किस प्रभु की उपासना करें हम

औ३म
किस प्रभु की उपासना करें हम
डा. अशोक आर्य
प्रभु हमारे गन्तव्य है , प्रभु की प्राप्ति ही हमारा अन्तिम लक्श्य है। इस गन्तव्य को , इस लक्शय को हम अपना ग्यान बदाकर तथा प्रजा का पालन करने से ही प्राप्त किया जा सकता है । मानवीय वीरता किस बात में है ? यह अन्यों के दु:ख दूर करने में है, उन्हें सुखी करने में है। मानव मात्र को अग्नि की भान्ति बन कर स्वयं भी आगे बदना चाहिये तथा दूसरों को भी , उन के पथ प्रदर्शक बनकर , मार्ग दर्शक बनकर उन्हें भी आगे बटाना चाहिए । यह सब तब ही सम्भव है , जब मानव त्याग की भावना से कार्य करता है । इस तथ्य को सामवेद के मन्त्र संख्या २६ में इस प्रकार स्पश्ट किया गया है : –
नि त्वा नक्श्य विश्पते द्युमन्तं धीमहे वयम ।
सुदीरमग्न आहुत ॥ साम. २६॥
मानव जीवन का अन्तिम लक्श्य परमपिता परमात्मा की प्राप्ति है । परमपिता परमात्मा को पाने के लिये हमें अपने में ही प्रमपिता परमात्मा के समान गुणों को पैदा करना होता है यथा सर्वकल्याण की भावना, दूसरों का सहयोग , मार्गदर्शन करना आदि । इस ल्क्शय को ही सम्मुख रख हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं की हे प्रभो ! हम आपका ध्यान करते हुये आपको धारण करते हैं । आप ही हमारे गन्तव्य हो, हमारे अन्तिम लक्शय हो । जिस प्रकार अपने लक्श्य को पाने के लिये प्राणी हजारों यत्न करता है , उस प्रकार ही हम भी आप तक पहुंचने के लिये निरन्तर यत्न करते रहते हैं ।
परमात्मा ही हमारा अन्तिम लक्श्य है । उसकी प्राप्ति के मार्ग पर चलने से मानव को सन्तो्ष नहीं मिलता । मानव शक्तियों को जीर्ण करने का कमजोर करने का कारण भी अपार सम्पति तथा त्याग योग्य अनेक प्रकार के भोग्य पदार्थ होते हैं । इस ओर जाने से मानव का कल्याण सम्भव नहीं ।
जब प्रक्रति में स्वयं में ही आनन्द नहीं तो वह दूसरों को आनन्दित कैसे कर सकती है ? अर्थात प्रकर्ति से कोयी भी आनन्दित नहीं हो सकता । जब मानव आनन्द प्राप्त करना चाहता है तथा प्रक्रति आनन्द दे नहीं सकती फ़िर एकमात्र प्रभु ही आनन्द का स्रोत है , तो ही तो हम प्रभु की ओर जाते हैं तथा उसे ही अपना लक्श्य , उसे ही अपना अन्तिम गन्तव्य बनाते हैं । वह प्रभु सब प्रजाओं क पालक है, पित्रवत सब का पालन करता है । इस चल संसार में भी जो व्यक्ति पालन का कार्य करता है , उसे सब दु:खी लोग सम्मान की द्रिश्टी से देखते हैं । जब बिना किसी स्वार्थ के वह दु:खियों की सहायता करता है तो दु:खी लोग तो उससे प्राप्त दया के लिये उसके उपासक बनते ही हैं , अन्य लोग भी उसे सम्मान देने लगते हैं ।
परमपिता परमात्मा को पालक कहा गया है । पिता पालक क्यों है ? कैसे है ? परमपिता पर्मात्मा ज्योतिर्मय है , सब को ज्योति देने वाला है , ग्यान बांटने वाला है , प्रकाश फ़ैलाने वाला है । इस कारण उसे पालक कहा गया है क्योंकि वह ग्यान का प्रकाश देकर हमारा पालन करता है । इस प्रकार ही जो प्राणि ग्यान के मार्ग पर सेवा के मार्ग पर , दान के मार्ग पर जितना ही अग्र्सर होगा , उतना ही वह स्वार्थ से दूर होता चला जावेगा । जब स्वार्थ से दूर होगा तो परार्थ के कार्य करेगा, परोपकार करेगा , दूसरों की सहायता करते हुये प्रभु के से ही कार्य करेगा ।
परमात्मा सुवीर है
परमपिता परमात्मा हमें शोभन गति को प्राप्त कराने वाला होने के कारण उत्तम वीर भी है । उत्तम वीर किसे कहते हैं ? जो सदा दूसरे का हित देखे , दूसरे का हित चाहे, दूसरे के हित की बात करे, उसे उत्तमवीर कहा जाता है । परम पिता परमात्मा सदा दूसरों का , प्राणी मात्र का हितचिन्तक होने के कारण उत्तम वीर कहा जाता है । उपर कहा गया है कि परमात्मा के गुणों को अपनाना ही जीव को उत्तम बनाता है । अत: दूसरों की सहायता करना, दूसरों का मार्गदर्शन आदि करना भी मानव को उस पिता की ओर ले जाता है । ओरों का हित करने से परमपिता परमात्मा सुवीर है तो हम भी उसका अनुकरण करते हुये सुवीर बनने का यत्न करें ।
परमात्मा सब को आगे की ओर ले जाता है
परमपिता परमात्मा सब प्राणियों को सदा आगे की ओर ले कर चलता है । सब की उन्नति चाहता है । सबकी प्रगति चाहता है । सबका कल्याण चाहता है । इसलिये वह परमात्मा आहुत कहलाता है । उस परमात्मा ने हमारे चारों ओर उत्तम पदार्थों को हमारे उपभोग के लिये निर्माण कर रखा है । इतना ही नहीं हमारे उत्कर्श के लिये, हमारे उत्थान के लिये जितने भी आवश्यक पदार्थ होते हैं ,उन सब को हमारे लिये जुटा कर दिया है । यदि हमारे में ग्यान है तो हम इन पदर्थों का उपयोग करते हैं, यदि हमारे में ग्यान का अभाव है , जिस कारण हम इन पदार्थों का सदुपयोग नहीं कर पाते, यह एक भिन्न बात है । परमपिता ने तो हमारे लिये सब साधन बना दिये । अब हमारे अन्दर इतनी बुद्धि होनी चाहिये कि हम इन पदार्थों को अपने जीवन को सुखी बनाने के लिये कैसे प्रयोग करें । यदि हमारे पास एसा ग्यान ही नहीं है कि हम इन वस्तुओं के प्रयोग को समझ कर इन्हें उपयोग में ला ही न सकें तो इस में परमात्मा का क्या दोश है ? हम अपने ग्यान को बदायें तथा इन सब साधनों का सदुपयोग करें ।
वास्तव में जो व्यक्ति प्रभु का ध्यान करता है , प्रभु के बताये मार्ग पर चलता है, उस के आदेश में रहता है वह कभी भी अपने आप को भोगवाद के मोह में नहीं जाने देता, कभी भोगवाद का शिकार नहीं होता । उस प्रभु की छाया में रहने वाला व्यक्ति सदा अपने को काबू में रखता है , अपने आप पर अंकुश लगाये रखता है । इस प्रकार वह अपने आप को साधारण नहीं विशिस्ट व्यक्तित्व का धनी बनाता है तथा संसार एसे व्यक्ति का आदर करता है , मान देता है, उसकी यश व कीर्ति को दूर दूर तक ले जाता है ।

डा. अशोक आर्य

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