यज्ञकर्ता को उत्तम सन्तान, प्रशस्त जीवन तथा पवित्र धन

ओउम्
यज्ञकर्ता को उत्तम सन्तान, प्रशस्त जीवन तथा पवित्र धन
परमपिता प्रभु नित्य यज्ञ करने वालों को एसा पवित्र धन दे जो उसे वीर बनावे, उसे उत्तम सन्तान दे, उंचे जीवन वाला बनावे तथा यह धन चॊर आदि चुरा न सकें । इस तथ्य को इस ऋचा के इस पांचवें मन्त्र में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
दानोअग्नेधियारयिंसूवीरंस्वपत्यंसहस्यप्रशस्तम् ।
नयंयावातरतियातुमावान ॥ ऋग्वेद ७.१.५ ॥
विगत मन्त्र में यह प्रार्थना कि गयी थी कि हे प्रभो ! हम इस यज्ञ अग्नि के समीप बैठे परिजन यज्ञ की समाप्ति पर आप से प्रार्थना करते हैं कि आप हमें आगे से पवित्र कर्मों के कारण हमें अपार धन दीजिये । हमारे काम , क्रोध आदि दुष्ट शत्रुओं को यज्ञ दूर कर देता है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हे प्रभो हमें वह धन दीजिये , जो हमें वीर बनाता है , जो हमें उत्तम सन्तान वाला बनाता है , जिस धन की प्राप्ति हमने पवित्र साधनों से ही की है ।
१ हम उन्नति पथ पर रहें
मन्त्र हमें प्रथम सन्देश , प्रथम उपदेश दे रहा है कि हम उन्नति के पथ पर प्रशस्त रहें | हम ने यह जो यज्ञ किया है , यह यज्ञ हमें उन्नति की और ले जाने वाला हो | हम जो नित्य यज्ञ करते हैं , यह यज्ञ हमें निरंतर उन्नत करता रहे | हमारी उन्नति के मार्ग में कोई भी व्यवधान , कोई भी बाधा न आवे | हम निरंतर आगे और आगे बढ़ते ही चले जावें |
२ धन सम्पदा प्राप्त हो
मन्त्र के माध्यम से हम जो दूसरी प्राथना करते हैं , वह यह है कि हम अपार धन संपदाओं के स्वामी बनें | नित्य यज्ञ करने से सब के ह्रदय पवित्र होते हैं | पवित्र हृदयों वाले व्यक्ति पुरुषार्थी होते हैं | यह अत्यधिक मेहनत करके अपार धन प्राप्त कर स्वयं तो सुखी होते ही हैं , अन्यों के भरण पोषण में भी सहयोगी होते हैं | इस प्रकार यह यज्ञ हमारे लिए अपार धन सम्पदा प्राप्ति का साधन होता है |
३. हम पवित्र कर्म करें
मन्त्र आगे उपदेश कर रहा है कि हम पवित्र हृदयों के , हम शुद्ध हृदयों के स्वामी बनें | यज्ञ सदा स्वयं को शुद्ध करके किया जाता है | जब हम स्नानादि से अपने अन्दर और बाहर को शुद्ध पवित्र कर लेते हैं , तब ही यज्ञ करने के लिए आसन पर बैठते हैं | इस प्रकार शुद्ध हो कर जब हम शुद्ध भावना से , पवित्र भावना से यज्ञ करते हैं तो हमें इस यज्ञ के परिणाम भी पवित्र ही प्राप्त होते हैं तथा हम नित्य जो भी कर्म करते हैं , उनमें भी पवित्रता आ जाती है | इस प्रकार हमारे सब कर्म पवित्र होते हैं | हम पवित्र होते हैं | हमारे कर्म न केवल हमारे अपने लिए ही अपितु अन्यों के हित का भी ध्यान रख कर किये जाने के कारण पवित्रता से लबालब भरे रहते हैं | यह पवित्र कर्म ही पुरुषार्थ का साधन होने से हम अपार धनों के स्वामी बनते हैं |
४ हम वीर बनें
यज्ञ करते समय हमारे मानों में यह भावना भी रहती है कि हम अपने अन्दर और आहार दोनों प्रकार के शत्रुओं को पराजित करने में संपन्न हों | हम इस प्रकार की शक्ति प्राप्त करने के सदा इच्छुक रहते हैं | बाहरी शत्रुओं को पराजित करने के लिए शारीर का शक्तिशाली और पुष्ट होना आवश्यक होता है , जबकि आतंरिक शत्रु यथा काम,क्रोध , लोभ , मोह, अहंकार आदि हमारे अन्दर ही बैठे हुए हमें अन्दर से ही खोखला करने में लगे रहते हैं | यज्ञ हमें वीर बनाता है, हमें पुष्ट करता है , हमें पुरुषार्थी अनाकर अनेक धनों का स्वामी बनाता है | जिस से हम वीरता पूर्वक इन शत्रुओं को नष्ट करने में सफल होते हैं |
५. हम उतम संतानों वाले हों
प्रत्येक प्राणी की यह हार्दिक इच्छा होती है कि उसकी संतान उतम हो | वह चाहता है कि उसकी संतान सत्यमार्ग पर चलते हुए इस प्रकार इस प्रकार के उतम कार्य करे , जिस से उसका यश और कीर्ति दूर दूर तक जा सके | इस प्रकार की संतान यज्ञ की छत्रछाया के बिना संभव ही नहीं है | जहां नित्य प्रति यज्ञ होता है , वहां यज्ञ के प्राकृतिक गुण तो यज्ञकर्ता और उसके आसपास के निवासी लोगों को मिलते ही हैं किन्तु यज्ञ वेदी पर बैठे लोगों को कुछ विशेष लाभ भी मिलते हैं | इन लाभों में मुख्य रूप में जो लाभ माना जाता है , वह है शिष्टाचार | यज्ञ के आरम्भ से पूर्व ही शिष्टाचार का व्यवहार आरम्भ हो जाता है |
यज्ञ में किसे कैसे व्यवहार करना है ? , किस ने कहाँ व कैसे बैठना है ?, किस परिधान में बैठना है ?, किस प्रकार से यज्ञ की विभिन्न क्रियाएं करना है ?, बड़ों को कहाँ ओर कैसे बैठना है ?, छोटों को कहाँ और कैसे बैठना है ?, यह तो यज्ञ में साधारण शिष्टाचार की बातें हैं , जो यज्ञ कर्ता को आनी चाहियें | यह सब सिखाने की आवश्यकता नहीं होती | जहां यज्ञ होते रहते हैं , वहां के लोगों को स्वयमेव ही आ जाती हैं और जहाँ या जिस परिवार में प्रतिदिन दो काल यज्ञ होता है , वहां के बालक तो शिष्टाचार की इस परम्परा में पारंगत होते हैं |
यज्ञ की समाप्ति पर एक विशेष प्रकार के शिष्टाचार की परम्परा भी है | यज्ञ करते हुए हम परमपिता की गोदी में बैठ कर उस प्रभु का आशीर्वाद पाने का यत्न कर रहे थे | प्रभु की गोदी में छोटे बड़े सब समान रूप से बैठे थे | पिता का सब को समान रूप से आशीर्वाद मिल रहा था | यज्ञ की समाप्ति पर हम सांसारिक लोक में आते हैं और अब सांसारिक संबंधों के आधार पर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं | इस अभिवादन के क्रम में आयु व सम्बन्ध में छोटे लोग अपने बड़े लोगों का अभिवादन करते हैं | उन बड़ों के पाँव छू कर उनका स्नेह माँगते हैं | बड़े अथवा सम्बन्ध में बड़े लोग ही उनके कार्यों पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन सब को समान रूप से अपना आशीर्वाद देते हैं | इस प्रकार परस्पर स्नेह के साथ प्रसन्नता का वातावरण बनता है तथा सब एक दूसरे के लिए शुभ की अभिलाषा करते हैं |
बालक जो देखता है , सदा उसका ही अनुसरण करता है | प्रतिदिन यज्ञ करते हुए वह अनेक उतम व्यवस्थाओं को देखते हुए उन सब का अनुसरण करता है | अत: वह भी उतम कार्यों की और अपने को अग्रसर करता है | इस प्रकार प्रतिदिन के यज्ञ से हमारी संतानों में भी उतमता का आघान होता है | अत: उतम संतान की प्राप्ति का साधन भी यह यज्ञ ही है |
७. पवित्र धन की प्राप्ति
हम यह सब कुछ प्राप्त करना चाहते हैं किन्तु उतम धन के बिना , पवित्र धन के व्यय के बिना यह सब संभव नहीं है | आज के भौतिक धन की प्राप्ति की दौड़ में हम धन की पवित्रता की आवश्यकता को भूल जाते हैं | इस का ही परिणाम है कि आज के इस अपवित्र धन के कारण समाज के लोगों के सुख नष्ट हो रहे हैं , शांति भाग रही है , कष्ट निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं | जहाँ माता पिता अपनी संतान से दु:खी हैं , वहां संतान भी अपने माता पिता के व्यवहार से बेहद दु:खी है | सब एक दूसरे को कोसते रहते हैं , निंदा करते रहते हैं | इस कारण एक दूसरे के प्रति कहीं कोई आदर सत्कार ही नहीं रहता है | इस का कारण है प्रतिदिन यज्ञ का अभाव |
यह यज्ञ ही है जो प्रतिदिन करने पर हमें सुपथ देता है , उतम धन की प्राप्ति करता है , पवित्र धन की हम पर वर्षा करता है , सब प्रकार के सुख – समृधि का कारण होता है | सब प्रकार कि खुशियों का कारण होता है | यज्ञ से जहाँ हमारा वायुमंडल साफ़ होता है , वहां हमारा अन्दर और बाहर पवित्र होने से हमें सत्यनिष्ठा, कर्तव्य परायणता, मृदुभाषा, उतम शिष्टाचार के गुण रूपी अनेक प्रकार के पवित्र धन दे कर हमें मालामाल कर देता है | इस प्रकार के पवित्र धन को पा कर हम खुशियों से झूम उठाते हैं |
इतना ही नहीं इस मन्त्र में एक ओर प्रार्थना भी की गयी है , जो इस मन्त्र का सब से मुख्य अंग कही जा सकती है , वह यह कि हे प्रभो ! हमें एसा पवित्र धन दीजिये जिसको हिंसा की भावना से युक्त होकर हम पर आक्र्मण करने वाले शत्रु भी हमारे से छीन न सकें । इस प्रकार के पवित्र धन का साधन यज्ञ ही होता है |

डा. अशोक आर्य

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *