता रहता है . उसे इस बात का कष्ट होता है कि कहीं उसे हानि न हो जावे, कहीं कोई चोर उसकी सम्पति का न उडा ले जावे, कहीं कोई उसको चोट न पहुंचा देवे , इस प्रकार के भय से वह प्रति घड़ी भयभीत रहता है . इस का कारण भी है , उसके पास जो भी आकूत धन वैभव होता है वह दूसरे से छीना होता है, दूसरे के अधिकार पर अतिक्रमण कर पाया होता है, दूसरे के कष्टों का परिणाम होता है . स्वयं का इसमें कुछ भी पुरुषार्थ नहीं होता. अत: जिस प्रकार उसने यह धन अर्जित किया होता है, कोई अन्य उससे भी अधिक शक्तिशाली व्यक्ति उससे भी छीन सकता है, यह भय ही उसे सदा सताता रहता है . जो अभी जीवन में देखा नहीं , कहीं वह सामने न आ जावे , इस अनागत भय से वह भयभीत रहते हुए धीरे धीरे रोग ग्रस्त हो जाता है तथा कई बार तो अपनी जीवन लीला भी इस कारण समाप्त कर बैठता है .
इस लिए वेद मन्त्र कहता है कि हे मानव ! तू जीवन में ऐसे काम कर कि भय तेरे पास न आवे . यदि तू अच्छे साधन अपनावेगा तो सदा सुखी रहेगा, किसी प्रकार का भय तेरे पास तक भी न आवेगा, अच्छे काम करने से सब लोग तेरे बताये मार्ग पर बढेंगे , तेरी मित्र मंडली में भी अच्छे लोगों की वृद्धि होगी, जो तेरे यश व कीर्ति को दूर दूर तक ले जाने का कारण बनेंगे . इस लिए बुराईयों को छोड़ तथा साहसी बन .
२). पापों को नष्ट करें :-
मनुष्य जो प्रति क्षण अनागत भय से सदा कांपता रहता है, अनागत भय से ही सदा भयभीत रहता है , उसका कारण होता है उसका अपना ही पाप से भरपूर आचरण . वह अपने आचरण को पाप पूर्ण मार्ग पर चलाता है ,प्रति घडी वह दूसरों का अहित सोचता रहता है . वह स्वयं तो पुरुषार्थ करता नहीं, स्वयं तो मेहनत करता नहीं किन्तु अत्यधिक धन वैभव को प्राप्त करने के लिए दूसरों के पुरुषार्थ से प्राप्त धन को बलात छीनने का यत्न करता है . दूसरे की सम्पति को स्वयं पाने के लिए गलत मार्ग पर चलता है. इस निमित लुट – पाट तथा मार – काट तक की चिंता नहीं करता. अनेक बार तो वह अपने ही सगे – सम्बन्धियों की सम्पति पाने के लिए उनका बध तक करने में भी संकोच नहीं करता . अर्थात रिश्तों से अधिक वह संपत्ति को , धन को अधिमान देने लगता है . इस प्रकार से हस्तगत हुयी सम्पति ही उसकी चिंता का कारण बन जाती है .एसा कोई क्षण नहीं होता, जब उसको यह चिंता न सता रही हो कि उसने जो सम्पति दूसरे से अर्जन की है, वह अपनी इस सम्पति को वापस पाने के लिए अपने आप को सशक्त कर अथवा किसी शक्तिशाली का सहयोग ले उसे भी हानि न पहुंचा देवें, उससे अपनी सम्पति पुन: वापिस न छीन लेवें, उसका किसी सभा मैं अपमान न कर देवें . यह चिंता उसे अन्दर ही अंदर खाते हुए रोगी कर देती है, अन्दर से खोखला कर देती है ,जिस कारण वह खाना पीना तक छोड़ देता है . फिर इस प्रकार से अर्जित की संपत्ति का उसे क्या लाभ .?
जब वह इस सम्पति को बिना पुरुषार्थ के प्राप्त करता है तो अनेक प्रकार के दुर्व्यसन भी उसे घेर लेते हैं . भयभीत अवस्था में रहने के कारण वह इस भय से मुक्त होने के लिए प्रयास करता है किन्तु भय है कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ता . इस भय से बचने के लिए तथा उडी हुयी नींद को पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की बुराईयों का सहारा लेने के लिए बाधित होना पड़ता है . इन बुराईयों में जो बुराई उसे सबसे सरल लगती है ,सर्वप्रथम उसे अपने जीवन का अंग बना लेता है , इस बुराई का नाम है नशा. वह नशा करने लगता है . नशा में वह आरम्भ तो शराब व तम्बाकू से करता है किन्तु धीरे धीर सब प्रकार के नशों का वह आदि हो जाता है . उसकी मित्र मण्डली में भी इस प्रकार के लोग ही आ जाते हैं जो तम्बाकू, शराब, स्मैक का नशा लेते हैं तथा जुआ व वेश्यागमन भी करते हैं , वह भी उन सब का साथ बखूबी निभाने लगता है, जिससे उसके अन्दर से दया की भावना चली जाती है तथा जो धन उसने दूसरे पर क्रूरता करके छीना था , वह भी धीरे धीरे लुप्त होने लगता है. उसके परिवार व मित्रों में भी उसके साथ लडाई -झगडा व कलह होने लगती है . परिवार की शान्ति भी नष्ट हो जाती है . शान्ति के नष्ट होने का प्रभाव स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगता है, स्वास्थ्य भी धीरे धीरे गिरने लगता है , इन्द्रियां शिथिल होने लगती हैं तथा चारपाई ही उसका सहारा बन जाती है .
जब वह दुर्व्यसनों में फंस जाता है तो उसकी सात्विक वृति नष्ट हो जाती है . जिससे उसका ह्रदय निर्बल हो जाता है . उसका मनोबल भी धीरे धीरे गिरता ही चला जाता है . इतना ही नहीं उसके शरीर के मुख्य अंग कांपने लगते हैं . जिसमें मनोबल ही नहीं रहा , शरीर के सब बल , सब शक्तियां निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति का साथ छोड़ जाती हैं . इस लिए यह मन्त्र शिक्षा देता है कि : –
यदि अपने ह्रदय को साहस से भरपूर रखोगे , अपने शरीर में शक्ति तथा उत्साह बनाए रखोगे तथा आने वाली विपत्ति का प्रतिकार करने के लिए तैयार रहोगे , तो तुम्हारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता . कहा भी है कि जब मनुष्य में साहस आ जाता है, जब मानुष में शौर्य आ जाता है, जब उसमें वीरता आ जाती है तो उसका सब भय स्वयं ही काफूर हो जाता है . इसलिए नीतिशास्त्र यह शिक्षा देता है कि भय से तब तक ही डरो , जब तक वह दूर है . किन्तु भय के समीप आने पर उससे छुपने से वह हमारे नाश का कारण होता है अत: भय समीप आने पर उसका तत्काल प्रतिकार करो . प्रतिकार के लिए हमारी बुद्धि तत्काल जो भी उपाय बताये , उस पर चलते हुए उसका प्रतिकार करो , उसका मुकाबला करो . साहसी बन कर जब मुकाबला करोगे तो भय टिक न पावेगा तथा आपसे दूर भाग जावेगा .
आचार्य विष्णु शर्मा ने एक राजा के बिगड़े हुए राजकुमारों को शिक्षित करने के लिए एक नीति ग्रन्थ की रचना की थी, जिसका नाम रखा था हितोपदेशे . संस्कृत में लिखे इस ग्रन्थ में उसने पशुओं व पक्षियों की कहानियों के माध्यम से नीति के गहन विषयों को बड़ी सरल भाषा से समझाया है . इस ग्रन्थ में ही एक स्थान पर लिखा है :
तावद भयस्य भेतव्यं , यावत् भायामानागातम
जागतं तू भयं बिक्ष्य , नर , कुर्याद यशोचितम . .,हितोपदेशे मित्र . .. ५६..
मन्त्र जो अन्य शिखा देता है , वह है :-
पाप नष्ट हों : –
मन्त्र कहता है कि मानव के सुखी जीवन के लिए उसे पापमुक्त होना आवश्यक है . हमने देखा है कि पापपूर्ण आचरण ही उसके दुखों का कारण होता है जबकि सद्गुण उसके धन एश्वर्य व कीर्ति को बढाने वाला होता है . इसलिए मन्त्र कहता है कि हे प्रभु ! हमारे पापाचरण को दूर कर हमारे सद्गुणों को बढाईये . ताकि हम सब प्रकार के भय से मुक्त हो निर्भय हो जावें . हम जानते हैं क़ि पाप का भय से सीधा सम्बन्ध होता है . हम देखते हैं कि एक कुते को भी जब हम रोटी डालते हैं तो वह दुम हिलाते हुए हमारे समीप बैठ कर बड़े चाव से उस रोटी को खाता है किन्तु वही रोटी जब वह् पाप पूर्ण आचरण को अपनाते हुए कहीं से चुरा कर लाता है तो वह रोटी को उठा कर कही दूर किसी कोने में छुप कर खाता है क्योंकि वह जानता है कि यदि पकड़ा गया तो मार पड़ेगी . एक कुता जब पाप के मार्ग से इतना भयभीत है तो मनुष्य क्यों न होगा . इसलिए प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पाप के मार्ग से हटा कर सद्मार्ग पर लावे , हमें निर्भय बनावे. पापों को नष्ट करने से ही मानव निर्भय होता है . हम अपने जीवन से पाप पूर्ण आचरण को निकाल कर निर्भय हो कर जब जीवन व्यापार करेंगे तो हम मन्त्र की धारणा के अनुसार जीवन यापन कर सुखों को पाने में सफल होंगे .
डा. अशोक आर्य

अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें

ओउम
अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें
डा. अशोक आर्य
प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा होती है की वह दु:खों से दूर रहे, सदा सुखों की छाया उस पर बनी रहे | वह ऐसे काम करे जिस से उसका नाम सर्वदिक हो | दुर्गुण उसके पास न आवें | सद्गुणों से निरंतर वह अपना जीवन सुखी बनाए तथा संसार को भी सुखी बनाने में उसकी भूमिका स्पष्ट दिखाई दे, एसा प्रयास उस का रहता है क्योंकि वह अमृत्व को पाने की अभिलाषा रखता है , उत्कृष्ट , सुन्दर व लम्बी आयु पाने की अभिलाषा के साथ वह निरंतर देवों की और बढ़ना चाहता है , अमृत्व को प्राप्त करना चाहता है | यजुर्वेद के अध्याय ४ के मन्त्र संख्या २८ में इस ओर ही संकेत किया गया है ,जो इस प्रकार है : –
परि माग्ने दुश्चरिताद बाधस्वा माँ सुचरिते भव |
उदायुषा स्वायुशोदस्थाममृतान्म अनु || यजु. ४.२८||
शब्दार्थ : –
हे अग्ने ) अग्नि स्वरूप परमात्मा (मा) मुझे (दुश्चरितात) दुर्गुणों से (परि बाधस्व ) हटाईये (मा ) मुझे (सुचरिते) सद्गुणों की ओर (आ भज ) स्थापित कीजिये (उदायुष) उतम गुणों से भरपूर आयु से (स्वायुषा ) सुन्दर आयु से ( अमृतान अनु ) उठूँ |
भावार्थ –
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा ! मुझे दुर्गुणों से हटा कर सद्गुणों की ओर लगाईये |सुन्दर व उत्कृष्ट आयु से मैं देवत्व अर्थात अमृत्व की ओर उठूँ |
इस मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पापों से बचा कर , दुर्गुणों से बचाकर पुण्य मार्ग पर सद्गुणों के मार्ग पर प्रवृत करे | प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि उसका नाम संसार में सर्वत्र आदर व सन्मान से लिया जावे | जब अच्छे लोगों कि गणना हो तो उसका नाम सर्वोपरि हो | क्या यह दुर्गुणों से युक्त प्राणी के लिए संभव है ? दुर्गुणों से युक्त व्यक्ति तो कटुता से भरा होता है | ऐसे व्यक्ति को आदर, सन्मान कौन देगा ? कौन उसका नाम आदर से लेगा ? कोई नहीं | वह देवत्व को कभी प्राप्त नहीं कर सकता, उसका नाम अच्छे लोगों की सूची में कभी नहीं आ सकता सन्मान तो अच्छे लोगों का होता है अत: सन्मानित स्थान पाने के लिए काम भी ऐसे करने होंगे जिससे लोग सन्मान करें | इस लिए ही इस मन्त्र में अग्निरूप परमात्मा से प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु ! मैं दुर्गुणों को ,दुर्व्यसनों को पाप के मार्ग को छोड़ कर सद्गुणों को ग्रहण करूँ , सुखों के पुण्य के मार्ग को प्राप्त करूँ | यह सब आत्मिक शक्ति से ही संभव है | यह शक्ति परम पिटा परमात्मा की दया से ही प्राप्त होती है | यह आत्मिक शक्ति ही हमें दुगुनों व दुर्विचारों से रोकती है, इन से हमें बचाती है |
आत्मिक शक्ति कहाँ से आती है :-
आत्मिक शक्ति उसे ही मिलाती है, जिस पर उस परम पिता परमात्मा की कृपा हो | परमात्मा की दया दृष्टि के बिना हम आत्मिक शक्ति नहीं पा सकते | जब हम प्रभु की प्रार्थना करते हैं , उस की उपासना करते है , दूसरे शब्दों में जब हम प्रभु के गुणों को समझ कर उस के समीप बैठ कर उससे कुछ उपदेश लेते हैं तथा उस उपदेश के अनुरूप अपने आप को बनाते हुए अपने दुर्गुणों , दुर्विचारों, कुटिल विचारों व पापों को छोड़ देते हैं तो हम स्वयमेव ही सद्गुणों की ओर प्रवृत होते हैं , सद्गुण हमारे ह्रदय में अपना डेरा जमाते चले जाते हैं | इससे हमारा काया कल्प ही हो जाता है |
ईश्वर के आशीर्वाद से जिस मानव का कायाकल्प हो जाता है , वह फिर दुर्विचारों पर मंत्रणा कर ही नहीं सकता, दुर्विचार अब उस के अन्दर प्रवेश कर ही नहीं सकते | अब वह सदैव उत्तम चर्चा में ही लीन्र रहता है | उत्तम चर्चा से न केवल स्वयं ही उत्तम बनने का प्रयास करता है अपितु अन्यों को भी उत्तम मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है | इस प्रकार उसके प्रयास से न केवल अपना ही जीवन उन्नत होता है अपितु साथ ही साथ समाज भी उन्नति की ओर अग्रसर होता है | इस को ही उदायुषा तथा स्वायुषा कहा गया है | इसे ही उत्तम व सुन्दर आयु कहा गया है |
मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्ति | यह उत्तम आयु का ही फल होता है | जब मनुष्य सदैव उत्तम कर्म करता है तो उस को सर्वत्र यश व कीर्ति की प्राप्ति होती है , सर्वत्र उस का नाम सन्मान से लिया जाता है , यह यश कीर्ति व सन्मान ही तो उस के जीवन का सजीव समारक है , जिसे पा कर वह अपने आप को धन्य अनुभव करता है | यह सन्मान , यह , यश , यह कीर्ति अच्छे कर्मों से , अच्छे कामों से ही प्राप्त होती है | इस को ही मानव जीवन में अमृत्व का मार्ग बताया गया है | इस मार्ग को ही देवत्व का मार्ग बताया गया है | देवत्व की साधना के लिए हमें अमृतत्व की प्राप्ति करनी होगी | तब ही हम जीवन के अंतिम लक्ष्य को पा सकेंगे |
इस प्रकार मन्त्र हमें बताता है की हे मानव, यदि तू सद्गुणों को अपनावेगा तो तू अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को पा सकता है | मोक्ष को पाने के लिए तुझे देवत्व की प्राप्ति करनी होगी | देवत्व को पाने के लिए अमृत्व को पाना होगा तथा अमृत्व को पाने के लिए तुझे दुर्गुणों का त्याग कर अच्छे गुणों को , सद्गुणों को अपने अन्दर लाना होगा | अत: हे मानव तू अपने दुर्गुणों को, पापाचारों को छोड़ तथा सद्गुणों को अपना ताकि तुझे मोक्ष की प्राप्ति हो सके | मोक्ष प्राप्त करने के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है | अत: निरंतर इस मार्ग पर ही आगे बढ़ , सफलता निश्चित रूप से मिलेगी |
डा. अशोक आर्य

प्रतिदिन प्रभु के चरणों में बैठ कर उसकी प्रार्थना करें

ओउम
प्रतिदिन प्रभु के चरणों में बैठ कर उसकी प्रार्थना करें
डा. अशोक आर्य
जिस परमपिता परमात्मा की असीम कृपा से हम इस संसार में आये हैं | उस प्रभु ने हमें ज्ञान का सागर दिया है | इस में हम डुबकी लगाकर प्रतिदिन मोती चुनने का प्रयास करते रहते हैं | इस प्रभु की ही अपार कृपा से हमें अनेक प्रकार की सुख सुविधाएं प्राप्त की हैं | जिस प्रभु ने हमें अपार धन – दौलत, सुख – शान्ति तथा बुद्धि दी है ,हमारा भी कर्तव्य है कि हम प्रतिदिन उस प्रभु के समीप बैठ कर उसकी प्रार्थना करें | यजुर्वेद के अध्याय ३ मन्त्र २२ में भी यही श्हिक्षा दी गयी है | मन्त्र इस प्रकार है : –
मन्त्र : –

उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयं |
नमो भरन्त एमसि || यजुर्वेद ३.२२ ||
शब्दार्थ : –
(अग्ने) हे अग्नि स्वरूप परमात्मा ( वयं) हम ( दिवे दिवे ) प्रतिदिन (दोषावस्त:) रात्री और दिन में (धिया) बुद्धि से (नाम: ) नमस्ते (भरन्त:) करते हुए ( त्वा) तेरे (उप) समीप (एमसि) आते हैं |
भावार्थ : –

हे अग्निरूप परमपिता परमात्मा ! हम प्रतिदिन प्रात: सायं अत्यंत श्रद्धा पूर्वक बुद्धि से आपको अभिवादन अर्थात नमस्ते करते हुए आपके समीप आवें |
मानव प्रतिक्षण उन्नति देखना चाहता है | वह जिस भी क्षेत्र में कार्यशील है, उस क्षेत्र में प्रति- दिन उन्नति चाहता है | वह आगे बढ़ने की अभिलाषा रखता है | वह दूसरों को अपना प्रतिद्वंद्वी समझता है तथा उसकी यह इच्छा रहती है कि वह अन्य सब लोगों से आगे निकल जावे | इस निमित उसे अत्यधिक परिश्रम की , पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है | अनेक बार केवल मेहनत, केवल पुरुषार्थ ही काम नहीं आता | असफलता की अवस्था में वह अपने आप को धिक्कारता है | उस में हीन भावना आ जाती है | इस हीन भावना के वशीभूत अनेक बार तो वह अपने आप को समाप्त तक करने की ठान लेता है | इस अवसर पर उसे आवश्यकता होती है किसी सहायक की, जो उसे इस संकट काल में दिलासा देकर पुन: परिश्रम की प्रेरणा दे |

आज का मानव इस बात को जानते हुए भी भूल गया है की जिस प्रभु ने हमें जन्म दिया है , वह प्रभु बड़ा महान है | उस की इच्छा के बिना तो किसी वृक्ष का पता भी नहीं हिल सकता | मानव को यह जानना होगा कि जिस प्रकार हम अपने जन्मदाता माता – पिता तथा बुद्धि के भंडार गुरुजनों के समीप बैठ कर ज्ञान को प्राप्त करते है , दिशा – निर्देश लेते हैं , ठीक उस प्रकार ही उस प्रभु के समीप बैठ कर उससे भी मार्ग – दर्शन व निर्देशन प्राप्त करें | प्रतिदिन प्रात: व सायं ईश्वर के समीप बैठकर उसकी उपासना करें | यह ही मानव की उन्नति का सर्वश्रेष्ठ साधन है | अत: जिस प्रकार माता पिता व गुरुजन के समीप बैठ कर हमें अपार आनंद मिलता है, स्नेह व ज्ञान मिलता है, ठीक उस प्रकार ही जब हम प्रभु के समीप अपना आसन लगा कर , उसके समीप बैठकर प्रतिदिन दोनों काल उसे स्मरण करेंगे तो वह प्रभु भी दयावान है | हमारे पर अवश्य ही दया करेगा, हमे अवश्य ही दिशा – निर्देश देगा , | इस प्रकार उस प्रभु के समीप बैठ कर उस की उपासना पूर्वक स्तुति करने से हमारा मनोबल बढेगा, आत्मिक शक्ति प्राप्त होगी , आत्मिक शक्ति मिलने से हम ज्ञान विज्ञान को बड़ी सरलता से प्राप्त करने में सफल होंगे | जब हम सब प्रकार के ज्ञान विज्ञान के अधिपति हो जावेंगे तो हमें अत्यंत हर्षोल्लास अर्थात आनंद मिलेगा |
इस संसार में आनंद का स्रोत यदि कोई है तो वह एक मात्र परमात्मा ही है | वह परमात्मा ही आनंद को देने वाला है , वह प्रभु ही सब प्रकार के ज्ञान का देने हारा है | इतना ही नहीं वह परमपिता परमात्मा ही हमें शक्ति देने वाला है | अत- अपने जीवन को सुखद बनाने के लिए , सब प्रकार की सम्पति, ज्ञान ,विज्ञान , मनोबल, आत्मिक शक्ति व आनंद को पाने के लिए हमें उस प्रभु की गोदी को पाना आवश्यक हो जाता है | उस परमात्मा के समीप बैठना आवश्यक हो जाता है | परमात्मा के समीप बैठने की भी एक विधि हमारे ऋषियों ने हमें दी है | इस विधि को संध्या कहा गया है | अत: यदि हम अपने जीवन में मधुरता भरना चाहते हैं , अपने जीवन को सुखमय बनाना चाहते हैं , अपने जीवन को आनंदित रखना चाहते है , आत्मिक शक्ति से भरपूर रखना चाहते हैं तथा प्रत्येक प्रकार के ज्ञान विज्ञान के स्वामी बन उन्नति पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं तो प्रतिदिन प्रात: व सायं संध्या काल में उस परम पिता परमात्मा की साधाना करने के लिए उस प्रभु के पास अपना आसन लगायें, उसके समीप बैठ कर उस से प्रार्थना करें तो हम अपने कार्य में सिद्ध हस्त हो कर अनेक सफलताएं पा कर उन्नति को प्राप्त होंगे | अत: प्रतिदिन दोनों काल ईश्वर के समीप बैठ कर उस का आराधन आवश्यक है |

डा. अशोक आर्य

स्वर्गिक आनन्द के लिए पति पत्नि क्रोधित न हों

ओ३म
स्वर्गिक आनन्द के लिए पति पत्नि क्रोधित न हों
डा. अशोक आर्य
पति पत्नि दोनों ही सपत्नक्षित अर्थात शत्रुओं का नाश करने वाले बनें । कभी तैश या गुस्से में न आवें । इससे घर स्वर्ग बन जाता है । इस बात को यजुर्वेद अध्याय १ का मन्त्र संख्या २९ इस प्रकार कह रहा है :-
प्रत्युष्ट ^M\ प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्ट्प्त ^M\ रक्शो निष्टप्ताऽअरातय: ।
अनिशितोऽसि सपत्नक्शिद्वाजिनं त्वा वाजेध्यायै सम्मार्ज्म ।
प्रत्युष्ट ^M\ रक्श:प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्ट्प्त ^M\रक्शोनिष्टप्ताऽ अरातय: |
अनिश्चिताऽअसि सपत्नक्शिद्वाजिनी त्वा वजेध्यायै सम्मार्ज्मि ॥
यजुर्वेद १.२९ ॥
इस मन्त्र में परमपिता परमात्मा तीन बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए उपदेश करते हैं कि :-
१. हम सपत्न बनें :-
इस मन्त्र में शत्रुओं का नाश करने वाले पति पत्नि का , घर के दोनॊं मुखियाओं का उल्लेख किया गया है ।
हमारे घर में शत्रु कौन हो सकता है । मन्त्र कहता है कि कोई भी पत्नी नहीं चाहती कि उसकी कोई सौत हो । सौतिया डाह घर की बहुत बडी शत्रु होती है तथा नाश का कारण होती है । इस सौतिया विरोध से अनेक घरों का नाश होते देखा गया है । प्रत्येक क्षण घर में लडाई – झगडा कलह क्लेश मचा रहता है । कभी काम के नाम से , कभी बात चीत में मीन मेख निकालने से तो कभी वस्त्राभूषण आदि की इच्छा से यह झगडा निरन्तर होता ही रहता है । इस झगडे के कारण घर में कोई भी काम ठीक से सम्पन्न नहीं हो पाता और यदि कोई काम सम्पन्न हो भी जाता है तो भी उसमें अनेक प्रकार की कमियां रह जाती हैं इस लिए परिवार में सपत्नी ही होना चाहिये । एक से अधिक पत्नियों का रखना विनाश को निमन्त्रण देने के समान ही होता है । कुछ एसी ही अवस्था पुरूष की भी होती है । जो पुरुष स्पत्न होता है अर्थात जो पत्नि अनेक पतियों वाली होती है , उसके घर पर भी कभी शान्ति की आशा सम्भव नहीं होती । एक से अधिक पति होने से भी झगडे ही होते रहते हैं । इसलिए मन्त्र कहता है कि घर में पति पत्नि मिल कर शत्रुओं का नाश करें अर्थात एक पति तथा एक पत्नि व्रत लेकर घर के सब काम शान्ति से करने का संकल्प लें ।
२. एक पत्नि व्रत से शक्ति का दीपन :-
क).
मन्त्र कहता है कि हमें चाहिये कि हम अपनी सब राक्षसी प्रव्रितियां नष्ट करें , इन्हें जला दें, दग्ध करदें । इस के लिए हमें निरन्तर प्रयास रखना होता है ताकि हम एक एक कर इन्हें नष्ट करते चले जावें । राक्षसी प्रवृतियां क्या होती हैं ? , कौन सी होती है । हमारी जिस चेष्टा से किसी को हानि पहुंचे , किसी को दु:ख हो , किसी को क्लेष हो , इस प्रकार के सब कार्य राक्षसी प्रवृतियों के क्षेत्र में आते हैं । हमारे काम , क्रोध , मोह , लोभ , अहंकार आदि भी इन बुरी आदतों का ही भाग होते हैं । हम यत्न से इन सब को त्याग कर अपने घर को स्वर्ग बना सकते हैं ।
ख).
दान की वृति मानव के लिए दान की प्रवृति मुक्ति का उत्तम साधन है । अदानी अर्थात जो दान नहीं करते , वह अच्छे नहीं माने जाते । दान करने की ख्याति तो चतुर्दिक जाती ही है , उसका समाज में सम्मान भी बढता है । इस के साथ ही साथ ,जिनके पास साधन कम होते हैं , उनको भी सुख पूर्वक जीने का अवसर मिलता है । इस लिए हम एसा प्रयास करें कि हमारी अदान की वृतियां भी भस्म हो जावें , नष्ट हो जावें ।
घ).
हम प्रभु सेवा में रहें , कठोर तप करें । तप हमारी सब प्रकार की बुराईयों को दग्ध करने का कार्य करता है , हमारी बुराईयों को जलाने का कार्य करता है । इसलिए हम तप द्वारा भी धीरे धीरे अपनी अदानता की आदतों को नष्ट कर दें , भस्म कर दें , जला दें और फ़िर इस के स्थान पर दान की आदतों को ग्रहण करें ।
ड).
हम कभी भी अपने व्यवहारिक जीवन में तेजी न आने दें । क्रोध विनाश का कारण होता है । जब परिवार में क्रोध किया जाता है तो परिजनों का दिल दुखता है । दुखित दिल से कभी कोई उत्तम काम नहीं हो पाता । दु:खित मन से किया कार्य भी सुख देने वाला नहीं होता । सुख की कमना के लिए उतेजित जीवन , झगडालु वृति, बात बात पर तैश में आना उत्तम नहीं है । विशेष रुप से पत्नि से तो माधुर्य बना कर ही व्यवहार करना चहिये क्योंकि घर के अन्दर के सब व्यवहार पत्नि ही करती है । वह प्रसन्न होगी तो घर के अन्दर वह सुख पूर्वक हंसते हुए सब काम करेगी । ख़ुशी से सुखी रहते हुए बनाये गए पदार्थों का उपभोग करने वाले भी सुखी रहेंगे , प्रसन्न रहेंगे ।
च).
अनेक बार एसा होता है कि घर मे कभी कुछ मनमुटाव हुआ तो पति ने पत्नि से बोलना ही बन्द कर दिया तथा उसे दु:ख देने के लिए दूसरी पत्नी ले आये । यह विधि विनाश की होती है । कई बार पत्नि भी एसी ही भूल कर बैठ्ती है । इस से घर का झगडा और भी बढ जाता है । कभी तलाक तथा कभी आत्म हत्या अथवा हत्या का कारण बनती है । सप्तनियों का होना परिवार के लिए सदा हानि क कारणहोता है , दु:ख का कारण होता है , इससे सदा बचना चहिये । इसे परिवार में प्रवेश ही नहीं करने देना चाहिये ।
छ).
जब हम एक पत्नि तथा एक पति का व्रत लेते हैं तो हमारे चित मे खुशी की लहर रहती है , कुछ निर्माण की इच्छा होती है किन्तु अनेक पति या अनेक पत्नि से चित की शान्ति नष्ट हो जाती है । अनेक पति अथवा अनेक पत्नि शारीरिक दुर्बलता का कारण भी बनती है । कुछ तो कामुक वृतियों से तथा कुछ झगडों के कारण शक्ति क्षीण हो जाती है । अत: एक पत्नी व्रत ही सम्यक रूप से शुद्धि का कारक होता है । यह शक्ति को दीप्त करता है ।
३.
यह सब जो पति के लिए कहा गया है , पत्नि के लिए भी समान रूप से पालनीय होता है । यथा :-
क)
हे वधु !, हे पत्नि ! तेरे अन्दर जितनी भी दुष्ट प्रवृतियां हैं , जितनी भी बुरी आदतें है, जितने भी काम क्रोध आदि हैं , वह सब नष्ट हो जावे , वह सब जल कर समाप्त हो जावें , द्ग्ध हो जावें ।
ख)
नारी में तो वैसे ही दान की अत्यधिक भावना होती है तो भी हे गृह्पत्नि ! तेरे अन्दर कभी क्रपणता के दर्शन न हो , कभी अदान की व्रति न आवे , सदा दान शील ही बनी रह्रे , यज्ञय भावना हो , दूसरों की सेवा व सहायता की तूं देवी हो । इससे तेरी एश्वर्यता स्थापित होगी तथा सब लोग तेरा सम्मान करेंगे ।
घ). एक पति व्रत से सुख सम्रद्धि :-
यदि तेरे अन्दर अदान की वृति है तो इसे अत्यधिक सन्तप्त करो ताकि यह दूर हो जावें ।
ड).
तूं गृह लक्षमी है । इसलिए यह तेरा कर्तव्य है कि तूं कभी तेज मत बोल , तूं कभी क्रोध मत कर । एसे मीठे वचन बोलो कि जिससे सब का मन हर्षित हो , खुश हो । इस से सब लोग तेरी प्रशंसा करने वाले बनेंगे , तेरे प्रशंसक बनेंगे ।
च).
तूं सदा पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए एक पति में ही प्रसन्न रह । अपने पति के अतिरिक्त किसी को सपत्न नहीं बनाना । एक पति व्रत से सदा खुश रहेगी तथा सब को खुश रखेगी भी । अन्यथा घर जो है , वह कलह , क्लेश का केन्द्र बन जावेगा ।
छ).
जब तूं पतिव्रत धर्म का पालन कर रही होगी तो तेरा जीवन स्वयमेव ही संयमी बन जावेगा । इस तथ्य को जान ले कि संयमी जीवन जीने वाले के शरीर में ही सब प्रकार की शक्तियों का निवास होता है । इस प्रकार प्रभु इस मन्त्र के माध्यम से कह रहे हैं कि हे शक्तिशालिनी देवी रुपा नारी ! मैं तुझे शक्ति की दीप्ति के लिए , शक्ति के अवतार स्वरुप , शक्ति की देवी स्वरुप शुद्ध करता हूं तथा तुझे शक्ति से दीप्त करता हूं । में तुझे शक्ति से सम्पन्न करता हूं । जहां वासना नहीं है , वहां शक्ति का निवास होता है । जब तेरा जीवन वासना शून्य होगा तो निश्चय ही इस जीवन में शक्ति होगी और तूं सब शक्तियों की स्वामी होगी । इस के उलट यदि तूं वासनाओं में लिप्त रहेगी तो तूं यह समझ ले कि तूं ने मृत्यु का मार्ग चुना है , विनाश का मार्ग चुना है । अत: तेरा नाश निश्चित है । इसलिए नाश से बचने के लिए वासना शून्य बनना ।

डा. अशोक आर्य

प्रेम से रहने से सुख , शान्ति व समृद्धि

ओउम
प्रेम से रहने से सुख , शान्ति व समृद्धि
डा. अशोक आर्य
जो लोग ज्ञान से युक्त होते हैं , वह अपने जीवन को यज्ञमय बनाते हैं तथा अन्य लोगों को लडाई आदि से दूर रखते हुए उन्हें प्रेम , शान्ति से रहने की शिक्षा देते हैं । इस प्रकार ही हमारी पृथ्वी शान्ति स्वरुप चन्द्र में स्थित होगी , यह सुख ,. शान्ति व समृद्धि से भर जावेगी । इस बात को मन्त्र इस प्रकार समझा रहा है :-
पुरा क्रूरस्य विस्रपो विरप्शिन्नुदादाय प्रथिम जीवदानुम । यमैरयंश्चन्द्रमसि स्वधाभिरस्ताम धीरासोऽअनुदिश्य यजन्ते प्रोक्शणीरासादय द्विषतो वधोऽसि ॥ यजु. १.२८ ॥
हम अपने जीवन में अनेक प्रकार के युद्ध करते हैं । वास्तव में हमारा जीवन है ही एक संग्राम । इस जीवन संग्राम में हम जो अनेक प्रकार के युद्ध करते हैं , उन युद्धों में कुछ तो अपने अन्दर के शत्रुओं यथा काम , क्रोध आदि से तथा कुछ बाहर के शत्रुओं , हमारे विरोधियों या देश व धर्म के शत्रुओं से होते हैं । मन्त्र कहता है कि हम इन युद्धों से दूर रखने के लिए अपने जीवन को यज्ञमय बनावें । इस से स्पष्ट होता है कि यज्ञमय जीवन हमें युद्धों से रोकता है , लडाई झगडे की और प्रवृत करने के स्थान पर इन से बचाता है । इसलिए हम, अपने जीवन को यज्ञ बनावें । मन्त्र के आलोक में जब हम विचार करते हैं कि अपने जीवन को यज्ञमय बनावें तो पहले हमे यह जानना आवश्यक हो जाता है कि यह यज्ञा है क्या ,जिसके समान हमें अपना जीवन बनाने के लिए यहां कहा गया है ?
यज्ञ क्या है ? :-
यज्ञ क्या है ?, इसे जानने के लिए हमें अग्निहोत्र की सब क्रियाओं को समझना होता है , जो कि इस यज्ञा का ही एक मुख्य स्वरुप है । जब हम नित्य प्रति हवन करते हैं तो हम जानते हैं कि इस हवन को भी वेद में यज्ञ कहा है । यह हवन भी देव है , देवता है । इस सब को देखते हुए , इस के भाव को समझते हुए हम कह सकते हैं कि जो देता है वह देव है अथवा वह देवता है । हम यज्ञ कुण्ड में समिधा रखते हैं । इन समिधाओं को जला कर इन पर अनेक प्रकार की आहुतियां देते हैं । यह आहुतियां घी , सामग्री , फ़ल , दूध या पौष्टिक पदार्थ हो सकते हैं । इसमें अनेक रोग नाशक , अनेक सुगन्धित व अनेक प्रकार के पौष्टिक पदार्थ डाले गये होते हैं । इन पदार्थों को डालने का उद्देश्य चाहे कोई भी रहा हो किन्तु एक बात स्पष्ट होती है कि इस में जो डाला गया है , वह तो यज्ञ कुण्ड ने लिया है , दिया कुछ भी नहीं , फ़िर यह देव कैसे हुआ ? देने वाला कैसे हुआ ? इसे जानने के लिए यज्ञ की , हवन की कुछ विषद व्याक्या को देखना आवश्यक हो जाता है ।
विज्ञान कहता है कि मैटर न तो कभी जलता है , न कभी सूखता है तथा न ही समाप्त होता है । इस आलोक में हम समझ जाते हैं कि जो कुछ भी हमने यज्ञ में डाला है , वह न तो जल कर नष्ट होता है , न गल कर तथा न ही किसी अन्य ढ̇ग से नष्ट होता है । तो फ़िर यह जाता कहां है ? इस के लिए हमें एक प्रयोग करना होगा । हम अग्नि में एक मिर्च का छोटा सा टुकडा डाल देवें । यह टुकडा डालने पर जितनी दूरी तक के लोगों को नीछें आने लगती हैं , कम से कम उतनी दूरी तक तो यज्ञ में डाले घी और सामग्री का प्रभाव तो जाता ही है । इतनी दूर तक के लोगों को यज्ञ के लाभ मिलते हैं , इसमें डाले पदार्थों का प्रभाव होता है तथा वह रोग रहित हो कर सुगन्ध व पौष्टिकता का लाभ उठाते हैं । इस प्रकार यज्ञ मे जो कुछ डाला गया उसे अग्नि ने स्वयं न खा कर सूक्षम करके वायु मण्डल को दे दिया तथा वायु मण्डल ने इसे दूर दूर तक के लोगों में बांट दिया , प्रसाद रूप में दे दिया । अत: यज्ञ का लाभ दूर दूर तक के लोगों को जाता है । अब हम इस स्थिति में हैं कि यज्ञ से लडाईयां कैसे रुकती हैं ?
मन्त्र कहता है कि अपने जीवन को यज्ञमय बना कर युद्धों को रोकें । जब हम यज्ञ करते हैं तो इससे हमारा बहुत सा समय यज्ञ में लग जाता है तथा लडाई – झगडे के लिए समय ही नहीं बचता । इस प्रकार यह एक विधि है , जिससे युद्ध रुकते हैं । दूसरे यज्ञ नाम है दान का । यज्ञ का भाव है दूसरों की सहायता करना , भूखे को रोटी देना , वस्त्र हीन को वस्त्र देना , अशिक्षित को शिक्षा देकर सहायता देना । अत: किसी भी प्रकार हम जब किसी दूसरे के काम आते हैं तो यह यज्ञ कहा जाता है । जब हम दान करते हैं , किसी को रोटी , कपडा या मकान आदि के लिए सहायता देते हैं तो इसका नाम भी यज्ञ है । अन्धे को सडक पार कराने का नाम यज्ञ है अर्थात वह सब कार्य जिससे दूसरे के लिए सहायता होती है, उसे सुपथ पर लाया जाता है , उसे जीवन दिया जाता है , तो उसे हम यज्ञ कह सकते हैं ।
इस प्रकार जो व्यक्ति दान देता है , दूसरे की सहायता करता है तो उसके विरोधी धीरे धीरे विरोध की भावना से दूर होते चले जाते हैं तथा एक दिन एसा भी आता है कि जिस दिन यह विरोधी ही उसकी रक्षा के लिए आगे आते हैं । जब विरोधी ही रक्षक बन जाते हैं तो युद्ध की तो सम्भावना ही नहीं रहती । इस प्रकार दूसरों की सहायता से हम अपने दुशमन को भी अपना बना लेते हैं तथा यज्ञ के कारण लडाई को हम रोक पाने में सफ़ल हो जाते हैं । इस सब के आलोक में मन्त्र के माध्यम से परम पिता परमात्मा हमें तीन बिन्दुओं के द्वारा इस प्रकार उपदेश कर रहे हैं :-
१. अंगभंग करने वाले युद्ध को दूर कर :-
हमारे युद्ध भी अनेक प्रकार के होते हैं । कुछ युद्ध तो गाली गलोच तक ही सीमित होते हैं तो कुछ एसे भयंकर होते हैं कि जिस से किसी का बाजू कट जाता है तो किसी का पैर कट जाता है या कोई शरीर के किसी अन्य स्थान से घायल हो जाता है | इस प्रकार के युद्ध प्राणी के लिए बहुत भयानक होते हैं । इससे बचना प्राणी मात्र के लिए अत्यन्त आवश्यक हो जाता है । आज तो एसे भयानक यन्त्र बन गये हैं , गये , जिनका प्रभाव आज भी जापान के लोगों को घेरे हुए है जब कि बम गिरे को पौन शताब्दी से भी अधिक समय निकल चुका है ।
इस लिए मन्त्र कह रहा है कि इस प्रकार के युद्धो के फ़ैलने से पूर्व ही इनका समाधान निकाल कर लोगों को इन से बचाओ । इन युद्धों से बचाने के लिए ज्ञान का उपदेश दो । शास्त्रों की चर्चा करो । कथा , कीर्तन करो । इन सब साधनों से लोगों के दिलों को ठीक दिशा में लाकर उनके दिल को जीतो और युद्ध के उन्माद से बचाओ । आप विशाल ह्रद्य वाले तथा ज्ञानी हो | अपने प्रयास से लडाईयों के बोझ से इस पृथ्वी को बचाओ । यह पृथिवि अन्न दान कर जीवन देने वाली है किन्तु जब इस पृथ्वी पर युद्ध के बादल छा जाते हैं तो उगी हुई फ़सलें भी नष्ट हो जाती हैं । जब फ़सल ही नहीं होगी तो भूख की तृप्ति कैसे होगी ? इस लिए अन्न के भण्डार भरने के लिए भी युद्ध से पृथ्वी को बचाओ । जब अन्न भरपूर होंगे तो लोगों की प्रसन्नता भी बढ जावेगी ।
हमारे पास हिमांशु , ओषधीश आदि है । जहां चन्द्र सुख शान्ति का प्रतीक है । जिस प्रकार चन्द्र्मा की चान्दनी शीतलता देने वाली होती है , प्रसन्नता देने वाली होती है , सुख देने वाली होती है । उस प्रकार ही ज्ञानी लोग भी सुख व शान्ति का साम्राज्य दूर दूर तक ले जाने वाले होते हैं । जब वह यत्न करते हैं , प्रयास करते हैं , तो कोई न कोई मार्ग निकल ही आता है ,कोई न कोई समाधान निकल ही आता है । इस लिए ज्ञानी लोगों को सदा इस प्रकार का प्र॒यास करते रहना चहिये कि किसी प्रकार की लडाई , युद्ध आदि न होने पावें । युद्धों से इस पृथिवी को बचाते हुए सब और सुख और शान्ति का प्रसार करना चाहिये । जब पृथिवी सब प्रकार के अन्न आदि देकर हमें जीवन देती है तो युद्ध के द्वारा इस पृथिवी को कष्ट न देना चाहिये कहीं एसा न हो कि युद्ध की विषम स्थिति में यह पृथिवी कुछ पैदा न कर सके तथा भोजन के अभाव में हमारा जीवन ही कठिनाई में पड जावे । इस के परिणाम स्वरूप अत्यधिक होने वाली महंगई से हमारी खरीद शक्ति प्रभावित हो और हम कुछ खरीद ही न पावें तथा हमारी आवश्यकताएं ही पूरा करना कठिन हो जावे ।
२. विद्वान लोग उपदेश से लडाई को रोकते हैं :-
यह ही कारण है कि विद्वान, स्वाध्याय शील , ज्ञानी लोग अपने जीवनों को वेदानुकूल बनाते हुए संसार में सुख व शान्ति स्थापित करते हुए इस पृथिवी को भी सुखी वा शान्तमयी बनाते हैं । इस प्रकार पृथिवी को वह अपना लक्षय बना कर इस पृथ्वी की रक्षा के लिए अपने जीवन को यग्यीय बनाते हैं । यह बुद्धिमान पुरुष, यह ज्ञानी लोग , यह धीर लोग सदा एसे कार्य करते हैं , जिस मे लोकहित छुपा हो , जो जनहित के हों , सर्वहितकारी कार्य ही उनके जीवन का ध्येय होता है । दूसरों की सेवा करने में तथा दूसरों को सुखी करने में उन्हें आनन्द आता है । यह सदा लोगों को ज्ञान का पाठ पढाते हैं , जीवन में सुख के साधन लोगों को बांटते रहते हैं तथा इस प्रकार की शिक्षा देते हुए यह लोगों को प्रेम से जीवन यापन करने की शिक्षा देते रहते हैं । इस प्रकार के उपदेशों के द्वारा उन्हें लडाई के उन्माद से बचाए रखते हैं ।
३. विद्वान लोगों को सन्मार्ग दिखावे:=
वेद का इस मन्त्र के माध्यम से उपदेश देते हुए परमपिता परमात्मा कहते हैं कि हे बुद्धिमान पुरुष ! तूं बुद्धि का स्वामी है , तेरे अन्दर धीरता है , तूं ज्ञान का भण्डार है , इस नाते तूं प्रकर्षेण ज्ञान का सेवन करने वाली क्रियाओं को , गतिविधियों को सेवन कर अर्थात प्रयोग में ला । इन्हें ग्रहण कर । यदि हम यज्ञ को एक चम्मच मानें तो उपदेश है कि यज्ञ के चम्मच को तूं मजबूती से अपने हाथ से पकड । लोगों के मनों में ज्ञान को दीप्त करना एक प्रकार का यज्ञ ही है । अत: जिस प्रकार इस चम्मच से यज्ञग्नि में घी डाला जाता है , उस प्रकार ही तूं लोगों के मनों में , लोगों के ह्रदयों में , लोगों के मस्तिष्क में ज्ञान की अग्नि को दीप्त करने के लिए अपने उपदेश रुपि घी से सेचन कर । हे ज्ञानी पुरुष ! तूं विनाशक प्रवृतियों व युद्धोन्मादी शत्रुओं का नाश करने वाला है । इतना ही नहीं तूं लोगों के ह्रदय के मनोमालिन्य को धोकर उनके अन्दर की द्वेष भावना को दूर करने वाला है । तूं अपने उपदेशों के द्वारा अज्ञानी लोगों में निरन्तर ज्ञान का उपदेश देता रह , ज्ञान की वर्षा करते रह , उनके मालिन्य को धोने का कार्य करता रह । लोगों पर एसी ज्ञान की वर्षा करते हुए उन सब मालिन्य , द्वेष की भावना रुपी अग्नि को बुझा दो और उसके स्थान पर लोगों को प्रेम की शिक्षा देकर , प्रेम का पाठ देकर उन्हें सन्मार्ग पर लाने का काम कर ।

डा. अशोक आर्य

वनस्पतिक भोजन व सूर्य किरणों का सेवन करें

वनस्पतिक भोजन व सूर्य किरणों का सेवन करें
डा. अशोक आर्य
हमारे पास सात्विक बुद्धि होगी तब ही हमारे सात्विक गुणॊं में, वृद्धि सम्भव है। इस सात्विक बुद्धि के लिए वनस्पतियों वाला भोजन उत्तम है । इसके साथ ही सूर्य की किरणों का सेवन भी लाभप्रद होता है | इस तथ्य को यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का यह बीसवां मन्त्र इस प्रकार उपदेश करता है :-
धान्यमसि धिनुहि देवान प्राणय त्वोदानाय त्वा व्यानाय त्वा । दीर्घामनु प्रसितिमायुषे धां देवो व: सविता हिरण्यपाणि: प्रतिग्रभ्णत्वच्छिद्रेण पाणिना चक्शुषे त्वा महीनां पयोऽसि ॥ यजुर्वेद १.१.२० ॥

मन्त्र में यह बताया गया है कि प्रकाश की हमारे आधारभूत, जीवन में सद्गुण अर्थात उत्तम गुणों को पूर्ण करने वाली बुद्धि की आवश्यकता होती है । यह बुद्धि सात्विक आहार से ही बनती है यह सत्विक आहार क्या होता है ? आओ इस मन्त्र के पांच बिन्दुओं पर चिन्तन करते हुए सात्विक आहार के समबन्ध में जानने का यत्न करें :-
१. पौषण में उत्तम धान्य :-
मन्त्र में कहा गया है कि तूं धान्यम असि अर्थात तूं धान्य है अर्थात तूं वनस्पति है । वनस्पति होने के कारण तेरे अन्दर पौषण की अद्वितीय शक्ति है । इस पौषणीय शक्ति के कारण ही तूं मानव शरीर का बडी उत्तमता से पौषण करता है । तेरे सेवन से ही मानव का यह शरिर स्वस्थ बनता है , स्वस्थ शरीर से ही मन निर्मल होता है जब मानव का शरीर स्वस्थ तथा मन निर्मल हो तो उसकी बुद्धि भी तीव्र हो जाती है । जब खुशी की अवस्था हो तो बुद्धि तेजी से कार्य करती है किन्तु शरीर दुर्बल होने से मन की निर्मलता नही रहती । कष्ट – क्लेष बने रहते हैं, यह सब बुद्धि को तीव्र नहीं होने देते । इस लिए यह मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे प्राणी ! तेरे अन्दर बुद्धि की तीव्रता आवश्यक है । बुद्धि की तीव्रता के लिए मन को निर्मल बना । मन को निर्मल बनाने के लिए एसे उपाय कर कि तेरा यह शरीर स्वस्थ बन सके तथा शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है कि तूं वनस्पतियों से युक्त आहार का सेवन कर क्योंकि इन वनस्पतिक आहार से ही शरीर को पौषण मिलता है ।
क) इस प्रकार अपनी बुद्दि को तीव्र बना कर हे प्राणि! तूं अपने अन्दर दिव्य गुणों को प्रणीत कर , उत्पन्न कर । तूं जब अपने अन्दर सत्व की शुद्धि कर लेगा तब ही सात्विक गुणों का विकास होगा ।
ख) हे वनस्पतियो ! हम तुझे प्राण के विकास के लिए स्वीकार करते हैं । तेरे द्वारा हमारी प्राण शक्ति बढे । हम तुम्हारा सेवन इस लिए करते हैं कि हमारे प्राणों की शक्ति की वृद्धि हो , तेरे सेवन से ही तो हमारे प्राणॊं को गति मिलती है । तूं ही हमारी उदान वायु कॊ ठीक करने वाली है , इस लिए हम तेरा सेवन करते हैं । तेरे उपभोग से ही हमारे गले के अन्दर यह उदान वायु तीक से गति करने वाली होती है । जब हमारे शरर में यह उदान वायु संतुलित हो कर कार्य करती है , तब ही मानव की लम्बी आयु सम्भव हो पाती है ।
इसलिए हे वनस्पतियो ! हम तुझे ग्रहण करते हैं, पूरे शरीर में व्याप्त करते हैं क्योंकि तेरे प्रयोग से ही हमारे समग्र शरीर में व्यान वायु को पैदा करना होता है , जिसके निर्माण का आधार तेरे अन्दर ही होता है । हम जानते हैं कि वनस्पतियों के प्रयोग से हमारा सम्पूर्ण नस – नाडी का जो संस्थान है वह ठीक से कार्य करने लगता है । इससे ही मानवीय मस्तिष्क ठीक से कार्य करने की क्षमता पाता है , अर्थात ठीक बना रहता है ।
२. दीर्घायु के लिए वनस्पतिक भोजन करें :-
मानव को परम पिता परमात्मा ने सौ वर्ष की आयु देकर इस धरती पर भेजा है । इस के साथ ही यह भी आदेश दिया हे कि हे प्राणी ! मैं तुझे इस धरती पर भेज रहा हूं , इस आश्य से कि तूं इस धरती पर कम से कम एक सौ वर्ष तक का जीवन व्यतीत कर सके और वह जीवन भी एसा हो कि जो पूर्ण स्वस्थ रहते हुए हंसी – खुशी के साथ व्यतीत हो , कर्म करते हुए व्यतीत हो । स्पष्ट है कि प्रभु ने सौ वर्ष तक कर्म करने योग्य जीवन मानव को दिया है । इस लिए ही मानव इन वनस्पतियों को प्रयोग में लाता है ताकि उसका यह जीवन स्वस्थ रहते हुए कर्म करते हुए व्यतीत हो । मानव की कामना है कि वह जीवन पर्यन्त स्वस्थ रहते हुए कर्म करते हुए इस जीवन को व्यतीत करे । इसके लिए आवश्यक है कि वह वनस्पतिक भोजन करे । यह वनस्पतिक आहार ही है जो लम्बी आयु देने के साथ ही साथ जीवन को क्रियाशील भी रखता है । इसलिए मन्त्र वनस्पतियों से युक्त भोजन करने का आदेश देता है , सन्देश देता है , उपदेश देता है ।
३. हम प्रतिदिन प्रात: सूर्य किरणों का सेवन करें :-
मन्त्र में जो तीसरी बात कही गई है वह है कि हम मात्र वस्पतियों से युक्त भोजन करके ही सुखी नहीं रह सकते । इसके साथ ही साथ हम सूर्य की किरणॊं के साथ अपना सम्पर्क स्थापित कर अपने आप को स्वस्थ बनावें । इस पर हम विचार करें । प्रभु ने इस मन्त्र के माध्यम से हमें धान्य अर्थात वनस्पतियों के उपभोग की प्रेरणा करते हुए सूर्य किरणों के सम्पर्क में रहने का भी उपदेश किया है । जब तक सूर्य की किरणों का सम्पर्क नहीं हो पाता कोई वनस्पति तब तक पैदा ही नहीं हो सकती । आप अपने बन्द कमरे के अन्दर किसी भी वनस्पति के बीज डाल दीजिये । इन बीजों को उत्तम से उत्तम खाद भी दीजिये तथा प्रति दिन यथा आवश्यक जल भी दीजिये किन्तु आप देखेंगे कि इन बीजों का बडी कठिनाई से अंकुर फ़ूटता है । यह अंकुर भी मुरझाया सा ,टेढा मेढा सा होकर बडे धीरे से चलता है तथा कुछ दिनों के अन्दर ही मर जाता है , सूख जाता है । इससे यह तथ्य सामने आता है कि वनस्पतियों को पैदा करने , बढने व फ़ूलने फ़लने के लिए सूर्य की किरणों के दर्शन आवश्यक है । इसके बिना यह अपने जीवन के परिणाम तक नहीं पहुंच सकतीं ।
कुछ एसा ही मानव जीवन के साथ भी होता है । हम देखते हैं कि जब एक व्यक्ति को बन्द कमरे में रखा जाता है , जिसमें सूर्य की किरणें प्रवेश नहीं कर सकतीं तो यह व्यक्ति कुछ दिनों में ही कमजोर होते हुए पीला पड जाता है तथा धीरे धीरे इस के शरीर में रोग प्रवेश कर जाता है ,उसके अंग ढीले पडने लगते हैं तथा रोगी हो कर कुछ काल में ही उसकी मृत्यु हो जाती है । इसलिए मन्त्र कहता है कि हे प्राणी ! तूं अपने शरीर को सूर्य की किरणॊं के साथ जोड । जब तूं सूर्य के सामने जाता है तो यह सूर्य अपने किरण रुपी निर्दोष हाथों से ( सूर्य की किरणें सब प्रकार के दोषों को , रोगाणुओं को समेट कर नष्ट करने वाली होती हैं , इसलिए इसे निर्दोष हाथों वाली कहा गया है ) जो हितकारक तथा प्राणशक्ति दायी तत्वों को लिए हुए है , वह सब तुझे दे ।
इस प्रकार मन्त्र कहता है कि हे प्राणी ! तूं प्रात; उठ , प्रात; उठकर सुर्याभिमुख हो कर इस की किरणों को ग्रहण कर तथा परम पिता का ध्यान कर , उसका स्मरण । इन हितकारक किरणों से तेरा शरीर रोग मुक्त हो कर स्वस्थ हो जावेगा । स्वस्थ्य उत्तम होने से तूं खुश रहेगा तथा तेरी दीर्घायु होगी और प्रभु की समीपता भी मिलेगी । यह तो हम जानते हैं कि उदय हो रहे सूर्य की किरणों में सब प्रकर के रोगाणुओं का नाश करने की अत्यधिक शक्ति होती है । फ़िर हम निश्चय ही इन किरणों का सेवन करने के लिए प्रात: सूर्योदय के साथ ही अपनी शैय्या को छोड निकल जावें ।
४. हम प्रात: अपनी आंखों को सूर्य किरणें दिखावें :-
सूर्य की यह किरणें हमारी दृष्टी के लिए भी उत्तम होती हैं । इस लिए ही मन्त्र कह रहा है कि हे सूर्य देव ! मैं तुझे अपनी द्रष्टी शक्ति की रक्शा के लिए ग्रहण करता हूं । जब हम इस पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि वास्तव में सूर्य हमारी आंखों में ही निवास करता है । यह ही हमारी आंखों का स्वामी है । यदि सूर्य न हो तो हमारी आंखों का भी कोई प्रयोजन नहीं रह जाता क्योंकि हमारी आंख तब ही देख पाती है , जब प्रकाश हो । अन्धेरे में तो यह देख ही नहीं सकती । जब प्रात; काल की सूर्य की शीतल किरणें इन आंखों पर पडती हैं तो आंखों को भी शीतलता मिलती है । इन्हें भी आराम मिलता है तथा इन में देखने की शक्ति बढती है ।
सूर्य की किरणों से हमारी आंखों की देखने की शक्ति बढती है इसलिए ही मन्त्र के माध्यम से मैं यह कह रहा हूं कि जब मैं सूर्य की किरणों को देखता हूं तो मेरी आंखों की ज्योति बढती है। अत: मैं सूर्य की और मुंह करके बैठ जाता हूं तो सूर्य की यह निर्मल , पवित्र किरणें मेरी आंखों में मेरी दृष्टी शक्ति का प्रवेश करवाती हैं । जब हम ठीक प्रकार से अपनी आंखों को सूर्य की किरणों का प्रवेश कराते हैं तो हमारी आंख की सब निर्बलताएं , सब दोष , सब रोग दूर हो जाते हैं ।
५. सूर्य किरणों से हमारे सब अंगों में शक्ति आती है :-
यह सूर्य ही है , जो माननीय है , तूं पूजनीय है , तूं ही मानव की सब प्रकार की शक्तियों को बढाने वाला है ।
इन शब्दों में यह मन्त्र हमें बता रहा है कि सूर्य के माधयम से ही जीव मात्र जीवित है । जीव को जीव तब ही कहा जाता है क्योंकि उसमें जीवन है । यदि इस में जीवन न हो तो इसे जीव कह ही नहीं सकते । जीव में जो जोवनीय शक्ति है , उस शक्ति का प्रमुख आधार सूर्य ही है । इस लिए यहां कहा गया है कि तूं ही सब शक्तियों को देने वाला है ।
जब हम वेद के इस तथ्य पर विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि हमारे जितने भी भोज्य पदार्थ हैं , जिन के उपभोग से हमारी क्षुधा शान्त होती है तथा हमारा जीवन आगे बढता है , उन सब की उत्पति इस सूर्य की किरणों ही के कारण होती है । हम जो प्रतिदिन अपनी दिनचर्या करते हैं , स्वाध्याय करते हैं , व्यापार करते हैं अथवा अपने जीवन का कोई भी व्यवसाय करते हैं तो वह भी इन किरणों के सहयोग से ही करते हैं । हम जो कुछ भी देखते हैं , वह सब भी सूर्य की इन किरणों का ही परिणाम है । इस सब से एक तथ्य जो सामने आता है , वह यह है कि सूर्य ही हमारे सब कार्यों का केन्द्र है । यदि सूर्य न होता तो हम अपने यह क्रिया क्लाप तो क्या , हम अपने जीवन के विषय में भी कुछ नहीं कह सकते , कुछ नहीं सोच सकते ।
सूर्य हमारी सब शक्तियों का अध्यापन करने वाला है । सूर्य ही हमारी सब शक्तियों को बढाने वाला है । इस की किरणों के सम्पर्क में आने से ही हमारे शरीर के सब अंग प्रत्यंग बढते हैं , फ़लते फ़ूलते हैं तथा टीठी क से कार्य करते हैं । इन को शक्ति मिलती है । इस लिए सूर्य का सेवन सूर्य का सम्पर्क हमारे लिए आवश्यक है ।

डा अशोक आर्य