Category Archives: वेद विशेष

यज्ञकर्ता को उत्तम सन्तान, प्रशस्त जीवन तथा पवित्र धन

ओउम्
यज्ञकर्ता को उत्तम सन्तान, प्रशस्त जीवन तथा पवित्र धन
परमपिता प्रभु नित्य यज्ञ करने वालों को एसा पवित्र धन दे जो उसे वीर बनावे, उसे उत्तम सन्तान दे, उंचे जीवन वाला बनावे तथा यह धन चॊर आदि चुरा न सकें । इस तथ्य को इस ऋचा के इस पांचवें मन्त्र में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
दानोअग्नेधियारयिंसूवीरंस्वपत्यंसहस्यप्रशस्तम् ।
नयंयावातरतियातुमावान ॥ ऋग्वेद ७.१.५ ॥
विगत मन्त्र में यह प्रार्थना कि गयी थी कि हे प्रभो ! हम इस यज्ञ अग्नि के समीप बैठे परिजन यज्ञ की समाप्ति पर आप से प्रार्थना करते हैं कि आप हमें आगे से पवित्र कर्मों के कारण हमें अपार धन दीजिये । हमारे काम , क्रोध आदि दुष्ट शत्रुओं को यज्ञ दूर कर देता है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हे प्रभो हमें वह धन दीजिये , जो हमें वीर बनाता है , जो हमें उत्तम सन्तान वाला बनाता है , जिस धन की प्राप्ति हमने पवित्र साधनों से ही की है ।
१ हम उन्नति पथ पर रहें
मन्त्र हमें प्रथम सन्देश , प्रथम उपदेश दे रहा है कि हम उन्नति के पथ पर प्रशस्त रहें | हम ने यह जो यज्ञ किया है , यह यज्ञ हमें उन्नति की और ले जाने वाला हो | हम जो नित्य यज्ञ करते हैं , यह यज्ञ हमें निरंतर उन्नत करता रहे | हमारी उन्नति के मार्ग में कोई भी व्यवधान , कोई भी बाधा न आवे | हम निरंतर आगे और आगे बढ़ते ही चले जावें |
२ धन सम्पदा प्राप्त हो
मन्त्र के माध्यम से हम जो दूसरी प्राथना करते हैं , वह यह है कि हम अपार धन संपदाओं के स्वामी बनें | नित्य यज्ञ करने से सब के ह्रदय पवित्र होते हैं | पवित्र हृदयों वाले व्यक्ति पुरुषार्थी होते हैं | यह अत्यधिक मेहनत करके अपार धन प्राप्त कर स्वयं तो सुखी होते ही हैं , अन्यों के भरण पोषण में भी सहयोगी होते हैं | इस प्रकार यह यज्ञ हमारे लिए अपार धन सम्पदा प्राप्ति का साधन होता है |
३. हम पवित्र कर्म करें
मन्त्र आगे उपदेश कर रहा है कि हम पवित्र हृदयों के , हम शुद्ध हृदयों के स्वामी बनें | यज्ञ सदा स्वयं को शुद्ध करके किया जाता है | जब हम स्नानादि से अपने अन्दर और बाहर को शुद्ध पवित्र कर लेते हैं , तब ही यज्ञ करने के लिए आसन पर बैठते हैं | इस प्रकार शुद्ध हो कर जब हम शुद्ध भावना से , पवित्र भावना से यज्ञ करते हैं तो हमें इस यज्ञ के परिणाम भी पवित्र ही प्राप्त होते हैं तथा हम नित्य जो भी कर्म करते हैं , उनमें भी पवित्रता आ जाती है | इस प्रकार हमारे सब कर्म पवित्र होते हैं | हम पवित्र होते हैं | हमारे कर्म न केवल हमारे अपने लिए ही अपितु अन्यों के हित का भी ध्यान रख कर किये जाने के कारण पवित्रता से लबालब भरे रहते हैं | यह पवित्र कर्म ही पुरुषार्थ का साधन होने से हम अपार धनों के स्वामी बनते हैं |
४ हम वीर बनें
यज्ञ करते समय हमारे मानों में यह भावना भी रहती है कि हम अपने अन्दर और आहार दोनों प्रकार के शत्रुओं को पराजित करने में संपन्न हों | हम इस प्रकार की शक्ति प्राप्त करने के सदा इच्छुक रहते हैं | बाहरी शत्रुओं को पराजित करने के लिए शारीर का शक्तिशाली और पुष्ट होना आवश्यक होता है , जबकि आतंरिक शत्रु यथा काम,क्रोध , लोभ , मोह, अहंकार आदि हमारे अन्दर ही बैठे हुए हमें अन्दर से ही खोखला करने में लगे रहते हैं | यज्ञ हमें वीर बनाता है, हमें पुष्ट करता है , हमें पुरुषार्थी अनाकर अनेक धनों का स्वामी बनाता है | जिस से हम वीरता पूर्वक इन शत्रुओं को नष्ट करने में सफल होते हैं |
५. हम उतम संतानों वाले हों
प्रत्येक प्राणी की यह हार्दिक इच्छा होती है कि उसकी संतान उतम हो | वह चाहता है कि उसकी संतान सत्यमार्ग पर चलते हुए इस प्रकार इस प्रकार के उतम कार्य करे , जिस से उसका यश और कीर्ति दूर दूर तक जा सके | इस प्रकार की संतान यज्ञ की छत्रछाया के बिना संभव ही नहीं है | जहां नित्य प्रति यज्ञ होता है , वहां यज्ञ के प्राकृतिक गुण तो यज्ञकर्ता और उसके आसपास के निवासी लोगों को मिलते ही हैं किन्तु यज्ञ वेदी पर बैठे लोगों को कुछ विशेष लाभ भी मिलते हैं | इन लाभों में मुख्य रूप में जो लाभ माना जाता है , वह है शिष्टाचार | यज्ञ के आरम्भ से पूर्व ही शिष्टाचार का व्यवहार आरम्भ हो जाता है |
यज्ञ में किसे कैसे व्यवहार करना है ? , किस ने कहाँ व कैसे बैठना है ?, किस परिधान में बैठना है ?, किस प्रकार से यज्ञ की विभिन्न क्रियाएं करना है ?, बड़ों को कहाँ ओर कैसे बैठना है ?, छोटों को कहाँ और कैसे बैठना है ?, यह तो यज्ञ में साधारण शिष्टाचार की बातें हैं , जो यज्ञ कर्ता को आनी चाहियें | यह सब सिखाने की आवश्यकता नहीं होती | जहां यज्ञ होते रहते हैं , वहां के लोगों को स्वयमेव ही आ जाती हैं और जहाँ या जिस परिवार में प्रतिदिन दो काल यज्ञ होता है , वहां के बालक तो शिष्टाचार की इस परम्परा में पारंगत होते हैं |
यज्ञ की समाप्ति पर एक विशेष प्रकार के शिष्टाचार की परम्परा भी है | यज्ञ करते हुए हम परमपिता की गोदी में बैठ कर उस प्रभु का आशीर्वाद पाने का यत्न कर रहे थे | प्रभु की गोदी में छोटे बड़े सब समान रूप से बैठे थे | पिता का सब को समान रूप से आशीर्वाद मिल रहा था | यज्ञ की समाप्ति पर हम सांसारिक लोक में आते हैं और अब सांसारिक संबंधों के आधार पर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं | इस अभिवादन के क्रम में आयु व सम्बन्ध में छोटे लोग अपने बड़े लोगों का अभिवादन करते हैं | उन बड़ों के पाँव छू कर उनका स्नेह माँगते हैं | बड़े अथवा सम्बन्ध में बड़े लोग ही उनके कार्यों पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन सब को समान रूप से अपना आशीर्वाद देते हैं | इस प्रकार परस्पर स्नेह के साथ प्रसन्नता का वातावरण बनता है तथा सब एक दूसरे के लिए शुभ की अभिलाषा करते हैं |
बालक जो देखता है , सदा उसका ही अनुसरण करता है | प्रतिदिन यज्ञ करते हुए वह अनेक उतम व्यवस्थाओं को देखते हुए उन सब का अनुसरण करता है | अत: वह भी उतम कार्यों की और अपने को अग्रसर करता है | इस प्रकार प्रतिदिन के यज्ञ से हमारी संतानों में भी उतमता का आघान होता है | अत: उतम संतान की प्राप्ति का साधन भी यह यज्ञ ही है |
७. पवित्र धन की प्राप्ति
हम यह सब कुछ प्राप्त करना चाहते हैं किन्तु उतम धन के बिना , पवित्र धन के व्यय के बिना यह सब संभव नहीं है | आज के भौतिक धन की प्राप्ति की दौड़ में हम धन की पवित्रता की आवश्यकता को भूल जाते हैं | इस का ही परिणाम है कि आज के इस अपवित्र धन के कारण समाज के लोगों के सुख नष्ट हो रहे हैं , शांति भाग रही है , कष्ट निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं | जहाँ माता पिता अपनी संतान से दु:खी हैं , वहां संतान भी अपने माता पिता के व्यवहार से बेहद दु:खी है | सब एक दूसरे को कोसते रहते हैं , निंदा करते रहते हैं | इस कारण एक दूसरे के प्रति कहीं कोई आदर सत्कार ही नहीं रहता है | इस का कारण है प्रतिदिन यज्ञ का अभाव |
यह यज्ञ ही है जो प्रतिदिन करने पर हमें सुपथ देता है , उतम धन की प्राप्ति करता है , पवित्र धन की हम पर वर्षा करता है , सब प्रकार के सुख – समृधि का कारण होता है | सब प्रकार कि खुशियों का कारण होता है | यज्ञ से जहाँ हमारा वायुमंडल साफ़ होता है , वहां हमारा अन्दर और बाहर पवित्र होने से हमें सत्यनिष्ठा, कर्तव्य परायणता, मृदुभाषा, उतम शिष्टाचार के गुण रूपी अनेक प्रकार के पवित्र धन दे कर हमें मालामाल कर देता है | इस प्रकार के पवित्र धन को पा कर हम खुशियों से झूम उठाते हैं |
इतना ही नहीं इस मन्त्र में एक ओर प्रार्थना भी की गयी है , जो इस मन्त्र का सब से मुख्य अंग कही जा सकती है , वह यह कि हे प्रभो ! हमें एसा पवित्र धन दीजिये जिसको हिंसा की भावना से युक्त होकर हम पर आक्र्मण करने वाले शत्रु भी हमारे से छीन न सकें । इस प्रकार के पवित्र धन का साधन यज्ञ ही होता है |

डा. अशोक आर्य

उत्तम सामग्री से यज्ञ करें

ओउम्
उत्तम सामग्री से यज्ञ करें
डा. अशोक आर्य
यज्ञ करता यज्ञ करते समय जैसा शुद्ध घी तथा जैसी शुद्ध सामग्री का प्रयोग यज्ञ में करता है , उसे तदनुरूप ही वसुओ की प्राप्ति होती है | तदनुरुप ही सफ़लतायें मिलती हैं । इस लिए यज्ञ में सदा उत्तम घी व सामग्री का ही प्रयोग करना चाहिए । इस सम्बन्ध में ऋग्वेद का यह मन्त्र भी इस पर ही प्रकाश डालते हुए उपदेश करता है कि : –

उपयमेतियुवतिःसुदक्षंदोषावस्तोर्हविष्मतीघृताची।
उपस्वैनमरमतिर्वसूयुः॥ ऋ07.1.6
1. उतम हवियों से यज्ञ करें
उत्तम बल वाले अथवा जिस उत्तम बल की कारणभूत अग्नि को हम प्रतिदिन प्रात: व सायं काल में शुद्ध व तीव्र हवी अर्थात् घी व सामग्री आदि को इस अग्नि के साथ मिलाते हैं , घी व सामग्री की आहुति चम्मच द्वारा इस यज्ञ में देते हैं , इस से अग्नि को दीप्ति प्राप्त होती है । इस प्रकारत की आहुतियों से अग्नि तीव्र होती है , तेज होती है । इस प्रकार चम्मच से घी को पा कर अग्नि का प्रकाश बढ़ जाता है ।
२. वसुओं की यज्ञाग्नि
इस प्रकार से दीप्त यह अग्नि यज्ञ कर्ता को वसुओ की कामना वाली होती है , अनेक प्रकार के वसुओ को प्राप्त कराती है । इससे यज्ञ कर्ता को अनेक पकार की उपलब्धियां मिलती हैं । इस प्रकार यज्ञ करने वाले को सब प्रकार की प्राप्तियां हो जाती हैं । आओ इस प्रकार किये जाने वाले यज्ञ तथा इससे होने वाले हित पर विचार करें :-
३. यज्ञ की समिधा उतम हो
हैं | इससे एक परम्परा की लकीर तो हम पिट सकते हैं किन्तु यज्ञ में डालने योग्य समिधा से जब हम यज्ञ न कर किसी अन्य लकड़ी को समिधा बना कर यज्ञ अग्नि में डालते हैं तो जो गुण या दोष हमारे स्वास्थ्य के लिए हो सकते हैं , वह गुण या दोष ही हमें प्रतिफल में मिलते हैं | इस लिए यज्ञ में डाली जाने वाली लकड़ी वही ही प्रयोग की जानी चाहिए , जिस में रोग नाश कि क्षमता हो अन्यथा अंधविश्वास रूपी यज्ञ तो हम कर लेवेंगे किन्तु हितकारक यज्ञ न कर पावेंगे | यह भी हो सकता है कि जिस लकड़ी का हम यज्ञ में प्रयोग कर रहे अं , वह कहीं स्वास्थ्य के लिए हानि कारक ही हो | अत: इससे होने वाली हानि के परिणाम हमारे शरीर पर प्रकट हों तो हम यह कहते हुए यज्ञ के विरोधी ही हो जावें कि यह सब यज्ञ करने से हुआ है | इसलिए वह समिधा ही प्रयोग किया जावे , जिस का प्रयोग करने के लिए शास्त्रों में उपदेश किया गया हो |
४. यज्ञ में शुद्ध घी का प्रयोग
यज्ञ के प्रति श्रद्धा न रखने वाले लोग आज यह कहने लगे हैं कि शुद्ध घी न भी डाला जावे तो क्या है ? यज्ञ तो सरसों के तेल, तिल के तेल, भैंस के घी आदि किसी भी चिकनी वास्तु से कर लें | यह आवश्यक नहीं कि गाय का घी ही यज्ञ में प्रयोग किया जावे |
५. उतम सामग्री का प्रयोग
ठीक इस प्रकार ही सामग्री की भी अवस्था है | जैस सामग्री का प्रयोग करने का आदेश हमारे शास्त्रों ने दिया है , उसमें कहा गया है कि इस सामग्री में कुछ सुगंध बढाने वाली बूटियाँ डाली जावें | सामग्री का कुछ भाग पोष्टिक पदार्थों से बनाया जावे | इसके अतिरिक्त एक भाग रोग नाशक जड़ी बूटियाँ भी एक निश्चत मात्रा में डालने के लिए कहा गया है | जब हम यह सब पदार्थ एक निश्चित अनुपात में मिला कर सामग्री तैयार करते हैं और इस सामग्री से हमारी वायु मंडल शुद्ध हो कर सुगंध से भर जाता है | हमारा शरीर इस यज्ञ के वायु से , इस यज्ञ के धुएं को वायुमंडल से प्राप्त कर पुष्टि को प्राप्त होता है | इसा सब के साथ ही साथ जब इस प्रकार के यज्ञ के वायु क्षेत्र में हम निवास करते हैं तो हमारे शरीर के अन्दर निवास करने वाले रोग के कीटाणुओं का नाश होने लगता है तथा हम अनेक प्रकार के रोगों से बच जाते हैं |
जब हम यज्ञ को केवल एक परिपाटी मान लेते हैं | अंधविश्वास मान कर इस में किसी भी प्रकार की लकड़ी का प्रयोग करते हैं , किसी भी दुर्गन्ध से युक्त बूटियों को यज्ञ में प्रयोग करते हैं | कैसा भी तैलादि हम यज्ञ में प्रयोग करते हैं तो वायु मंडल में आने वाले प्रतिफल तो उस वस्तु के अनुरूप ही होगा , जो उस में डाली जा रही होगी | देखने और सुनाने में हम ने एक परिपाटी को पूर्ण करते हुए दिखावे का यज्ञ तो कर लिया किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से जिसे यज्ञ कहा गया है , आयुर्वेद की दृष्टि से जिसे यज्ञ कहा गया है , वेदादि शास्त्रों में जिसे यज्ञ कहा गया है , इस प्रकार की बेकार वस्तुओं के कारण यज्ञ का जो हितकारक परिणाम हमें मिलने वाला था , वह नहीं मिला पाता |
इस प्रकार के यज्ञ के कारण हमारे शारीर को अनेक प्रकार के संकट आ घेरते हैं | पास पडौस के लोग बगी इस प्रकार के यज्ञीय परिवार से बचना चाहते हैं | शास्त्रों ने यज्ञ करने के जो लाभ बताएं हैं , वह न मिलाने से हम यज्ञ से घृणा करने लगते है किन्तु यह दोष यज्ञ का न होकर हमारा अपना ही दोष होता है |
इस कारण ही यह मन्त्र हमें उपदेश कर रहा है कि हम प्रतिदिन दो काल यज्ञ करें और इस किये जाने वाले यज्ञ में शास्त्रोक्त समिधा , शास्त्रोक्त घी तथा शास्त्रोक्त सामग्री का ही प्रयोग करें तो कोई कारण नहीं कि इस यज्ञ का शास्त्र में बताये अनुसार लाभ हमें न मिले | यह लाभ निश्चित रूप से हमें मिलेगा | बस हम बड़ी श्रद्धा से उतम घी का, उत्तम समिधा का तथा उतम सामग्री का प्रयोग इस यज्ञ के अन्दर करें | इस प्रकार से परमात्मा प्रसन्न होगा तथा इसके उतम परिणाम हमें देगा |
डा. अशोक आर्य

पारिवारिक सुख के लिए वेद

ओउम
पारिवारिक सुख के लिए वेद
आर्य स्त्री समाज गोरे गाँव मुंबई मासिक सत्संग आज मंगलवार दिनांक १० जनवरी २०१७ सायं को ढिढोशी के एक परिवार में हुआ | इस अवसर पर यज्ञ के पश्चात श्रीमती दर्शनादेवी सहित अनेक महिलाओं ने भक्ति तथा प्रभु भक्ति तथा ऋषि दयानंद सम्बन्धी भजन गायन से समां बाँध दिया |
तदोपरांत कौशाम्बी , गाजियाबाद से पधा रे डा. अशोक आर्य ने अपने प्रवचन में बताया कि ऋग्वेद का अंतिम सूक्त संगठन सूक्त के रूपा में जाना गया है | इस सूक्त का एक मन्त्र है :-
संगच्छध्वंसंवदध्वंसंवोमनांसिजानताम्।
देवाभागंयथापूर्वेसंजानानाउपासते॥ ऋ010.191.2
इस मन्त्र में परिवार का दृश्य स्पष्ट किया गया है | परिवार के सुख उपदेश करते हुए कह रहा है संगच्छध्वं अर्थात हम साथ साथ चले | जिस परिवार के सब सदस्य एक साथ चलें ,वह उन्नति कि और सदा अग्रसर रहता है किन्तु तब जब संवदध्वं अर्थात न केवल साथ साथ ही चलते हों बल्कि एक जैसा या एक स्वर से बोलते भी हों | मन्त्र आगे उपदेश करता है कि साथ चलने और एक जैसा ओलाने के अतिरिक्त परिवार के सुख के लिए मन्त्र बताता है कि संवोमनांसिजानताम् अर्थात सब के मन भी एक जैसे हों | सब एक जैसा बोलते हों, एक जैसा सोचते हों , एक जैसा विचार करते हों |
इस मन्त्र के आधार पर दा. अशोक आर्य ने आगे बताया कि जिस परिवार में इस प्रकार के विचार होंगे , सब एक दुसरे का आदर सत्कार करेंगे , वहां निश्चय ही सब प्रकार के सुख होंगे अन्यथा परिवार में सुख आ ही नहीं सकता | सदा लड़ाई झगडा कलह क्लेश का वाता वरण बना रहेगा | इस अवस्था में परिवार के सब सदस्यों पर अनेक प्रकार के रोगों के आक्रमण होंगे | इस सब से बचने के लिए इस मन्त्र पर आचरण करें | अपने अहं को भुला करके बलिदान कि भावना से प्रत्येक सदस्य का आदर सत्कार करोगे तो परिवार में सब सुखों के साथ ही साथ सब प्रकार के धन ऐश्वर्यों की वर्षा होगी, परिवार को स्वर्गिक आनंद मिलेगा तथा परिवार का यश व कीर्ति दूर दूर तक जावेगी |

स्वावलंबी को सर्वत्र प्रतिष्ठा व सम्मान मिलता है

स्वावलंबी को सर्वत्र प्रतिष्ठा व सम्मान मिलता है डा अशोक आर्य
यह वैदिक ही नहीं सामाजिक नियम है कि जो व्यक्ति स्वावलंबी है , जो व्यक्ति दूसरों पर निर्भर न हो कर अपने सब कार्य,सब व्यवसाय आदि स्वयं करता है , समाज उसे आदर की दृष्टि से देखता है , उसे सम्मान देता है | स्वावलंबी व्यक्ति जहाँ भी जाता है , उसका खूब आदर सत्कार होता है | ऐसे व्यक्ति द्वारा अपना कम स्वयं करने से उसका अनुभव दूसरों से अधिक होता है , उसकी कार्यकुशलता भी अन्यों से कहीं अधिक होती है तथा वह जो कार्य करता है , उसे करने में उसकी गति भी तीव्र होती है | इस तथ्य को ऋग्वेद में बड़े ही सुन्दर विधि से इस मन्त्र में स्पष्ट किया गया है :
स्वःस्वायधायसेकृणुतामृत्विगृत्विजम्।
स्तोमंयज्ञंचादरंवनेमाररिमावयम्॥ ऋ02.5.7
मन्त्र कहता है कि हे मानव ! स्वावलंबन को तुम अपनी पिष्टी के लिए धारण करो | हे यज्ञमान ! तुम ऋतु के अनुकूल यज्ञ करो | हमने दान दिया है , अत: हम अधिक प्रशंसा और यज्ञ ( संमान ) को प्राप्त करें |
मन्त्र में सर्वप्रथम स्वावलंबन पर बल दिया गया है | आगे बढ़ने से पूर्व स्वावलंबन के सम्बन्ध में जानकारी होना आवश्यक है , इसे जाने बिना हम मन्त्र के भाव को ठीक से नहीं समझ सकते | अत: आओ हम पहले हम स्वावलंबन शब्द को समझें : –
स्वावलंबन क्या है ? :-
स्वावाकंबन से अभिप्राय स्वत्व की अनुभूति और उसका प्रकाशन से होता है | जब मानव स्व को ही भूल जावे तो उसका अवलंबन भी कैसे करेगा ? एक पौराणिक कथा के अनुसार पवन पुत्र हनुमान को एक शाप के अंतर्गत स्वत्व से उसे भुला दिया गया था , इस कारण अत्यंत शक्तियों का स्वामी होने पर भी हनुमान जी निष्क्रीय से ही रहते थे | वह स्वशक्ति से अनभिज्ञ ही रहते थे | इस कारण सदा भयभीत से , भीरु से होकर भटकते रहते थे | जब उन्हें उनकी शक्तियों का स्मरण दिलाया गया तो उन्हें पुन:पता चला कि वह तो शक्ति का भण्डार है , बस फिर क्या था वीरों की भांति उठ खड़े हुए तथा शस्त्र हाथ में लिए , शत्रु के संहार को चल पड़े, जिधर भी निकले , शत्रु को दहलाते चले गए , उनका नाम सुनकर ही शत्रु कांपने लगे | इससे स्पष्ट होता है की जब तक हम स्व को नहीं जानते , तब तक हम कुछ भी नहीं कर पाते इस लिए स्व की जानकारी, स्व का परिचय ,स्व का ज्ञान होना आवश्यक है , किन्तु यह स्व किसे कहते हैं , इसे भी जानना आवश्यक है |
स्व का अर्थ है –
स्व से भाव होता है आत्मा या जीवात्मा | स्व का भाव स्पष्ट होंने से हम स्वालंबन का अर्थ भी सरलता से कर सकते है | स्व के अर्थ को आगे बढ़ाते हुए हम कह सकते हैं कि स्वावलंबन का अर्थ हुआ — उस आत्मा अथवा जीवात्मा के प्रकाश का आश्रय लेना अथवा उस आतंरिक शक्ति का उपयोग और प्रयोग करना | जब कोई व्यक्ति स्व का अवलंबन करता है तो उस में किसी प्रकार की स्वार्थ भावना नहीं रहती | सब प्रकार के स्वार्थों से वह ऊपर उठ जाता है |वह अपने पण को स्वाहा कर देता है , इदं न मम आर्थात यह मेरा नहीं है , की भावना उसमें बलवती होती है | इससे स्पस्ट होता है कि आत्मिक शक्ति का अवलंबन ही स्वावलंबन होने से वेद में स्वाहा और सवधा शब्दों का अत्यधिक व सम्मान से प्रयोग होता है | यग्य में हम जो भी पदार्थ डालते हैं यग्य अग्नि उसे अपने पास न रख कर सूक्षम कर आगे बढा देता है , इसे बढ़ने के पश्चात आगे बांटने के इए वायु मंडल को दे देता है | जब मानव अपने जीवन को यग्य मय बना लेता है तो वह भी दो हाथों से कमाता है तथा हजारों हाथों से बांटने लगता है . आप कहेंगे दो हाथों से कमा कर हजारों हाथों से बांटने के लिए तो सामग्री ही उसके पास न रहे गी , इसका अर्थ क्या हुआ ? इसका भाव है कि हे मानव ! तू इतना म्हणत कर , तू इतना पुरुषार्थ कर, इतना यत्न कर कि जो तू ने कमाया है वह तेरी शक्ति से कहीं अधिक होगा क्योंकि तुने आकूत प्रयत्न किया है , इससे तेरे पास इतनी सम्पति होगी कि जो हजारों हाथों से भी बांटने पर भी समाप्त न होगी अपितु निरंतर बढती ही चली जावेगी . यह ही मानव की यज्ञ रूपता है |
” इदं न मम” का अर्थ : –
जब हम स्वाहा शब्द का प्रयोग करते हैं तो साथ ही बोलते हैं ” इदं न मम”. अर्थात जो कुछ मैंने यग्य, में डाला है उसमें मेरा कुछ नहीं है , सब कुछ समाज का दिया हुआ होने के कारण उस समाज का ही है , इस त्याग बुद्धि की उत्पत्ति ही स्वाहा – बुद्धि है | इस शब्द के प्रयोग से हम में नम्रता आ जाती है , सेवा का भाव जागृत होता है, साथ ही यह भी हम जान जाते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है , वह हमारा नहीं है, हम तो मात्र रक्षक हैं , तो किसी को कुछ भी देते समय हमें कष्ट के स्थान पर गर्व होगा |
स्वधा स भाव : –
एक और तो स्वार्थ भाव को छोड़ना है तो दूसरी ओर स्वधा शब्द दिया गया है |जिसका भाव है — स्व – आत्मप्रकाश , मनोबल, आत्मिक बल को , ढ – धारण करना | तुच्छ स्वार्थ – बुद्धि को छोड़ना चाहिए ओर अपने अन्दर स्वधा या आत्मिक बल को धारण करना चाहिए | यही स्वाहा ओर स्वधा का वास्तविक अर्थ है | अतएव मन्त्र में कहा गया है कि स्व अर्था | अतएव आत्मा के ज्ञान के लिए स्वधा ( आत्मिक बल ) को प्राप्त करो | इससे स्पस्ट होता है कि स्वधा का अर्थ है आत्मिक बल | यह आत्म बल ही है जो मानव में नवशक्ति का संचार करता है , यह आत्मिक बल ही है , जिससे मानव बड़े महान एवं दुर्घर्ष कार्य करने में भी सफल हो जाता है , इसके बिना मानव कुछ भी नहीं कर सकता, वह अधूरा होता है . अत: आत्मबल अर्थात स्वधा के द्वारा ही मानव में यज्ञीय भावना आती है ,परोपकार की अग्नि उसमें प्रदीप्त होती है , दान देने में प्रवृति होती है ओर दूसरों के सहयोग की भावना जागृत होती है | इससे उसे यश मिलता है , उसे कीर्ति मिलती है तथा सर्वत्र उसका गुणगान होता है

डॉ.अशोक आर्य

परम पिता परमात्मा सदा ही दानदाता का कल्याण करते हैं

ओउम
परम पिता परमात्मा सदा ही दानदाता का कल्याण करते हैं
डा.अशोक आर्य
जो देता है, जो देव है , उसका वह प्रभु कल्याण करते हैं । यह ही प्रभु क सत्य है , यह ही प्रभु का व्रत है , यह ही प्रतिज्ञा है । इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुये मन्त्र उपदेश कर रहा है :

यदङ्गदाशुषेत्वमग्नेभद्रंकरिष्यसि।
तवेत्तत्सत्यमङ्गिरः॥ ऋ01.1.6 ||
हे सब अस्तुओं के दाता, सब वस्तुओं को प्राप्त कराने वाले पिता,सब के अग्रणी, सब से आगे रहने वाले प्रभु ! धन देव तथा आप की प्रार्थना एक साथ नहीं की जा सकती । यह नियम तो आप ही ने बनाया है कि दाता की सदा प्रार्थना करो । प्रार्थना से ही दाता देता है । जब हम दाता से कुछ मांगते ही नहीं तो दाता को क्या पता की आप को किस वस्तु की इच्छा है , वह आप की इच्छा कैसे पूरा करेगा ? अत: आप के बनाये गये नियम के अनुरूप हम दाता से , दाश्वान से मांगते है, कुछ पाने के लिये प्रार्थना करते हैं । दात, देव अथवा दान देने वाला भी हमारे लिये दाता है तथा आप सब से बडे दाता है । हम किस को अपना अर्पण करें ? जो धन देने वाला दाता है, उसे अथवा आप के प्रति अपना अर्पण करें । दोनों के समीप एक साथ तो बैठा नहीं जा सकता । एसा सम्भव ही नहीं है ।
हे पिता ! आप कल्याण करने वाले हैं । आप ही हमारे लिये वित की व्यवस्था करने वाले हैं , आप ही हमारे लिये घर की , निवास की व्यवस्था करते हैं , आप ही हमारे लिये पशु आदि, धनादि रुप में सब प्रकार के भद्र पदार्थ देने वाले हैं । इस प्रकार आप का यह नियम निश्चय ही सत्य है , आप के इस नियम के द्वारा हमारे उन दाश्वान् के अंगों में मधुर रसों का संचार करने वाले आप ही तो हैं । सब अंग – प्रत्यंगों में जीवनीय शक्ति, जीवनीय रसों का संचार करते हुये आप ही वास्तव में इन अंगों में सब रसों का संचार करने वाले , प्रवाह करने वाले हैं । अत: आप ही जीवन दाता हैं, जीवन देने वाले हैं ।
जब एक नन्हा सा बालक अपने आपको पूरी तरह से अपने ही माता पिता के अर्पण कर देता है , अपनी इच्छाओं को अपने माता पिता की इच्छाओं से मिला लेता है । अब माता पिता की इच्छा ही उस बालक की इच्छा बन जाती है । एसी अवस्था में एसे बालक का माता पिता अपने से भी अधिक अपने इस बालक का ध्यान रखते हैं । इस प्रकार की उत्तम भावना से वह अपने इस बालक का उत्तम निर्माण करते हैं । ठीक इस प्रकार ही जब एक दाश्वान व्यक्ति उस पिता के प्रति स्वयं को समर्पित कर देता है ,अर्पण कर देता है तो बालक के माता पिता के ही समान प्रभु भी उसे अत्यधिक प्रिय मानते हैं । अत:वह पिता भी हमें सब प्रकार की अभ्युदय कारक , आगे बढाने वाली वस्तुएं, उन्नत कराने वाली वस्तुएं स्वयमेव ही उपलब्ध कराते हैं ।
जीव अल्पबुद्धि होता है । जीव की इस अल्पज्ञता के कारण जीव अपने द्वारा धारण किया कोई व्रत भूल भी जावे ,उससे कोई व्रत टूट भी जावे तो भी परम पिता का व्रत उसके पूर्ण ज्ञान के कारण टूट नहीं पाता । यह तो हम जानते हैं कि जीव अल्पज्ञ है । इस अल्पज्ञता के कारण कई बार कोई गल्त वस्तु भी दे देता है किन्तु हमारा वह प्रभु तो पूर्ण है । अपनी पूर्णता के कारण उससे कभी कोई भूल सम्भव ही नहीं है । अत:वह सदैव ठीक ही करता है तथा ठीक वस्तु ही देता है ।

डा. अशोक आर्य

हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें

ओउम
हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें
डा.अशोक आर्य
परम पिता परमात्मा होता, कविक्रतु , सत्य तथा चित्रश्रवस्तम व देव हंत । उन्हें प्राप्त करने के लिये हमें दिव्यगुणों को ग्रहण करना होता है । जैसे जैसे तथा जितना जितना हम प्रभु को , उस पिता को धारण करने का यत्न करते हैं , उतना उतना ही हम दिव्यगुणों वाले होते चले जाते हैं । इस मन्त्र में इस बात पर ही प्रकाश डालते हुये इस प्रकार व्याख्यान किया है : –
अग्निर्होताकविक्रतु:सत्यश्चित्रश्रवस्तम: ।
देवोदेवेभिरागम ॥ ऋ0 १.१.५ ॥
१. प्रभु ही यज्ञ करता
गत मन्त्र की भावना अनुरूप ही यह मन्त्र भी कहता है कि संसार में जितने प्रकार के भी यज्ञ आदि कार्य होते हैं , उनको करने वाले वह देव ही होते हैं , जो सब को गति देने वाले हैं, जिन्हें हम प्रभु के नाम से जानते हैं । हम तो मात्र इन यज्ञों को करने के माध्यम मात्र ही होते हैं , वह भी तब जब हम पर उस प्रभु की कृपा हो जाती है, उस प्रभु का जब हमें आशीर्वाद मिल जाता है , तब ही तो हम इन सब यज्ञों को पूर्ण होता हुआ देख पाते है । यह सृष्टि भी एक प्रकार का यज्ञ ही तो है । इस यज्ञ के होता, इस यज्ञ को करने वाले तो स्वयं वह पिता ही हैं , इस तथ्य को तो हम सब लोग भली प्रकार से जानते हैं , इस सब से तो हम स्पष्ट रूप से तथा भली – भान्ति से परीचित हैं ।
२. पूर्ण प्रभु की पूर्ण कृति
यह मन्त्र जो दूसरा उपदेश हमें दे रहा है , वह है – वह पिता कविक्रितु हैं अर्थात वह पिता क्रान्तदर्शी हैं । क्रान्तदर्शी होने के कारण वह प्रभु सब कामों को करने वाले हैं । चाहे हम कविक्रितु कहें, चाहे हम क्रान्तदर्शी कहें , भाव यह ही है कि वह पिता सब प्रकार के कामों को करने वाले हैं , कारण हैं क्योंकि वह पिता ही सब कामों को करने वाले होते है , इस कारण ही सृष्टि आदि कार्य जिन्हें उस पिता ने किया है , उनमें कहीं कोई न्यूनता नहीं दिखाई देती , यह सब कार्य कहीं अपूर्ण नहीं होते , पूर्णतया पूर्ण ही होते है । जब हमारे वह पिता पूर्ण हैं तो उनके द्वारा ही किया गया यह कार्य , जिसे हम सृष्टि कहते हैं, वह अपूर्ण कैसे हो सकती है ? अत: यह सृष्टि रुपी यह यज्ञ भी पूर्ण है ।
अनेक बार हमें अपनी ही अज्ञानता के कारण इस सृष्टि में कुछ न्यूनतायें दिखाई देती हैं , एसा हम अनुभव करते हैं । जैसे अनेक बार जब हम भूकम्पों का प्रकोप देखते हैं , तो उस पिता को कोसने लगते हैं । हमारे शरीर में अनेक प्रकार की अनेक ग्रन्थियां हैं । उस पिता ने इन का निर्माण किसी विशेष प्रयोजन से किया होगा किन्तु हम अपने ज्ञान की कमी से इन में से कुछ ग्रन्थियों को निष्प्रयोजन मान लेते हैं । इस संसार में अनेक प्राणी एसे हैं , जिनके विषय में हमें कुछ भी जानकारी नहीं है , अनेक वनस्पतियां एसी हैं , जिनके उप्योग के सम्बन्ध में हम कुछ भी ज्ञान नहीं रखते । हम अपने बचपन में जो थोडा सा जानते थे, वह बढते बढते , आज हम काफ़ी आगे निकल गये हैं । आज हमे अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर हमारे अपने ही बाल्यकाल से कहीं अधिक ज्ञान है । अत: हम यह नहीं कह सकते कि जिसे हम नहीं जानते, वह है ही नहीं । जैसे जैसे हम इन सब को जानते जावेंगे, इनके उपयोग को समझते जावेंगे, त्यों त्यों ही हमारा ज्ञान भी बढता ही चला जावेगा । जितना हम जान लेंगे, उतना संसार हमें पूर्ण दिखायी देगा, शेष को हम जानने का यत्न करते रहेंगे ।
उस पिता द्वारा जब सृष्टि की उत्पति की जाती है तो आरम्भ मे प्राणी को ज्ञान की आवशकता होती है क्योंकि इस समय उसे ज्ञान देने वाला अन्य कोई नहीं होता । अत: उस परमपिता परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ मे प्राणी को वेद का ज्ञान दिया । जिस प्रकार हम आज स्कूल , कालेज अथवा गुरूकुल ,में जा कर ज्ञान प्राप्त करते हैं , प्रभु उस प्रकार से ज्ञान नहीं देता । उसका ज्ञान देने का ढंग भी अद्भुत ही है । हम जानते हैं कि वह सर्वव्यापक प्रभु सर्वव्यापक होने के कारण ही हमारे अन्दर ही नहीं हमारे हृदय में भी निवास करता है । इस प्रकार हृदयस्त होने से , बिना किसी अन्य यत्न के हमारे पवित्र हृदयों को प्रकाशित कर देते हैं । अपने ज्ञान के कारण वह प्रभू अत्यन्त कीर्तिमान से युक्त हैं । दूसरे श्ब्दों में वह प्रभु सर्वाधिक ज्ञान वाले हैं , ज्ञान के भण्डारी हैं । इस लिये ही तो उन्हें निरतिशय ज्ञान के अधिष्ठाता माना गया है ।
(क) पभु गुणों के साथ आते हैं :-
वह प्रभु सब देवताओं के,जो सब गुणों के पुन्ज रुप होते हैं , के साथ हमारे पास आते हैं । इसका भाव यह है कि उस प्रभु का निवास हमारे हृदयों में होता है । उस प्रभु का निवास होने के कारण हृदय में ही बैठे हुये वह प्रभु हमे सब प्रकार के दिव्यगुणों से स्वयमेव ही भरता चला जाता है । इस प्रकार यह दिव्य गुण हममें स्वय्मेव ही प्रादुर्भूत हो जाते हैं ।
(ख) प्रभु दिव्य गुणों वालों का साथी :-
हम यूं भी कह सकते हैं कि इन दिव्यगुणों के कारण ही वह पिता हम मे आते हैं । इस सब का भाव यह ही है कि उस पिता को पाने के लिये हम अपने आचरण को देवों के समान उत्तम बनावे , हमारे व्यवहार भी देवों के समान ही हों, आसुरी प्रवृति हमारे व्यवहार में किन्चित भी न हो । प्रभु दिव्य गुणों वालों के पास ही रहता है, निवास करता है । अत:हम जितना जितना दिव्यता को दिव्यगुणॊं को अपनायेंगे, उतना उतना ही उस पिता के समीप होते चले जावेंगे । दाश्वान का कल्याण ही प्रभु का सत्य व्रत है |

डा. अशोक आर्य

यग्य की अग्नि से घर की रक्षा होती है

ओउम
यग्य की अग्नि से घर की रक्षा होती है डा अशोक आर्य
हम प्रतिदिन दो काल यग्य करें । यग्य भी एसे करें कि इस के लिए आग को दो अरणियों से रगड़ कर पैदा किया जावे । इस प्रकार की अग्नि से किया गया यग्य , इस प्रकार की प्रशस्त अग्नि से किया गया यग्य घर की रक्षा करता है । इस तथ्य का वर्णन ऋग्वेद के सप्तम मंडल के प्रथम सूक्त के प्रथम मंत्र में इस प्रकार मिलता है :
अग्नि नरो दीधितिभिररण्योर्हस्तच्युती जनयन्त प्रशस्तं |
दूरेद्रशं गृह्पतिमथर्युम ।। ऋग्वेद ,,7.1.1 ||
मनुष्य सदा उन्नति को ही देखना चाहता है । अवन्ती को तो कभी देखना ही नहीं चाहता । मानव सदा आगे बढना चाह्ता है । पीछे लौटने की कभी उस की इच्छा ही नही होती । वह सदा ऊपर ही ऊपर उठना चाहता है नीचे देखना वह पसंद नहीं करता । इस लिए मन्त्र भी यह उपदेश करते हुए मानव को संबोधन कर रहा है कि हे उन्नति की इच्छा रखने वाले मानव ! तू अपने को आगे बढ़ने की चाहना के साथ अपनी अभिलाषा को पूरा करने के लिए , अपने हांथों को गति दे , इन्हें सदा गतिशील रख , कार्य में व्यस्त रख, इन्हें आराम मत करने दे , निरंतर कार्यशील रह । इस प्रकार अपने हांथों को गतिशील रखते हुए , क्रियाशील रखते हुए अपनी अंगुलियों से अरनियों अथवा काष्ठविशेषो में यग्य अग्नि को प्रदीप्त कर , यग्य को आरम्भ कर ।
यग्य की उस अग्नि को प्रदीप्त कर जो प्रशस्त हो , उन्नत हो अथवा उन्नति की और ले जाने वाली हो । । यह अग्नि इतनी तेजस्वी होती है कि इस के प्रकाश मात्र से , गर्मी मात्र से यह रोग के किटाणुओं के नाश का कारण बनती है अथवा युं कह सकते हैं कि यह अग्नि अपनी तेजस्विता से हानिकारक किटाणुओ का नाश कर देती है । यग्य की अग्नि से रोग के कीटो का अंत होता है । अत: यह यग्य रोग के कृमियों के संहार का कारण होता है ।
यह यग्य वर्षा आदि लाभ देने का भी कारण होता है । वर्षा से ही हमारी वनस्पतियां बडी होती हैं तथा हमें फल देती हैं । यदि वर्षा न हो तो हमारी खेतियां लहलहा नही सकती । जब खेती ही नही रहेगी तो हम खावेंगे क्या ? हमारे वस्त्र कहा से आवेंगे ? हमारे जीवन की आवश्यकता कैसे पुर्ण होगी ? इस लिए जब हम यग्य करते है तो वर्षा समय पर होती है । अत: वर्षा आदि का कारण होने से भी यग्य प्रशंसनीय होते हैं ।
जब कहीं पर यग्य हो रहा होता है तो इसे बडी दूर के लोग भी होता हुआ देख लेते हैं । क्यों ? क्योंकि इस की लपटें ऊपर को अच्छी उंचायिओ तक उठती हैं । इस कारण यग्य स्थान
से दूर निवास करने वाले लोग भी इस की अग्नि को देख सकते हैं । इस प्रकार दूर के लोग भी देखते हैं कि अमुक स्थान पर यग्य हो रहा है , जिससे उसे यह ज्ञान होता है कि इस स्थान पर
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निश्चित रूप से किसी का निवास है , निवास ही नही है , वहां निवास करने वाला व्यक्ति जागृत अवस्था में है , इस लिए ही यग्य की अग्नि जला रखी है ,। यह सब जानते हुए वह किसी दुर्भावाना से उस घर में प्रवेश करने का साहस नहीं करता ।
इस सब से स्पष्ट होता है कि यह यग्य घर की रक्षा करने का साधन है, जहां यग्य होता है वह स्थान सदा सुरक्षित रहता है । उस स्थान पर , उस घर में सदा निरोगता बनी रहती है , कोई बीमारी उस घर में नहीं आती , इससे भी वह घर सुरक्षित हो जाता है । इस सब के साथ ही साथ यह घर गति वाला भी होता है । इस घर में सदा उन्नति होती रहती है । सीधी सी बात है , जिस घर में सुरक्षित वातावरण के कारण चोर आदि आने का साहस नहीं करता, रोग का प्रवेश नहीं होता, उस घर में धन का बेकार के कार्यों में प्रयोग नहीं होता , इस कारण इस घर में जीवन रक्षा के उपाय अर्थात रोटी , कपडा आदि की आवश्यक्तायें थोड़े से धन से ही पूर्ण हो जाती हैं । शेष जो धन बच जाता है , वह परिवार की समृद्धि को बढाने का कार्य करता है । इससे परिजन उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, उत्तम वस्तुओ को खरीद सकते हैं तथा दान देकर अन्य साधन हीन लोगों की सहायता कर अपना यश व कीर्ति को बढा सकते हैं , सर्वत्र सम्मानित स्थान प्राप्त कर सकते हैं ।
अत: जिस यग्य के मानव जीवन में इतने लाभ हैं , उस यग्य को तो प्रत्येक मानव को अपने परिवार में प्रतिदिन दो काल अवश्य करना चाहिए तथा यश प्राप्त करना चाiiiहये ।
हवियों से यग्य अग्नि को बधावें कभी बुझने न दें
यग्य कर्ता जिस यग्य अग्नि को जलाते हैं ,जिस को अपनिअनेक प्रकार की आहुतियां देकर बधाते हैं, वह यग्य अग्नि हमारे परिवार से , हमारे घर से क्भी बुझने न पावे । यह तथ्य्ही इसके दुसरे मन्त्र का मुख्य विशय है , जो इस प्रकार है : –
तमग्निमस्ते वसवो न्य्रण्वन्त्सुप्रतिचक्शमवसे कुतश्चित ।
दक्शाय्यो यो दम आस नित्य: ॥ रिग्वेद ७.१.२ ॥
अपने निवास को जो लोग उत्तम बनाना चाहते हैं, श्रेश्थ बनाना चाहते हैं , वह लोग इस यग्य की अग्नि को अपने निवास पर , अपने घर में स्थापित करते हैं । यग्य की यह अग्नि हम सब का पूरा ध्यान रखती है । यग्य की यह अग्नि हमारे संकटों को दूर करने का सदा यत्न करती रहती है । यदि हमारे घर में कहीं रोग के कीटाणु छुपे हैं , निवास कर रहे हैं , तो यह अग्नि उन किटाणुओं को नश्ट करके बाहर निकालने का कार्य करती है, यदि हमारे घर में दुर्गन्ध है तो यह अग्नि उसे दूर कर पवित्रता लाती है तथा यदि घर का वातावरण अशुद्ध है
तो यह यग्य की अग्नि उसे शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध , पवित्र करती है । घर में होने वाले सब प्रकार के भय को दूर कर हमें निर्भय बनाती है ।

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यग्य की यह अग्नि हवियों से बधती है। हम जो आहुतियां इस आग मे देते हैं , वह आहुतियां इस अग्नि को तीव्र करती हैं । अग्नि की इस तीव्रता से हमारी रक्शा के कार्य, हमें निर्भय करने के कार्य, हमें रोगों से मुक्त करने के कार्य ओर भी तीव्रता से होते हैं ।
जिस यग्य अग्नि के इतने लाभ हैं , जो यग्य अग्नि हमें इतने लाभ देती है , वह यग्य अग्नि हमारे घरों में निरन्तर जलती रर्हे , हम, कभी भी इसे बुझने न दें |
हे यग्य अग्नि ! हम सद तुझे आहुति देते रहें
हम परमपिता से प्रार्थना करते हैं किहेप्रभु ! यह्यगय अग्नि हमारे घरों में सद जलती रहे तथा हम सदा इसे बधानेके लिये इस में आहुती देते रहेम । इस तथ्य प्र इस तीसरे मेन्त्र मेम इस प्रकार प्रकार प्रकाश्डालते हुये कह गया है कि : –
प्रेद्धो अग्ने दीदिह पुरो नो॓॓जस्रया सूम्यी यविश्थ ।
त्वां शश्वन्त उप यन्ति वाजा: ॥ तिग्वेद ७.१.३ ॥
हे अग्नि ॒ खुब प्रकार से दीप्त होकर , तेज होकर तु हमारे सामने प्रकत हो । हे अग्नि तु सब प्रकार के रोगों को दूर करने वाली है , तुं ही सब प्रकार की गन्दी वायु को शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध करने वालॊ है , हम एसी पवित्र अग्नि तु कभी न क्शीण होने वालि , कभी न दुर्बल होने वाली , कभीन बुझने वाली ज्वाला से निरन्तर दीप्त होतीरह्म निरन्तर तेज होती रह्, निरन्तर प्रचण्ड होती रह ।
हे अग्नि तुम्हेम अनेक प्रकार की भोज्न सामग्री मिलती है , अनेक प्रकार के अन्न हवि रुप में , आहुति रुप मे प्राप्त होते हैं । तेरे एं अनेक प्रकार के , विविध्प्रकार के अन्नों की आहुतियां डाली जाती हैं । यह जो अनेक प्रकार की वस्तुओं की आहुतियां तुझ में दाली जाती हैं , इन को ही तुणे बधाना है , इस वायु मण्डल में फ़ैलाना है ।
घरों में सब लोग मिलकर यग्य कर अपनी आहुति देते हैं
प्रत्येक घस्र में प्रति दिन यग्य होता ऐ तथा घर के सब लोग मिलकर इस यग्य में मिल कर बैथते हैं तथा मैलकर ही अपनी आहुति देते हैं । घ्गर की पवित्र अग्नि से यग्य अग्नि ओ प्रदीप्त कर , उस अग्नि में यथावश्यक आहुति दालते हैं । इस प्रकर के यग्यों ए द्वारा इस घर के लोग महान अग्निका पूजन करते हैं । इस तथ्य को इस चोथे मन्त्र में इस प्रकार व्युअक्त किया गया है : –
प्रते अग्नयो॓॓ग्निभ्योवरंनि: सुवीरस: शोशुचन्त द्युमन्त: ।
यत्रा नर: समासते सुजाता: ॥ रिग्वेद ७.१.४ ॥
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गार्हपत्य अग्नि अर्थात घर की अग्नि , सदा हम उस अग्नि को प्रणयन करते हैं, बुलाते हैं , जलाते हैं , जिसका हमने आह्वान करना होता है । इस लिये ही कहा जाता है कि हे गार्हपत्य अग्नियों ! तुझ से ही यगय की अग्नियां जला करें । यह अग्नियां अच्छे से ज्योतित हो कर , तेज को धारण कर, तीव्र होकर अच्छी प्रकार से , थीक से रोग के क्रिमियों को , रोग के कीटाणुओं को कम्पित करने वाली, भयभीत करने
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वाली हों, मारने वाली हों । इस प्रकार यह यग्य अग्नि सब प्रकार के भूत आदि को पीछे धकेल दे , भगा दे । किसी प्रकार के भय को रहने ही न दे ।
इस अग्नि अर्थात इस यग्य अग्नि के पास सदा ही उत्तम प्रक्रिति वाले अथवा कुलीन लोग ही रहते हैं, निवास करते हैं । यह सब लोग बडे प्रेम से इस अग्नि के समीप अपना आसन लगा कर रहते हैं । यह लोग ,जिस प्रकार नाभि के आरे होते हैं , वैसे ही इस यग्यग्नि के चारों ओर मिलकर गति करते हुये , कर्म करते हुये, यग्य व्यवहार करते हुये आसीन होते हैं । इस प्रकार यह लोग यग्य की इस अग्नि का पूजन करते हैं तथा इस में यथावश्यक घी तथा सामग्री की आहुति देते हैं ।
यग्यकर्ता को उत्तम सनतान, प्रशस्त जीवन तथा पवित्र धन दे
परमपिता प्रभु नित्य यग्य करने वालों को एसा पवित्र धन दे जो उसे वीर बनावे, उसे उत्तम सन्तान दे, उंचे जीवन वाला बनावे तथा यह धन चॊर आदि चुरा न सकें । इस तथ्य को वेद के इस पांचवें मन्त्र में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
दा नो अग्ने धिया रयिं सूवींर स्वपत्यं सहस्य प्रशस्तम ।
न यं यावा तरति यातुमावान ॥ रिग्वेद ७.१.५ ॥
विगत मन्त्र में यह प्रार्थना कि गयी थी कि हे प्रभो ! हम इस यग्य अग्नि के समीप बैथे परिजन यग्य की समाप्ति पर आप से प्रार्थना करते हैं कि आप हमें आगे ले चलो , उन्नत करो तथा हमने यह जो बुद्धि पूर्वक यग्य कर्म किया है , इसके माधयम से पवित्र कर्मों के कारण हमें अपार धन दीजिये । हमारे काम , क्रोध आदि दुश्ट शत्रुओं का नाश करने वाल प्रभो ! हमें वह धन दीजिये , जो उतम तथा वीर जनों को जन्म देता है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हे प्रभो हमें वह धन दीजिये , जो हमें वीर बनाता है , जो हमें उत्तम सन्तान वाला बनाता है , जिस धन की प्राप्ति हमने पवित्र साधनों से ही की है ।
इतना ही नहीं इस मन्त्र में एक ओर प्रार्थना भी की गयी है , जो इस मन्त्र का सब से मुख्य अंग कही जा सकती है , वह यह कि हे प्रभो ! हमें एसा पवित्र धन दीजिये जिसको हिन्सा की भावना से युक्त होकर हम पर आक्र्मण करने वाले शत्रु भी हमारे से छीन न सकें ।

डा अशोक आर्य

हम शरीर , मन व मस्तिश्क से प्रभु स्तवन करें

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हम शरीर , मन व मस्तिश्क से प्रभु स्तवन करें
डा. अशोक आर्य
मानव के शरीर रुपि घर के तीन निवासी होते हैं । इन तीन के द्वारा ही मानव अपने जीवन के सब कार्यों को पूर्ण करता है । वह अपने शरीर में सोम कणॊं की रकशा कर शक्ति सम्पन्न बनता है मस्तिश्क से ग्यान प्राप्त कर ग्यान का भण्डारी बनता है तथा मन से विभिन्न प्रकार का चिन्तन करता है किन्तु जब इन तीनों शक्तियों को प्रभु स्तवन में लगा देता है तो उसकी सब मनोकामनायें पूर्ण होती हैं । यह तथ्य ही इस सूक्त क मुख्य विशय है । आओ इस सूक्त के विभिन्न मन्त्रों को समझने का यत्न करें ।
सोम की रक्शा से हम इन्द्र व शक्त बनेंगे
हम शत्रुओं का वारण करने वाले संहार करने वाले बनें । इनका वारण करते हुये हम अपने अन्दर सोम की रक्शा करें । यह सोम का रक्शण ही उस परमपिता को पाने का साधन होता है । जब हम सोम का रक्शन करते हैं तो हम भी इन्द्र बनते हैं , सशक्त बनते हैं । इस तथ्य को ही रिग्वेद के मण्डल संख्या ८ के सुक्त संख्या ९१ के प्रथम मन्त्र में इस प्रकार बताया गया है : –
कन्या३ वारवायती सोममपि स्त्रुताविदत ।
अस्तं भरन्त्यब्रवीदिन्द्राय सुनवै त्वाश्क्राय सुन्वै त्वा॥रिग्वेद *.९१.१ ॥
मन्त्र कहता है कि शत्रुओं का वारण करने वाली , शत्रुओं का नाश करने वाली यह कन्या ( कन दीप्तो ) अर्थात कणों को दीप्त करने वाली अथवा सोम कणों को बटाने वाली अथवा दैदिप्यमान जीवन वाली यह बनती है । यह सोम से सुरक्शित होने के कारण काम क्रोध आदि से,( गति करती हुइ ) दूर होती चली जाती है । काम क्रोध से यह सदैव दूर ही रहती है । यह सोम शक्ति काम क्रोध के साथ तो निवास कर ही नहीं सकती । इस कारण इन शत्रुओं से सदा ही दूर रहती है । जहां काम क्रोध आदि शत्रु निवास करते हैं, वहां सोम का सदा नाश ही होता रहता है । शक्ति आ ही नहीं सकती । इस कारण ही यह एसे शत्रुओं से सदा दूर रहती है । यह शक्ति निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर रहती है । इस कारण ही यह सोम को भी प्राप्त करने में सफ़ल हो जाती है । सोम नामक कणों को यह शक्ति अपने अन्दर रक्शित करती है ।
यह शरीर इस शक्ति का निवास है , घर है । अत: यह अपने इस घर रुपि शरीर को सोम कणों से निरन्तर पुशट करती रहती है । सोमकणों से शरीर को निरन्तर पुश्ट करती रहती है । अपने शरीर को इन सोम कणॊं की सहयता से सदा शक्तिशाली बनाते हुये यह सम्बोधन करते हुये कहती है कि हे सोम ! मैं परमएशवर्यशाली को पाना चाहती हूं । उसे पाने के लिये ही मैं तुझे पैदा करती हुं , उत्पन्न करती हुं । जब मेरे में सोम कण रम जावेंगे तो मुझे उस प्रभु को पाने में सरलता होगी । इस लिये मैं तुझे अपने शरीर में अभिशूत करती हू ताकि मुझे (तेरे इस शरीर में रमे होने के कारण ) वह सर्वशक्तिमान प्रभु मिल जावे ।
सोम से मधुरता मिलेगी तथा प्रभु स्तवन करेंगे
जब भी कभी इस शरीर में प्रभु का प्रकाश होता है तो शरीर रूपी यह घर एक विचित्र सी आभा से दीप्त हो जाता है , चमक जाता है तथा जब इस चमक से युक्त शरीर में सोम की रक्षा होती है तो इस शरीर में एक स्थिर शक्ति आती है , विचित्र सा आनंद अनुभव होताहै , मधुरता से भरा हुआ यह शरीर प्रभु स्तवन की और जाता है तथा प्रभु चरणों में रहने की वृति इस शरीर की बनती है । इस तथ्य को ऋग्वेद के मंडल 8 की ऋचा 91 के मन्त्र संख्या 2 में इस प्रकार बताया गया है : –
असॉ य एषे वीरको गृहंगृहं विचाकशत ।
इमं जम्भ्सुतं पिब धा नावन्तं करम्भिणमपुवन्तमुक्थिनम ।।ऋग्वेद8.91.1 ।।
मन्त्र कहता है कि हे परमपिता प्रभु ! आप शत्रुओ को अति शीघ्रता से कम्पित कर देते हो, भयभीत करने वाले हो । आप के सहयोग से हमारे सब शत्रु शीघ्र ही हमारे से दूर भाग जाते हैं , पराजित हो जाते हैं । इस प्रकार आप के सहयोग से यह पराजित शत्रु पुन: हमारे पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं करते । इस प्रकार आप जब हमें प्राप्त होते हैं तो हमारे इस शरीर रूपी गृह का प्रत्येक भाग , प्रत्येक घर आप ही के कारण दीप्त होता है , चमकता है , प्रकाशित होता है । जब हमारे अंत: करण मे , हमारे हृदयों में आप का प्रकाश होता है तब तब हे प्रभु ! हमारा यह् शारीरिक घर दीप्त हो जाता है , चमकने लगता है , सब और से प्रकाशित हो जाता है ।
मन्त्र आगे उपदेश कर रहा है कि हे प्रभु हमारे जबड़े सोम के निर्माण का काम करते हैं । जब हम जबडों से भोजन चबा चबा कर करते हैं तो इन में से सोम पैदा होता है । इस पैदा हुए सोम को यह शरीर ही पी ले एसा अनुग्रह हम पर करिये , एसी कृपा हम पर करें प्रभु । वास्तव में यह सोम ही तो है जो हमारे शरीर को धारण करता है , यह सोम ही है जो आनंद से वशीभूत हो हमारा आलिंगन करता है , यह सोम ही हमारे जीवन को आनंदमय बना कर आनंद से भरता है । यह सोम ही हमारे शरीर में मधु के छत्ते का कार्य करते हुए हमारी वाणी को हमारे व्यवहार को मधु के ही समान मधुर व मीठा बना देता है । यह सोम ही स्तोत्रो वाला होता है । यह सोम ही हमारे शरीर में सुरक्षित होने पर इस की रक्षा करने वाले शरीर अथवा व्यक्ति को प्रभु चरणों में बैठने का प्रभु स्मरण का, प्रभु स्तवन का अधिकारी बना देता है । हमारी वृति इस सोम के ही कारण प्रभु की और लगती है ।
प्रभु को जानने की कामना से सोम रक्षण करें
विषयों में उलझा मानव साधारण रुप में प्रभु को स्मरण नहीं करता । हम सदा प्रभु को जानने की इच्छा करते हुए इस उद्देश्य को पाने के लिए अपने शरीर में सदा सोम की रक्षा करें । इस तथ्य को ऋग्वेद के अष्टम मंडल की ऋचा संख्या 91 के मन्त्र संख्या तीन में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
आ चन त्वा चिकित्सामो$धि चन त्वा नेमसी ।
शनैरिव शनकैरिवेन्द्रायेन्दो परी स्रव ।। ऋग्वेद ८.91.3 ।।
मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे प्रभो ! हम सदा आपको ही जानने की इच्छा करते हैं , आप को ही जानने की कामना करते हैं , आपको ही जानने की अभिलाषा राखते हैं । साधारणतया मानव इस संसार में आकर विषयों में एसा उलझता है कि वह आपको भुल जाता है । उसे स्मरण ही नहीं रहता की वह संसार में किस लिए आया था । इस कारण सांसारिक विषयों में फ़ंसा यह मानव आपको स्मरण नहीं करता, याद नहीं करता । यह सत्य भी है कि जब विषयों का पर्दा पड जाता है तो कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता । जब कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता तो सर्व श्रेष्ठ होने के कारण विषयों के इस परदे के कारण आप भी दिखायी नहीं देते । आप भी हमारी द्रष्टि से ओझल हो जाते हैं ।
मन्त्र के दूसरे भाग को स्पष्ट करते हुए मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे सोम ! तू उस परमपिता को प्राप्त कराने का मुख्य साधन है तथा हम प्रभु को पाने के अभिलाषी हैं । इसलिए तुम हमारे शरीर में धीरे धीरे रमण करो , आवो । अत: प्रभु की प्राप्ति के लिए धीरे धीरे ही हमारे शरीर में अपना स्थान बना कर स्थित होवो । इस प्रकार धीरे धीरे विस्तारित होते हुए हमारे सब अंग प्रत्यंगों में व्याप्त हो जावो । जब आप धीरे धीरे शान्ति पूर्वक हमारे शरीर में व्यापत होते हैं तो हमारा जीवन प्रकाश से भर जाता है , सब और प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है , यह शरीर प्रकाशमय बन जाता है, प्रकाश पुञ्ज बन जाता है । तब ही हम उस पिता के दर्शन करने में समर्थ होते हैं ।
इन्द्रियों को विषयों से विमुख करें
जब मानव सोमरस की रक्षा कर लेता है तो उस की शक्ति बढ जाती है । जब मानव सोम का पान करता है तो उसकी वासनायें भी नष्ट हो जाती हीं , वासनाओं को उसके पास आने का साहस ही नहीं होता । इससे उसे प्रशस्त वसुओ की प्राप्ति होती है । मानव को चाहिए की वह विषयों की और आमुख इन्द्रियों को इन्द्रियों से विमुख कर इन्हें प्रभुप्रवण करने का , प्रभु की और लगाने का यत्न करें ।इस तथ्य को इस ऋका के चोथे मन्त्र में बडे सुन्दर धंग से इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
कुविच्छकत्कुवित्करत्कुविन्नो वस्यसस्करत ।
कुवित्पतिद्विषो यतिरिन्द्रेण संगमामहै ।।ऋग्वेद 8.91. 4 ।।
मन्त्र कहता है कि जब हम अपने शरीर में सोम की रक्षा कर लेते हैं , सोम का रक्षण कर लेते हम तो वे प्रभु हमें शक्तिशाली बना देते हैं , शक्ति का भंडार हम में भर देते हैं । इस प्रकार हमें शक्तिशाली बना कर हमारे शत्रुओं को खूब वोषिप्त काटे हैं , परेशान करते हैं तथा इस प्रकार हमारी ख्याति खूब बढाते हैं , हमारी प्रशस्तीकराते हैं व हमें प्रशस्त कर हमें वसुओ से युक्त करते हैं , वसुओ वाला बनात हैं ।
मन्त्र आगे बता रहा है कि हमारी यह जो इन्द्रियां हैं , वह उस पिता की एसी पत्नी के सामान हैं , जो अपने पति के वश में नहीं होती । यह विषयों के अंतर्गत, विषयों के अभिभूत हो इधर उधर भटकती रह्ती हैं । हम अपने शरीर में व्याप्त इस सोम की सहायता से इन से जब युद्ध करते हैं तो यह निश्चय ही पराजित होती हैं । इस प्रकार पराजित हुई इन इन्द्रियों को हम प्रभु की प्रार्थना में लगा दें , प्रार्थना में अर्पित कर दें , प्रभु की संगत में लगा दें । मानव जीवन की यह ही सब से उत्कृष्ट साधना है कि वह अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करे , इन्हें विषयों से विमुक्त कर परमपिता प्रभु की और प्रेरित करे , प्रभु के चरणो में लगाने का यत्न करे , प्रभु प्रवण बनाए ।
त्रिलोक उत्कृष्ट हो,ज्ञान का प्रकाश,प्रेम भावना तथा शक्ति का आधार हो:-
हे प्रभु मेरा यह शरीर त्रिलोक पूरी है । आप इसे उत्कृष्ट बनावें । मेरा यह मस्तिष्क द्युलोक के समान है । आप दया करके इसे ज्ञान के प्रकाश से भर दीजिये । इसे इस प्रकाश का मूल बनावें । ह्रदय प्रेम की कृषि भूमि है । इसे प्रेम की भावना से उर्वरक बनाइये । मेरा यह शरीर शक्ति का केंद्र है । इसलिए इस शरीर को शक्ति का आधार बनाईये । इस तथ्य को ऋग्वेद के मंडल आठ के सूक्त 91 के अंतर्गत मन्त्र संख्या पांच में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
इमाणि त्रीणि विश्ट्या तानिन्द्र वि रोहय ।
शिरस्ततस्योर्वरामादिदं म उपोदारे ।।ऋ ग्वेद 8.91.5 ।।
मन्त्र इंगित कर रहा है कि हे प्रभो ! आप ने जो तीन लोक बनाए हैं , उनमें से यह शरीर हमारे लिए पृथ्वीलोक है । हमारे सब आचार व्यवहार ज्ञान का आधार व प्रेम का केंद्र तथा हमारी सब शक्तियो का केंद्र यह शरीर ही तो होता है । इस लिए हम इसे पृथ्वी रूप में ही मानते हैं ।
इस शरीर में जो ह्रदय है , इसे अन्त्रिक्षलोक स्वरूप माना जा सकता है ।जहां पृथ्वी होती है वहां अंतरिक्ष का होना भी आवश्यक ही होता है । प्रथ्वी के ऊपर अन्तरिक्ष में बहुत कुछ विचरण किया करता है । ठीक इस प्रकार ही इस शरीर रूप पृथ्वी पर जो भी हमारे व्यवहार विचरण करते हैं उन सब का केंद्र ह्रदय होने से यह ह्रदय ही हमारे लिए अन्तरिक्ष का कार्य करता है ।
आप ने तीन लोकों में जो तीसरा लोक बनाया है , उसे आपने द्युलोक का नाम दिया है । हमारे शरीर में भी एक द्युलोक है । इस द्युलोक का नाम मस्तिष्क है । द्युलोक में उच्च प्राणी निवास करते हैं , दानशील प्राणी रहते हैं , दुसरों का उपकार करने वाले प्राणी रहते हैं । हमारा यह मस्तिष्क ज्ञान का भंडार है, यह मस्तिष्क ज्ञान को बांटने का कार्य करता है , ज्ञान का दान करता है ,इसलिए हमारे शरीर में यह द्युलोक का ही प्रतिरूप है ।
इस लिए हे प्रभु ! मेरे शरीर के इन तीनो लोको को प्रशस्त करिए , उन्नत करिये, समृद्ध करिए ।
मन्त्र के दूसरे भाग में उपदेश इस प्रकार किया गया है कि मेरे शरीर का जो भाग ज्ञान का केंद्र माना गया है , उसे आप ने मस्तिष्क का नाम दिया है । हे प्रभु ! आप की व्यवस्था के अनुसार सब प्रकार के ज्ञान का केंद्र मस्तिष्क होता ई । इस में उत्तम ज्ञान की सरितायें भी बह सकती हैं तथा हानिप्रद ज्ञान भी इस में भर सकता है । किन्तु प्रभु हमें किसी प्रकार की हांनि न हो , हम किसी की हांनि भी न करें । इस लिए हमारे मस्तिष्क में अत्यंत विस्तृत तथा उत्तम प्रकार के ज्ञान का भण्डार भर दो ।
हे प्रभु ! मेरे ह्रदय रुपि भूमि को आप् भरपूर उर्वरक शक्ति दें । इसे इतना उर्वरक बना दो कि इस में निरसता तो कभी दिखाई ही न दे । यह क्षेत्र स्नेह की भावनाओं से भरपूर उर्वरक कर दो । इस में सदा स्नेह की नदियां बहती रहें ।
प्रभो ! शरीर की शक्ति का सम्बन्ध वीर्य से होता है । इस शरीर को इतना वीर्यवान बना दीजिये कि इस शरीर में यह वीर्य शक्ति समीपता बनाए रखे । इस वीर्य शक्ति का , इस सोम शक्ति का मेरे अन्दर रक्षण करें ।
इस प्रकार मेरे शरीर के तीनों लोक (1) मस्तिष्क ज्ञान का केंद्र हो, (2) ह्रदय में स्नेह भरा हो तथा (3) शरीर वीर्य का ,शक्ति का, सोम का उत्पति स्थल बना रहे ।
हम अपने शरीर के तीनों अंगो से अर्थात मस्तिष्क, हृदय तथा शरीर से सदा प्रभु के स्मरण में, प्रभु स्तुति में, प्रभु स्तवन में लगे रहें । इसलिए हमारा हृदय प्रभु के सच्चे प्रेम से, शरीर प्रभु की दी हुई शक्ति से तथा मस्तिष्क प्रभु के दिए ज्ञान से सदा भरा रहे । इस तथ्य को इस ऋचा के छ्ट्वें मन्त्र में इस प्रकार उपदेश किया गया है : –
असो च या न उर्वरादिमाम तन्वं 1 मामा ।
अथो तातस्य यच्छिर: सर्वा तारोमशा कृधि ।।ऋ ग्वेद 8.91.6।।
मन्त्र बता रहा है कि हे पिता ! हमारी यह जो हृदयस्थली है, यह भरपूर उर्वरक है । विगत मन्त्र में जो बताया गया था कि यह ह्रदय स्थली प्रेम के भावों के लिए अत्यधिक उपजाऊ है , इस में प्रेम का प्रवाह सदा बहता ही रहता है । इस उर्वरक ह्रदय को तथा सब प्रकार के विस्तृत ज्ञान के भण्डार मेरे शिर को अर्थात मेरी सब शक्तियों , ज्ञान, भूमि व शक्ति आदि को प्रभु स्मरण में निवास करने वाला, प्रभु की स्तुति रूप उपासना करने का केंद्र बनाये रखें । हमारे शरीर के प्रत्येक अंग से सदा प्रभु चिंतन हो प्रभु का स्मरण हो ।
प्रभु उपासक को दीप्त कर तेजस्वी बनाते हैं
परम पिता परमात्मा अपने उपासको पर सदा दया करता है । वह अपने उपासक को उसके शरिर ,उसकि इन्दियों तथा उसको मन से दोश्र्हित कर, निर्दोश्कर दिप्त जिवन्वाला, प्रकाशित जीवन से भरपूर बनाते हैं । इस से प्रभु क यह उपासक सुर्य के समान तेजस्वी हो जाता है । इस तथ्य को वेद की इस रिच के इस अन्तिम मन्त्र मे इसप्रकार उपदेश किया गया है : –
खे रथस्य खे॓ नस: खे युगस्य शःशतक्रतो ।
अपालामिन्द्र त्रिश्पूत्व्यक्रिणो: सूर्यत्वचम ॥ रिग्वेद ८.९१.७ ॥
यदि हम शरीर को एक रथ मानें तो इसके छिद्र में प्राणमय कोश के , इन्द्रियों के छिद्र में तथा जो इन्द्र्यों व आत्मा को मिलाने वाला जो मन है ( क्योंकि मन के द्वार ही आत्मा तथा इन्द्रियों क सम्पर्क होता है ) अत: हे अनेक प्रकार के ग्यनों से भर्पुर अर्थात कभी न समाप्त होने वाले प्रग्यान वाले तथा असीमित शक्ति से युक्त , सब प्रकार के एशवर्यों से युक्त , प्र्मैश्वर्य्से सम्पन्न पिता ! सब दोशों को सुदूर वारण करने वाली , दूर करने वाली शरीर , इन्द्रियों व मन से अर्थात तीन बार पवित्र करके तुने सुर्य की त्वचा वला अर्थात तेजस्वी व प्रकाशित कर दिया है तथा इन्हें मन के छिद्र में भर दिया है ।
यह मन्त्र इस सुक्त का अन्तिम मन्त्र होने के कारण पूर्ण सुक्त का निचोड अपने में समेटे है । इस पूर्ण सूक्त में यह बताया गया है कि हम शत्रुओं का वारण करते हुये सोम को अपने शरीर में स्थापित करते हैं , जो प्रभु प्राप्ति का साधन बनेगा तथा हमें भी इन्द्र के समान शक्तिशाली बनावेगा । प्रभु के प्रकाश से हमारा शरीर रुपि घर चमक जाता है , इस में सोम का निवास होने से जीवन स्थिर शक्तिवाला, आनन्दमय हो कर मधुर व प्रभु स्मरण वाला बनता है । विश्य़ी व्यक्ति सामान्यतया प्रभु स्मरण से दूर रहता है प्रभु को जानने की कामना से हम सोम को सुरक्शित करते हैं । सोम रक्शन से शक्ति बट कर वासना रर्हित होती है , जिससे प्रशस्त वसुओं की प्राप्ति होती है । मेरे त्रिलोकी इस शरीर को उत्क्रिश्ट बनावें मस्तिश्क विशाल ग्यान के प्रकाश का आधार,ह्रिदय प्रेम की भावना से उपजाउ तथा शरीर शक्ति का आधार हो । हम इन तीनों से प्रभु स्तवन करें । ह्रिदय प्रेम से, शरीर पिता की शक्ति से तथा मस्तिश्क उस पिता के ग्यान से भ्ररा रहे ।
डा अशोक आर्य

मानव प्रतिदिन दो काल प्रभु के समीप बैठने वाले बनें ।

डा.अशोक आर्य
मानव प्रतिदिन दो काल प्रभु के समीप बैठने वाले बनें । सम्पूर्ण दिन भर वृद्धि पूर्वक कर्मों को करते हुये , जो भी कार्य करें, उसे प्रभु चरणॊं में अर्पण करदें । प्रात:काल हम शक्ति की याचना करते हुये मांगें कि हम बुद्धि पूर्वक कर्मों को करने वाले बनें । इस बात को इस मन्त्र र्में इस प्रकार प्रकट किया गया है : –
उपत्वाग्नेदिवेदिवेदोषावस्तर्धियावयम्।
नमोभरन्तएमसि॥ ऋ01.1.7 ||
विगत मन्त्र में जो समर्पण का भाव प्रकट किया गया था , उसे ही यहां फिर से प्रकट किया गया है । मन्त्र कह रहा है कि हे अग्ने ! हे सब को आगे बढाने वाले प्रभो ! , सब कुछ प्राप्त कराने वाले प्रभो ! हम प्रतिदिन प्रात: व सायं के सन्धिकाल में आप के समीप बैठ कर आत्म निरीक्षण करते हैं । इस आत्म निरीक्षण में हम बुद्धि पूर्वक कर्मों के माध्यम से पूजा को प्राप्त होते हुये सर्वथा आपकी समीपता को प्राप्त होते हैं , आपकी समीपता प्राप्त करते हैं, आपके समीप आसन लगाते हैं अथवा आपके आसन के समीप बैठकर आप से दिशा निर्देश लेते हैं ।
मानव को प्रतिदिन प्रभु चरणों में जाना चाहिये । यह अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि : –
क ) प्रभु चरणों में जाने से मानव में पवित्रता की भावना का न केवल उदय ही होता है अपितु पवित्रता की भावना बनी भी रहती है ।
ख ) जब मानव प्रभु चरणॊं में बैठता है तो जहां उसमें पवित्रता की भावना का उदय होता है , वहां उसमें शक्ति का भी संचार होता है, शक्ति भी उसके अन्दर उद्वेलित होने लगती है ।
ग ) मानव जीवन में जिसने भी धन को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया, उसका जीवन लडाई , झगडा, कलह , कलेषादि से भर जाता है । जब हम प्रभु चरणों में बैठते हैं तो हमें धन की लालसा नहीं रहती । इस प्रकार हमारे जीवन का उद्देश्य धन नहीं निकट बन पाता । जब धन की इच्छा ही नहीं है तो हमारा पारस्परिक प्रेम भी नष्ट न हो कर बना रहता है ।
जिस प्रकार मानव को जीवन के लिए भोजन आवश्यक होता है , जिस प्रकार मस्तिष्क को बलिष्ट बनाए रखने के लिये नियमित स्वाध्याय आवश्यक होता है , उस प्रकार ही हृदय की शुद्धि के लिये दैनिक प्रभु के समीप जाना भी , दैनिक ध्यान भी , प्रभू प्रार्थना भी आवश्यक होते हैं । यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन प्रभु के निकट बैठकर उस का ध्यान करता है , उसकी आराधना करता है , उसका स्मरण करता है , प्रार्थना रूप उपासना करता है, उपासना करता है तो उसे कभी कोई कष्ट, कोई दुःख ,
कोई क्लेश आ ही नहिंसकता | वह धन धान्य से परिपूर्ण रहते हुए सब सुखों को प्राप्त होता है |
डा. अशोक आर्य

प्रभु को जानने की कामना से सोम रक्षण करें

ओउम
प्रभु को जानने की कामना से सोम रक्षण करें
डा अशोक आर्य
विषयों में उलझा मानव साधारण रुप में प्रभु को स्मरण नहीं करता । हम सदा प्रभु को जानने की इच्छा करते हुए इस उद्देश्य को पाने के लिए अपने शरीर में सदा सोम की रक्षा करें । इस तथ्य को ऋग्वेद के अष्टम मंडल की ऋचा संख्या 91 के मन्त्र संख्या तीन में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
आ चन त्वा चिकित्सामो$धि चन त्वा नेमसी ।
शनैरिव शनकैरिवेन्द्रायेन्दो परी स्रव।। ऋ ग्वेद .91.3 ।।
मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे प्रभो ! हम सदा आपको ही जानने की इच्छा करते हैं , आप को ही जानने की कामना करते हैं , आपको ही जानने की अभिलाषा राखते हैं । साधारणतया मानव इस संसार में आकर विषयों में एसा उलझता है कि वह आपको भुल जाता है । उसे स्मरण ही नहीं रहता की वह संसार में किस लिए आया था । इस कारण सांसारिक विषयों में फ़ंसा यह मानव आपको स्मरण नहीं करता, याद नहीं करता । यह सत्य भी है कि जब विषयों का पर्दा पड जाता है तो कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता । जब कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता तो सर्व श्रेष्ठ होने के कारण विषयों के इस परदे के कारण आप भी दिखायी नहीं देते । आप भी हमारी द्रष्टि से ओझल हो जाते हैं ।
मन्त्र के दूसरे भाग को स्पष्ट करते हुए मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे सोम ! तू उस परमपिता को प्राप्त कराने का मुख्य साधन है तथा हम प्रभु को पाने के अभिलाषी हैं । इसलिए तुम हमारे शरीर में धीरे धीरे रमण करो , आवो । अत: प्रभु की प्राप्ति के लिए धीरे धीरे ही हमारे शरीर में अपना स्थान बना कर स्थित होवो । इस प्रकार धीरे धीरे विस्तारित होते हुए हमारे सब अंग प्रत्यंगों में व्याप्त हो जावो । जब आप धीरे धीरे शान्ति पूर्वक हमारे शरीर में व्यापत होते हैं तो हमारा जीवन प्रकाश से भर जाता है , सब और प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है , यह शरीर प्रकाशमय बन जाता है, प्रकाश पुञ्ज बन जाता है । तब ही हम उस पिता के दर्शन करने में समर्थ होते हैं ।
इन्द्रियों को विषयों से विमुख करें
जब मानव सोमरस की रक्षा कर लेता है तो उस की शक्ति बढ जाती है । जब मानव सोम का पान करता है तो उसकी वासनायें भी नष्ट हो जाती हीं , वासनाओं को उसके पास आने का साहस ही नहीं होता । इससे उसे प्रशस्त वसुओ की प्राप्ति होती है । मानव को चाहिए की वह विषयों की और आमुख इन्द्रियों को इन्द्रियों से विमुख कर इन्हें प्रभुप्रवण करने का , प्रभु की और लगाने का यत्न करें ।इस तथ्य को इस ऋका के चोथे मन्त्र में बडे सुन्दर धंग से इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
कुविच्छकत्कुवित्करत्कुविन्नो वस्यसस्करत ।
कुवित्पतिद्विषो यतिरिन्द्रेण संगमामहै ।।ऋग्वेद 8.91. 4 ।।
मन्त्र कहता है कि जब हम अपने शरीर में सोम की रक्षा कर लेते हैं , सोम का रक्षण कर लेते हम तो वे प्रभु हमें शक्तिशाली बना देते हैं , शक्ति का भंडार हम में भर देते हैं । इस प्रकार हमें शक्तिशाली बना कर हमारे शत्रुओं को खूब वोषिप्त काटे हैं , परेशान करते हैं तथा इस प्रकार हमारी ख्याति खूब बढाते हैं , हमारी प्रशस्तीकराते हैं व हमें प्रशस्त कर हमें वसुओ से युक्त करते हैं , वसुओ वाला बनात हैं ।
मन्त्र आगे बता रहा है कि हमारी यह जो इन्द्रियां हैं , वह उस पिता की एसी पत्नी के सामान हैं , जो अपने पति के वश में नहीं होती । यह विषयों के अंतर्गत, विषयों के अभिभूत हो इधर उधर भटकती रह्ती हैं । हम अपने शरीर में व्याप्त इस सोम की सहायता से इन से जब युद्ध करते हैं तो यह निश्चय ही पराजित होती हैं । इस प्रकार पराजित हुई इन इन्द्रियों को हम प्रभु की प्रार्थना में लगा दें , प्रार्थना में अर्पित कर दें , प्रभु की संगत में लगा दें । मानव जीवन की यह ही सब से उत्कृष्ट साधना है कि वह अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करे , इन्हें विषयों से विमुक्त कर परमपिता प्रभु की और प्रेरित करे , प्रभु के चरणो में लगाने का यत्न करे , प्रभु प्रवण बनाए ।

डा अशोक आर्य